शुक्रवार, फ़रवरी 23, 2007

मानव और रोबोट

मैं एक बार पहले भी केनेडा के श्री ग्रेगोर वोलब्रिंग के बारे में लिख चुका हूँ. ग्रेगोर विकलाँग हैं, पहिये वाली कुर्सी से चलते हैं और कलगारी विश्वविद्यालय में जीव-रसायन विज्ञान पढ़ाते हैं. वह अंतरजाल पर "इंवोशन वाच" नाम के पृष्ठ पर नियमित रूप से लिखते भी हैं. उनके शोध का विषय है नयी उभरने वाली तकनीकों के बारे में विमर्श. उनसे पिछले वर्ष जेनेवा में विश्व स्वास्थ्य संस्थान की एक सभा में मुलाकात हुई थी.

ग्रेगोर से बात करो तो लगता है कि आसिमोव जैसे किसी लेखक की विज्ञान-उपन्यास (science fiction) पर बात हो रही हो, वह सब बातें सच नहीं कल्पना लगतीं हैं. पर ग्रेगोर का कहना है कि जिस भविष्य की वह बात करते हैं वह करीब है और इन दिनों में गढ़ा रचा जा रहा है. वह कहते हैं कि उस नये भविष्य का हमारे समाज पर गहरा प्रभाव पड़ेगा और इसलिए आवश्यक है कि हम सब लोग उसमें दिलचस्पी लें, उसके बारे में जाने, उस पर विमर्श करें.

अपने नये लेख में ग्रगोर ने लिखा हैः

मानव संज्ञा और मस्तिष्क को क्मप्यूटर जैसे किसी अन्य उपकरण पर चढ़ाना संभव हो जायेगा जिससे वह शरीर पर उम्र के प्रभाव से बचे रहेंगे. हालाँकि इस तरह के आविष्कार से अभी हम बहुत दूर हैं पर इसकी बात हो रही है. दिमाग रखने वाली मशीनों की बातें तो हो रहीं हैं. जून में पिछली रोबोव्यवसाय (Robobusiness) सभा में माईक्रोसोफ्ट ने अपने रोबोटक सोफ्तवेयर की पहली झलक दिखाई. यह सोफ्टवेयर (Microsoft's Robotic Studio) शिक्षण के क्षेत्र में काम आयेगी. खाना बनाने वाला रोबोट 2007 में बाजार में आयेगा. रोबोवेटर, दाई रोबोट, बार में पेय पदार्थ डालने वाला रोबोट, गाना गाने वाले और बच्चों को पढ़ाने वाले रोबोट सब 2007 में तैयार होंगे. अगर यह प्लेन सफल होंगे तो 2015 और 2020 के बीच में हर दक्षिण कोरियाई घर में रोबोट होंगे. चौकीदार रोबोट 2010 तक तैयार होने चाहिये.
इन सब मशीन और मानव के मिलने से बनी नयी खोजों के साथ साथ ग्रेगोर बहुत से प्रश्न उठाते हें जैसे कि यह नयी सज्ञा वाली मशीने, इनके क्या अधिकार होंगे? मानव होने की क्या परिभाषा होगी जब अलग मशीन में आप की यादाश्त और दिमाग रखे हों? क्या बिना शरीर के केवल मानव संज्ञा को मानव कह सकते हैं? किसी वस्तू के जीवित या अजीवित होने की क्या परिभाषा होगी? एक मशीन से उसकी यादाश्त लेने के लिए या बदलने के लिए हमें किससे आज्ञा लेनी पड़ेगी? और जिन मानव शरीरों को मशीनों के भागों से जोड़ कर बदल दिया जायेगा वह कब तक मानव कहलाँएगे और मानव तथा मशीन की सीमा कैसे निर्धारित की जायेगी? बीमार मानव जो मशीन की सहायता से सोचता है क्या वह मानव कहलायेगा?

