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सोमवार, अप्रैल 15, 2024

कौन बनेगी जूलियट

मई २०२४ में लंदन की एक प्रसिद्ध नाटक कम्पनी का नया म्यूज़िकल आ रहा है, "रोमियो और जूलियट", जिसकी आजकल कुछ नकारात्मक चर्चा हो रही है क्योंकि इसमें जूलियट का भाग निभा रहीं हैं अफ्रीकी मूल की अभिनेत्री फ्राँसेसका अमेवूडाह-रिवर।

इस बहस के दो पक्ष हैं। पहली बात है कि दुनिया में जातिभेद, नस्लभेद, रंगभेद के संकीर्ण विचार रखने वालों की कमी नहीं, अक्सर इनका काम गाली दे कर या खिल्ली उड़ा कर लोगों को अपमानित करना है। सोशल मीडिया में ऐसे सज्जनों की बहुतायत है, एक खोजिये, तो हज़ार मिलते हैं। यह लोग आजकल सुश्री अमेवूडाह-रिवर को गालियाँ देने में व्यस्त हैं।

दूसरी बात है वोक-संस्कृति की, जो जातिभेद, नस्लभेद व रंगभेद आदि से लड़ने के नाम पर स्वयं को सबसे अधिक पीड़ित दिखा कर उसके बदले में अपना अधिपत्य जमाने के चक्कर में है।

रोमियो-जूलियट नाटक की बहस

रोमियो और जूलियट की कहानी, अंग्रेज़ी नाटककार शेक्सपियर ने तेहरवीं शताब्दी की उत्तर-पूर्वी इटली के वेरोना शहर में दिखायी थी। आलोचक कह रहे हैं कि उस समय इटली में अफ्रीकी प्रवासी नहीं रहते थे, इसलिए इस भाग के लिए अफ्रीकी युवती को लेना गलत है। मेरे विचार में यह बहस त्वचा के रंग की है, अगर यह भाग दक्षिण अफ्रीका की कोई गोरी त्वचा वाली युवती निभाती तो यह चर्चा नहीं होती।

रोमियो और जूलियट, शिल्पकला, न्यू योर्क, अमरीका, तस्वीरकार डॉ. सुनील दीपक

अमरीका तथा यूरोप में फ़िल्मों तथा नाटकों की दुनिया में कुछ लोगों ने ऐसी नीति बनायी है जिसे "क्लर-ब्लाइंड" (रंग-न देखो) कहते हैं, यानि त्वचा के रंग को नहीं देखते हुए पात्रों के लिए अभिनेता और अभिनेत्रियों को चुना जाये। इसका ध्येय है कि हर तरह के लोगों को नाटकों और फ़िल्मों में काम करने का मौका मिले, चाहे वह एतिहासिक दृष्टि से और नाटक/कहानी के लेखन की दृष्टि से गलत हो।

इटली के प्रमुख अखबार "कोरिएरे दैल्ला सेरा" में जाने-माने इतालवी लेखक मासिमो ग्रैम्लीनी ने इस बात पर "जूलियट की ओर से एक पत्र" लिखा है जिसमें कहा हैः 

"यह भाग श्याम-वर्ण की अभिनेत्री को दिया गया है क्योंकि हम चाहते हैं कि हम सब तरह के लोगों को स्वीकार करें, किसी को उसकी त्वचा के रंग की वजह से अस्वीकृति नहीं मिलनी चाहिये, किसी को बुरा नहीं लगना चाहिये कि हमारी नस्ल या वर्ण की वजह से हमें सबके बराबर नहीं समझा जाता। यह भावना सही है।

लेकिन जब आप यह करते हो आप मुझे, यानि वेरोना की जूलियट को, अस्वीकार कर रहे हो। मैं वैसी नहीं थी और चौदहवीं शताब्दी के वेरोना शहर में श्याम वर्ण की युवतियाँ नहीं थीं। क्या इस बहस में मेरी भावनाओं की बात भी की जायेगी?

