जब भी भारतीय संस्कृति की बात होती है तो संस्कृति को कैसे उसके मूल रूप में बना कर और बचा कर रखा जाये, इसकी बात भी अवश्य होती है. इस बहस के आधार में एक सोच छुपी होती है कि मूल भारतीय संस्कृति वेदों और आर्यों की संस्कृति है, जो पाँच हज़ार वर्षों से भी पुरानी धरोहर है जिसे हमें सहेज कर रखना है. इसी मूल विचार को मान कर अक्सर भारतीय संस्कृति की रक्षा की बात करने वाले रुष्ठ हो जाते हैं जब कोई आर्यों के विदेश में मध्य एशिया से भारत में आने की बात करता है, क्योंकि उन्हें लगता है कि आर्यों का विदेश से आना मान लेने से यह हमारी संस्कृति भी विदेशी बन जाती है, उसकी भारतीयता में खोट सा आ जाता है.
मैं सोचता हूँ कि इस सारी बहस के मूल में दो गलतियाँ हैं.
पहली गलती: द्विवाद या बहुवाद ?
पश्चिमी विचार पद्धति के "द्विवाद" के तर्क को सोचने का एकमात्र तरीका मान कर हम लोग अपने "बहुवाद में एकता" के तर्क से सोचने के तरीके भुला देते हैं. पश्चिमी सोच द्विवाद (dichotomy) के तर्क पर बनी है, यानि एक वस्तु एक समय में एक ही हो सकती है, दो या अधिक नहीं. यह सोच का वैज्ञानिक तरीका है, सारा आधुनिक विज्ञान और तकनीकी इस सोच पर ही बना है. जीव जंतुओं और प्राणियों को विभिन्न श्रेणियों में बाँटने से ले कर, भौतिकी में अणु को बनाने वाले कणों की खोज तक सब इसी वैज्ञानिक द्विवाद के तर्क पर ही टिका है. यही तर्क पश्चिमी विचार पद्धति जो विज्ञान पर लगाती है, उसी तरह गैरभौतिक जगत यानि समाज, धर्म, संस्कृति पर भी लागू करती है, जैसे एकइश्वरवाद या बहुदेवपूजा के आधार पर धर्मों को विभिन्न गुटों में बाँटना, स्त्रियों पुरुषों को विषमलैंगिक, समलैंगिक जैसे हिस्सों में बाँटना, संस्कृतियों को देशी विदेशी गुटों में बाँटना, इत्यादि.
मैं द्विवाद (dichotomous thinking) के महत्व को कम या छोटा नहीं दिखाना चाहता, यह सचमुच मानव विकास के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है. पर एक अन्य तरीका भी है सोचने का जिसमें एक वस्तु एक साथ विभिन्न वस्तूओं का रूप ले सकती है, जो द्विवाद के तर्क से देखो तो समझ नहीं आते पर "बहुवाद में एकता" के तर्क से देखों तो समझ आ जाते हैं. इस तर्क में बहुत से भगवान, देवी देवता मान कर भी हम समझते हैं कि उन सबके पीछे ईश्वर एक ही है. मेरे विचार में विज्ञान के नये विकास इसी बहुवाद में एकता की सोच से ही आयेंगे, जैसे कि क्वाँटम भौतिकी (Quantum physics) या काओस थ्योरी (chaos theory) जैसी धारणाएँ. इस सोच में आपस में विराधाभास होने वाली बातों में समन्जस्व और एकता बनायी जाती है.
कुछ दिन पहले मैंने इस विषय पर अमरीकी लेखिका रेबेक्का सोलिंट (Rebecca Solint) का एक लेख पढ़ा था जिसमें उन्होंने बर्मा में बुद्ध भिक्षुकों द्वारा बर्मा के मिलेटरी शासन के विरुद्ध किये जाने वाले संघर्ष के बारे में लिखा था. उनका कहना है कि यूरोपीय सोच "कर्म जीवन" और "आध्यात्मिक जीवन" को दो अलग श्रेणियों में बाँट कर देखती है और इसी बँटवारे की सोच की वजह से नहीं समझ पाती कि ध्यान और पूजा करने वाले बुद्ध भिक्षुक क्यों शासन के विरुद्ध सड़कों पर उतर आये?
