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शनिवार, अगस्त 14, 2010

जिया, राष्ट्रकवि की प्रेरणा

टिप्पणीः यह आलेख मेरी बड़ी बुआ स्व. डा. सावित्री सिन्हा की पुस्तक तुला और तारे से है जो 1966 में नेश्नल प्रिन्टिंग प्रेस द्वारा छपी थी, जब वह दिल्ली विश्वविद्यलय के हिन्दी विभाग की रीडर थीं. मेरे विचार में यह आलेख 1963 तथा 1964 के बीच में लिखा गया, क्योंकि इसको लिखते समय मैथिलीशरण गुप्त के अनुज सियाराम शरण गुप्त की मृत्यु हो चुकी थी जो 1963 में हुई.

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त के बारे में कुछ जानकारी इंटरनेट पर उपलब्ध है, जिनमें उनके माता पिता के नाम तो हैं तो लेकिन उनकी पत्नी, यानि इस आलेख की नायिका "जिया" का नाम नहीं मिला मुझे. गुप्त जी के काव्य में उपेक्षित उर्मिला की बात तो होती है, लेकिन उनकी अपनी उर्मिला को भूलने वाली भी क्या वही बात नहीं?

जिया

लगभग दस वर्ष पूर्व छः, नार्थ एवेन्यू की बैठक में घुसते ही स्क्रीन की आड़ में खड़ी एक नारी मूर्ती की ओर अनायास ही मेरी आँखें उठ गयीं, और मैं अपने आप ही समझ गयी कि यह "जिया" हैं. ग्रामवधु की सहज मुस्कान, स्निग्ध आर्द्र वात्सल्यमयी आँखें, गौरवान्वित भावाभिव्यक्ति, पर अभिमान और दम्भ का स्पर्श नहीं - साकेत की "मूर्तिमती ममता माया" ही जैसे मेरे सामने खड़ी थी. मुझे देखते ही मुस्कान का स्थान, मृदुल हास्य ने ले लिया और फ़िर हँसते हुए हाथ जोड़ कर उन्होंने मुझे नमस्ते किया - सब कुछ एक क्षण में हो गया और मैं स्तम्भित खड़ी रह गयी. क्या कहूँ, क्या करूँ ? संकोशवश बिना कुछ बोले केवल नमस्कार कर सकी. उनके प्रथम दर्शन की वह झलक मेरे मानस पर जैसे स्थायी हो गयी है. शुद्ध खद्दर की केसरिया साड़ी उनके त्यागपूर्ण गौरव भरे सुहाग की कहानी कह रही थी. गले में पड़ी हुई सोने की जंजीर के साथ तुलसी की कण्ठी में, मानो उच्चकुल वधू का गरिमापूर्ण पत्नित्व और यशोधरा की वैष्णव भावना एक दूसरे को बल देते हुए साकार थी. माथे पर लगी चमकती हुई बिंदिया पर सुनहले अक्षरों
Jiya - Maithili Sharan Gupt
में अंकित "सीताराम" शब्द बार बार चमक कर यह घोषित करना चाहता था कि "पति का इष्ट ही उनका इष्ट है, उनके गौरव से ही उनका सुहाग मण्डित है." पैरों में पड़ी हुई हल्की सी चाँदी की पायल, पैर की उँगली में सुहाग चिन्ह बिछुये, हाथों की लाल काँच की चूड़ियाँ और लाल सिन्दूर से भरी माँग को देख कर साकेत की "सुहागनियों" और यशोधरा के व्यक्तित्व के सभी अंश आँखों में उमड़ आये जिन्हें दद्दा ने बार बार दोहराया है और महत्ता दी है. मुझे ऐसा लगा जैसे मैं दद्दा द्वारा निर्मित त्यागमयी नारियों को उनकी प्रौढ़ावस्था में देख रही हूँ, जिनके त्याग, समर्पण, सेवा और आत्मदान की परिणति कुण्ठा, हीनभाव और स्नायविक विकृतियों में नहीं, आनन्द और सुख में होती है.

यदि मैं यह कहूँ तो अतिशयोक्ति न होगी कि दद्दा की नारी भावना का व्यवहारिक मूल्य मैंने जिया के सम्पर्क में आ कर ही जाना. हो सकता है इसका कारण यह भी हो कि समय के साथ साथ प्रौढ़ता प्राप्त करने के कारण भी नारी के जीवन मूल्यों के सम्बन्ध में मेरी धारणाओं में परिवर्तन आया हो. नारी सम्स्याओं के विषय में जब कुछ सोचने समझने की बुद्धि आयी उसी समय मैंने महादेवी जी की "श्रृंखला की कड़ियाँ" नामक पुस्तक पढ़ी थी. पुरुष जाति की नृशंसता, कठोरता, शोषण प्रवृति, दमन नीति इत्यादि के विरुद्ध मेरी प्रतिक्रियाएँ बड़ी विद्रोहात्मक हुआ करती थीं, और वादविवाद प्रतियोगिताओं और बहसों में भी नारी की ओर से पुरुषों के "जिहाद" का झण्डा उठा कर चलना चाहती थी (पर समय के साथ ही साथ अकल ठिकाने आ गयी) ऐसी स्थिति में गुप्त जी नारियों को आदर्श रूप में स्वीकार करना मेरे वश की बात नहीं थी. मुझे बराबर यही लगता था कि काव्य की उपेक्षिताओं का जो "उद्धार" गुप्त जी ने किया है वह अव्यावहारिक, काल्पनिक और यथार्थ से परे है, उनके व्यक्तित्वों में जो आदर्शोन्मुख है उसी के कारण नारी जाति पतन के गर्त में गिरी है, उनके मानसिक व्यक्तित्व की शक्ति भौतिक शक्ति और शारीरिक क्षमता के अभाव में अर्थहीन है.

