नियती टेढ़े मेढ़े रास्तों से जाने कब किससे मिला देती है. ईमेल, ईंटरनेट आदि के आविष्कार से, नियती को टेढ़े मेढ़े बैलगाड़ी वाले रास्तों की जगह नये हाईवे मिल गये हैं .
कुर्बान अली से मेरी मुलाकात ईमेल के द्वारा हुई थी. स्वत्रंता संग्राम में नेता सुभाष चंद्र बोस के साथी, और बाद में समाजवादी पार्टी के डा. लोहिया जी के साथ जुड़े श्री अब्बास अली के पुत्र कुर्बान अली दिल्ली में पत्रकार हैं. कुर्बान की ईमेल के ही माध्यम से मेरी मुलाकात प्रोफेसर सत्यामित्र दुबे से हुई.
डा. राम मनोहर लोहिया पर लिखा प्रोफेसर दुबे का आलेख पढ़ा तो मैंने उन्हें ईमेल लिखा, उत्तर में उन्होंने बताया कि वह मेरे पिता को जानते थे, 1950 के दशक में वह मेरे पिता के साथ लखनऊ में समाजवादी पार्टी के अखबार "संघर्ष" के दफ्तर में साथ रहते थे. अरे, तभी तो मैं पैदा हुआ था, मैंने उन्हे लिखा. हाँ, मुझे याद है, उन्होंने उन दिनों के बारे में बताया. यह था नियती का खेल, पचपन सालों के बाद इस तरह हमें मिलवाना.
प्रफेसर दुबे के आलेख के साथ साथ, नवंबर 2009 के "इकोनोमिक और पोलिटकल वीकली" पर छपे डा. लोहिया के बारे में दो अन्य आलेख भी पढ़ने को मिले. यह आलेख लिखे हैं सुधँवा देशपाँडे तथा योगेंद्र यादव ने, और इनका विषय है डा. लोहिया का हिंदी को भारत राष्ट्रभाषा बनाने का आंदोलन. देशपाँडे जी का आलेख यादव जी के किसी आलेख के उत्तर में लिखा गया है, और यादव जी ने देशपाँडे की टिप्पणियों का उत्तर दिया है. इस बहस का विषय है भाषा के मामले में समाजवादी लोहिया की और वामपंथी विचारकों की सोचों में अंतर.
1950 तथा 1960 के दशकों में होने वाले "हिंदी लाओ" और "अँग्रेजी हटाओ" आंदलनों में अधिकतर सोच अँग्रेजी, हिंदी और दक्षिण भारतीय भाषाओं के बारे में थी. शायद हिंदी से अधिक मिलने वाली भाषाओं जैसे गुजराती, मराठी, बँगाली पर उतना विचार नहीं किया गया था? शायद इस बात पर अधिक विचार नहीं किया गया था कि "हिंदी लाने" का उत्तर भारत में बोली जाने वाली भाषाओं, अवधी, मैथिली, भोजपुरी, आदि पर क्या असर होगा? इस बहस में लोहिया पर आरोप लगाया गया है कि उनकी सोच में अन्य भारतीय भाषाओं के बारे में वही उपनिवेशवाद था जिसका आरोप अँग्रेज़ी पर लगाया जाता है, यानि नये बने देश भारत को एक बनाने के लिए अलग अलग भाषाओं की भिन्नता का बलिदान कर दिया जाये.
हिंदी या अंग्रेजी, कौन सी भाषा हो, इस विषय पर मैंने कुछ माह पूर्व ही, "अपनी भाषा" के शीर्षक से लिखी पोस्ट पर भी लिखा था.
***
इटली के विभिन्न प्राँतों में अलग अलग बोलियाँ बोली जाती हैं, और साथ ही एक राष्ट्रभाषा है इतालवी जो इटली के तोस्काना प्राँत की बोली थी और जिसे पूरे देश की भाषा बनाने का निर्णय लिया गया था. हम लोग पिछले दस सालों से बोलोनिया शहर में रहते हैं पर यहाँ की स्थानीय बोलोनियेज़ बोली मुझे समझ नहीं आती, हाँ अपनी पत्नी के उत्तरी इटली के प्राँत वेनेतो की बोली मुझे बोलनी तथा समझनी आती है.
