शुक्रवार, अप्रैल 17, 2015

एक चायवाले का विद्रोह

आजकल मोदी जी ने चायवालों को प्रसिद्ध कर दिया है, लेकिन यह आलेख उनके बारे में नहीं है. वैसे चाय की बातें मोदी जी के पहले भी महत्वपूर्ण होती थीं जैसा कि अमरीकी इतिहास बताता है, जहाँ अमरीका की ब्रिटेन से स्वतंत्रता की लड़ाई भी सन् 1733 के चाय लाने वाले पानी के जहाज़ से जुड़ी थी जिसे बोस्टन की "चाय पार्टी के विद्रोह" के नाम से जानते हैं. पर आज की मेरी बात भारत में सन् 1857 के अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध विद्रोह से जुड़े असम के एक चाय बागान वाले व्यक्ति के बारे में है जिनका नाम था मणिराम दत्ता बरुआ जिन्हें लोग मणिराम दीवान के नाम से भी जानते हैं. उन्हें उत्तर पूर्व के भारत के स्तंत्रता संग्राम के प्रथम शहीद सैनानी के नाम से जाना जाता है.

क्या आप ने पहले कभी उनका नाम सुना है? असम से बाहर रहने वाले लोग अक्सर उनके नाम से अपरिचित होते हैं. मैं भी उन्हें नहीं जानता था. उनसे "पहली मुलाकात" गुवाहाटी में नदी किनारे हुई थी. 

उत्तर पूर्व के स्वंत्रता सैनानी

असम की राजधानी गुवाहाटी में आये कुछ दिन ही हुए थे जब मछखोवा में ब्रह्मपु्त्र नदी के किनारे एक बाग में एक स्मारक देखा जिसमें आठ लोगों की मूर्तियाँ बनी हैं. स्मारक के नीचे लिखा था कि देश की स्वाधीनता के लिए इन वीर व वीरांगनाओं ने त्याग व बलिदान दिया. मुझे वह स्मारक देख कर कुछ आश्चर्य हुआ क्यों कि उन आठों में से एक का भी नाम मैंने पहले नहीं सुना था. वह आठ व्यक्ति थे कनकलता बरुआ, कुशल कोंवर, मणिराम दीवान, पियाली बरुआ, कमला मीरी, भोगेश्वरी फूकननी, पियाली फूकन तथा गँधर कोंवर.

Maniram Dewan & Cinnamara tea gardens, Jorhat, Assam, India - Images by Sunil Deepak

कुछ दिन बाद नेहरु पार्क में घूम रहा था तो वहाँ फ़िर से शहीद कुशल कोंवर की मूर्ति दिखी, तो मछखोवा के स्मारक की बात याद आ गयी. 

सोचा कि भारत में रहने वालों में अपने उत्तर पूर्वी भाग के इतिहास के बारे में तथा यहाँ रहने वाले लोगों के बारे में कितनी काम जानकारी है. जिन लोगों ने भारत की स्वतंत्रता के लिए जान दी, उनके नाम भी बाकी भारत में अनजाने हैं. तो सोचा कि इसके बारे में अधिक जानने की कोशिश करूँगा और इसके बारे में लिखूँगा. पर सोचने तथा करने में कुछ अंतर होता है. बात सोची थी, वहीं रह गयी, और मैं इसके बारे में भूल गया.

Kushal Konwar, Guwahati, Assam, India - Images by Sunil Deepak

Kushal Konwar, Guwahati, Assam, India - Images by Sunil Deepak

फ़िर पिछले माह काम के सिलसिले में उत्तरी असम में जोरहाट गया तो उनमें से एक स्वतंत्रता सैनानी के जीवन से अचानक परिचय हुआ.

मैं जोरहाट शहर से थोड़ा बाहर, मरियानी रेल्वे स्टेशन की ओर जाने वाली सड़क पर सिन्नामारा में विकलाँगों के लिए काम करने वाली एक संस्था "प्रेरणा" की अध्यक्ष सुश्री सायरा रहमान से मिलने गया था. उनकी संस्था गाँव में रहने वाले विकलाँग लोगों के साथ कैसे काम करती है, यह देखने के लिए सायरा जी ने अपने एक कार्यकर्ता मोनोजित के साथ, मुझे वहीं करीब ही एक चाय बागान से जुड़े गाँव में भेजा.