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इंडीब्लागीस 2006 पुरस्कार के लिए समीर जी को बहुत बहुत बधाई. रनरअप पुरस्कारों में मेरे साथी बिहारी बाबू को भी बधाई और आप सब पाठकों को धन्यवाद.

गुरुवार, फ़रवरी 22, 2007

मानव अधिकार

अमरीकी गैर सरकारी संस्था "मानव अधिकार वाच" (Human Rights Watch) की 2007 की नयी वार्षिक रिपोर्ट निकली है. इस रिपोर्ट में साल के दौरान विभिन्न देशों में मानव अधिकारों का क्या हुआ, इसकी खबर दी जाती है. कहाँ कौन से अत्याचार हुए रिपोर्ट में यह पढ़ कर झुरझुरी आ जाती है. सूडान के डार्फुर क्षेत्र और इराक में जो हो रहा है उसके बारे में तो फ़िर भी कुछ न कुछ पता चल जाता है पर अन्य बहुत सी जगहों पर क्या हो रहा है, इसकी किसी को खबर नहीं.

तुर्कमेनिस्तान और उत्तरी कोरिया में सख्त तानाशाह गद्दी पर बैठे हैं जहाँ कुछ भी स्वतंत्र कहने सोचने की जगह नहीं है. रूस में गैर सरकारी संस्थाओं पर हमले तो होते रहते हैं, प्रसिद्ध पत्रकार अन्ना पोलिटकोवस्काया जो सरकारी अत्याचारों के बारे में निर्भीक लिखतीं थीं, की हत्या ने सनसनी फ़ैला दी इसलिए भी कि अन्ना छोटी मोटी पत्रकार नहीं थीं, उनका नाम देश विदेश में मशहूर था. लोगों को डराना, धमकाना, उन्हें विभिन्न तरीकों से पीड़ा देना, पुलिस की जबरदस्ती और अत्याचार, कई देशों में निरंकुश बढ़ रहा है.

भारत के बारे में रिपोर्ट कहती है कि "भारत विश्व का सबसे बड़ा जनतंत्र है और यहाँ स्वतंत्र प्रेस और सामाजिक संस्थाएँ हैं, फ़िर भी कुछ बाते हैं जिनमें मानव अधिकारों की सुरक्षा नहीं होती. इनमें से सबसे बड़ी समस्या है पुलिस और विभिन्न सुरक्षा संस्थाओं के बड़े अधिकारियों को कुछ सजा नहीं मिल सकती, चाहे वह कुछ भी अत्याचार कर दें. लोगों को पकड़ कर उन्हें पीड़ा देना और सताना, बिना मुकदमे के लोगों को पकड़ कर रखना, उन्हें जान से मार देना आदि, जम्मु कश्मीर, उत्तर पूर्व और नक्सलाईट क्षेत्रों में आम बातें हैं... बच्चों के तथा अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा न कर पाना भी समस्या है, इन अल्पसंख्यकों में धार्मिक अल्पसंखयक, जनजाति के लोग और दलित भी शामिल हैं."

रिपोर्ट ने अमरीका की कड़ी आलोचना है. रिपोर्ट कहती है कि ग्वानतामा बे के कारागार में बिना मुकदमें के कैदियों को कई सालों से रखना और उन्हें यातना देने वाले अमरीका को मानव अधिकारों का रक्षक होने का गर्व त्यागना होगा, उसके अपने दामन पर दाग लगा है. यातना से भागने वाले लोगों को शरण देने से इन्कार करना भी अमरीका की कमजोरी है, और वह दूसरों पर मानव अधिकारों की रक्षा न करने का आरोप लगाता है.

किस देश ने कितना मानव अधिकारों को कुचला इसका अंदाज़ शायद रिपोर्ट में उस देश को कितनी जगह दी गयी है. रिपोर्ट में भारत को 7 पन्ने मिले हैं तो चीन को 12, नेपाल को 6, पाकिस्तान को 7 और अमरीका को 11.

