शुक्रवार, सितंबर 02, 2005

भाई की खोज

"२६ सितंबर, १९४४. चौदह साल का था मैं, वहाँ, उस कोने पर खड़ा था. हर पेड़ के नीचे पर एक लाश झूल रही थी", उनकी आवाज में कोई भावना नहीं झलकती. वह यह कहानी जाने कितनी बार पहले भी सुना चुके होंगे. यहाँ आने वाले पर्यटकों को. हम लोग उत्तरी इटली में एक छोटे से शहर "बसानो देल ग्रापा" में थे. शहर के प्रमुख पियात्सा (चौबारे) से घड़ी के काँटे जैसी कई सड़कें शुरु होती हैं और इस चांदाकार सड़क पर समाप्त होती हैं. लगता है जैसे किसी सिनेमा हाल की बालकनी पर खड़े हों. एक तरफ गोल घूमती सड़क और शहर की प्राचीन दीवारें और दूसरी ओर नीचे एक हरी भरी घाटी और फिर ऊँचे पहाड़. करीब ही बहती है ब्रेंता नदी जिस पर बना प्राचीन पुल द्वितीय महायुद्ध में पूरा नष्ट हो गया था पर जिसे दोबारा से अपने पुराने रुप में बनाया गया है.

जहाँ सड़क खत्म होती है और वादी शुरु होती है, वँही कतार में लगे हैं वे ३१ पेड़ जिनकी बात हमारे गाइड कर रहे हैं. हर पेड़ एक छतरी की तरह तराशा लगता है. हर पेड़ पर लगा है उस पर फाँसी चढ़ने वाले का नाम, किसी किसी की फोटो भी है. इतनी सुंदर जगह पर मौत की बात कुछ अजीब सी लगती है. "आप जानते थे, उनमें से किसी को ?", मैंने पूछा.

"जानता था ? हमारे यँही के तो लड़के थे सब. सबको जानता था", हमारे गाइड की आवाज भर्रा आयी, "बच्चे थे वे भी मेरे जैसे, सोचते थे कि जर्मन सिपाहियों और फासिस्टों से अपना देश आजाद करवाना है. जर्मन तब हारने लगे थे, फासिस्टों को डर लगने लगा था."

कुछ देर चुप रह कर वे फिर बोले, "हमारे घर के पास रहती थी एक औरत. उसने सुना कि फाँसी लगने वालों में शायद उसका भाई जिरोलामों भी है, साइकल पर आयी थी और हर पेड़ के नीचे लटकी लाश के चेहरे देख रही थी. था एक जिरोलामो फाँसी चढ़ने वालों में से, पर वह उसका भाई नहीं था. बहुत सी बातें भूल गया हूँ पर यह बात नहीं भुला पाया, उसका हर पेड़ पर लटकी लाश में अपना भाई ढ़ूंढ़ना."

बासानो देल ग्रापा के शहीद मार्ग के पेड़ और ब्रेंता नदी पर पुल



गुरुवार, सितंबर 01, 2005

यादों के रंग

मुझे काम से उत्तरी इटली जाना था, पत्नी से साथ चलने को कहा, काम के बहाने सैर हो जायेगी. वह बोली कि अगर दो दिन की छुट्टी मिल जाये तो हम लोग स्कियो भी जा सकते हैं. स्कियो, यानि हमारी ससुराल. बहुत दिन हो गये थे ससुराल गये भी तो हमने भी तुरंत हाँ कर दी. वहाँ हमारी बड़ी साली साहिबा इन दिनों घर में अकेली हैं तो प्लेन यह बना कि काम समाप्त होने पर स्कियो से उनको ले कर, आसपास के छोटे छोटे शहरों में दो दिन घूमा जाये.

छोटा सा शहर है स्कियो, उत्तरी इटली में एल्पस के पहाड़ों से घिरा हुआ. इन दिनों में वहाँ मौसम भी अच्छा है, दिन में सुहावना और रात को थोड़ी सी सर्दी. पहाड़ों के अलावा, वहाँ बहुत सी झीलें भी हैं. दो दिन कैसे बीत गये पता ही नहीं चला. बहुत से छोटे शहर देखे जहाँ पहले कभी नहीं गया था या पंद्रह बीस साल पहले गया था.

