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शुक्रवार, सितंबर 30, 2022

रोमाँचक यात्राएँ

मेरा सारा जीवन यात्राओं में बीत गया लेकिन अब लगता है कि जैसे इन पिछले ढ़ाई-तीन सालों में यात्रा करना ही भूल गया हूँ। जब आखिरी बार दिल्ली से इटली वापस लौटा था,  उस समय कोविड के वायरस के बारे में बातें शुरु हो रहीं थीं। उसके बाद ढाई साल तक इटली ही नहीं, अपने छोटे से शहर से भी बाहर नहीं निकला। पिछले कुछ महीनों में यहाँ आसपास कुछ यात्राएँ की हैं और अब पहली अंतर्राष्ट्रीय यात्रा की तैयारी कर रहा हूँ - अक्टूबर के प्रारम्भ में कुछ सप्ताह के लिए भारत वापस लौटूँगा, तो लम्बी यात्रा की सोच कर मन में कुछ घबराहट सी हो रही है।

सोचा कि आज अपने जीवन की कुछ न भूल पाने वाली रोमाँचकारी यात्राओं को याद करना चाहिये, जब सचमुच में डर और घबराहट का सामना करना पड़ा था (नीचे की तस्वीर में रूमझटार-नेपाल में एक रोमाँचक यात्रा में मेरे साथ हमारे गाईड कृष्णा जी हैं।)।



रोमाँचकारी बोलिविया यात्रा

अगर रोमाँचकारी यात्राओं की बात हो तो मेरे मन में सबसे पहला नाम दक्षिण अमरीकी देश बोलिविया का उभरता है। बोलिविया की राजधानी ला'पाज़ ऊँचे पहाड़ों पर बसी है। 1991 में जब वहाँ हवाई जहाज़ से उतरे तो हवाई अड्डे पर जगह-जगह लिखा था कि अगर चक्कर आयें या साँस लेने में दिक्कत हो या बेहोशी सी लगे तो तुरंत बैठ जायें और सिर को घुटनों के बीच में कर लें। तभी हमारे साथ का एक यात्री "चक्कर आ रहे हैं" कह कर वहीं ज़मीन पर लेट गया तो जी और भी घबराया। खैर मुझे ला'पाज़ में कुछ परेशानी नहीं हुई।

कुछ दिन बाद हम लोग छोटे से तीन सीट वाले हवाई जहाज़ से त्रिनीदाद शहर गये। वहाँ का हवाई अड्डा एक घास वाला मैदान था जहाँ पर गायें चर रही थीं। पायलेट साहब ने मैदान पर जहाज़ के चक्कर लगाये जब तक नीचे से कर्मचारियों ने गायों को हटाया। दो दिन बाद हम लोग वहाँ से ला'क्रूस जाने के लिए उसी मैदान में लौटे तो मूसलाधार बारिश हो रही थी। इस जहाज़ में दो ही सीटें थीं, तो मैं स्टूल पर पायलेट के पीछे बैठा। पायलट ने जहाज़ का इंजन चालू किया और चलने लगे, लेकिन बारिश इतनी थी कि जहाज़ हवा में उठ नहीं पाया। तब पायलेट ने जहाज़ को रोकने के लिए ब्रेक लगायी, तो भी एक पेड़ से टक्कर होते होते बची। उस ब्रेक में मेरा स्टूल भी नीचे से खिसक गया तो मैं नीचे गिर गया। चोट तो कुछ नहीं लगी लेकिन मन में डर बैठ गया कि शायद यहाँ से बच कर नहीं लौटेंगे। खैर पायलेट ने जहाज़ को घुमाया और फ़िर से उसको चलाने की कोशिश की, इस बात जहाज़ उठ गया। एक क्षण के लिए लगा कि वह पेड़ों से ऊपर नहीं जा पायेगा, लेकिन उनको छूते हुए ऊपर आ गया, तब जान में जान आयी (नीचे की तस्वीर में त्रिनिदाद शहर की बारिश में हमारा हवाई जहाज़)।



ला'क्रूस में हम लोगों को रिओ मादेएरा नाम की नदी के बीच में एक द्वीप पर बने स्वास्थ्य केन्द्र में जाना था। जाते हुए तो कुछ कठिनाई नहीं हुई। जब वापस चलने का समय आया तो अँधेरा होने लगा था। नदी का पानी बहुत वेग में था और बीच-बीच में पानी में तैरते हुए बड़े वृक्ष आ रहे थे। तब मालूम चला कि नाव की बत्ती खराब थी, अँधेरे में ही यात्रा करनी होगी। फ़िर नाव वाले ने बताया कि वहाँ नदी में पिरानिया मछलियाँ थीं जो माँस खाती हैं, इसलिए वहाँ पानी में हाथ नहीं डालना था। अँधेरे में नाव की उस आधे घँटे की यात्रा में दिल इतना धकधक किया कि पूछिये मत। डर था कि नाव किसी तैरते वृक्ष से टकरायेगी तो पानी में गिर जाऊँगा और अगर उसके वेग में न भी बहा तो पिरानिया मछलियाँ मेरे हाथों-पैरों के माँस को खा जायेंगी। मन में हनुमान चलीसा याद करते हुए वह यात्रा पूरी हुई।

उसके बाद में मैं बोलिविया दोबारा नहीं लौटा! तीस सालों के बाद भी मेरी यादों में वही यात्रा मेरे जीवन का सबसे रोमाँचकारी अनुभव है।

रोमाँचकारी नेपाल यात्रा

मैं नेपाल कई बार जा चुका था लेकिन 2006 की एक यात्रा विषेश रोमाँचकारी थी। उस यात्रा में हम लोग ऊँचे पहाड़ों के बीच ओखलढ़ुंगा जिले में गये थे, जहाँ से एवरेस्ट पहाड़ की चढ़ाई की लिए बेस कैम्प की ओर जाते हैं। रुमझाटार के हवाई अड्डे से ओखलढ़ुंगा शहर तक पैदल गये, तो पहाड़ की चढ़ाई में मेरा बुरा हाल हो गया। लेकिन असली दिक्कत तो लौटते समय समय हुई जब रुमझाटार में इतनी तेज़ हवा चल रही थी कि हमारा हवाई जहाज़ वहाँ उतर ही नहीं पाया। हमसे कहा गया कि हम अगले दिन लौटें, इसलिए रात को वहीं रुमझाटार के एक होटल में ठहरे (नीचे की तस्वीर में रूमझटार का एक रास्ता)।



वह इलाका माओवादियों के कब्ज़े में था। हालाँकि हम लोग जिस प्रोजेक्ट के लिए वहाँ गये थे, उसके लिए माओवादियों से अनुमति ली गयी थी, फ़िर भी कुछ डर था कि रात में माओवादी नवयुवक होटल पर हमला कर सकते थे। वैसा ही हुआ। लड़कों ने रात को मेरे दरवाज़े पर खूब हल्ला किया, लेकिन मैंने दरवाज़ा नहीं खोला। डर के मारे बिस्तर में दुबक कर बैठा रहा, सोच रहा था कि वह लोग दरवाज़ा तोड़ देंगे, लेकिन उन्होंने वह नहीं किया। करीब एक घँटे तक उनका हल्ला चलता रहा, फ़िर वे चले गये।

दूसरे दिन भी वह तेज़ हवा कम नहीं हुई थी तो हमारी उड़ान को एक दिन की देरी और हो गयी। दूसरी रात को कुछ परेशानी नहीं हुई। तीसरे दिन भी जब हवा कम नहीं हो रही थी तो मैं घबरा गया, क्योंकि मेरी काठमाँडू से वापस जाने वाली फ्लाईट के छूटने का डर था।

तो हमने एक हेलीकोप्टर बुलवाया। उस तेज़ हवा में जब वह हेलीकोप्टर ऊपर उठने लगा तो मुझे बोलिविया वाली उड़ान याद आ गयी। वह मेरी पहली हेलीकोप्टर यात्रा थी। खैर हम लोग सही सलामत वापस काठमाँडू वापस पहुँच गये।

रोमाँचकारी लंडन यात्रा

नब्बे के दशक में मैं अक्सर लंडन जाता था। हमारा आफिस हैमरस्मिथ में था, हमेशा वहीं के एक होटल में ठहरता था। वहाँ मेरी कोशिश रहती थी कि सुबह जल्दी उठ कर नाश्ते से पहले थेम्स नदी के आसपास सैर करके आऊँ, शहर का वह हिस्सा मुझे बहुत मनोरम लगता था (नीचे की तस्वीर में)।



वैसे ही एक बार मैं वहाँ गया तो शाम को पहुँचा। अगले दिन सुबह मेरी मीटिंग थी, मैं खाना खा कर सो गया। अगले दिन सुबह जल्दी नींद खुल गयी। तो मैंने टेबल लैम्प जलाया, सोचा कि नदी किनारे सैर के लिए जाऊँगा, इसलिए उठ कर बिजली की केतली में कॉफ़ी बनाने के लिए पानी गर्म करने के लिए लगाया और खिड़की खोली।

खिड़की खोलते ही बाहर देखा तो सन्न रह गया। बाहर चारों तरफ़ होटल की ओर बँदूके ताने हुए पुलिस के सिपाही खड़े थे। झट से मैंने खिड़की बन्द की, बत्ती बन्द की और वापस बिस्तर में घुस गया। एक क्षण के लिए सोचा कि बिस्तर के नीचे घुस जाऊँ, फ़िर सोचा कि अगर किस्मत में मरना ही लिखा है तो बिस्तर में मरना बेहतर है। करीब आधे घँटे के बाद कमरे के बाहर से लोगों की आवाज़ें आने लगीं, लोग आपस में बातें कर रहे थे। मैंने कमरे का दरवाज़ा हल्का सा खोला और बाहर झाँका तो हॉल पुलिस के आदमियों से भरा था, लेकिन अब उनके हाथों में बँदूकें नहीं थीं।

नहा-धो कर नीचे रेस्टोरैंट में गया तो वहाँ पुलिस वाले भी बैठ कर चाय-नाश्ता कर रहे थे। तब मालूम चला कि हमारे होटल में एक आतंकवादी ठहरा था, उसे पकड़ने के लिए वह पुलिसवाले आये थे। खुशकिस्मती से उस आतंकवादी ने पुलिस को आत्मसमर्पण कर दिया और बँदूक चलाने का मौका नहीं आया।

लंडन में ही एक और अन्य तरह की सुखद रोमाँचकारी याद भी जुड़ी है। मेरा ख्याल है कि वह बात 1995 या 96 की थी, जब वहाँ एक समारोह में मुझे प्रिन्सेज़ डयाना से मिलने का और बात करने का मौका मिला (नीचे की तस्वीर में)।



उनके अतिरिक्त, कई देशों में प्रधान मंत्री या राजघराने के लोगों से पहले भी मिला था और उनके बाद भी ऐसे कुछ मौके मिले, लेकिन उनसे मिल कर जो रोमाँच महसूस किया था, वह किसी अन्य प्रसिद्ध व्यक्ति से मिल कर नहीं हुआ। उस मुलाकात के कुछ महीनों बाद जब सुना कि उनकी एक एक्सीडैंट में मृत्यु हो गयी है तो मुझे बहुत धक्का लगा था।

रोमाँचकारी चीन यात्रा

यह बात 1989 की है। तब चीन में विदेशियों का आना बहुत कम होता था। उस समय मेरे चीनी मित्र सरकारी दमन के विरुद्ध दबे स्वर में तभी बोलते थे जब हम खेतों के बीच किसी खुली जगह पर होते थे और आसपास कोई सुनने वाला नहीं होता था। वह कहते थे कि सरकारी जासूस हर जगह होते हैं। एक डॉक्टर मित्र, जिनके पिता माओ के समय में प्रोफेसर थे और जिन्हें खेतों में काम करने भेजा गया था, ने कैम्प में बीते अपने जीवन की ऐसी बातें बतायीं थीं जिनको सुन कर बहुत डर लगा था।