2006 में जिन देशों ने मानव अधिकारों की दिशा में सराहनीय काम किया है उनमें सबसे ऊँचा नाम नोर्वे का है.

अगर आप पूरी रिपोर्ट पढ़ना चाहें तो वह अंतरजाल पर ह्यूमन राईटस वाच पर पढ़ सकते हैं.

बुधवार, फ़रवरी 21, 2007

लिखाई से पहचान

बहुत से लोग सोचते हैं कि हाथ की लिखाई से व्यक्ति के व्यक्तित्व के बारे में छुपी हुई बातों को आसानी से पहचाना जा सकता है. कुछ लोग तो यहाँ तक कहते हैं कि हाथ की लिखाई से वह बता सकते हैं कि कोई खूनी है या नहीं.

कल जब इंग्लैंड के प्रधानमंत्री श्री टोनी ब्लेयर के हस्ताक्षर देखने को मिले तो यही बात मन में आयी कि इस हाथ की लिखाई से इस व्यक्ति के बारे में क्या बात पता चलती है?



हस्ताक्षर के नीचे की रेखा अपने आप में विश्वास को दर्शाती है और चूँकि यह रेखा नाम और पारिवारिक नाम दोनों के नीचे है, इसका अर्थ हुआ कि टोनी जी अपनी सफ़लता का श्रेय स्वयं अपनी मेहनत के साथ साथ, परिवार से मिली शिक्षा को भी देते हैं.
टोनी का "टी" जिस तरह से बड़ा और आगे की ओर बढ़ा हुआ लिखा है, इसका अर्थ है कि वह शरीर की भौतिक जीवन के बजाय दिमाग की दुनिया में रहने वाले अधिक हैं और उनके विचार भविष्य की ओर बढ़े हुए हैं. पूरा टोनी शब्द ऊपर की ओर उठा हुआ है, यानि वह आशावादी हैं, पर अंत का नीचे जाता "वाई" बताता है कि अपने बारे में कुछ संदेह है कि उन्होंने कुछ गलती की है.

ब्लेयर का ऊपर उठना, "आई" की बिंदी का आगे बढ़ना भी उनके आशावादी होने और भविष्य की ओर बढ़ी सोच का समर्थन करते हैं. प्रारम्भ के बड़े और खुले हुए "बी" से लगता है कि उनकी कल्पना शक्ति प्रबल है और वह खुले दिल, खुले विचारों वाले हैं.

यह सब उनके फरवरी 2007 में किये गये हस्ताक्षरों से दिखता है. अगर उनके कुछ साल पहले के हस्ताक्षर मिल जायें तो उन्हे मिला कर भी देखा जा सकता है कि उनके व्यक्तित्व में पिछले कुछ समय में कोई परिवर्तन आया है!

मंगलवार, फ़रवरी 20, 2007

भारत में बनी दवाईयाँ

पिछले दशक में भारत में केंद्रित कई दवा बनाने वालों ने विश्व में सस्ती और अच्छी दवाएँ बनाने के लिए ख्याति पाई है. आज भारत की यह क्षमता खतरे में है, क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय दवा बनाने वाली कम्पनी नोवार्टिस (Novartis) ने भारत सरकार पर दावा किया है.

एडस की दवाएँ जो पहले केवल पश्चिमी देशों की दवा कम्पनियाँ बनाती थीं, उनके एक साल के इलाज की कीमत 20,000 डालर तक पड़ती थी, भारतीय सिपला जैसी कम्पनियों ने पर इन्हीं दवाओं को 2,000 डालर तक की कीमत में दिया. कुछ वर्ष पहले, जब दक्षिण अफ्रीका की सरकार ने पश्चिमी देशों के बजाय जब भारत से बनी इन सस्ती दवाओं को खरीदना चाहा तो 39 बड़ी दवा कम्पनियों ने मिल कर दक्षिण अफ्रीका की सरकार पर दावा कर दिया. इस पर सारी दुनिया में स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने वाली गैर सरकारी और स्वयंसेवी संस्थाओं ने जनचेतना अभियान प्रारम्भ किया और दुनिया के विभिन्न देशों से लाखों लोगों ने इस अपील पर अपने दस्तखत किये. अपनी जनछवि को बिगड़ता देख कर घबरा कर अंतर्राष्ट्रीय दवा कम्पनियों ने दक्षिण अफ्रीका सरकार पर किया दावा वापस ले लिया.