जिया के दीर्घकालीन सम्पर्क में आने के बाद, जैसे धीरे धीरे मेरी आँखौं के सामने से भ्रम का उठता हुआ परदा, एक वेग से उठ गया, और मुझे पूर्ण विश्वास हो गया कि "नारी" के इस उद्धार में दद्दा की प्रेरणा अतीतोन्मुखी नहीं थी, परम्परा और भारतीय संस्कारों की लीक में बँध कर उसके व्यक्तित्व का निर्माण नहीं किया गया था, बल्कि भारतीय वांग्मय के इतिहास में शायद पहली बार दद्दा ने अपने युग की भारतीय संस्कारों में पली नारी की गरिमा और त्याग को महत्ता और अभिव्यक्ति दी थी. और इनके पीछे वह निरक्षर नारी थी जो अपने त्याग और आदर्श को जाने बिना ही अपने देवता की भावनाओं को इन गुणों के रस से सिक्त कर रही थी. गुप्त जी की चलाई हुई इस परम्परा का विकास "उर्वशी" की औशीनरी, "सुहाग के नूपुर" की कन्नगी तथा "बूँद और समुद्र" की वनकन्या में हुआ है, जहाँ उस पीढ़ी और वर्ग की भारतीय नारी के व्यक्तित्व में निहित धरती की सी शक्ति और महिमा को पहिचाना गया है. दद्दा ने जिस "प्रपत्ति" का चिंतन किया है, जिया ने उसे झेला है, अगर दद्दा ने उसका अनुभव किया है जो जिया के माध्यम से, ऐसा मैं विनयपूर्ण, पर निःसंकोच कह सकती हूँ.

दद्दा के दरबार में जब कभी तीन चार दरबारियों से अधिक भीड़ आ जाती, मैं जिया की रसोई में आश्रय लेती. वे दद्दा की बैठक के प्रसिद्ध लड्डू, मट्ठी और चटनी का प्रबंध करवातीं और मेरे लिए कुर्सी मंगा देतीं, परन्तु मुझे तो उनके पास पट्टे पर बैठना ही अच्छा लगता था. उनके पास बैठ कर इधर उधर की, खासकर दद्दा और बापू के विषय में बात करने में मुझे बड़ा आनन्द आता. मैं एक प्रसंग छेड़ देती और उससे सम्बद्ध छोटी छोटी कई घटनाएँ वह मुझे सुना देती. एक दिन मैंने उनसे पूछ लिया, "जिया, आप अपनी शादी में कितनी बड़ी थीं?" प्रश्न शायद अप्रत्याशित था, उनकी आँखें संकोच और शील मिश्रित स्निग्धता से भर उठीं. अपनी हँसी को रोकने के लिए उन्होंने आंचल का पल्ला मुख पर रख लिया और फ़िर संयत हो कर बुंदेलखँडी में अपने विवाह के समय की तीन चार घटनाएँ सुनायीं. अच्छा होता मैं उसे जिया की भाषा में ही सुना सकती, पर बुंदेलखँडी लिखने में मैं गलती अवश्य कर जाऊँगी, इसलिए स्मृतियों को अपनी भाषा में ही व्यक्त कर रही हूँ. इस प्रसंग से सम्बन्धित एक रोचक चित्र है, एक चौदह वर्षीय किशोरी, नववधु के रूप में, चिरगाँव के प्रसिद्ध श्रेष्ठीकुल की भारी गृहस्थी और वंशविस्तार के दायित्व का बोझ अपने कन्धों पर झेलने के लिए, गुप्त परिवार में प्रवेश करती है, पति गृह में होने वाली सब परिक्षाओं के लिए तैयार है. पर उससे यह कैसा प्रश्न पूछा जाता है. "तुम्हें पढ़ना लिखना आता है?" अवगुण्ठनवती बहु उत्तर में सिर हिला कर कहती है, "नहीं". प्रश्नकर्ता समझते हैं उसका उत्तर स्वीकारात्मक है. बहु असमंजस में पड़ जाती है और पढ़ने लिखने की परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो जाती है.

इसी प्रकार एक दिन "नारी के कवि" की पत्नी कि प्रतिक्रियाओं से अवगत होने की सहज इच्छा से प्रेरित हो कर मैंने पूछा, "जिया जब दद्दा अपनी किताबें लिखते थे तो आप को पता रहता था कि वह क्या लिखते हैं?" जिया अपनी सहज मुस्कान के साथ बोलीं, "मुझे तो इतना ही पता है कि जब ये छोटे थे तभी कवित्त बनाने लगे थे. सात आठ साल की उमर में ही इन्होंने कवित्त बना दिये तो मेरे ससुर बहुत खुश हुए थे, तभी लोग समझ गये थे कि आगे चलकर ये बहुत अच्छी कविता बनायेंगे. फ़िर तो इनने बहुतेरी किताबें बनायीं. एक में तो मेरे ससुर जी की फोटो भी लगी थी." मैंने पूछा, "अच्छा जिया, जब दद्दा कविता लिखते हैं तब आप को पता चल जाता है?" और उनका उत्तर तत्पर था, "हाँ घँटों बैठे सोचते रहते हैं, इधर उधर टहलते हैं, बार बार स्लेट पर लिख कर बार बार मिटाते हैं, ठीक करते हैं, देर देर तक काम करते रहते हैं." मैं जिया की ओर मुग्ध तन्मयता के साथ देखती हुई सोचती रही, क्या वन में सीता का सफ़ल गार्हस्थ, दद्दा जिया के योग के बिना जगा सकते थे? क्या परिवार के लिए सतत कार्यरत, जिया की विश्रामरहित दिनचर्या की प्रेरणा के बिना दद्दा की सीता "श्रमवारिबिन्दु फ़ल स्वास्थ्य शुक्ति फ़ल" बन सकती थी? क्या सीता का "अंचल व्यजन" का चित्रण करते समय जिया का "अंचल व्यजन" दद्दा के समाने नहीं होगा? मेरे ध्यान योग में उस समय दद्दा अकेले नहीं रह गये थे. शिरिष कुसुम से सूक्ष्म और कोमल पर रेशम के से दृढ़ सूत्रों में बँधा दद्दा का कवि व्यक्तित्व जिया के साथ मेरी आँखों में साकार हो उठा.