मुझे भी अच्छा लगेगा कि एक प्रेम कहानी में श्याम वर्ण की युवती नायिका हो, लेकिन उसके लिए आप एक नयी कहानी लिखिये, इसके लिए आप को मेरी पुरानी कहानी ही क्यों चाहिये?"

इतिहास को झुठलाना?

जब रोमियो-जूलियट नाटक की यह चर्चा सुनी तो मुझे एक अन्य बात याद आ गयी। पिछले वर्ष, २०२२-२३ में, नेटफ्लिक्स पर एक सीरियल आया था "ब्रिजर्टन", उसमें मध्ययुगीन ईंग्लैंड के नवाबी परिवारों की प्रेमकहानियाँ थीं, जिनमें ईंग्लैंड की रानी और एक नवाब के भाग अफ्रीकी मूल के अभिनेताओं ने और राजकुमारी का भाग एक भारतीय मूल की युवती ने निभाये थे। यह सीरियल बहुत हिट हुआ था और उसके लिए भी यही बात कही गयी थी कि नस्ल भेद और वर्ण भेद से ऊपर उठने के लिए इस तरह के अभिनेता-अभिनेत्रियाँ चुनना आवश्यक है।

उस ब्रिजर्टन सीरियल को देखते समय मेरे मन में एक विचार आया था, कि उसमें जिस समय के ईंग्लैंड में यह श्याम वर्ण वाले पात्र - रानी, राजकुमार और राजकुमारियाँ दिखा रहे हैं, सचमुच के ईंग्लैंड में उनके साथ उस समय क्या होता था? तब ऐसे लोगों को जहाज़ों में पशुओं की तरह भर कर भारत और अफ्रीका के विभिन्न देशों से गुलाम बना कर दूर देशों में ले जाते थे, और उस समय के अंग्रेजी क्ल्बों के गेट पर लिखा होता था कि कुत्तों और कुलियों को भीतर आने से मनाही है। अगर आज हम उस इतिहास को उलट कर नई काल्पनिक दुनिया बना रहे हैं जिसमें उस ज़माने में कोई भेदभाव नहीं था, विभिन्न देशों, जातियों, वर्णों के लोग एक साथ प्रेम से रहते थे, तो क्या हम अपने इतिहास पर सफेदी पोत कर उसे झूठा नहीं बना रहे हैं? जिन लोगों से उनके घर और देश छुड़ा कर, दूर देशों में ले जा कर, यूरोप के साम्राज्यवादी मालिकों ने उनसे दिन-रात खेतो और फैक्टरियों में जानवरों से भी बदतर व्यवहार किये, क्या यह सीरियल उनके शोषण को झुठला नहीं रहे हैं?

वोक जगत यानि ज़रूरत से अधिक "जागृत" जगत

भेदभाव से लड़ने वाले अतिजागृत योद्धा "शोषण करने वालों" को और उनके समाज को बदलने के लिए नयी रणनीतियाँ बना रहे हैं। अमरीकी व यूरोपी फ़िल्मों और नाटकों आदि में श्याम वर्ण या गैर-यूरोपी लोगों को प्रमुख भाग मिलने चाहिये की मांग इस रणनीति का एक हिस्सा है। ऐसे लोगों के लिए अंग्रेज़ी में "वोक" (woke) शब्द का प्रयोग किया जा रहा है।

इसके अन्य भी बहुत से उदाहरण हैं। जैसे कि यह वोक-रणनीति कहती है कि अगर आप का व्यक्तिगत अनुभव नहीं है तो आप को फ़िल्म या नाटक में ऐसे व्यक्तियों के भाग नहीं मिलने चाहिये। यानि अगर कोई भाग अंतरलैंगिक या समलैंगिक व्यक्ति का है तो उसे अंतरलैंगिक या समलैंगिक अभिनेता/अभिनेत्री ही करे, अगर दलित का रोल है तो उसे दलित व्यक्ति ही करे।