इस तरह की सस्ती दवा बना पाने के लिए भारत के बुद्धिजन्य सम्पति अधिकारों (intellectual property rights) से सम्बंधित कानूनो ने बहुत अहम भाग निभाया था. यह कानून दवा बनाने के तरीको को सम्पति अधिकार (patents) देते थे जिसका अर्थ था कि वही पदार्थ अगर कोई किसी नये तरीके से बनाये तो उस पर यह अधिकार लागू नहीं होगा. इसका यह फायदा था कि कहीं पर कोई भी नयी दवा निकले, हमारे दवा बनाने वाले उसे बनाने के लिए नये और सस्ते तरीके खोज सकते थे. इस कानून का फायदा उठा कर भारतीय दवा बनाने वालों ने बहुत सी जान रक्षक दवाओं के नये और सस्ते संस्करण बनये और उन्हें कम कीमत पर बाज़ार में बेचा.

इन कानूनों से अंतर्राष्ट्रीय दवा बनाने वाली कम्पनियाँ बहुत परेशान थीं क्योंकि इससे उनके लाभ में कमी आती थी और उन्होंने भी भारत सरकार पर जोर डाला कि भारत विश्व व्यापार संस्थान (World Trade Organisation, WTO) का हिस्सा बन जाये और अंतर्राष्ट्रीय बुद्धिजन्य सम्पत्ति अधिकारों के कानूनों को मानने को बाध्य हो. सन 2005 में भारत डब्ल्यूटीओ का सदस्य बन गया.

पर जब भारत की सरकार ने WTO के हिसाब से अपने कानून बदला तो इस नये कानून के हिसाब से कोई पदार्थ बनाने के तरीका वाले कोपीराईट के साथ साथ पदार्थ पर भी कोपीराईट हो गया है ताकि कोपीराईट की अविधि तक कोई उस पदार्थ को किसी भी तरीके से न बना सके. अब भारतीय दवा बनाने वाले नयी दवाओं को बनाने के नये और सस्ते तरीके नहीं खोज सकते जब तक उस दवा की कोपीराइट अविधि न समाप्त हो जाये.

पर भारत सरकार इस नये कानून में अपनी दवा बनाने वाली कम्पनियों के पक्ष में कुछ कानून भी रखे हैं जैसे कि उसने यह कानून भी रखा कि कापीराईट करने के लिए बिल्कुल नया आविष्कार होना चाहिये. बहुत सी अंतर्राष्ट्रीय कम्पनिया अपनी दवाओं का कापीराईट बनावाती हैं पर कापीराईट की अविधि समाप्त होने से पहले उसी दवा में थोड़ा सा फेरबदल करके उसका नया कापीराईट बनवा लेती हैं (evergreeing of patents) ताकि वह दवा और बीस सालों तक केवल उनकी सम्पत्ति रहे. भारतीय कानून इसकी रोकथाम करने में सहायता देता है.

पिछले वर्ष स्विटज़रलैंड की नोवार्टिस कम्पनी ने कैसर के इलाज में प्रयोग की जाने वाली दवा ग्लीवेक (Glivec) के फारमूले में कुछ बदलाव करके उसके नये कोपीराईट के लिए अर्जी दी, जो भारत सरकार ने यह कह कर नामंजूर करदी कि यह नया आविष्कार नहीं बल्कि पुराने फारमूले में थोड़ी सी बदली करके किया गया है. इसी पर नोवार्टिस ने़ भारत सरकार पर दावा कर दिया है कि भारत का यह कानून डब्ल्यूटीओ के नियमों के विरुद्ध है और इस कानून को रद्द कर दिया जाना चाहिये.