12 डी, फ़िरोज़शाह रोड, सीतानवमी का दिन. अन्नपूर्णा की रसोई से उठी हुई विविध प्रकार के व्यंजनों की सुगन्ध सारे घर में फ़ैल रही थी. पता नहीं किस प्रेरणा से उस दिन मैं सीधे जिया के कमरे की ओर ही चली गयी. जिया उस समय सद्य स्नान किये हुए पीताम्बर परिधान में पवित्रता में पगी हुई देवार्चन में लीन थीं. सामने देव सिंहासन पर सीताराम की युगल मूर्ती विराजमान थी. तुलसी का गमला साथ रखा हुआ था, और मूर्ति के निकट ही रामचरितमानस की प्रति फ़ूलों से ढकी हुई रखी थी. धूप, दीप, आरती और पूजा के अन्य उपकरणों के साथ वातावरण बड़ा शुभ्र और पवित्र हो रहा था, पास ही शान्ति, जिया की पुत्रवधु, मैना के साथ उमा सी खड़ी थी. पूजा में बाधा न पड़े, यह सोच कर मैं पैरों की आहट दिये बिना, पीछे ही दीवार से टिकी, अभिभूत हो कर जिया की पूजाविधि देखती रही. रामभक्त वैष्णव महाकवि की निरक्षर पत्नि जब रामचरित मानस पर सिर टेक कर ध्यान में लीन थी, मुझे आज की नारी की सारी साक्षरता और विद्वता तुच्छ जान पड़ रही थी. श्रद्धा, आस्था और विश्वास की गरिमा से वंचित हो कर रामचरितमानस की पंक्तियों का अर्थ निकालने और व्याख्या करने वाली नारी का ज्ञान मुझे इस आस्था के सामने सिर झुकाता जान पड़ा. इड़ा की हार और श्रद्धा का विजय जैसे अनायास ही आँखों के सामने घटित हो गयी. मेरे मन में आया, काश! पुरुष ने इस श्रद्धा और समर्पण का दुरुपयोग न किया होता.

एक दिन मन बहुत संतप्त था. मेरी एक शिष्या का छः वर्षीय पुत्र कई दिनों से अस्पताल में था. अस्पताल में ही उसने मुझसे काले शीशे की ऐनक की माँग की थी. ऐनक मेरे बैग में ही रखी थी और मुझे सूचना मिली कि उसकी मृत्यु हो गयी. मन और मस्तिष्क पर मृत्यु का अवसाद और उदासी छायी हुई थी. जिया ने मुझे देखते ही पूछा, "तबियत ठीक नहीं है क्या?" मैंने उन्हें बच्चे की बीमारी और मृत्यु का हाल सुना दिया. जिया के मुख पर जैसे छाया और अन्धकार की कुछ रेखाएँ उभर आयीं. अपनी दिवंगत सन्तानों की बीमारी और मृत्यु की स्मृतियाँ उनके मस्तिष्क में भी ताज़ी हो गयीं. एक पुत्र सुदर्शन की बातें करते करते उनका गला भर आया. वह कह रही थीं, "तुम्हारे दद्दा उसे बहुत प्यार करते थे. चौबीस घँटे अपने पास ही रखते थे. जब वह मरा तो बहुत देर तक उसके मुँह पर मुँह रख कर रोते रहे. फ़िर मैंने धीर बाँध कर अजमेरी जी पास संदेश भिजवाया (दद्दा के कुल की मर्यादा के अनुसार पत्नी सब के सामने पति से बात नहीं कर सकती थी) कि उनसे कह दें कि वे मरे मुरे के मुँह में मुँह न लगायें. मैं धीर धर रही हूँ तो वे भी धरें." जिया का यह वाक्य जैसे मेरे हृदय को बेध गया. मेरी दृष्टि जैसे चमक गयी. "राहुल" का दान देती यशोधरा में क्या जिया की यह शक्ति नहीं बोल रही थी?

जिया के प्रति बापू (स्व. सिया राम शरण गुप्त) का मर्यादापूर्ण व्यवहार देख और सम्मान का भाव देख कर उस देवर की याद आ जाती थी, जो अपनी भाभी के आभूषण ही पहचान सकता था. यह "लक्ष्मण" तो शायद अपनी अन्नपूर्णा भाभी के हाथों की चूड़ियाँ ही पहचान सकता, जो भोजन की थाली सामने रखते हुए अपने आप ही दिखाई पड़ जाती रही होंगी.