इसका यह अर्थ भी है कि लेखक या कवि के रूप में आप को उस विषय पर नहीं लिखना चाहिये, जिसमें आप का व्यक्तिगत अनुभव नहीं है। अगर आप किसी सभ्यता/संस्कृति में नहीं जन्में तो आप को वहाँ के वस्त्र नहीं पहनने चाहिये, वहाँ का खाना बनाने की बात नहीं करनी चाहिये, आदि। यानि अगर आप अफ्रीकी नहीं हैं तो आप को अफ्रीकी नायक या नायिका वाला उपन्यास नहीं लिखना चाहिये। अगर आप दलित नहीं तो दलित विषय पर नहीं लिखिये, अगर आप वंचित वर्ग से नहीं तो वंचितों पर मत लिखिये। वोक-धर्म में शब्दों की भी पाबंदी है, कुछ शब्द जायज़ हैं, कुछ वर्जित।

मानव अधिकारों की बात करने वाले "वोक योद्धा", लोगों की सामूहिक पहचान को प्राथमिकता देते हैं, वह लोग व्यक्तिगत स्तर पर क्या हैं, इसको नहीं देखना चाहते। यानि अगर आप अफ्रीकी मूल के हैं या तथाकथित निम्न जाति से हैं या श्याम वर्णी हैं तो आप शोषित ही माने जायेंगे चाहे आप अपने देश के राष्ट्रपति या करोड़पति भी बन जाईये। इसका अर्थ यह भी है कि अगर आप गौरवर्ण के या उच्च जाति के हैं, तो आप सड़क पर भीख भी मांग लो फ़िर भी आप ही शोषणकर्ता हो और रहोगे।

आप के पासपोर्ट पर भी निर्भर करता है कि आप शोषित हैं या नहीं। मैं एक नाईजीरिया की लेखिका का साक्षात्कार पढ़ रहा था, वह अपने अमरीकावास के बारे में कह रहीं थीं कि अगर आप अभी अफ्रीका से आयें हैं तो अमरीकी वोक-बौद्धिकों के लिए आप कम शोषित हैं जबकि अमरीका में पैदा होनॆ वाले अफ्रीकी मूल के लोग सच्चे शोषित हैं क्योंकि उनके पूर्वजों को गुलाम बना कर लाया गया था।

"मैं शोषित वर्ग का हूँ" कह कर अमरीका और यूरोप में "वोक" संगठनों में नेता बने हुए कुछ लोग हैं, जो अपने दुखभरे जीवनों के कष्टों की दर्दभरी कहानियाँ बढ़ा-चढ़ा कर सुनाने में माहिर हैं। वे उन लोगों के प्रतिनिधि होने का दावा करते हैं जो भारत, अफ्रीका के देशों और अन्य अविकसित क्षेत्रों में रहने वाले असली शोषित हैं। एक ओर वंचित वर्ग के लोग अपनी मेहनत और श्रम से अपनी और अपने समाजों की परिस्थियाँ बदल रहे हैं, दूसरी ओर अमरीका और यूरोप के एकादमी में अच्छी नौकरियाँ करने वाले या पढ़ने वाले वोक-यौद्धा उनके सच्चे प्रतिनिधि होने का दावा करके उसके लाभ पाना चाहते हैं।

मुझे लगता है कि हमारी सामूहिक पहचान को सर्वोपरी मानने का अर्थ है स्वयं को केवल पीड़ित और सताया हुआ देखना, इससे हमें समाज की गलतियों से लड़ने और उसे बदलने की शक्ति नहीं मिलती। वोक-विचारधारा हमसे हमारी मानवता को छीन कर कमज़ोर करती है, यह हमारी सोचने-समझने-कोशिश करने की हमारी शक्ति छीनती है।