बोलोनिया से बीस किलोमीटर दूर, ईमोला शहर है, जहाँ के लोग कहते हैं कि उनकी बोली बोलोनिया की बोली से भिन्न है. बोलोनिया में आने से पहले, दस साल तक हम लोग ईमोला भी रहे थे, पर मुझे उनकी ईमोला बोली भी समझ नहीं आती, और न ही मैं ईमोला तथा बोलोनिया की भाषा के अंतर को समझ पाता हूँ, मेरे कच्चे कानों को दोनों एक जैसी ही लगती हैं.
बोलोनिया और ईमोला, दोनो शहरों में अपनी स्थानीय बोलियों में किताबें छपती हैं, कवि सम्मेलन होते हैं, नाटक होते हैं, अपनी टीवी चेनल है जो स्थानीय भाषा में समाचार आदि देती है. लेकिन, विद्यालय या विश्वविद्यालय स्तर पर इन स्थानीय भाषाओं में कुछ नहीं पढ़ाया जाता, किसी सरकारी काम में इनका प्रयोग नहीं होता. अगर पिछले बीस सालों के बारे में सोचूँ तो मेरे विचार में इन स्थानीय भाषाओं को बोलने वाले कम होते जा रहे हैं, आज के कुछ बच्चे इन भाषाओं को समझते हैं क्योंकि उनके नाना नानी या दादा दादी इन भाषाओं को घर में बोलते हैं, लेकिन वह स्वयं इन भाषाओं में बात नहीं करते. शायद गाँवों में रहने वाले बच्चे इन भाषओं को अधिक जानते हों? हाँ शहर में इन भाषाओं में बोलना अधिकाँश पिछड़ापन समझा जाता है.
एक तरफ़ से लोग चिंता कर रहे हैं कि इतालवी भाषा में अँग्रेज़ी के शब्द बढ़ते जा रहे हैं और दूसरी ओर, प्राथमिक विद्यालयों ने भी पहली कक्षा से ही अँग्रेज़ी पढ़ाने का निणर्य लिया है इसलिए नयी पीढ़ी के लोग अधिक अंग्रेज़ी जानते हैं और इंटरनेट के माध्यम से दुनिया से बात करने में सक्षम भी हैं. अखबारों में नौकरी के विज्ञापन अक्सर अँग्रेज़ी भाषा को जानने को महत्व देते हैं. साथ ही लोग घर में बोली जाने वाली बोली को कैसे बचायें, यह भी बहस चलती रहती है.
कुछ महीने पहले मेरा सम्पर्क श्री क्लाऊदियो सल्वान्यो (Claudio Salvagno) से हुआ. उन्होंने कहा कि वह ओचितानो (Ocitano) भाषा में कविता लिखते हैं और अपनी कुछ कविताओं को हिंदी में अनुवाद करके किताब में छपवाना चाहते हैं.
"ओचितानो", यह कौन सी भाषा है? मैंने तो इसका नाम भी नहीं सुना था. तब मालूम चला कि यह भाषा उत्तरी इटली और दक्षिण फ्राँस के पहाड़ी भाग में बोली जाती थी. क्लाउदियो का कहना था हिंदी, इतालवी और ओचितानो में छपी इस पुस्तिका की केवल 30 प्रतियाँ छापी जायेंगी, हर पुस्तिका में वहाँ के स्थानीय कलाकार की एक पेंटिंग होगी और हर पुस्तिका की कीमत होगी 250 यूरो, यानि करीब पंद्रह हज़ार रुपये, और इस पुस्तिका की बिक्री से प्राप्त धन को भारत में एक ग्रामीण स्त्री संश्क्तिकरण प्रोजेक्ट को दिया जायेगा.
मैं तुरंत मान गया. कविताओं का अनुवाद आसान नहीं था. जैसे कि क्लाउदियो ने मूल कविता में बर्फ के मुलायम फ़ोहों की तुलना एक इतालवी पकवान, आलुओं से बने मुलायम गोल पास्ता जिसे न्योक्की कहते हैं, से की थी, तो मैं कई दिन तक सोचता रहा था कि हिंदी में किस भारतीय पकवान से यह तुलना की जा सकती है, चावल के गोलों से, या गीले सत्तु से बनी गोलियों से? उनकी कविता में नाम इटली के पहाड़ों मे पायी जानी वाली चिड़िया का होता तो मुझे खोजना पड़ता कि यह चिड़िया क्या भारत में होती है और भारत में उसका क्या नाम होता है?
