अमलतास और टेसू की आग
आखिरकार बसंत आ ही गया. पिछले एक सप्ताह से सुबह चार बजे से ही बाहर के पेड़ों पर पक्षियों कि चहचहाहट शुरु हो जाती है. कई बार लगता है कव्वाली की प्रतियोगिता हो रही हो. पहले एक पक्षी तान बजाता है, फ़िर दूसरा उसके उत्तर में उसी तान को कुछ बदल कर, कुछ लम्बा कर कर उसका उत्तर देता है. तब पहले वाला दोबारा सा नया नमूना प्रस्तुत करता है. सो रहे हो तो यह सुबह उठने का अलार्म सुंदर तो है पर आवश्यकता से पहले बजने लगता है. सुबह जल्दी उठने की आदत है मुझे पर चार बजे तो मेरे लिए भी बहुत जल्दी है!
थोड़े ही दिन में आदत पड़ जायेगी, फ़िर सुबह सुबह चार बजे नींद नहीं खुलेगी, पर जब पाँच बजे हमेशा की तरह उठूँगा तो पक्षियों की चहचहाहट सुन कर मन प्रसन्न हो जाता है.
आज काम से छुट्टी है. सुबह आँख खुली तो भी बिस्तर पर लेटा रहा और किताब पढ़ता रहा. गुलज़ार की फ़िल्मों के बारे में साइबल चैटर्जी ने किताब लिखी है, ""गुलज़ार का जीवन और सिनेमा" (Echoes & Eloquences - life and cinema of Gulzaar), वही पढ़ रहा हूँ. गुलज़ार की फ़िल्में, उनकी कहानियाँ, उनकी कविताँए सब ही मुझे प्रिय हैं इसलिए उन फ़िल्मों के पीछे छुपी बातों को जानने की मन में बहुत उत्सुकता थी. आठ बजे उठना पड़ा क्योंकि आज घर पर होने से कुत्ते को सैर कराने की ज़िम्मेदारी मेरी ही थी.
बाहर निकले तो सब तरफ़ दूधिया धुँध थी, मानो पतीले से उबल कर बाहर बिखर गयी हो. गुलज़ार के बारे में पढ़ो तो साधारण जीवन की उपमाओं में बात करना अच्छा लगता है, इसमें उनके जैसा उस्ताद कोई अन्य नहीं.
बाग की ओर गये तो धुँध के साथ मखमली घास की हरियाली और फ़ूलों से भरे पेड़ देख कर लगा कि हाँ सचमुच बसंत आखिर आ ही गया. बाग में घुसते ही कुछ लम्बे और पँख जैसी आकृति वाले पेड़ हैं जिन्हें इतालवी भाषा में प्योप्पो कहते हैं. आम प्योप्पो की आकृति साधारण वृक्षों जैसी होती है जबकि हमारे बाग वाले पेड़ कुछ अजीब से हैं. जब उमस अधिक होती है तो यह पेड़ वातावरण से उमस को ले कर उसका पानी बना देते हें और पेड़ के नीचे खड़े हो तो पानी की बूँदें सी गिरती रहती हैं. जब गर्मी अधिक हो और उमस हो तो इस पेड़ के नीचे खड़ा होना सुखद लगता है. इसके फ़ूल कुछ शहतूत जैसे, कुछ कानखजूरे जैसे लग रहे थे, बाग की सारी सड़क को ढके हुए. (नीचे तस्वीर में प्योप्पो के पेड़)

बाग की हर सड़क पर अलग पेड़ लगे हैं, एक तरफ़ शहतूत, दूसरी ओर चेरी, एक ओर होर्स चेस्टनट यानि "घोड़े के अखरोट", पीछे नाशपाती और सेब. सभी पेड़ फ़ूलों से भरे हैं. अभी घास हरी है, वह फ़ूलों की चादर के नीचे नहीं छुपी है. पिछले साल इन्हीं दिनों में जब सारी घास फ़ूलों से छुप गयी थी, हम सब लोग एक रविवार को बाग में पिकनिक के लिए गये थे. इस बार भी, थोड़ी सी सर्दी कम हो तो पिकनिक का कार्यक्रम बने. (नीचे तस्वीर में पिछले साल की पिकनिक में बेटा और पुत्रवधु, और कुत्ता ब्राँदो)

देखा कि बाग में लगी एक बैंच को किसी ने तोड़ दिया है. रात को अक्सर नवजवान लड़के लड़कियाँ देर तक बैठे रहते हैं, हो सकता है कि उनमें से किसी ने अधिक पी ली हो या नशा किया हो, तो अपने करतब बेचारे बैंच को तोड़ कर दिखाये.