अगर नोवार्टिस यह मुकदमा जीत जायेगा तो भारत सरकार का यह कानून कि केवल बिल्कुल नये आविष्कार की ही रजिस्ट्री होनी चाहिये, अपने आप ही रद्द हो जायेगा और भारत सरकार को अंतर्राष्ट्रीय दवा बनाने वाली कम्पनियों की बहुत सी पुरानी दवाओं के पेटेंट को मानना पड़ेगा. इससे कम कीमत पर भारतीय दवा बनाने वालों को रोक लग जायेगी जिसका असर केवल भारत पर ही नहीं, बहुत से देशों में रहने वाले गरीबों पर पड़ेगा.

भारत सरकार ने इस बात की जाँच के लिए अपनी एक अंदरूनी कमेटी बिठायी थी जिसके अध्यक्ष थे श्री मशालकर. गत दिसम्बर में मशालकर कमेटी ने नोवर्टिस की माँग को जायज बताया है और इस कानून को बदलने की सलाह दी है.

अंतर्राष्ट्रीय गैरसरकारी संस्थाओं तथा स्वास्थ्य क्षेत्र के बुद्धिजीवियों ने तुरंत श्री मशालकर कमेटी के निर्णय की आलोचना की. उन्होने बताया कि मशालकर कमेटी ने इंग्लैंड की एक कम्पनी की एक रिपोर्ट को ले कर वैसे ही नकल कर के अपनी रिपोर्ट में लिख दिया है. अँग्रेजी क्मपनी की वह रिपोर्ट अंतर्राष्ट्रीय दवा बनाने वाली कम्पनियों ने पैसा दे कर बनवायी थी. उनका आरोप है कि श्री मशालकर खुद वैसी ही कम्पनियों के सलाहकार के रुप में सारा जीवन बिता चुके हैं और उनसे इस विषय पर निक्षपक्ष राय की आशा नहीं की जा सकती.

इसी के विरुद्ध विभिन्न देशों में जनचेतना अभियान शुरु किये जा रहे हैं. लोगों से कहा जा रहा है कि नोवार्टिस पर दबाव डाला जाये कि वह यह मुकदमा वापस ले ले. अब तक करीब 3 लाख लोगों ने उस अपील पर दस्तखत किये हैं जिनमें स्विटज़रलैंड की पूर्व राष्ट्रपति श्रीमति रुथ ड्रैयफुस, नोबल पुरस्कार विजेता आर्चबिशप डेसमैंड टूटू, संयुक्त राष्ट्र संघ के अफ्रीका अधिकारी स्टीफेन लुईस जैसे लोग भी शामिल हैं. प्रसिद्ध अंतर्राष्ट्रीय कम्पनियों के लिए उनकी जनछवि बहुत महत्वपूर्ण होती है जिसके बलबूते पर उनकी बिक्री टिकी होती है. आशा है कि अपनी जनछवि बिगड़ती देख कर नोवार्टिस यह मुकदमा वापस ले लेगी.

आप भी इस अपील पर दस्तखत कीजिये और नोवार्टिस पर दबाव डालने में सहायता कीजिये. अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएँ जैसे कि "सीमाविहीन चिकित्सक" (Doctors without Borders) तथा "ओक्सफाम" (Oxfam) के अंतरजाल पृष्ठों पर इस अपील पर दस्तखत किये जा सकते हैं.

सोमवार, फ़रवरी 19, 2007

ज्वालामुखिँयों की राह

दक्षिण अमरीका में एक्वाडोर में उत्तर में देश की राजधानी कीटो से दक्षिण में कुएँका जाने वाला रास्ता "ज्वालामुखियों की राह" के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि दोनो तरह पहाड़ों के बीच में गुजरते हुए इस रास्ते पर बहुत से ज्वालामुखी हैं.