खैर, आखिरकार अनुवाद पूरा हुआ और मैंने हिंदी में लिखी फाईल क्लाउदियो को भेजी. पुस्तिका छपी तो उसे प्रस्तुत करने के लिए बड़ा समारोह आयोजित किया गया. पुस्तिका का शीर्षक है "शीत के चुम्बन" (Poton d'Unvern). हर पुस्तिका का आकार बहुत बड़ा था, कीमते बक्से में पैंटिंग के साथ बंद की गयी थी. खोल कर देखा तो दिल बैठ गया, छपाई में हिदीं की फाईल बदल गयी थी, और सभी मात्राएँ अपनी जगह से हट कर दूसरी जगह चली गयीं थीं, यानि "दिल" का "दलि", "बिना" का "बनिा".
इतनी मँहगी किताब, प्रसिद्ध कलाकारों की सुंदर कलाकृतियों से सजी, और सारी हिंदी गलत! सोचा कि क्लाउदियो को बताऊँ या नहीं, लेकिन अंत में निर्णय किया कि कुछ न कहना ही उचित होगा. क्लाउदियो के साथ हाथ में वह किताब लिये तस्वीर खिंचाते समय मुझे शर्म आ रही थी, लेकिन मैं कुछ नहीं बोला.
शायद एक दिन, कोई भारतीय मेहमान उस किताब को खोलेगा और कहेगा कि सारी हिंदी गलत लिखी गयी है, तो मेरा भाँडा फ़ूट जायेगा, लेकिन तब तक उन सब को गलतफहमी में छोड़ना ही मुझे उचित लगा.
***
डा. लोहिया के हिंदी तथा अन्य भाषाओं से जुड़ी बहस से ओचितानो भाषा में लिखी कविताओं की बात में क्या सम्बंध है, यह तो मुझे भी स्पष्ट समझ नहीं आया, पर लगता है कि दोनो बातें किसी तरह से जुड़ी हुई हैं.
आप का क्या विचार है, हमारी छोटी बड़ी भाषाओं के भविष्य के बारे में?
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अरे भाईसाहब, आपने प्रूफ नहीं पढ़ा था? वर्तनी की अशुद्धियों को कतई क्षम्य नहीं माना जा सकता। आप क्या सोचते हैं?
जवाब देंहटाएंपंकज जी, आप की टिप्पणी पढ़ कर मैंने दोबारा अपना लिखा हुआ पढ़ा. यह सच ही कि अक्सर लिख कर उसे ठीक से नहीं पढ़ता और छापने की जल्दवाजी रहती है. इसलिए सोचा कि अवश्य बहुत सी गलतियाँ होंगी, लेकिन दोबारा पढ़ने पर कुछ छोटी मोटी गलती तो दिखी, लेकिन ऐसा नहीं लगा कि उसे अक्षम्य अपराध कहा जाये. आप भी इसे दोबारा पढ़ कर ठीक से सभी गलतियाँ बताईये तो ठीक से सीखने का मौका मिले और भूल भी सुधार सकूँगा!
जवाब देंहटाएंसुनील जी ऐसा कम्प्यूटर पर अंधा भरोसा करने पर होता है . एक बार हमारे साथ भी ऐसा हुआ था . ’आधुनिकता की पुनर्व्याख्या’ पर समकालीन सृजन का अंक प्रकाशित होना था . एक अक्षर कुछ गड़बड़ आ रहा था तो एक कम्प्यूटर-प्रवीण(?)मित्र ने सलाह दी कि मैनुअली करने में बहुत समय लगेगा, वे एक कमांड से सब कुछ ठीक कर देंगे . और उन्होंने कर दिया . जब २५० पृष्ठ का अंक छप कर आया तो उस एक कमांड की वज़ह से एक छोटी समस्या से छुटकारा मिला पर पूरे अंक में हर जगह ’ध’ ’ज’ में परिवर्तित हो गया . कुछ नहीं हो सकता था सिवाय भूल सुधार की चिप्पी चिपकाने के . तब से सबक लिया कि चाहे देर लग जाए,पर काम देख-भाल कर करना है . जल्दी का काम शैतान का . और जिसे जांचा नहीं,समझो हुआ नहीं .
