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मंगलवार, मई 31, 2022

धाय-माँओं की यात्राएँ

इतिहास अधिकतर राजाओं और बादशाहों की और उनके खानदानों, प्रेम सम्बंधों और युद्धों की बातें करते हैं। उन इतिहासों में सामान्य जन क्या कहते थे, सोचते थे, उनका क्या हुआ, यह बातें कम ही दिखती हैं। फ़िर भी, पिछली कुछ शताब्दियों में जब बड़ी संख्या में सामान्य लोगों के जीवनों पर कुछ बड़े प्रभाव पड़ते हैं तो इतिहास बाँचने वालों को उनके बारे में कुछ न कुछ लिखना ही पड़ता है।

ऐसा कुछ अश्वेत लोगों के साथ हुआ जब लाखों लोंगों को भिन्न अफ्रीकी देशों से पकड़ कर यूरोपी जहाजों में भर कर गुलाम बना कर दुनियाँ के विभिन्न कोनों में ले जाया गया। ऐसा कुछ भारतीय गिरमिटियों के साथ भी हुआ जिन्हें काम का लालच दे कर बँधक बना कर मारिशियस, त्रिनिदाद और फिजी जैसे देशों में ले जाया गया। लेकिन हमारे आधुनिक इतिहास की कुछ अन्य कहानियाँ भी हैं जो अभी तक अधिकतर छुपी हुई हैं।



ऐसी छुपी हुई कहानियों में है एक कहानी उन भारतीय औरतों की जिन्हें बड़े साहब लोग अपने बच्चों की देखभाल के लिए आया बना कर विदेशों में, विषेशकर ईंग्लैंड में, साथ ले गये। कुछ महीने पहले एक अंग्रेजी की इतिहास के विषय से जुड़ी पत्रिका हिस्टरी टुडे के जनवरी 2022 के अंक में मैंने सुश्री जो स्टेन्ली का एक आलेख देखा जिसका शीर्षक था "इनविजिबल हैंडज" यानि अदृश्य हाथ, जिसमें 1750 से ले कर 1947 में भारत की स्वतंत्रता तक के समय में भारतीय आया बना कर ले जाई गयी औरतों की बात बतायी गयी थी।

उनका कहना है कि "आया" शब्द पुर्गालियों की भाषा से आया जिसमें नानी-दादी को "आइआ" (Aia) कहते हैं। भारत में इस काम को करने वाली औरतों को "धाय" या "धाय माँ" कहते थे। जैसे कि पन्ना धाय के बलिदान की कहानी बहुत प्रसिद्ध है। अंग्रेजी में इसके लिए "बच्चों की गवर्नैस" का प्रयोग भी होता है।

भारत में रहने वाले अंग्रेजों के घरों में हज़ारों औरतें आया या धाय का काम करती थीं। जब वह लोग छुट्टी पर ईंग्लैंड जाते, तो बच्चों की देखभाल के लिए उनकी आया को भी साथ ले जाते। कुछ लोग भारत में काम समाप्त होने पर हमेशा के लिए ईंग्लैंड लौटते हुए भी कई माह लम्बी समुद्री यात्रा में उन्हें तकलीफ न हो, इसलिए इन औरतों को बच्चों की देखभाल और अन्य काम कराने के लिए साथ ले जाते थे। लेकिन एक बार ईंग्लैंड पहुँच कर वह इन्हें घर से निकाल भी सकते थे और घर वापस लौटने का किराया नहीं देते थे।

भारत में अंगरेज़ साहब और मेमसाहिब के पास बड़े आलीशान बँगले होते थे जिनमें नौकरों को रखने में कठिनाई नहीं होती थी, लेकिन ईंग्लैंड में वापस आ कर, उन साहबों को सामान्य घरों में रहना पड़ता था, तो समस्या होती थी कि भारत से लायी गयी आया को कहाँ रखा जाये? उनके लिए ईंग्लैंड में आया-होस्टल में बन गये थे, जहाँ यह औरतें भारत जाने वाले किसी अंग्रेज परिवार के साथ नयी नौकरी की प्रतीक्षा करती थीं।

न्यू योर्क विश्वविद्यालय की प्रोफेसर स्वप्न बैन्नर्जी अन्य शोधकारों के साथ मिल कर सन् 1780 से ले कर 1945 में भारत उपमहाद्वीप से काम करने के लिए दुनिया भर में ले जाये जानी वाली इन प्रवासी महिलाओं पर शोध कर रही हैं जिसके बारे में आया व आमाह के ब्लोग पर आप पढ़ सकते हैं। इसी ब्लाग पर पिछली सदी के प्रारम्भ का एक विज्ञापन है जिसमें लँडन के दक्षिण हेक्नी इलाके में बने "आया होम" के बारे में कहा गया कि अंग्रेज महिलाएँ कुछ पैसा दे कर भारत से लायी आया को यहाँ रखवा कर उनसे छुटकारा पा सकती हैं, साथ यह यहाँ हिंदुस्तानी बोलने की सुविधा भी है। (विज्ञापन नीचे की छवि में)



कुछ औरतों ने अंग्रेज परिवारों की समुद्री यात्रा में बच्चों की देखभाल का काम अच्छे तरीके से आयोजित किया था। 1922 में ईंग्लैंड में अखबार में छपे एक साक्षात्कार में भारत की श्रीमति एन्थनी पारैरा ने बताया वह 54 बार भारत-ईंग्लैंड यात्रा कर चुकी थीं। एक शोध के अनुसार, 1890 से ले कर 1953 तक, हर वर्ष करीब 20-30 औरतें आया बन कर ईंग्लैंड लायी जाती थीं। इनमें से अधिकतर औरतें "नीची" जाति से होती थीं। इसी काम के लिए कुछ चीनी औरतें भी ईंग्लैंड लायी जाती थीं जिन्हें "अमाह" कहते थे, हालाँकि उनकी संख्या भारतीय मूल की "आयाह" के मुकाबले एक चौथाई से भी कम होती थी।

उन औरतों की देखभाल में पले अंग्रेज बच्चों ने उनके बारे में अपनी आत्मकथाओं तथा स्मृतियों में वर्णन किया है कि उनको इन्हीं औरतों से परिवार का प्यार व स्नेह मिला। इन कहानियों से उन औरतों के जीवन की रूमानी छवि बनती है, जब कि जो स्टेन्ली के अनुसार उनकी जीवन की सच्चाई अक्सर रूमानी नहीं थी, बल्कि उसकी उल्टी होती थी। उनमें से कई औरतों के साथ उनके अंग्रेज मालिक बुरा व्यवहार करते थे।

अफ्रीका में जन्मी भारतीय मूल की इतिहासकार, डा. रोज़ीना विसराम ने इस विषय पर शोध करके कुछ पुस्तकें लिखी हैं। ब्रिटिश राष्ट्रीय पुस्तकालय ने इस विषय में सन् 1600 से ले कर 1947 तक के समय के विभिन्न दस्तावेज़ों को एकत्रित किया है। इनके अनुसार, शुरु में पुरुषों को अधिक लाया जाता था, वह परिवारों के नौकर तथा जहाज़ो में नाविक का काम करते थे। आया का काम करने वाली औरतों के अतिरिक्त, उन्नीसवीं शताब्दी में भारत से बहुत से लोग ईंग्लैंड में पढ़ने के लिए भी आते थे ताकि वापस जा कर भारत में उनको अंग्रेजी सरकार में ऊँचे पदों पर नौकरी मिल सके।


कुछ वर्ष पहले, दिल्ली के जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय की इतिहासकार प्रो. राधिका सिन्घा ने दो विश्व युद्धों में अंग्रेज़ी फौजों के साथ भारत से लाये गये सिपाहियों के जीवन पर शोध करके एक किताब लिखी थी जिसमें मैंने भी कुछ सहयोग किया था। उन भुला दिये गये सिपाहियों के अवशेष यूरोप के विभिन्न हिस्से में बिखरे हुए हैं, उनमें से इटली के फोर्ली शहर के एक स्मारक-कब्रिस्तान के बारे में मैंने एक बार लिखा था। हिस्टरी टुडे के भारत से आयी धाय-माँओं के बारे में आलेख ने सामान्य जनों के छुपे और भुलाए हुए इतिहासों के बारे में वैसी ही जानकारी दी। सोच रहा था कि जिन परिवारों की वह बेटियाँ, बहुएँ या माएँ थीं, गाँवों और शहरों में जब वह भारत छोड़ कर गयीं थीं, उस समय उनकी कहानियाँ भी कहानियाँ बनी होंगी, लोगों ने बातें की होंगी, फ़िर समय के साथ वह कहानियाँ लोग भूल गये होंगे। क्या जाने उनके बच्चे और वँशज उनकी स्मृतियों को सम्भाले होंगे या नहीं?

इतिहास ने और अंग्रेज़ों ने उन औरतों के साथ बुरा व्यवहार किया, उनको शोषित किया, लेकिन क्या स्वतंत्र होने के बाद भारत के नये शासक वर्ग ने वैसा शोषण बन्द कर दिया? भारत से विदेश जाने वाले संभ्रांत घरों के लोग अक्सर भारत से काम करने वाली औरतें बुलाते हैं और उन्हें घर में बन्दी बना कर रखते हैं। भारतीय दूतावासों में काम करने वाले लोगों के इस तरह के व्यवहार के बारे में कई बार ऐसी बातें सामने आयीं हैं। भारत के संभ्रांत घरों में नौकरी करने वाली औरतों के साथ भी कई बार गलत व्यवहार होता है। आज के परिवेश में भारत में ही नहीं, अरब देशों में भारतीय काम करने वालों के शोषण की भी अनगिनत कहानियाँ मिल जायेगी। मेरे विचार में जब हम इतिहास में हुए मानव अधिकारों के विरुद्ध आचरणों को देखते हैं तो हमें आज हो रहे शोषण को भी देखने समझने की दृष्टि मिलती है।

टिप्पणींः इस आलेख की सारी तस्वीरें आयाह और आमाह ब्लाग से ली गयीं हैं।

बुधवार, मई 25, 2022

अरे ओ साम्बा, कित्ती छोरियाँ थीं?

भारत में कितनी औरतें हैं यह प्रश्न गब्बर सिंह ने नहीं पूछा था, लेकिन यह प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण है।

कुछ माह पहले भारत सरकार के स्वास्थ्य विभाग ने 2019 से 2021 के बीच में किये गये राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के नतीजों की रिपोर्ट निकाली थी। इस रिपोर्ट के अनुसार आधुनिक भारत के इतिहास में पहली बार देश में लड़कियों तथा औरतों की कुल जनसंख्या लड़कों तथा पुरुषों की कुल जनसंख्या से अधिक हुई है। यह एक महत्वपूर्ण बदलाव है जिससे देश की सामाजिक, आर्थिक व स्वास्थ्य की स्थिति के बारे में जानकारी मिलती है। यह भारत के लिए गर्व की बात है। अपने इस आलेख में मैंने इस बदलाव की राष्ट्रीय तथा राज्यीय स्तर पर कुछ विषलेशण करने की कोशिश की है।



नारी और पुरुष जनसंख्या के अनुपात

कुल जनसंख्या में लड़कियों तथा औरतों की संख्या लड़कों तथा पुरुषों की संख्या से अधिक होनी चाहिए। अगर गर्भ में भ्रूण के बनते समय उसका नर या मादा होने के मौके एक बराबर ही होते हैं, तो समाज में नर और नारियों की संख्या भी एक बराबर होनी चाहिये। तो पुरुषों की संख्या औरतों से कम क्यों होती है? इसके कई कारण होते हैं। सबसे पहले हम नर तथा नारी जनसंख्या पर पड़ने वाले विभिन्न प्रभावों को देख सकते हैं। 

नर भ्रूणों को स्वभाविक गर्भपात का खतरा अधिक होता है, इस लिए पैदा होने वाले बच्चों में लड़कियाँ अधिक होती हैं। 

पैदा होने के बाद भी लड़के कई बीमारियों का सामना करने में लड़कियों से कमजोर होते हैं। समूचे जीवन काल में, बचपन से ले कर बुढ़ापे तक, चाहे एक्सीडैंट हों या आत्महत्या, चाहे शराब अधिक पीना हो या नशे की वजह हो, चाहे लड़ाईयाँ हों या सामान्य हिँसा, लड़के व पुरुष ही अधिक मरते हैं। लड़कों व पुरुषों की हड्डियाँ व माँस पेशियाँ अधिक मजबूत होती हैं, वह अधिक ऊँचे और शक्तिशाली होते हैं, लेकिन वह मजबूत शरीर बीमारियों से लड़ने तथा मानसिक दृष्टि से कम शक्तिशाली होते हैं। 

जबकि औरतों के जीवन में सबसे बड़ा स्वास्थ्य से जुड़ा खतरा होता है उनका गर्भवति होना और बच्चे को जन्म देना। पिछड़े व गरीब समाजों में औरतों की उर्वरता दर अधिक होती है, यानि बच्चों की संख्या अधिक होती है। कृषि से जुड़े गरीब समाजों को बच्चों के बाहुबल की आवश्यकता होती है। गरीब देशों की स्वास्थ्य सेवाएँ भी निम्न स्तर की होती हैं, तो बच्चों को टीके नहीं लगाये जाते या बीमार होने पर उनका सही उपचार नहीं हो पाता। इन सब वजहों से गरीब समाजों में बच्चे अधिक होते हैं। इसलिए गर्भवति होने वाली उम्र में गरीब समाजों में नवयुतियों के मरने का खतरा अधिक होता है। जबकि विकसित समाजों में, विषेशकर अगर लड़कियाँ पढ़ी लिखी हों, तो उनके बच्चे देर से पैदा होते हैं और उनकी संख्या कम हो जाती है। 

नारी शरीर की दूसरी कमजोरी का कारण है मासिक माहवारी। अगर उन्हें सही खाना मिलता रहे तो सामान्य माहवारी का उनके स्वास्थ्य पर बुरा असर नहीं पड़ता, वरना इससे उनके रक्त में लोहे की कमी से अनीमिया होने का खतरा रहता है। लेकिन अगर प्रसव तथा माहवारी से जुड़े खतरों को छोड़ दें तो नारी शरीर में बीमारियों से लड़ने की अधिक शक्ति होती है। नारी शरीर के हारमोन उनकी बहुत सारी बिमारियों से, जैसे कि बढ़ा हुआ ब्लड प्रेशर तथा हृद्यरोग आदि से जब तक माहवारी चलती है, तब तक उनकी रक्षा करते हैं, उन बीमारियों से पुरुष अधिक मरते हैं। बुढ़ापे में भी नारी हारमोन उनकी कुछ हद तक रक्षा करते हैं जिससे कि औरतों की औसत जीवन अपेक्षा पुरुषों से अधिक होती है। 

प्राकृतिक स्वास्थ्य संबंधी कारणों के अतिरिक्त नर-नारी जनसंख्या पर सामाजिक सोच का असर पड़ता है। बहुत से समाजों में लड़कियों को पैदा होने से पहले ही गर्भपात करवा कर मरवा देते हैं, क्योंकि वे सोचते हैं कि लड़कों से परिवार और संस्कृतियाँ चलती हैं। पैदा होने के बाद बेटों के तुलना में उन्हें खाना कम दिया जाता है, खेलकूद और पढ़ायी के अवसर कम मिलते हैं। और जब वह बीमार होती हैं तो उनका इलाज देर से करवाया जाता है और कम करवाया जाता है।



देशों में कुल जनसंख्या में नर अधिक होंगे या नारियाँ, उस आकंणे पर ऊपर बताये गये सब भिन्न प्रभावों के नतीजों को जोड़ कर देखना पड़ेगा। विश्व स्तर पर उन आकंणों को देखें तो हम पाते हैं कि विकसित देशों में जनसंख्या में नारियाँ अधिक होती हैं, जबकि कम विकसित तथा गरीब देशों में पुरुषों की संख्या अधिक होती है। जैसे जैसे समाज विकसित होने लगते हैं, औरतें अधिक पढ़ती लिखती हैं, नौकरी करके स्वंतत्र रहने के काबिल बन जाती हैं और आवश्यकता पड़ने पर माता पिता की देखभाल भी कर सकती हैं, तो जनसंख्या में उनका अनुपात बढ़ने लगता है। 

अन्य देशों से नर-नारी अनुपात के कुछ आकंणे

नये भारतीय सर्वेषण के नतीजों को देखने से पहले आईये पहले हम कुछ अन्य देशों में नर-नारी अनुपात की क्या स्थिति है उसको देखते हैं।

इस दृष्टि से पहले दुनिया के कुछ विकसित देशों की स्थिति कैसी है, पहले उसके आकणें देखते हैं। 1000 पुरुषों के अनुपात में देखें तो फ्राँस में 1054 औरतें हैं, जर्मनी में 1039, ईंग्लैंड और स्पेन में 1024, इटली में 1035, अमरीका में 1030, तथा जापान में 1057। यानि हर विकसित देश में लड़कियों व औरतों की संख्या लड़कों तथा पुरुषों की संख्या से अधिक है। 

आईये अब भारत के आसपास के देशों की स्थिति देखें। यहाँ पर 1000 पुरुषों के अनुपात में पाकिस्तान में 986 औरतें हैं, बँगलादेश में 976, नेपाल में 1016, और चीन में 953। यानि नेपाल में स्थिति बेहतर हैं जबकि चीन, पाकिस्तान व बँगलादेश में खराब है। हाँलाकि पिछले दो दशकों में चीन बहुत अधिक विकसित हुआ है लेकिन चीन में अभी कुछ समय पहले तक नियम था कि परिवार में एक से अधिक बच्चे नहीं होने चाहिये, और वहाँ की सामाजिक सोच इस तरह की है जिसमें वह सोचते हैं कि लड़के ही पैदा होंने चाहिए, इसके दुष्प्रभाव पड़े हैं।

विभिन्न देशों के आंकणें देखते समय वहाँ की अन्य परिस्थितयों के असर के बारे में सोचना चाहिये। जहाँ युद्ध हो रहे हैं वहाँ पुरुषों की संख्या और भी कम हो सकती है। कुछ जगहों में पुरुषों को घर-गाँव छोड़ कर पैसा कमाने के लिए दूर कहीं जाना पड़ता है, तो वहाँ भी जनसंख्या में पुरुषों की संख्या कम हो जायेगी, जबकि जिन जगहों पर पुरुष प्रवासी काम खोजने आते हैं, वहाँ पर उनका अनुपात बढ़ जाता है। जब आंकणों में किसी जगह पर बहुत अधिक पुरुष या नारियाँ दिखें तो वहाँ की सामाजिक स्थिति के बारे में अन्य कारणों को समझना आवश्यक हो जाता है।