28 मई को हम लोग कुनमिंग से बेजिंग आ रहे थे तो रास्ते में हमारे हवाई जहाज़ का एक इँजिन खराब हो गया। उस समय जहाज़ पहाड़ों के ऊपर से जा रहा था, जब नीचे जाने लगा तो लोग डर के मारे चिल्लाये। खैर, पायलेट उस जहाज़ की करीब के हवाई अड्डे पर एमरजैंसी लैंडिग कराने में सफल हुए। तब चीन में अंग्रेज़ी बोलने वाले कम थे। जहाज़ की एयर होस्टेज़ और हवाई अड्डे के कर्मचारी किसी को इतनी अंग्रेज़ी नहीं आती थी कि हमें बता सके कि हम लोग किस जगह पर उतरे थे और हमारी आगे की बेजिंग यात्रा का क्या होगा।

जब हम लोगों को बस में बिठा कर होटल ले जाया जा रहा था तो सड़कों को बहुत से लोग प्रदर्शन करते हुए और नारे लगाते हुए दिखे, लेकिन वह भी हम लोग समझ नहीं पाये कि क्या हुआ था। वहाँ लोगों को खुलेआम सरकार के विरुद्ध प्रदर्शन करते देखना बहुत अद्भुत लगा था। (नीचे की तस्वीर सियान शहर में बस की खिड़की से खींची थी जिसमें सड़क के किनारे बैठा एक परिवार है)



होटल पहुँच कर एक ताईवानी चीनी ने हमको सब कुछ बताया। उस शहर का नाम सियान था, वहाँ कुछ वर्ष पहले  दो हज़ार वर्ष पुराने चीनी सम्राट की कब्र मिली थीं जिसमें उनके साथ हज़ारों टेराकोटा मिट्टी के बने सैनिकों, पशुओं आदि को भी दफ़नाया गया था। हम लोग उस टेराकोटा की फौज के खुदाई स्थल को देखने गये तो रास्ते में और प्रदर्शन करने वाले दिखे। मालूम चला कि एक उदारवादी नेता हू याओबाँग की मृत्यु हो गयी थी और लोग, विषेशकर विद्यार्थी, जनताँत्रिक सुधारों के लिए प्रदर्शन कर रहे थे।

दूसरे दिन दोपहर को जब हमारे हवाई जहाज़ के इँजिन की मरम्मत हुई तो हम लोग शाम को बेजिंग पहुँचे। अगले दिन, एक जून को सुबह हमारी स्वास्थ्य मंत्रालय में मीटिंग थी, उस समय बारिश आ रही थी। मंत्रालय से हमें लेने कार आयी तो रास्ते में तिआन-आँ-मेन स्कावर्य के पास से गुज़रे। तब मंत्रालय के सज्जन ने हमे बताया कि वहाँ भी विद्यार्थी हड़ताल कर रहे थे। उस समय बारिश तेज़ थी, इसलिए हम लोग कार से नहीं उतरे, वहीं कार की खिड़की से ही मैंने कुछ विद्यार्थियों की एक-दो तस्वीरें खींची। बारिश में भीगते, ठँडी में ठिठुरते उन युवकों को देख कर वह प्रदर्शन कुछ विषेश महत्वपूर्ण नहीं लग रहा था।

उसी दिन रात को हम लोग बेजिंग से वापस इटली लौटे। मेरे पास केवल एक दिन का कपड़े और सूटकेस बदलने का समय था, तीन जून को मुझे अमरीका में फ्लोरिडा जाना था। चार तारीख को शाम को जब फ्लोरिडा के होटल में पहुँचा तो वहाँ टीवी पर बेजिंग के तिआन-आँ-मेन स्कावर्य में टैंकों की कतारों और मिलेट्री के प्रदर्शनकारी विद्यार्थियों पर हमले को देख कर सन्न रह गया। तब सोचा कि दुनिया ने बेजिंग में जो हो रहा था, केवल उसे देखा था, क्या जाने सियान जैसे शहरों में प्रदर्शन करने वाले नवजवानों पर क्या गुज़री होगी।

मैं उसके बाद भी चीन बहुत बार लौटा और उस देश को काया बदलते देखा है। मेरे बहुत से चीनी मित्र भी हैं, लेकिन उस पुराने चीन के डँडाराज को कभी नहीं भुला पाया।

अंत में

काम के लिए तीस-पैंतीस सालों तक मैंने इतनी यात्राएँ की हैं, कि अब यात्रा करने का मन नहीं करता। आजकल मेरी यात्राएँ अधिकतर भारत और इटली, इन दो देशों तक ही सीमित रहती हैं। बहुत से देशों की यात्राओं के बारे में मुझे कुछ भी याद नहीं, क्यों कि होटल और मीटिंग की जगह के अलावा वहाँ कुछ अन्य नहीं देख पाया था।

उन निरंतर यात्राओं से मैं पगला सा गया था। जैसे कि, नब्बे के दशक में एक बार मुझे भारत हो कर मँगोलिया जाना था। मैं दिल्ली पहुँचा तो हवाई अड्डे से सीधा आई.टी.ओ. के पास मीटिंग में गया और उसके समाप्त होने के बाद सीधा वहाँ से हवाई अड्डा लौटा और बेजिंग की उड़ान पकड़ी। दिल्ली में घर पर माँ को भी नहीं मालूम था कि मैं उस दिन दिल्ली में था और उनसे बिना मिले ही चला आया था। इसी तरह से एक बार मैं पश्चिमी अफ्रीका के देश ग्विनेआ बिसाऊ में था। रात को नींद खुली तो सोचने लगा कि मैं कौन से देश में था? बहुत सोचने के बाद भी मुझे जब याद नहीं आया कि वह कौन सा देश था तो होटल के कागज़ पर शहर का नाम खोजा। (नीचे की तस्वीर दक्षिण अमरीकी देश ग्याना की एक यात्रा से है।)

Sunil in Rupununi, near the Brazilian border, in Guyana


इसीलिए उन दिनों में जब कोई मुझे कहता कि कितने किस्मत वाले हो कि इतने सारे देश देख रहे हो, तो मन में थोड़ा सा गुस्सा आता था, लेकिन चुप रह जाता था। शायद यही वजह है कि कोविड की वजह से कहीं बाहर न निकल पाने, कोई लम्बी यात्रा न कर पाने का मुझे ज़रा भी दुख नहीं हुआ। अब ढाई साल के गृहवास के बाद भारत लौटने का सोच कर अच्छा लगता है क्योंकि परिवार व मित्रों से मिलने की इच्छा है।

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रविवार, अगस्त 21, 2022

अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा रिपोर्ट का घोटाला

गेट फाऊँन्डेशन, युनेस्को, युनिसेफ़, युएसएड जैसी संस्थाओं के नाम दुनिया भर में प्रसिद्ध हैं। युनेस्को और युनिसेफ़ तो संयुक्त राष्ट्र संघ की संस्थाएँ हैं। ऐसी संस्थाएँ जब कोई रिपोर्ट निकालती हैं तो हम उन पर तुरंत विश्वास कर लेते हैं।

लेकिन पिछले कुछ वर्षों में इन अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के प्रति कुछ संदेह जागे हैं। जैसे कि २०१९ के अंत में चीन में वुहान से कोविड की बीमारी निकली और दुनिया भर में फ़ैली तो विश्व स्वास्थ्य संस्थान ने जब इस महामारी की समय पर चेतावनी नहीं दी तो बहुत से लोगों ने इस संस्था की ओर उंगलियाँ उठायीं कि उन्होंने चीनी सरकार के रुष्ट होने के भय से दुनिया के देशों को समय पर महत्वपूर्ण जानकारी नहीं दी। ऐसी ही कुछ बात शिक्षा से जुड़ी एक नयी अंतर्राष्ट्रीय रिपोर्ट के बारे में भी उठायी गयी है जिसका विषय है प्राथमिक विद्यालयों के छात्रों में पढ़ायी की क्षमता। इस रिपोर्ट पर आरोप है कि उन्होंने इस रिपोर्ट में जान बूझ कर गलत आंकणों का प्रयोग किया है। यह आलेख इस रिपोर्ट और उस पर लगे आरोपों के बारे में है।


दो तरह की रिपोर्टें

कर्मा कोलोनियलिस्म की वेबसाईट पर साशा एलिसन ने प्रसिद्ध अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा छापी २०२२ की एक नयी रिपोर्ट "सीखने की गरीबी" (Global Learning Poverty Report, 2022) के बारे में लिखा है, जिसमें विभिन्न देशों में शिक्षा की स्थिति के बारे में चर्चा है। इन देशों में भारत भी है। इस रिपोर्ट को छापने वाली अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएँ हैं वर्ल्ड बैंक, युनिसेफ, युनेस्को, बिल गेटस फाऊन्डेशन तथा कुछ विकसित देशों की सहायता एजेन्सियाँ।

एलिसन ने अपने आलेख में दिखाया है कि यह संस्थाएँ दो तरह की रिपोर्टें छापती हैं। जब यह दिखाना हो कि इन संस्थाओं के कार्यक्रमों से लाभ पाने बच्चों का शिक्षा स्तर कितना सुधरा है तो यह सकारात्मक जानकारी देती हैं। जब जनता से और सरकारों से अपने कार्यक्रमों के लिए पैसे माँगने का समय आता है तो अचानक उन्हीं बच्चों के शिक्षा स्तर गिर जाते हैं। इसके लिए यह रिपोर्टें आंकणों को अपनी मनमर्ज़ी से गलत ढंग से बढ़ा-चढ़ा कर दिखाती हैं।

जैसे कि २०१५ में जब संयुक्त राष्ट्र के लिए मिल्लेनियम डेवेलेपमैंट गोलस् (सहस्राब्दी विकास लक्ष्य) में मिली सफलताओं की रिपोर्ट तैयार की गयी तो युनेस्को की रिपोर्ट में बच्चों की शिक्षा की रिपोर्ट बहुत सकरात्मक थी, क्योंकि उसमें दिखाना था कि सन् २००० से २०१५ तक के किये खर्चे से चलाये जाने वाले कार्यक्रमों से दुनिया में बच्चों को कितना लाभ हुआ।

एक साल बाद संयुक्त राष्ट्र ने सस्टेनेबल डेवलेपमैंट गोलस् के तहत २०३० तक के नये लक्ष्य निर्धारित किये, तो सभी संस्थाएँ अपने कार्यक्रमों के लिए पैसे जमा करने के लिए अफ्रीका और एशिया के विकासशील देशों की शिक्षा स्थिति के बारे में नकारात्मक रिपोर्ट दिखाने लगीं।

२०२२ की अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा रिपोर्ट

एलिसन स्वयं लाओस में शिक्षा के क्षेत्र में काम करते थे और जब उन्होंने "सीखने की गरीबी" रिपोर्ट में पढ़ा कि लाओस में स्कूल जाने वाले पाँचवीं कक्षा के ९७.६ प्रतिशत बच्चे ठीक से नहीं पढ़ सकते तो उन्हें शक हुआ कि यह गलत आंकणे लिये गये हैं। उन्होंने इस रिपोर्ट में शिक्षा के बारे में छपे आंकणों का विशलेषण किया है और दिखाया है कि इसमें अफ्रीका और एशिया के विकासशील देशों के बारें में जानबूझ कर गलत आंकणे लिए गये हैं। उदाहरण के लिए इस रिपोर्ट के हिसाब से एशिया के छः देशों में केवल ३७ प्रतिशत बच्चे सरल भाषा की किताब को पढ़ सकते हैं जबकि इसका सही आंकणा ८४ प्रतिशत होना चाहिये था।

रिपोर्ट के लिए गलत जानकारी देने के अतिरिक्त इस रिपोर्ट में आंकणों की एक अन्य समस्या है, कि अगर किसी देश से आंकणे न मिलें तो उसके आसपास के देशों के आंकणे ले कर उन सब देशों के औसत आंकणे बना लीजिये। जैसे कि रिपोर्ट में नाईजीरिया के आंकणे नहीं थे। जनसंख्या की दृष्टि से नाईजीरिया अफ्रीका का सबसे बड़ा देश है। इसलिए एलिसन कहते हैं कि आसपास के उससे दस गुना छोटे देशों की स्थिति के आधार पर इतने बड़े देश की स्थिति के बारे में "औसत आंकणे" दिखाना गलत है। लेकिन इस औसत आंकणों की बात को रिपोर्ट में स्पष्ट रूप में नहीं बताया गया है।