एक समय में इटली में भी कुछ ऐसे ही था, उत्तर से दक्षिण तक, पूरे देश के बीचों बीच रीड़ की हड्डी की तरह उठे पहाड़ों के बीच में बहुत से ज्वालामुखी थे. उत्तरी इटली के सभी ज्वालामुखी आदिकाल में ही ज्वाला फ़ैंक और लावा उगल कर शाँत हो गये और आज उन ज्वालामुखियों के मुखों में झींलें हैं. रोम से थोड़ी ही दूर उत्तरी दिशा में तीन इस तरह की ज्वालामुखियों वाली झीलें हैं - ब्राचानो, बोलसेना और वीको.

रोम के दक्षिण में पोमपेई के पास खड़ा वासूवियो ज्वालामुखी करीब दो हजार वर्ष पहले फूटा था और उसके लावे ने पोमपेई के रहनेवालों को अपनी कैद में बंद लिया था. उस लावे की खुदाई से निकला पोमपेई आज हमें दो हजार वर्ष पहले के जीवन की अनोखी झलक देखने का मौका देता है.

इटली के दक्षिणी कोने पर ऐत्ना पहाड़ का ज्वालामुखी आज भी आग और लावा उगलता है. बीच बीच में यह लावा उगलने की प्रक्रिया जब तेज होती है तो उसे देखने आने वाले पर्यटकों की सँख्या तुरंत बढ़ जाती है.

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पिछले सप्ताह काम के सिलसिले में रोम जाना हुआ था, तो रोम के उत्तर में बसे प्राचीन शहर वितेर्बो को देखने का मौका मिला. शहर का मध्ययुगीन संकरी गलियों वाला हिस्सा मुझे बहुत अच्छा लगा. हालाँकि आज वितेर्बो छोटा सा शहर है पर इटली के इतिहास में इसका बहुत महत्व है. मध्ययुग में पोप को वेटीकेन छोड़ कर यही भाग कर आना पड़ा था और बहुत से सालों तक यह शहर दूसरा वेटीकेन बन गया था.

वितेर्बो से थोड़ी दूर ही है ब्राचानो की पुराने ज्वालामुखी के मुख में बनी झील. ब्राचानो शहर का नाम कुछ माह पहले अंतर्राष्ट्रीय समाचार पत्रों में आया था जब होलीवुड के अभिनेता टाम क्रूस ने यहाँ के किले में केटी होल्मस नाम की अभिनेत्री से विवाह किया था.

आज कुछ तस्वीरें वितेर्बो और ब्राचानो से.





वितेर्बो की मध्ययुगीन संकरी गलियाँ


वितेर्बो का "मृत्यु का फव्वारा"


ब्राचानो की झील


ब्राचानो का किला

गुरुवार, फ़रवरी 15, 2007

कान खींचो

हर वर्ष एलास्का और केनेडा में रहने वाले एस्कीमो अपने ओलिम्पिक खेलों का आयोजन करते हैं जिसमें सभी प्रतियोगिताएँ पाराम्परिक एस्कीमो खेलों की होती हैं.

कुछ खेल जिनकी प्रतियोगिता इन ओलिम्पिक खेलों में होती हैं उनके नाम हैं एस्कीमो डँडा खींच, मशाल दौड़, मछली काटो, कँबल फ़ेंको, इत्यादि.

बहुत सी प्रतियोगियातिएँ ऊँचा कूदने, तथा कूद कर लात मारने की होती हैं. एक ऊँची कूद में लोगों द्वारा खींच कर पकड़ी हुई तनी हुई रेनडियर की त्वचा पर छलाँग लगाते हैं तो एक दूसरी प्रतियोगिता में 2 मीटर ऊँची रस्सी को कूद कर पैर से छूना होता है.

