शनिवार, अप्रैल 05, 2008

अपनी बात कहने का अधिकार

इतालवी राष्ट्रीय चुनाव होने वाले हैं और आजकल हर तरफ़ चुनाव रैलियाँ हो रहीं हैं. इसी तरह की एक रैली में दो दिन पहले हमारे शहर बोलोनिया में श्री जूलियानो फैरारा आये. फैरारा जी पत्रकार हैं, एक समाचार पत्र के सम्पादक हैं, टीवी पर कार्यक्रम भी करते हैं और पहले बहुत समय तक इतालवी उद्योगपति और पूर्व प्रधानमंत्री बेरलुस्कोनी के दल में थे. अब उन्होंने अपनी पार्टी बनायी है "जीवन का अधिकार पार्टी" जिसका प्रमु्ख ध्येय है कि देश में गर्भपात न करा सकने का कानून बनना चाहिये क्योंकि उनका कहना है कि जीवन का अधिकार सबसे बड़ा और ऊपर है, और किसी को दूसरे का जीवन लेने का हक नहीं, किसी न पैदा हुए बच्चे का भी नहीं. उनके दल को तुरंत पोप द्वारा समर्थन भी मिला है पर आम जनता उनके प्रति कुछ उत्साह नहीं दिखा रही.

बोलोनिया में उनकी रैली में करीब एक हज़ार औरतों और नवजवानों ने उनका बहुत उत्साह से स्वागत किया, उन पर सिक्के, टमाटर और अँडे फ़ैंके और स्टेज पर चढ़ कर उनको बोलने से रोकने की कोशिश की. मारामारी में लाठियाँ चलीं, कुछ लोग घायल हुए और फैरारा जी को पुलिस संरक्षण में वापस जाना पड़ा.

पिछले कुछ समय से इटली में पोप द्वारा कही जाने वाली इस तरह की बातों पर जैसे कि गर्भपात न होने दीजिये, समलैंगिक युगलों को सामान्य दम्पति के अधिकार नहीं दीजिये, मानव भ्रूँड़ पर जेनेटिक शौध नहीं होना चाहिये, कुछ राजनीतिक लोगों ने उनके पक्ष में बोलना शुरु कर दिया है कि हमें अपने कानून बदल लेने चाहिये, पोप ठीक कहते हैं, इत्यादि. विश्वविद्यालय के विद्यार्थी गुटों ने और मानव अधिकारों की बात करने वालों ने और कूछ आम जनता ने इस तरह की बातों को पिछड़ापन और पुराने समय में लौट जाने की कोशिश बताया है और इनका विरोध किया है. फैरारा जी पर हमला और उन्हें न बोलने देना इसी बहस का हिस्सा माना जा सकता है.

मैं इस बात से बिल्कुल सहमत नहीं कि कोई बोल रहा हो और उस पर हमला किया जाये और उसे अपनी बात न कहने का मौका मिले. मेरे विचार में इस तरह का विरोध बिल्कुल गलत है. मैं फैरारा जी का प्रशंसक नहीं हूँ, बल्कि मानता हूँ कि वह मुझे बिल्कुल पसंद नहीं. टीवी पर उनका कार्यक्रम हो तो मैं तुरंत चैनल बदल देता हूँ क्योंकि मुझे उनके बोलने का आक्रामक तरीका अच्छा नहीं लगता. मैं उनके गर्भपात रोकने का कानून बनाओ वाली बात से भी बिल्कुल सहमत नहीं, पर मैं मानता हूँ कि उनको भी बोलने का उतना ही हक है जितना अन्य किसी को है. मुझे नहीं पसंद तो न मैं उन्हें सुनने जाऊँगा, न उन्हें वोट दूँगा.

इस बात पर मेरी अपने कुछ युनियन वाले मित्रों से बहस हो गयी. मुझे लगता है कि मेरे कुछ वामपंथी मित्र किसी किसी बात पर उतने ही असहिष्णु और कट्टर हैं जितने रूढ़िवादी लोग, उनके लिए मानव अधिकार वही हैं जिन बातों में वह विश्वास करते हैं. उनका कहना है कि फैरारा जी बहुत ताकतवर हैं यानि उनको बहुत जगह मिल रही रही है अपनी बात कहने के लिए, टीवी में, अखबार में, और उन्हें रोकना आवश्यक है, किसी भी तरीके से. मुझे लगता है कि इस तरह से सोचने वाले गलत हैं.

मैं मानता हूँ कि हर व्यक्ति को अपनी बात कहने का, लिखने का, कला में बनाने का, फ़िल्म में बनाने का, हर तरह से अभिव्यक्त करने का हक है, जाहे वह जिस विषय पर हो, चाहे वह किसी धर्म के बारे में हो, किसी देवता के बारे में, सेक्स के बारे में, राजनीति के बारे में. बस दो ही शर्तें हैं, एक किसी के मरने मारने को, किसी तरह की हिंसा के लिए न उकसाया जाये, और दूसरी, अन्य किसी व्यक्ति विषेश की निजी बातों के बारे में नहीं बोल सकते. साथ ही छोटे बच्चों के बचाव के लिए स्पष्ट जानकारी होनी चाहिये.