सारे रास्ते में मेरी पत्नी अपनी बड़ी बहन से बातें करती रहीं. "वो याद है जब हम लोग उस पगडंदी पर साइकल ले कर घूमने गये थे ... वहाँ से केमिस्ट की दुकान से दवाई लेने गये थे ... वहाँ आइसक्रीम कितनी अच्छी थी ... वहाँ की जो मालकिन थी, जिसे बाद में केंसर हो गया था..." उन्ही शहरों में उन्होंने शादी से पहले बहुत बार छुट्टियाँ बितायीं थीं और उनसे जुड़ी हज़ार यादें थीं. हर जगह पहुँच कर सारी कहानी सुननी पड़ती, किसका कहाँ पर क्या हुआ था. शुरु शुरू में तो ध्यान से सुना पर फिर थोड़ी देर में थक गया. मन में सोच रहा था कि ऊपर से जाने हम कितने भिन्न हों, पर अंदर से सारी दुनिया में सभी लोग एक सी होते हैं. भाई-बहन जब बहुत दिनों बाद मिलते हैं और पुरानी जगहों को देखते हैं तो हर जगह एक जैसी ही बातें करते हैं. पुराने मित्रों की, पुराने गानों की, किसकी शादी हुई, कौन मरा, कौन चला गया.

आज की तस्वीरें इसी यात्रा से.

पिछले चिट्ठे के बारे में जिसमे पुराने आने-टकों की बात की थी, स्वामी जी और अतुल ने टिप्पड़ियों में मेरी गलतियों को सुधारा है और अन्य जानकारी भी दी है, दोनो को धन्यवाद.

विचेंज़ा का घंटाघर

लावारोने की झील

सोमवार, अगस्त 29, 2005

एक रुपइया बारह आना

कल कार में "चलती का नाम गाड़ी" फिल्म का यह गीत सुन कर मन में उन दिनों की याद आयी जब पैसों के नाम पाई, धेला, टका और आने होते थे. आज भी कितने पुराने तरीके हैं बोलने के जिनमें वो दिन अभी भी जिंदा हैं. "मैं तुम्हारी पाई पाई चुका दूंगा" या फिर "दो टके का आदमी" और "बात तो सोलह आने सच है", जैसे वाक्य शायद अब लोग कम ही समझते होंगे ?

क्या कभी कभी कोई पूछता भी है कि इस तरह के शब्द कहां से आये ? पाई, धेला और टका में से कौन सा बड़ा है और कौन सा छोटा, मुझे नहीं याद. मेरे ख्याल से १९६० के आसपास भारतीय प्रणाली बदल कर रुपये और पैसे वाली बन गयी थी. मुझे कथ्थई रंग का सिक्का जिसके बीच में छेद था और एक आने के चकोर सिक्के की थोड़ी सी याद है.

एक आना यानि ६ पैसे, चवन्नी यानि चार आने, अठन्नी यानि आठ आने और सोलह आने का रुपया जिसमें ९६ पैसे होते थे. शायद अब ये शब्द केवल पुराने फिल्मी गानो में ही रह गये हैं, जैसे एक रुपइया बारह आना, आमदन्नी अठन्नी खर्चा रुपइया. हां मन में एक शक सा है. लगता है कि पाई, धेला, टका पंजाब के या उत्तर भारत के शब्द हैं. इन्हें दक्षिण भारत में क्या कहते थे ?


आज की तस्वीरे एक बार फिर फैरारा शहर से, जिनका विषय है मूर्तियां.


रविवार, अगस्त 28, 2005

छोटी सी पुड़िया

कल रात को टीवी पर समाचार में बताया कि स्विटज़रलैंड में एक नये शोध कार्य ने साबित कर दिया है कि होम्योपैथी सिर्फ धोखा है. इस शोध कार्य के अनुसार, लोगों को अगर होम्योपैथी की गोलियों के बदले सिर्फ चीनी की गोलियां दी जायें तो भी उतना ही असर होता है, यानि कि होम्योपैथी में दवाई का असर नहीं केवल मन के विश्वास का असर है.

इस समाचार से एक पुरानी बात याद आ गयी. करीब बीस बरस पहले एक बार मेरे कंधे में दर्द हुआ. तब डाक्टरी की पढ़ाई पूरी कर चुका था, तो अपने लिए दवाई खुद ही चुनी. चार पांच दिन तक ऐंटी इन्फलेमेटरी दवा की गोलियां खा कर पेट में दर्द होने लगा था पर कंधा का दर्द कम नहीं हुआ. फूफा तब रिटायर हो गये थे और होम्योपैथी की दवा देते थे, मुझसे सवाल पूछने लगे. पूछताछ कर के उन्होंने मुझे तीन पुड़िया बना दी. पहली पुड़िया मैंने वहीं खायी और उस दिन घर वापस आते आते, दर्द बिल्कुल गुम हो गया. मैंने बाकी की दोनो पुड़ियां सम्भाल कर पर्स में रख लीं. वे पुड़ियां मेरे साथ इटली आयीं. करीब सात आठ साल पहले, एक बार फिर कंधे में दर्द हुआ, तो उनमें से एक पुड़िया मैंने खा ली और दर्द तुरंत ठीक हो गया. आखिरी पुड़िया मैंने खो दी.

