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मंगलवार, फ़रवरी 12, 2013

मानव और पशु

सुबह बाग में अपने कुत्ते के साथ सैर कर रहा था तो अचानक दूर से कुछ कुत्तों के भौंकने और लोगों के चिल्लाने की आवाज़ सुनायी दी. आगे बढ़ने पर दो आदमी ऊँची आवाज़ में बहस करते दिखे, दोनो के हाथ में उनके कुत्तों की लगाम थी जिसे वह ज़ोर से खींच कर पकड़े थे. दोनो कुत्ते बड़े बुलडाग जैसे थे, और एक दूसरे की ओर खूँखार दाँत निकाल कर गुर्रा रहे थे. हमारा कुत्ता छोटा सा है और बहुत बूढ़ा भी. डर के मारे मैं वापस मुड़ गया, यह सोच कर कि दूसरी ओर सैर करना बेहतर होगा.

मुझे वापस आता देख कर एक सज्जन जिनसे अक्सर बाग में दुआ सलाम होता रहता है और जिनकी छोटी कुत्तिया हमारे कुत्ते से भी छोटी है, मुस्करा कर बोले, "कुत्ते में टेस्टोस्टिरोन का हारमोन होता है, उससे वह अपने आप पर काबू नहीं रख पाते. कुत्तिया देखते हैं तो उस पर तुरंत डोरे डालने की कोशिश करते हैं और दूसरे कुत्तों से लड़ाई करते हैं. अब जब कुत्ता पाला है तो यह तो होगा ही, इसमें लड़ने की क्या बात है? यह तो कुत्तों की प्रकृति है. अगर कुत्तों का आपस में लड़ना पसंद नहीं है तो या तो उनका आपरेशन करके उनके अन्डकोष निकलवा दो, इससे टेस्टोस्टिरोन बनना बन्द हो जायेगा, और वे शाँत हो जायेंगे. कुत्ते का आपरेशन  नहीं कराना तो कुत्ता पालो ही नहीं, कुत्तिया रखो."

मैं उनकी बात पर देर तक सोचता रहा. टेस्टोस्टिरोन हारमोन सभी स्तनधारी जीवों में, विषेशकर हर जीव जाति के नरों में होता है. यह हारमोन माँसपेशियों का विकास करता है, शरीर में बाल उगाता है, आवाज़ को भारी करता है. सम्भोग की इच्छा और सम्भोग क्रिया में नर भाग निभाने की क्षमता भी इसी हारमोन से जुड़ी हैं.

यही सोच कर मन में यह बात आयी कि हमारे समाजों में जब किसी युवती को पुरुष मारता है, या उससे ब्लात्कार करता है तो अक्सर लोग कहते हैं कि यह इसलिए हुआ क्यों कि उस लड़की ने उस पुरुष को कुछ ऐसा किया जिससे वह अपने पर काबू नहीं कर पाया. इसके लिए वे दोष देते हैं लड़की को, कि लड़की रात को अकेली बाहर गयी, या उसने पश्चिमी वस्त्र पहने थे या छोटे वस्त्र पहने या वह ज़ोर से हँस रही थी.  यानि उनका सोचना है कि चूँकि नर में टेस्टोस्टिरोन है इसलिए यह उसकी प्रकृति है कि जब मादा उसे आकर्षित करेगी तो वह अपने आप पर काबू नहीं कर पायेगा और उस पर हमला करेगा. इसलिए हमारे समाज लड़कियों को अपने शरीरों को चूनर, घूँघट या बुर्के में ढकने की सलाह देते हैं, कहते है कि बिना पुरुष के अकेली बाहर न जाओ, आदि.

Graphic - man attacking woman


शायद इसी बात को सोच कर बहुत से देशों में युवा लड़कियों के यौन अंगो को काट कर सिल दिया जाता है, या उन्हें शरीर ढकने, घर से बाहर न जाने की सलाह दी जाती है, ताकि उनके मन में यौन भावनाएँ न उभरें. शायद इसी वजह से हमारे समाजों ने रीति रिवाज़ बनाये जैसे कि विधवा युवती का सर मूँड दो, उसे सफ़ेद वस्त्र पहनाओ, उसे खाने में तीखे स्वाद वाली कोई चीज़ न दो, जिससे उसे न लगे कि वह जीवित है और उसकी भी कोई शारीरिक इच्छा हो सकती है. इस सब से युवती का आकर्षण कम होगा और अपने पर काबू न रख पाने वाले पुरुष उस पर हमला नहीं करेंगे.