यह कहना कि इससे या उससे इस धर्म का अपमान होता है, या फ़िर नैतिक रूप से यह बात गलत है, इत्यादि और किसी की अभिव्यक्ति को रकने की कोशिश करना मुझे गलत लगता है. कुछ भी पढ़ कर आहत महसूस करना, अपमानित महसूस करना, इस लिए इसे बैन करो, उसे बंद करो, मुझे गलत लगते हैं क्योंकि आप कुछ भी करलो, कोई न कोई नाखुश हो ही जाता है. कोई जबरदस्ती नहीं कि आप यह फ़िल्म देखो, या वह किताब पढ़ो, या इसकी बात सुनो, आप कुछ और करो, जो आप को अच्छा लगता है, पर यह कहना कि दूसरे भी इसे न पढ़े, देखें, सुने, जबरदस्ती है.

शुक्रवार, अप्रैल 04, 2008

ऊँट बनने के सपने

जब समाचार पढ़ा कि आबु धाबी में ऊँटों की प्रतियोगिता हुई और सबसे सुंदर ऊँट को पाँच करोड़ का ईनाम मिला तो अपने लड़कपन के दिन याद आ गये. एक तो दुबला पतला था, उस पर किशोर होते होते अचानक लम्बाई बढ़ने लगी. इतनी लम्बी गर्दन लगती थी कि माँ कहती, "इतना बड़ा ऊँट सा हो गया पर अक्ल हमेशा घास चरने में लगी रहती है." सुन कर मन को बहुत दुख पहुँचता, मन में आता कि कैसे मोटा हुआ जाये, और यह ऊँट सी गर्दन कुछ छोटी लगे. एक पत्रिका में पढ़ा कि दूध और केला खाने से शरीर अधिक तंदरुस्त होता है और वज़न बढ़ता है, तो सुबह दूध के साथ केला खाना शुरु कर दिया.

तब बेचारे ऊँटों को कौन पूछता था और ऊँट कहलाने का अर्थ था कि स्वयं को बदसूरत समझना. आज जब स्वयं को हाथी के रूप में देखता हूँ तो समझ में आता है कि शायद ऊँट होना उतना बुरा भी नहीं था. सुबह जब पत्नी दोपहर के खाने के लिए सलाद देते हुए कहती है कि तुम्हारा वज़न बहुत बढ़ गया है, आज खाने में केवल सलाद ही खाओ तो समझ में आता है कि ऊँट होना कितना सुखदायक हो सकता है. और जब यह पढ़ा कि सुंदर ऊँट को पाँच करोड़ का ईनाम मिला तो लगा काश हम भी ऊँट प्रतियोगिता में इतराते, हमारी भी तस्वीर अखबारों मे छपती. क्या पता शायद किसी हिंदी फ़िल्म में कोई ओफ़र भी मिल जाता.

मिस इंडिया या मिस युनिवर्स जैसी प्रतियोगिताओं में कैसे जीता जाता है इसकी कुछ समझ तो है हमें. शरीर का बोतल सा आकार होना चाहिये, स्वाभाविक बत्तीस दाँतों वाली मुस्कान होनी चाहिये जिससे मुँह खोलते ही ट्यूबलाईटें जल जायें, कुछ अदाएँ होनी चाहिये और प्रश्नों के उत्तर में हाज़िरजवाबी होनी चाहिये और गरीबों पिछड़े हुए लोगों के प्रति सुहानुभूति होनी चाहिये, जैसे कि "जी मैं अपना जीवन मदर टेरेसा और बाबा आमटे को समर्पित कर चुका हूँ". मिस्टर इंडिया और मिस्टर युनिवर्स बनने के टोटके भी कुछ इसी तरह के होंगे. पर मिस्टर ऊँट बनने के लिए क्या देखा जाता है? पीठ पर कूब का कोण कितना बड़ा है, या कितने ऊँचे पेड़ से पत्तियाँ तोड़ कर खा सकता हूँ?

कौतुहल से इंटरनेट पर खोजा तो पाया कि ऊँटों की सुंदरता नापने के लिए देखते हैं कि कानों की आकृति कैसी है, नाक की लम्बाई बाकी के चेहरे के अनुपात में कैसी है, और पीठ पर कूब कितना फ़ूला है, आदि. मैंने शीशे में अपने कानों की आकृति को देखा है, काफ़ी सुंदर लगते हैं, नाक का अनुपात बाकी चेहरे की लम्बाई से बहुत बढ़िया है. बस पीठ पर कूब थोड़ा छोटा है पर उसे बढ़ाने की कोशिश मैं कर रहा हूँ, सारा दिन कम्प्यूटर के सामने बैठूँगा तो कूब तो बढ़िया विकसित होगा ही!