रविवार, जनवरी 10, 2010

मोहन राकेश

अंग्रेज़ी की अखबार हिंदुस्तान टाईमस में मोहन राकेश जी के बारे में छोटा से लेख देखा तो उन दिनों की याद आ गयी जब वह दिल्ली के राजेंद्र नगर के आर ब्लाक में रहते थे. तालकटोरा बाग से शंकर रोड की तरफ़ आईये तो जहाँ राजंद्र नगर प्रारम्भ होता है वहाँ बायें कोने पर पम्पोश की दुकान थी जिसकी वजह से उस सारी जगह को पम्पोश ही कहते थे. पम्पोश से आने वाली सड़क जहां आर ब्लाक के बड़े बाग से मिलती, वहीं बायें कोने वाले तीन मज़िला घर में बरसाती पर रहते थे.

उनके घर से थोड़ी दूर पर ही जंगल के सामने वाली सड़क पर मेरी बुआ का घर था. 1966-67 के आस पास ही बुआ के यहाँ छुट्टियों में गया था जब दीदी के साथ मोहन जी के घर जाने का एक दो बार मौका मिला था. तब तक उनकी कुछ कहानियाँ नाटक पढ़े थे, लेकिन इतनी समझ नहीं थी कि वह कितने बड़े लेखक हैं. मैं तब बारह या तेरह साल का था पर जब उन्हें पहली बार देखा था उसके बारे में सोचूँ तो सबसे पहली बात जो मन में आती है वह उनका कद छोटा होने की है. उनकी पत्नी अनीता, जो उम्र में उनसे बहुत छोटी लगती थीं, उनसे थोड़ी ऊँची थी. दूसरी बात याद आती है उनकी गूँजती आवाज़ में पँजाबी भाषा का पुट. तीसरी बात याद है उनका छोटा और मोटा सा सिगार पीना.

तब उनकी बेटी पुरुवा का मुँडन हुआ था और उसके बारे में सोचूं तो उसके गँजे सिर पर हाथ फ़ैरना याद आता है. दीदी, अनीता जी और मोहन जी में क्या बातें हुईं, यह सब कुछ याद नहीं क्योंकि तब अपना ध्यान खेलने की ओर अधिक होता था. हां उनके कमरे के बीच में रखी गोल नीची मेज़ याद है जिसके आसपास ज़मीन पर बैठ कर कुछ खाया था.

जब उनकी मृत्यु का सुना था तो मुझे अनीता जी और उनकी बेटी पुरुवा का ही ध्यान आया था. अनीता जी से पहले वह अन्य विवाह कर चुके थे और शायद अनीता जी उनकी धरौहर की कानूनी मालिक नहीं थीं. बच्चे छोटे हों और अचानक पिता न रहे का क्या अर्थ होता है, इसका अपना अनुभव मुझे कुछ वर्ष बाद हुआ था जब मेरे पिता भी कम उम्र में अचानक गुज़र गये थे.

पर समय सब कुछ भुला देता है. अनीता जी कहाँ गयीं, उनकी बेटी का क्या हुआ, यह कुछ भी मुझे मालूम नहीं शायद दीदी को मालूम हो.

गुरुवार, दिसंबर 17, 2009

शीबा को गुस्सा क्यों आता है?

"हँस" का नवंबर अंक स्त्री विषशांक था, इसमें शीबा असलम फाहमी का लेख "... खाने के और, दिखाने के और" पढ़ा. शीबा जी दिल्ली के जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय में डोक्टरेट के लिए शौध कर रहीं हैं और मुसलमान समाज या इस्लाम धर्म से जुड़े उनके लेख कई बार "हँस" पर पढ़े हैं. उनके किसी लेख के बारे में कुछ लिखा भी था, जिस पर उनसे ईमेल से कुछ बात भी हुई.

पिछले माह दो तीन दिन के लिए दिल्ली में था, तभी सैंट स्टीफन कोलिज में "भारत में धर्म, राजनीति और लैंगिकता" विषय पर सेमीनार में शीबा जी को देखा, उन्हें सुनने का मौका भी मिला और कुछ बातचीत भी हुई.

उन्होंने पूछा कि क्या मैंने उनका "हँस" के नवंबर अंक वाला लेख पढ़ा या नहीं और कैसा लगा? मैंने कहा कि अभी नहीं पढ़ा, क्योंकि पत्रिका इटली आने में कुछ देर लगाती है और मेरे घर से यात्रा के लिए चलने तक नवंबर अंक नहीं पहुँचा था. इसलिए उनसे वायदा किया कि जब पढ़ूँगा तो उसके बारे में अपनी राय अवश्य दूँगा.

भारत से घर वापस लौटे दस दिन हो गये, तो उनका एक अन्य संदेश मिला कि लेख पढ़ा या नहीं? तो रात को सोने से पहले, सोचा कि लेख को पढ़ने की कोशिश की जाये. पढ़ा तो नींद छू मंतर हो गयी, बहुत देर तक सोचता रहा, शीबा जी के गुस्से के बारे में.