ऐसा नहीं कि भारतीय सोच में केवल बहुवाद है और द्विवाद बिल्कुल नहीं, या कि अँग्रेजों से पहले भारत में धर्मों के लिए लड़ाईयाँ नहीं होती थीं. पर मेरे विचार में भारतीय या फ़िर पूर्वी सोच में बहुवाद सोचने के तरीके का महत्वपूर्ण स्थान था जिससे विभिन्न गुटों को साथ रहने पनपने का मौका मिलता था, जिसे हम बहुत कुछ भूल रहे हैं. धार्मिक कट्टरवाद की जड़ें भी द्विवाद सोच में गहरी दबी हैं और भारतीय बहुवाद की सोच इस लड़ाई से बाहर निकलने की राह दिखा सकती है.
दूसरी गलतीः शास्वत, बदलावहीन संस्कृति
दूसरी गलती है यह सोचना कि संस्कृति कोई स्थायी वस्तु है, जैसी थी वैसी ही रहेगी, बदलेगी नहीं. संस्कृति तो समय के साथ साथ बदलती रहती है, उसमें नयी सोच जुड़ती रही है और रहती है. आज के भारत में स्त्री शरीर को ढकने का, घूँघट या परदा करने की सोच प्राचीन भारत की संस्कृति की सोच नहीं थी यह भारत में अँग्रेजी और मुसलमान प्रभाव से पहले की चित्रकला, वास्तुकला, ग्रंथ स्पष्ट दिखाते हैं. यह सोच पिछले पाँच सौ सालों में भारतीय संस्कृति का हिस्सा बनी है.
भारतीय इतिहास, सभ्यता, संस्कृति, समाज शास्त्र, पुरातत्व जैसे सभी क्षेत्रों में हमारी अधिकतर जानकारी विदेशी विद्वानों के शौधों पर टिकी है. विदेशी होने से ही वह सब गलत नहीं हो जाते बल्कि उनका इस बारे में योगदान अमूल्य है, इसलिए भी कि अक्सर नये और बढ़िया के चक्कर में हम लोग अपने पुराने ज्ञान को संभाल को नहीं रख पाते.
पर साथ ही, अपने अतीत को भारतीय, पू्र्वी और गैरपश्चिमी सोच से जाँचने, परखने का भी हमारा कर्तव्य है, क्योंकि यह कोई अन्य नहीं कर सकता. आर्य मध्य एशिया से आये थे या नहीं आये थे, आर्य संस्कृति और द्रविड़ संस्कृति में क्या सम्बंध थे, और इन सब से विभिन्न अन्य अनेक विषयों और बातों पर बहस और शौध, राष्ट्रवाद और धर्मवाद के कैदखानों में बंद हो कर नहीं, स्वतंत्र निर्भीक हो कर की जानी चाहिये.
note: यह पोस्ट मेरे एक लेख का हिस्सा है, अगर पूरा लेख पढ़ना चाहें तो उसे कल्पना पर पढ़ सकते हैं.
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सुनील जी बहुत अच्छे तरीके से विश्लेषण किया है आपने। मैं खुद भी भारत से बाहर रह रहा हूं और मैंने देखा है कि पश्चिमी देशों में लोग अक्सर द्विवादी भ्रांतियां लिये होते हैं। हर चीज़ को काले या सफ़ेद में रंगकर देखना चाहते हैं। पता नहीं इसमें किसका दोष है, लेकिन यह approach हर जगह सही नहीं सिद्ध हो सकती।
जवाब देंहटाएंदूसरी ओर, आज भारत को ये जानने की ज़रूरत नहीं कि आर्य कहां से आये थे - बल्कि ये जानने की ज़रूरत है कि भारत कहां जा रहा है।
बहुत ही रोचक शैली में लिखा गया विश्लेषणात्मक विवेचन।
जवाब देंहटाएंमेरे एक आर.एस.एस से जुड़े हुए मित्र हैं....उनका भी यही मानना है कि आर्य विदेश से नहीं आये थे...यहां तक कि उनका यह भी मानना है कि वे शुद्ध आर्य हैं और हमेशा से उनके पुरखे इसी भूमि के निवासी रहे हैं.