सोचता हूं कि हमारा सारा जीवन ही एक विश्वास प्रणाली के धरातल पर बनता है. आज की आधुनिक चिकित्सा विश्वास प्रणाली शरीर के विभिन्न हिस्सों की बनावट और काम के विश्वास के धरातल पर टिकी है. सभी इलाज और शोध कार्य भी इसी विश्वास के ऊपर टिके हैं.

पर मैं सोचता हूँ कि इस दुनिया में सभी चीज़ें, धरती, पानी आग, हवा, मानव, पशु, पंछी, पत्थर, पेड़, सब कुछ अंत में देखा जाये तो एक जैसे अणुओं का बना है, जिसके अंदर अल्फा, बीटा, गामा इत्यादि कण हैं. यही अणु दवा में भी हैं, शरीर में भी, हवा में भी, जीवित में भी, मरे हुए में भी. हम शरीर के भीतर जा कर माइक्रोस्कोप से देख कर, यंत्रों से माप कर, सोचते हैं हमने सब समझ लिया पर डीएनए में भी, जीनस में भी यही अणु हैं. जीवन ही एक रहस्य है जो अणुओं के बीच साँस भर देता है.

क्या मालूम कल एक और नयी विश्वास प्रणाली आ जाये और नयी दवाईयाँ बन जायें. तब तक मैं अपनी ब्लड प्रैशर की दवा तो लेता रहूँगा और जरुरत पड़े तो होम्योपैथी भी ले सकता हूँ, कोई भी शोध कार्य कुछ भी कहे, यही मेरे विश्वास हैं.

कुछ और तस्वीरें फैरारा के बस्कर फैस्टीवल की.

शनिवार, अगस्त 27, 2005

सड़क के कलाकार

हर शहर में आप को सड़क के कलाकार यानि बस्कर मिल जायेंगे. रेलगाड़ी में या मेट्रो में या फिर सड़क के किनारे, अपनी कला से आप का मन जीत कर कुछ पैसे कमाने के लिए. यूरोप में कई जवान लड़के लड़कियाँ, यात्रा के दौरान अगर पैसे कम पड़ जायें तो गिटार बजा कर या गाना गा कर भी पैसे कमाने की कोशिश कर सकते हैं.

शायद कुछ लोग सोचते हों कि ये लोग भिखारी हैं कलाकार नहीं, पर मुझे कई बार यह सड़क के कलाकार बहुत अच्छे लगते हैं. लंदन में पिकादेली सर्कस के मेट्रो स्टेशन पर एसकेलेटर करीब सौ मीटर तक नीचे जाते हैं, और जब आप नीचे जा रहे हों तब नीचे खड़े हो कर वाद्य बजाने वालों की आवाज़ सुनायी देती है जो मुझे बहुत प्रिय है. एक बार वहाँ रावेल के "बोलेरो" को सुना था, जिसे आज तक नहीं भुला पाया.

बोलोनिया से करीब ५० किलोमीटर दूर एक शहर है फैरारा, जहाँ हर साल एक बस्कर फैस्टीवल लगता है. दूर दूर से सड़क के कलाकार यहाँ इस फैस्टीवल में अपनी कला दिखाने आते हैं. कल शाम हम भी इस फैस्टीवल को देखने गये. फैरारा वैसे भी, यानि बिना फैस्टीवल के भी देखने लायक है. शहर के बीचो बीच बाहरँवीं शताब्दी का किला है, कस्तैलो एसतेन्से और शहर के इस सारे भाग को युनेस्को ने विश्व सास्कृतिक धरोहर घोषित किया है. पर बस्कर फैस्टीवल की वजह से और भी दर्शनीय हो गया था.

कहीं अजीब सी लम्बी पाइप जैसा वाद्य बजाने वाला, कहीं ओरकेस्ट्रा, कहीं नाचने वाले, कहीं जादू वाले, स्पेन के फ्लामेंको नृत्य करने वाली लड़कियाँ, फ्राँस की गाना गाने वाली माँ बेटी, मूर्ती की तरह सजधज और बन कर खड़े लोग, ब्राज़ील के नाचने वाले. एक सुंदर सी लड़की आँखों पर मुखोटा लगाये बैठी थी, साथ में बोर्ड पर लिखा था "आप की आखौं में देख कर आप के बारे में बतायेगी" और उसके सामने आँखों मे झँकवाने के लिए लम्बी लाइन लगी थी.