भारत में शिक्षा की स्थिति

भारत में बच्चों की शिक्षा से पायी समझ को मापने के लिए "आसेर" (Annual State of Education - ASER) के टेस्ट किये जाते हैं, इसमें देखा जाता कि पाँचवीं कक्षा के कितने प्रतिशत बच्चे दूसरी कक्षा की किताबों को पढ़ सकते हैं। भारत की स्वयंसेवी संस्था "प्रथम" इसको जाँचने के लिए देश के विभिन्न राज्यों में समय-समय पर सर्वे करती है। इसका आखिरी "आसेर" सर्वे २०१८ में किया गया, जिसकी रिपोर्ट २०१९ में निकली थी।

इस रिपोर्ट के अनुसार भारत में राष्ट्रीय स्तर पर करीब ४५ प्रतिशत पाँचवीं कक्षा के बच्चे दूसरी कक्षा की किताबों को आसानी से पढ़ सकते थे, जबकि बाकी के ५५ प्रतिशत बच्चों को वह किताबें पढ़ने में कठिनाई थी। विभिन्न राज्यों के स्थिति में बहुत अंतर था - एक ओर हिमाचल प्रदेश में ७५ प्रतिशत, केरल में ७३ प्रतिशत बच्चे पढ़ाई में सक्षम थे जबकि, दूसरी ओर झारखँड में केवल २९ प्रतिशत और असम में ३३ प्रतिशत बच्चे सक्षम थे। इस रिपोर्ट के अनुसार पिछले दस वर्षों में बच्चों की पढ़ने की सक्षमता बेहतर होने के बजाय कुछ कमज़ोर हुई है, जो चिंता की बात है। शिक्षा व्यवस्था राज्य सरकारों के आधीन है, इसलिए जिन राज्यों में स्थिति कमज़ोर है उन्हें इसे सुधारने में प्रयत्न करना चाहिये और "प्रथम" की रिपोर्ट पर ध्यान देना चाहिये।

२०२२ की "पढ़ाई की गरीबी" रिपोर्ट में भारत के बारे में कहा गया है कि ५६ प्रतिशत पाँचवीं के बच्चे दूसरी कक्षा की किताबों को पढ़ने में असमर्थ थे,जोकि ऊपर दी गयी "प्रथम" की सर्वे की रिपोर्ट के आंकणे से मिलता है।

अंत में

जब कोई अंतर्राष्टीय रिपोर्ट, विषेशकर जब उससे गेट फाऊँन्डेशन, युनेस्को, युनिसेफ़ युएसएड जैसे बड़े और प्रतिष्ठित नाम जुड़े हों तो हम उस पर तुरंत भरोसा कर लेता हैं क्योंकि हम सोचते हैं कि इतनी बड़ी संस्थाएँ अवश्य अच्छा काम ही करेंगी।

साशा एलिसन का आलेख दिखाता है कि कभी कभी ऊँची दुकान, फ़ीका पकवान वाली बात हो सकती है। यानि बड़े नामों पर भरोसा नहीं कर सकते और उनकी रिपोर्टों को आलोचनात्मक दृष्टि से परखना चाहिये।

अक्सर ऐसी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं में भारतीय विशेषज्ञ जुड़े होते हैं और भारत का राष्ट्रीय सर्वे संस्थान विभिन्न विषयों पर सर्वे करता रहता हैं इसलिए उनमें भारत सम्बंधी गलत जानकारी या आंकणें नहीं मिलने चाहिये, लेकिन फ़िर भी सावधानी बरतना आवश्यक है।


शनिवार, अगस्त 06, 2022

लम्बे कोविड के खतरे

टिप्पणी (२९ अगस्त २०२२)


पिछले कुछ महीनों (विषेशकर अप्रैल २०२२ के अंत के बाद से) से यूरोप, अमरीका आदि कुछ देशों में वर्ष के इस समय में होने वाली औसत मृत्यु दर से करीब दस से १२ प्रतिशत अधिक हो रही हैं। ईंग्लैंड और अमरीका दोनों देशों में मृत्यु के आकणें यह बढ़ी मत्यु दर दिखला रही हैं। कल (२८ अगस्त २०२२ को) स्कॉटलैंड की सरकार ने इस बात को स्वीकारा है। यह बढ़ी मृत्यु दर कोविड से होने वाली मृत्यु से अलग है। इनमें विषेशरूप से घर पर अचानक मरने वालों की संख्या अधिक है। चूँकि कोविड के वजह से पिछले दो वर्षों में बूढ़े और अन्य बिमारियों वाले बहुत से लोगों की मृत्यु हुई थी तो इस साल औसत मृत्यु दर में कमी आनी चाहिये थी, उसमें बढ़ौती का होना चिंताजनक है। वैज्ञानिकों को संदेह है कि शायद इन अधिक मृत्यु के पीछे कोचिड वैक्सीन का प्रभाव न हो इसलिए वैज्ञानिक कह रहे हें कि देशों के मृत्यु के आकणों, कारणों तथा आटोप्सी रिपोर्ट पर तुरंत शोध करना चाहिये। 

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लम्बे कोविड के खतरे


कोविड की बीमारी दो साल पहले, 2020 के प्रारम्भ में चीन से सारे विश्व में फ़ैली। चूँकि यह बीमारी चीन में 2019 में शुरु हुई, इसमें मरीज़ों को साँस लेने में कठिनाई होती थी और यह कोरोना वायरस से इन्फेक्शन से हुई थी इसे सार्स-कोविड-19 (Severe Acute Respiratory Syndrome - Corona Virus Disease) का नाम दिया गया। अब तक इस बीमारी से दुनियाँ में करोड़ों लोग प्रभावित हुए हैं और लाखों लोगों की मृत्यु हुई है। दुनिया में शायद ही कोई ऐसा देश हो जहाँ यह बीमारी न पहुँची हो।



अधिकाँश लोगों को जब यह बीमारी हुई तो उन्हें अधिक परेशानी नहीं हुई और वह जल्दी ठीक हो गये। करीब 2 प्रतिशत लोगों की तबियत अधिक बिगड़ी और उन्हें अस्पताल में भरती होना पड़ा। अस्पताल में भर्ती होने वाले लोगों में से करीब एक प्रतिशत लोग नहीं बचे, बाकी के लोग धीरे धीरे ठीक हो गये। बीमारी के प्रारम्भ में, जब इससे लड़ने के लिए वैक्सीन का आविष्कार नहीं हुआ था, बीमार होने वाले और मरने वाले अधिक थे। बहुत से देशों में इस बीमारी के लिए विषेश अस्पताल खोले गये। अधिकाँश देशों में 2020-21 में महीनों तक लॉक-डाउन रहे जिससे दुकानदारों, फैक्टरी वालों, स्कूल और कॉलेज के विद्यार्थियों, उद्योग चलाने वालों, रैस्टोरेंट वालों, कलाकारों, फ़िल्म वालों आदि सब पर गहरा नकारात्मक प्रभाव पड़ा।

जिन लोगों को यह कोविड की बीमारी हुई उनमें से कुछ लोगों में इस बीमारी का लम्बा प्रभाव पड़ा है, यानि वह इस बीमारी के बाद, कई महीनों या सालों तक ठीक नहीं हो पाये। इन लोगों की बीमारी को "लम्बे कोविड" (Long Covid) का नाम दिया गया है। कुछ दिन पहले, 28 जुलाई 2022 को, लम्बे कोविड के बारे में एक नया और महत्वपूर्ण शोध के परिणाम आये हैं जिनसे इस लम्बे कोविड की बीमारी और उसके शरीर पर होने वाले प्रभावों को समझने में मदद मिलती है। इस आलेख में कोविड का वायरस कैसे शरीर पर प्रभाव करता है और लम्बे कोविड की बीमारी से जुड़े इस शोध के परिणामों की चर्चा हैं।

लम्बे कोविड का शोध

इस शोध के लिए ईंग्लैंड में उन लोगों को चुना गया जिन्हें गम्भीर स्तर का कोविड का इन्फेक्शन हुआ था और बीमारी शुरु होने के २८ दिनों के बाद भी जिनकी तबियत पूरी तरह से नहीं सुधरी थी। इसमें कुल मिला कर तीन लाख छत्तीस हजार लोगों को लिया गया। इन लोगों को स्मार्ट फोन का एक एप्प दिया गया और उनसे नियमित रूप से स्वास्थ्य सम्बंधी जानकारी इकट्ठी की गयी। इसके अधिकतर शोधकर्ता लँडन के किन्गस कॉलेज से जुड़े थे।

कोविड का वायरस जो चीन में निकला, वह समय के साथ बदलता रहा है और उन बदलते हुए वायरसों को अलग अलग नाम दिये जाते हैं जैसे कि अल्फा, डेल्टा, आदि। इस शोध में उन सभी विभिन्न तरह से वायरसों से बीमार व्यक्तियों ने हिस्सा लिया।

जिन तीन लाख छत्तीस हज़ार रोगियों ने इसमें हिस्सा लिया, उनमें से एक हज़ार चार सौ उनसठ (1,459) रोगियों को "लम्बा कोविड" हुआ यानि उनकी बीमारी होने के तीन महीने बाद भी उनकी तबियत ठीक नहीं हुई थी। इसका अर्थ है कि इस शोध में हिस्सा लेने वाले हर 230 रोगियों में से एक व्यक्ति को लम्बा कोविड हुआ, जिससे मालूम चलता है कि गम्भीर कोविड होने वाले लोगों में से तकरीबन 0.4 प्रतिशत लोगों को लम्बा कोविड होने का खतरा हो सकता है।।

कोविड का शरीर पर असर

कोविड की बीमारी हमारे शरीर पर किस तरह से असर करती है, इसको जानने के लिए हमारे शरीर की आत्मरक्षा व्यवस्था (immunological system) को समझना ज़रूरी है।

जब हमारे शरीर में कोई भी बीमारी वाला किटाणु घुसता है तो हमारा शरीर उससे लड़ने की कोशिश करता है। बीमारी फैलाने वाले किटाणुओं से लड़ने वाली आत्मरक्षा की क्षमता को शरीर की इम्यूनुलोजिकल सिस्टम या शरीर-आत्मरक्षा व्यवस्था कहते हैं। हमारी यह आत्मरक्षा क्षमता मुख्यतः दो तरह की होती है - रक्त में घूमने वाली एँटीबॉडी (antobodies) और सुरक्षा-कोष (cellular immunity)।

एँटीबॉडी को शरीर की रक्त धमनियों में घूमने वाला सिपाही समझिये, जैसे ही किसी अनजाने किटाणु को देखता है, उसको पकड़ कर उससे लिपट जाता है और मदद के लिए चिल्लाता है, जिससे की मेक्रोफेज (macrophage) नाम के कोष वहाँ आ कर उन किटाणुओं को निगल जाते हैं और मार कर पचा लेते हैं।

अगर आप के शरीर ने उस किटाणु को पहले नहीं देखा, जब यह नया किटाणु शरीर में घुसता है तो एँटीबॉडी उनको पहचान नहीं पाती और इन किटाणुओं को शरीर में फ़ैलने का मौका मिल जाता है। तो इन्हें रोकने की ज़िम्मेदारी सुरक्षा कोषों पर आती है, इनका काम है नये किटाणुओं को पहचानना, लड़ना और उनसे लड़ने के लिए नये तरीके की एँटीबॉडी बनवाना। इस काम में थोड़ी देर लगती है और तब तक बीमारी शरीर में फैलती रहती है।

वैज्ञानिक कुछ घातक किटाणुओं जिनसे जानलेवा या गम्भीर बीमारी हो सकती है, उनसे बचने के लिए वैक्सीन बनाते हैं। वैक्सीन में मरे या अधमरे किटाणु, जिनसे बीमारी होने का खतरा नहीं हो, शरीर में टीके से या ड्रापस से भेजे जाते हैं, ताकि शरीर उनको पहचान कर उनसे लड़ने वाली एँटीबॉडी बनाने लगे। इस तरह से जब वह किटाणु आप के शरीर में घुसते हैं तो वे आप की आत्मरक्षा व्यव्स्था के लिए नये नहीं हैं और उनसे लड़ने वाली एँटीबोडी पहले से ही तैयार उनकी घात में बैठी हैं।