पर दिक्कत यह है कि गर्दन दिखती ही नहीं, माँस के बीच दबी है, बहुत सिर को इधर उधर मारा, सामने आने का नाम नहीं लेती! मुझे नहीं लगता कि मिस्टर ऊँट का पुरस्कार मुझे मिलेगा. सुना है कि वियतनाम में मिस काओ यानि कि सुकुमारी गाय की प्रतियोगिता होती है, वहाँ भेस बदल कर कोशिश की जा सकती है. अगर आप को मालूम हो कि कहीं मिस्टर हाथी या मिस्टर साँड की प्रतियोगिता होती है तो मुझे अवश्य बताईयेगा.

सोमवार, मार्च 31, 2008

भूले मुर्दे

पत्थर की दीवारों के भग्न अवशेषों पर न आग की कालिख दिखती है न बमों की झुलस. घास पर खून के निशान नहीं, सुंदर मार्गरीता के फ़ूल खिले हैं. कोई सड़े माँस की बास नहीं आती, फ़ूलों की महक है बस. न ही कोई चीख गूँजतीं है, सन्नाटे में कभी कभी चिड़ियों की चूँ चूँ सुनाई देती है. हरियाली से ढके सुरमयी पहाड़ों की सुंदरता को देखो तो मौत की बातें सुनाई ही नहीं देतीं, सुनों भी तो लगता है कि कोई कहानी सुना रहा हो.



"यहाँ मेरे मित्र का घर था. यहाँ रसोई थी उनकी. कितनी बार बचपन में यहाँ बैठ कर मीठी चैरी खाते थे. .. इस जगह "कपरारा दी सोपरा" नाम था इस गाँव का, 29 सितंबर था उस दिन जब चालिस लोगों को मारा. उस घर में सब लाशें इक्ट्ठी थीं, बच्चे, बूढ़े, औरतें, सबको अंदर बंद करके अंदर बम फैंके थे, जो बाहर निकलने की कोशिश करता उसे मशीनगन से भून देते. ... यहाँ फादर फेरनान्दो की लाश मिली थी, गिरजाघर में ... इधर पड़ी थी लुईजी की लाश, साथ में उसकी बहन थी. कहता था भूख लगी है कुछ खाने का ले कर आऊँगा. हम सब लोग नौ दिनों से तहखाने में छुपे बैठे थे. ... बम से उड़ा दिया उन्होंने गिरजाघर के दरवाज़े को. साठ लोग थे भीतर छुपे हुए सबको बाहर निकाला गया. डान उबाल्दो मारकियोनी पादरी थी, रोकने लगे तो उन्हें सबसे पहले यहीं मारा. बाकी सब लोगों को वहाँ कब्रिस्तान में ले गये. बच्चे, बूढ़े, औरतें, सभी को. दीवार ऊँची थी, कहीं भागने की जगह नहीं थी. मशीनगन चलाई, सभी यही मिले. औरतें और बूढ़े, बच्चों को बचाते हुए, पर किसी को नहीं बचा पाये... ऊपर से फूस डाल कर आग लगा दी..."












बोलते बोलते पिएत्रो की आवाज़ भर्रा जाती. उन मरने वालों में उसकी चौदह साल छोटी बहन थी, गर्भवती भाभी थी और पिता थे. "बोली थी मैं भी साथ जँगल में चलूँगी तो मैंने रोक दिया. सोचा कि भाभी को ज़रूरत पड़ सकती है. फ़िर सोचा बेचारी बच्ची है, बच्ची को कुछ नहीं करेंगे...". भाभी के नौ महीने होने को थे, भागमभाग में खतरा था. पिएत्रो के आँसू नहीं रुकते थे.

पिछले साल पिएत्रो गुज़र गये. आज उन्हीं को याद करने हम लोग मारज़ाबोत्तो गये थे. यहाँ पर 1944 में द्वितीय महायुद्ध में सितंबर के अंत में और अक्टूबर के प्रारम्भ में जर्मन सिपाहियों ने 771 लोगों को मारा था, अधिकतर बच्चे, बूढ़े और औरतें. जर्मन लड़ाई हारने लगे थे. वहाँ के बहुत से नवयुवक मुसोलीनी और फासिसम के विरुद्ध युद्ध में कूद पड़े थे, पहाड़ों में छुप छुप कर ज़र्मन सिपाहियों पर हमला करते थे और जर्मन सिपाही बदला लेना चाहते थे, किसी पर अपना गुस्सा निकालना चाहते थे.

मारज़ाबोत्तो छोटा सा गाँव सा है, हालाँकि आसपास के पहाड़ों पर बिखरे गाँवों के मुकाबले में उसे शहर कहा जाता है. शहर के प्रारम्भ में ही उन 771 मुर्दों की कब्रों के लिए सकरारियो यानि पूजा स्थल बना है. सँगमरमर की दीवारें हैं कब्रिस्तान की जिस पर हर मरने वाले का नाम और उम्र लिखी है. अदा 3 साल, रेबेक्का 26 साल, ज्योवानी चौदह साल, मारिया 74 साल ... उनमें से 315 औरतें और 189 बच्चे 12 साल से छोटे. यहीं पर आ कर पिएत्रो छोटी बहन के पत्थर पर हाथ रख कर बैठा रहता था. उसका बड़ा भाई जिसकी पत्नी अनजन्मे बच्चे के साथ मरी थी, कई साल पहले गुज़र चुका था. "मेरी ही गलती से वह मरी, मैं उसे अपने साथ आने देता तो बच जाती", बार बार यही कहता.