पर मेरे विचार में सबसे रोचक प्रतियोगिताएँ कानो को पीड़ा देने वाली होती हैं, जैसे कान खींचो और कान से बोझा उठाओ. कान खींचने की प्रतियोगिता में हिस्सा लेने वाले एक दूसरे की कान पर रस्सी लपेट देते हैं और आमने सामने बैठ कर रस्सी को खींचते हैं. जो पहले दर्द से घबरा कर सिर पीछे खिंच कर कान से रस्सी को निकाल दे, वह हार जाता है. खेल पहले एक तरफ़ के कान से खेला जाता है फ़िर दूसरी तरफ़ से. कान से बोझा उठाओ खेल में कान से भारी वजन बाँध कर यह देखते हैं कि खिलाड़ी उसे कितनी दूर तक खींचने में समर्थ है. इन कान वालों खेलों में खिलाड़ियों के आसपास बर्फ ले कर उनके साथी खड़े होते हैं जो कि बीच बीच में कानों पर बर्फ लगा कर उनको ठँडक और दर्द से राहत देने की कोशिश करते हैं.

खेलों में एस्कीमो मिस वर्ल्ड भी चुनी जाती है ( नीचे तस्वीर में २००6 की मिस एस्कीमो वर्ल्ड)



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ऐसे खेल और भी देशों में होते हैं जहाँ लोग अपने पाराम्परिक खेलकूद को सुरक्षित रखना चाहते हैं. जैसे कि मँगोलिया में नादाम का उत्सव हर वर्ष अगस्त में मनाते हैं. नादाम में छोटे छोटे चार पाँच साल के बच्चों को घोड़ों पर दौड़ लगाते देखना बहुत रोमाँचकारी लगता है.

अगर भारत में हम इसी तरह अपने पाराम्परिक खेलों की धरोहर को बचाना चाहें तो उनमें कौन से खेल रखेंगे? खो खो, कुश्ती, मुदगर, आँखें बंद करके शब्दभेदी बाण, और क्या क्या?

बुधवार, फ़रवरी 14, 2007

विवाह की धूम

हाल में ही दो हिंदी फ़िल्में देखने का मौका मिला, "विवाह" और "धूम 2". इन फ़िल्मों को देख कर मन में आज के भारतीय सिनेमा में पारिवारिक मूल्यों के चित्रण के बारे में सोच रहा था.

ताराचंद बड़जात्या और राजश्री फिल्मों का मैं बचपन से ही प्रशंसक था. उनके पुत्र सूरज बड़जात्या की फ़िल्में मुझे उतनी अच्छी नहीं लगतीं. उनकी नयी फ़िल्म "विवाह" के बारे में तो बहुत कुछ बुरा भला पढ़ चुका था कि बिल्कुल पुराने तरीके की फ़िल्म है.
यह सच भी है कि फ़िल्म के धनवान पर अच्छे दिल वाले अनुपम खेर और शाहिद कपूर का परिवार राजश्री फ़िल्मों का पुराना जाना पहचाना भारतीय परिवार है, जहाँ भाई, भाभी और देवर के साथ प्रेम से रहने वाले दृष्यों में इतना मीठा भरा है कि अच्छे खासे आदमी को डाईबीटीज़ हो जाये. ऐसे संयुक्त परिवार जहाँ सभी एक दूसरे से प्यार करते हों, आपस में कोई खटपट न हो, कोई ईर्ष्या न हो, अविश्वासनीय हैं पर हमारे मन में छुपी इच्छा "कि काश ऐसा हो" को संतुष्टी देते हैं.




