सोमवार, जुलाई 28, 2008

संस्कृति पर विदेशी प्रभाव

जब भी भारतीय संस्कृति की बात होती है तो संस्कृति को कैसे उसके मूल रूप में बना कर और बचा कर रखा जाये, इसकी बात भी अवश्य होती है. इस बहस के आधार में एक सोच छुपी होती है कि मूल भारतीय संस्कृति वेदों और आर्यों की संस्कृति है, जो पाँच हज़ार वर्षों से भी पुरानी धरोहर है जिसे हमें सहेज कर रखना है. इसी मूल विचार को मान कर अक्सर भारतीय संस्कृति की रक्षा की बात करने वाले रुष्ठ हो जाते हैं जब कोई आर्यों के विदेश में मध्य एशिया से भारत में आने की बात करता है, क्योंकि उन्हें लगता है कि आर्यों का विदेश से आना मान लेने से यह हमारी संस्कृति भी विदेशी बन जाती है, उसकी भारतीयता में खोट सा आ जाता है.

मैं सोचता हूँ कि इस सारी बहस के मूल में दो गलतियाँ हैं.

पहली गलती: द्विवाद या बहुवाद ?

पश्चिमी विचार पद्धति के "द्विवाद" के तर्क को सोचने का एकमात्र तरीका मान कर हम लोग अपने "बहुवाद में एकता" के तर्क से सोचने के तरीके भुला देते हैं. पश्चिमी सोच द्विवाद (dichotomy) के तर्क पर बनी है, यानि एक वस्तु एक समय में एक ही हो सकती है, दो या अधिक नहीं. यह सोच का वैज्ञानिक तरीका है, सारा आधुनिक विज्ञान और तकनीकी इस सोच पर ही बना है. जीव जंतुओं और प्राणियों को विभिन्न श्रेणियों में बाँटने से ले कर, भौतिकी में अणु को बनाने वाले कणों की खोज तक सब इसी वैज्ञानिक द्विवाद के तर्क पर ही टिका है. यही तर्क पश्चिमी विचार पद्धति जो विज्ञान पर लगाती है, उसी तरह गैरभौतिक जगत यानि समाज, धर्म, संस्कृति पर भी लागू करती है, जैसे एकइश्वरवाद या बहुदेवपूजा के आधार पर धर्मों को विभिन्न गुटों में बाँटना, स्त्रियों पुरुषों को विषमलैंगिक, समलैंगिक जैसे हिस्सों में बाँटना, संस्कृतियों को देशी विदेशी गुटों में बाँटना, इत्यादि.

मैं द्विवाद (dichotomous thinking) के महत्व को कम या छोटा नहीं दिखाना चाहता, यह सचमुच मानव विकास के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है. पर एक अन्य तरीका भी है सोचने का जिसमें एक वस्तु एक साथ विभिन्न वस्तूओं का रूप ले सकती है, जो द्विवाद के तर्क से देखो तो समझ नहीं आते पर "बहुवाद में एकता" के तर्क से देखों तो समझ आ जाते हैं. इस तर्क में बहुत से भगवान, देवी देवता मान कर भी हम समझते हैं कि उन सबके पीछे ईश्वर एक ही है. मेरे विचार में विज्ञान के नये विकास इसी बहुवाद में एकता की सोच से ही आयेंगे, जैसे कि क्वाँटम भौतिकी (Quantum physics) या काओस थ्योरी (chaos theory) जैसी धारणाएँ. इस सोच में आपस में विराधाभास होने वाली बातों में समन्जस्व और एकता बनायी जाती है.

कुछ दिन पहले मैंने इस विषय पर अमरीकी लेखिका रेबेक्का सोलिंट (Rebecca Solint) का एक लेख पढ़ा था जिसमें उन्होंने बर्मा में बुद्ध भिक्षुकों द्वारा बर्मा के मिलेटरी शासन के विरुद्ध किये जाने वाले संघर्ष के बारे में लिखा था. उनका कहना है कि यूरोपीय सोच "कर्म जीवन" और "आध्यात्मिक जीवन" को दो अलग श्रेणियों में बाँट कर देखती है और इसी बँटवारे की सोच की वजह से नहीं समझ पाती कि ध्यान और पूजा करने वाले बुद्ध भिक्षुक क्यों शासन के विरुद्ध सड़कों पर उतर आये?