भारत के राष्ट्रीय स्तर के आंकणे

राष्ट्रीय स्तर पर यह आकंणे सन् 1901 के बाद से जमा किये जाते रहे हैं। चूँकि सौ वर्ष पहले के भारत में आज के पाकिस्तान, बँगलादेश तथा कुछ हद तक मयनमार भी शामिल थे तो उनके आंकणों की आधुनिक भारत के आंकणों से पूरी तरह तुलना नहीं की जा सकती लेकिन उनसे हमारी स्थिति के बारे में कुछ जानकारी तो मिलती है।

1901 में भारत में हर 1000 पुरुषों से सामने 972 औरतें थीं, जबकि 1970 में उनकी संख्या 930 रह गयी थी। 2005-06 में जब तृतीय राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेषण में यह जानकारी जमा की गयी तो भी स्थिति में बदलाव नहीं आया था, 1000 पुरुषों के सामने 939 औरतें थीं। 2015-16 में जब चौथा सर्वेषण किया गया तो पहली बार महत्वपूर्ण बदलाव दिखा जब औरतों की संख्या बढ़ कर 991 हो गयी थी। इस वर्ष आये परिणामों में स्थिति और मजबूत हुई है, इस बार 1000 पुरुषों के मुकाबले में 1020 औरतें हैं।

इन आकंणो से हम क्या निष्कर्श निकाल सकते हैं? मेरे विचार में सौ साल पहले औरतों की संख्या कम होने का कारण था उन्हें खाना अच्छा न मिलना, बच्चे अधिक होना, और प्रसव के समय स्वास्थ्य सेवाओं की कमी। यह सभी बातें 1970 के सर्वेषण तक अधिक नहीं बदली थीं। 1990 के दशक में भारत में विकास बढ़ा, साथ में स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति बेहतर हुई लेकिन साथ ही गर्भवति औरतों के लिए अल्ट्रासाँऊड टेस्ट कराने की सुविधाएँ भी तेजी सी बढ़ी जिनसे परिवारों के लिए होने वाले बच्चे का लिंग जानना बहुत आसान हो गया, जिससे बच्चियों की भ्रूण बहुत अधिक संख्या में गिरवाये जाने लगे। इसका असर 2005-06 के सर्वेषण पर पड़ा और बच्चे कम होने, भोजन बेहतर होने व स्वास्थ्य सेवाएँ बेहतर होने के बावजूद औरतों की संख्या कम ही रही।

भारत में बच्चियों का गर्भपात

हालाँकि भारत सरकार ने गर्भवति औरतों में अल्ट्रासाऊँड टेस्ट से लिंग ज्ञात करने की रोकथाम के लिए 1994 से कानून बनाया था, इसे 2005-06 के सर्वेषण के बाद सही तरह से लागू किया गया जब डाक्टरों पर सजा को बढ़ाया गया। लेकिन सामाजिक स्तर पर भारत में बेटियों की स्थिति अधिक नहीं बदली, इस कानून का भी कुछ विषेश असर नहीं पड़ा है।

भारत में बच्ची होने पर गर्भपात कराने की परम्परा अभी महत्वपूर्ण तरीके से नहीं बदली, यह हम एक अन्य आंकणे से समझ सकते हैं - छः वर्ष से छोटे बच्चों में लड़कों और लड़कियों के अनुपात को देखा जाये। 2001 में छः वर्ष से छोटे बच्चों की जनसंख्या में हर 1000 लड़कों के सामने 927 लड़कियाँ थीं। 2005-06 में यह संख्या घट कर 918 हो गयी। 2015-16 में यह संख्या बदली नहीं थी, 919 थी। और, 2019-21 के नये सर्वेषण में भी यह अधिक नहीं बदली, 924 है।

इसका अर्थ है कि औरतों की संख्या में बढ़ोतरी का बदलाव जो 2019-21 के सर्वेषण में दिखता है वह अन्य वजहों से हुआ है जैसे कि उन्हें पोषण बेहतर मिलना, छोटी उम्र में विवाह कम होना, विवाह के बाद बच्चे कम होना और प्रसव के समय बेहतर स्वास्थ्य सेवा मिलना।

ग्रामीण तथा शहरी क्षत्रों में अंतर

राष्ट्रीय स्तर पर और बहुत से प्रदेशों में ग्रामीण क्षेत्रों में औरतों की स्थिति शहरों से बेहतर है। राष्ट्रीय स्तर पर 1998-99 में 1000 पुरुषों के अनुपात में शहरी क्षेत्रों में 928 औरतें थीं जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में उनकी संख्या 957 थी। बाईस साल बाद, 2019-21 के सर्वेषण में राष्ट्रीय स्तर के आंकणों में दोनों क्षेत्रों में स्थिति सुधरी है, शहरों में उनकी संख्या 985 हो गयी है, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में संख्या 1037 हो गयी है।

लेकिन यह बदलाव बड़े शहरों से जुड़े ग्रामीण क्षेत्रों में नहीं आया। दिल्ली, चंदीगढ़, पुड्डूचेरी जैसे शहरों के आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों में औरतों की संख्या शहरों से कम है। यह आंकणे देख कर मुझे लगा कि इन क्षेत्रों में स्थिति को समझने के लिए विषेश शोध किये जाने चाहिये। एक कारण हो सकता है कि यहाँ बच्चियों का गर्भपात अधिक होता हो? शायद उससे भी बड़ा कारण है कि देश के अन्य राज्यों से आने वाले प्रवासी युवक इन गाँवों में सस्ती रहने की जगह पाते हैं जिसकी वजह से यहाँ पुरुषों की संख्या अधिक हो जाती है?

अन्य कुछ बातें भी हैं। जैसे कि सामान्य सोच है कि गाँवों में समाज अधिक पाराम्परिक या रूढ़िवादी होते हैं, वहाँ सामाजिक सोच को बदलने में समय लगता है। वहाँ स्वास्थ्य सेवाओं को पाना भी कठिन हो सकता है, हालाँकि प्राथमिक सेवा केंद्रों तथा आशा कर्मियों से बहुत जगहों पर स्थिति में बहुत सुधार आया है। लेकिन इन सबको ठीक से समझने के लिए विषेश शोध होने चाहिये।

राज्य स्तर के आंकणे

अंत में राज्य स्तर के आंकणों के बारे में कुछ जानकारी प्रस्तुत है। जैसा कि मैंने ऊपर बताया है, इन आंकणों पर अन्य बहुत सी बातों का असर पड़ता है इसलिए उनके महत्व को ठीक से समझने के लिए सावधानी बरतनी चाहिये।

मेरे विचार में राज्यों की स्थिति को देश के विभिन्न भागों में बाँट कर देखना अधिक आसान है। मैंने राज्यों को चार भागों में बाँटा है - पहले भाग में हैं उत्तरपूर्व को छोड़ कर उत्तरी व मध्य भारत की सभी राज्य; दूसरे भाग में मैंने दक्षिण भारत के राज्यों को रखा है, जिनमें गोवा भी है; तीसरा भाग है उत्तरपूर्व के राज्य जिनमें सिक्किम भी है; और चौथा भाग है केन्द्रीय प्रशासित क्षेत्र जैसे कि अँडमान या चँदी गढ़, इनमें दिल्ली भी है।

उत्तर तथा मध्य भारत के राज्य

2015-16 के आंकणों के अनुसार, उत्तर व मध्य भारत में सात राज्यों में औरतों की संख्या की स्थिति नकरात्मक थी - हरियाणा 876, राजस्थान 887, पँजाब 905, गुजरात 950, महाराष्ट्र 952, एवं जम्मु कश्मीर में 971। उत्तरप्रदेश में स्थिति बाकियों के मुकाबले में कुछ ठीक थी, 995। बाकी के सभी प्रदेशों में (झारखँड, पश्चिम बँगाल, उत्तरखँड, छत्तीसगढ़, ओडीशा, बिहार व हिमाचल प्रदेश) में औरतों की संख्या पुरुष अनुपात में 1000 से अधिक थी, उनमें से सबसे उच्चस्थान पर थे बिहार 1062 तथा हिमाचल प्रदेश 1087।

2019-21 के आंकणें देखें तो कुछ बदलाव दिखते हैं। जम्मू कश्मीर को छोड़ कर अन्य सभी राज्यों में स्थिति में कुछ सुधार आया है, हालाँकि पँजाब व राजस्थान में सुधार की मात्रा थोड़ी सी ही है। इन परिवर्तनों के बाद सबसे अधिक नकारात्मक स्थितियाँ इन राज्यों में हैं - राजस्थान 891, हरियाणा 926, पँजाब 938, जम्मू कश्मीर 948, गुजरात 965, महाराष्ट्र 966, और मध्यप्रदेश 970। बाकी सभी राज्यों में औरतों का अनुपात 1000 से ऊपर है। सबसे बेहतर स्थिति है ओडीशा में 1063 तथा बिहार में 1090। मेरे विचार में जिन राज्यों में स्थिति सकारात्मक दिखती है वहाँ के आंकणों पर अधिक पुरुषों के प्रवासी होने का भी प्रभाव है।

दक्षिण भारत के राज्य

गोवा सहित दक्षिण भारत के राज्यों में 2015-16 में स्थिति केवल कर्णाटक में नकारात्मक थी, 979, बाकी सभी राज्यों में स्थिति सकारात्मक थी।

2019-21 के सर्वेक्षण में इन सभी राज्यों में स्थिति सकारात्मक हो गयी थी।

उत्तरपूर्वी भारत के राज्य

उत्तरपूर्वी भारत के आठ राज्यों में से 2015-16 में 3 राज्यों में स्थिति नकारात्मक थी - सिक्किम 942, अरुणाचल 958 तथा नागालैंड 968। दो राज्यों में स्थिति थोड़ी सी नकारात्मक थी, असम में 993 और त्रिपुरा में 998, जबकि मेघालय, मिजोरम तथा मणीपुर में स्थिति सकारात्मक थी।

इस बार के 2019-21 सर्वेक्षण में इन सभी राज्यों में स्थिति सुधरी है, हालाँकि अभी भी सिक्किम में 990 तथा अरुणाचल में 997 होने से थोड़ी सी नकारात्मक है।

दिल्ली तथा केन्द्र प्रशासित भाग

अंत में दिल्ली तथा केन्द्र प्रशासित भागों में देखें तो 2015-16 में चार क्षेत्रों में स्थिति गम्भीर थी - दादरा, नगर हवेली, दमन, दीव 813, दिल्ली 854, चंदीगढ़ 934 तथा अँडमान 977। सभी जगहों पर इन क्षेत्रों के ग्रामीण हिस्सों की स्थिति और भी गम्भीर थी, जिसका एक कारण अन्य राज्यों से आने वाले प्रवासी पुरुष हो सकता है।

2019-21 में स्थिति में कुछ सुधार हुआ और कुछ स्थिति और भी नकारात्मक हुई - दादरा, नगर हवेली आदि 827, दिल्ली 913, चंदीगढ़ 917, अँडमान 963, लदाख 971। अँडमान में कितने प्रवासी है, वहाँ क्या कारण हो सकते हैं, उसके आंकणों से मुझे थोड़ी हैरानी हुई।


अंत में

अगर हम पूरे भारत के स्तर पर विभिन्न राज्यों में नारी और पुरुष जनसंख्या के अनुपात में आये परिवर्तनों को देखें तो पाते हैं कि बहुत राज्यों में स्थिति सुधरी है, विषेशकर लक्षद्वीप, केरल, कर्णाटक, तमिलनाडू, हरियाणा, सिक्किम, झारखँड, नागालैंड तथा अरुणाचल में। कुछ जगहों पर अनुपात कुछ घटा है जैसे कि हिमाचल प्रदेश, हालाँकि कुछ स्थिति अभी भी सकारात्मक है।

राज्य स्तर के आंकणों में आने वाले बदलावों को ठीक से समझना आसान नहीं है क्योंकि उस पर अन्य कारणों के साथ साथ पुरुषों के काम की खोज में अन्य राज्यों में जाने से भी बहुत असर पड़ता है। इसकी वजह से समृद्ध राज्य जहाँ प्रवासी आते हैं उनकी पुरुष संख्या बढ़ी दिखती है और पिछड़े राज्य, जहाँ से पुरुष प्रवासी बन कर निकलते हैं, उनके आंकड़े सच्चाई से बेहतर दिखते हैं।

राज्यों की स्थिति चाहे जो भी हो, राष्ट्रीय स्तर पर भारत की जनसंख्या में औरतों के अनुपात में इस तरह से बढ़ौती बहुत सकारात्मक बदलाव है। केवल एक आंकणे पर अधिक बातें कहना सही बात नहीं होगी, उसके लिए हमें स्वास्थ्य से संबंधित अन्य आंकणों को देखना पड़ेगा। लेकिन यह स्थिति भारत को विकास की ओर बढ़ाने में यह सही राह पर होने का आभास देती है।

बुधवार, अगस्त 23, 2017

उत्तरप्रदेश में लड़कियाँ क्या सोचती हैं?

हिन्दी फ़िल्में देखिये तो लगता है कि छोटे शहरों में रहने वाली लड़कियों के जीवन बदल गये हैं. "बरेली की बरफ़ी", "शुद्ध देसी रोमान्स", और "तनु वेड्स मनु" जैसी फ़िल्मों में, छोटे शहरों की लड़कियों को न सड़कों पर डर लगता हैं, न वह लड़कों से वे स्वयं को किसी दृष्टि से पीछे समझती हैं. जाने क्यों, अक्सर पिछले कुछ सालों से हमारी फ़िल्मों में छोटे शहरों की लड़कियों की आधुनिकता को सिगरेट पीने से दिखाया जाता है (शायद इन फ़िल्मों को सिगरेट कम्पनियों से पैसे मिलते होंगे, क्योंकि अब भारत में सिगरेट के अन्य विज्ञापन दिखाना सम्भव नहीं)

हिन्दी फ़िल्मों की लड़कियों और सचमुच की लड़कियों के जीवनों में कोई अन्तर हैं, तो कौन से हैं? पिछले दशकों में छोटे शहरों में रहने वाली लड़कियों और युवतियों की सोच बदली है, तो कैसे बदली है? और अगर बदली है तो उसका उन सामाजिक समस्याओं पर क्या असर पड़ा है जो कि लड़कियों के जीवनों से जुड़ी हुई हैं? इस आलेख में इसी बात से सम्बंधित सर्वे की बात करना चाहता हूँ.

गाँव कनक्शन का सर्वे

इन दिनों में गाँव कनक्शन पर उत्तरप्रदेश की 15 से 45 वर्षीय महिलाओं के साथ हुए एक सर्वे के बारे में छपा है. इस सर्वे में पाँच हज़ार औरतों ने भाग लिया.

सर्वे में 56 प्रतिशत महिलाओं कहा कि वह नौकरी करना चाहती हैं. इसमें से सबसे अधिक महिलाएँ स्कूल में अध्यापिका बनना चाहती हैं.  14 प्रतिशत महिलाएँ डॉक्टर बनना चाहती हैं और 6 प्रतिशत पुलिस में जाना चाहती हैं.

67 प्रतिशत ने कहा कि अगर मौका मिले तो वह और पढ़ना चाहेंगी. 50 प्रतिशत महिलाओं-लड़कियों ने कहा कि उन्हें साइकिल चलाना पसंद है, लेकिन ससुराल में साइकिल चलाने की अनुमति कम ही मिलती है. 67 प्रतिशत ने कहा कि उन्हें घर से बाहर निकलने के लिए पति या पिता से अनुमति लेनी पड़ती है, जबकि 15 प्रतिशत ने बताया कि वह घर से बाहर किसी के साथ ही जा सकती हैं.

81 प्रतिशत लड़कियों ने कहा कि वह जानती हैं कि उनकी शादी के समय उनके माता-पिता को दहेज देना पड़ेगा।

उत्तरप्रदेश में मेरा सर्वे

गाँव कनक्शन के इस सर्वे की लड़कियों-महिलाओं के जीवन, उनकी आशाएँ, और उनके सपने, फ़िल्मी छोटे शहरों की लड़कियों के जीवनों से बहुत भिन्न लगती हैं.

इस सर्वे के बारे में पढ़ कर मुझे अपना एक सर्वे याद आ गया. 2014 में, मैं उत्तरप्रदेश में कुछ दिन अपनी एक मित्र के पास ठहरा था जिनका एक प्राईवेट अस्पताल था और साथ में नर्सिंग ट्रेनिन्ग कॉलिज भी था जहाँ तीन वर्ष का नर्सिन्ग कोर्स होता था. वहाँ पढ़ने वालों को उत्तरप्रदेश सरकार की ओर से छात्रवृत्ति मिल रही थी. मैंने इस सर्वे में द्वितीय वर्ष के छात्र-छात्राओं से स्वास्थ्य सम्बंधी तथा सामाजिक विषयों के प्रश्न पूछे थे.

सर्वे करने से पहले उसके प्रश्नों को तीसरे वर्ष के तीन छात्राओं में जाँचा गया और जाँच के अनुसार, जो प्रश्न अस्पष्ट थे या जिनके सही अर्थ समझने में छात्रों को कठिनाई हो रही थी, उन्हें सुधारा गया. किसी छात्र या छात्रा ने सर्वे में भाग लेने से मना नहीं किया, लेकिन करीब 20 प्रतिशत छात्राओं ने कुछ प्रश्नों के उत्तर नहीं दिये.

सर्वे में भाग लेने वाले

कुल 35 छात्रों ने सर्वे में हिस्सा लिया जिनमें 31 छात्राएँ (89%) थीं और 4 छात्र थे. चूँकि सर्वे में पुरुष छात्र केवल चार थे, उनके उत्तरों का अलग से विश्लेषण नहीं किया गया है.


छात्रों की औसत आयू 21.7 वर्ष थी. उनमें से 33 लोग (94%) उत्तरप्रदेश से थे और 2 लोग अन्य करीबी राज्यों (बिहार तथा उत्तराखँड) से थे.

उत्तरप्रदेश के 33 लोगों में से 9 लोग (27%) लखनऊ से थे. बाकी के 24 लोग (73%) राज्य के 8 जिलों से थे (सीतापुर, बलिया, माउ, बस्ती, अकबरपुर, एटा, लक्खिमपुर तथा बाराबँकी). जिलों से आने वाले लोग जिला शहरों, उपजिलों के छोटे शहरों तथा गाँवों के रहने वाले थे. यानि सर्वे में प्रदेश की राजधानी से ले कर, गाँवों तक के, हर तरह की जगहों के लोग थे.