***
शीबा जी ने बात उठायी है धर्मग्रंथ में लिखे आदर्शों की और समाज में होने वाली असलियत की, और मुसलमान औरतों के लिए इन दोनो की बीच की दूरी की. एक तरफ़ कुरान शरीफ़ में बाते हैं नारी की बराबरी की, उसके अधिकारों की, उसकी अस्मिता की, दूसरी ओर है मुसलमान समाज में नारी की हकीकत. उन्होंने मुसलमान समाज के बारे में छपने वाली किताबों का अध्ययन किया है, जिनमें नारी के लिए क्या जायज़ है और क्या नाजायज़ बताया गया है. इन किताबों में नारी को क्या सलाह दी जाती है, उसके बारे में उन्होंने लिखा हैः

एक अल्लाह-एक इस्लाम के नारे के नीचे यह नीच साहित्य औरत को न सिर्फ कामपिपासू बताता है बल्कि, शिकार करने वाली, चुग़लखोर, ग़ीबत (परनिंदा) करने वाली, झगड़ालू, पैसे की भूखी, काहिल, बहानेबाज़, और खानदान परिवार तोड़ने वाली भी बताता है और "यही वजह है कि औरतें जन्नत में कम होंगी". ... जन्नत के "आठों दरवाज़ों" से दाखिल होने का रास्ता शौहर को ख़ुश रखना, उसकी इज़्ज़त रखना भर है. शौहर की मर्ज़ी के बगैर नफली नमाज़ रोज़ा भी न करे औरत. शौहर को "मना" करने वाली पर फ़रिश्ते लानत भेजते हैं आदि आदि. इसमें सब्र, कनात, ज़ब्त, ख़ामोशी, घर से बाहर न निकलना, मायके में शिकायत न करना, शौहर से अपना कोई काम न लेना, माँ बाप से ज़्यादा बड़ा दर्जा शौहर को. ... दूसरी औरतों के साथ भी सफ़र नहीं. रेल के ज़नाना डिब्बे में भी नहीं. कुछ घंटों का हवाई जहाज़ का तन्हा सफ़र भी जायज़ नहीं. दिर्फ़ शरई सफ़र करो. घर में रहो. पर्दे की पाबंदी इसी में है. घर में आने वाली औरतों से भी बेवजह न बोलो बतियाओ. घरों के झरोखे खिड़कियाँ बंद रखो. ... औरत को नेकी करने और शौहर को "ख़ाविंद", "हाकिम" समझने से जिस जन्नत के आठों दरवाज़े खुलेंगे वहां उनके मर्द कुंवारी हूरों के साथ होंगे. यह नेक बीबियाँ करेंगी क्या यह नहीं मालूम.

उनका कहना है कि कुरान शरीफ़ में औरत की बराबरी और अधिकारों की बात करने वाले, अपने समाज की इस असलियत को नहीं बदलना चाहते. मर्द नहीं बदलना चाहते क्योंकि उनका इसी में फ़ायदा है, और शायद औरतों के मन में यही बात बिठा दी गयी हैः

मुसलमान औरत खुद को कमज़ोर चरित्र, चरित्रहीन, बहु पुरुष गामिनी, कामपिपासु और निरंतर अवसर की तलाश में रहने वाली अपराधी मान ले इसके लिए इन मुल्लों ने इतने कागज़ काले किये हैं कि एक पूरा प्रकाशक वर्ग इस प्रकार के साहित्य से रोज़ी कमा रहा है. लेकिन मेरे लिए यह एक छोटी मक्कारी है क्योंकि बड़ी मक्कारी यह है कि इन्हीं गुणों को मुल्ला वर्ग "मर्द की कुदरती प्रवृति" की संज्ञा दे कर उसमें "सुधार" नहीं बल्कि उसको "आत्मसात कर" जीने के तरीके और रणनीति भी मुसलमान औरत को सिखाता है.

जहाँ वह एक तरफ़ रूढ़िवादि मुल्ला की ओर उँगली उठाती हैं, दूसरी ओर मुस्लिम मीडिया और मुसलमान समाज के "प्रोगेसिव एक्टिविस्ट" कहलाने वाले लोगों की बात भी करती हैं:

"घर" पर बीवी और दिल्ली में गर्लफ्रेंड (रखेल) और पावरफुल माईबाप के आगे बैचलर बने इस मुसलिम एक्टिविस्ट, उर्दू एक्टिविस्ट, जर्नलिस्ट, राइटर आदि आदि की बहस यूं तो अल्लामा इकबाल से सीधे मार्क्स-नीत्शे-देरीदा पर गिरती है लेकिन मुसलमान औरत के चरित्रहनन और इस्लाम के नाम पर पनपाए जा रहे घोर स्त्री विरोधी समाजी रुझान पर वह कभी मुंह खोल ही नहीं सकता. बल्कि वह तो इस पर बहस आमादा होगा कि मीडिया ने ही मुसलमान समाज को "स्टीरियोटाइप" कर डाला है. इस मुद्दे पर बहस, सेमीनार, वर्कशाप, सिम्पोज़ियम आदि संस्थागत खर्चे से करेगा ... मुसलमान और उर्दू तुष्टीकरण के इस आत्मकेंद्रित खेल में मुसलमान महिलाएं बहुत कम हैं. उनका रास्ता कठिन है और विश्वविद्यालय के उर्दू विभागों के इज़्ज़तदार रास्ते से ही वे अपनी मंज़िल तक पहुँच सकती हैं. वहां भी अपने (उर्दू विभाग के) मर्दों का शिकार हो कर वामपंथी शिक्षक गुट में सुरक्षा तलाशती घूमती हैं.

***
शीबा के शब्दों में क्रोध भी है, कड़वाहट भी. इसके उत्तर में क्या कहा जायेगा उसे समझने के लिए किसी विषेश कल्पना शक्ति की आवश्यकता नहीं. "वह तो छिछरी, चरित्रहीन, किस्म की एम्बीशय औरत हैं, आगे आना चाहती है, नयी तस्लीमा बनना चाहती है, यूँ ही उछाल रही हैं" जैसी बातें कही जायेंगी, विषेशकर उन एक्टिविस्ट किस्म के लोगों के द्वारा. कुछ शुभचिंतक कहेंगे, कि बात तो तुम्हारी ठीक है पर इस तरह घर की गंदगी को दूसरों के सामने बाज़ार में धोना गलत बात है, इसको हमें आपस में भीतर से बदलना की कोशिश करनी चाहिये.