ऐसा नहीं कि भारतीय सोच में केवल बहुवाद है और द्विवाद बिल्कुल नहीं, या कि अँग्रेजों से पहले भारत में धर्मों के लिए लड़ाईयाँ नहीं होती थीं. पर मेरे विचार में भारतीय या फ़िर पूर्वी सोच में बहुवाद सोचने के तरीके का महत्वपूर्ण स्थान था जिससे विभिन्न गुटों को साथ रहने पनपने का मौका मिलता था, जिसे हम बहुत कुछ भूल रहे हैं. धार्मिक कट्टरवाद की जड़ें भी द्विवाद सोच में गहरी दबी हैं और भारतीय बहुवाद की सोच इस लड़ाई से बाहर निकलने की राह दिखा सकती है.

दूसरी गलतीः शास्वत, बदलावहीन संस्कृति

दूसरी गलती है यह सोचना कि संस्कृति कोई स्थायी वस्तु है, जैसी थी वैसी ही रहेगी, बदलेगी नहीं. संस्कृति तो समय के साथ साथ बदलती रहती है, उसमें नयी सोच जुड़ती रही है और रहती है. आज के भारत में स्त्री शरीर को ढकने का, घूँघट या परदा करने की सोच प्राचीन भारत की संस्कृति की सोच नहीं थी यह भारत में अँग्रेजी और मुसलमान प्रभाव से पहले की चित्रकला, वास्तुकला, ग्रंथ स्पष्ट दिखाते हैं. यह सोच पिछले पाँच सौ सालों में भारतीय संस्कृति का हिस्सा बनी है.

भारतीय इतिहास, सभ्यता, संस्कृति, समाज शास्त्र, पुरातत्व जैसे सभी क्षेत्रों में हमारी अधिकतर जानकारी विदेशी विद्वानों के शौधों पर टिकी है. विदेशी होने से ही वह सब गलत नहीं हो जाते बल्कि उनका इस बारे में योगदान अमूल्य है, इसलिए भी कि अक्सर नये और बढ़िया के चक्कर में हम लोग अपने पुराने ज्ञान को संभाल को नहीं रख पाते.

पर साथ ही, अपने अतीत को भारतीय, पू्र्वी और गैरपश्चिमी सोच से जाँचने, परखने का भी हमारा कर्तव्य है, क्योंकि यह कोई अन्य नहीं कर सकता. आर्य मध्य एशिया से आये थे या नहीं आये थे, आर्य संस्कृति और द्रविड़ संस्कृति में क्या सम्बंध थे, और इन सब से विभिन्न अन्य अनेक विषयों और बातों पर बहस और शौध, राष्ट्रवाद और धर्मवाद के कैदखानों में बंद हो कर नहीं, स्वतंत्र निर्भीक हो कर की जानी चाहिये.

note: यह पोस्ट मेरे एक लेख का हिस्सा है, अगर पूरा लेख पढ़ना चाहें तो उसे कल्पना पर पढ़ सकते हैं.

गुरुवार, जुलाई 10, 2008

किताब के बाहर

पाकिस्तानी फ़िल्म निर्देशक शोहेब मंसूर की फ़िल्म "खुदा के लिए" देखी और अच्छी लगी.

फ़िल्म कहानी है तीन प्रमुख पात्रों की - मंसूर (शान), सरमद (फ्वद खान) और मरियम (इमान अली) की. मंसूर और सरमद दो भाई संगीत प्रेमी है जो लाहौर में रहते हैं. उनकी चचेरी बहन मरियम लंदन में रहती है.



सरमद एक मौलाना के सम्बंध में आते हैं और उनकी बातों से प्रभावित हो कर सोचने लगते हैं कि संगीत इस्लाम के विरुद्ध है तो संगीत छोड़ देते हैं, दाड़ी बढ़ा लेते हैं, पैंट कमीज छोड़ कर पाकिस्तानी वस्त्र पहनने लगते हैं, माँ से कहते हैं कि तुम परदा करो, आदि.