वहीं बातों बातों में मालूम चला कि यह सिन्नामारा के चाय बागान, स्वतंत्रता सैनानी मणिराम दीवान ने प्रारम्भ किये थे. इस बार संयोग से उनकी कर्मभूमि से परिचय हुआ था तो मुझे लगा कि उनके बारे में अवश्य अधिक जानना चाहिये.

उस दिन शाम को वापस जोरहाट में अपने होटल में पँहुचा तो मालूम चला कि वह चौराहा जिसके करीब मैं ठहरा था, उसे मणिराम दत्ता बरुआ चौक  (बरुआ चारिआली) ही कहते हैं. वहाँ सन् 2000 में असम सरकार की ओर से "मिल्लेनियम स्मारक" बनाया गया है जिसमें उनकी कहानी भी चित्रित है.

Maniram Dewan & Cinnamara tea gardens, Jorhat, Assam, India - Images by Sunil Deepak

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तो कौन थे मणिराम दीवान और क्या किया था उन्होंने, जिसके लिए अंग्रेज़ी सरकार ने उन्हें विद्रोही मान लिया था?

मणिराम दत्ता बरुआ या मणिराम दीवान

मणिराम का जन्म 17 अप्रेल 1806 को चारिन्ग में हुआ जब उनके पिता श्री राम दत्ता को, उस समय के असम के अहोम राजा कमलेश्वर सिंह से, "डोलाकशारिया बरुआ" का खिताब मिला था. मणिराम को पढ़ाई के लिए बँगाल में नबद्वीप भेजा गया जहाँ उन्होंने अंग्रेज़ी तथा फारसी भाषाएँ भी पढ़ी. 1817 से 1823 के बीच अँग्रेज़ों ने असम पर काबू करने की कोशिश शुरु की, उसी के संदर्भ में मणिराम ने अंग्रेज़ी अफसर डेविड स्कोट तथा उनकी फौज को उत्तरी असम जाने में मार्गदर्शन दिया. वफ़ादार काम करने पर, बीस वर्ष की आयू में मणिराम को डेविड स्काट ने अंग्रेज़ी शासन की ओर से तहसीलदार व शेरिस्तदार का पद दिया.

1833 से 1838 तक, मणिराम अंग्रज़ो द्वारा स्वीकृत असम राजा पुरेन्द्र सिह के "बोरबन्दर बरुआ" यानि प्रधान मंत्री नियुक्त हुए. 1839 में असम में चाय उत्पादन के लिए लँदन में असम कम्पनी बनायी गयी. तभी असम की अंग्रेज़ी सरकार में डेविड स्काट की जगह कर्नल जेनकिन्स ने ली, जिन्होंने मणिराम को दीवान का खिताब दिया तथा वह असम कम्पनी के अफसर बन गये.

1843 में मणिराम ने असम कम्पनी की नौकरी छोड़ दी क्योंकि वह अपना चायबागान लगाना चाहते थे. असम कम्पनी के अंग्रेज़ इस बात से खुश नहीं थे.

1845 में मणिराम ने जोरहाट के पास अपना पहला चायबागान लगाया जहां कलकत्ता में रहने वाले चीनी चाय विषेशज्ञ लाये गये, जोकि उनके सलाहकार बने. उनकी वजह से उस चायबागान को लोग चिन्नामारा (चीनी बाग) कहने लगे. इस जगह को अब सिन्नामारा के नाम से लोग जानते हैं.

मणिराम उद्योगपति बन गये, केवल चाय उत्पादन में नहीं, बल्कि अन्य क्षेत्रों में भी - जैसे कि नमक बनाने व इस्पात बनाने का कारकाना भी लगाया, ईँटें तथा सिरेमिक बनाने की भट्टियाँ लगायीं.