हम लोग तो घूम घूम कर थक गये, पर सभी कलाकारों को देख पाना असंभव था. हर दस मीटर पर एक नया कलाकार, चार घंटे में जाने कितने देखे, पर मजा आ गया.

आज की तस्वीरें फैरारा के बस्कर फैस्टीवल से.

शुक्रवार, अगस्त 26, 2005

चाय, काफी या फिर ..

पिछली बार मुम्बई गया तो भाभी ने खाने के समय पूछा "तो साथ क्या लोगे पीने के लिए ? वाइन चाहिये ?" "नहीं भाभी, पानी ही ठीक है", मैंने कहा क्योंकि गोलकुंडा वाइन एक बार चखी थी पर खास नहीं भायी थी.

"वहाँ तो सुना है वाइन बड़े डिब्बे में है, तुम्हारी रसोई में! बस उसका नल खोलो और वाइन भर लो गिलास में." भाभी ने ऐसे कहा मानो अब मेरे शराबी हो कर मरने में कुछ अधिक देर नहीं. यह सब खुराफात भतीजी की थी जो यूरोप में छुट्टियाँ मनाने आयी थी और हमारे साथ कुछ दिन रुकी थी. उसी ने यह समाचार भाभी को दिया था कि चाचा की रसोई में वाइन का ढ़ोल रखा है. क्या कहता कि भाभी वह तो सिर्फ इस लिए क्योंकि ढ़ोल में लेने से बहुत सस्ती पड़ती है ?

भाभी को क्या कहता कि लेटिन सभ्यता में वाइन का क्या महत्व है ? बिना वाइन के भी कोई खाना होता है क्या ? यहाँ तो डाक्टर भी कहते हैं कि आधा गिलास वाइन खाने के साथ खाने से दिल की बिमारी कम होती है और लाल वाइन में तो लोहे और अन्य मिनरल पदार्थ हैं जिनसे खून बनता है. यानि कि मजा का मजा और साथ में मुफ्त स्वास्थ्य भी.

मेरी एक मित्र उत्तरी इटली में पहाड़ों में एक स्कूल में पढ़ाती है, कहती है कि कुछ बच्चे सुबह सुबह वाइन में रोटी भिगो कर खाते हैं, फिर कक्षा में आ कर सोये सोये रहते हैं. मैंने पत्नी से पूछा तो उसने भी स्वीकारा कि गँवार परिवारों में अभी भी ऐसा हो सकता है पर अब यह प्रथा बहुत कम हो गयी है, पहले बहुत प्रचलित थी.

यहाँ सब बच्चे चाय पीते हैं. चाय तो प्राकृतिक पदार्थ है, कहते हैं. जब छोटा था तो कभी चाय पीने को नहीं मिलती थी, सब कहते थे कि वह तो बड़ों के पीने की चीज़ है. और चाय पीने से रंग काला पड़ जाता है, यानि जितनी काली चाय, उतना ही रंग काला, इसलिए खूब दूध डालिये उसमें. यहाँ की चाय अपनी भारतीय चाय से बहुत हल्की है, जिसे नींबू के रस के साथ ही पीते हैं, अगर उसमें दूध डालेंगे तो बिल्कुल अच्छी नहीं लगती. यह चाय यहाँ अलग अलग फलों के रसों के साथ कई स्वादों में भी मिलती है और छोटे छोटे बच्चे इसे निप्पल वाली बोतल से भी पीते हैं. यहाँ चाय बच्चों की और वाइन बड़ों के पीने की चीज़ है, छोटे बच्चे अगर बहुत जिद करें तो उन्हें एक चुस्की मिल सकती है.

यहाँ की काफी भी बिल्कुल अलग है. छोटे से बित्ती भर प्याले में जरा सी एसप्रेसो काफी. बार में काफी पीने जायेंगे तो पहले एक छोटे गिलास में पानी देंगे ताकि आप काफी का सही स्वाद लेने के लिए पहले अपने मुख को पानी से साफ करलें. प्याले में काफी इतनी कि बस जीभ भीगती है, पर स्वाद तेज होता है. पहले सोवता था कि इतनी गाढ़ी काफी यानि कि शुद्ध जहर, पर बाद में कही पढ़ा इस काफी में केवल स्वाद ही तेज होता है, केफीन जैसे अन्य पदार्थ आम काफी से कम होते हैं.