मरियम लंदन में एक ईसाई युवक से विवाह करना चाहती है पर उनके पिता के अनुसार मुसलमान युवती धर्म से बाहर विवाह नहीं कर सकती, तो वह उसे धोखे से पाकिस्तान लाते हैं और वहाँ जबरदस्ती उसका विवाह चचरे भाई सरमद से करा देते हैं, जो पत्नी को ले कर अफगानिस्तान के एक गाँव में रहते हैं ताकि मरियम भाग न सके.

मंसूर को अपने छोटे भाई सरमद का इस तरह रूढ़िवादी बन जाना समझ नहीं आता, वह उसके विचार बदलने की कोशिश करता है पर कुछ नहीं बदल पाता. उसे अमरीका में संगीत सीखने की छात्रवृति मिलती है, जहाँ उसकी मुलाकात अमरीकी संगीतकार जेनी से होती है जिनसे वह विवाह कर लेता है. फ़िर ग्यारह सितंबर 2001 को अमरीका में हुए बम विस्फोट से स्थिति बदल जाती है और मंसूर को आतंकवादी समझ कर कैद कर लिया जाता है और यातना दी जाती है.



अंत में मरियम अफगानिस्तान से निकलने में सफल होती है, सरमद समझ जाते हैं कि मौलाना द्वारा इस्लाम की बातें ठीक नहीं और अमरीकी कैद से छूटे, टूटे और हारे मंसूर वापस पाकिस्तान आ जाते हैं.

फ़िल्म एक तरफ़ दिखाती है कि रूढ़िवादी लोग किस तरह मुसलमान नवयुवकों को प्रभावित कर सकते हैं, दूसरी और आधुनिक सोच वाले मुसलमानों की कठिनाई भी दिखाती है कि पश्चिमी देशों में केवल मुसलमान होने की वजह से वे आतंकवादी के रूप में देखे जाते हैं. फ़िल्म का संगीत बढ़िया है, सब पात्रों का अभिनय भी अच्छा है.

पर साथ ही इस फ़िल्म की एक बात कुछ अजीब लगी कि उसकी हर बहस इसी बात पर थी कि कोई बात इस्लाम में कुरान शरीफ के अनुसार ठीक मानी जाती है या नहीं.

अंत में फ़िल्म दिखाती है कि कुरान शरीफ़ के अनुसार औरत का जबरदस्ती विवाह गलत बात है, इस्लाम संगीत के विरुद्ध नहीं, इत्यादि. कहीं यह बात नहीं होती कि मानवता के हिसाब से कोई बात ठीक है या नहीं? तो लगा कि अगर कुरान शरीफ़ में कोई इस तरह की बात हो जो मानवता कि दृष्टि से ठीक न हो तो क्या उसे सही माना जायेगा? जैसे कि मुसलमान युवती द्वारा धर्म से बाहर विवाह करने की बात है. फ़िल्म में यह कहा जाता है कि मिरयम मुसलमान थी ही नहीं, वह तो ईसाई समाज में ईसाई माँ के साथ, ईसाई ही बड़ी हुईं थीं, पर इस बात का उत्तर नहीं दिया जाता कि इस्लाम में क्या सिर्फ पुरुष को अधिकार है कि वह धर्म के बाहर विवाह करे?

मैं सोचता हूँ कि आज मानव अधिकार की दृष्टि से बात देखना आवश्यक है और अगर कोई धर्म मानव अधिकार की दृष्टि से किसी विषय में ठीक बात नहीं कहते तो उसमें धर्म सुधार की बात होनी चाहिये. हर धर्म में कट्टरपंथी और रुढ़िवादी हो सकते हैं जो धर्मग्रंथ में लिखे को पत्थर की लकीर माने पर हर धर्म में सुधारवादी भी होते हैं. लेकिन लगता है कि आज के वातावरण में आधुनिक दृष्टि वाले मुसलमानों के लिए अपनी बात कहना पहले के मुकाबले कठिन हो गया है.