यानि हमारे समाजों ने पुरुषों को पशु समान माना और यह माना कि उनमें किसी युवती को देख कर अपने आप को रोक पाने की क्षमता नहीं हो सकती. इस तरह से हमारे समाजों ने एक ओर "पुरुष अपनी प्रकृति पर काबू नहीं कर सकते" वाले नियम बनाये, जिससे स्वीकारा जाता है कि पुरुष शादी से पहले या विवाह के बाहर भी शारीरिक सम्बन्ध बना सकता है या कई औरतों से विवाह कर सकता है. दूसरी ओर नियम बनाये कि "नारी का अपनी प्रकृति को काबू में रखना ही नारी धर्म है", जिससे निष्कर्ष निकलता है कि अगर पुरुष कुछ भी करता है तो इसमें गलती हमेशा नारी की ही मानी जायेगी.

यानि यह समाज पुरुष को अन्य पशुओं की तरह देखता है, यह नहीं मानता कि परिवार की शिक्षा, समाज की सभ्यता और अपने दिमाग से पुरुष अपना व्यवहार स्वयं तय करता है.

पर इस तरह की सोच हमारे ही समाजों में क्यों बनी हुई है? जैसे यूरोप, अमरीका, ब्राज़ील आदि में समय के साथ बदल गयी है, वैसे हमारे समाजों में क्यों नहीं बदली? यूरोप, ब्राज़ील में आप समुद्र तट पर जाईये आप छोटी बिकिनी पहने या खुले वक्ष वाली युवतियाँ देख सकते हैं, उन पर वहाँ के पुरुष हमला क्यों नहीं करते? शायद यहाँ के पुरुषों में टेस्टोस्टिरोन की कमी है? लेकिन इन देशों में भारत, पाकिस्तान, अरब देशों आदि से आने वाले प्रवासी पुरुष क्यों नहीं इन युवतियों पर हमले करते, क्या यहाँ के कानून से डरते हैं या शायद यहाँ आने से उनके टेस्टोस्टिरोन भी कम हो जाते हैं?

आप ही बताईये क्या हम पुरुष पशु समान होते हैं क्योंकि हमे अपने पर काबू करना नहीं आता? मेरे विचार में यह सब बकवास है.

कुछ पुरुष मानसिक रोगी हो सकते हैं जिन्हें सही गलत का अंतर न मालूम हो. पर यह सोचना कि सभी पुरुष पशु होते हैं, उन्हें अपने शरीरों पर, अपने कर्मों पर काबू नहीं, यह मैं नहीं मानता. पुरुष किसी भी युवती पर हमला कर सकते हैं, इसलिए युवतियों को शरीर ढकना चाहिये, घर से अकेले नहीं निकलना चाहियें, शर्मा कर, छिप कर रहना चाहिये, मेरे विचार में यह सब गलत है.

जो लोग इसे स्वीकारते हैं, वह मानव सभ्यता को नकारते हैं, इस बात को नकारते हैं कि भगवान ने हमें दिमाग भी दिया है, केवल हारमोन नहीं दिये. मुझे लगता है कि इस तरह की सोच पुरुषों को बचपन से ही यह सिखाती है कि जो मन में आये कर लो, हमें औरतों को दबा कर रखना है. इसके लिए हमारे समाज धर्म, संस्कृति और परम्पराओं का सहारा लेते हैं इस तरह की सोच को ठीक बताने के लिए.

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शुक्रवार, अक्तूबर 12, 2012

बालों का रंग


करीब तीस-बत्तीस साल के बाद मिल रहे थे. इस बीच में हमारे बीच कोई भी सम्पर्क नहीं रहा था.

साथ साथ मेडिकल कालेज में पढ़े थे पर मेडिकल कालेज के दिनों में हमारे बीच कोई विषेश दोस्ती नहीं थी. हमारी विषेश दोस्ती बनी थी पढ़ायी के समाप्त होने पर जिस समय नये स्नातक डाक्टरों को, एक साल के लिए अस्पताल में काम करके चिकित्सा विज्ञान का प्रेक्टिकल अनुभव प्राप्त करना होता है, जिसे इन्टर्नशिप कहते हैं. उस दौरान हम दोनो की कई पोस्टिंग साथ साथ हुईं थीं. इन्टर्नशिप के दौरान नये डाक्टरों से खूब दिन रात काम लिया जाता है, साँस लेने कि फुरसत मुश्किल से मिलती थी. उन दिनों में जब भी कुछ समय मिलता, अक्सर हम दोनो दिल्ली में कश्मीरी गेट से आगे जा कर यमुना तट पर बने तिब्बती रेस्टोरेंट में खाना खाने जाते और घँटों बातें करते.