काज़ालिया गाँव के कब्रिस्तान की दीवार पर जहाँ 195 लोग मारे गये थे जिनमें से 50 बच्चे थे, बाहर लिखा है, "हिटलर ने कहा कि हमें शाँत हो कर क्रूरता दिखानी होगी, बिना हिचकिचाये, वैज्ञानिक तरीके से, बढ़िया तकनीक से यह काम करना है हमें."



जाने क्यों मेरे मन वो लोग आते हैं जिनकी मौत का कोई ज़िम्मेदार नहीं, जिनको मारने वाले खुले आम घूम रहे हैं. 1984 में दिल्ली में मरने वाले, 2002 में गुजरात में मरने वाले, 2007 में नंदीग्राम में मरने वाले. कुछ भी बात हो अपने हिंदुस्तान में सौ-दौ सौ लोग मरना मारना तो साधारण बात है. क्या नाम थे, किसने मारा, क्यों मारा, कोई बात नहीं करता. न ज़िंदा लोगों की कोई कीमत और न मरने वालों की. फ़ालतू की बातों में समय बरबाद नहीं करते. उन माओं, पिताओं, बहनो, भाभियों को कोई याद करता. उनके नाम कहीं नहीं लिखे, कानून के लिए तो शायद वह मरे ही नहीं. सोचता हूँ कि अपने जीवन की हमने इतनी सस्ती कीमत कैसे लगायी?

भारत से आने वाले समाचारों से इन दिनों बहुत निराशा हो रही है. मुंबई में गुँडागर्दी करने वाले बिहारियों पर हमला करते हैं, देश चूँ नहीं करता. मुट्ठी भर कट्टरपंथी मुसलमान दँगा करते हैं, खुले आम टेलिविज़न पर तस्लीमा को मारने की धमकी देते हैं, सरकार तस्लीमा पर शाँती भंग करने का आरोप लगाती है और खूलेआम कत्ल की धमकी देने वाले खुले घूमते हैं. हिंदू गुँडे धमकी देते हैं विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम से रामनुजम की रामायण के बारे में लिखी किताब हटायी जाये. इस गुँडाराज में कोई न्याय नहीं, कोई आदर्श नहीं, सबके मुँह पर ताले लगे हैं.

जीवतों की कोई पूछ नहीं, मुर्दों की चीखों को कौन सुने?

रविवार, मार्च 16, 2008

चुरा के दिल बन रहे हैं भोले

विश्वविद्यालय का चिकित्सा विभाग शहर के पुराने हिस्से में है, वहाँ जब भी जाना पड़ता है तो साईकल से ही जाना पसंद करता हूँ. बोलोनिया के पुराने हिस्से में छोटी छोटी संकरी गलियाँ हैं, और वहाँ केवल शहर के उस हिस्से में रहने वाले ही कार से जा सकते हैं. वैसे भी अधिकतर गलियाँ वन-वे हैं और अगर कार से जायें भी तो भूलभुलईयाँ की तरह इस तरह घुमाते हें कि थोड़ी देर में ही भूल जाता हूँ कि किधर जाना था और किधर जा रहा हूँ. बस से भी जा सकते हैं पर फ़िर चिकित्सा विभाग तक थोड़ा चलना पड़ता है. क्लास समाप्त हुई और वापस आ रहा था तो प्याज़ा वेर्दी (piazza verdi) में एक सज्जन ने हाथ उठा कर कहा "एक मिनट, प्लीज, एक मिनट!"

प्याज़ा वेर्दी पिछले कई महीनों से शहर में चर्चा का विषय बना हुआ है. विश्वविद्यालय के छात्र रोज़ रात को वहाँ हुल्लड़ करते हैं. खुली जगह है पुराने मध्ययुगीन घरों से घिरी, बीच में बैठ कर बियर पीते हैं, गप्प मारते हें और किसी को ज़्यादा जोश आया तो वह खाली बोतलें को तोड़ने लग जाता है. आसपास रहने वाले लोग शोर से, गंदगी से परेशान हैं, कहते हैं कि नशे का सामान भी लोग खुले आम बेचते हैं. वहाँ रहने वाले माँग कर रहे हैं कि वहाँ छात्रों के एकत्रित होने को मना कर दिया जाये. छात्र कहते हें कि यह लोग छात्रों को महँगे महँगे सब चीज़ बेचते हैं, घरों के किराये इतने अधिक हैं कि बेचारे छात्र परेशान हो जाते हैं, इन्हें केवल अपना लाभ दिखता है और कुछ नहीं.

जब तक इस बात का कुछ निर्णय लिया जाये, नगरपालिका ने उस इलाके में रात को दस बजे के बाद शीशे की बोतलों में बियर बेचने पर रोक लगा दी है और वहाँ के सभी पब बार आदि को एक बजे बंद होना पड़ता है.