जब शरीर किसी किटाणु से लड़ता है, तो कई बार उस लड़ाई की वजह से भी शरीर पर कुछ दुष्प्रभाव हो सकते हैं, जैसे कि शरीर का तापमान बढ़ना। इसलिए जब शरीर में कोई भी इन्फेक्शन हो, बुखार आ जाता है।

कोविड के वायरस शरीर में साँस के साथ घुसते हैं और सबसे पहले फेफड़ों में फ़ैलते हैं। अगर शरीर में इन्हें तुरंत रोकने की शक्ति नहीं हो, तो इनकी संख्या में तेजी से बढ़ोतरी होती है। जब तक शरीर इन किटाणुओं से लड़ने के लिए एँटीबॉडी बनाता है तब तक कुछ लोगों के फेफड़ों में इतने किटाणु बन गये होते हैं कि जब एँटीबॉडी उन पर हमला करती हैं तो वहाँ पानी जमा हो सकता है या फेफड़ों की संकरी धमनियाँ उन किटाणु-एँटीबॉडी के गट्ठरों से बंद हो जाती हैं, जिनसे मरीजों को साँस लेने में कठिनाई होती है, उनके शरीर की आक्सीजन कम होने लगती है। इसके अतिरिक्त, फेफड़ों से किटाणु शरीर के अन्य भागों में जाते हैं और वायरस विभिन्न अंगों के कोषों को नुक्सान दे सकता है। यही सब बीमारी के लक्षण बन कर प्रकट होते हैं।

लम्बे कोविड के कारण

कोविड का वायरस फेफड़ों से घुस कर शरीर के विभिन्न हिस्सों में फ़ैल जाता है, और शरीर के महत्वपूर्ण अंगों के कोषों को नुकसान हो सकता है। अगर कोषों को नुकसान टेम्परेरी है जैसे कि उनमें स्वैलिंग आ जाती है, तो धीरे धीरे यह ठीक हो जाता है। लेकिन अगर महत्वपूर्ण अंगों के कोष बीमारी की वजह से मर जाते हैं तो अक्सर वह दोबारा ठीक नहीं होते।

जैसे कि हमारे दिमाग में विभिन्न गँधों को पहचानने वाले कोष होते हैं, जो अक्सर कोविड से प्रभावित होते हैं। अगर वह कोष बीमारी में मर जाते हैं तो हो सकता है कि उस व्यक्ति की सूँघने की शक्ति पूरी तरह से कभी नहीं लौटे। लम्बे कोविड से प्रभावित लोगों में पाया गया है कि उनके विभिन्न शरीर के हिस्सों में जैसे कि दिमाग में, दिल में, फेफड़ों मे, शरीर के कोषों को परमानैंट डेमेज हो गया है जिसकी वजह से वह ठीक नहीं हो पा रहे।

लम्बे कोविड के प्रभाव

इस शोध में लम्बे कोविड बीमारी होने वाले व्यक्तियों में तीन तरह के लक्षण पाये गये हैंः

(१) दिमाग और नसों से जुड़े लक्षण - जैसे कि सूँघने की क्षमता खोना, थकान होना, सोचने की शक्ति कमज़ोर होना, डिप्रेशन होना, सिरदर्द होना, आदि।

(२) हृदय और फेफड़ों से जुड़े लक्षण - जैसे कि साँस लेने में कठिनाई, हाँफना, जल्दी थक जाना, दिल की धड़कन बढ़ना, आदि।

(३) शरीर के अन्य अंगों से जुड़े लक्षण - जैसे कि बुखार रहना, गुर्दों की तकलीफ़ होना, जोड़ों में तकलीफ़ होना, आदि।

इस शोध में शामिल लम्बे कोविड से पीड़ित व्यक्तियों में उपर बताये लक्षणों में से सबसे अधिक लोगों को दिमाग तथा नसों से जुड़ी तकलीफ़ें पायी गयीं।

अंत में

कोविड की वैक्सीन के दुष्प्रभावों के बारे में भी बहुत चर्चा हुई हैं और यह दुष्प्रभाव अनेक शोधों में दिखाये गये हैं, लेकिन यह थोड़े ही लोगों में हुए हैं। कोविड की वैक्सीन की एक कमी यह भी है कि इसका असर थोड़े समय के लिए लगता है और वैक्सीन लगवाये कई लोगों को भी कोविड हुआ है। लेकिन विभिन्न शोध यह भी दिखाते हैं कि वैक्सीन लगवाये हुए लोगों को बीमारी कम गम्भीर हुई, उनमें से बहुत कम लोगों को अस्पताल में भर्ती होनी की ज़रूरत हुई और उनमें से इस बीमारी से बहुत कम लोग मरे।

मेरी राय में अगर आप को अभी तक कोविड नहीं हुआ है, या आप को मालूम नहीं कि आप को लक्षणविहीन कोविड हुआ या नहीं हुआ, तो कोविड की वैक्सीन लगवाना बेहतर है। अब हर दूसरे महीने इसके नये वेरिएन्ट वायरस निकल रहे हैं जिनसे यह बीमारी तेज़ी से फ़ैलती है लेकिन बहुत कम लोगों को अस्पताल में भर्ती होना पड़ता है, इसलिए सरकारों ने अब इसकी चिंता करना कम कर दिया है। इसका मतलब है कि अगले महीनों और वर्षों में यह बीमारी आम हो जायेगी, तो कोई भी इससे बच नहीं सकता। अगर आप ने अभी तक वैक्सीन नहीं लगवायी, तो हो सकता है कि आप खुशकिस्मत हो और कोविड होगा भी तो आप को नुक्सान नहीं पहुँचायेगा, लेकिन ऐसा कोई टेस्ट नहीं जो यह बता सके। बाकी तो अगर आप इस आलेख को पढ़ रहे हैं तो जाहिर है कि आप समझदार हैं।


बुधवार, मई 18, 2022

स्वास्थ्य विषय पर फ़िल्मों का समारोह

विश्व स्वास्थ्य संस्थान (विस्स) यानि वर्ल्ड हैल्थ ओरग्नाईज़ेशन (World Health Organisation - WHO) हर वर्ष स्वास्थ्य सम्बंधी विषयों पर बनी फ़िल्मों का समारोह आयोजित करता है, जिनमें से सर्व श्रेष्ठ फ़िल्मों को मई में वार्षिक विश्व स्वास्थ्य सभा के दौरान पुरस्कृत किया जाता है। विस्स की ओर से जनसामान्य को आमंत्रित किया जाता है कि वह इन फ़िल्मों को देखे और अपनी मनपसंद फ़िल्मों पर अपनी राय अभिव्यक्त करे। सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म चुनने वाली उनकी जूरी इस जन-वोट को भी ध्यान में रखती है। आजकल इस वर्ष की फ़िल्मों को विस्स की यूट्यूब चैनल पर देखा जा सकता है। कुछ दिन पहले मैंने इस फैस्टिवल में तीन श्रेणियों में सम्मिलित की गयी लघु फ़िल्मों को देखा। वह श्रेणियाँ थीं - स्वास्थ्य तथा नवोन्मेष (Innovation), पुनर्क्षमताप्राप्ति (Rehabilitation) तथा अतिलघु फ़िल्में। यह आलेख उनमें से मेरी मनपसंद फ़िल्मों के बारे में हैं।


स्वास्थ्य तथा नवोन्मेष विषय की फ़िल्में

स्वास्थ्य के बारे में सोचें कि उससे जुड़े नये उन्मेष (innovation) या नयी खोजें किस किस तरह की हो सकती हैं तो मेरे विचार में हम उनमें नयी तरह की दवाएँ या नयी चिकित्सा पद्धतियों को ले सकते हैं, नये तकनीकों तथा नये तकनीकी उपकरणों को भी ले सकते हैं, जनता को नये तरीकों से जानकारी दी जाये या किसी विषय के बारे में अनूठे तरीके से चेतना जगायी जाये जैसी बातें भी हो सकती हैं। इस दृष्टि से देखें तो मेरे विचार में इस श्रेणी की सम्मिलित फ़िल्मों में सचमुच का नयापन अधिक नहीं दिखा। इन सभी फ़िल्मों की लम्बाई पाँच से आठ मिनट के लगभग है।

एक फ़िल्म में आस्ट्रेलिया के एक भारतीय मूल के डॉक्टर की कहानी है (Equal Access) जिनका कार दुर्घटना में मेरूदँड (रीड़ की हड्डी) में चोट लगने से शरीर का निचले हिस्से को लकवा मार गया था। वह कुछ वैज्ञानिकों के साथ मिल कर विकलाँगों द्वारा उपयोग होने वाले नये उपकरणों के बारे में होने वाले प्रयोगों के बारे में बताते हैं जैसे कि साइबर जीवसत्य (virtual reality) का प्रयोग। इसमें नयी बात थी कि वैज्ञानिक यह प्रयोग प्रारम्भ से ही विकलाँग व्यक्तियों के साथ मिल कर रहे हैं जिससे वह उनके उपयोग से जुड़ी रुकावटों तथा कठिनाईयों को तुरंत समझ कर उसके उपाय खोज सकते हैं।

एक अन्य फ़िल्म (Malakit) में दक्षिण अमरीकी देश फ्राँसिसी ग्याना में सोने की खानों में काम करने वाले ब्राज़ीली मजदूरों में मलेरिया रोग की समस्या है। जँगल में जहाँ वह लोग सोना खोजते हैं, वहाँ स्वास्थ्य सेवाएँ नहीं हैं। वह मजदूर जब भी उन्हें बुखार हो, अपने आप ही बिना कुछ जाँच किये मलेरिया की दवा ले कर खा लेते हैं जिससे खतरा है कि मलेरिया की दवाएँ काम करना बन्द कर देंगी। इसलिए सरकार ने किट बनाये हैं जिससे लोग अपने आप यह टेस्ट करके देख सकते हैं कि उन्हें मलेरिया है या नहीं, और अगर टेस्ट पोसिटिव निकले तो उसमें मलेरिया का पूरा इलाज करने की दवा भी है। मजदूरों को यह किट मुफ्त बाँटे जाते हैं और मलेरिया का टेस्ट कैसे करें, तथा दवा कैसे लें, इसकी जानकारी भी उन्हें दी जाती है।

पश्चिमी अफ्रीकी देश आईवरी कोस्ट की एक फ़िल्म (A simple test for Cervical cancer) में वहाँ की डॉक्टर मेलानी का काम दिखाया गया है जिसमें वह एक आसान टेस्ट से औरतों में उनके गर्भाश्य के प्रारम्भिक भाग में होने वाले सर्वाईक्ल कैंसर (Cervical cancer) की जाँच करती हैं, और अगर यह टेस्ट पोसिटिव निकले तो उस स्त्री की और जाँच की जा सकती है।

मिस्र यानि इजिप्ट की एक फ़िल्म में विकलाँग बच्चों को कला के माध्यम से उनके विकास को प्रोत्साहन देने की बात है, तो फ्राँस की एक फ़िल्म में मानसिक रोगों से पीड़ित लोगों को पहाड़ पर चढ़ाई करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। नेपाल में एक सामुदायिक कार्यक्रम स्कूल जाने वाले किशोरों को मासिक माहवारी की जानकारी देता है, जबकि पश्चिमी अफ्रीकी देश सिएरा लिओने में पैर कटे हुए विकलाँग लोगों के लिए त्रिभुज छपाई (3D printing) से कृत्रिम पैर बनाने की बात है, जबकि तन्ज़ानिया में बच्चियों तथा लड़कियों को यौन अंगों की कटाई की प्रथा से बचाने की बात है।