दूसरी ओर आदमी बच्चों के लिए नये झूले लगा रहे थे. यह गनीमत है कि शरारती लड़कों ने अभी तक बच्चों के झूलों से तोड़ फोड़ नहीं की है. तब सोच रहा था कि यहाँ हर झूले का अपना अलग नाम होता है, जब कि हिंदी में बस एक झूला ही होता है, चाहे वह झूलने वाला हो, या फ़िसलने वाला या गोल चक्कर लेने वाला या कोई और. शायद इसका कारण है कि भारत में पहले विभिन्न तरह के झूले नहीं होते थे और यह सब विदेशी प्रभाव से ही आये हैं?
सैर के बाद घर आने लगे तो अचानक मन में होली की बात आ गयी. इन दिनों में दिल्ली में बुद्ध जयंती वाली सड़क और बाग में अमलतास के पेड़ों पर पीले फ़ूलों और रिज से जाने वाली सड़क पर टेसू के फ़ूलों की लाल आग लगी होगी. दिन में गर्मी हो जाती होगी पर सुबह सुबह उस तरफ़ घूमने जाना कितना अच्छा लगता होगा. थोड़े दिनों में गुलमोहर के लाल फ़ूलों की बारी आती होगी! यह होली भी इसी तरह बीत जायेगी, बिना रँगो की, बिना मित्रों की. अचानक मन उदास हो गया.
थोड़े ही दिन में आदत पड़ जायेगी, फ़िर सुबह सुबह चार बजे नींद नहीं खुलेगी, पर जब पाँच बजे हमेशा की तरह उठूँगा तो पक्षियों की चहचहाहट सुन कर मन प्रसन्न हो जाता है.
आज काम से छुट्टी है. सुबह आँख खुली तो भी बिस्तर पर लेटा रहा और किताब पढ़ता रहा. गुलज़ार की फ़िल्मों के बारे में साइबल चैटर्जी ने किताब लिखी है, ""गुलज़ार का जीवन और सिनेमा" (Echoes & Eloquences - life and cinema of Gulzaar), वही पढ़ रहा हूँ. गुलज़ार की फ़िल्में, उनकी कहानियाँ, उनकी कविताँए सब ही मुझे प्रिय हैं इसलिए उन फ़िल्मों के पीछे छुपी बातों को जानने की मन में बहुत उत्सुकता थी. आठ बजे उठना पड़ा क्योंकि आज घर पर होने से कुत्ते को सैर कराने की ज़िम्मेदारी मेरी ही थी.
बाहर निकले तो सब तरफ़ दूधिया धुँध थी, मानो पतीले से उबल कर बाहर बिखर गयी हो. गुलज़ार के बारे में पढ़ो तो साधारण जीवन की उपमाओं में बात करना अच्छा लगता है, इसमें उनके जैसा उस्ताद कोई अन्य नहीं.