"हाँ कहिये?", मैं तुरंत रुक गया. यही बुरी आदत है मुझमें, कोई कुछ भी कह कर रोक सकता है मुझे. सुने को अनसुना करके निकल जाना नहीं आता. इस तरह रुक कर जाने कितनी अनचाही चीज़ें, किताबें खरीद लेता हूँ क्योंकि इस तरह के बेचने वालों पर मुझे जल्दी तरस आ जाता है. फ़िर घर वापस आ कर समझ नहीं आता कि बेकार की खरीदी चीज़ो का क्या किया जाये, कहाँ फ़ैंका जाये.

कुछ अजीब सा लगा वह व्यक्ति जिसने मुझे पुकारा था. हल्के पीले रंग का रेनकोट जैसा पहने था, बाल यूँ सेट हो रहे थे मानो पुरानी होलीवुड फिल्मों में क्लार्क गेबल के या अपनी हिंदी फ़िल्मों में के एल सेहगल के होते थे. उनके पीछे पीछे एक आदमी बड़ा कैमरा लिये था, दूसरे के हाथ में लम्बा वाला माईक्रोफोन था. "एक मिनट का समय चाहिये. हम लोग मनोविज्ञान के बारे में डीवीडी बना रहे हैं, आप का थोड़ा सहयोग चाहिये. आप को एक तस्वीर को देखना है और यह बताना है कि अगर आप उस तस्वीर वाली जगह पर हों तो क्या करेंगे?"

एक क्षण के लगा कि शायद कोई बकरा बनाने वाला कार्यक्रम न हो. कुछ झिझक कर कहा कि दिखाईये कौन सी तस्वीर है?

तस्वीर में एक पहाड़ था, सुंदर फ़ूलों से भरी एक घाटी थी और सुंदर नदी थी. इस तरह की जगह पर हूँ तो मैं क्या करूँगा? इससे पहले कि मैं कुछ कहता वह बोले, "आप को कहना है कि मैं चुपचाप प्रकृति की स्वर सुनूँगा".

यानि, मुझे केवल उनका बताया डायलाग बोलना था. सचमुच में मैं वहाँ क्या करूँगा, इसकी उन्हें परवाह नहीं थी. जब उन्होंने "एक्शन" कहा तो मैंने कुछ सोचने का अभिनय करते करते, वही उनका कहा बोल दिया.

"अच्छा, क्या मैं आप की तस्वीर ले सकता हूँ?", मैंने थैले से कैमरा निकाला, पर उत्तर देने का उनके पास समय नहीं था, कैमरा और माईक ले कर वह किसी और से कोई अन्य डायलाग बुलवाने चल पड़े थे.

मैं मन में बोला, सचमुच उस तरह की जगह पर होता तो क्या करता? ज़ोर ज़ोर से गाना गाता, "सुहाना सफ़र और यह मौसम हसीन" या फ़िर, "भीगी भीगी हवा, सन सन करता जिया".

उस शाम को घर पर बेटे और पुत्रवधु को यह बात सुना रहा था तो बात हिंदी संगीत पर जा अटकी. कोई भी बात हो, कुछ भी स्थिति हो, हर स्थिति के लिए मेरे मन में कोई न कोई हिंदी गाना है और वह गाने ही तो मन की बात को अभिव्यक्त करते हैं! लता, किशोर, रफ़ी, आशा के गाये गीत हमारी भावनाओं के साथ इस तरह जुड़े हैं कि अगर गाना न हो तो भावना अधूरी सी लगती है.

मैंने कहा कि आर डी बरमन मेरे सबसे प्रिय संगीतकार थे, उनके हर गाने के शब्द मुझे याद थे. कुछ और बात बढ़ी तो मैंने बताया कि उनकी पहली फ़िल्म "छोटे नवाब" के गाने मुझे बहुत अच्छे लगते थे, जैसे "चुरा के दिल बन रहे हैं भोले, जैसे कुछ जानते नहीं" और कैसे मैंने इस फ़िल्म के कैसेट को कितने सालों तक दिल्ली की दुकानों में खोजा पर नहीं मिला. बेटे ने पूछा, "क्या नाम बोला आप ने उस संगीत निर्देशक का?"

कल मीटिंग में फ्लोरेंस गया था. शाम को घर लौटा तो बेटा मुस्करा रहा था, "आप के लिए आर डी बरमन के सभी गाने खोज लिये हैं, इंटरनेट पर सब मिल जाता है."

विश्वास नहीं हुआ पर सचमुच एसा ही है. जाने कहाँ से, कैसे, वह आर डी बरमन के सारे गाने खोज लाया है, सौ से भी अधिक फ़िल्में हैं, उनमें से बहुत सी हैं जिनका नाम भी पहले नहीं सुना कभी, शायद रिलीज़ ही न हुई हों, जैसे कि जलियाँवाला बाग, मज़ाक, मर्दोंवाली बात, आदि. कुछ प्रसिद्ध निर्देशकों भी फ़ल्में हैं जैसे विजय आनंद की "घुघरू की आवाज़" जिनके नाम भी मुझे नहीं मालूम थे. एक गाना है "मज़दूर" फिल्म से सलमा आगा का गाया हुआ जो पहले कभी नहीं सुना था. अभी तो चार या पाँच फ़िल्मों के गाने ही सुने हैं, सभी गानों को एक बार सुनते सुनते कई सप्ताह लग जायेंगे. 8 जिगाबाईट हैं उन गानों के.