उनमें से 33 लोग (94%) हिन्दू थे, केवल 1 व्यक्ति मुसलमान परिवार से था और 1 ईसाई परिवार से. हिन्दू छात्रों में 20 लोग (60%) शिड्यूल कास्ट जातियों से थे और 6 लोग (18%) जनजातियों से थे.

छात्रों में से 19 लोग (54%) संयुक्त परिवारों में रहते थे, जबकि 16 लोग (46%) ईकाई (nuclear) परिवारों से थे.

छात्र परिवारों की आर्थिक स्थिति

उनमें से 32 लोगों (91%) ने खुद को मध्यम वर्गीय बताया, केवल 2 लोगों ने खुद को निम्न मध्यम वर्गीय कहा और 1 ने खुद को उच्च मध्यम वर्गीय कहा. उनमें से 18 लोगों (51%) के घर में स्कूटर, मोटरसाईकल या ट्रेक्टर थे जबकि बाकी के 17 लोगों (49%) के घर बैलगाड़ी या साईकल थी या कोई व्यक्तिगत यात्रा साधन नहीं था.

उनमें से अधिकाँश के घर में टीवी था, जबकि करीब 50% लोगों के घर में फ्रिज था.

इसका अर्थ है कि हालाँकि अधिकाँश लोग अपने आप को मध्यम वर्ग को कह रहे थे, उनमें से करीब पचास प्रतिशत लोगों की आर्थिक स्थिति कमज़ोर थी.

पढ़ायी और अंग्रेज़ी ज्ञान

नर्सिंग कॉलिज में आने से पहले 34 छात्रों ने 12 कक्षा तक पढ़ाई की थी, केवल एक छात्रा के पास बीए की डिग्री थी.

छात्रों की माओं ने औसत 6 वर्ष की स्कूली पढ़ायी की थी, उनमें से 34% अनपढ़ थीं  और 11% के पास कॉलिज की डिग्री थीं. उनके पिताओं की औसत पढ़ायी 11 वर्ष की थी, उनमें से 11% अनपढ़ थे और 42% कॉलिज में पढ़े थे.

सब छात्रों ने स्वीकारा कि उनके माता पिता की पीढ़ी में पढ़ने के क्षेत्र में पुरुषों तथा महिलाओं के बीच में अधिक विषमताएँ थीं जो उनकी पीढ़ी में कम हो गयीं थीं. कई छात्राएँ जिनकी माएँ अनपढ़ थीं, बोलीं कि उनको अपनी माँ से पढ़ाई करने का बहुत प्रोत्साहन मिला था. एक छात्रा ने कहा, "मेरी माँ बचपन से मुझे कहती थी कि तुमको पढ़ना है, मेरी तरह अनपढ़ नहीं रहना."

छात्रों में से 19 लोगों (54%) ने कहा कि उनकी अंग्रेज़ी कमज़ोर थी जिससे उन्हें नर्सिंग की किताबों को पढ़ने व समझने में दिक्कत होती थी. उन्होंने बताया कि कुछ शिक्षकाएँ अक्सर अपनी बात को समझाने के लिए उसे हिन्दी में भी समझाती थी, जिससे उन्हें आसानी हो जाती थी.

बाकी के 16 लोगों ने कहा कि उनकी अंग्रेज़ी अच्छी थी और उन्हें नर्सिन्ग की किताबें पढ़ने समझने में दिक्कत नहीं होती थी. लेकिन उनसे जब सर्वे के दौरान अंग्रेज़ी में प्रश्न पूछे गये तो केवल एक छात्रा ही उसका सही अंग्रेज़ी में पूरा उत्तर दे पायी. बाकी लोगों को अंग्रेज़ी बोलने में कठिनाई थी. यानि जब छात्र अंग्रेज़ी की किताबों को पढ़ तथा समझ सकते हैं, तब भी उन्हें अंग्रेज़ी बोलने में हिचक या कठिनाई हो सकती है. इसका यह भी अर्थ है कि अंग्रेज़ी में उनकी अभिव्यक्ति कमज़ोर रहती है.

नर्सिंग पढ़ने का निर्णय किसने लिया

19 लोगों (54%) ने नर्सिंग की पढ़ायी करने का निर्णय स्वयं लिया था, जबकि बाकी 16 (46%) लोगों में यह निर्णय परिवार या अन्य लोगों ने लिया.

अधिकाँश लोगो ने माना कि उनके मन में कुछ अन्य पढ़ने की कामनाएँ थीं लेकिन उन्होंने अंत में नर्सिन्ग को चुना क्योंकि इसमें छात्रवृत्ति मिलती है, वरना उनके परिवार के लिए उनकी पढ़ायी का खर्चा पूरा कठिन होता. नर्सिन्ग पढ़ने का एक कारण यह भी था कि इस काम में नौकरी आसानी से मिल जाती है.

केवल दो लोगों ने कहा कि वह सचमुच नर्सिन्ग की पढ़ायी ही करना चाहते थे. 15 लोगों (43%) का कहना था कि वह शिक्षक बनना चाहते थे. 4 लोगों (11%) ने कहा कि वह पुलिस में काम करना चाहते थे. बाकी के लोगों की अलग अलग राय थी, कोई फेशन डिज़ाईनर बनना चाहता था, कोई ब्यूटी पार्लर चलाना चाहता था, कोई कम्पयूटर कोर्स तो कोई वकील या एकाऊँटेन्ट. उनमें से एक छात्रा ने कहा कि नर्सिन्ग की पढ़ायी पूरी करके वह आयुर्वेदिक मेडिकल कॉलिज में पढ़ने की कोशिश करेगी.

विवाह और जीवन साथी का चुनाव

छात्रों में से 5 लोग विवाहित थे, वह पाँचों छात्राएँ थीं और पाँचों के पति परिवार ने चुने थे.

बाकी 30 लोगों में से 24 (80%) ने कहा कि उनका जीवन साथी परिवार चुनेगा. केवल 6 लोगों ने कहा कि वह अपना जीवन साथी स्वयं चुनना चाहेंगे, पर उनकी भी चाह थी कि उनका चुना जीवनसाथी उनके परिवार को पसंद आना चाहिये और वे परिवार की मर्ज़ी के विरुद्ध जा कर विवाह नहीं करना चाहेंगे. केवल एक छात्रा ने कहा कि चाहे उसका परिवार कुछ भी कहे, वह तो उसी से विवाह करेगी जो उसे पसंद होगा, और इसके लिए वह परिवार के विरुद्ध भी जा सकती है.

जाति और भेदभाव के अनुभव

केवल 6 लोगों (17%) ने कहा कि उनको जाति सम्बंधित भेदभाव के व्यक्तिगत अनुभव हुए थे। अन्य 9 लोगों (26%) ने कहा कि उनको स्वयं ऐसा कोई अनुभव नहीं हुआ लेकिन उनके परिवार में अन्य लोगों को ऐसे अनुभव हुए.

33 लोगों (95%) ने स्वीकारा कि समाज में जाति से सम्बंधित भेदभाव होता है.

भेदभाव के विषय पर बात करते समय कई छात्रों ने कहा कि नर्सिन्ग होस्टल में रहने की वजह से उनके जाति सम्बंधी विचार बदल गये थे. एक छात्रा ने कहा, "घर में कुछ भी कहते थे तो हम मान लेते थे. लेकिन होस्टल में हम लोग जात पात की बात नहीं सोचते, साथ बैठते, साथ खाना खाते हैं. अलग जाति की लड़कियाँ मेरी मित्र हैं, इससे जाति के बारे में मेरी सोच बदल गयी है."

साथ ही अधिकाँश लोगों का कहना था कि चाहे उनकी अपनी सोच बदल गयी है लेकिन जब वह घर जाते हैं और घर में बड़े बूढ़े लोग जाति का भेदभाव करते हैं तो वह उसका विरोध नहीं कर पाते. एक विवाहित छात्रा ने कहा, "मेरी सास जात-पात को बहुत मानती हैं, मैं अपने घर में किसी अन्य जाति के मित्र को नहीं बुला सकती. जब तक उनके साथ रहूँगी तो उनकी बात ही माननी पड़ेगी. मैं उनसे झगड़ा नहीं कर सकती."

उनसे कहा गया कि मान लीजिये की आप की सहेली या दोस्त अपनी जाति से भिन्न जाति या धर्म के व्यक्ति से प्रेम करता है और उससे विवाह करना चाहता है, लेकिन उसका परिवार इसके विरुद्ध है. आप किसकी तरफ़ होंगे, अपनी सहेली या दोस्त की ओर या उसके परिवार की ओर?

3 लोगों ने इस प्रश्न का उत्तर नहीं देना चाहा. बाकी के 32 लोगों में से 21 (66%) ने कहा कि परिवार ठीक कहता है, जाति या धर्म से बाहर के व्यक्ति से विवाह करना उचित नहीं होगा, बाकी के 11 (34%) लोगों ने कहा कि जो जिससे प्रेम करता है उसे उसी से विवाह करना चाहिये.

घरेलू हिँसा

छात्रों से कहा गया कि मान लीजिये कि एक महिला का पति शाम को थका हुआ घर लौटा. देखा कि पत्नी की सहेली आयी थी, वह उससे बातें कर रही थी और उसने खाना नहीं बनाया था. अगर इस स्थिति में वह अपनी पत्नी को मारे तो क्या आप की राय में वह ठीक है?

10 लोगों (29%) का कहना था कि इस स्थिति में पति का पत्नी को मारना ठीक था. 25 (71%) लोगों ने कहा कि पति का मारना गलत था.

उन 25 में से 11 लोगों (44%) ने कहा कि पति को पहले पत्नी से बात करनी चाहिये थी. अगर ऐसा पहली बार हुआ हो या फ़िर अगर वह पत्नी की विषेश सहेली थी जिससे बहुत सालों से नहीं मिली थी, तो पति को इस बात को समझना चाहिये था कि कभी कभी पत्नी से भूल हो सकती है और उसे मारने की बजाय प्यार से समझाना चाहिये था. लेकिन अगर समझाने के बावज़ूद पत्नी बार बार ऐसा करती है तो उन्होंने कहा कि तब पति का उसे मारना सही है. यानि कुल 70% लोग यह मान रहे थे कि कई परिस्थितियों में पति का पत्नी को मारने को सही समझा जा सकता है.

केवल 7 लोगों (20%) ने कहा कि किसी भी हालत में पति को पत्नी को मारने का अधिकार नहीं है.

इस विषय पर बात करते हुए उनसे पूछा गया कि क्या पत्नी हिँसा करे तो वह सही मानी जा सकती है? मान लीजिये कि पत्नी काम पर गयी है, शाम को थकी हुई घर लौटी है. पति को उस दिन काम पर नहीं जाना था, वह सारा दिन घर पर ही था. पत्नी देखती है कि सारा घर गन्दा पड़ा है, खाना भी नहीं बना. पति के मित्र आये हैं, उनकी ताश और शराब चल रही है और पति ने जूए में बहुत पैसा खो दिया है. क्या ऐसी हालत में पत्नी पति से झगड़ा कर सकती है या उसे मार सकती है?

4 लोगों ने इस प्रश्न का उत्तर नहीं देना चाहा. बाकी 31 में से 26 लोगों (84%) ने कहा कि नहीं पत्नी को लड़ना या हिँसा नहीं करनी चाहिये. उनमें से अधिकतर का कहना था कि पति तो भगवान बराबर होता है, पत्नी को उसका सम्मान करना होता है, वह उस पर किसी भी हालत में हाथ नहीं उठा सकती.

तो ऐसी हालत में पत्नी को क्या करना चाहिये? अधिकतर लोगों का कहना था कि अगर पति अक्सर ऐसा करता हो कि हर महीने घर का पैसा जूए और नशे में गँवा देता हो तो ऐसे पति को सुधारने के लिए घर के बड़े बूढ़ों को कहना चाहिये, उन्हें ही कुछ करना पड़ेगा.

5 लोगों (16%) ने कहा कि इस हालत में पत्नी का पति से लड़ना सही है और अगर यह बार बार हो तो ऐसे पति से तलाक भी ले सकते हैं.

परिवार में लड़कियों के प्रति भेदभाव

12 लोगों (34%) ने कहा कि उन्हें अपने परिवार में उन्होंने लड़को तथा लड़कियों के प्रति व्यवहार में भेदभाव का व्यक्तिगत अनुभव था.

32 लोगों ने माना कि समाज में लड़के तथा लड़कियों के प्रति  भेदभाव आम होता है. 10 लोगों (29%) ने, वह सभी लड़कियाँ थीं, इस भेदभाव को सही बताया.

उनसे कहा गया कि मान लीजिये कि एक घर में शाम को लड़का बाहर जाना चाहता है, परिवार में उसे कोई मना नहीं करता. लेकिन जब उस लड़के की हमउम्र बहन शाम को बाहर जाना चाहती है तो परिवार उसे मना करता है, कहता है कि लड़कियों को घर से बाहर जाने में खतरा है. क्या आपकी राय में यह सही है या गलत?

3 लोगों ने इस प्रश्न का उत्तर नहीं देना चाहा. बाकी के 32 लोगों में से 24 (75%) ने कहा कि परिवार सही करता है क्योंकि लड़कियों के लिए शाम को बाहर जाने में खतरा है. केवल 8 लोगों (25%) ने कहा कि लड़कियों पर इस तरह रोक लगाना सही बात नहीं हैं.

फ़िर उनसे कहा गया कि मान लीजिये कि आप की सहेली का विवाह हो चुका है, उसकी एक बेटी है और वह फ़िर से गर्भवति हैं. उसका अल्ट्रासाउँड टेस्ट बताता है कि अगली भी बेटी होगी. उसकी सास कहती है कि गर्भपात करा दो. आप उसे क्या राय देंगी?

11 लोगों (31%) ने इस प्रश्न का उत्तर नहीं दिया. बाकी के 24 लोगों में से 12 लोगों (50%) ने कहा कि सास की बात माननी पड़ेगी. 12 लोगों ने कहा कि उनकी सलाह होगी कि गर्भपात नहीं कराया जाये. दो छात्राओं ने कहा कि वह अपनी सहेली की सास  को समझाने की कोशिश करेंगी.

सरकारी व प्राईवेट अस्पताल

छात्रों के अनुसार सरकारी अस्पतालों में अच्छी बाते हैं कि वहाँ कोई फीस नहीं होती, दवा भी निशुल्क होती है, स्पेशेलिस्ट डाक्टर अधिक होते हैं और सुविधाएँ अधिक होती हैं. उनकी बुरी बाते हैं कि वहाँ देखभाल अच्छी नहीं होती, अक्सर दवाईयाँ नहीं मिलती, सुविधाएँ नाम की होती हैं पर काम नहीं करती, कर्मचारी लापरवाह होते हैं, सफाई की कमी होती है, डाक्टर काम पर नहीं आते और बहुत भीड़ होती है.

प्राईवेट अस्पतालों में अच्छी बाते हैं कि वहाँ देखभाल बेहतर होती है, कर्मचारी ज़्यादा ध्यान से काम करते हैं, सफाई बेहतर होती है, भीड़ कम होती है और जो भी सुविधाएँ होती हैं वह ठीक से काम करती हैं. उनकी बुरी बातें हैं कि वहाँ पैसे बहुत लगते हैं, अक्सर बिना जरूरत के टेस्ट किये जाते हैं, बिना ज़रूरत की दवाएँ दी जाती हैं, और अगर आप गरीब हैं तो आप को कोई नहीं पूछता.

उनसे पूछा गया कि अगर आप बीमार हों तो आप कहाँ जाना चाहेंगे, सरकारी अस्पताल में या प्राईवेट अस्पताल में? 34 लोगों (97%) ने कहा कि अगर वह बीमार होंगे तो वह प्राईवेट अस्पताल में जाना चाहेंगे.

उनसे पूछा गया कि नर्सिंग की ट्रेनिन्ग पूरी होने के बाद आप सरकारी अस्पताल में काम करना चाहेंगे या प्राईवेट अस्पताल में? 34 लोगों (97%) ने कहा कि वे सरकारी अस्पताल में काम करना चाहेंगे. इसके कारण थे कि सरकारी काम में रहने के लिए घर मिलना, सेवा निवृति पर पैंशन मिलना, काम से छुट्टी लेना अधिक आसान है, काम करना भी अधिक आसान है और नौकरी से निकलना बहुत कठिन है.

यानि अपनी बीमारी हो या परिवार की तो लोग प्राईवेट अस्पताल में जाना पसंद करते हैं जबकि नौकरी सरकारी अस्पताल में करना चाहते हैं. पर इस बात में उत्तरप्रदेश के नवजवान लोग बाकी भारत जैसे ही है. अप्रैल 2017 में सी.एस.डी.एस. ने भारत के विभिन्न राज्यों में रहने वाले नवजवानों का सर्वे किया था, उस में भी केवल 7 प्रतिशत लोगों ने प्राईवेट सेक्टर में नौकरी को प्राथमिकता दी थी.

सर्वे में मिले उत्तरों पर विमर्श

जनसंख्या की दृष्टि से देखें तो अगर उत्तरप्रदेश स्वतंत्र देश होता तो दुनिया में पाँचवें स्थान पर होता. विश्व स्तर पर मानव विकास मापदँड की दृष्टि से देखें तो भारत काफ़ी नीचे है, स्वास्थ्य के कुछ आकणों में हमारी स्थिति बँगलादेश से भी पीछे है.

भारत के विभिन्न राज्यों के मानव विकास मापदँडों को देखें तो उत्तरप्रदेश का स्थान अन्य राज्यों की तुलना में बहुत नीचे है. चाहे वह बच्चियों के भ्रूणों की हत्या हो या वार्षिक बाल मृत्यू दर, उत्तरप्रदेश में इनकी स्थिति दयनीय है. स्वास्थ्य के कई आँकणों में उत्तरप्रदेश की स्थिति अफ्रीका के गरीब और पिछड़े देशों जैसी है या उनसे भी बदतर है.

ऐसी हालत में यह जानना कि उत्तरप्रदेश की युवा पीढ़ी क्या सोचती है, महत्वपूर्ण है. आज की नर्सिन्ग छात्राएँ कल यहाँ की स्वास्थ्य सेवाओं में हिस्सा लेंगी, परिवारों को सलाह देंगी. उनकी सोच तथा आचरण से समाज के अन्य लोग भी प्रभावित होंगे.