ऐसे ही आधुनिक और निर्भीक मस्लिम विचारवादी है मिस्र के लोकप्रिय लेखक अला अल अस्वानी (Ala Al Aswany) अस्वानी जी मिस्र की राजधानी कैरो में दाँतों के डाक्टर हैं और लेखकी उनका शौक है. उनकी किताब "याकूबी भवन" को अरबी साहित्य की सबसे अधिक बिकने वाली किताब माना जाता है. वह दू टूक बात करने के लिए प्रसिद्ध हैं. कुछ दिन पहले अमरीकी अखबार न्यू योर्क टाईमस मेगज़ीन में पंकज मिश्रा द्वारा लिया उनका एक साक्षात्कार पढ़ा था.

अस्वानी कहते हैं कि मिस्र तथा अन्य प्राचीन सभ्याताओं जैसे बगदाद और दमास्कस में जन्मा इस्लाम सहनशीलता और विभिन्न विचारों को मानने वाला धर्म था, जबकि साऊदी अरब के रेगिस्तान में जन्मा इस्लाम इससे भिन्न था, उसमें कला के लिए भी समय नहीं था. दिक्कत यह है कि आज वही रेगिस्तानी कट्टर इस्लाम को ही असली इस्लाम माना जा रहा है. अस्वानी ने सलमान रश्दी के विरुद्ध दिये फतवे का भी खुला विरोध किया था. वह कहते है कि रश्दी ने कुछ भी लिखा हो, इस्लाम किसी को मारने का अधिकार नहीं देता. मेरे विचार में आज इस्लाम को और दुनिया को, अस्वानी जेसे लोगों की बहुत आवश्यकता है.

सोमवार, जुलाई 07, 2008

मेरी गलती

कुछ दिन पहले की मेरी एक पोस्ट पर राज भाटिया जी ने टिप्पणी दीः
"मुझे तरस आता हे आप की सोच पर,बस ज्यादा कुछ नही लिखुगां"

उसके थोड़ी देर बार बाद किसी ने बनाम हो कर राज भाटिया के बारे में यह टिप्पणी दीः
"राज भाटिया जी आप अपने बूढे माता-पिता को रोहतक मे छोडकर विदेश मे मजे कर रहे है। पिताजी के देहाण्त मे भारत आते है तो भारत और इसकी समस्याए आपको नागवार गुजरती है। अकेली माँ को छोडकर फिर विदेश चले जाते हो। ऐसे उच्च संस्कार वाले तथाकथित भारतीय को तो निश्चित ही दीपक जी के लिखे पर तरस आना चाहिये। जिस देश तुन्हे पोसा और जिस माँ ने तुम्हे जन्म दिया उसी की निन्दा अपने ब्लाग पर करते हो, तब तरस नही आता लिखे पर---"

वैचारिक रूप से राज जी की टिप्पणी में कुछ दम नहीं था, किसी की बात का विरोध करना हो तो यह भी लिखा जा सकता है कि मैं आप की बात से सहमत नहीं या फ़िर असहमती की दलीलें भी दीं जा सकती हैं. पर फ़िर भी उनकी टिप्पणी से बहुत साल पहले के दोस्तों से होने वाली बहसें याद आ गयीं, जब आपस में अक्सर इस तरह की बात किया करते थे कि "मुझे तुम्हारी सोच पर तरस आता है, इत्यादि". अक्सर इस तरह की बात कहने पर बहस गरम हो जाती थी.

साथ ही मैं मानता हूँ कि हर किसी को अपनी बात कहने का पूरा हक है, शर्त केवल इतनी है कि व्यक्तिगत बातें न की जायें और मार पीट या हिंसा की बात न हो.

पर बेनाम टिप्पणी मुझे बुरी लगी. जिसने भी लिखा था उसे राज जी की टिप्पणी अच्छी नहीं लगी होगी और उसने इस तरह मेरी रक्षा करने की सोची. यह भी लगा कि मेरी बूढ़ी माँ भी तो दिल्ली में मेरी बहन के पास रहती है और इस तरह का आरोप मुझ पर उतना ही लगाया जा सकता है. यह भी बुरा लगा कि बहस किसी के व्यक्तिगत जीवन के बारे में थी और इस तरह के बहस करने के तरीके से मैं बिल्कुल सहमत नहीं.