और सबसे अच्छी बात, रात को बहुत सालों के बाद "चुरा के दिल बन रहे हें भोले" भी सुना.

कई बार मन में आता था कि जब कोई फ़िल्म नहीं रिलीज़ हुई हो या पूरी ही न हुई हो, तो उसका संगीत, उसकी रील कहाँ जाती होगी? जाने कितना काम हो सकता है हमारे प्रिय संगीतकारों का, निर्देशकों का, इस तरह से छुपा हुआ. शायद उनका बाज़ार न हो पर इंटरनेट के माध्यम से उनके प्रेमी उनका आनंद तो ले सकते हैं?

शुक्रवार, मार्च 14, 2008

अमलतास और टेसू की आग

आखिरकार बसंत आ ही गया. पिछले एक सप्ताह से सुबह चार बजे से ही बाहर के पेड़ों पर पक्षियों कि चहचहाहट शुरु हो जाती है. कई बार लगता है कव्वाली की प्रतियोगिता हो रही हो. पहले एक पक्षी तान बजाता है, फ़िर दूसरा उसके उत्तर में उसी तान को कुछ बदल कर, कुछ लम्बा कर कर उसका उत्तर देता है. तब पहले वाला दोबारा सा नया नमूना प्रस्तुत करता है. सो रहे हो तो यह सुबह उठने का अलार्म सुंदर तो है पर आवश्यकता से पहले बजने लगता है. सुबह जल्दी उठने की आदत है मुझे पर चार बजे तो मेरे लिए भी बहुत जल्दी है!

थोड़े ही दिन में आदत पड़ जायेगी, फ़िर सुबह सुबह चार बजे नींद नहीं खुलेगी, पर जब पाँच बजे हमेशा की तरह उठूँगा तो पक्षियों की चहचहाहट सुन कर मन प्रसन्न हो जाता है.

आज काम से छुट्टी है. सुबह आँख खुली तो भी बिस्तर पर लेटा रहा और किताब पढ़ता रहा. गुलज़ार की फ़िल्मों के बारे में साइबल चैटर्जी ने किताब लिखी है, ""गुलज़ार का जीवन और सिनेमा" (Echoes & Eloquences - life and cinema of Gulzaar), वही पढ़ रहा हूँ. गुलज़ार की फ़िल्में, उनकी कहानियाँ, उनकी कविताँए सब ही मुझे प्रिय हैं इसलिए उन फ़िल्मों के पीछे छुपी बातों को जानने की मन में बहुत उत्सुकता थी. आठ बजे उठना पड़ा क्योंकि आज घर पर होने से कुत्ते को सैर कराने की ज़िम्मेदारी मेरी ही थी.

बाहर निकले तो सब तरफ़ दूधिया धुँध थी, मानो पतीले से उबल कर बाहर बिखर गयी हो. गुलज़ार के बारे में पढ़ो तो साधारण जीवन की उपमाओं में बात करना अच्छा लगता है, इसमें उनके जैसा उस्ताद कोई अन्य नहीं.

बाग की ओर गये तो धुँध के साथ मखमली घास की हरियाली और फ़ूलों से भरे पेड़ देख कर लगा कि हाँ सचमुच बसंत आखिर आ ही गया. बाग में घुसते ही कुछ लम्बे और पँख जैसी आकृति वाले पेड़ हैं जिन्हें इतालवी भाषा में प्योप्पो कहते हैं. आम प्योप्पो की आकृति साधारण वृक्षों जैसी होती है जबकि हमारे बाग वाले पेड़ कुछ अजीब से हैं. जब उमस अधिक होती है तो यह पेड़ वातावरण से उमस को ले कर उसका पानी बना देते हें और पेड़ के नीचे खड़े हो तो पानी की बूँदें सी गिरती रहती हैं. जब गर्मी अधिक हो और उमस हो तो इस पेड़ के नीचे खड़ा होना सुखद लगता है. इसके फ़ूल कुछ शहतूत जैसे, कुछ कानखजूरे जैसे लग रहे थे, बाग की सारी सड़क को ढके हुए. (नीचे तस्वीर में प्योप्पो के पेड़)



बाग की हर सड़क पर अलग पेड़ लगे हैं, एक तरफ़ शहतूत, दूसरी ओर चेरी, एक ओर होर्स चेस्टनट यानि "घोड़े के अखरोट", पीछे नाशपाती और सेब. सभी पेड़ फ़ूलों से भरे हैं. अभी घास हरी है, वह फ़ूलों की चादर के नीचे नहीं छुपी है. पिछले साल इन्हीं दिनों में जब सारी घास फ़ूलों से छुप गयी थी, हम सब लोग एक रविवार को बाग में पिकनिक के लिए गये थे. इस बार भी, थोड़ी सी सर्दी कम हो तो पिकनिक का कार्यक्रम बने. (नीचे तस्वीर में पिछले साल की पिकनिक में बेटा और पुत्रवधु, और कुत्ता ब्राँदो)



देखा कि बाग में लगी एक बैंच को किसी ने तोड़ दिया है. रात को अक्सर नवजवान लड़के लड़कियाँ देर तक बैठे रहते हैं, हो सकता है कि उनमें से किसी ने अधिक पी ली हो या नशा किया हो, तो अपने करतब बेचारे बैंच को तोड़ कर दिखाये.