जब भी कोई भारत से आता है तो न तो यहाँ की चाय को पसंद करता है और न ही काफी को. और इतालवी लोग जब बाहर जाते हैं तो अपनी काफी को बहुत याद करते हैं. अमरीका में जैसे एक लिटर या आधा लिटर के गिलास में काफी देख कर अपना सिर पीट लेते हैं. मेरी एक इतालवी डाक्टर मित्र पिछले वर्ष हैदराबाद गयी वहाँ के अस्पताल में छह महीने के लिए काम सीखने के लिए. मेरा तभी हैदराबाद जाने का प्रोग्राम बना तो उसके घर टेलीफोन किया, यह पूछने के लिए कि उसे किसी चीज की आवश्यकता हो तो साथ ले जाऊँगा. उन्होंने कहा, "मोका (इतालवी एसप्रेसो बनाने वाली मशीन) के लिए दो तीन किलो काफी ले जाओ, वह बेचारी पानी जैसी काफी पी कर परेशान है".

अनूप जी तारीफ के साथ साथ चिट्ठा विश्व के पन्ने पर मेरे कल के चिट्ठे का उल्लेख भी किया है, धन्यवाद. कल जितेंद्र से "गूगल टाक" के द्वारा भी संपर्क हुआ, बस बात नहीं कर पाया क्योंकि यहाँ बहुत सुबह थी और मुझे डर था कि अगर बातें करने लगूँ तो करीब सोई पत्नी की नींद खराब हो जायेगी.

आज बलोगर होम के पन्ने में कुछ खराबी लग रही है, तस्वीरें अपलोड नहीं हो सकती हैं इसलिए आज कोई तस्वीर नहीं है.

गुरुवार, अगस्त 25, 2005

स्त्री, पुरुष या विकलांग ?

यह कैसा सवाल हुआ, विकलांग लोग क्या स्त्री या पुरुष नहीं होते?
मेरी एक मित्र है, अफ्रीका में डाक्टर है. वहीं एक कार दुर्घटना में उसका दाहिना हाथ और बाजू चले गये. उसने मुझे कहा, "जब मैंने बाजू खोयी तभी अपना स्त्री होना भी खो दिया. लोगों के लिए मैं अब औरत नहीं केवल विकलांग हूँ."
उसकी इसी बात से, मैंने अपने शौध का विषय चुना कि विगलांग होने का सेक्सुएल्टी यानि यौन जीवन पर क्या असर पड़ता है. इस शोध के लिए यौन जीवन का अर्थ केवल मेथुन क्रिया नहीं थी बल्कि दो व्यक्तियों के बीच आपस में जो भी सम्बंध, यानि स्पर्श, प्यार, दोस्ती, बातें, फैंटेसी, आदि सब कुछ था.
शौध के बारे में मैंने ई‍ग्रुप्स में विज्ञापन दिये और बालिग विकलांग व्यक्तियों को शोध में भाग लेने का निमंत्रण दिया. प्रारम्भ में 32 लोगों ने शौध में भाग लेने में दिलचस्पी दिखायी. अंत में करीब 20 लोगों ने भाग लिया. हर एक व्यक्ति से ईमेल के द्वारा बात होती थी. हर एक से बात कम से कम तीन चार महीने चली, किसी किसी से तो और भी लम्बे चली. सवाल मैं ही नहीं करता था वह भी मुझ से सवाल कर सकते थे.
सेक्स का हमारे जीवन में क्या अर्थ है? सोचता था कि अपने बारे में सब कुछ जानता हूँ पर दूसरों से बात करके ही मालूम पड़ा कि कितने अंधेरे कमरे छिपे हैं अपने मन के भीतर, जिनको मानना नहीं चाहता था क्यों कि वे मेरे अपने अस्तित्व की छवि से मेल नहीं खाते थे. आसान नहीं था पर मैंने कोशिश की कि अपनी हर बात को बिना किसी शर्म या झिझक से औरों से कह सकूं. शायद इसी लिए लगा कि शौध में भाग लेने वाले लोगों ने भी ईमानदारी से अपनी बातें कहीं.
कई बार शौध की आयी ईमेल पढ़ कर रोना आ जाता. कभी कभी पूरा संदेश नहीं पढ़ पाता था, क्मप्यूटर बंद कर के बाहर बाग में चला जाता. विश्वास नहीं होता कि लोग इतने अमानुष भी हो सकते हैं. शौध के एक वर्ष में उनमें से कई लोगों के साथ मित्रता के ऐसे बंधन बन गये जो आज भी बने हुए हैं. शौध के दौरान हुई बातों का एक छोटा सा भाग ही शौध की थीसिस में प्रयोग किया. लोगों ने अपनी भावनाओं और अनुभवों में जिस तरह मुझे देखने का मौका दिया था, उसे थीसिस में लिखना मुझे ठीक नहीं लगा. इस अनुभव ने मुझे हमेशा के लिए बदल दिया.
शौध का निष्कर्ष था कि विकलांग लोगों के जीवन रुकावटों से घिरे हुए हैं. ये रुकावटें भौतिक भी हैं जैसे सीड़ियां, लिफ्ट न होना, इत्यादि, और विचारों की भी हैं. ये समाज के विचारों की रुकावटें ही सबसे अधिक जटिल हैं, जिनको पार करना आसान नहीं.
यौन संपर्कों और यौन जीवन के बारे में बात करना आसान नहीं और विकलागंता के बारे में भी बात करना आसान नहीं है. जब दोनो बाते मिल जाती हैं, तो उसके बारे में तो कोई भी बात नहीं हो पाती.
मेरी थीसिस इस अनुभव के छोटे से भाग को अध्यापन की गम्भीर भाषा में घुमा फिरा कर व्यक्त करती है, पर अगर आप इसे पढ़ना चाहें तो यहाँ पढ़ सकते हैं.
***
आज की तस्वीरें हैं दक्षिण इटली के शहर ओस्तूनी से, इस शहर को श्वेत शहर भी कहते हैं क्योंकि यहां के सब घर सफेद रंग के हैं.