Maniram Dewan & Cinnamara tea gardens, Jorhat, Assam, India - Images by Sunil Deepak

उनकी उन्नति से असम कम्पनी के अंग्रेज़ अफसर चितिंत हुए क्योंकि उनकी दृष्टि में भारतीयों का चाय कारोबार में पड़ने का अर्थ, अंग्रेज़ी कम्पनी का नुकसान था. 1851 में अंग्रेज़ सरकार ने उनके चायबागान तथा सम्पत्ति पर कब्ज़ा कर लिया. असम पर काबू रखने के लिए अंग्रेज़ों ने बंगाल तथा मारवाड़ से लोगों को बुला कर उन्हें अफसर बनाया. मणिराम ने कलकत्ता की अदालत में न्याय के लिए अर्ज़ी दी तथा अंग्रेज़ टेक्सों की आालोचना की कि उनसे स्थानीय अर्थव्यवस्था को कमज़ोर किया जा रहा है. लेकिन अदालत ने उनकी यह अर्ज़ी नामँजूर कर दी, तथा उनके चाय बागान अंग्रेजों को दे दिये गये.

1857 की अंगरेज़ों के विरुद्ध सिपाही क्राँती से मणिराम ने प्रेरणा पायी और उत्तरपूर्व में अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध काम प्रारम्भ किया. अंग्रेज़ी शासन के विद्रोह के आरोप में मणिराम को गिरफ्तार किया गया और 26 फरवरी 1858 को उन्हें फाँसी दी गयी.

आज का सिन्नामारा

सिन्नामारा में आज भी चायबागान हैं, जहाँ बहुत से लोग संथाल जनजाति के हैं. चायबागानों में काम करने के लिए अंग्रेज़ केन्द्रीय भारत से संथाल जाति के लोगों को ले कर आये थे. स्थानीय भाषा न जानने वाले लोगों को रखने का फायदा था कि उन्हें आसानी से दबाया जा सकता था और उनमें विद्रोह कठिन था. इस तरह से आज असम में लाखों संथाली रहते हैं जिनके पूर्वज यहाँ एक सौ पचास वर्ष पहले मजदूर की तरह लाये गये थे.

Maniram Dewan & Cinnamara tea gardens, Jorhat, Assam, India - Images by Sunil Deepak

असम में होने वाले जाति-प्रजाति सम्बँधित झगड़ों-विवादों में एक यह विवाद भी है जिसमें "विदेशी" और "भूमिपुत्रों" की बात की जाती है. आर्थिक तथा सामाजिक पिछड़ापन, संचार तथा यातायात की कठिनाईयाँ आदि की वजह से इतने सालों में असम के समुदायों में जो एकापन आना या समन्वय आना चाहिये था, वह नहीं आया. बल्कि आज उस पर धर्म सम्बँधी भेद भी जुड़ गये हैं.

चायबागान चलाने वालों का कहना है कि चाय के दाम अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार पर निर्भर करते हैं, इस लिए चायबागानों में काम करने के लिए न्यूनतम पगार जैसी बातों को नहीं लागू किया जा सकता. इस तरह से प्रतिदिन आठ घँटे काम करने वाले यहाँ के चायबागान के काम करने वालों को, सप्ताह के 400 रुपये के आसपास की तनख्वाह तथा कुछ खाने का सामान दिया जाता है.

सिन्नामारा में अंग्रेज़ों के समय का पुराना अस्पताल भी है, जिसे असम चाय उद्योग चालाता था लेकिन जो कई वर्षों से बन्द पड़ा है.

Maniram Dewan & Cinnamara tea gardens, Jorhat, Assam, India - Images by Sunil Deepak

अंगरेज़ों के समय और आज का समय देखें तो, बहुत सी बातों में आज दुनिया बहुत बदल गयी है. आज हम स्वतंत्र हैं, जो काम करना चाहें, जिस राह पर बढ़ना चाहें, उसे स्वयं चुन सकते हैं. लेकिन गरीबी, अशिक्षा तथा भ्रष्टाचार, आज भी जँज़ीरें है जो हमें बाँधे रखती हैं.