तो आप के विचार में नर्सों से की मेरी बातचीत उत्तरप्रदेश के भविष्य के बारे में हमें क्या बताती है? कुछ दिन पहले गोरखपुर के अस्पताल में 60 बच्चों की मृत्यू से भारत के समाचार पत्रों में हल्ला मचा था, पर उत्तरप्रदेश के लिए यह कोई नयी बात नहीं है. वहाँ के पिछले दस वर्षों के आँकणे देखिये, हर साल वहाँ दस्त, न्योमोनिया, एन्सेफलाईटस, मलेरिया आदि बीमारियों से लाखों बच्चे मरते हैं, जिनका सही समय पर इलाज किया जाये तो वह बच्चे बच सकते हैं.

यही है भारत की अपने भीतर की विषमताएँ - भारत के दक्षिण के कुछ राज्यों के स्वास्थ्य आँकणे अमरीका जैसे हैं, और उत्तरप्रदेश, बिहार, झारखँड जैसे राज्यों के अफ्रीका जैसे.

हमारी कथनी और करनी में भी अंतर है. पाराम्परिक विचारों को बदलना आसान नहीं है. अगर हम पूछें कि क्या आप नारी पुरुष में बराबरी में विश्वास करते हैं, तो सब लोग हाँ कह देते हैं. अगर आप पूछते हैं कि घर और परिवार में नारी के साथ होने वाली हिँसा गलत है, तो भी सब लोग हाँ कह देते हैं. लेकिन इन विचारों की कहनी और प्रतिदिन के जीवन की करनी में विरोधाभास है. हम लोग कहते कुछ हैं, करते कुछ और.

इसका यह अर्थ नहीं कि सकारात्मक बदलाव नहीं हुए है. माता और पिता की पढ़ायी के आँकणे दिखाते हैं कि शिक्षा के स्तर में पिछली पीढ़ी में बहुत भेदभाव था. सर्वे में भाग लेने वाले की करीब एक तिहाई माएँ अनपढ़ थीं. इस दृष्टि से सर्वे की युवतियाँ उन घरों में पढ़ने लिखने वाली युवतियों की पहली पीढ़ी हैं. शायद उनकी बेटियों में कथनी और करनी के यह विरोधाभास कम होंगे, वह लोग पारिवारिक हिँसा और भेदभाव के विरुद्ध आवाज़ उठायेंगी.

अंत में

इस सर्वे से मुझे लगा कि सामाजिक विचारों को बदलना आसान नहीं है. हम जितने स्लोगन बना लें, पोस्टर बना लें, लोगों कों जानकारी हो जाती है लेकिन इससे उनके विचार या आचरण नहीं बदलते. ऊपर से दिखावे के लिए हम कुछ भी कह दें लेकिन हमारी भीतरी सोच क्या है, यह कहना समझना कठिन है.

मैं उम्र में उन नर्सिंग के छात्रों से बहुत बड़ा था, बाहर से आया था और पुरुष था. इसलिए यह नहीं कह सकते कि उन्होंने हर बात का जो सोचते हैं वही सच सच उत्तर दिया होगा. फ़िर भी इस सर्वे से उत्तरप्रदेश की युवा पीढ़ी, विषेशकर नवयुवतियाँ क्या सोचती हैं, इसकी कुछ जानकारी मिलती है.

आप बताईये कि आप के अनुभव इस सर्वे में पायी जाने वाली स्थिति से कितने मिलते हैं और कितने भिन्न हैं? और अगर आप को इस तरह के प्रश्न पूछने का मौका मिलता तो बदलते उत्तरप्रदेश को समझने के लिए आप कौन से प्रश्न पूछते?

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बुधवार, सितंबर 14, 2016

डागधर बाबू कहाँ तक पढ़े हैं?

कुछ दिन पहले विश्व स्वास्थ्य संस्थान की भारत में स्वास्थ्य कर्मियों की स्थिति के बारे में एक दिलचस्प रिपोर्ट को पढ़ा. अक्सर इस तरह की रिपोर्टों में समाचार पत्रों या पत्रिकाओं को दिलचस्पी नहीं होती. इनके बारे में अंग्रेज़ी प्रेस में शायद कुछ मिल भी जाये, हिन्दी के समाचार पत्रों तथा पत्रिकाओं में इसकी चर्चा कम ही होती है. इसलिए सोचा कि इसकी बात ब्लाग के माध्यम से करनी चाहिये.



भारत में स्वास्थ्य सेवा कर्मी

हर वर्ष, संयुक्त राष्ट्र की विश्व स्वास्थ्य संस्था दुनिया के विभिन्न देशों के बारे में स्वास्थ्य-कर्मी सँबधी आँकणे प्रकाशित करती है, जो उन्हें देश की सरकारें देती हैं. पर इसमें भारतीय आँकणे अक्सर अधूरे रहते हैं. आँकणे हों भी तो राष्ट्रीय स्तर के औसत आँकणे होते हैं जिनमें विभिन्न राज्यों की स्थिति को समझना आसान नहीं. इन आँकणों की विश्वासनीयता भी संदिग्ध होती है.

उदाहरण के लिए अगर हम विश्व स्वास्थ्य सँस्था द्वारा प्रकाशित सन् 2011 के आँकणे देखें तो उनके अनुसार सन 2000 से 2010 के अंतराल के समय में भारत में हर 10,000 जनसंख्या के लिए 6 डाक्टर, 13 नर्से व दाईयाँ तथा 0.7 दाँतों के डाक्टर थे.

इन आँकणों को विश्वासनीय माना जाये तो हम कह सकते हैं कि विकसित देशों के मुकाबले में भारत बहुत पीछे था. जैसे कि 2011 की रिपोर्ट के अनुसार फ्राँस में हर 10,000 जनसंख्या में 35 डाक्टर, 90 नर्सें व दाईयाँ तथा 7 दाँतों के डाक्टर थे. लेकिन अपने आसपास के देशों के मुकाबले हमारी स्थिति उतनी बुरी नहीं है. जैसे कि बँगलादेश में हर 10,000 जनसंख्या में 3 डाक्टर, 2.7 नर्सें व दाईयाँ तथा 0.2 दाँतों के डाक्टर थे. हाँ इस रिपोर्ट में पड़ोसी देशों में चीन के मुकाबले में हम थोड़ा पीछे थे, जहाँ हर 10,000 जनसंख्या में 14 डाक्टर, 14 नर्सें व दाईयाँ तथा 0.4 दाँतों के डाक्टर थे.

विश्व स्वास्थ्य संस्था की वार्षिक रिपोर्ट में सरकारें अपने नागरिकों के लिए स्वास्थ्य सेवाओं के लिए कितना खर्चा करती हैं, इसकी जानकारी भी होती है. 2011 की इस रिपोर्ट के अनुसार सन 2008 में देशों के द्वारा कुल राष्ट्रीय आय का कितना हिस्सा स्वास्थ्य सेवाओं में गया उसकी स्थिति ऐसी थी - फ्राँस ने 11.2 प्रतिशत, बँगलादेश ने 3.3 प्रतिशत, चीन ने 4.4 प्रतिशत और भारत ने 4.2 प्रतिशत. यानि भारत में स्वास्थ्य सेवाओं पर किये जाने वाले खर्च की स्थिति बुरी नहीं थी.

लेकिन अगर यह देखें कि स्वास्थ्य पर होने वाले खर्चे में कितना प्रतिशत सरकार ने किया और कितना प्रतिशत लोगों नें अपनी जेब से उस खर्चे को उठाया तो स्थिति कुछ बदल जाती है. सन 2008 में स्वास्थ्य पर होने वाले खर्च में सरकारी खर्च के हिस्से की स्थिति कुछ इस तरह की थी - फ्राँस में 76 प्रतिशत, चीन में 47 प्रतिशत और भारत में 32 प्रतिशत. यानि भारत में बीमारी का इलाज कराने के लिए दो तिहायी से अधिक खर्चा लोग स्वयं उठाते हैं.

भारत में हुए एक अन्य शोध ने दिखाया था कि गरीब लोगों में कर्ज़ा लेने के सबसे पहला कारण स्वास्थ्य सम्बन्धी खर्चा है. स्वास्थ्य तथा शिक्षा दोनो ही क्षेत्रों में सरकारी सेवाओं पर लोगों का भरोसा कम है. दूसरी ओर, भारत में प्राईवेट स्कूल तथा अस्पताल, दोनों ही बड़े बिज़नेस हैं.

भारत में स्वास्थ्यकर्मियों पर विश्व स्वास्थ्य संस्था की 2016 की नयी रिपोर्ट

यह रिपोर्ट कहने के लिए नयी है और भारत में इस तरह की जानकारी पहली बार उपलब्ध हुई है, इसलिए महत्वपूर्ण है. पर यह कहना आवश्यक है कि यह शोध सन 2001 में की गयी राष्ट्रीय जनगणना की जानकारी पर आधारित है. यानि इसकी जानकारी आज की स्थिति की जानकारी नहीं देती, बल्कि 16 वर्ष पहले की स्थिति की जानकारी देती है. इस रिपोर्ट को प्रो. सुधीर आनन्द तथा डा. विक्टोरिया फान ने एक शौध पर तैयार किया है.

जनगणना में "आप क्या काम करते हैं?" का प्रश्न होता है. प्रो. आनन्द तथा डा. फान ने इस प्रश्न के उत्तर देने वालों में कितने स्वास्थ्य कर्मी थे, उन उत्तरों को निकाल कर उसका विशलेषण किया है. चूँकि यह जानकारी हर जनगणना में एकत्रित की जाती है, मेरी आशा है कि भारतीय जनगणना संस्थान तथा स्टेसस्टिक विभाग 2011 की जनगणना की जानकारी पर भी इस तरह का विशलेषण करेगा और उसके लिए हमें सोलह साल की प्रतीक्षा नहीं करायेगा.

2001 की जनगणना पर किये शोध में एलोपेथिक, होम्योपेथिक, आयुर्वेदिक तथा युनानी सभी स्वास्थ्य प्रणालियों में काम करने वाले कर्मियों के बारे में जानकारी मिलती है. इनमें से कुछ प्रमुख जानकारियाँ हैं:

- हर 10,000 जनसंख्या में 8 डाक्टर थे, जिनमें से 77 प्रतिशत एलोपेथिक थे.

- 80 प्रतिशत डाक्टर शहरों में थे, 20 प्रतिशत डाक्टर ग्रामीण शेत्रों में.

- अपने आप को एलोपेथिक डाक्टर कहने वालों में से 57 प्रतिशत के पास कोई मेडिकल डिग्री नहीं थी, उनमें से 31 प्रतिशत ने केवल हाई स्कूल तक पढ़ायी की थी. इनमें से अधिकतर तथाकथित डाक्टर गाँवों में काम कर रहे थे. गाँवों में काम करने वाले एलोपेथिक डाक्टरों में से केवल 19 प्रतिशत के पास मेडिकल डिग्री थी. गाँवों में मेडिकल कॉलेज में शिक्षित डाक्टरों में महिलाएँ अधिक थीं.

- हर 10,000 जनसंख्या में 6 नर्सें या मिडवाइफ थीं, जिनमें से केवल 12 प्रतिशत महिलाओं तथा 3 प्रतिशत पुरुषों के पास नर्सिंग की डिग्री थी.

- ऊपर के सभी आँकणे राष्ट्रीय स्तर की औसत स्थिति को बताते हैं. राज्य स्तर पर जानकारी इस औसत स्थिति से बहुत भिन्न हो सकती है.

  • जैसे कि, पश्चिम बँगाल में देश की 8 प्रतिशत जनसंख्या थी और देश के कुल 31 प्रतिशत होम्योंपेथी के डाक्टर वहाँ काम करते थे. उत्तर प्रदेश में देश की 16 प्रतिशत जनसंख्या थी और देश के 37 प्रतिशत युनानी डाक्टर. महाराष्ट्र में देश की 9 प्रतिशत जनसंख्या थी और देश के 23 प्रतिशत आयुर्वेदिक डाक्टर.
  • केरल में देश की 3 प्रतिशत जनसंख्या थी और वहाँ की 38 प्रतिशत नर्सों के पास नर्सिंग डिग्री थी.
  • त्रिपुरा, ओडिशा तथा केरल में एलोपेथिक डाक्टर राष्ट्रीय औसत से कम थे, वह करीब 60 प्रतिशत थे और अन्य चिकित्सा पद्धितियों के डाक्टर करीब 40 प्रतिशत.
  • केरल तथा मेघालय में महिला स्वास्थ्य कर्मचारी करीब 64 प्रतिशत थीं, जबकि उत्तरप्रदेश तथा बिहार में 20 प्रतिशत से भी कम.
इस रिपोर्ट में अन्य भी दिलचस्प जानकारियाँ हैं. अगर आप चाहें तो अंग्रेज़ी में पूरी रिपोर्ट को निशुल्क डाउनलोड कर सकते हैं.

विश्व स्वास्थ्य संस्थान की रिपोर्ट का महत्व

भारत में कितने स्वास्थ्य कर्मी हैं, उनमें कितनी महिलाएँ कितने पुरुष हैं, उनमें कितनो के पास मेडिकल प्रशिक्षण की डिग्री है, किस राज्य में क्या स्थिति है, शहरों तथा गाँवों में क्या अंतर है, आदि प्रश्नों के भारत सरकार से इस से पहले कुछ उत्तर नहीं मिलते थे. इस रिपोर्ट में इन प्रश्नों के पहली बार कुछ उत्तर मिले हैं, इस दृष्टि से यह रिपोर्ट बहुत महत्वपूर्ण है.

इस रिपोर्ट का दूसरा महत्व है यह जानना कि यह जानकारी हमारे जनगणना कार्यक्रम से मिल सकती है, इसके लिए कोई विषेश शौध नहीं किया गया, बल्कि केवल 2001 की जनगणना के आँकणों को नयी दृष्टि से देखा व समझा गया. यानि अगर भारत सरकार चाहे तो इसी तरीके से यह जानकारी 2011 की जनगणना के आँकणों से भी मिल सकती है.

जनगणना से मिलने वाली जानकारी इस शौध की दृष्टि से कितनी विश्वासनीय है, यह सोचना भी आवश्यक है. कोई आप से पूछे कि आप कहाँ तक पढ़े हैं, फ़िर पूछे की क्या काम करते हैं, तो क्या आप सच बोलेंगे कि आपकी पढ़ायी हाई स्कूल की है और काम डाक्टर का करते हैं? यह हो सकता है कि कुछ लोग इन प्रश्नों के उत्तर ठीक से न दें. यानि रिपोर्ट की जानकारी की शत प्रतिशत विश्वस्नीय नहीं कहा जा सकता.

यह जानकारी कुछ अधूरी भी है. जैसे कि यह नहीं बताती कि जो लोग गाँवों में बिना डिग्री के "डाक्टर" का काम करते हैं उनमें से कितने लोगों ने इससे पहले कितने सालों तक किसी अस्पताल या डाक्टर के साथ काम किया था?

स्वास्थ्य सेवा कर्मियों से जुड़े कुछ अन्य प्रश्न

एक ओर से आप इस रिपोर्ट से मिलने वाली जानकारी के बारे में सोचिये और दूसरी ओर से सोचिये कि राज्य तथा राष्ट्रीय स्तर की भारतीय मेडिकल एसोशियनें, कोशिश करती रहती हैं कि बिना डिग्री वाले डाक्टरों पर पुलिस कार्यवाही करे और उनके क्लिनिक बन्द किये जायें. इन्होंने इस तरह के कानून बनायें हैं कि विदेश से पढ़े डाक्टरों की मेडिकल डिग्रियाँ भारत में न मानी जायें औेर उन्हें भारतीय मेडिकल रजिस्ट्रेशन न मिले, उन्हें कठिन इम्तहान पास करने के लिए कहा जाये.

भारतीय सरकारी अस्पतालों में काम करने होम्योपेथी, युनानी तथा आयुर्वेदिक चिकित्सकों को तन्खवाह तथा सुविधाएँ कम मिलती हैं, और सामाजिक स्तर पर उनको एलोपेथिक डाक्टरों से नीचा माना जाता है. ऐसे भी कानून हैं कि बिना डाक्टर के नर्स क्लिनिक नहीं चला सकतीं न ही इलाज कर सकती हैं.

यानि कानून क्या कहता है और देश की सच्चाई क्या है, कथनी व करनी में बहुत बड़ा अंतर है. दिल्ली, मुम्बई में कानून लागू किये जा सकते हैं, गाँवों में उन्हें कौन लागू करेगा?

यह प्रश्न भी स्वाभाविक है कि अगर स्वास्थ्य क्षेत्र में काम करने के लिए मेडिकल कॉलेज या नर्सिन्ग की डिग्री आवश्यक है तो वह ग्रामीण क्षेत्रों वाले क्या करें जहाँ देश के केवल 20 प्रतिशत डाक्टर हैं और उनमें से अधिकाँश के पास ऐसी कोई डिग्री नहीं है? कुछ माह पहले मुझे महाराष्ट्र में कुछ गाँवों में घूमने का मौका मिला. वहाँ मैंने देखा कि कई बार प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र (प्रा.स्वा.के.) तथा गाँवों के बीच तीस पैंतीस किलोमीटर की दूरी होती है, और प्रा.स्वा.के. पहुँचने के लिए यातायात मिलना कठिन होता है. लोग दो तीन घँटे की यात्रा के बाद प्रा.स्वा.के. पहुँचते हैं तो डाक्टर मिलेगा या नहीं, यह कहना आसान नहीं. डाक्टर हो भी तो दवा होंगी, यह कठिन है. कभी उन्हें कहा जाता है कि उन्हें जिला अस्पताल जाना पड़ेगा, जिसके लिए और दो चार घँटे की यात्रा करनी पड़े. इस स्थिति में लोग किससे इलाज करायें?