दुखती रग पर हाथ रख कर, "राजा के बढ़िया वस्त्र नहीं, राजा तो नंगा है" की बात कहने वाले को ही दोषी समझा जाता है, उसे ही मारने डराने की धमकी देते हैं. ढ़क कर रखो, देख कर भी न देखो, यही नियम है शांति से जीने का.

शीबा अपने समाज की बात कर रहीं हैं, पर बाकी धर्मों वाले भी खेल तो वहीं खेलते हैं. बुर्का पहनाने की ज़िद नहीं करते लेकिन सिर ढ़को, गैर मर्द से बात न करो, जीन्स न पहनो, शर्म नारी का गहना है, पति परमेश्वर है और भारतीय सभ्यता और संस्कृति यही चाहती है, जैसी बातें भारत के किस समाज में नहीं करते? फर्क इतना है कि बाकी समाजों में शायद इस बारे में बोलने वाले कुछ अधिक हो रहे हैं, भारत के मुसलमान समाज में इस तरह की खुली बात कहने वाले कम हैं!

मंगलवार, दिसंबर 15, 2009

हिंदी, अवधी, मैथिली ... ओचितानो

नियती टेढ़े मेढ़े रास्तों से जाने कब किससे मिला देती है. ईमेल, ईंटरनेट आदि के आविष्कार से, नियती को टेढ़े मेढ़े बैलगाड़ी वाले रास्तों की जगह नये हाईवे मिल गये हैं .

कुर्बान अली से मेरी मुलाकात ईमेल के द्वारा हुई थी. स्वत्रंता संग्राम में नेता सुभाष चंद्र बोस के साथी, और बाद में समाजवादी पार्टी के डा. लोहिया जी के साथ जुड़े श्री अब्बास अली के पुत्र कुर्बान अली दिल्ली में पत्रकार हैं. कुर्बान की ईमेल के ही माध्यम से मेरी मुलाकात प्रोफेसर सत्यामित्र दुबे से हुई.

डा. राम मनोहर लोहिया पर लिखा प्रोफेसर दुबे का आलेख पढ़ा तो मैंने उन्हें ईमेल लिखा, उत्तर में उन्होंने बताया कि वह मेरे पिता को जानते थे, 1950 के दशक में वह मेरे पिता के साथ लखनऊ में समाजवादी पार्टी के अखबार "संघर्ष" के दफ्तर में साथ रहते थे. अरे, तभी तो मैं पैदा हुआ था, मैंने उन्हे लिखा. हाँ, मुझे याद है, उन्होंने उन दिनों के बारे में बताया. यह था नियती का खेल, पचपन सालों के बाद इस तरह हमें मिलवाना.

प्रफेसर दुबे के आलेख के साथ साथ, नवंबर 2009 के "इकोनोमिक और पोलिटकल वीकली" पर छपे डा. लोहिया के बारे में दो अन्य आलेख भी पढ़ने को मिले. यह आलेख लिखे हैं सुधँवा देशपाँडे तथा योगेंद्र यादव ने, और इनका विषय है डा. लोहिया का हिंदी को भारत राष्ट्रभाषा बनाने का आंदोलन. देशपाँडे जी का आलेख यादव जी के किसी आलेख के उत्तर में लिखा गया है, और यादव जी ने देशपाँडे की टिप्पणियों का उत्तर दिया है. इस बहस का विषय है भाषा के मामले में समाजवादी लोहिया की और वामपंथी विचारकों की सोचों में अंतर.

1950 तथा 1960 के दशकों में होने वाले "हिंदी लाओ" और "अँग्रेजी हटाओ" आंदलनों में अधिकतर सोच अँग्रेजी, हिंदी और दक्षिण भारतीय भाषाओं के बारे में थी. शायद हिंदी से अधिक मिलने वाली भाषाओं जैसे गुजराती, मराठी, बँगाली पर उतना विचार नहीं किया गया था? शायद इस बात पर अधिक विचार नहीं किया गया था कि "हिंदी लाने" का उत्तर भारत में बोली जाने वाली भाषाओं, अवधी, मैथिली, भोजपुरी, आदि पर क्या असर होगा? इस बहस में लोहिया पर आरोप लगाया गया है कि उनकी सोच में अन्य भारतीय भाषाओं के बारे में वही उपनिवेशवाद था जिसका आरोप अँग्रेज़ी पर लगाया जाता है, यानि नये बने देश भारत को एक बनाने के लिए अलग अलग भाषाओं की भिन्नता का बलिदान कर दिया जाये.

हिंदी या अंग्रेजी, कौन सी भाषा हो, इस विषय पर मैंने कुछ माह पूर्व ही, "अपनी भाषा" के शीर्षक से लिखी पोस्ट पर भी लिखा था.

***
इटली के विभिन्न प्राँतों में अलग अलग बोलियाँ बोली जाती हैं, और साथ ही एक राष्ट्रभाषा है इतालवी जो इटली के तोस्काना प्राँत की बोली थी और जिसे पूरे देश की भाषा बनाने का निर्णय लिया गया था. हम लोग पिछले दस सालों से बोलोनिया शहर में रहते हैं पर यहाँ की स्थानीय बोलोनियेज़ बोली मुझे समझ नहीं आती, हाँ अपनी पत्नी के उत्तरी इटली के प्राँत वेनेतो की बोली मुझे बोलनी तथा समझनी आती है.