मेरी चायबागान में काम करने वाले पढ़े लिखे कुछ नवयुवकों से बात हुई, बोले कि पढ़ायी करके भी वही मजदूरी करनी पड़ती है क्योंकि "बिना घूस दिये कुछ काम नहीं मिलता, और घूस देने लायक पैसा हमारे पास नहीं".

आज के भारत की दुनिया बदली है लेकिन चायबागानों में काम करने वाले मजदूरों की दृष्टि से देखे तो जितनी बदलनी चाहिये थी उतनी नहीं बदली.

Maniram Dewan & Cinnamara tea gardens, Jorhat, Assam, India - Images by Sunil Deepak

मणिराम दीवान ने अपना जीवन अंग्रेजों के साथी की तरह प्रारम्भ किया, पर उनमें चाकरी की भावना कम थी, वह स्वयं को उनसे कम नहीं मानते थे, स्वयं उद्योगपति बनने का सपना देखते थे! इन सब बातों की वजह से उन्हें विद्रोह की राह चुननी पड़ी. स्वतंत्रता की राह में उन जैसे कुर्बानी करने वाले अन्य बहुत लोग होंगे लेकिन उनकी अपेक्षा मणिराम दीवान की याद को अधिक प्रमुखता मिली, जोकि स्वाभाविक है क्योंकि इतिहास ऐसे ही बनना है,

कुछ लोग अपने व्यक्तित्व या सामाजिक स्थिति की वजह से लोगों में प्रतीक बन कर रास्ता दिखाते हैं, प्रेरणा देते हैं. पर उस स्वतंत्रता का जितना लाभ यहाँ के गरीब लोगों को मिलना चाहिये था, उसमें हमारे देश में कुछ कमी आ गयी!

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सोमवार, मार्च 30, 2015

भारत की बेटियाँ

पिछले कई दिनों से बीबीसी की डाकूमैंटरी फ़िल्म "इंडियाज़ डाटर" (India's daughter) के बैन करने के बारे में बहस हो रही थी. आजकल कुछ भी बहस हो उसके बारे में उसके विभिन्न पहलुओं का विषलेशण करना, अन्य शोर में सुनाई नहीं देता. शोर होता है कि या तो आप इधर के हैं या उधर के हैं. अगर आप प्रतिबन्ध लगाने के समर्थक हैं तो रूढ़िवादी, प्रतिबन्ध के विरोधी है तो उदारवादी, या फ़िर इसका उल्टा.

किसी बात के क्या विभिन्न पहलू हो सकते हैं, किस बात का समर्थन हो सकता है, किसका नहीं, जैसी जटिलताओं के लिए इन बहसों में जगह नहीं होती.

कुछ लोग कह रहे थे कि यह डाकूमैंटरी पश्चिमी देशों की चाल है, भारत को नीचा दिखाने की. एक बेलजियन प्रोफेसर जेकब दे रूवर ने एक आलेख में लिखा कि भिन्न यूरोपीय देशों में अधिक बलात्कार होते हैं, उनके मुकाबले में भारत में कम होते हैं. इसलिए वह भी सोचती है कि इस तरह की डाकूमैंटरी बनाना उस यूरोपीय सोच का प्रमाण है जो भारत जैसे विकसित देशों को असभ्य और पिछड़ा हुआ मानती है तथा इस तरह के समाचारों को बढ़ा चढ़ा कर दिखाती है.

Rapes in India graphic by Sunil Deepak

तो क्या सचमुच भारत एक बलात्कारी देश है‌ ?