यह स्थिति केवल महाराष्ट्र में है, ऐसी बात नहीं, बल्कि शायद महाराष्ट्र में स्थिति बाकी देश से कुछ बेहतर है. छत्तीसगढ़ में बिलासपुर जिले में गणियारी में काम करने वाली स्वयंसेवी संस्था "जन स्वास्थ्य सहयोग" ने अपनी नयी पुस्तिका "ग्रामीण स्वास्थ्य एटलस" (An Atlas of Rural Health) में मलेरिया से मरने वालों की स्थिति का जो विवरण दिया है, उससे प्रा.स्वा.के. में इलाज करवाने की कठिनाईयों के साथ साथ राज्य स्तर पर आँकणों की विश्वस्नीयता के बारे में जानकारी मिलती है:

रिगबार गाँव के छः वर्षीय श्यामलाल यादव को तीन दिन से बुखार व सिरदर्द था. जब उसका शरीर पीला पढ़ने लगा तो उसके परिवार ने झाड़ फ़ूँक करने वाले ओझा को बुलाया, फ़िर वहाँ के स्थानीय बिना डिग्री वाले डाक्टर के पास ले गये जिसने एक इन्जेक्शन लगाया, जिससे बच्चे का बुखार एक दिन के लिए उतरा.
अगले दिन जब बच्चे के पिता आनन्द राम ने देखा कि बच्चे को तेज़ बुखार था और साँस लेने में कठिनाई हो रही थी तो उसे रतनपुर में 25 कि.मी. दूर प्रा.स्वा.के. में ले जाने की सोची, पर समस्या थी कि कैसे ले कर जाये. सरपंच साहब ने मोटरसाईकल का इन्तज़ाम किया. प्रा.स्वा.के. ने जाँच करके बताया कि मलेरिया है और इलाज के लिए 30 कि.मी. दूर बिलासपुर ले जाने के लिए कहा. उस दिन अंतिम बस पकड़ कर आनन्द राम रात को 8 बजे गाँव वापस पहुँचा. अपनी एक एकड़ ज़मीन को फसल के साथ गिरवी रख कर 8000 रुपये लिए और सुबह की इन्तज़ार की. सुबह चार बजे, बच्चे ने अंतिम साँस ली...
सरकारी आँकणों के अनुसार, भारत में वर्ष में 20 लाख लोगों को मलेरिया होता है और उससे 700 व्यक्तियों की मृत्यू होती है. विश्व स्वास्थ्य संघ ने अनुमान लगाया है कि भारत में वर्ष में असल में करीब एक करोड़ पचास लाख लोगों को मलेरिया होता है और करीब 20 हज़ार व्यक्ति मरते हैं. एक अन्य शौध ने अनुमान लगाया है मलेरिया से हर वर्ष कम से कम डेड़ से सवा दो लाख लोगों की मृत्यू होती हैं...
सरकारी आँकणों के हिसाब से 2010 में पूरे छत्तीसगढ़ राज्य में मलेरिया से केवल 42 व्यक्ति मरे, जबकि उसी वर्ष "जन स्वास्थ्य सहयोग" के एक शौध के अनुसार राज्य के बिलासपुर जिले के एक ब्लॉक में कम से कम 200 व्यक्ति मलेरिया से मरे ...

सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं में काम करने वालों पर बहुत दबाव होता है कि स्वास्थ्य समस्याओं की स्थिति बुरी न दिखायी जाये ताकि राज्य की छवि को नुकसान न हो. भारत में कुष्ठ रोग से सम्बन्धित मेरे एक शौध में स्वास्थ्य कर्मियों ने माना कि अगर उनके इलाके में अधिक कुष्ठ रोगी पाये जायेंगे तो अफसर कहेंगे कि वहाँ स्थिति खराब है और काम ठीक से नहीं हो रहा. यानि अगर आप अच्छा काम करेंगे तो आप के काम को बुरा माना जायेगा. इसलिए वह रोगियों को कम करके दिखाते हैं, ताकि अफसर कहें कि वहाँ काम अच्छा हो रहा है.

अंत में

स्वास्थ्य कर्मियों की कमी के साथ साथ, सरकारी स्वास्थ्य सेवा की कमियाँ और हर ओर बढ़ते निजिकरण की कठिनाईयों जैसे विषय भी जुड़े हैं. जब स्वास्थ्य सेवा के साथ पैसा कमाने की बात जुड़ी हो तो कितने डाक्टर इलाज की निर्पेक्ष सलाह दे पाते हैं? एक ओर छोटे शहरों तथा गाँवों में डाक्टर, नर्स, फिसियोथेरापिस्ट, साइकोलोजिस्ट जैसे सेवाकर्मी नहीं मिलते, दूसरी ओर बड़े शहरों में प्राईवेट अस्पतालों में स्पेशलिस्टों की भरमार तथा अधिक से अधिक पैसा कैसे बनाया जाये के चक्कर हैं.

भारत के फ़र्ज़ी बिना डिग्री के डाक्टरों की बात तो बहुत लोग करते हैं लेकिन इस बारे में कोई शौध नहीं हुआ कि उनका लोगों तक स्वास्थ्य सेवा पहूँचाने में क्या सहयोग है? कई बार देखा कि गाँवों में डिग्री वाले और बिना डिग्री वाले कम्पाउँडर-डाक्टर दोनो हैं, और गाँव में सबको मालूम था कि उस "डाक्टर" के पास डिग्री नहीं थी, तो मेरा प्रश्न था कि सब कुछ जान कर भी और प्रशिक्षत डाक्टर का विकल्प होने के बावज़ूद लोग ऐसे फ़र्ज़ी डाक्टर पर क्यों जाते थे? क्या मिलता था उन्हें इन डाक्टरों से जिसकी वजह से उनके क्लिनिक में इतनी भीड़ होती थी?

पर मेरा अनुभव है कि मेडिकल एसोशियेशनों में लोग सख्त कानून बनवाने की बातें करते हैं, उन्हें यह जानने में दिलचस्पी नहीं कि बने कानून क्यों काम नहीं कर रहे और लोग सब कुछ जान समझ कर भी, ऐसी जगहों पर इलाज कराने क्यों जाते हैं.

भारत सरकार ने ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन तथा आशा (ऍक्रेडिटिट सोशल हेल्थ एक्टीविस्ट - ASHA) कार्यक्रमों के माध्यम से गाँवों तथा जिला स्तरों के छोटे शहरों में स्वास्थ्य आवश्यकताओं का उत्तर देने की कोशिश की है. मेरे विचार में जहाँ इस व्यवस्था ने काम किया है, उसका अच्छा प्रभाव पड़ा है. इसके बारे में पिछले एक दो वर्षों में मुझे उत्तरप्रदेश, असम तथा महाराष्ट्र में स्थिति समझने का कुछ मौका मिला है, पर उनके बारे में बात फ़िर कभी होगी.

तकनीकी विकास के साथ आज दुनिया तेज़ी से बदल रही है. मोबाइल फ़ोन और कम्प्यूटरों के माध्यम से चिकित्सा क्षेत्र में बहुत से बदलाव हो रहे हैं. गाँवों में काम करने वाले स्वास्थ्य सेवा कर्मियों के काम में इन तकनीकी विकासों से नये बदलाव आयेंगे. पश्चिमी देशों में कोई भी तकनीकी विकास हो, भारत में उसके सस्ते और सुलभ तरीके खोज लिये जाते हैं. इसलिए मेरे विचार में अगले दशक में भारतीय स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में भी तकनीकी विकास आयेंगे, पर इसकी बात भी फ़िर कभी होगी.

अंत में आप से कुछ पूछना चाहूँगा - आप बिना डिग्री के डाक्टर नर्सों के बारे में क्या सोचते हैं? क्या आप कभी ऐसे लोगों के पास इलाज कराने गये? आप के अपने क्या अनुभव हैं? आप के विचार में लोग ऐसे स्वास्थ्य कर्मियों के पास क्यों जाते हैं?

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गुरुवार, अगस्त 06, 2015

एक अकेला बूढ़ा

भारत की जनसंख्या में बदलाव आ रहा है, बूढ़ों की संख्या बढ़ रही है. अधिक व्यक्ति, अधिक उम्र तक जी रहे हैं. दूसरी ओर परिवारों का ध्रुविकरण हो रहा है. आधुनिक परिवार छोटे हैं और वह परिवार गाँवों तथा छोटे शहरों से अपने घरों को छोड़ कर दूसरे शहरों की ओर जा रहे हैं. जहाँ पहले विवाह के बाद माता पिता के साथ रहना सामान्य होता था, अब बहुत से नये दम्पत्ती अलग अपने घर में रहना चाहते हैं.

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कैसा जीवन होता है भारतीय वृद्धों का?

पिछले वर्ष मैं साठ का पूरा हुआ और सरकारी योजनाओं के लिए "वरिष्ठ नागरिक" हो गया. अपनी साठवीं वर्षगाँठ पर मैंने इटली में अपने परिवार से दूर, कुछ सालों के लिए भारत वापस आ कर अकेला रहने का निर्णय लिया.

मेरे अकेले रहने के निर्णय और भारत के आम वृद्ध व्यक्ति की स्थिति में बहुत दूरी है. यह आलेख बूढ़े होने, अकेलेपन, निस्सहाय महसूस करना, इन्हीं बातों पर मेरे व्यक्तिगत अनुभव को समाजिक परिवर्तन के साथ जोड़ कर देखने की कोशिश है.

इस आलेख की तस्वीरें गुवाहाटी के इस वर्ष के अम्बाबाशी मेले से बूढ़े साधू, साध्वियों और तीर्थ यात्रियों की हैं.

विवाह की वर्षगाँठ

पिछले रविवार को मेरे विवाह की तेंतिसवीं सालगिरह थी. उस दिन नींद सुबह के साढ़े तीन बजे ही खुल गयी. वैसे तो जल्दी उठने की आदत है मुझे, पर इतनी जल्दी नहीं. अधिकतर चार-साढ़े चार बजे के आसपास उठता हूँ. एक दिन पहले सोचा था कि इस बार की विवाह एनीवर्सरी को रोटी बना कर मनाऊँगा. काम से बाद घर वापस आते समय बाज़ार से आटा और बेलन दोनो खरीद कर ले आया था. शायद रोटी बनाने की चिन्ता या उत्सुकता ने ही जल्दी जगा दिया था?

मेरी पत्नी का फोन आया. "तुम विवाह की वर्षगाँठ मनाने के लिए क्या करोगो?", उसने पूछा. "रोटी बनाऊँगा", मैंने कहा तो वह हँसने लगी.

गुवाहाटी में रहते हुए करीब आठ महीने हो चुके हैं. सुबह क्या करना है, इसकी भी नियमित दिनचर्या सी बन गयी है. उठते ही, सबसे पहले शरीर के खुले हिस्सों पर मच्छरों से बचने वाली क्रीम लगाओ. फ़िर बल्ड प्रेशर की गोली खाओ. उसके बाद कॉफ़ी तथा नाश्ते का सीरियल बनाओ. जब तक कॉफ़ी पीने लायक ठँडी हो और कम्यूटर ओन हो तब तक थोड़ी वर्जिश करो.

सुबह उठ कर ध्यान करूँगा, यह कई महीनों से सोच रहा हूँ. लेकिन आँखें बन्द करके पाँच मिनट भी नहीं बैठ पाता हूँ. कहने को अकेला हूँ, समय की कमी नहीं होनी चाहिये, लेकिन ठीक से ध्यान करने के लिए समय निकालना अभी तक नहीं हो पाया. और भी बहुत सी बातें हैं जिनको करने के सपने देखे थे, पर जिन्हें करने का अभी तक समय नहीं खोज पाया - असमी बोलना सीखना, संगीत की शिक्षा लेना, चित्रकारी करना, नियमित रूप से लिखना, आदि.

सारा दिन तो काम में निकल जाता है. मैं यहाँ गुवाहाटी में एक गैर सरकारी संस्था "मोबिलिटी इँडिया" के लिए काम कर रहा हूँ.ऊपर से घर के काम अलग. कितनी भी कोशिश कर लूँ, उन्हें पूरा करना कठिन है. झाड़ू, पोचा, कपड़े धोना, बाज़ार जाना, खाना बनाना, बर्तन साफ़ करना, कपड़े प्रेस करना, मकड़ी के जाले हटाना, खिड़कियों के शीशे साफ़ करना, बिखरे कागज़ सम्भालना, कूड़ा फैंकना, और जाने क्या क्या! यह सब काम एक दिन में पूरे नहीं हो सकते. इसीलिए अभी तक टीवी भी नहीं खरीदा. सोचा कि वैसे ही समय नहीं मिलता, अगर टीवी देखने में लग गया तो बाकी के सब कामों को कौन करेगा?

भारत आने के बाद अकेला रहते रहते, धीरे धीरे सब खाना बनाना सीख चुका हूँ. बस अब तक कभी रोटी नहीं बनायी थी. मार्किट में बनी बनायी रोटियाँ मिलती हैं जिन्हें फ्रिज़र में रख सकते हैं और आवश्यकतानुसार गर्म कर सकते हैं. पर इधर दो-तीन बार मार्किट गया था लेकिन बनी बनायी रोटी नहीं मिली. दुकान में केवल पराँठे थे जो मुझसे ठीक से हज़म नहीं होते. फ़िर सोचा कि जिस तरह से बाकी सब खाना बनाना आ गया है तो रोटी बनाने में क्या मुश्किल होगी? बस इस शुरुआत के लिए किसी शुभ दिन की प्रतीक्षा थी. और विवाह की वर्षगाँठ से अच्छा शुभदिन कौन सा मिलता!

रविवार की सारी सुबह रसोई में गुज़री. रेडियो से गाने सुनता रहा और साथ साथ खाना बनाता रहा. जब थोड़ी गर्मी लगी, तो फ्रिज में ठँडी बियर इसीलिए रखी थी. शायद बियर का ही असर था कि जब कोई पुराना मनपसंद गाना आता तो खाना बनाते बनाते थोड़े नाच के ठुमके भी लगा लिए. जब कोई देख कर हँसने वाला न हो, तो जो मन में आये उसे करने से कौन रोकेगा?

तीन घँटों की मेहनत के बाद, उस दिन के खाने में केवल दाल ही सही बनी. रोटियाँ भी कुछ सूखी सूखी सी बनी थीं और आकार में ठीक से गोल भी नहीं थीं. पर अपनी मेहनत का बनाया खाना था, उसे बहुत आनन्द से खाया. मन को दिलासा दिया कि अगली बार रोटी भी अच्छी बनेगी!

यही सपना देखा था मैंने, भारत आ कर ऐसे ही रहने का. जहाँ तक हो सके, अपना हर छोटा बड़ा काम अपने आप करने का. जितना हो सके पैदल चलने का या सामान्य लोगों की तरह बस में यात्रा करने का.

वैसे सच में मेरा एक सपना यह भी था कि एक साल तक भगवा पहन कर, दाढ़ी बढ़ा कर, बिना पैसे के, भारत में इधर उधर भटकूँ. अगर कोई खाने को दे या सोने की जगह दे दे, तो ठीक, नहीं मिले तो भूखा ही रहूँ, सड़क के किनारे सो जाऊँ. पर जोगी बन कर जीने के उस सपने को जी पाने का साहस अभी तक नहीं जुटा पाया हूँ.

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यूरोप में रह कर आराम से जीना, काम के लिए विभिन्न देशों में घूमना, बड़े होटलों में तरह तरह के खाने खाना, सारा जीवन वैसे ही जिया था. इसीलिए मेरा सपना था कि भारत आ कर उस सब से भिन्न जीवन जियूँ. सपने देखना तो आसान है, सच में उन्हें जीना कठिन. सपनों में न मच्छर होते हैं, न गर्मी और उमस. पर मैंने जो सोचा था उसे मैं कर पाया. अब भी कभी कभी विश्वास नहीं होता कि मैं अपना सपना जी रहा हूँ.

वैसे गुवाहाटी में जिस तरह रहने का निर्णय लिया है, वह उतना कठिन नहीं है. यहाँ अम्बुबाशी के मेले में बहुत से बूढ़े साधू दिखे. सोचा कि खुले में रहने वाले यह वृद्ध लोग जब तबियत खराब हो तो क्या करते होंगे? शायद अन्य साधू ही उनका ख्याल करते होंगे? और बुखार हो या जोड़ों में दर्द हो तो खुले में गर्मी, सर्दी में बाहर रहना कितना कठिन होता होगा!

अकेला निस्सहाय बूढ़ा

रविवार को ही सुबह इंटरनेट पर एक नयी तमिल फ़िल्म की समीक्षा पढ़ी थी, जिसका अकेला वृद्ध नायक अपने अकेलेपन से बचने के लिए दिल का दौरा पड़ने का बहाना करता है ताकि एम्बूलैंस के चिकित्साकर्मियों से ही कुछ बात कर सके. उसे पढ़ कर सोच रहा था कि मैं भी तो एक अकेला बूढ़ा हूँ, तो मुझमें और उन अन्य बूढ़ों में क्या अन्तर है जो जीवन के आखिरी पड़ाव में खुद को अकेला तथा निस्सहाय पाते हैं? मैं स्वयं को क्यों अकेला तथा निस्सहाय नहीं महसूस करता?

शायद सबसे बड़ा अन्तर है कि मैंने यह जीवन स्वयं चुना है. अगर मेरा गुवाहाटी में ट्राँसफर हो गया होता, मुझे यहाँ अकेले रहने आना पड़ता, तो मुझे भी यहाँ रहना भारी लगता. जब परिवार से दूर रहना पड़े, करीब में न कोई बात करने वाला हो, न कोई मित्र, तो वह अकेलापन सहन करना कठिन हो सकता है. पर जब इस तरह जीने का सपना देखा हो और सोच समझ कर यह निर्णय लिया हो कि मैं कुछ वर्षों तक ऐसे ही रहूँगा, तो जीवन की हर बात देखने की दृष्टि बदल जाती है. खाना बनाना, सफाई करना, बस की भीड़ में धक्के खाना, सब कुछ एक सपने का हिस्सा हैं, अपने आप से स्पर्धा हैं कि मैं यह कर सकता हूँ या नहीं. इसमें किसी की जबरदस्ती नहीं है.

यह भी सच है कि मैं यह जीवन जीने के लिए मजबूर नहीं हूँ. जिस दिन चाहूँ, इसे छोड़ कर अपने पुराने जीवन में वापस जा सकता हूँ. बीच बीच कुछ दिनों के लिए यूरोप गया भी हूँ. अगर सामने कोई विकल्प न हो, केवल ऐसा ही जीने की मजबूरी हो तो शायद मुझे भी इससे डिप्रेशन हो जाये?