बोलोनिया से बीस किलोमीटर दूर, ईमोला शहर है, जहाँ के लोग कहते हैं कि उनकी बोली बोलोनिया की बोली से भिन्न है. बोलोनिया में आने से पहले, दस साल तक हम लोग ईमोला भी रहे थे, पर मुझे उनकी ईमोला बोली भी समझ नहीं आती, और न ही मैं ईमोला तथा बोलोनिया की भाषा के अंतर को समझ पाता हूँ, मेरे कच्चे कानों को दोनों एक जैसी ही लगती हैं.

बोलोनिया और ईमोला, दोनो शहरों में अपनी स्थानीय बोलियों में किताबें छपती हैं, कवि सम्मेलन होते हैं, नाटक होते हैं, अपनी टीवी चेनल है जो स्थानीय भाषा में समाचार आदि देती है. लेकिन, विद्यालय या विश्वविद्यालय स्तर पर इन स्थानीय भाषाओं में कुछ नहीं पढ़ाया जाता, किसी सरकारी काम में इनका प्रयोग नहीं होता. अगर पिछले बीस सालों के बारे में सोचूँ तो मेरे विचार में इन स्थानीय भाषाओं को बोलने वाले कम होते जा रहे हैं, आज के कुछ बच्चे इन भाषाओं को समझते हैं क्योंकि उनके नाना‍ नानी या दादा दादी इन भाषाओं को घर में बोलते हैं, लेकिन वह स्वयं इन भाषाओं में बात नहीं करते. शायद गाँवों में रहने वाले बच्चे इन भाषओं को अधिक जानते हों? हाँ शहर में इन भाषाओं में बोलना अधिकाँश पिछड़ापन समझा जाता है.

एक तरफ़ से लोग चिंता कर रहे हैं कि इतालवी भाषा में अँग्रेज़ी के शब्द बढ़ते जा रहे हैं और दूसरी ओर, प्राथमिक विद्यालयों ने भी पहली कक्षा से ही अँग्रेज़ी पढ़ाने का निणर्य लिया है इसलिए नयी पीढ़ी के लोग अधिक अंग्रेज़ी जानते हैं और इंटरनेट के माध्यम से दुनिया से बात करने में सक्षम भी हैं. अखबारों में नौकरी के विज्ञापन अक्सर अँग्रेज़ी भाषा को जानने को महत्व देते हैं. साथ ही लोग घर में बोली जाने वाली बोली को कैसे बचायें, यह भी बहस चलती रहती है.

कुछ महीने पहले मेरा सम्पर्क श्री क्लाऊदियो सल्वान्यो (Claudio Salvagno) से हुआ. उन्होंने कहा कि वह ओचितानो (Ocitano) भाषा में कविता लिखते हैं और अपनी कुछ कविताओं को हिंदी में अनुवाद करके किताब में छपवाना चाहते हैं.

"ओचितानो", यह कौन सी भाषा है? मैंने तो इसका नाम भी नहीं सुना था. तब मालूम चला कि यह भाषा उत्तरी इटली और दक्षिण फ्राँस के पहाड़ी भाग में बोली जाती थी. क्लाउदियो का कहना था हिंदी, इतालवी और ओचितानो में छपी इस पुस्तिका की केवल 30 प्रतियाँ छापी जायेंगी, हर पुस्तिका में वहाँ के स्थानीय कलाकार की एक पेंटिंग होगी और हर पुस्तिका की कीमत होगी 250 यूरो, यानि करीब पंद्रह हज़ार रुपये, और इस पुस्तिका की बिक्री से प्राप्त धन को भारत में एक ग्रामीण स्त्री संश्क्तिकरण प्रोजेक्ट को दिया जायेगा.

मैं तुरंत मान गया. कविताओं का अनुवाद आसान नहीं था. जैसे कि क्लाउदियो ने मूल कविता में बर्फ के मुलायम फ़ोहों की तुलना एक इतालवी पकवान, आलुओं से बने मुलायम गोल पास्ता जिसे न्योक्की कहते हैं, से की थी, तो मैं कई दिन तक सोचता रहा था कि हिंदी में किस भारतीय पकवान से यह तुलना की जा सकती है, चावल के गोलों से, या गीले सत्तु से बनी गोलियों से? उनकी कविता में नाम इटली के पहाड़ों मे पायी जानी वाली चिड़िया का होता तो मुझे खोजना पड़ता कि यह चिड़िया क्या भारत में होती है और भारत में उसका क्या नाम होता है?

खैर, आखिरकार अनुवाद पूरा हुआ और मैंने हिंदी में लिखी फाईल क्लाउदियो को भेजी. पुस्तिका छपी तो उसे प्रस्तुत करने के लिए बड़ा समारोह आयोजित किया गया. पुस्तिका का शीर्षक है "शीत के चुम्बन" (Poton d'Unvern). हर पुस्तिका का आकार बहुत बड़ा था, कीमते बक्से में पैंटिंग के साथ बंद की गयी थी. खोल कर देखा तो दिल बैठ गया, छपाई में हिदीं की फाईल बदल गयी थी, और सभी मात्राएँ अपनी जगह से हट कर दूसरी जगह चली गयीं थीं, यानि "दिल" का "दलि", "बिना" का "बनिा".

इतनी मँहगी किताब, प्रसिद्ध कलाकारों की सुंदर कलाकृतियों से सजी, और सारी हिंदी गलत! सोचा कि क्लाउदियो को बताऊँ या नहीं, लेकिन अंत में निर्णय किया कि कुछ न कहना ही उचित होगा. क्लाउदियो के साथ हाथ में वह किताब लिये तस्वीर खिंचाते समय मुझे शर्म आ रही थी, लेकिन मैं कुछ नहीं बोला.