जवाब देंहटाएंमेरे ख्याल में राहुल सांकृत्यायन ने प्राचीन भारतीय संस्कृति को एशिया के एक बहुत बड़े भू-भाग में फैले होने की बात कही थी...तो ऐसे में ये तो माना ही जा सकता है कि आर्य शायद बाहर से ही आये हों...
जो भी हो कम से कम अपनी संस्कृति के प्रति इतना सुरक्षात्मक तो नहीं होना चाहिए.
आपका विश्लेषण बहुत अच्छा है...आगे भी ऐसे विषयों पर लिखते रहिए
दरअसल कोई भी विचार पूर्ण नहीं है, न ही अंतिम सत्य तक ले जाता है. इसलिए लगातार नए विचारों की आवश्यकता रहती है.
जवाब देंहटाएंआप की सभी बातों से सहमति है। लेकिन इस तथ्य से नहीं कि भारत की मूल संस्कृति वैदिक और आर्य संस्कृति है। आज भी भारत में आर्य और वैदिक संस्कृति आरोपित ही है। मूल भारतीय संस्कृति तो द्रविड़ संस्कृति ही है। जिस से मातृ देवियाँ आयीं,आज भी प्रत्येक हिन्दू परिवार में दिहाड़ी यानी कुलदेवी की पूजा ही महत्वपूर्ण है। वहीं से शिव और शंकर आए, वहीं से वृक्षों की पूजा आई, वहीं से उत्पादन संबंधी अनुष्ठान आये वहीं से तंत्र और मंत्र आए। ये सभी जीवित हैं। वैदिक संस्कृति से केवल यज्ञ आए। और आए विष्णु, ब्रह्मा, जैसे देवता और विष्णु के अवतार राम और कृष्ण लेकिन शिव और शंकर को आत्मसात करते हुए। राम, और कृष्ण के चरित्रों के बिना शायद आर्य संस्कृति को भारतीय द्रविड़ संस्कृति पर आरोपित कर पाना कठिन होता।
जवाब देंहटाएंमुझे लगता है की इम्पीरियलिस्ट्स और नियो-इम्पीरियलिस्ट्स चाहे वो ब्रिटेन हो या अमरीका, पूर्वी और पौराणिक संस्कृतियों के विध्वंस के लिये सारे ही कटिबद्ध रहे हैं; और वे आपसे आपकी धरोहर इस लिये छीन लेना चाहते हैं की आप के पास आपको आपस में जोडने के लिये और गर्व करने के लिये कुछ बचे ना - तभी तो आप करेंगे उनका अनुसरण .. तभी तो बनेंगे कॉपी कैट!
जवाब देंहटाएंबाकी चीजों को काला या सफ़ेद करके देखने की शैली तो नाटक है.
वे चीजों को मारने के लिये ही विभाजित करते हैं -संस्कृति के तत्वों को भी.
संस्कृति एक डाईनेमिक जीवंत चीज़ है - ऑर्गेनिक!
एक खेत के सारे किस्म के पौधों की सारी जडें तोड कर अलग जमा दो, तने और पत्ते तोड कर अलग, फूल, फ़ल तोड-तोड कर अलग ढेर कर दो और बोलो हां अब आपको हमने सही जमा दिया -आप इसी तरह अलग-अलग ही थे पर सही जमे हुए नही थे.. और अब कचरे के इस ढेर पर फ़फ़ूंद जमने दो. ये है पश्चिमी संस्कृति की फ़फ़ूंद .. देखा अब तुम सब कित्ते ब्यूटीफ़ुल लग रहे हो! :)
इसी लिये जब संस्कृति को बचाने की बात होती है तो उस फ़फ़ूंद से बचने के भय के चलते होती है.
वो भय गलत नही है - ये सचमुच का मसला तो है!
लेकिन बस बातें ही तो होती हैं .. जिसे सहेजा जाना है वो तो विभाजित होता ही रहा है - आदमी बंट रहा है!
आपका आलेख पठनीय है। चिन्तन को विवश करता है।
जवाब देंहटाएंhttp://irdgird.blogspot.com