बुधवार, अगस्त 24, 2005

हिंदी में लिखना

दिल्ली से एक मित्र कुछ किताबें ले आये हैं जिनमे मुणाल पांडे की किताब "परिधि पर स्त्री" (राधाकृष्ण प्रकाशन, १९९८) भी है. मुणाल पांडे जी सुप्रसिद्ध लेखिका दिवंगत शिवानी जी की पुत्री हैं और अंग्रेजी में एम.ए. हैं पर अधिकतर हिंदी में ही लिखती हैं. उनके बहुत से कहानी संग्रह, लेख संग्रह तथा उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं.

इस पुस्तक में मृणाल जी ने नारीवाद के विभिन्न पहलुओं के बारे में लिखा है. पढ़ते पढ़ते मैं कई बार रुक कर सोचने के लिए मजबूर हो जाता हूँ. उनकी कलम में तलवार की धार छिपी है जो ऊपर से बिठाये सुंदर मुखौटे को चीर कर अंदर छुपे धाव को नंगा कर के दिखाती है.

देश के विश्वविद्यालयों में स्त्री समस्याओं पर हो रहे शोध कार्य पर वह लिखती हैं, "यह हमारे देश के वर्तमान अकादमिक क्षेत्र की एक केंद्रीय विडंबना है कि गरीबी, असमानता तथा स्त्रियों की विषम स्थिति पर बड़े बड़े विद्वानों द्वारा जो भी बड़िया काम आज हो रहा है, उसके बुनियादी ब्यौरे तो वे अपने शोध सहायकों की मार्फत भारतीय भाषाओं में संचित करा रहे हैं, पर उनका अंतिम संकलन, माप जोख तथा विश्लेषण वे अंग्रेजी में ही प्रस्तुत करते हैं और उन्हें भी वे प्रिंसटन, हारवर्ड, आक्सफोर् अथवा येल जैसे विख्यात पश्चिमी विश्वविद्यालयों के अकादमिक पत्रों में छपवाने को ही वरीयता देते हैं जबकि उनके पैने विश्लेषणों और तर्कसंगत वैज्ञानिक सुझावों के मार्ग के मार्गदर्शन की सर्वाधिक दरकार भारत के उन समाजसेवी संगठनों को है जो इन ऊँचे शोध केंद्रों और अंग्रेजी भाषा से बहुत दूर चुपचाप अपना काम कर रहे हैं."

सच बात तो यह है कि अगर आप अंग्रेजी में नहीं लिखते तो दुनिया में आप का कोई अस्तित्व ही नहीं है. कितने लोगों ने सुना है मुणाल पांडे का नाम ? मुक्तिबोध जैसे कवि का नाम, भारत के बाहर की बात तो छोड़िये, अपने भारत में ही कितने लोग जानते हैं ?