वह इन्टर्नशिप का वर्ष समाप्त हुआ, डिग्री मिली और हम दोनों के रास्ते अलग दिशाओं में मुड़ गये. सुना कि उसका विवाह अमरीका में कहीं हुआ है. फ़िर सुना कि जहाँ विवाह हुआ था वहाँ कुछ झँझट थे, पर कुछ अधिक नहीं पता चला. बस उसके बाद कोई अन्य बात नहीं सुनी, न ही मालूम हुआ कि वह कहाँ है, क्या करता है?

अब कुछ समय पहले फेसबुक और मेडिकल कोलिज में साथ में हमारे साथ पढ़ने वाले लोगों की वजह से उससे फ़िर से सम्पर्क हुआ. मालूम चला कि वह इँग्लैंड में रहता है. उसके शहर में जाने का मौका मिला तो उससे मुलाकात भी हुई. एक पब में मिले और बीयर पीते पीते पुरानी बातों की बात हुई.

वह छरहरा सा लड़का जो मेरी यादों में था, अब अच्छे खासे खाते पीते घर के तँदरुस्त व्यक्ति में बदल गया था, जिसे अगर सड़क पर मिलता तो पहचान ही नहीं पाता. जब बीते दिनों की बातें चुक गयीं तो कुछ समझ नहीं आया कि क्या बात करें. इतने सालों में हमारे जीवनों में जो कुछ हुआ था, उससे हमारे बीच की बातें कुछ कम हो गयी थीं.

अचानक वह बोला,"तू तो बिल्कुल अँकल टाइप लगता है इन सफेद बालों में. बालों को डाई क्यों नहीं करता?"

उसके बाल घने और गहरे काले थे. मुझे हँसी आ गयी, मैं बोला, "बेटा, तू चाहे तो तू भी मुझे अँकल बुला ले, मैं बुरा नहीं मानूँगा."

वह पहला व्यक्ति नहीं था जिसने बाल रँगने करने के लिए मुझे कहा था. पहले भी कुछ लोगों से यही बात सुन चुका था.

यह सच है कि मैंने कई बार सोचा है कि अपने बालों का एक लच्छा जामुनी या हरे रंग में रंगवा लूँ, लेकिन उनको काला करके अधिक जवान दिखने की मेरी कभी कोई इच्छा नहीं हुई. एक बार मँगोलिया में यात्रा के दौरान एक लड़का मिला था जिसने अपने बाल हलके भूरे रंग में रँगवाये थे, जो मुझे बहुत अच्छा लगा था और मन में आया था कि अपने बाल वैसे ही भूरे रँगवा लूँ.

अपने बालों को जो काला नहीं रंगवाना चाहता, इसके पीछे बात है मेरे पिता के परिवार के इतिहास की.

मेरे दादा द्वारका प्रसाद छोटे से थे जब उनके पिता का देहाँत हुआ था. वह अपने बड़े भाई बेनी प्रसाद की छत्रछाया में बड़े हुए. द्वारका प्रसाद 33 वर्ष के थे, जब उनका देहाँत हुआ था. उस समय मेरे पिता ओम प्रकाश तीन साल के थे. मैं स्वयं बीस साल का था जब मेरे पिता का देहाँत हुआ था.

बचपन से ही मेरे मन में यह बात घर कर गयी थी कि हमारे परिवार में पिताओं को अपने बच्चों को ठीक से बड़ा होते देखना नसीब नहीं होता. बहुत सालों तक मेरे अपने मन में भी डर था कि अपने बेटे को ठीक से बड़ा होते देखने का मुझे भी मौका नहीं मिलेगा. पर ऐसा नहीं हुआ. मुझे अपने बेटे का बड़ा होना, उसका नौकरी करना, उसका विवाह, सब कुछ देखने को मिला.