रिटायर होने में "अब समय का क्या करें" का भाव भी होता है. अचानक दिन लम्बे, निर्रथक और खाली हो जाते हैं. मेरे साथ यह बात भी नहीं. काम, किताबें पढ़ना, लिखना, इन्टरनेट, फोटोग्राफ़ी, जो सब कुछ मैं करना चाहता हूँ उसके लिए दिन थोड़े छोटे पड़ते हैं. लेकिन अगर आप ने अपना सारा जीवन अपने काम के आसपास लपेटा हो, और एक दिन अचानक वह काम न रहे, तो जीवन की धुरी ही नहीं रहती. लगता है कि हम किसी काम के नहीं रहे. औरतों पर तो फ़िर भी घर की ज़िम्मेदारी होती है, रिटायर हो कर भी वह उन्हीं की ज़िम्मेदारी रहती है. लेकिन मेरे विचार में सेवानिवृत पुरुषों को नया जीवन बनाना अधिक कठिन लगता है.

शायद बूढ़े होने में, निस्सहायता के भाव के पीछे सबसे बड़ी मजबूरी गरीबी या पैसा कम होने की है. और एक अन्य बड़ी बात शरीर के कमज़ोर होने तथा बीमारी की है. अगर अचानक कुछ बीमारी हो जाये, या शरीर के किसी हिस्से में दर्द होने लगे, या केवल बुखार ही आ जाये, तो शायद मैं भी वैसा ही निस्सहाय महसूस करूँगा!

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हमारे जीवन का अंत कैसे होना है, यह किसी को नहीं मालूम. कुछ दिन पहले जब भूतपूर्व राष्ट्रपति डा. अब्दुल कलाम साहब का देहाँत हुआ तो मन में आया कि मृत्यू हो तो ऐसी, जीवन के अंतिम क्षण तक काम करते करते आने वाली. वह भी तो अकेले ही थे, क्या उन्होंने अपने आप को कभी निस्सहाय बूढ़ा महसूस किया होगा?

हम लोग बढ़ापे को जीवन से भर कर जीयें या निस्सहाय बूढ़ा बन कर अकेलेपन और उदासी में रहें, क्या यह सब केवल नियती पर निर्भर करता है? अधिकतर लोगों के पास मेरी तरह से अपना जीवन चुनने का रास्ता नहीं होता. पैसा न हो, पैंशन न हो, स्वतंत्र जीने के माध्यम न हों तो चुनने के लिए कुछ विकल्प नहीं होते. और अगर बीमारी या दर्द ने शरीर को मजबूर कर दिया हो तो अकेले रहना कठिन है.

दुनिया के विभिन्न देशों में पिछले कुछ दशकों में जीवन आशा की आयू बढ़ी है. भारत में भी यही हो रहा है. इसलिए आज समय रहते स्वयं से यह प्रश्न पूछना कि बूढ़ा होने पर कैसे रहना चाहूँगा तथा इसकी तैयारी करना, बहुत आवश्यक हो गये हैं.

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1947 में जब भारत स्वतंत्र हुआ था, आम औसत भारतीय केवल 31 वर्ष तक जीने की आशा करता था, आज औसत जीवन की आयू करीब 68 वर्ष है. हर वर्ष हमारे देश में 75 वर्ष से अधिक आयू वाले लोगों की संख्या बढ़ रही है. पर हमारा सामाजिक ढाँचा नहीं बदला. जब थोड़े से लोग वृद्ध होते थे और परिवार बड़े होते थे, उनको आदर देना और ऐसी सामाजिक सोच बनाना जिसमें परिवार अपने वृद्ध लोगों की देखभाल खुद करे, आसान थे. आज परिवार छोटे हो रहे हैं और वृद्ध लोग अधिक, तो बूढ़े माता पिता की उपेक्षा, उनके प्रति हिँसा या उदासीनता, सब बातें बढ़ रही हैं.

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अगले दशकों में बूढ़ों की संख्या और बढ़ेगी. दसियों गुना बढ़ेगी. हमारे परिवेश में लोग अपने बुढ़ापे की किस तरह से देख भाल करें, इसके लिए सरकार और गैर सरकारी संस्थाओं को सोचना पड़ेगा. लेकिन सबसे अधिक आवश्यक होगा कि हम लोग स्वयं सोचे कि उस उम्र में आ कर किस तरह हम अधिक आत्मनिर्भर बनें, किस तरह से अपने जीवन के निर्णय लें जिससे अपना बुढ़ापा हम अपनी इच्छा से बिता सकें, और जीवन के इस अंतिम पड़ाव में वह सब कुछ कर सकें जो हमारे मन चाहे.

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सबके पास ऐसे साधन नहीं होते कि वह जीवन के अंतिम चरण में जैसा रहना चाहते हैं इसका चुनाव कर सकें. पर हमारे समाज को इस बारे में सोचना पड़ेगा.

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बूढ़ा होने पर दिखना सुनना कम होना, जोड़ों में दर्द होना, ब्लड प्रेशर या मधुमेह जैसी बीमारियाँ होना, सब कुछ अधिक होता है. इनका सामना करने के लिए कई दशक पहल पहले तैयारी करनी पड़ेगी. कहते हैं कि भारत जवान देश है, हमारे यहाँ जितने युवा हैं उतने किसी अन्य देश के पास नहीं. लेकिन साथ साथ, हमारे यहाँ जितने वृद्ध होंगे, वह भी किसी अन्य देश के पास कठिनाई से होंगे.

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आप ने क्या कभी बूढ़े होने के बारे में सोचा है? कैसे रहने का सोचा आपने और कितनी सफलता मिली आप को? स्वयं को आप खुशनसीब बूढ़ा मानते हैं या निस्साह बेचारा बूढ़ा? या शायद आप सोचते हें कि अभी तो बुढ़ापा बहुत दूर है और फ़िर कभी सोचेंगे इसके बारे में?

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शुक्रवार, अप्रैल 17, 2015

एक चायवाले का विद्रोह

आजकल मोदी जी ने चायवालों को प्रसिद्ध कर दिया है, लेकिन यह आलेख उनके बारे में नहीं है. वैसे चाय की बातें मोदी जी के पहले भी महत्वपूर्ण होती थीं जैसा कि अमरीकी इतिहास बताता है, जहाँ अमरीका की ब्रिटेन से स्वतंत्रता की लड़ाई भी सन् 1733 के चाय लाने वाले पानी के जहाज़ से जुड़ी थी जिसे बोस्टन की "चाय पार्टी के विद्रोह" के नाम से जानते हैं. पर आज की मेरी बात भारत में सन् 1857 के अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध विद्रोह से जुड़े असम के एक चाय बागान वाले व्यक्ति के बारे में है जिनका नाम था मणिराम दत्ता बरुआ जिन्हें लोग मणिराम दीवान के नाम से भी जानते हैं. उन्हें उत्तर पूर्व के भारत के स्तंत्रता संग्राम के प्रथम शहीद सैनानी के नाम से जाना जाता है.

क्या आप ने पहले कभी उनका नाम सुना है? असम से बाहर रहने वाले लोग अक्सर उनके नाम से अपरिचित होते हैं. मैं भी उन्हें नहीं जानता था. उनसे "पहली मुलाकात" गुवाहाटी में नदी किनारे हुई थी. 

उत्तर पूर्व के स्वंत्रता सैनानी

असम की राजधानी गुवाहाटी में आये कुछ दिन ही हुए थे जब मछखोवा में ब्रह्मपु्त्र नदी के किनारे एक बाग में एक स्मारक देखा जिसमें आठ लोगों की मूर्तियाँ बनी हैं. स्मारक के नीचे लिखा था कि देश की स्वाधीनता के लिए इन वीर व वीरांगनाओं ने त्याग व बलिदान दिया. मुझे वह स्मारक देख कर कुछ आश्चर्य हुआ क्यों कि उन आठों में से एक का भी नाम मैंने पहले नहीं सुना था. वह आठ व्यक्ति थे कनकलता बरुआ, कुशल कोंवर, मणिराम दीवान, पियाली बरुआ, कमला मीरी, भोगेश्वरी फूकननी, पियाली फूकन तथा गँधर कोंवर.

Maniram Dewan & Cinnamara tea gardens, Jorhat, Assam, India - Images by Sunil Deepak

कुछ दिन बाद नेहरु पार्क में घूम रहा था तो वहाँ फ़िर से शहीद कुशल कोंवर की मूर्ति दिखी, तो मछखोवा के स्मारक की बात याद आ गयी. 

सोचा कि भारत में रहने वालों में अपने उत्तर पूर्वी भाग के इतिहास के बारे में तथा यहाँ रहने वाले लोगों के बारे में कितनी काम जानकारी है. जिन लोगों ने भारत की स्वतंत्रता के लिए जान दी, उनके नाम भी बाकी भारत में अनजाने हैं. तो सोचा कि इसके बारे में अधिक जानने की कोशिश करूँगा और इसके बारे में लिखूँगा. पर सोचने तथा करने में कुछ अंतर होता है. बात सोची थी, वहीं रह गयी, और मैं इसके बारे में भूल गया.

Kushal Konwar, Guwahati, Assam, India - Images by Sunil Deepak

Kushal Konwar, Guwahati, Assam, India - Images by Sunil Deepak

फ़िर पिछले माह काम के सिलसिले में उत्तरी असम में जोरहाट गया तो उनमें से एक स्वतंत्रता सैनानी के जीवन से अचानक परिचय हुआ.

मैं जोरहाट शहर से थोड़ा बाहर, मरियानी रेल्वे स्टेशन की ओर जाने वाली सड़क पर सिन्नामारा में विकलाँगों के लिए काम करने वाली एक संस्था "प्रेरणा" की अध्यक्ष सुश्री सायरा रहमान से मिलने गया था. उनकी संस्था गाँव में रहने वाले विकलाँग लोगों के साथ कैसे काम करती है, यह देखने के लिए सायरा जी ने अपने एक कार्यकर्ता मोनोजित के साथ, मुझे वहीं करीब ही एक चाय बागान से जुड़े गाँव में भेजा.

वहीं बातों बातों में मालूम चला कि यह सिन्नामारा के चाय बागान, स्वतंत्रता सैनानी मणिराम दीवान ने प्रारम्भ किये थे. इस बार संयोग से उनकी कर्मभूमि से परिचय हुआ था तो मुझे लगा कि उनके बारे में अवश्य अधिक जानना चाहिये.

उस दिन शाम को वापस जोरहाट में अपने होटल में पँहुचा तो मालूम चला कि वह चौराहा जिसके करीब मैं ठहरा था, उसे मणिराम दत्ता बरुआ चौक  (बरुआ चारिआली) ही कहते हैं. वहाँ सन् 2000 में असम सरकार की ओर से "मिल्लेनियम स्मारक" बनाया गया है जिसमें उनकी कहानी भी चित्रित है.

Maniram Dewan & Cinnamara tea gardens, Jorhat, Assam, India - Images by Sunil Deepak

Maniram Dewan & Cinnamara tea gardens, Jorhat, Assam, India - Images by Sunil Deepak

Maniram Dewan & Cinnamara tea gardens, Jorhat, Assam, India - Images by Sunil Deepak

तो कौन थे मणिराम दीवान और क्या किया था उन्होंने, जिसके लिए अंग्रेज़ी सरकार ने उन्हें विद्रोही मान लिया था?

मणिराम दत्ता बरुआ या मणिराम दीवान

मणिराम का जन्म 17 अप्रेल 1806 को चारिन्ग में हुआ जब उनके पिता श्री राम दत्ता को, उस समय के असम के अहोम राजा कमलेश्वर सिंह से, "डोलाकशारिया बरुआ" का खिताब मिला था. मणिराम को पढ़ाई के लिए बँगाल में नबद्वीप भेजा गया जहाँ उन्होंने अंग्रेज़ी तथा फारसी भाषाएँ भी पढ़ी. 1817 से 1823 के बीच अँग्रेज़ों ने असम पर काबू करने की कोशिश शुरु की, उसी के संदर्भ में मणिराम ने अंग्रेज़ी अफसर डेविड स्कोट तथा उनकी फौज को उत्तरी असम जाने में मार्गदर्शन दिया. वफ़ादार काम करने पर, बीस वर्ष की आयू में मणिराम को डेविड स्काट ने अंग्रेज़ी शासन की ओर से तहसीलदार व शेरिस्तदार का पद दिया.

1833 से 1838 तक, मणिराम अंग्रज़ो द्वारा स्वीकृत असम राजा पुरेन्द्र सिह के "बोरबन्दर बरुआ" यानि प्रधान मंत्री नियुक्त हुए. 1839 में असम में चाय उत्पादन के लिए लँदन में असम कम्पनी बनायी गयी. तभी असम की अंग्रेज़ी सरकार में डेविड स्काट की जगह कर्नल जेनकिन्स ने ली, जिन्होंने मणिराम को दीवान का खिताब दिया तथा वह असम कम्पनी के अफसर बन गये.

1843 में मणिराम ने असम कम्पनी की नौकरी छोड़ दी क्योंकि वह अपना चायबागान लगाना चाहते थे. असम कम्पनी के अंग्रेज़ इस बात से खुश नहीं थे.

1845 में मणिराम ने जोरहाट के पास अपना पहला चायबागान लगाया जहां कलकत्ता में रहने वाले चीनी चाय विषेशज्ञ लाये गये, जोकि उनके सलाहकार बने. उनकी वजह से उस चायबागान को लोग चिन्नामारा (चीनी बाग) कहने लगे. इस जगह को अब सिन्नामारा के नाम से लोग जानते हैं.

मणिराम उद्योगपति बन गये, केवल चाय उत्पादन में नहीं, बल्कि अन्य क्षेत्रों में भी - जैसे कि नमक बनाने व इस्पात बनाने का कारकाना भी लगाया, ईँटें तथा सिरेमिक बनाने की भट्टियाँ लगायीं.

Maniram Dewan & Cinnamara tea gardens, Jorhat, Assam, India - Images by Sunil Deepak

उनकी उन्नति से असम कम्पनी के अंग्रेज़ अफसर चितिंत हुए क्योंकि उनकी दृष्टि में भारतीयों का चाय कारोबार में पड़ने का अर्थ, अंग्रेज़ी कम्पनी का नुकसान था. 1851 में अंग्रेज़ सरकार ने उनके चायबागान तथा सम्पत्ति पर कब्ज़ा कर लिया. असम पर काबू रखने के लिए अंग्रेज़ों ने बंगाल तथा मारवाड़ से लोगों को बुला कर उन्हें अफसर बनाया. मणिराम ने कलकत्ता की अदालत में न्याय के लिए अर्ज़ी दी तथा अंग्रेज़ टेक्सों की आालोचना की कि उनसे स्थानीय अर्थव्यवस्था को कमज़ोर किया जा रहा है. लेकिन अदालत ने उनकी यह अर्ज़ी नामँजूर कर दी, तथा उनके चाय बागान अंग्रेजों को दे दिये गये.

1857 की अंगरेज़ों के विरुद्ध सिपाही क्राँती से मणिराम ने प्रेरणा पायी और उत्तरपूर्व में अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध काम प्रारम्भ किया. अंग्रेज़ी शासन के विद्रोह के आरोप में मणिराम को गिरफ्तार किया गया और 26 फरवरी 1858 को उन्हें फाँसी दी गयी.

आज का सिन्नामारा

सिन्नामारा में आज भी चायबागान हैं, जहाँ बहुत से लोग संथाल जनजाति के हैं. चायबागानों में काम करने के लिए अंग्रेज़ केन्द्रीय भारत से संथाल जाति के लोगों को ले कर आये थे. स्थानीय भाषा न जानने वाले लोगों को रखने का फायदा था कि उन्हें आसानी से दबाया जा सकता था और उनमें विद्रोह कठिन था. इस तरह से आज असम में लाखों संथाली रहते हैं जिनके पूर्वज यहाँ एक सौ पचास वर्ष पहले मजदूर की तरह लाये गये थे.

Maniram Dewan & Cinnamara tea gardens, Jorhat, Assam, India - Images by Sunil Deepak

असम में होने वाले जाति-प्रजाति सम्बँधित झगड़ों-विवादों में एक यह विवाद भी है जिसमें "विदेशी" और "भूमिपुत्रों" की बात की जाती है. आर्थिक तथा सामाजिक पिछड़ापन, संचार तथा यातायात की कठिनाईयाँ आदि की वजह से इतने सालों में असम के समुदायों में जो एकापन आना या समन्वय आना चाहिये था, वह नहीं आया. बल्कि आज उस पर धर्म सम्बँधी भेद भी जुड़ गये हैं.

चायबागान चलाने वालों का कहना है कि चाय के दाम अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार पर निर्भर करते हैं, इस लिए चायबागानों में काम करने के लिए न्यूनतम पगार जैसी बातों को नहीं लागू किया जा सकता. इस तरह से प्रतिदिन आठ घँटे काम करने वाले यहाँ के चायबागान के काम करने वालों को, सप्ताह के 400 रुपये के आसपास की तनख्वाह तथा कुछ खाने का सामान दिया जाता है.

सिन्नामारा में अंग्रेज़ों के समय का पुराना अस्पताल भी है, जिसे असम चाय उद्योग चालाता था लेकिन जो कई वर्षों से बन्द पड़ा है.

Maniram Dewan & Cinnamara tea gardens, Jorhat, Assam, India - Images by Sunil Deepak

अंगरेज़ों के समय और आज का समय देखें तो, बहुत सी बातों में आज दुनिया बहुत बदल गयी है. आज हम स्वतंत्र हैं, जो काम करना चाहें, जिस राह पर बढ़ना चाहें, उसे स्वयं चुन सकते हैं. लेकिन गरीबी, अशिक्षा तथा भ्रष्टाचार, आज भी जँज़ीरें है जो हमें बाँधे रखती हैं.

मेरी चायबागान में काम करने वाले पढ़े लिखे कुछ नवयुवकों से बात हुई, बोले कि पढ़ायी करके भी वही मजदूरी करनी पड़ती है क्योंकि "बिना घूस दिये कुछ काम नहीं मिलता, और घूस देने लायक पैसा हमारे पास नहीं".

आज के भारत की दुनिया बदली है लेकिन चायबागानों में काम करने वाले मजदूरों की दृष्टि से देखे तो जितनी बदलनी चाहिये थी उतनी नहीं बदली.

Maniram Dewan & Cinnamara tea gardens, Jorhat, Assam, India - Images by Sunil Deepak

मणिराम दीवान ने अपना जीवन अंग्रेजों के साथी की तरह प्रारम्भ किया, पर उनमें चाकरी की भावना कम थी, वह स्वयं को उनसे कम नहीं मानते थे, स्वयं उद्योगपति बनने का सपना देखते थे! इन सब बातों की वजह से उन्हें विद्रोह की राह चुननी पड़ी. स्वतंत्रता की राह में उन जैसे कुर्बानी करने वाले अन्य बहुत लोग होंगे लेकिन उनकी अपेक्षा मणिराम दीवान की याद को अधिक प्रमुखता मिली, जोकि स्वाभाविक है क्योंकि इतिहास ऐसे ही बनना है,

कुछ लोग अपने व्यक्तित्व या सामाजिक स्थिति की वजह से लोगों में प्रतीक बन कर रास्ता दिखाते हैं, प्रेरणा देते हैं. पर उस स्वतंत्रता का जितना लाभ यहाँ के गरीब लोगों को मिलना चाहिये था, उसमें हमारे देश में कुछ कमी आ गयी!