शायद एक दिन, कोई भारतीय मेहमान उस किताब को खोलेगा और कहेगा कि सारी हिंदी गलत लिखी गयी है, तो मेरा भाँडा फ़ूट जायेगा, लेकिन तब तक उन सब को गलतफहमी में छोड़ना ही मुझे उचित लगा.

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डा. लोहिया के हिंदी तथा अन्य भाषाओं से जुड़ी बहस से ओचितानो भाषा में लिखी कविताओं की बात में क्या सम्बंध है, यह तो मुझे भी स्पष्ट समझ नहीं आया, पर लगता है कि दोनो बातें किसी तरह से जुड़ी हुई हैं.

आप का क्या विचार है, हमारी छोटी बड़ी भाषाओं के भविष्य के बारे में?

रविवार, नवंबर 01, 2009

कौन सी भाषा?

कल यहाँ बोलोनिया के करीब ही एक शहर फैरारा में इतालवी पत्रिका इंतरनात्ज़ोनाले (Internazionale) ने साहित्यक समारोह का आयोजन किया था जिसमें एक गोष्ठी का विषय था, "हिंसा के समय में लेखन". इसमें भाग ले रहे थे पलिस्तीनी लेखिका सुआद अमेरी, श्री लंका के लेखक रोमेश गुनेसेकेरा, जिबूटी के लेखक अब्दुरहमान वाबेरी तथा उनसे बात कर रहीं थीं इतालवी लेखिका और पत्रकार मरिया नेदोत्तो.

सुआद, रोमेश तथा अब्दुरहमान, तीनो लेखकों ने अपने लेखन में अपने देशों में होने वाली हिँसा के बारे में लिखा है. मैंने तीनों में से किसी की भी कोई किताब नहीं पढ़ी और गोष्ठी में जाने से पहले उनके बारे में कुछ जानता भी नहीं था. पर उनकी बातों से तीनो का लिखने और सोचने का तरीका भिन्न लगा.

अब्दुरहमान अपनी पुस्तक "संयुक्त राष्ट्र अफ्रीका में" के लिए प्रसिद्ध हैं, जिसमें उल्टी दुनिया की कल्पना करते हैं जहाँ अफ्रीका अमीर और ताकतवर है और यूरोप गरीब तथा पिछड़ा, और इस तरह वह अफ्रीका के बारे में की जाने वाली हर बात को और अफ्रीकी गरीब प्रवासियों के साथ किये जाने वाले व्यवहार को उल्ट कर देखते हैं कि यही बात अगर यूरोप वासियों के लिए की जाये तो कैसी लगेगी? उनकी सोच का तरीका मुझे दिमागी लगा.


रोमेश अपनी पुस्तक "द रीफ़" के लिए बुक्कर पुररस्कार के लिए नामाँकित किये गये थे. उनकी बातों और बोलने के तरीके से लगा कि उनकी किताबों में सुंदर विवरण, पात्रों की भावनाएँ और उनके भीतर होने वाले मानसिक द्वंद मिलेंगे, और इस तरह उनकी सोच का तरीका मुझे अधिक भावनात्मक लगा.


अब्दुरहमान और रोमेश दोनो लेखकों जैसी भाषा में भी बात कर रहे थे, जिसमें अपने लेखन के बारे में जटिल विचारों की विवेचना थी.

इनके मुकाबले में सुआद का बातचीत का तरीका बिल्कुल सीधा साधा था, अपने रोज़ के अनुभवों से भरा. सुआद पेशे से आरकिटेक्ट भी हैं, उनकी कई किताबें जैसे "शेरोन और मेरी सास" अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बेस्ट सैलर रही हैं. उनके लेखन में विचार, विवेचना कम, सिर्फ हर दिन का जीता जागता अनुभव ही अधिक महत्वपूर्ण लगा.


मरिया ने तीनो से पूछा कि आप तीनो लोग हिंसा के बारे में लिखते हो लेकिन आप के लेखन में कोई हिंसा वाले शब्दों का प्रयोग नहीं होता, क्यों? तीनो का कहना था कि हिंसा के बारे में बात करने के लिए यह आवश्यक नहीं कि लेखक के लेखन में भी हिंसा हो, बल्कि लेखन में हिसंक शब्दों का प्रयोग करने से लेखन कम प्रभावशाली हो जाता है.

इस बात को ले कर देर तक सोच रहा हूँ. यह बात केवल लेखन पर नहीं सभी सृजनात्मक विधियों पर लागू होती है, जिनमें फ़िल्म और कला भी शामिल हैं. आजकल का लेखन तो जीवन को जैसा है वैसा ही बताने को सही नहीं मानता है, कि किसी बात को छुपाया नहीं जाना चाहिये? सेक्स के बारे में स्पष्ट लिखना क्या आज के लेखन के लिए आवश्यक नहीं, इसके बारे में दलील है कि यह विषय इतने झूठे पर्दों के पीछे छुपे हैं जिनसे इनका बाहर निकलना ज़रूरी हो गया है. यही बात भाषा के बारे में की जा रही है, जैसे कि गालियों का प्रयोग. अँग्रेजी, इतालवी साहित्य में तो यह बहुत पहले से होने लगा था लेकिन हिंदी साहित्य, सिनेमा और कला में यह बदलाव हो रहा है.

तो फ़िर हिंसा के बारे में तीनो लेखकों ने यह क्यों कहा कि हिंसा को हिसा के शब्दों के बिना कहा जाये तो अधिक प्रभावशाली होगा?

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