मुझे लगा कि इन फ़िल्मों में सचमुच का नवोन्मेष थोड़ा सीमित था या पुरानी बातें ही थीं। नेपाल में मासिक माहवारी की जानकारी देना या तन्ज़ानियाँ में यौन कटाई की समस्या पर काम करना महत्वपूर्ण अवश्य हैं लेकिन यह कितने नये हैं इसमें मुझे संदेह है। सिएरा लिओने का कृत्रिम पैर नयी तकनीकी की बात है लेकिन उसमें भी उपकरण के एक हिस्से को बनाने की बात है, उसका बाकी का हिस्सा पुरानी तकनीकी से बनाया जा रहा है।

पुनर्क्षमताप्राप्ति चिकित्सा

पुनर्क्षमताप्राप्ति चिकित्सा(rehabilitation) के लिए अधिकतर लोग पुनर्निवासन शब्द का प्रयोग करते हैं जोकि मुझे गलत लगता है। पुनर्निवासन की बात उस समय से आती है जब विकलाँग व्यक्ति को रहने की जगह नहीं मिलती थी और उनके रहने के लिए विषेश संस्थान बनाये जाते थे। आजकल जब हम रिहेबिलिटेशन की बात करते हैं तो हम उन चिकित्सा, व्यायाम तथा उपकरणों की बात करते हैं जिनसे व्यक्ति अपने शरीर के कमजोर या भग्न कार्यक्षमता को दोबारा पाते हैं। इस चिकित्सा में फिजीयोथैरेपी (physiotherapy) यानि शारीरिक अंगों की चिकित्सा, आकूपेशनल थैरेपी (occupational therapy) यानि कार्यशक्ति को पाने की चिकित्सा जैसी बातें भी आती हैं। इसलिए मैं यहाँ पर पुनर्निवासन की जगह पर पूर्वक्षमताप्राप्ति शब्द का प्रयोग कर रहा हूँ। अगर किसी पाठक को इससे बेहतर कोई शब्द मालूम हो तो मुझे अवश्य बतायें।

पुनर्क्षमताप्राप्ति विषय की कुछ फ़िल्में मुझे अधिक अच्छी लगीं। यह फ़िल्में भी अधिकतर पाँच से आठ मिनट लम्बी थीं।

जैसे कि एक फ़िल्म (Pacing the Pool) में आस्ट्रेलिया के एक ६४ वर्षीय पुरुष बताते हैं कि बचपन से विकलाँगता से जूझने के बाद कैसे नियमित तैरने से वह अपनी विकलाँगता की कुछ चुनौतियों का सामना कर सके। दुनिया में वृद्ध लोगों की जनसंख्या में तेजी से बढ़ोतरी हो रही है और मुझे उस सबके लिए तैरना या चलना या अन्य तरह के व्यायाम नियमित रूप से करना बहुत महत्वपूर्ण लगता है।

इसके अतिरिक्त दो फ़िल्में कोविड से प्रभावित लोगों की बीमारी से ठीक होने के बाद लम्बे समय तक अन्य शारीरिक कठिनाईयों का समाना करने की बात है। नेपाल की एक फिल्म में (A Model One Stop) उन कठिनाईयों का अस्पताल में विभिन्न स्वास्थ्य विशेषज्ञों की सहायता से चिकित्सा करना दिखाया गया जबकि एक अमरीकी फ़िल्म (Long Haul) में पीड़ित व्यक्तियों का कमप्यूटर या मोबाइल फोन के माध्यम से नियमित मिलना, आपस में आपबीती सुनाना, एक दूसरे को सहारा देना जैसी बातें हैं। यह अमरीकी फ़िल्म मुझे बहुत अच्छी लगी और कोविड के शरीर पर किस तरह से लम्बे समय के लिए असर रह सकते हें इसकी कुछ नयी समझ भी मिली।

इंग्लैंड की एक फ़िल्म (Move Dance Feel) में कैसर से पीड़ित महिलाओं का हर सप्ताह दो घँटे के लिए मिलना और साथ में स्वतंत्र नृत्य करने का अनुभव है। ऐसा ही एक कार्यक्रम उत्तरी इटली में हमारे शहर में भी होता है, जिसमें महिला और पुरुष दोनों भाग लेते हैं। यह बूढ़े लोग, बीमार लोग, मानसिक रोग से पीड़ित लोग, आदि सबके लिए होता है, और सब लोग सप्ताह में एक बार मिल कर साथ में नृत्य का अभ्यास करते हैं।


इनके साथ कुछ अन्य फ़िल्में थीं जिनमें मुझे कुछ नया नहीं दिखा जैसे कि बँगलादेश की एक फ़िल्म में एक नवयुवती की कृत्रिम टाँग पाने से उसके जीवन में आये सुधार की कहानी है। ब्राजील की एक फिल्म में टेढ़े पाँव के साथ पैदा हुए एक बच्चे के इलाज की बात है। मिस्र से विकलाँग बच्चों का कला, संगीत आदि से उनके विकास को सशक्त करने की बात है।

अतिलघु फ़िल्में

यह फ़िल्में दो मिनट से छोटी हैं, इसलिए इनके विषय समझने में सरल हैं। एक फिल्म से कोविड से बचने के लिए मास्क तथा वेक्सीन का मह्तव दिखाया गया है तो कामेरून की एक फ़िल्म में एक स्थानीय अंतरलैंगिक संस्था की कोविड की वजह से एडस कार्यक्रम में होने वाली कठिनाईयों की बात है। दो फ़िल्मों में, एक मिस्र से और दूसरी किसी अफ्रीकी देश से, घरेलू पुरुष हिँसा के बारे में हैं। एक फ़िल्म में स्वस्थ्य रहने के लिए सही भोजन करने के बारे में बताया गया है, तो एक फ़िल्म में मानसिक रोगों से उबरने में व्यायाम के महत्व को दिखाया गया है।

मुझे इन सबमें से एक इजराईली फ़िल्म (Creating Connections) सबसे अच्छी लगी जिसमें मानसिक रोगियों को विवाह करने वाले मँगेतरों के लिए हस्तकला से अँगूठी बनाना सिखाते हैं जिससे रोगियों को प्रेमी युगलों से बातचीत करने का मौका मिलता है।


अंत में

अगर आप को लघु फिल्में देखना अच्छा लगता है और स्वास्थ्य विषय में दिलचस्पी है, तो मेरी सलाह है कि आप विस्स के फैस्टिवल में सम्मिलित फ़िल्मों को अवश्य देखें। सभी फ़िल्मों में अंग्रेजी के सबटाईटल हैं और फ़िल्म देखना निशुल्क हैं। सबटाइटल में फ़िल्म में लोग जो भी बोल रहे हों वह लिखा दिखता है, इसलिए शायद उन्हें हम हिंदी में "बोलीलिपि" कह सकते हैं। इसके बारे में अगर आप को इससे बेहतर शब्द मालूम हो मुझे बताइये।

अभी तक ऐसे सोफ्तवेयर जिनसे अंग्रेजी के सबटाईटल अपने आप हिंदी में अनुवाद हो कर दिखायी दें, यह सुविधा नहीं हुई है, जब वह हो जायेगी तो हम लोग किसी भी भाषा की फ़िल्म को देख कर अधिक आसानी से समझ सकेंगे। शायद कोई भारतीय नवयुवक या नवयुवती ही ऐसा कुछ आविष्कार करेगें जिससे अंग्रेजी न जानने वाले भी इन फ़िल्मों को ठीक से देख सकेंगे।

बुधवार, सितंबर 17, 2014

जीवन बदलने वाली शिक्षा

शिक्षा को जीवन की व्यवाहरिक आवश्यकताओं को पाने के माध्यम, विषेशकर नौकरी पाने के रास्ते के रूप मे देखा जाता है. यानि शिक्षा का उद्देश्य है लिखना, पढ़ना सीखना, जानकारी पाना, काम सीखना और जीवन यापन के लिए नौकरी पाना.

शिक्षा के कुछ अन्य उद्देश्य भी हैं जैसे अनुशासन सीखना, नैतिक मू्ल्य समझना, चरित्रवान व परिपक्व व्यक्तित्व बनाना आदि, लेकिन इन सब उद्देश्यों को आज शायद कम महत्वपूर्ण माना जाता है.

Paulo Freiere & Brazilian experiences - Images by Sunil Deepak, 2014

ब्राज़ील के शिक्षाविद् पाउलो फ्रेइरे (Paulo Freire) ने शिक्षा को पिछड़े व शोषित जन द्वारा सामाजिक विषमताओं से लड़ने तथा स्वतंत्रता प्राप्त करने के माध्यम की दृष्टि से देखा. इस आलेख में पाउले फ्रेइरे के विचारों के बारे में और उनसे जुड़े अपने कुछ व्यक्तिगत अनुभवों की बात करना चाहता हूँ.

पाउलो फ्रेइरे के विचारों से मेरा पहला परिचय 1988 के आसपास हुआ जब मैं पहली बार ब्राज़ील गया था. उस समय मेरा काम स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण से जुड़ा था, तब शिक्षण का मेरा सारा अनुभव लोगों को लैक्चर या भाषण देने का था, जिस तरह से मैंने स्वयं स्कूल और मेडिकल कोलिज में अपने शिक्षकों तथा प्रोफेसरों को पढ़ाते देखा था. ब्राज़ील में लोगों ने मुझे फ्रेइरे की व्यस्कों के लिए बनायी शिक्षा पद्धिति की बात बतायी जिसका सार था कि व्यस्कों की शिक्षा तभी सफल होती है जब वह उन लोगों के जीवन के अनुभवों से जुड़ी हो, जिसमें वे स्वयं निणर्य लें कि वह पढ़ना सीखना चाहते हैं, उनको भाषण देने से शिक्षा नहीं मिलती.

उन्हीं वर्षों में मुझे उत्तर पश्चिमी अफ्रीकी देश गिनी बिसाउ में कुछ काम करने का मौका भी मिला, जहाँ पर पाउलो फ्रेइरे ने भी कुछ वर्षों तक काम किया था. वहाँ भी उनके शिक्षा सम्बंधी विचारों को समझने का मौका मिला. तब से मैंने अपनी कार्यशैली में, स्वास्थ्य कर्मचारियों के प्रशिक्षण से ले कर सामाजिक शोध में फ्रेइरे के विचारों का उपयोग करना सीखा है.

पाउलो फ्रेइरे की क्राँतीकारी शिक्षा

फ्रेइरे ब्राज़ील में 1950-60 के दशक में पिछड़े वर्ग के गरीब अनपढ़ व्यस्कों को पढ़ना लिखना सिखाने के ब्राज़ील के राष्ट्रीय कार्यक्रम में काम करते थे. ब्राज़ील में तानाशाही सरकार आने से उनके काम को उस सरकार ने अपने अपने विरुद्ध एक खतरे की तरह देखा और उन्हें देशनिकाला दिया.

इस वजह से फ्रेइरे ने 1960-70 के दशक में बहुत वर्ष ब्राज़ील के बाहर स्विटज़रलैंड में जेनेवा शहर में बिताये. उन्होंने व्यस्क शिक्षा के अपने अनुभवों पर कई पुस्तकें लिखीं, जिन्होंने दुनिया भर के शिक्षाविषेशज्ञों को प्रभावित किया. फ्रेइरे का कहना था कि अपनी शिक्षा में व्यस्कों को सक्रिय हिस्सा लेना चाहिये और शिक्षा उनके परिवेश में उनकी समस्याओं से पूरी तरह जुड़ी होनी चाहिये.

Paulo Freiere & Brazilian experiences

उनका विचार था कि व्यस्क शिक्षा का उद्देश्य लिखना पढ़ना सीखने के साथ साथ समाज का आलोचनात्मक संज्ञाकरण है जिसमें गरीब व शोषित व्यक्तियों को अपने समाजों, परिवेशों, परिस्थितियों और उनके कारणों को समझने की शक्ति मिले ताकि वे अपने पिछड़ेपन और गरीबी के कारण समझे और उन कारणों से लड़ने के लिए सशक्त हों. इसके लिए उन्होंने कहा कि किसी भी समुदाय में पढ़ाने से पहले, शिक्षक को पहले वहाँ अनुशोध करना चाहिये और समझना चाहिये कि वहाँ के लोग किन शब्दों का प्रयोग करते हैं, उनकी क्या चिँताएँ हैं, वे क्या सोचते हैं, आदि. फ़िर शिक्षक को कोशिश करनी चाहिये कि उसकी शिक्षा उन्हीं शब्दों, चिताँओं आदि से जुड़ी हुई हो.