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सोमवार, मार्च 30, 2015

भारत की बेटियाँ

पिछले कई दिनों से बीबीसी की डाकूमैंटरी फ़िल्म "इंडियाज़ डाटर" (India's daughter) के बैन करने के बारे में बहस हो रही थी. आजकल कुछ भी बहस हो उसके बारे में उसके विभिन्न पहलुओं का विषलेशण करना, अन्य शोर में सुनाई नहीं देता. शोर होता है कि या तो आप इधर के हैं या उधर के हैं. अगर आप प्रतिबन्ध लगाने के समर्थक हैं तो रूढ़िवादी, प्रतिबन्ध के विरोधी है तो उदारवादी, या फ़िर इसका उल्टा.

किसी बात के क्या विभिन्न पहलू हो सकते हैं, किस बात का समर्थन हो सकता है, किसका नहीं, जैसी जटिलताओं के लिए इन बहसों में जगह नहीं होती.

कुछ लोग कह रहे थे कि यह डाकूमैंटरी पश्चिमी देशों की चाल है, भारत को नीचा दिखाने की. एक बेलजियन प्रोफेसर जेकब दे रूवर ने एक आलेख में लिखा कि भिन्न यूरोपीय देशों में अधिक बलात्कार होते हैं, उनके मुकाबले में भारत में कम होते हैं. इसलिए वह भी सोचती है कि इस तरह की डाकूमैंटरी बनाना उस यूरोपीय सोच का प्रमाण है जो भारत जैसे विकसित देशों को असभ्य और पिछड़ा हुआ मानती है तथा इस तरह के समाचारों को बढ़ा चढ़ा कर दिखाती है.

Rapes in India graphic by Sunil Deepak

तो क्या सचमुच भारत एक बलात्कारी देश है‌ ?

मेरे विचार में दंगों जैसी स्थितियों को छोड़ दिया जाये तो बलात्कारों के विषय में भारत की स्थिति अन्य देशों की तरह है, उनसे न बहुत कम न बहुत अधिक. इसलिए अगर आँकणों के हिसाब से भारत में बलात्कार कम होते हैं तो इसकी वजह यह नहीं कि हमारे पुरुष कम बलात्कारी हैं, इसकी वजह है कि गरीबों, शोषितों और औरतों के साथ होने वाले अपराधों के बारे में हमारे आँकणे अधूरे रहते हैं. हमारे यहाँ पुलिस के पास जाना अक्सर अपराध का समाधान नहीं करता, बल्कि उस पर अन्य तकलीफ़ें बढ़ा देता है. सामान्य जन के लिए, कुछ अपवाद छोड़ कर, पुलिस का नाम न्याय या सहायता से नहीं जुड़ा, बल्कि अत्याचार, उसका ताकतवरों का साथ देना व दुख से पीड़ित लगों से घूसखोरी की माँगें करना, जैसी बातों से जुड़ा है.

बलात्कार जैसी बात हो तो उसकी शिकार औरतों के प्रति समाजिक क्रूरता को सभी जानते हैं.  जैसी हमारी सामाजिक सोच है, हमारी पुलिस की भी वही सोच है. यानि बलात्कार हुआ हो तो इसका कारण उस युवती के चरित्र, काम, पौशाक में खोजो. तो अचरज क्यों कि हमारे बलात्कारों के आँकणे विकसित देशों के सामने कम है ?

विदेशों में भारत की बलात्कारी छवि

यह सच है कि यूरोप में वहाँ प्रतिदिन होने वाले बलात्कारों के समाचारों को इतनी जगह नहीं मिलती जितनी भारत से आने वाले इस तरह के समाचारों को मिलती है. इससे पिछले दो वर्षों में विदेशों में भारत की बलात्कार समस्या को बहुत प्रमुखता मिली है. पर इसके कई कारण हैं. हर देश, हर गुट के बारे में कुछ प्रचलित छवियाँ होती हैं. इन्हें स्टिरियोटाइप भी कहते हैं. इन स्टिरियोटाइप छवियों का फायदा है कि कुछ भी बात हो उसे लोग तुरंत समझ जाते हैं, कुछ समझाने की आवश्यकता नहीं पड़ती. विदेशों में भारत की स्टिरियोटाइप छवि है जिसमें गाँधी जी, शाकाहारी होना, अहिँसा, ताज महल, आध्यात्म, ध्यान, योग, जैसी बातें जुड़ी हैं, जिन्हें हम सामान्यतह सकारात्मक मानते हैं. इसी स्टिरियोटाइप छवि के कुछ नकारात्मक पहलू भी हैं जैसे कि भारत की छवि गरीबी, गन्दगी, बीमारियाँ, जातिप्रथा जैसी बातों से भी जुड़ी है.

यह स्टिरियोटाइप छवियाँ स्थिर नहीं होती, इसमें नयी बातें जुड़ती रहती है, पुरानी बातें धीरे धीरे लुप्त हो जाती है. पहले भारत की छवि थी सपेरों और जादूगरों की. आज दुनिया में भारत को सपेरों का देश देखने वाले लोग कम हैं, जबकि कम्पयूटर तकनीकी, गणित में अव्वल स्थान पाने वाले या अंग्रेज़ी में अच्छा लिखने वाले लेखकों की बातें इस छवि से जुड़ गयी हैं.

भारत की प्रचलित छवियाँ औरतों के बारे में कुछ सकारत्मक है, कुछ नकारात्मक. एक ओर गरिमामय, सुन्दर, साड़ी पहनी युवतियों की छवियाँ हैं, हर क्षेत्र में अपनी धाक जमाने वाली औरतों की छवियाँ हैं, तो दूसरी ओर दहेजप्रथा, सामाजिक शोषण, भ्रूणहत्या से जुड़ी बातें भी हैं. उन्हीं नकारात्मक बातों में पिछले कुछ वर्षों में बलात्कार भी बात जुड़ गयी है.

यह छवियाँ सकारात्मक हों या नकारात्मक, स्टिरियोटाइप से लड़ना तथा उन्हें बदलना आसान नहीं. बल्कि खतरा है कि उनके विरुद्ध जितना लड़ोगे, वह उतना ही अधिक मज़बूत जायेंगी. मुझे नहीं मालूम कि इस तरह की स्टिरियोटाइप छवियों के बनने को किस तरह से रोका या कम किया जा सकता है. इससे भारत को अवश्य नुकसान होता है. कितने ही मेरे यूरोपीय मित्र, विषेशकर, महिला मित्र, जो पहले यहाँ नहीं आये और जिन्हें भारत के व्यक्तिगत अनुभव नहीं हैं, भारत आने का सोच कर डरते हैं.

क्या भारत में दिल्ली में हुए निर्भया के बलात्कार से पहले ऐसी घटनाएँ नहीं होती थीं? होती थीं लेकिन राजधानी में जनसाधारण, विषेशकर युवाओं का इस तरह बड़ी संख्या में विरोध में निकल कर आना शायद पहली बार हुआ. टेलिविज़न पर समाचार चैनलों की बढ़ोती तथा उनमें आपस में दर्शक बढ़ाने की स्पर्धा ने उस विरोध को समाचार पत्रों में व चैनलों पर प्रमुख जगह दी. इस समाचार को और उस बलात्कार की बर्बता ने सारी दुनिया में समाचारों में जगह पायी.

यूरोप में भारत के बारे में समाचार अक्सर तभी दिखते हैं जब किसी दुर्घटना में बहुत लोग मर जाते हैं. यह हर देश में होता है, आप सोचिये कि क्या भारत में टीवी समाचारों में यूरोप के बारे में किस तरह के समाचार दिखाये जाते हैं? लेकिन जब निर्भया काँड के बाद भारत के युवा सड़कों पर निकल आये थे, इसके समाचारों को यूरोप के टीवी समाचारों में बहुत दिनों तक प्रमुखता मिली थी.

उस घटना के बाद से, दिल्ली या मुम्बई जैसे शहरों में जब भी मध्यम या उच्च वर्ग की युवती के साथ बलात्कार होता है तो हमारे टीवी समाचार चैनल हल्ला कर देते हैं. ब्रेकिन्ग न्यूज़ बन कर सारा दिन उसकी बात होती है, शाम को हर चैनल उसी पर बहस करती है. अगर बलात्कार विषेश बर्बर हो या भारत की पहले से प्रचलित नकारात्मक छवि से जुड़ा हो, जैसे कि जातिभेद या महिलाओं को शोषण से, तो उसे विदेशों में भी समाचारों में जगह मिलती है. जब हमारे राजनेता बलात्कार के बारे में कुछ वाहियात सी बात करते हैं तो उसे भी विदेशी समाचारों में भरपूर जगह मिलती है. मसलन, जब मुलायम सिंह यादव ने कहा कि "लड़कों से गलती हो जाती है" तो बहुत से यूरोपीय समाचार पत्रों ने उसका समाचार पहले पृष्ठ पर दिया था.

भारतीय समाचार पत्रों तथा चैनलों का भाग

कुछ सप्ताह पहले जब एक सुबह कोलकता से निकलने वाले अंगरेज़ी अखबार टेलीग्राफ़ में मुख्य पृष्ठ पर दिल्ली बलात्कार काँड के बस ड्राइवर मुकेश सिंह का साक्षात्कार छपा देखा था तो बहुत हैरानी हुई थी. सोचा था कि क्यों अखबार वालों ने इस तरह की व्यक्ति की इन वाहियात बातों को इस तरह से बढ़ा चढ़ा कर कहने का मुख्य पृष्ठ पर मौका देने का निर्णय लिया ? मुझे लगा कि इस तरह की सोच वाले लोग भारत में कम नहीं और उस साक्षात्कार को इस तरह प्रमुखता पाते देख कर, उन्हें यह लगेगा कि उनकी यह सोच शर्म की नहीं, गर्व की बात है. मैंने उस समय सोचा था कि बिक्री बढ़ाने के लिए समाचार वाले कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं.

मेरा विचार था कि यह आलेख समाचार पत्र में नहीं छपना चाहिये था. मेरे एक मित्र बोले कि न छापना तो मानव अभिव्यक्ति अधिकार के विरुद्ध होगा. मेरा कहना था कि जब कोई अगर अन्य लोगों के प्रति हिंसा करने, बलात्कार करने, जान से मारने की बात की बात करे तो वह मानव अभिव्यक्ति अधिकार नहीं हो सकता क्योंकि उससे अन्य लोगों के जीवन व सुरक्षा के अधिकारों पर हमला होता है.

यह कुछ दिन बाद समझ में आया कि वह "समाचार" नहीं था, एक डाकूमैंटरी से लिया गया हिस्सा था जिसे डाकूमैंटरी का परिपेक्ष्य समझाये बिना ही समाचार पत्र में छापा गया था. डाकूमैंटरी के बारे में जहाँ तक पढ़ा है, मुकेश सिंह का साक्षात्कार उसका छोटा सा हिस्सा है, उसमें अन्य भी बहुत सी बाते हैं. उसे देखने वालों ने कहा है कि यह फ़िल्म बलात्कारी सोच के विरुद्ध उठायी आवाज़ है. अगर डाकूमैंटरी में यह सब कुछ है तो क्यों समाचार पत्रों ने मुकेश सिंह के साक्षात्कार को इस तरह से बढ़ा चढ़ा कर प्रस्तुत किया जिससे यह लगे कि यह आम भारतीय पुरुषों की सोच है? यानि जनसाधारण में इस फ़िल्म के प्रति प्रारम्भिक उत्तेजना बढ़ाने में समाचार पत्रों तथा टेलिविज़न चैनलों ने क्या हिस्सा निभाया ?

क्या समाचार पत्रों ने मुकेश सिंह के कथन को इतनी प्रमुखता दी थी या फ़िर डाकूमैंटरी बनाने वालों ने अपनी प्रेस रिलीज़ में मुकेश सिंह वाले हिस्से को बढ़ा चढ़ा कर प्रस्तुत किया था ?

निर्भया के बलात्कार के बाद, भारत में बलात्कार होने कम नहीं हुए हैं. लेकिन शायद बढ़े भी नहीं हैं, केवल इन समाचारों का छुपना कम हो गया है ? प्रतिदिन हर शहर में बलात्कार होते हैं, जैसे पहले भी होते थे. पर अब समाचार चैनलों में बलात्कारों को जगह मिलने लगी है. पर शायद यह भी सोचना चाहिये कि किस तरह की जगह मिल रही है, इस तरह के समाचारों को?

पिछले वर्ष जुलाई में कुछ सप्ताह के लिए लखनऊ में था, एक स्थानीय चैनल पर आधे घँटे के समाचारों में बीस-पच्चीस मिनट तक  यहाँ बलात्कार, वहाँ बलात्कार की बात होती रही. मुझे थोड़ा अचरज हुआ कि उस समाचार बुलेटिन में इतनी जगह इस तरह के समाचारों को मिली, जैसे कि 20 करोड़ की जनसंख्या वाले उत्तरप्रदेश में अन्य अपराध या अन्य समाचार नहीं हों ? क्या यही तरीका है इस बात के बारे में जनचेतना जगाने का या जनता को जानकारी देने का ?

असली बात

लेकिन क्या यही बात सबसे महत्वपूर्ण है कि विदेशों में हमारे बारे में क्या सोचते हैं? कोई अन्य क्या सोचता है, यह तो बाद की बात है, पहली बात है कि हम इस बारे में स्वयं क्या सोचते है? उससे भी अधिक महत्वपूर्ण है यह सोचना कि जिन अपराधों के बारे में हम बात कर रहे हैं क्या उनसे पीड़ित लोगों को न्याय मिल रहा है या नहीं, समाज की विचारधारा बदल रही है या नहीं.

सच तो यह है कि हमारे देश में आज भी हर दिन हज़ारों भ्रूणहत्याएँ होती हैं, लड़कियों से, "छोटी" जाति के लोगों से, गरीबों के साथ जब अपराध होते हैं तो कितने समाचार पत्र उन्हें छापते हैं? उनमें से कितनों की रपट पुलिस में लिखी जाती है? उनके बारे में टीवी पर कौन बात करता है? क्या इस सब के बारे में हमारे देश में सन्नाटा नहीं रहता? भारत के छोटे बड़े शहरों में लड़कियों व औरतों जब बाहर जाती है तो सड़कों पर, बसों में, काम की जगहों पर, "छेड़खानी" आम बात हैं और लोग चुपचाप देखते हैं.

हमारी पुलिस तथा न्याय व्यवस्था दोनों में कितनी सड़न है. इस स्थिति में मुकेश सिंह व उनके वकीलों की बलात्कारी सोच अपवाद नहीं, सामान्यता है. क्या हमारे राजनेता, धर्मगुरु, क्या यही नहीं कहते कि लड़कियों को रात को काम नहीं करना चाहिये, जीन्स नहीं पहननी चाहिये, आदि ? यानि उनकी सोच है कि इस सब की वजह से उनका बलात्कार हुआ. यानि गलती उन्हीं की है, समाधान भी उन्हें ही करना है. हमारे युवाओं तथा पुरुषों की सोच बदलने की बात नहीं होती. उनकी सोच मुकेश सिंह की सोच से अधिक भिन्न नहीं. शायद इसीलिए उस डाकूमैंटरी की बात हमें इतनी बुरी लगी क्योंकि उसमें हमारी सोच का सच है ?

कल टाईमस ऑफ़ इन्डिया के विनीत जैन के बारे में पढ़ा कि उन्होंने कहा हम समाचार पत्रों के धँधे में नहीं, विज्ञापन बेचने के धँधे में हैं. यानि समाचार पत्रों को बिक्री का सोचना है, नीति, या समाज का नहीं.

क्या हमारी टीवी चैनल भी टीआरपी के चक्कर में चिल्लाने वाली बहसों, हर बात को ब्राकिन्ग न्यूज़ बनाना, स्केन्डल बनाना जैसी बातों में नहीं व्यस्त रहतीं ? और समाचार पत्रों या चैनलों को दोष देना आसान है पर लाखों करोड़ों लोग उन्हीं चैनलों को देख कर चटकारे लेते हैं. जहाँ गम्भीरता से बात हो रही हो, तथा जटिल समस्याओं के समाधान सोचे खोजे जायें, तो उन्हें कितने लोग देखते हैं ?

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बुधवार, मार्च 04, 2015

जीवन का अंत

चिकित्सा विज्ञान तथा तकनीकी के विकास ने "जीवन का अंत" क्या होता है, इसकी परिभाषा ही बदल डाली है. जिन परिस्थितियों में दस बीस वर्ष पहले तक मृत्यू को मान लिया जाता था, आज तकनीकी विकास से यह सम्भव है कि उनके शरीरों को मशीनों की सहायता से "जीवित" रखा जाये. लेकिन जीवन का अंतिम समय कैसा हो यह केवल चिकित्सा के क्षेत्र में हुए तकनीकी विकास और मानव शरीर की बढ़ी समझ से ही नहीं बदला है, इस पर चिकित्सा के बढ़ते व्यापारीकरण का भी प्रभाव पड़ा है. तकनीकी विकास व व्यापारीकरण के सामने कई बार हम स्वयं क्या चाहते हैं, यह बात अनसुनी सी हो जाती है.

तो जब हमारा अंतिम समय आये उस समय हम किस तरह का जीवन और किस तरह की मृत्यू चुनते हैं? किस तरह का "जीवन" मिलता है जब हम अंतिम दिन अस्पताल के बिस्तर में गुज़ारते हैं? इस बात का सम्बन्ध जीवन की मानवीय गरिमा से है. यह बात इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इसकी कीमत केवल पैसों में नहीं मापी जा सकती है, बल्कि इसकी एक भावनात्मक कीमत भी है जो हमारे परिवारों व प्रियजनों को उठानी पड़ती है. आज मैं इसी विषय पर अपने कुछ विचार आप के सामने रखना चाहता हूँ.