बाग की ओर गये तो धुँध के साथ मखमली घास की हरियाली और फ़ूलों से भरे पेड़ देख कर लगा कि हाँ सचमुच बसंत आखिर आ ही गया. बाग में घुसते ही कुछ लम्बे और पँख जैसी आकृति वाले पेड़ हैं जिन्हें इतालवी भाषा में प्योप्पो कहते हैं. आम प्योप्पो की आकृति साधारण वृक्षों जैसी होती है जबकि हमारे बाग वाले पेड़ कुछ अजीब से हैं. जब उमस अधिक होती है तो यह पेड़ वातावरण से उमस को ले कर उसका पानी बना देते हें और पेड़ के नीचे खड़े हो तो पानी की बूँदें सी गिरती रहती हैं. जब गर्मी अधिक हो और उमस हो तो इस पेड़ के नीचे खड़ा होना सुखद लगता है. इसके फ़ूल कुछ शहतूत जैसे, कुछ कानखजूरे जैसे लग रहे थे, बाग की सारी सड़क को ढके हुए. (नीचे तस्वीर में प्योप्पो के पेड़)
बाग की हर सड़क पर अलग पेड़ लगे हैं, एक तरफ़ शहतूत, दूसरी ओर चेरी, एक ओर होर्स चेस्टनट यानि "घोड़े के अखरोट", पीछे नाशपाती और सेब. सभी पेड़ फ़ूलों से भरे हैं. अभी घास हरी है, वह फ़ूलों की चादर के नीचे नहीं छुपी है. पिछले साल इन्हीं दिनों में जब सारी घास फ़ूलों से छुप गयी थी, हम सब लोग एक रविवार को बाग में पिकनिक के लिए गये थे. इस बार भी, थोड़ी सी सर्दी कम हो तो पिकनिक का कार्यक्रम बने. (नीचे तस्वीर में पिछले साल की पिकनिक में बेटा और पुत्रवधु, और कुत्ता ब्राँदो)
देखा कि बाग में लगी एक बैंच को किसी ने तोड़ दिया है. रात को अक्सर नवजवान लड़के लड़कियाँ देर तक बैठे रहते हैं, हो सकता है कि उनमें से किसी ने अधिक पी ली हो या नशा किया हो, तो अपने करतब बेचारे बैंच को तोड़ कर दिखाये.
दूसरी ओर आदमी बच्चों के लिए नये झूले लगा रहे थे. यह गनीमत है कि शरारती लड़कों ने अभी तक बच्चों के झूलों से तोड़ फोड़ नहीं की है. तब सोच रहा था कि यहाँ हर झूले का अपना अलग नाम होता है, जब कि हिंदी में बस एक झूला ही होता है, चाहे वह झूलने वाला हो, या फ़िसलने वाला या गोल चक्कर लेने वाला या कोई और. शायद इसका कारण है कि भारत में पहले विभिन्न तरह के झूले नहीं होते थे और यह सब विदेशी प्रभाव से ही आये हैं?
सैर के बाद घर आने लगे तो अचानक मन में होली की बात आ गयी. इन दिनों में दिल्ली में बुद्ध जयंती वाली सड़क और बाग में अमलतास के पेड़ों पर पीले फ़ूलों और रिज से जाने वाली सड़क पर टेसू के फ़ूलों की लाल आग लगी होगी. दिन में गर्मी हो जाती होगी पर सुबह सुबह उस तरफ़ घूमने जाना कितना अच्छा लगता होगा. थोड़े दिनों में गुलमोहर के लाल फ़ूलों की बारी आती होगी! यह होली भी इसी तरह बीत जायेगी, बिना रँगो की, बिना मित्रों की. अचानक मन उदास हो गया.
बड़ी मीठी, गमगीन कर देनेवाली उदासी है यह। लगता है यह होली भी इसी तरह बीत जाएगी बिना रंगों की, बिना मित्रों की।
जवाब देंहटाएंआप तो परदेश में रहकर ऐसा महसूस कर रहे हैं। हम तो देश में रहते हुए भी होली की तलाश में जुटे हैं। वह अपने गहरे मानवीय रंग में न तो गांवों में मिलती है, और न ही शहरों में। सारे त्योहार नव-धनाढ्य तबकों ने हाईजैक कर लिये हैं।
सुनीलजी,गुलजार तो हमें भी प्रिय हैं उनकी आवाज भी बड़ी दमदार है, रहा सवाल बसंत का तो वो यहाँ १ हफ्ते बाद आने वाला है। आपको होली की अग्रिम शुभकामनायें।
जवाब देंहटाएंpehli bar aayi hun apke duniya mein (blog)bahut achha laga padhna,holi ki mubara baat.
जवाब देंहटाएंपिकनिक की तस्वीर पुरानी तो देख चुके, नई वाली की प्रतिक्षा है.
जवाब देंहटाएंसरस विवरण.