पर यह सोच कर भी मैंने लापरवाही की. इस बात पर कुछ नहीं कहा या लिखा. आज राज जी की दूसरी टिप्पणी देखी तो मुझे अपनी गलती का अहसास हुआः
"दीपक जी मुझे ऎसी टिपण्णी नही देनी चाहिये थी , यह आप का बलाग हे आप चाहे जो लिखे, मे आप से माफ़ी चाहता हु, बस पता नही क्यो मुझे कुछ अच्छा नही लगा ओर यह वेब्कुफ़ी कर बेठा,आशा करता हु आप जरुर मेरी गलती को नजर अंदाज करेगे,धन्यवाद"

अब समझ में आया कि मुझे उस बेनाम टिप्पणी से अपनी असहमती तुरंत लिखनी चाहिये थी, और यह क्षमा राज जी को नहीं, मुझे माँगनी चाहिये थी, क्योंकि मेरे चिट्ठे पर उन पर यह व्यक्तिगत हमला हुआ था.

भविष्य में दोबारा ऐसा न हो इसके लिए सोचा है कि टिप्पणियों का moderation जारी करने से गलत टिप्पिणियों को रोका जा सकता है और आगे से ऐसा ही होगा.

रविवार, जुलाई 06, 2008

सीमाहीन आसमान का देश

कुछ दिन पहले की मेरी मँगोलिया यात्रा की डायरी के कुछ अंश प्रस्तुत हैं.

पहाड़ों के बीच में घाटी में बसा सगसाई शहर बहुत सुंदर है. दो नदियाँ बहती हैं टगरन और सगसाई. टगरन में बाढ़ सी आ रही थी और पानी का बहाव बहुत तेज था. एक जगह जीप नदी पार करने के लिए पानी में उतरी तो लगा कि बह ही न जाये. वहाँ रहने वाले अधिकतर लोग कजाक जाति के हैं यानि मुसलमान जबकि मँगोलिया में अधिकतर लोग बुद्ध धर्म के हें और बायान उल्गीई अकेला राज्य है जहाँ अधिक मुसलमान हैं, उनकी भाषा भी भिन्न है. हरि नाम है यहाँ विकलांग कार्यक्रम के अधिकारी का, नाम हिंदु लग सकता है पर धर्म है मुसलमान. बहुत हँसमुख है. कहने लगा कि यहाँ के मुसलमान बातचीत कपड़ों, आदतों में अन्य मँगोलिया वासियों जैसे ही हैं. लड़कियाँ और औरतें पर्दा नहीं करती, पैंट स्कर्ट आदि ही पहनती हैं. लोग वोदका भी बहुत पीते हैं, हाँ सुअर का माँस नहीं खाते. पर वह बता रहा था कि यहाँ के युवकों को साऊदी अरब, तुर्की और पाकिस्तान जैसे देशों से छात्रवृति का लालच दे कर बुला लेते हैं और यह युवक वापस आ कर पुराने ढंग से, इस्लाम का पालन करते हुए रहने की बात करते हें पर इसका अब तक कुछ विषेश असर नहीं पड़ा है.






***
कल रात को ओम्नोगोबी जिले के शहर में पहुँचे. पता चला कि शहर के अकेला होटल में जगह नहीं क्योकि वहाँ राष्ट्रीय चुनाव में खड़े होने वाले क्राँतीकारी दल के उम्मीदवार और उनके साथी ठहरे हैं. चुनाव जून के अंत में होने वाले हैं. आखिर जगह मिली जिला अस्पताल में, जहाँ रात की ड्यूटी करने वाले डाक्टर साहब ने अपना कमरा मुझे दिया और बाकी के साथियों को वार्ड में जगह मिली. यह तो अच्छा हुआ कि अस्पताल में कुछ बिस्तर खाली थे वरना किसी को कार में या बाहर तम्बु लगा कर सोना पड़ता. कल शाम से ही इतनी तेज हवा चल रही है कि बाहर निकलना कठिन है. सारे जानवर, गाय, याक, भेड़ें, आदि झुंड बना कर हवा से लड़ने बैठे हैं, दूर दूर तक सब खुला जो है और छुपने के लिए कोई जगह नहीं.