मंगलवार, मई 08, 2012

हवा में तैरती हुई हरी नदी


प्राचीन संसार के सात अजूबों में से एक अजूबा था बेबीलोन के झूलते बाग. यह सचमुच के बाग थे या मिथक यह कहना कठिन है क्योंकि इन बागों के बारे में कुछ प्राचीन लेखकों ने लिखा अवश्य है लेकिन इनका कोई पुरात्तव अवशेष नहीं मिल सका है. प्राचीन कहानियों के अनुसार इन बागों को आधुनिक ईराक के बाबिल जिले में ईसा से 600 सौ वर्ष पूर्व बेबीलोन के राजा नबुछडनेज़ार ने अपनी पत्नी के लिए बनवाया था, जिसमें राजभवन में विभिन्न स्तरों पर पत्थरों के ऊपर बाग बनवाये गये थे.

न्यू योर्क में सड़क से ऊँचे स्तर पर बनी पुरानी रेलगाड़ी की लाईन पर बाग बनाने की प्रेरणा शायद बेबीलोन के झूलते बागों से ही मिली थी.

न्यूयोर्क में मेनहेटन के पश्चिमी भाग के इस हिस्से में विभिन्न फैक्टरियाँ और उद्योगिक संस्थान थे, जिनके लिए 1847 में पहली वेस्ट रेलवे की लाईन बनायी गयी थी जो सड़क के स्तर पर थी. रेलगाड़ी से फैक्टरियों तथा उद्योगिक संस्थान अपने उत्पादन सीधा रेल के माध्यम से भेज सकते थे. लेकिन उस रेलवे लाईन की कठिनाई थी कि वह उन हिस्सों से गुज़रती थी जहाँ बहुत से लोग रहते थे, और आये दिन लोग रेल से कुचल कर मारे जाते थे. इतनी दुर्घटनाएँ होती थीं कि इस इलाके का नाम "डेथ एवेन्यू" (Death avenue) यानि "मृत्यू का मार्ग" हो गया था.

Highline park New York - old line

तब इन रेलगाड़ियों के सामने लाल झँडी लिए हुए घुड़सवार गार्ड चलते थे ताकि लोगों को रेल की चेतावानी दे कर सावधान कर सकें, जिन्हें "वेस्टसाईड काओबायज़" के नाम से बुलाते थे. (यह पुरानी तस्वीरें हाईलाईन की वेबसाईट से हैं.)

Highline park New York - cow boys

1929 में शहर की नगरपालिका ने यह निर्णय लिया कि यह रेलवे लाईन बहुत खतरनाक थी और दुर्घटनाओं को रोकने के लिए सड़क से उठ कर ऊपरी स्तर पर नयी रेल लाईन बनायी जाये. 1934 में यह नयी रेलवे लाईन तैयार हो गयी और इसने 1980 तक काम किया, हालाँकि इसके कुछ हिस्से तो 1960 में बन्द कर दिये गये थे.

फ़िर समय के साथ शहर में बदलाव आये और इस रेलवे लाईन के आसपास बनी फैक्टरियाँ और उद्योगिक संस्थान एक एक करके बन्द हो गये. बजाय रेल के अधिकतर सामान ट्रकों से जाने लगा. शहर का यह हिस्सा भद्दा और गन्दा माना जाता था. वहाँ अपराधी तथा नशे की वस्तुएँ बेचने वाले घूमते थे, इसलिए लोग शहर के इस भाग में रहना भी नहीं चाहते थे.

तब कुछ लोगों ने, जिन्होंने रेलवेलाईन के नीचे की ज़मीन खरीदी थी, नगरपालिका से कहा कि ऊपर बनी रेलवेलाईन को तोड़ दिया जाना चाहिये ताकि वे लोग उस जगह पर नयी ईमारते बना सकें.लेकिन 1999 में वहाँ आसपास रहने वाले लोगों ने न्यायालय में अर्जी दी कि रेलवे लाईन के बचे हुए हिस्से को शहर की साँस्कृतिक और इतिहासिक धरोहर के रूप में संभाल कर रखना चाहिये और तोड़ना नहीं चाहिये. 2003 में एक प्रतियोगिता का आयोजन किया गया कि पुरानी सड़क के स्तर से ऊँची उठी रेलवे लाईन का किस तरह से जनहित के लिए प्रयोग किया जाये. इस प्रतियोगिता में एक विचार यह भी था कि पुरानी रेलवे लाईन पर एक बाग बनाया जाये, जिसका कला और साँस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए प्रयोग किया जाये.