मेरे विचार में दंगों जैसी स्थितियों को छोड़ दिया जाये तो बलात्कारों के विषय में भारत की स्थिति अन्य देशों की तरह है, उनसे न बहुत कम न बहुत अधिक. इसलिए अगर आँकणों के हिसाब से भारत में बलात्कार कम होते हैं तो इसकी वजह यह नहीं कि हमारे पुरुष कम बलात्कारी हैं, इसकी वजह है कि गरीबों, शोषितों और औरतों के साथ होने वाले अपराधों के बारे में हमारे आँकणे अधूरे रहते हैं. हमारे यहाँ पुलिस के पास जाना अक्सर अपराध का समाधान नहीं करता, बल्कि उस पर अन्य तकलीफ़ें बढ़ा देता है. सामान्य जन के लिए, कुछ अपवाद छोड़ कर, पुलिस का नाम न्याय या सहायता से नहीं जुड़ा, बल्कि अत्याचार, उसका ताकतवरों का साथ देना व दुख से पीड़ित लगों से घूसखोरी की माँगें करना, जैसी बातों से जुड़ा है.

बलात्कार जैसी बात हो तो उसकी शिकार औरतों के प्रति समाजिक क्रूरता को सभी जानते हैं.  जैसी हमारी सामाजिक सोच है, हमारी पुलिस की भी वही सोच है. यानि बलात्कार हुआ हो तो इसका कारण उस युवती के चरित्र, काम, पौशाक में खोजो. तो अचरज क्यों कि हमारे बलात्कारों के आँकणे विकसित देशों के सामने कम है ?

विदेशों में भारत की बलात्कारी छवि

यह सच है कि यूरोप में वहाँ प्रतिदिन होने वाले बलात्कारों के समाचारों को इतनी जगह नहीं मिलती जितनी भारत से आने वाले इस तरह के समाचारों को मिलती है. इससे पिछले दो वर्षों में विदेशों में भारत की बलात्कार समस्या को बहुत प्रमुखता मिली है. पर इसके कई कारण हैं. हर देश, हर गुट के बारे में कुछ प्रचलित छवियाँ होती हैं. इन्हें स्टिरियोटाइप भी कहते हैं. इन स्टिरियोटाइप छवियों का फायदा है कि कुछ भी बात हो उसे लोग तुरंत समझ जाते हैं, कुछ समझाने की आवश्यकता नहीं पड़ती. विदेशों में भारत की स्टिरियोटाइप छवि है जिसमें गाँधी जी, शाकाहारी होना, अहिँसा, ताज महल, आध्यात्म, ध्यान, योग, जैसी बातें जुड़ी हैं, जिन्हें हम सामान्यतह सकारात्मक मानते हैं. इसी स्टिरियोटाइप छवि के कुछ नकारात्मक पहलू भी हैं जैसे कि भारत की छवि गरीबी, गन्दगी, बीमारियाँ, जातिप्रथा जैसी बातों से भी जुड़ी है.

यह स्टिरियोटाइप छवियाँ स्थिर नहीं होती, इसमें नयी बातें जुड़ती रहती है, पुरानी बातें धीरे धीरे लुप्त हो जाती है. पहले भारत की छवि थी सपेरों और जादूगरों की. आज दुनिया में भारत को सपेरों का देश देखने वाले लोग कम हैं, जबकि कम्पयूटर तकनीकी, गणित में अव्वल स्थान पाने वाले या अंग्रेज़ी में अच्छा लिखने वाले लेखकों की बातें इस छवि से जुड़ गयी हैं.

भारत की प्रचलित छवियाँ औरतों के बारे में कुछ सकारत्मक है, कुछ नकारात्मक. एक ओर गरिमामय, सुन्दर, साड़ी पहनी युवतियों की छवियाँ हैं, हर क्षेत्र में अपनी धाक जमाने वाली औरतों की छवियाँ हैं, तो दूसरी ओर दहेजप्रथा, सामाजिक शोषण, भ्रूणहत्या से जुड़ी बातें भी हैं. उन्हीं नकारात्मक बातों में पिछले कुछ वर्षों में बलात्कार भी बात जुड़ गयी है.