जवाब देंहटाएंतो अब तो आप भी आगे के लिये सतर्क हो जाएंगे .
पंकज जी, अब समझा आप की टिप्पणी, इस आलेख की नहीं, किताब में हुई वर्तनी की गलतियों की बात कर रही है! :-)
जवाब देंहटाएंचूँकि मुझे किताब के प्रूफ नहीं दिखाये गये, और मैं क्लाउदियो के शहर से बहुत दूर रहता हूँ इसलिए साथ काम कर पाना संभव नहीं था, तभी यह गलती हुई.
कल से लिखने के बाद से सोच रहा हूँ कि मुझे इस बात को क्लाउदियो को बता देना चाहिये.
चलिए आपको भान हुआ कि मैंने टिप्पणी किताब को ही लेकर की थी. खैर...ग़लती की बात आपको निश्चित रूप से क्लाउदियो को बतानी चाहिए. ताकि उन्हें पता तो चले. गलत और अशुद्ध स्पेलिंग को अंग्रेजी सहित अन्य यूरोपीय भाषाओं में भी ठीक नहीं माना जाता. सोचता हूं एक बार इटली की यात्रा करूं.
जवाब देंहटाएं-pkjppster@gmail.com
ग़लती की बात आपको निश्चित रूप से क्लाउदियो को बतानी चाहिए'वर्तनी की अशुद्धियों को कतई क्षम्य नहीं माना जा सकता। आप क्या सोचते हैं?? Firstly I am sorry that I can not type in HINDI. So I am writing my views in ROMAN.
जवाब देंहटाएंSrimaan aap ne Mr. Claodio ke sath biswasghat hi nahi kara balki sare bhartiyo ke liye ek sharmnaak
adhaye bhi es pustak ke sath jod diya hai. Kay aapne shocha ki Mr Claodio ne kitne biswas ke sath upko
pustak ka anuvad karne ko diya hoga ? Aur aapne kya kara ??
Meri vichardhara me esse pahele apki aur kirkiri ho apko Mr Claodio ko sahi baten bata kar binarmta ke sath mafi magte hue on shabi ko pustak ki shudh bhasha bali pratilipi deni chahiye.
Dusri taraf sach ko batane ke liye aap sadhuvad ke haqdar hai.
Ati adar ke sath.
S. K. Rastogi.
Mozambique.
टिप्पणियाँ पढ़ कर मुझे संदेह हो रहा है कि शायद मैंने इस बात को स्पष्ट नहीं लिखा. अनुवाद करने तथा लिखने में तो मेरी कोई गलती नहीं थी. अनुवादित कविताओं को मैंने उन्हें पीडीएफ तथा आरटीएफ की तरह की फाईल में भेजा, उनमें भी कहीं कोई गलती नहीं. इसका अर्थ है कि छपाई की गलती बाद में आयी, जब छापनेवाले ने मेरी फाईल को छापने के प्रोग्राम में डाला. जब किताब छपती है तो उसके प्रूफ लेखक को भेजे जाते हैं ताकि गलतियाँ ठीक की जा सकें. उन्होंने शायद प्रूफ बनाना या मुझे दिखाने की आवश्यकता नहीं समझी. मेरी गलती यही हो सकती है कि मैंने उनसे प्रूफ देखने की बात क्यों नहीं की?
जवाब देंहटाएंयह सब बात ईमेल के द्वारा हुई थी क्योंकि जहाँ क्लाउदियो रहते हैं वह मेरे शहर से करीब छः सौ किलोमीटर दूर है. छपी किताब के उद्घाटन समारोह में गलती के बारे में न बताने की मेरी कमज़ोरी है, लेकिन यह मानना कि मैंने जानबूझ कर भारत का या हिंदी का, नाम डुबो दिया हो, कुछ अधिक नहीं लगता क्या आप को?
मैं तो मानता हूँ कि आपको अवश्य बताना चाहिए था। लोहिया से इस लेख का संबंध कुछ कुछ तो लग रहा है। लेकिन स्पष्ट नहीं।
जवाब देंहटाएंआखिरकार, कुछ महीनों के बाद क्लाउदियो को मैंने हिन्दी की गलतियों के बारे में बताया था :)
जवाब देंहटाएं