अस्पताल का कमरा है तो अच्छा पर यहां पानी का नल नहीं और पाखाना अस्पताल के बाहर दूर बना है. बाल्टी में से कड़छी से पानी ले कर मुंह हाथ धोये तो बचपन के दिन याद आ गये. जब से मंगोलिया आया था कब्ज लगी थी पर आज सुबह सुबह पाखाना जाने की जरुरत महसूस हुई. सूरज की रोशनी तो सुबह चार बजे ही शुरु हो जाती है. बाहर वार्ड में निकला तो सब लोग सो रहे थे बस रात की ड्यूटी वाली नर्स जागी हुई थी, चाय पी रही थी. अस्पताल के बाहर निकला तो लगा कि हवा उड़ा कर ले जायेगी. पाखाना घर भी लकड़ी के बने हैं जिनमें बड़े बड़े छेद हैं और उसका दरवाजा भी बंद नहीं हो रहा था, अंदर हर तरफ से तेज हवा घुस रही थी. जब काम करके वापस अस्पताल में आया तो लगा मानो एवरेस्ट की चढ़ाई से लौटा हूँ.





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दोपहर में वापस उलानगोम पहुँचे तो मालूम हुआ कि भारत से दलाईलामा द्वारा भेजा विषेश प्रतिनिधी लामा आ रहे हैं जो प्रार्थना सभा करेंगे. हालाँकि बारिश आ रही थी और सर्दी लग रही थी फ़िर भी सब वहाँ जाना चाहते थे, क्योंकि मँगोलिया में तिब्बती बुद्ध धर्म को माना जाता है और दलाई लामा जी यहाँ के लिए सबसे बड़े धार्मिक गुरु माने जाते हैं. बुद्ध धर्म मँगोलिया में केवल सोलहवीं सदी में आया पर अब यहाँ की अधिकाँश जनता बुद्ध धर्म में विश्वास करती है हालाँकि साथ साथ प्राकृति पूजा में भी विश्वास करती है. बुद्ध प्रार्थना सभा का आयोजन एक स्टेडियम में किया गया था. बारिश में हरी घास पर बुद्ध लामाओं की लाल पौशाकें बहुत सुंदर लग रही थीं. प्रार्थना के बाद हमें भी दलाई लामा जी के द्वारा भेजा प्रसाद मिला, जो मैंने कुछ इटली में घर ले जाने के लिए संभाल कर रख लिया.






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मँगोली पुरुष देख कर मन में कई बार "मार्लबोरो मैन" मन में आता है. सिर पर हैट पहने, घोड़े पर बैठे, होठों से लटकती सिगरेट, लगता है कि किसी अमरीकी वेस्टर्न फिल्म से निकल कर आये हों. पर जब नशे में चूर मिलते हैं तो ज़रा सा डर भी लगता है. जितनी बार भी विकलांग लोगों से मुलाकात होती है हर बार कोई न कोई तो पुरुष अवश्य मिलता है जिसके हाथ या उँगलियाँ कटी हुई हों, जो सर्दी में जम जाने की वजह से होता है. हर बार वह लोग कहानी सुनाते हैं कि घोड़े से गिर गया, या फ़िर एक्सीडेंट हो गया या कि डाकू ने हमला कर दिया, पर मुझे लगता है कि वह लोग झूठ कह रहे हैं, अधिक पीने की वजह से रात को कहीं बाहर गिरे पड़े रहे होंगे जब सर्दी से हाथ जम गये और काटने पड़े होंगे!





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कुछ दिन पहले की मेरी मँगोलिया यात्रा की डायरी को पूरा पढ़ना चाहें तो कल्पना पर पढ़ सकते हैं.

हमारी भाषा कैसे बनी

कुछ दिन पहले मैंने जाने-माने डॉक्यूमैंट्री फ़िल्म निर्देशक अरुण चढ़्ढ़ा की १८५७ के लोक-गीतों पर बनी फ़िल्म के बारे में लिखा था। आज उन्हीं की ए...

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