यह छवियाँ सकारात्मक हों या नकारात्मक, स्टिरियोटाइप से लड़ना तथा उन्हें बदलना आसान नहीं. बल्कि खतरा है कि उनके विरुद्ध जितना लड़ोगे, वह उतना ही अधिक मज़बूत जायेंगी. मुझे नहीं मालूम कि इस तरह की स्टिरियोटाइप छवियों के बनने को किस तरह से रोका या कम किया जा सकता है. इससे भारत को अवश्य नुकसान होता है. कितने ही मेरे यूरोपीय मित्र, विषेशकर, महिला मित्र, जो पहले यहाँ नहीं आये और जिन्हें भारत के व्यक्तिगत अनुभव नहीं हैं, भारत आने का सोच कर डरते हैं.

क्या भारत में दिल्ली में हुए निर्भया के बलात्कार से पहले ऐसी घटनाएँ नहीं होती थीं? होती थीं लेकिन राजधानी में जनसाधारण, विषेशकर युवाओं का इस तरह बड़ी संख्या में विरोध में निकल कर आना शायद पहली बार हुआ. टेलिविज़न पर समाचार चैनलों की बढ़ोती तथा उनमें आपस में दर्शक बढ़ाने की स्पर्धा ने उस विरोध को समाचार पत्रों में व चैनलों पर प्रमुख जगह दी. इस समाचार को और उस बलात्कार की बर्बता ने सारी दुनिया में समाचारों में जगह पायी.

यूरोप में भारत के बारे में समाचार अक्सर तभी दिखते हैं जब किसी दुर्घटना में बहुत लोग मर जाते हैं. यह हर देश में होता है, आप सोचिये कि क्या भारत में टीवी समाचारों में यूरोप के बारे में किस तरह के समाचार दिखाये जाते हैं? लेकिन जब निर्भया काँड के बाद भारत के युवा सड़कों पर निकल आये थे, इसके समाचारों को यूरोप के टीवी समाचारों में बहुत दिनों तक प्रमुखता मिली थी.

उस घटना के बाद से, दिल्ली या मुम्बई जैसे शहरों में जब भी मध्यम या उच्च वर्ग की युवती के साथ बलात्कार होता है तो हमारे टीवी समाचार चैनल हल्ला कर देते हैं. ब्रेकिन्ग न्यूज़ बन कर सारा दिन उसकी बात होती है, शाम को हर चैनल उसी पर बहस करती है. अगर बलात्कार विषेश बर्बर हो या भारत की पहले से प्रचलित नकारात्मक छवि से जुड़ा हो, जैसे कि जातिभेद या महिलाओं को शोषण से, तो उसे विदेशों में भी समाचारों में जगह मिलती है. जब हमारे राजनेता बलात्कार के बारे में कुछ वाहियात सी बात करते हैं तो उसे भी विदेशी समाचारों में भरपूर जगह मिलती है. मसलन, जब मुलायम सिंह यादव ने कहा कि "लड़कों से गलती हो जाती है" तो बहुत से यूरोपीय समाचार पत्रों ने उसका समाचार पहले पृष्ठ पर दिया था.

भारतीय समाचार पत्रों तथा चैनलों का भाग

कुछ सप्ताह पहले जब एक सुबह कोलकता से निकलने वाले अंगरेज़ी अखबार टेलीग्राफ़ में मुख्य पृष्ठ पर दिल्ली बलात्कार काँड के बस ड्राइवर मुकेश सिंह का साक्षात्कार छपा देखा था तो बहुत हैरानी हुई थी. सोचा था कि क्यों अखबार वालों ने इस तरह की व्यक्ति की इन वाहियात बातों को इस तरह से बढ़ा चढ़ा कर कहने का मुख्य पृष्ठ पर मौका देने का निर्णय लिया ? मुझे लगा कि इस तरह की सोच वाले लोग भारत में कम नहीं और उस साक्षात्कार को इस तरह प्रमुखता पाते देख कर, उन्हें यह लगेगा कि उनकी यह सोच शर्म की नहीं, गर्व की बात है. मैंने उस समय सोचा था कि बिक्री बढ़ाने के लिए समाचार वाले कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं.