फ्रेइरे की शिक्षा पद्धति को सरल रूप में समझने के लिए हम एक उदाहरण देख सकते हैं. वर्णमाला का "क, ख, ग" पढ़ाते समय "स" से "सेब" नहीं बल्कि "सरकार" या "साहूकार" या "समाज" भी हो सकता है. इस तरह से "स" से बने शब्द को समझाने के लिए शिक्षक इस विषय से जुड़ी विभिन्न बातों पर वार्तालाप व बहस प्रारम्भ करता है जिसमें पढ़ने वालों को वर्णमाला सीखने के साथ साथ, अपनी सामाजिक परिस्थिति को समझने में भी मदद मिलती है - सरकार कैसे बनती है, कौन चुनाव में खड़ा होता है, क्यों हम वोट देते हैं, सरकार किस तरह से काम करती है, क्यों गरीब लोगों के लिए सरकार काम नहीं करती, इत्यादि. या फ़िर, क्यों साहूकार के पास जाना पड़ता है, किस तरह की ज़रूरते हैं हमारे जीवन में, किस तरह के ऋण की सुविधा होनी चाहिये, इत्यादि.

इस तरह वर्णमाला का हर वर्ण, पढ़ने वालों के लिए नये शब्द सीखने के साथ साथ, लिखना पढ़ना सीखने के साथ साथ, उनको अपनी परिस्थिति समझने का अवसर बन जाता है. फ्रेइरे मानते थे कि व्यस्क गरीबों का पढ़ना लिखना व्यक्तिगत कार्य नहीं सामुदायिक कार्य है, जिससे वह जल्दी सीखते हैं और साथ साथ उनकी आलोचनक संज्ञा का विकास होता है, ताकि वे अपने अधिकारों के लिए लड़ सकें.

फ्रेइरे के विचारों को दुनिया में बहुत गहरा प्रभाव पड़ा है, केवल व्यस्कों की शिक्षा पर नहीं बल्कि अन्य बहुत सी दिशाओं में भी. मैं इस सिलसिले में ब्राज़ील से सम्बंधित तीन छोटे छोटे अनुभवों के बारे में कहना चाहुँगा, जहाँ उनके कुछ विचारों को प्रतिदिन अभ्यास में लाया जाता है.

आशाघर की साँस्कृतिक लड़ाई

गोयास वेल्यो शहर, ब्राज़ील के मध्य भाग में गोयास राज्य की पुरानी राजधानी था. पुर्तगाली शासकों ने यहाँ रहने वाले मूल निवासियों को मार दिया या भगा दिया, और उनकी जगह अफ्रीका से लोगों को खेतों में काम करने के लिए दास बना कर लाया गया. इस तरह से गोयास वेल्यो में आज ब्राज़ील के मूल निवासियों, अफ्रीकी दासों की संतानों तथा यूरोपीय परिवारों के सम्मिश्रण से बने विभिन्न रंगों व जातियों के लोग मिलते हैं.

जैसे भारत में गोरे रंग के प्रति आदर व प्रेम की भावनाएँ तथा त्वचा के काले रंग के प्रति हीन भावना मिलती हैं, ब्राज़ील में भी कुछ वैसा ही है ‍‌- वहाँ का समाज यूरोपीय मूल के सुनहरे बालों और गोरे चेहरों को अधिक महत्व देता है तथा अफ्रीकी या ब्राज़ील की जनजातियों को हीन मानता है.

इस तरह की सोच का विरोध करने के लिए तथा बच्चों को अफ्रीकी व मूल ब्राज़ीली जनजाति सभ्यता के प्रति गर्व सिखाने के लिए, मेक्स और उसके कुछ साथियों ने मिल कर "विल्ला स्पेरान्सा" (Vila Esperanca) यानि आशाघर नाम का संस्थान बनाया. आशाघर में स्थानीय प्राथमिक व माध्यमिक विद्यालयों के बच्चों को पौशाकें, संगीत, नृत्य, गीत, कहानियाँ, भोजन, आदि के माध्यम से अफ्रीकी व मूल ब्राज़ीली संस्कृतियों के बारे में बताया जाता है और इस साँस्कृतिक धरोहर को सुरक्षित रखने के प्रति प्रेरित किया जाता है.

आशाघर में काम करने वाले आरोल्दो ने मुझे बताया कि "मैं यहीं पर खेल कर बड़ा हुआ हूँ और आशाघर की सोच अच्छी तरह समझता हूँ. मेरे मन में भी अपने रंग और अफ्रीकी मूल के नाक नक्क्षे के प्रति हीन भावना थी. यह तो बहुत से स्कूल सिखाते हैं कि सब मानव बराबर हैं, ऊँच नीच की सोच ठीक नहीं है, लेकिन वे केवल बाते हैं, लोग कहते हैं लेकिन उससे हमारी सोच नहीं बदलती. यहाँ आशाघर में हम कहते नहीं करते हैं, जब अन्य संस्कृतियों का व्यक्तिगत अनुभव होगा, उनके नृत्य व संगीत सीख कर, उनके वस्त्र पहन कर, उनकी कथाएँ सुन कर, वह भीतर से हमारी सोच बदल देता है."

Paulo Freiere & Brazilian experiences - Images by Sunil Deepak, 2014

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प्रश्नों का विद्यालय

आशाघर के पास ही एक प्राथमिक विद्यालय भी है जहाँ पर बच्चों को पाउलो फ्रेइरे के विचारों पर आधारित शिक्षा दी जाती है. इस शिक्षा का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है कि बच्चों को हर बात को प्रश्न पूछ कर अपने आप समझने की शिक्षा दी जाये. इस विद्यालय की कक्षाओं में बच्चों को कुछ भी रटने की आवश्यकता नहीं, बल्कि सभी विषय प्रश्न-उत्तर के माध्यम से बच्चे स्वयं पढ़ें व समझें.

बच्चा कुछ भी सोचे और कहे, उसे बहुत गम्भीरता से लिया जाता है. बच्चे केवल स्कूल की कक्षा में नहीं पढ़ते बल्कि उन्हें प्रकृति के माध्यम से भी पढ़ने सीखने का मौका मिलता है. स्कूल की कक्षाओं में एक शिक्षक के साथ बच्चे अधिक नहीं होते हैं, केवल आठ या दस, ताकि हर बच्चे को शिक्षक ध्यान दे सके.

सुश्री रोज़आँजेला जो इस प्राथमिक विद्यालय की मुख्याध्यापिका हैं ने मुझे कहा कि, "हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे दुनिया बदल दें, उनमें इतना आत्मविश्वास हो कि किसी भी बात के बारे में पूछने समझने से वे नहीं झिकझिकाएँ. जब माध्यमिक स्कूल के शिक्षक मुझे कहते हैं कि हमारे स्कूल से निकले बच्चे बहस करते हैं और प्रश्न बहुत पूछते हैं और हर बात के बारे में अपनी राय बताते हैं, तो मुझे बहुत अच्छा लगता है."

Paulo Freiere & Brazilian experiences - Images by Sunil Deepak, 2014

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कृषि विद्यालय का अनुभव

शिक्षा का तीसरा अनुभव ब्राज़ील के तोकान्चिन राज्य के "पोर्तो नास्योनाल" (Porto Nacional) नाम के शहर से है. पाउलो फ्रेइरे के पुराने साथी डा. एडूआर्दो मानज़ानो (Dr Eduardo Manzano) ने यहाँ 1980 के दशक में स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करना शुरु किया. फ़िर समय के साथ उनके इस काम में एक कृषि विद्यालय भी जुड़ गया.

यह कृषि विद्यालय सामान्य विद्यालयों जैसा है और प्राथमिक से ले कर हाई स्कूल तक की शिक्षा देता है. लेकिन इसकी एक खासयित यह भी है कि यहाँ के बच्चे अन्य विषयों के साथ साथ यह भी पढ़ते हैं कि कृषि कैसे करते हैं, मवेशियों का कैसे ख्याल किया जाना चाहिये, इत्यादि.

डा. मानज़ानो ने मुझे बताया कि, "हमारी शिक्षा पद्धिति ऐसी बन गयी है कि हमारे विद्यार्थी कृषि व किसानों को अनपढ़, गवाँर समझते हैं. किसान परिवारों से आने वाले बच्चे भी हमारे विद्यालयों में यही सीखते हैं कि अच्छा काम आफिस में होता है जबकि कृषि का काम घटिया है, उसमें सम्मान नहीं है. हम चाहते हैं कि किसान परिवारों से आने वाले बच्चे कृषि के महत्व को समझें, अच्छे किसान बने, किसान संस्कृति और सोच का सम्मान करें. हमारा स्कूल इस तरह से काम करता है कि बच्चों के मन में कृषि व कृषकों के प्रति समझ व सम्मान हों, वे अपने परिवारों व अपनी पारिवारिक संस्कृति से जुड़े रहें."

Paulo Freiere & Brazilian experiences - Images by Sunil Deepak, 2014

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निष्कर्श

पाउले फ्रेइरे के विचारों का दुनिया भर में ग्रामीण विकास, शिक्षा, मानव अधिकारों के लिए लड़ाईयाँ जैसे अनेक क्षेत्रों में बहुत गहरा असर पड़ा है. उनके विचार केवल तर्कों पर नहीं बने थे, उनका आधार रोज़मर्रा के जीवन के ठोस अनुभव थे.

भारत में भी शिक्षा के क्षेत्र में बहुत से सुन्दर व प्रशँसनीय अनुभव हैं जिनके बारे में मैंने पढ़ा है. पर भारत में सामान्य सरकारी विद्यालयों में और गाँवों के स्कूलों में शिक्षा की स्थिति अक्सर दयनीय ही रहती है. इस स्थिति को कैसे बदला जाये यह भारत के भविष्य के लिए चुनौती है.

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मंगलवार, मई 08, 2012

हवा में तैरती हुई हरी नदी


प्राचीन संसार के सात अजूबों में से एक अजूबा था बेबीलोन के झूलते बाग. यह सचमुच के बाग थे या मिथक यह कहना कठिन है क्योंकि इन बागों के बारे में कुछ प्राचीन लेखकों ने लिखा अवश्य है लेकिन इनका कोई पुरात्तव अवशेष नहीं मिल सका है. प्राचीन कहानियों के अनुसार इन बागों को आधुनिक ईराक के बाबिल जिले में ईसा से 600 सौ वर्ष पूर्व बेबीलोन के राजा नबुछडनेज़ार ने अपनी पत्नी के लिए बनवाया था, जिसमें राजभवन में विभिन्न स्तरों पर पत्थरों के ऊपर बाग बनवाये गये थे.

न्यू योर्क में सड़क से ऊँचे स्तर पर बनी पुरानी रेलगाड़ी की लाईन पर बाग बनाने की प्रेरणा शायद बेबीलोन के झूलते बागों से ही मिली थी.

न्यूयोर्क में मेनहेटन के पश्चिमी भाग के इस हिस्से में विभिन्न फैक्टरियाँ और उद्योगिक संस्थान थे, जिनके लिए 1847 में पहली वेस्ट रेलवे की लाईन बनायी गयी थी जो सड़क के स्तर पर थी. रेलगाड़ी से फैक्टरियों तथा उद्योगिक संस्थान अपने उत्पादन सीधा रेल के माध्यम से भेज सकते थे. लेकिन उस रेलवे लाईन की कठिनाई थी कि वह उन हिस्सों से गुज़रती थी जहाँ बहुत से लोग रहते थे, और आये दिन लोग रेल से कुचल कर मारे जाते थे. इतनी दुर्घटनाएँ होती थीं कि इस इलाके का नाम "डेथ एवेन्यू" (Death avenue) यानि "मृत्यू का मार्ग" हो गया था.