दूसरी ओर आदमी बच्चों के लिए नये झूले लगा रहे थे. यह गनीमत है कि शरारती लड़कों ने अभी तक बच्चों के झूलों से तोड़ फोड़ नहीं की है. तब सोच रहा था कि यहाँ हर झूले का अपना अलग नाम होता है, जब कि हिंदी में बस एक झूला ही होता है, चाहे वह झूलने वाला हो, या फ़िसलने वाला या गोल चक्कर लेने वाला या कोई और. शायद इसका कारण है कि भारत में पहले विभिन्न तरह के झूले नहीं होते थे और यह सब विदेशी प्रभाव से ही आये हैं?

सैर के बाद घर आने लगे तो अचानक मन में होली की बात आ गयी. इन दिनों में दिल्ली में बुद्ध जयंती वाली सड़क और बाग में अमलतास के पेड़ों पर पीले फ़ूलों और रिज से जाने वाली सड़क पर टेसू के फ़ूलों की लाल आग लगी होगी. दिन में गर्मी हो जाती होगी पर सुबह सुबह उस तरफ़ घूमने जाना कितना अच्छा लगता होगा. थोड़े दिनों में गुलमोहर के लाल फ़ूलों की बारी आती होगी! यह होली भी इसी तरह बीत जायेगी, बिना रँगो की, बिना मित्रों की. अचानक मन उदास हो गया.

मंगलवार, मार्च 11, 2008

संगीत और शोर

पिछले तीन चार सालों से काम करते समय जब भी अकेला होता हूँ तो संगीत सुनने की आदत सी पढ़ गयी है. इंटरनेट का कोई भारतीय स्टेशन खोज कर दुनिया में कहीं भी भारतीय संगीत सुनना आज जितना आसान है उतना पहले कभी नहीं था.

कल दिन भर घर पर था. बहुत दिनों से घर पर समय नहीं मिला था और अपनी स्टडी में बहुत सारे काम जमा हो गये थे. शेल्फ पर ढेर लगे किताबों के उन्हें ठीक करना, छाँट कर पुरानी किताबों को फैंकने के लिए निकालना, डीवीडी इधर उधर बिखरी हुई हैं उन्हें ठीक से सहेज कर रखना, फोटो को छाँटना और एल्बम में लगाना, अलमारी के द्राज साफ करना, कागज़ छाँटना, पुरानी पत्रिकाओं को छाँटना, आदि. कई घँटे लगे इस सब काम में और सारे समय संगीत बजता रहा.

रात का खाना लगा तो पत्नी ने खाना खाने को बुलाया और बोली अब इस शोर को बंद करो, सारा दिन यह चीं चीं सुन कर सिर दर्द हो गया है. मुझे थोड़ा सा बुरा लगा कि मेरे संगीत को शोर कह रही है पर बंद कर दिया. कमरे में से आखिरी कागज कूड़ा उठा रहा था जो बिना आवाज का कमरा अजीब सा पर अच्छा लगा. सोच रहा था कि कैसे संगीत भी अधिक हो जाये तो, या उसकी ध्वनी ज़रूरत से अधिक ऊँची हो शोर बन सकता है.

खाना खा कर कुत्ते को लिया और बाग में सैर को निकला. पहले दो दिन बारिश हो रही थी और सर्दी वापस लौट आई थी पर कल रात को न तो बारिश थी न ही वह हड्डियों तक घुसने वाली सर्दी. थोड़ी देर तक ही चला था कि पड़ोस के एक वृद्ध सज्जन दिखे, उनसे हैलो हुई तो वे भी साथ चलने लगे. वैसे तो मुझे तेज चलना अच्छा लगता है पर कुत्ता साथ हो तो तेज नहीं चल सकते, जहाँ कुत्ते को रुकना होता है, वहाँ रुकना ही पड़ता है. वे वृद्ध सज्जन जिनका नाम है अंतोनियो, उनका दायें कूल्हे का ओपरेशन हुआ है तो छड़ी के सहारे धीरे धीरे चलते हैं, उनके साथ साथ चलते हुए, और भी धीमे चलना पड़ रहा था.