इसलिए मुझे लगता है कि बहुत किस्मत से इतनी पुश्तों के बाद हमारे परिवार में मेरे बेटे को सफेद बालों वाला पिता मिला है. जब हम दोनों शाम को कभी बाग में बाते करते हुए घूम रहे होते हैं तो कभी कभी सोचता हूँ कि मेरे पिता, दादा, परदादा, सभी हम दोनो के साथ साथ ही घूम रहे हैं, हमारी बातें सुन रहे हैं और खुश हो रहे हैं.

आप ही कहिये, इतनी किस्मत से मिले सफ़ेद बाल, इनको कैसे रँगा जा सकता है?

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हमारी कुछ पुरानी तस्वीरें:

Sunil & Marco Tushar

Sunil, Nadia & Marco Tushar

Sunil & Marco Tushar

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बुधवार, दिसंबर 21, 2005

शुद्ध पृथ्वीवासी

शायद हर जगह लोग ऐसे ही प्रश्न पूछते हैं, कि आप कहाँ से हैं?

इटली में लोग, कोई नया मिले तो यह प्रश्न अवश्य पूछते हैं. जब परिवार सारा जीवन एक ही जगह पर बिताते थे तो इस प्रश्न का उत्तर देना कठिन नहीं था. आप कहाँ रहते पूछने का अर्थ यह जानना भी है कि आप विश्वासनीय हैं या नहीं. लोगों में रहने की जगह के साथ जुड़ी बातों की वजह से छोटा बड़ा सोचने की भी आदत होती है. जैसे कि उत्तरी इटली वाले अपने आप को दक्षिणी इटली वालों से ऊँचा समझते हैं. जब शुरु शुरु में इटली आया था और यहाँ अधिक प्रवासी नहीं थे, तो जो घर किराये पर मिला उसकी मकान मालकिन मुझसे यही बोली थी, "मैं तो अपना घर किराये पर या तो उत्तरी इटली वालों को दूँगी या विदेशियों को. "मेरिद्योनालि" लोगों (दक्षिण इटली के लोगों) को नहीं दूँगी."

पर आजकल सब कुछ बदल रहा है. बहुत से लोग उत्तर देते हैं, "मेरी माँ एक जगह से हैं, पिता दूसरी जगह से और हम बच्चे लोग तीसरी जगह में बड़े हुए, पर आजकल हम चौथी जगह रहते हैं." यानि यह किसी को यह बताना कि आप कहाँ से हैं, धीरे धीरे कठिन होता जा रहा है.

मुझसे लोग अक्सर जब मुझसे पूछते हैं कि मैं भारत में कहाँ से हूँ, तो मुझे भी उत्तर देने में ऐसी ही परेशानी होती है. ननिहाल तो अब पाकिस्तान में है, जबकि पिता का परिवार उत्तरप्रदेश में था, और हम सब बच्चे अलग अलग शहरों में पैदा हुए. लम्बा उत्तर न देने के लिए कहता हूँ दिल्ली से हूँ क्योंकि जीवन के बहुत से साल दिल्ली में ही कटे हैं.

हमारे परिवार के बड़े भाई बहनों ने विभिन्न दिशाओं में और भी मिलावट करनी शुरु कर दी. किसी की बहू बंगाली थी, किसी की मराठी तो किसी का पति कोंकणी. जब मैंने विवाह किया तो इस मिलावट की होली में धर्म का रंग भी जोड़ दिया, क्योंकि मेरी पत्नी कैथोलिक है. हिंदू व कैथोलिक परिवार में बड़े हुए हमारे बेटे की होनी वाली पत्नी सिख है. जब उसके बच्चे होंगे और कोई उनसे यह सवाल करेगा, तो सोचिये कि वे क्या जवाब देंगे कि वे कहाँ से हैं?

हम मिलावटी भारतीय हैं, या मिलावटी इतालवी? या फ़िर हम लोग मिलावटी हिंदू, सिख और कैथोलिक होंगे? पर सच में तो मेरे विचार में हम लोग शुद्ध पृथ्वीवासी हैं.

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ब्राजील मेरे विचार में मानव जाति की मिलावट का दुनिया में सबसे बड़ा उदाहरण है. यहाँ की मूल जनजाति के लोग इंडियोस, और अन्य देशों से आये यूरोपीय, अफ्रीकी, जापानी, चीनी, आदि जातियों के लोगों के मिलने से बना है यह देश. आज की तस्वीरें ब्राजील से ही हैं.

Belem, Brazil - images by Sunil Deepak

Belem, Brazil - images by Sunil Deepak

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रविवार, दिसंबर 18, 2005

बीत गये कितने दिन!