Highline park New York - old line

तब इन रेलगाड़ियों के सामने लाल झँडी लिए हुए घुड़सवार गार्ड चलते थे ताकि लोगों को रेल की चेतावानी दे कर सावधान कर सकें, जिन्हें "वेस्टसाईड काओबायज़" के नाम से बुलाते थे. (यह पुरानी तस्वीरें हाईलाईन की वेबसाईट से हैं.)

Highline park New York - cow boys

1929 में शहर की नगरपालिका ने यह निर्णय लिया कि यह रेलवे लाईन बहुत खतरनाक थी और दुर्घटनाओं को रोकने के लिए सड़क से उठ कर ऊपरी स्तर पर नयी रेल लाईन बनायी जाये. 1934 में यह नयी रेलवे लाईन तैयार हो गयी और इसने 1980 तक काम किया, हालाँकि इसके कुछ हिस्से तो 1960 में बन्द कर दिये गये थे.

फ़िर समय के साथ शहर में बदलाव आये और इस रेलवे लाईन के आसपास बनी फैक्टरियाँ और उद्योगिक संस्थान एक एक करके बन्द हो गये. बजाय रेल के अधिकतर सामान ट्रकों से जाने लगा. शहर का यह हिस्सा भद्दा और गन्दा माना जाता था. वहाँ अपराधी तथा नशे की वस्तुएँ बेचने वाले घूमते थे, इसलिए लोग शहर के इस भाग में रहना भी नहीं चाहते थे.

तब कुछ लोगों ने, जिन्होंने रेलवेलाईन के नीचे की ज़मीन खरीदी थी, नगरपालिका से कहा कि ऊपर बनी रेलवेलाईन को तोड़ दिया जाना चाहिये ताकि वे लोग उस जगह पर नयी ईमारते बना सकें.लेकिन 1999 में वहाँ आसपास रहने वाले लोगों ने न्यायालय में अर्जी दी कि रेलवे लाईन के बचे हुए हिस्से को शहर की साँस्कृतिक और इतिहासिक धरोहर के रूप में संभाल कर रखना चाहिये और तोड़ना नहीं चाहिये. 2003 में एक प्रतियोगिता का आयोजन किया गया कि पुरानी सड़क के स्तर से ऊँची उठी रेलवे लाईन का किस तरह से जनहित के लिए प्रयोग किया जाये. इस प्रतियोगिता में एक विचार यह भी था कि पुरानी रेलवे लाईन पर एक बाग बनाया जाये, जिसका कला और साँस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए प्रयोग किया जाये.

इस तरह से 2006 में हाईलाईन नाम के इस बाग का निर्माण शुरु हुआ. अब तक करीब 1.6 किलोमीटर तक की रेलवे लाईन को बाग में बदला जा चुका है. इसके कई हिस्सों में पुरानी रेल पटरियाँ दिखती हैं, जिनके आसपास पेड़ पौधै और घास लगाये गये हैं, साथ में सैर करने की जगह भी है. दसवीं एवेन्यू के साथ साथ बना यह बाग मेनहेटन के 14वें मार्ग से 30वें मार्ग तक चलता है. अगर आसपास के किसी गगनचुम्बी भवन से इसको देखें तो यह परानी रेलवे लाईन शहर के बीच तैरती हुई हरे रंग की नदी सी लगती है.

Highline park New York - S. Deepak, 2012

इस बाग की वजह से शहर के इस हिस्से की काया बदल गयी है. आसपास के घरों की कीमत बढ़ गयी और पुरानी फैक्टरियों को तोड़ कर उनके बदले में नये भवन बन रहे हैं. बाग दिन भर पर्यटकों से भरा रहता है.

इस बाग की कुछ तस्वीरें प्रस्तुत हैं.

Highline park New York - S. Deepak, 2012

Highline park New York - S. Deepak, 2012

Highline park New York - S. Deepak, 2012

Highline park New York - S. Deepak, 2012

Highline park New York - S. Deepak, 2012

Highline park New York - S. Deepak, 2012

Highline park New York - S. Deepak, 2012

जिस दिन मैं बाग देखने गया, वहाँ "लिलिपुट कला प्रदर्शनी" लगी थी जिसमें विभिन्न कलाकारों ने भाग लिया था. इस कला प्रदर्शनी की कुछ तस्वीरें प्रस्तुत हैं.

Highline park New York - S. Deepak, 2012

Highline park New York - S. Deepak, 2012

Highline park New York - S. Deepak, 2012

कुछ ऐसा ही स्पेन में वालैंसिया शहर में भी हुआ था. वहाँ तुरिया नदी शहर में हो कर गुज़रती थी. 1957 में नदी में बाढ़ आयी और शहर को बहुत नुकसान हुआ, तब यह निर्णय किया कि नदी का रास्ता बदल दिया जाये जिससे नदी शहर के बीच में से न बहे. शहर में जहाँ नदी बहती थी, वहाँ "तुरिया बाग" बनाया गया, जो शहर के स्तर से नीचा है. (नीचे तुरिया बाग की यह तस्वीर विला ज़समीन के वेबपृष्ठ से)

Turiya river park Valencia, Spain

जब नागरिक जागरूक हो कर अपने शहरों की प्राकृतिक, साँस्कृतिक और इतिहासिक सम्पदा को बचाने की ठान लेते हैं, तो उसमें सभी का फायदा है.

काश हमारे भारत में भी ऐसा हो. गँगा, जमुना, नर्मदा जैसी नदिया हों, प्रकृतिक सम्पदा से सुन्दर शिमला या मसूरी के पहाड़ हों या दिल्ली शहर के बीच में प्राचीन पहाड़ी, हर जगह खाने खोदने वाले, उद्योग लगाने वाले, प्राईवेट स्कूल चलाने वाले, मन्दिर, मस्जिद गुरुद्वारे बनवाने वाले, हाऊसिंग कोलोनियाँ बनवाने वालों के हमले जारी हैं, जिनके सामने राजनीति आसानी से बिक जाती है. इनकी रक्षा के लिए हम सब जागें, जनहित के लिए लड़ें, यह मेरी कामना है.

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सोमवार, जुलाई 11, 2011

सभ्यता का मूल्य

"संग्रहालय के मूल्य को केवल खर्चे और फायदे में मापना गलत है, उसकी कीमत को मापने के लिए उसके उद्देश्य को मापिये. उसका उद्देश्य है जनता को नागरिक बनाना." यह बात कह रहे थे रोम के वेटीकेन संग्रहालय के निर्देशक श्री अन्तोनियो पाउलूच्ची (Antonio Paolucci).

श्री पाउलूच्ची इन दो शब्दों, जनता और नागरिक, को विषेश अर्थ देते हैं. "जनता" यानि एक जगह पर रहने वाले लोग और "नागरिक" यानि वह लोग जो अपने अधिकारों और कर्तव्यों को समझते हैं, जिनके लिए जीवन में सभ्य होने का महत्व हो, जिनमें अपनी कला, संगीत, लेखन, शिल्प को जानने की समझ हो. लेकिन आज के भूमण्डलिकृत जगत में जहाँ पूँजीवाद के आदर्शों से स्वास्थ्य, शिक्षा, आदि जनकल्याण सेवाओं को मापते हैं, सभ्यता के मापदँड भी अधिकतर खर्चे और फायदे में गिने जाते हैं. उसे नागरिक अधिकार मानना कोई कोई विरला शहर ही कर पाता है, जैसे कि लंदन जहाँ सभी संग्रहालय मुफ्त हैं, अपनी कला और सभ्यता को जानने के लिए आप को कोई टिकट नहीं खरीदना पड़ता.

मैं श्री पाउलूच्ची की बात से सहमत हूँ कि अपनी कला, संस्कृति को बाज़ार के मापदँड से नहीं, सभ्यता के मादँड से तौलना चाहिये. पर यही काफ़ी नहीं. साथ ही, मुझे यह भी लगता है कि कला और सभ्यता की बातों को विषेशज्ञों के बनाये पिँजरों से बाहर निकाल कर जनसामान्य के लिए समझने लायक बनाया जाये. वह कहते हैं कि कला सँग्रहालयों को मैनेजरों की नहीं, कला को समझने वाले निर्देशकों की आवश्यकता है, जो नफ़े नुक्सान की बातों से ऊपर उठ सकें.

बदलते परिवेश में पर्यटक बदल गये हैं जिसके बारे में पाउलूच्ची कहते हैं, "आज कल चार्टर उड़ानों से अलग अलग देशों के बहुत से पर्यटकों के गुट आते हैं. उनके पास रोम घूमने के लिए एक ही दिन होता है, जिसमें से वह लोग एक डेढ़ घँटा वेटीकेन संग्रहालय को देखने के लिए रखते हैं. उनके पास संग्रहालय के अमूल्य चित्रों या शिल्पों की कोई कीमत नहीं, क्योंकि उनके पास कुछ देखने का समय नहीं है. उन्हें देखना होता है केवल सिस्टीन चेपल में माईकल एँजेलो की कलाकृति को. वह लोग संग्रहालय में भागते हुए घुसते हैं, सिस्टीन चेपल देख कर, सेंट पीटर के गिरजाघर की ओर भागते है. फ़िर कोलोसियम देखो, त्रेवी का फुव्वारा देखो, स्पेनी सीढ़ियाँ देखो, बस रोम हो गया. अब बारी है अगले शहर जाने की."

यह सच है कि विदेश घूमते हुए थोड़े दिनों की छुट्टियाँ होती हैं, रहने घूमने के खर्चे भी भारी होते हैं. तो बस यही चिन्ता रहती है कि कैसे जानी मानी प्रसिद्ध चीज़ें देखीं जायें. बाकी सबको देखना समझना मुमकिन नहीं होता. मेरे विचार में असली प्रश्न है कि जिन शहरों में हम रहते हैं क्या वहाँ के इतिहास को जानते समझते हैं, वहाँ के कला संग्रहालयों को देखने का समय होता है हमारे पास?

जब बात संग्रहालयों की हो रही हो तो कला और शिल्प को कैसे जाना और समझा जाये, इसकी बात करना उतना ही आवश्यक है. और मेरे विचार में इस बात को खर्चे और फायदे की बात करने वाले मैनेजरों ने भी समझा है, चाहे वह अपने स्वार्थवश ही समझा हो. यानि पैसे बनाने के लिए, कला और सभ्यता का भला करने के लिए नहीं.

बचपन में स्कूल के साथ कभी दिल्ली के कुछ संग्रहालयों को देखने का मौका मिला था, लेकिन सामने गुज़रने भर से क्या समझ में आता? कोई बताने समझाने वाला नहीं था. कुछ साल पहले एक बार इंडियागेट के पास पुरात्तव संग्रहालय में गया था लेकिन तब भी वहाँ संग्रहालय की विभिन्न कलाकृतियों को समझने के लिए कोई गाइड या किताब आदि नहीं थे. वहाँ जो कुछ देखा उसका हमारे समाज और संस्कृति के लिए क्या अर्थ था? हमारी संस्कृति में क्या स्थान था उस पुरात्तव इतिहास का, यह सब समझने की कोई जगह नहीं थी.

जब विभिन्न देशों में घूमने का मौका मिला तो भी शुरु शुरु में समझ नहीं थी कि कला, इतिहास या पुरात्तव को उसकी सन्दरता देखने के अतिरिक्त, और गहराई से जानना और समझना भी दिलचस्प हो सकता था. वाशिंगटन का आधुनिक कला का संग्रहालय, अमस्टरडाम का वान गोग संग्रहालय, लंदन की टेट गेलरी, जैसे जगहें देखीं पर तब बात वहीं तक जा कर रुक जाती थी कि कौन सी कलाकृति देखने में अच्छी लगती है.

फ़िर एक बार मेरे मन में कुछ आया और मैंने "खुले विश्वविद्यालय" के "कला को कैसे समझा जाये" के कोर्स में अपना नाम लिखवा लिया. इस कोर्स की कक्षाएँ रात को होती थी. दिन भर काम के बाद रात को कक्षा जाने में नींद बहुत आती थी. कई बार मैं कक्षा में ही सो गया. फिर भी, उस कोर्स का कुछ फ़ायदा हुआ. यह समझ आने लगी कि कला को समझने के लिए उसके कलाकार को और जिस परिवेश में उस कलाकार ने जिया और वह कृति बनायी, उसे समझना उतना ही आवश्यक है. समझ आने लगा कि संग्राहलय में जो देखो, उसकी सुन्दरता के साथ साथ, उसके बारे में भी जानो और समझो, तो संग्रहालयों से किताबे खरीदना प्रारम्भ किया.