अंतोनियो बहुत बातें करते हैं, लगता है कि सारा दिन घर में किसी से बात नहीं कर पाते या शायद घर पर अकेले रहते हैं, पर जब मिलते हैं, सारा समय कुछ न कुछ बोलते रहते हैं. उनके कूल्हे के ओपरेशन के बारे में तो पहले ही बहुत सुन चुका हूँ. कल रात को बात हो रही थी बदलते पर्यावरण के बारे में कि कैसे मौसम बदल रहे हैं, गर्मियों में गर्मी बढ़ गयी है और सर्दियों में सर्दी कम पड़ती है. तभी सामने से जोगिंग करता हुआ एक लड़का आया. अंतोनियो ने उसे हैलो बोला पर वह कानो में आईपोड लगाये संगीत सुनने में मस्त था, उसने शायद नहीं सुना और आगे निकल गया.

अंतोनियो मुझसे बोले, "आज कि दुनिया में साथ साथ कितने काम करते हैं, पर ध्यान किसी तरफ नहीं दे पाते. अगर पूछो कि कौन सा गाना सुना तो बता नहीं पायेगा कि क्या सुना, क्या बोल हैं उसके. आजकल संगीत सुनना इतना आसान हो गया है कि उसकी सुंदरता को हम समझ ही नहीं पाते. जब संगीत सुनने को नहीं मिलता था तो उसको कितने ध्यान से सुनते थे, उसके महत्व को समझते थे. जब मैं छोटा था तो संगीत सुनने का मौका साल में एक दो बार ही मिलता था, चर्च में कभी कोई आरगन बजाने वाला आता या कोई धार्मिक गानों को गाने वाला दल आता तब. हम लोग खुद ही अपने लोकगीत गाते, गिटार के साथ. न रेडियो था, न टीवी, न वाकमैन."

करीब अठ्ठासी वर्ष के हैं अंतोनियो और उनकी बात शायद द्वितीय महायद्ध से पहले की थी. जब उन्हें छोड़ कर घर की ओर आ रहा था तो उनकी बातों पर सोच रहा था.

मुझे याद है जब घर में पहला ट्राँज़िस्टर आया था और कैसे सिलोन रेडियो को मुश्किल से खोज कर गाने सुनते थे, तब विविध भारती नहीं होता था. तब किसी नये गीत को सुन कर कितना उत्साह होता था. पर कल सारा दिन संगीत सुनता रहा, क्या सुना, कुछ याद नहीं. आजकल हर समय बस यही चिंता रहती है कि कैसे नया सुना जाये. दो दिनों में ही नये का नयापन गुम हो जाता है और नये की तलाश चलती ही रहती है.

आज की दुनिया में संगीत सुनना तो बहुत छोटी सी बात है, शायद इसी लिए उसका महत्व कम हो गया है?

गुरुवार, फ़रवरी 28, 2008

नये बाँध, पुरानी गलतियाँ

कल २७ फरवरी के अँग्रेज़ी समाचार पत्र फाँनेंशियल टाईमस् में समाचार था चीन में बनने वाले दुनिया के सबसे बड़े बाँध के बारे में जिसका शीर्षक था "नया बाँध फ़िर से नादान गलतियाँ कर रहा है" (New dam repeats stupid mistakes). अगर यह समाचार कोई पत्रिका वाला छापे तो सोचा जाता है कि अवश्य ही कम्यूनिस्ट होंगे या पुरातनपंथी जो विकास नहीं चाहते और हर आधुनिक तरक्की के पीछे उसकी अच्छाईयाँ छोड़ कर उनकी कमियों को खोजते हैं और फ़िर उन कमियों को बढ़ा चढ़ा कर ढिँढ़ोरा पीटते हैं. पर जब वह समाचार व्यवसायिक अखबार में छपे जो हमेशा उदारवाद और उपभोक्तावाद की तरफ़दारी करता हो तो उसका क्या अर्थ निकाला जायेगा?

समाचार में बताया गया है कि 1950 के पास बने सनमेक्सिया बाँध के अनुभव से कुछ नहीं सीका गया. जब सनमेक्सिया बाँध बन रहा था तो कहते थे कि उससे देश कि एक तिहाई बिजली की माँग पूरी होगी, असलियत में उसका दसवाँ हिस्सा बिजली में नहीं दे पाया और पानी में बह कर आने वाले मिट्टी से धीरे धीरे बंद सा हो गया. हज़ारों लोग जिनके घर पानी में डूबे, जो धरती और वनस्पति पानी में डूबी, सब व्यर्थ और अब वे विस्थापित लोग धीरे धीरे मिट्टी से भरे बाँध की धरती पर वापस लौट रहे हैं जहाँ उनके घर थे.

समाचार का निष्कर्श है कि इस तरह के निर्णय जिनसे प्रकृति, लोगों पर इतना प्रभाव पड़ेगा, उन्हें लम्बा सोच कर लेना चाहिये न कि छोटे समय में क्या मिलेगा यह सोच कर. तो क्या यह जान कर नर्मदा पर बनने वाले सरदार सरोवर बाँध के बारे में कुछ दोबारा सोचा जा सकता है? उसका विरोध करने वालों को प्रगति का विरोधी मान कर चुप करा जायेगा?

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