अरुंधति राय कुछ लिखती हैं तो १० दिन के अंदर ही मैं उस लेख को इतालवी भाषा में पढ़ सकता हूँ. मृणाल जी का लिखा कभी कुछ नहीं आया इतालवी भाषा में. इतालवी गूगल से ढ़ूंढ़िये तो १० लाख पन्ने मिल जायेंगे अरुंधति राय के बारे में. मेरे नाम से ढ़ूंढ़िये तो भी कम से कम दो हजार पन्ने मिल जायेंगे. २० साल से लिख रहीं हैं मृणाल जी, उनके नाम से इतालवी गूगल से खोजो तो उत्तर आता है कि इस नाम से कुछ नहीं है.

मेरे कहने का यह अर्थ नहीं कि अरुंधति राय की प्रसिद्धि गलत है, वे बहुत बढ़िया लिखती हैं और मैं उनका प्रशंसक हूँ. न ही यह कहना चाहता हूँ कि गूगल की खोज में आना ही लेखक या पत्रकार के लिए सफलता का अकेला मापदंड है. मैं तो सिर्फ इतना कहना चाहता हूँ कि आज भी हिंदी चुनने वालों के लिए दुनिया में कोई जगह नहीं, अपने भारत में भी नहीं, लोग उन्हें दूसरी श्रेणी का समझते हैं.

ये दो तस्वीरें एक भारत यात्रा से.

मंगलवार, अगस्त 23, 2005

कोई लौटा दे मेरे ...?

कल जितेंद्र जी का लम्बा चिट्ठा, उनकी पुरानी रेडियो और टीवी से जुड़ी यादों के बारे में पढ़ा तो तुरंत उत्साह से टिप्पड़ीं लिखी. टिप्पड़ीं भेजने का बटन दबाया तो एक अजीब सा लम्बा संदेश आया, जिसका सार में अर्थ था कि हमारी कूड़े जैसी टिप्पड़ीं को वो कूड़ेदान में डाल रहे थे. तो पहले तो कुछ परेशानी हुई, क्योंकि बहुत समझदारी की बातें न भी हों, पर ऐसी तो कोई बात नहीं थी कि उसे नाराज हो कर इस तरह ठुकरा दिया जाये. फिर सोचा कि इस विषय पर अपना भी एक चिट्ठा बन सकता है.

जितेंद्र जी ने लिखा तो खूब, बस उनकी एक बात पसंद नहीं आयी जो उन्होंने शास्त्रीय संगीत और कर्नाटक संगीत सभा के चाहने वालों के बारे में लिखी है. क्यों भाई, आप भारत के पारमपरिक संगीत के बारे में ऐसा क्यों सोचते हैं कि उसे सच्चे मन से चाहने वाले नहीं हो सकते ? खैर, शास्त्रीय संगीत के बारे में अपने प्रेम और अन्य धारणाओं के बारे में फिर कभी, इस बार बात रेडियो और टीवी से जुड़ी यादों की है.

हमारे घर में तब बिजली नहीं थी. लैम्प की रोशनी से ही सब काम होते थे. शाम को ६ बजे के आसपास लैम्प जलाया जाता और ८ बजे तक सब बच्चे सोने के लिए तैयार हो जाते. तारों के नीचे, छत पर दरियां बिछतीं, अँधेरे में कहानियाँ और किस्से सुनते सुनते नींद आ जाती. रेडियो एक मौसी के यहाँ देखा था और शादियों में गाने लायक कुछ गाने भी आते थे. राजकपूर की फिल्म "छलिया" आयी थी, उसमें गाना था "तुम जो हमारे मीत न होते .." जो मुझे बहुत भाता था और जरा सा मौका मिलते ही मैं शुरु हो जाता. बिजली की रोशनी और रेडियो पहले हमारे नीचे वाले घर में आये. छत पर लेटे लेटे हम लोग जलन से नीचे देख रहे थे, आँगन में जली बत्ती और रेडियो पर आता "हवा महल". उन दिनों "बहुत रात हो गयी" का मतलब था कि हवा महल का समय हो गया. तब से रात को जल्दी सोने और सुबह जल्दी उठने की जो आदत पड़ी वो अभी तक नहीं गयी. सुबह सुबह चार बजे उठ कर दूध के डीपो के बाहर लाईन जो लगानी होती थी. क्या धक्का मुक्की होती दूध लेने के लिए जो शीशे की बोतलों में आता था.