ICU in an Indian hospital - Image by Sunil Deepak

चिकित्सा क्षेत्र में तकनीकी विकास

पिछले कुछ दशकों में चिकित्सा विज्ञान ने बहुत तरक्की की है. आज कई तरह के कैंसर रोगों का इलाज हो सकता है. कुछ जोड़ों की तकलीफ़ हो तो शरीर में कृत्रिम जोड़ लग सकते हैं. हृदय रोग की तकलीफ हो तो आपरेशन से हृदय की रक्त धमनियाँ खोली जा सकती हैं. कई मानसिक रोगों का आज इलाज हो सकता है. नये नये टेस्ट बने हैं. घर में अपना रक्तचाप मापना या खून में चीनी की मात्रा को जाँचना जैसे टेस्ट मरीज स्वयं करना सीख जाते हैं. नयी तरह के अल्ट्रासाउँड, केटस्केन, डीएनए की जाँच जैसे टेस्ट छोटे शहरों में भी उपलब्ध होने लगी हैं.

इन सब नयी तकनीकों से हमारी सोच में अन्तर आया है. आज हमें कोई भी रोग हो, हम यह अपेक्षा करते हैं कि चिकित्सा विज्ञान इसका कोई न कोई इलाज अवश्य खोजेगा. कोई रोग बेइलाज हों, यह मानने के लिए हम तैयार नहीं होते.

कुछ दशक पहले तक, अधिकतर लोग घरों में ही अपने अंतिम क्षण गुज़ारते थे. उन अंतिम क्षणों के साथ मुख में गंगाजल देना, या बिस्तर के पास रामायण का पाठ करना जैसी रीतियाँ जुड़ी हुईं थीं. लेकिन शहरों में धीरे धीरे, घर में अंतिम क्षण बिताना कम हो रहा है. अगर अचानक मृत्यू न हो तो आज शहरों में अधिकतर लोग अपने अंतिम क्षण अस्पताल के बिस्तर पर बिताते हैं, अक्सर आईसीयू के शीशों के पीछे. जब डाक्टर कहते हैं कि अब कुछ नहीं हो सकता तब भी अंतिम क्षणों तक नसों में ग्लूकोज़ या सैलाइन की बोतल लगी रहती है, नाक में नलकी डाल कर खाना देते रहते हैं. अगर साँस लेने में कठिनाई हो तो साँस के रास्ते पर नली लगा कर तब तक वैंन्टिलेटर से साँस देते हैं जब तक एक एक कर के दिल, गुर्दे व जिगर काम करना बन्द नहीं कर देते. जब तक हृदय की धड़कन मापने वाली ईसीजी मशीन में दिल का चलना आये और ईईजी की मशीन से मस्तिष्क की लहरें दिखती रहीं, आप को मृत नहीं मानते और आप को ज़िन्दा रखने का तामझाम चलता रहता है.

वैन्टिलेटर बन्द किया जाये या नहीं, ग्लूकोज़ की बोतल हटायी जाये या नहीं, दिल को डिफ्रिब्रिलेटर से बिजली के झटके दे कर दोबारा से धड़कने की कोशिश की जाये या नहीं, यह सब निर्णय डाक्टर नहीं लेते. अगर केवल डाक्टर लें तो उन पर "मरीज़ को मारने" का आरोप लग सकता है. यह निर्णय तो डाक्टर के साथ मरीज़ के करीबी परिवारजन ही ले सकते हैं. पर परिवार वाले कैसे इतना कठोर निर्णय लें कि उनके प्रियजन को मरने दिया जाये? चाहे कितना भी बूढ़ा व्यक्ति हो या स्थिति कितनी भी निराशजनक क्यों न हो, जब तक कुछ चल रहा है, चलने दिया जाता है. बहुत कम लोगों में हिम्मत होती है कि यह कह सकें कि हमारे प्रियजन को शाँति से मरने दिया जाये.

अपने प्रियजन के बदले में स्वयं को रख कर सोचिये कि अगर आप उस परिस्थिति में हों तो आप क्या चाहेंगे? क्या आप चाहेंगे कि उन अंतिम क्षणों में आप की पीड़ा को लम्बा खींचा जाये, जबरदस्ती वैन्टिलेटर से, नाक में डली नलकी से, ग्लूकोज़ की बोतल और इन्जेक्शनों से आप के अंतिम दिनों को जितना हो सके लम्बा खीचा जाये?

चिकित्सा का व्यापारीकरण

लोगों की इन बदलती अपेक्षाओं से "चिकित्सा व्यापार" को फायदा हुआ है. कुछ भी बीमारी हो, वह लोग उसके लिए दबा कर तरह तरह के टेस्ट करवाते हैं. महीनों इधर उधर भटक कर, पैसा गँवा कर, लोग थक कर हार मान लेते हैं. भारत में प्राइवेट अस्पतालों में क्या हो रहा है,  किसी से छुपा नहीं है. उनके कमरे किसी पाँच सितारा होटल से कम मँहगे नहीं होते. लेकिन सब कुछ जान कर भी आज की सोच ऐसी बन गयी है कि कुछ भी हो बड़े अस्पताल में स्पेशालिस्ट को दिखाओ, दसियों टेस्ट कराओ, क्योंकि इससे हमारा अच्छा इलाज होगा.

गत वर्ष में आस्ट्रेलिया के एक नवयुवक डाक्टर डेविड बर्गर ने चिकित्सा विज्ञान की विख्यात वैज्ञानिक पत्रिका "द ब्रिटिश मेडिकल जर्नल" में भारत के चिकित्सा संस्थानों के बारे में अपने अनुभवों पर आधारित एक आलेख लिखा था जिसकी बहुत चर्चा हुई थी. वह भारत में छह महीनों के लिए एक गैरसरकारी संस्था के साथ वोलैंटियर का काम करने आये थे.

डा. बर्गर ने लिखा था कि "भारत में हर क्षेत्र में भ्रष्टाचार कैसर की तरह फ़ैला है. इस भ्रष्टाचार की जड़े चिकित्सा की दुनिया में हर ओर गहरी फ़ैली हैं जिसका प्रभाव डाक्टर तथा मरीज़ के सम्न्धों पर भी पड़ता है. स्वास्थ्य सेवाएँ भी विषमताओं से भरी हैं, भारत में स्वास्थ्य सेवाओं का निजिकरण दुनिया में सबसे अधिक है. भारत में बीमारी पर होने वाला सत्तर प्रतिशत से भी अधिक खर्चा, लोग स्वयं उठाते हैं. यानि स्वास्थ्य सेवाओं का निजिकरण अमरीका से भी अधिक है. जिनके पास पैसा है उन्हें आधुनिक तकनीकों की स्वास्थ्य सेवा मिल सकती है, हालाँकि इसकी कीमत उन्हें उँची देनी पड़ती है. पर भारत के अस्सी करोड़ लोगों को यह सुविधा नहीं, उनके लिए केवल घटिया स्तर के सरकारी अस्पताल या नीम हकीम हैं जिनको किसी का डर नहीं. लेकिन अमीर हों या गरीब, भ्रष्टाचार सबके लिए बराबर है."

हाल ही में एक गैर सरकारी संस्था "साथी" (Support for Advocacy and Training to Health Initiatives) ने भारतीय चिकित्सा सेवा में लगी सड़न की रिपोर्ट निकाली है, जिसमें बहुत से डाक्टरों ने साक्षात्कार दिये हैं और किस तरह से भ्रष्टाचार से चिकित्सा क्षेत्र प्रभावित है इसका खुलासा किया है. इस रिपोर्ट में 78 डाक्टरों के साक्षात्कार हैं कि किस तरह भारतीय चिकित्सा सेवाएँ लालच तथा भ्रष्टाचार से जकड़ी हुई हैं. प्राइवेट अस्पतालों में व्यापारिता इतनी बढ़ी है कि किस तरह से अधिक फायदा हो इस बात का उनके हर कार्य पर प्रभाव है.

एक सर्जन ने बताया कि अस्पताल के डायरेक्टर ने उनसे शिकायत की कि उनके देखे हुए केवल दस प्रतिशत लोग ही क्यों आपरेशन करवाते हैं, यह बहुत कम है और इसे चालिस प्रतिशत तक बढ़ाना पड़ेगा, नहीं तो आप कहीं अन्य जगह काम खोजिये.

अगर डाक्टर किसी को हृद्य सर्जरी एँजियोप्लास्टी के लिए रेफ़र करते हें तो उन्हें इसकी कमीशन मिलती है. एमआरआई, ईसीजी जैसे टेस्ट भी कमीशन पाने के लिए करवाये जाते हैं.

कुछ दिन पहले मुम्बई की मेडिएँजलस नामक संस्था ने भी अपने एक शोध के बारे में बताया था जिसमें बारह हज़ार मरीजों के, जिनके आपरेशन हुए थे, उनके कागज़ों की जाँच की गयी. इस शोध से निकला कि हृदय में स्टेन्ट लगाना, घुटने में कृत्रिम जोड़ लगाना, कैसर का इलाज या बच्चा न होने का इलाज जैसे आपरेशनों में 44 प्रतिशत लोगों के बिना ज़रूरत के आपरेशन किये गये थे.

डाक्टरों ने किस तरह से कई सौ औरतों को गर्भालय के बिना ज़रूरत आपरेशन किये, इसकी खबर भी कुछ वर्ष पहले अखबारों में छपी थी.

इन समाचारों व रिपोर्टों के बावजूद, क्या स्थिति कुछ सुधरी है? आप अपने व्यक्तिगत अनुभवों के बारे में सोचिये और बताईये कि क्या चिकित्सा क्षेत्र में भ्रष्टाचार कम हुआ है या बढ़ा है?

विभिन्न जटिल स्थितियाँ

पर इस वातावरण में ईमानदार डाक्टर होना भी आसान नहीं. आप को कुछ भी रोग हो या तकलीफ़, चिकित्सक यह कहने से हिचकिचाते हैं कि उस तकलीफ़ का इलाज नहीं हो सकता. अगर वह ऐसा कहें भी तो मरीज़ इसे नहीं मानना चाहते हैं तथा सोचते हैं कि किसी अन्य जगह में किसी अन्य चिकित्सक की सलाह लेनी चाहिये. यानि अगर कोई चिकित्सक ईमानदारी से समझाना चाहे कि उस बीमारी का कुछ इलाज नहीं हो सकता तो लोग कहते हें कि वह चिकित्सक अच्छा नहीं, उसे सही जानकारी नहीं.

अगर बिना ज़रूरत के एन्टीबायटिक, इन्जेक्शन आदि के दुर्पयोग की बात हो तो देखा गया है कि लोग यह मानते हैं कि मँहगी दवाएँ, इन्जेक्शन देने वाला डाक्टर बेहतर है. लोग माँग करते हैं कि उन्हें ग्लूकोज़ की बोतल चढ़ायी जाये या इन्जेक्शन दिया जाये क्योंकि उनके मन में यह बात है कि केवल इनसे ही इलाज ठीक होता है.

ऐसी एक घटना के बारे में कुछ दिन पहले असम के जोरहाट शहर के पास एक चाय बागान में सुना. बागान में काम करने वाले मजदूर के चौदह वर्षीय बेटे को दीमागी बुखार हुआ और बुखार के बाद वह दोनों कानों से बहरा हो गया. मेडिकल कालेज में उन्हें कहा गया कि दिमाग के अन्दर के कोषों को हानि पहुँच चुकी है जिसकी वजह से बहरा होने का कुछ इलाज नहीं हो सकता. उन्होंने सलाह दी कि लड़के को बहरों की इशारों की भाषा सिखायी जानी चाहिये. पर वह नहीं माने, बेटे को ले कर कई अन्य अस्पतालों में भटके. अंत में डिब्रूगढ़ के एक अस्पताल में बच्चे को भरती भी किया गया. कई जगह उसके एक्सरे, अल्ट्रसाउँड, केट स्केन जैसे टेस्ट हुए. इसी इलाज के चक्कर में उन्होंने अपनी ज़मीन बेच दी, कर्जा भी लिया, जिसे चुकाने में उन्हें कई साल लगेंगे, पर बेटे की श्रवण शक्ति वापस नहीं आयी. घर में सन्नाटे में बन्द बेटा अब मानसिक रोग से भी पीड़ित हो गया है. यह कथा सुनाते हुए उसके पिता रोने लगे कि बेटे की बीमारी में सारे परिवार के भविष्य का नाश हो गया.

इसमें किसको दोष दिया जाये? शायद भारत की सरकार को जो स्वतंत्रता के साठ वर्ष बाद भी नागरिकों को सरकारी चिकित्सा संस्थानों में स्तर की चिकित्सा नहीं दे सकती? उन चिकित्सा संस्थानों को जो जानते थे कि बहुत से टेस्ट ऐसे थे जिनसे उस लड़के को कोई फायदा नहीं हो सकता था लेकिन फ़िर भी उन्होंने करवाये? या उन माता पिता का, जो हार नहीं मानना चाहते थे और जिन्होंने बेटे को ठीक करवाने के चक्कर में सब कुछ दाँव पर लगा दिया?

जीवन के अंत की दुविधाएँ

शहरों में रहने वाले हों तो परिवार में किसी की स्थिति गम्भीर होते ही सभी अस्पताल ले जाने की सोचते हैं. लेकिन जब बात वृद्ध व्यक्ति की हो या फ़िर गम्भीर बीमारी के अंतिम चरण की, तो ऐसे में अस्पताल से हमारी क्या अपेक्षाएँ होती हैं कि वह क्या करेंगे? जो खुशकिस्मत होते हैं वह अस्पताल जाने से पहले ही मर जाते हैं. पर अगर उस स्थिति में अस्पताल पहुँच जायें,  तो उस अंतिम समय में क्या करना चाहये, यह निर्णय लेना आसान नहीं. कैंसर का अंतिम चरण हो या अन्य गम्भीर बीमारी जिससे ठीक हो कर घर वापस लौटना सम्भव नहीं तो मशीनों के सहारे जीवन लम्बा करना क्या सचमुच का जीवन है या फ़िर शरीर को बेवजह यातना देना है?

कोमा में हो बेहोश हो कर, मशीनों के सहारे कई बार लोग हफ्तों तक या महीनों तक अस्पतालों में आईसीयू पड़े रहते हैं. परिवार वालों के लिए यह कहना कि मशीन बन्द कर दीजिये आसान नहीं. उन्हें लगता है कि उन्होंने पैसा बचाने के लिए अपने प्रियजन को जबरदस्ती मारा है. व्यापारी मानसिकता के डाक्टर हों तो उनका इसी में फायदा है, वह उस अंतिम समय का लम्बा बिल बनायेंगे.

ईमानदार डाक्टर भी यह निर्णय नहीं लेना चाहते. वह कैसे कहें कि कोई उम्मीद नहीं और शरीर को यातना देने को लम्बा नहीं खींचना चाहिये? वह सोचते हैं कि यह निर्णय तो परिवार वाले ही ले सकते हैं. इस विषय में बात करना बहुत कठिन है क्योंकि मन में डर होता है कि उस परिस्थिति में कुछ भी कहा जायेगा तो उसका कोई उल्टा अर्थ न निकाल ले या फ़िर भी मरीज़ की हत्या करने का आरोप न लगा दिया जाये.

अपना बच्चा हो या अपने माता पिता, कहाँ तक लड़ाई लड़ना ठीक है और कब हार मान लेनी चाहिये, इस प्रश्न के उत्तर आसान नहीं. हर स्थिति के लिए एक जैसा उत्तर हो भी नहीं सकता. जब तक ठीक होने की आशा हो, तो अंतिम क्षण तक लड़ने की कोशिश करना स्वाभाविक है. लेकिन जब वृद्ध हों या ऐसी बीमारी हो जिससे बिल्कुल ठीक होना सम्भव नहीं हो या फ़िर जीवन तो कुछ माह लम्बा हो जाये पर वह वेदना से भरा हो तो क्या करना चाहिये? कौन ले यह निर्णय कि ओर कोशिश की जाये या नहीं?

अपने अंतिम समय का निर्णय

भारतीय मूल के अमरीकी चिकित्सक अतुल गवँडे ने अपनी पुस्तक "बिइन्ग मोर्टल" (Being Mortal) में इस विषय पर, अपने पिता के बारे में तथा अपने कुछ मरीजों के अनुभवों के बारे में बहुत अच्छा लिखा है. मालूम नहीं कि यह पुस्तक हिन्दी में उपलब्ध है या नहीं, पर हो सके तो इसे अवश्य पढ़िये. उनका कहना है कि हमें अपने होश हवास रहते हुए अपने परिवार वालों से इस विषय में अपने विचार स्पष्ट रखने चाहिये कि जब हम ऐसी अवस्था में पहुँचें, जब हमारी अंत स्थिति आयी हो, तो हमें मशीनों के सहारे ज़िन्दा रखा जाये या नहीं. किस तरह की मृत्यू चाहते हैं हम, इसका निर्णय केवल हम ही ले सकते हैं. ताकि जब हमारा अंत समय आये तो हमारी इच्छा के अनुसार ही हमारा इलाज हो.

जब हमें होश न रहे, जब हम अपने आप खाना खाने लायक नहीं रहें या जब हमारी साँस चलनी बन्द हो जाये, तो कितने समय तक हमें मशीनों के सहारे "ज़िन्दा" रखा जाये? इसका निर्णय हमारी परिस्थितियों पर निर्भर करेगा और हमारे विचारों पर. अगर मैं सोचता हूँ कि महीनों या सालों, इस तरह स्वयं के लिए "जीवित" रहना नहीं चाहता तो आवश्यक नहीं कि बाकी लोग भी यही चाहते हैं. यह निर्णय हर एक को अपने विचारों के अनुसार लेने का अधिकार है. और आवश्यक है कि हम अपने प्रियजनों से इस विषय में खुल कर बात करें तथा अपनी इच्छाओं के बारे में स्पष्ट रूप से कहें.

अपने बारे में मेरी अंतिम इच्छा मेरे दिमाग में स्पष्ट है. मुझे लगता है कि मैंने अपना सारा जीवन पूरी तरह जिया है, अपने हर सपने को जीने का मौका मिला है मुझे. जहाँ तक हो सके, मैं अपने घर में मरना चाहूँगा. अगर मेरी स्थिति गम्भीर हो तो मैं चाहूँगा कि मुझे अपने पारिवार का सामिप्य मिले, लेकिन मुझे मशीनों के सहारे ज़िन्दा रखने की कोई कोशिश न की जाये!

मैंने इस विषय में कई बार अपनी पत्नी, अपने बेटे से बात भी की है और अपने विचार स्पष्ट किये हैं. आप ने क्या सोचा है अपने अंतिम समय के बारे में?

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