लगता है कि कल की बात है जब वह पैदा होने वाला था. डाक्टर ने तारीख दी थी १० जुलाई की. १० जुलाई आयी और चली गयी, पर उसके आने के लक्षण नहीं दिखाई दे रहे थे. मैं पत्नी के साथ उसके चेकअप के लिए अस्पताल गया. यह वही अस्पताल था जहाँ हमने इक्ट्ठे काम किया था इसलिए वहाँ के सब डाक्टरों और नर्सों को जानते थे.

"कुछ नहीं है, सब ठीक है. पर बच्चा अभी ऊपर है, बच्चेदानी में नीचे नहीं आया. तुम खूब चलो, भागो, सीढ़ियाँ चढ़ो, उतरो", डाक्टर बोले, "उससे बच्चा नीचे आ जायेगा."

इस बात को हम दोनो ने बहुत गम्भीरता से लिया. सारा दिन घूमते. पूर्वी इटली में स्कियो नाम के शहर में रहते थे, जो पहाड़ों के बीच बसा है. वहाँ चढ़ने, उतरने के लिए सीढ़ियों की कमी नहीं थी. पत्नी के फ़ूले हुए पेट को छू कर, उसका हिलना, लात मारना महसूस करना, मुझे बहुत अच्छा लगता. क्या नाम रखेंगे, इस पर लम्बी बहस होती. यह तो पहले से तय था कि बच्चे के दो नाम होंगे, एक इतालवी और एक भारतीय. यह भी तय था कि अगर बेटी होगी तो उसका पहला नाम भारतीय होगा और दूसरा इतालवी, बेटा होगा तो इसका उलटा.

दस दिन बीत गये इसी तरह. फिर अस्पताल चेकअप के लिए गये. "बच्चा अभी भी नीचे नहीं आया, पर सब कुछ ठीक ठाक है", डाक्टर बोले और पत्नी को और चलने, भागने की सलाह दी. आखिर 23 तारीख को शाम को पत्नी को हलका हलका प्रसव दर्द शुरु हुआ तो उसे ले कर अस्पताल वापस पहुँचे. "सब ठीक ठाक है, पर अभी समय लगेगा. कल सुबह से पहले कुछ नहीं होने वाला, आप अभी घर जा कर सोईये, कल सुबह आईये", उन्होंने मुझसे कहा.

अपनी सास के पास ठहरा था, वहाँ आ कर रात को सो गया. रात को अचानक नींद खुली, लगा कहीं टेलीफोन बज रहा था, थोड़ी देर यूँ ही लेटा सुनता रहा, पर जब टेलीफोन रुक कर फिर से बजने लगा तो उठ कर देखने की सोची. पहली मंजिल पर सोया था, टेलीफोन नीचे बज रहा था. नीचे आया तो देखा हमारा ही टेलीफोन था और हमारी साली साहिबा हमें आधे घँटे से टेलीफोन कर कर के परेशान हो गयीं थीं. "जल्दी अस्पताल जाओ, वहाँ से टेलीफोन आया था कि कुछ ठीक नहीं है और अभी ओपरेश्न करना होगा." रात को कार स्टार्ट होने में कुछ परेशानी हो रही थी इसलिए उसे अस्पताल के बाहर ही छोड़ आया था. जब टेलीफोन आया तो भागाभागी में कपड़े पहने और टैक्सी को बुलाया. अस्पताल पहुँचा तो करीब दो बज चुके थे.

पहले पत्नी को देखा, जिसे ओपरेश्न थियेटर से बाहर लाया जा रहा था, बेहोश सी थी पर फिर भी मुझे देख कर रोने लगी. दिल काँप सा गया. "लड़का हुआ है, पर उसकी हालत ठीक नहीं है. बच्चा इंटेन्सिव कैयर में है, नाल उसके गले को घेरे थी, इसलिए वह साँस ठीक से नहीं ले पा रहा था, इसलिए एमरजैंसी में ओपरेश्न करना पड़ा", मुझे बताया गया.

इंटेंसिव कैयर के बाहर शीशे से उसे देखा. इंक्यूबेटर में रखा छोटा सा वह, मुँह पर साँस लेने की नली लगी हुई. उसे वह पहली बार देखना अभी भी ऐसे याद है जैसे कल की बात हो. दो सप्ताह में उसकी शादी होने वाली है. बीत गये कितने दिन, कितनी जल्दी, पता ही नहीं चला.

Deepak family

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