फिर अपना भी ट्रांजिस्टर आया. कमरे में बीचों बीच उसे प्रतिष्ठत मेहमान की जगह मिली. रोज़ रेडियो सीलोन का स्टेशन ढ़ूंढ़ने की झंझट. शोर्ट वेव के २५ नम्बर के पास, सूई को धीरे धीरे घुमा कर रेडियो सीलोन ढ़ूढ़ते क्योंकि तब आल इंडिया रेडियो फिल्मी संगीत में विश्वास नहीं करता था. नयी फिल्मों के गाने, विषेशकर अमीन सयानी का बिनाका गीतमाला, हमारे मन पसंद प्रोग्राम थे. जब तक आल इंडिया रेडियो ने विविध भारती नहीं शुरु किया, तब तक यही सिलसिला चला.

१९६५ में जब पहली बार अपने स्कूल के मित्र के घर टीवी देखा. कई वर्षों तक यूं ही मित्रों पड़ोसियों के घर टीवी देखने जाते रहे. एक बार चित्राहार देखने और रविवार को हिंदी फिल्म देखने. सलमा सुलतान, प्रतिमा पुरी के दिन थे वे. मेरे पिता पत्रकार थे और कई बार दूरदर्शन पर साक्षात्कार के प्रोग्राम करने के बुलाये जाते. पर घर में टीवी नहीं था इसलिए कभी उनका प्रोग्राम नहीं देखा. एक बार अजमल खान रोड पर एक दुकान में लगे टीवी पर देखा, पापा किसी विदेशी युवती जो भरतनाट्यम की नर्तकी थीं, का साक्षात्कार ले रहे थे. साथ में चार साल की छोटी बहन थी, रोने लग गयी कि पापा उस डब्बे से बाहरे कैसे आयेंगे.

दूरदर्शन के सबसे बढ़िया दिन मेरे विचार में तब आये जब "हम लोग" और "बुनीयाद" जैसे सीरयल आये. एक ही चैनल थी और सारा हिंदी बोलने समझने वाला भारत सिर्फ वही देखता था, और सभी साथ ही वाह वाह कहते थे. आज की डीवीडी पर सोफे पर बोरियत से पसर के देखी हुई फिल्मों से वे दिन, पड़ोसियों के यहाँ सामने दरी पर बैठ कर देखी फिल्मों के दिन, ज्यादा अच्छे लगते थे. ये अच्छाई उन दिनों की फिल्मों या सीरयल में अच्छाई की वजह से नहीं थी, हमारी नादान और अनुभवहीन कल्पना में थी. इसी लिए जब कोई कहता है कि "कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन", हम वह नहीं कहते. वो बीते हुए दिन, यादों में ही अच्छे लगते हैं.

आज फिर दो तस्वीरें पुरानी चीन यात्रा से.


सोमवार, अगस्त 22, 2005

दिल्ली १९८४

इन दिनों नानावती रिपोर्ट के बाद १९८४ में दिल्ली में हुई घटनाओं के घाव फिर से खुल गये हैं. मैं उन दिनों इटली से अपनी पत्नी और कुछ महीने के बेटे के आने की प्रतीक्षा कर रहा था.

जहाँ हम रहते थे वहां ६ सिख परिवार थे, एक मुस्लिम और एक ईसाई, बाकी के घर हिंदु थे. जब शहर से दंगों के समाचार आये, हम सब लड़कों ने मीटिंग की और रक्षा दल बनाया, बाहर से आने वाले दंगा करने वालों को रोकने के लिए. हांलाकि छतों से शहर में उठते जलते मकानों के धूँए दिख रहे थे, पर सचमुच क्या हुआ यह तो हमें पहले पहल मालूम नहीं हुआ. वे सब समाचार तो कुछ दिन बाद ही मिले.

आज प्रस्तुत है अर्चना वर्मा की कविता "दिल्ली ८४" के कुछ अंश, उनके कविता संग्रह "लौटा है विजेता" से (१९९३). अगर पूरी कविता पढ़ना चाहें तो यहां क्लिक कीजिये.

दिल्ली ८४
दिन दहाड़े
बाहर कहीं गुम हो गया
सड़कों पर
जंगल दौड़ने
लगा.

उसके घर में
आज चूल्हा नहीं जला
चूल्हे में आज
घर
जल रहा था.

ऐन दरवाजे पर
मुहल्ले के पेट में
चाकू घोंप कर
भाग
गया था कोई.
रंगीन पानी में नहाई पड़ी थीं
गुड़ीमुड़ी गलियाँ, खुली हुई
अँतड़ियाँ.

और आज दो तस्वीरें एक चीन यात्रा से.

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