पिछले दस वर्षों में इंटरनेट के माध्यम से संग्रहालय, कला और शिल्प को समझने के अन्य बहुत से रास्ते खुल गये हैं. जब भी किसी नये संग्रहालय में जाने का मौका मिलता है तो पहले उसके बारे में, वहाँ की प्रसिद्ध कलाकृतियों के बारे में पढ़ने की कोशिश करता हूँ. वहाँ जा कर जो कुछ अच्छा लगता है उसकी बहुत सी तस्वीरें खींचता हूँ. घर वापस आ कर, उन तस्वीरों के माध्यम से कलाकृतियों और कलाकारों के बारे में जानने की कोशिश करता हूँ. कई बार इस तरह से उन कलाकृतियों के बारे में मन में और जानने समझने की इच्छा जागती है तो वापस संग्रहालय जा कर उन्हें दोबारा देखने जाता हूँ.

शायद यही वजह है कि आजकल दुनिया के बहुत से आधुनिक संग्रहालयों में तस्वीर खींचने से कोई मना नहीं करता, बस फ्लैश का उपयोग निषेध होता है. पहले लोग सोचते थे कि संग्रहालय की हर वस्तु को गुप्त रखना चाहिये, तभी लोग आयेंगे. संग्रहालय चलाने वाले लोग सोचते थे कि अगर लोग तस्वीर खींच लेंगे तो उनके मित्र तस्वीरें देख कर ही खुश हो जायेंगे, संग्रहालय नहीं आयेंगे. इसलिए वहाँ फोटो खींचने की मनाई होती थी. तस्वीरें, कार्ड आदि कुछ भी हो, उसे आप केवल संग्रहालय की दुकान से मँहगा खरीद सकते थे.

आज के संग्रहालयों को समझ आ गया है कि जो लोग वहाँ घूमते हुए तस्वीरें खींचते हैं, वही लोग बाद में उन्हें फेसबुक, फिल्क्र, चिट्ठों आदि के द्वारा अपने मित्रों व अन्य लोगों में उस संग्रहालय का मुफ्त में विज्ञापन करते हैं. जितनी तस्वीरें अधिक खींची जाती हैं, उतना विज्ञापन अधिक होता है, और अधिक लोग वहाँ जाने लगते हैं.

पैसा कमाने के लिए संग्रहालयों को नये तरीके समझ में आये हैं, जैसे कि विभिन्न कलाकारों की कला को समझने के लिए उसके बारे में किताबें, पोस्टर, प्रिंट आदि और संग्रहालय में बने काफ़ी हाउस, बियर घर और रेस्टोरेंट.

यह सच है कि ग्रुप यात्रा में निकले लोगों के पास समय कम होता है, बस कुछ महत्वपूर्ण चीज़ों को ही देख सकते हैं. लेकिन मेरे विचार में ग्रुप यात्रा के बढ़ने के साथ साथ, दुनिया में कला को अधिक गहराई से समझने वाले भी बढ़ रहे हैं, जो अब इंटरनेट के माध्यम से कला और इतिहास को इस तरह समझ सकते हैं जैसे पहले मानव इतिहास में कभी संभव नहीं था.

इसका एक उदाहरण है दिल्ली के पुरात्तव संग्रहालय में मोहनजोदारो और हड़प्पा से मिली प्राचीन मुद्राएँ. जब उन्हें देखा था तो वह मुद्राएँ केवल छोटे मिट्टी के टुकड़े जैसी दिखी थीं, उनमें कुछ दिलचस्प भी हो सकता है, यह समझ नहीं आया था. आज टेड वीडियो पर प्रोफेसर राजेश राव का यह वीडियो देखिये. उन मुद्राओं को देख कर उन्हें समझने की उत्सुकता अपने आप बन जाती है.
 
कलाकार और उसके परिवेश को जानने से, उसकी कला को समझने की नयी दृष्टि मिलती है, इसका एक उदाहरण है श्री ओम थानवी द्वारा लिखा वान गोग की एक कलाकृति "तारों भरी रात" का विवरण. किसी संग्रहालय में वान गोग के चित्र देखने का मौका मिल रहा हो, तो पहले इसे पढ़ कर देखिये, कला को समझने की नयी दृष्टि मिल जायेगी.

पर इस तरह कला को देखने, समझने का जिस तरह का मौका आज अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बन गया है वैसा पहले कभी नहीं था, जिसका एक उदाहरण है गूगल द्वारा संग्रहालयों की प्रसिद्ध कलाकृतियों को देख पाना.

भारत में कला के बारे में, संग्रहालयों के बारे में कैसे जानकारी मिलेगी, यह अभी आसान नहीं हुआ है. भारत के कौन से प्रसिद्ध चित्रकार हैं, किसी अच्छे भले, पढ़े लिखे व्यक्ति से पूछिये तो भी आप को अमृता शेरगिल, मकबूल फिदा हुसैन आदि दो तीन नामों से अधिक नहीं बता पायेगा. हेब्बार, राम कुमार, बी प्रभा जैसे नाम कितनों को मालूम हैं? काँगड़ा और राजस्थानी मिनिएचर चित्रकला शैलियों की क्या विषेशताएँ हैं, शायद लाखों में एक व्यक्ति भी नहीं बता सकेगा.

भारत के प्रसिद्ध शिल्पकार कौन हैं तो शायद कुछ लोग अनिश कपूर का नाम ले सकते हैं क्योंकि वे लंदन में प्रसिद्ध हैं. कैसे कला में पैसा लगाना आज फायदेमंद है, इस पर फायनेन्शियल टाईमस या बिजनेस टुडे पर लेख मिल जायें, पर आम टीवी कार्यक्रमों में भारतीय कलाकारों की कला को कैसे समझा जाये, इसका कोई कार्यक्रम क्या आप ने कभी देखा है? जब तक किसी कलाकार की बिक्री लाखों करोड़ों में न हो, या उसे विदेश में कुछ सम्मान न मिले, लगता है कि भारत में उसका कुछ मान नहीं.

भारतीय पुरात्तव विभाग की वेबसाईट तो हिन्दी में भी है लेकिन वहाँ पर आप को केवल प्रकाशनों की लिस्ट मिलेगी. इंटरनेट पर पढ़ने वाली किताबों पत्रिकाओं की लिंक अंग्रेज़ी वाले हिस्से में हैं. तस्वीरों की गैलरी है, लेकिन उनमें जगह के नाम के सिवा, उसे जानने समझने के लिए कुछ नहीं. वैसे तो भारत दुनिया भर के क्मप्यूटरों की क्राँती का काम कर रहा है तो आशा है कि भारतीय पुरात्तव विभाग की वेबसाईट को भी अच्छा होने का मौका मिलेगा.

दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय की वेबसाईट केवल अंग्रेज़ी में है और उसपर उपलब्ध जानकारी बहुत सतही है. तस्वीरें छोड़ कर किसी तरह की समझ बढ़ाने वाली जानकारी नहीं मिलती. वेबसाईट पुराने तरीके की है, उसे देख कर नहीं लगता कि यह भारत के सबसे प्रमुख संग्रहालय का परिचय दे सकती है.

दिल्ली के राष्ट्रीय कला संग्रहालय की वेबसाईट देखने में बहुत सुन्दर है, और हिन्दी में भी है. वेबसाईट पर संग्रहालय के विभिन्न संग्रहों की कुछ सतही जानकारी भी है, लेकिन सभी प्रकाशन केवल खरीदने के लिए ही हैं, इंटरनेट से कलाकारों और कला के बारे में जानकारी सीमित है.

अगर हमारी संस्कृति, सभ्यता को जनसामान्य तक पहुँचाना आवश्यक है तो भारतीय संग्रहालय और पुरात्तव विभागों को इंटरनेट के माध्यम से नये कदम उठाने चाहिये, ताकि जनता में अपने इतिहास और कला को जानने समझने की इच्छा जागे.

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नीचे की मेरी खींची तस्वीरें दुनिया के विभिन्न देशों में संग्रहालयों से हैं.

Museums - images by S. Deepak

Museums - images by S. Deepak

Museums - images by S. Deepak

Museums - images by S. Deepak

Museums - images by S. Deepak

Museums - images by S. Deepak

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बुधवार, दिसंबर 21, 2005

शुद्ध पृथ्वीवासी

शायद हर जगह लोग ऐसे ही प्रश्न पूछते हैं, कि आप कहाँ से हैं?

इटली में लोग, कोई नया मिले तो यह प्रश्न अवश्य पूछते हैं. जब परिवार सारा जीवन एक ही जगह पर बिताते थे तो इस प्रश्न का उत्तर देना कठिन नहीं था. आप कहाँ रहते पूछने का अर्थ यह जानना भी है कि आप विश्वासनीय हैं या नहीं. लोगों में रहने की जगह के साथ जुड़ी बातों की वजह से छोटा बड़ा सोचने की भी आदत होती है. जैसे कि उत्तरी इटली वाले अपने आप को दक्षिणी इटली वालों से ऊँचा समझते हैं. जब शुरु शुरु में इटली आया था और यहाँ अधिक प्रवासी नहीं थे, तो जो घर किराये पर मिला उसकी मकान मालकिन मुझसे यही बोली थी, "मैं तो अपना घर किराये पर या तो उत्तरी इटली वालों को दूँगी या विदेशियों को. "मेरिद्योनालि" लोगों (दक्षिण इटली के लोगों) को नहीं दूँगी."

पर आजकल सब कुछ बदल रहा है. बहुत से लोग उत्तर देते हैं, "मेरी माँ एक जगह से हैं, पिता दूसरी जगह से और हम बच्चे लोग तीसरी जगह में बड़े हुए, पर आजकल हम चौथी जगह रहते हैं." यानि यह किसी को यह बताना कि आप कहाँ से हैं, धीरे धीरे कठिन होता जा रहा है.

मुझसे लोग अक्सर जब मुझसे पूछते हैं कि मैं भारत में कहाँ से हूँ, तो मुझे भी उत्तर देने में ऐसी ही परेशानी होती है. ननिहाल तो अब पाकिस्तान में है, जबकि पिता का परिवार उत्तरप्रदेश में था, और हम सब बच्चे अलग अलग शहरों में पैदा हुए. लम्बा उत्तर न देने के लिए कहता हूँ दिल्ली से हूँ क्योंकि जीवन के बहुत से साल दिल्ली में ही कटे हैं.

हमारे परिवार के बड़े भाई बहनों ने विभिन्न दिशाओं में और भी मिलावट करनी शुरु कर दी. किसी की बहू बंगाली थी, किसी की मराठी तो किसी का पति कोंकणी. जब मैंने विवाह किया तो इस मिलावट की होली में धर्म का रंग भी जोड़ दिया, क्योंकि मेरी पत्नी कैथोलिक है. हिंदू व कैथोलिक परिवार में बड़े हुए हमारे बेटे की होनी वाली पत्नी सिख है. जब उसके बच्चे होंगे और कोई उनसे यह सवाल करेगा, तो सोचिये कि वे क्या जवाब देंगे कि वे कहाँ से हैं?

हम मिलावटी भारतीय हैं, या मिलावटी इतालवी? या फ़िर हम लोग मिलावटी हिंदू, सिख और कैथोलिक होंगे? पर सच में तो मेरे विचार में हम लोग शुद्ध पृथ्वीवासी हैं.

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ब्राजील मेरे विचार में मानव जाति की मिलावट का दुनिया में सबसे बड़ा उदाहरण है. यहाँ की मूल जनजाति के लोग इंडियोस, और अन्य देशों से आये यूरोपीय, अफ्रीकी, जापानी, चीनी, आदि जातियों के लोगों के मिलने से बना है यह देश. आज की तस्वीरें ब्राजील से ही हैं.

Belem, Brazil - images by Sunil Deepak

Belem, Brazil - images by Sunil Deepak

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