इस तरह से 2006 में हाईलाईन नाम के इस बाग का निर्माण शुरु हुआ. अब तक करीब 1.6 किलोमीटर तक की रेलवे लाईन को बाग में बदला जा चुका है. इसके कई हिस्सों में पुरानी रेल पटरियाँ दिखती हैं, जिनके आसपास पेड़ पौधै और घास लगाये गये हैं, साथ में सैर करने की जगह भी है. दसवीं एवेन्यू के साथ साथ बना यह बाग मेनहेटन के 14वें मार्ग से 30वें मार्ग तक चलता है. अगर आसपास के किसी गगनचुम्बी भवन से इसको देखें तो यह परानी रेलवे लाईन शहर के बीच तैरती हुई हरे रंग की नदी सी लगती है.

Highline park New York - S. Deepak, 2012

इस बाग की वजह से शहर के इस हिस्से की काया बदल गयी है. आसपास के घरों की कीमत बढ़ गयी और पुरानी फैक्टरियों को तोड़ कर उनके बदले में नये भवन बन रहे हैं. बाग दिन भर पर्यटकों से भरा रहता है.

इस बाग की कुछ तस्वीरें प्रस्तुत हैं.

Highline park New York - S. Deepak, 2012

Highline park New York - S. Deepak, 2012

Highline park New York - S. Deepak, 2012

Highline park New York - S. Deepak, 2012

Highline park New York - S. Deepak, 2012

Highline park New York - S. Deepak, 2012

Highline park New York - S. Deepak, 2012

जिस दिन मैं बाग देखने गया, वहाँ "लिलिपुट कला प्रदर्शनी" लगी थी जिसमें विभिन्न कलाकारों ने भाग लिया था. इस कला प्रदर्शनी की कुछ तस्वीरें प्रस्तुत हैं.

Highline park New York - S. Deepak, 2012

Highline park New York - S. Deepak, 2012

Highline park New York - S. Deepak, 2012

कुछ ऐसा ही स्पेन में वालैंसिया शहर में भी हुआ था. वहाँ तुरिया नदी शहर में हो कर गुज़रती थी. 1957 में नदी में बाढ़ आयी और शहर को बहुत नुकसान हुआ, तब यह निर्णय किया कि नदी का रास्ता बदल दिया जाये जिससे नदी शहर के बीच में से न बहे. शहर में जहाँ नदी बहती थी, वहाँ "तुरिया बाग" बनाया गया, जो शहर के स्तर से नीचा है. (नीचे तुरिया बाग की यह तस्वीर विला ज़समीन के वेबपृष्ठ से)

Turiya river park Valencia, Spain

जब नागरिक जागरूक हो कर अपने शहरों की प्राकृतिक, साँस्कृतिक और इतिहासिक सम्पदा को बचाने की ठान लेते हैं, तो उसमें सभी का फायदा है.

काश हमारे भारत में भी ऐसा हो. गँगा, जमुना, नर्मदा जैसी नदिया हों, प्रकृतिक सम्पदा से सुन्दर शिमला या मसूरी के पहाड़ हों या दिल्ली शहर के बीच में प्राचीन पहाड़ी, हर जगह खाने खोदने वाले, उद्योग लगाने वाले, प्राईवेट स्कूल चलाने वाले, मन्दिर, मस्जिद गुरुद्वारे बनवाने वाले, हाऊसिंग कोलोनियाँ बनवाने वालों के हमले जारी हैं, जिनके सामने राजनीति आसानी से बिक जाती है. इनकी रक्षा के लिए हम सब जागें, जनहित के लिए लड़ें, यह मेरी कामना है.

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