शाहिद कपूर और अमृता राव की कहानी, लड़की देखने जाना, मँगनी होना और उनके बीच में पनपता प्यार, इस सब की आलोचना की गयी थी कि बिल्कुल पुराने तरीका का है. मुझे लगा कि शायद कुछ बातें बड़े शहरों में रहने वालों के कुछ पुरानी लग सकती हैं पर वह भी इतनी तो पुरानी नहीं हैं. शहरों में भी अधिकतर विवाह के प्रस्ताव आज भी माता पिता द्वारा ही जोड़े जाते हैं, लड़की देखने जाने की रीति भी बंद नहीं हुई है तो इसमें पुराना क्या है? शायद लड़की के परिवार का आपस में हिंदी में बात करना, यह कहना कि वह हिंदी की किताबें पढ़ती है, यह सब पुराने तरीके का है जो आजकल बड़े शहरों में बदल में रहा है?

दूसरी ओर, आलोक नाथ और सीमा विस्वास का परिवार कुछ सिंडरेला की कहानी पर आधारित है, सौतेली माँ के बदले में चाची बना दी गयी है. पर इस भाग में मुझे अच्छा लगा कि घर दो बेटियों का होना सकारात्मक तरीके से दिखाया गया है और आग में जली युवती से उसके मँगेतर का विवाह करने का निश्चय भी सकारात्मक तरीके से दिखाया गया है. उत्तरी भारत में जहाँ पढ़े लिखे, सम्पन्न राज्यों में जहाँ बच्चियों के जन्म से पहले उनकी भ्रूणहत्या करना बढ़ता जा रहा है, इस तरह के संदेश देना बहुत आवश्यक है. ऐसी तथाकथित आधुनिक फ़िल्में जिनमें आधुनिकता केवल सतही होती है, उनसे यह पुराने तरीके की फ़िल्म ही अधिक अच्छी है.

जहाँ "विवाह" में परिवारों की बात फ़िल्म का केंद्र है, दूसरी फ़िल्म "धूम 2" में परिवार हैं ही नहीं. फ़िल्म में किसी भी पात्र के माता पिता नहीं दिखाये गये हैं, न ही किसी के कोई भाई बहन है. परिवार के बंधन न होने से फ़िल्म के सभी पात्र अपना जीवन अपनी तरह से जीने के लिए स्वतंत्र हैं. सिर्फ एक जय दीक्षित का पात्र है जो विवाहित है और जिसकी पत्नी गर्भवति है पर उनकी पत्नी को कुछ क्षणों के लिए दिखा कर परदे से गुम कर दिया जाता है, जिससे अर्थ बनता है कि गर्भवति पत्नी को मायके भेज देना चाहिये ताकि अपने जीवन में कोई तकलीफ़ न हो.

फ़िल्म की एक नायिका सुनहरी, चोर है पर क्यों चोर बनी यह आप समझ नहीं पाते अगर उसे मिनी स्कर्ट पहन कर डिस्को में नाचने का शौक है. अनाथाश्राम में पली बड़ी हुई हो ऐसी नहीं लगती. हाँ, आधुनिक है, अँग्रेजी बोलती है, अकेली विदेश यात्रा पर जा सकती है और बिना विवाह के एक दूसरे चोर के साथ रह सकती है.




फ़िल्म की दूसरी नायिका, चूँकि रियो दी जेनेयिरो में समुद्र तट पर रहती हैं, इसलिए उनका बिकिनी पहनना तो स्वाभाविक है, पर आश्चर्य होता है उन पर फ़िदा श्री अली पर. भिण्डी बाज़ार के मेकेनिक से पुलिस वाला बना अली, अकेला पात्र है जो माँ का नाम ले कर उसे याद करता है पर वह भी आधुनिक है और अगर पत्नि बिकिनी पहने है तो वह भी कम नहीं, वह नेकर पहन लेता है, और दोनो कोपाकबाना के समुद्रतट पर नारियल का पानी पीते हैं.

जिस तरह की फ़िल्म की कहानी है इसमें परिवार की आवश्यकता है ही नहीं, न ही किसी बड़े बूढ़े की. होते तो केवल समय बरबाद करते!

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