मेरा विचार था कि यह आलेख समाचार पत्र में नहीं छपना चाहिये था. मेरे एक मित्र बोले कि न छापना तो मानव अभिव्यक्ति अधिकार के विरुद्ध होगा. मेरा कहना था कि जब कोई अगर अन्य लोगों के प्रति हिंसा करने, बलात्कार करने, जान से मारने की बात की बात करे तो वह मानव अभिव्यक्ति अधिकार नहीं हो सकता क्योंकि उससे अन्य लोगों के जीवन व सुरक्षा के अधिकारों पर हमला होता है.

यह कुछ दिन बाद समझ में आया कि वह "समाचार" नहीं था, एक डाकूमैंटरी से लिया गया हिस्सा था जिसे डाकूमैंटरी का परिपेक्ष्य समझाये बिना ही समाचार पत्र में छापा गया था. डाकूमैंटरी के बारे में जहाँ तक पढ़ा है, मुकेश सिंह का साक्षात्कार उसका छोटा सा हिस्सा है, उसमें अन्य भी बहुत सी बाते हैं. उसे देखने वालों ने कहा है कि यह फ़िल्म बलात्कारी सोच के विरुद्ध उठायी आवाज़ है. अगर डाकूमैंटरी में यह सब कुछ है तो क्यों समाचार पत्रों ने मुकेश सिंह के साक्षात्कार को इस तरह से बढ़ा चढ़ा कर प्रस्तुत किया जिससे यह लगे कि यह आम भारतीय पुरुषों की सोच है? यानि जनसाधारण में इस फ़िल्म के प्रति प्रारम्भिक उत्तेजना बढ़ाने में समाचार पत्रों तथा टेलिविज़न चैनलों ने क्या हिस्सा निभाया ?

क्या समाचार पत्रों ने मुकेश सिंह के कथन को इतनी प्रमुखता दी थी या फ़िर डाकूमैंटरी बनाने वालों ने अपनी प्रेस रिलीज़ में मुकेश सिंह वाले हिस्से को बढ़ा चढ़ा कर प्रस्तुत किया था ?

निर्भया के बलात्कार के बाद, भारत में बलात्कार होने कम नहीं हुए हैं. लेकिन शायद बढ़े भी नहीं हैं, केवल इन समाचारों का छुपना कम हो गया है ? प्रतिदिन हर शहर में बलात्कार होते हैं, जैसे पहले भी होते थे. पर अब समाचार चैनलों में बलात्कारों को जगह मिलने लगी है. पर शायद यह भी सोचना चाहिये कि किस तरह की जगह मिल रही है, इस तरह के समाचारों को?

पिछले वर्ष जुलाई में कुछ सप्ताह के लिए लखनऊ में था, एक स्थानीय चैनल पर आधे घँटे के समाचारों में बीस-पच्चीस मिनट तक  यहाँ बलात्कार, वहाँ बलात्कार की बात होती रही. मुझे थोड़ा अचरज हुआ कि उस समाचार बुलेटिन में इतनी जगह इस तरह के समाचारों को मिली, जैसे कि 20 करोड़ की जनसंख्या वाले उत्तरप्रदेश में अन्य अपराध या अन्य समाचार नहीं हों ? क्या यही तरीका है इस बात के बारे में जनचेतना जगाने का या जनता को जानकारी देने का ?

असली बात

लेकिन क्या यही बात सबसे महत्वपूर्ण है कि विदेशों में हमारे बारे में क्या सोचते हैं? कोई अन्य क्या सोचता है, यह तो बाद की बात है, पहली बात है कि हम इस बारे में स्वयं क्या सोचते है? उससे भी अधिक महत्वपूर्ण है यह सोचना कि जिन अपराधों के बारे में हम बात कर रहे हैं क्या उनसे पीड़ित लोगों को न्याय मिल रहा है या नहीं, समाज की विचारधारा बदल रही है या नहीं.

सच तो यह है कि हमारे देश में आज भी हर दिन हज़ारों भ्रूणहत्याएँ होती हैं, लड़कियों से, "छोटी" जाति के लोगों से, गरीबों के साथ जब अपराध होते हैं तो कितने समाचार पत्र उन्हें छापते हैं? उनमें से कितनों की रपट पुलिस में लिखी जाती है? उनके बारे में टीवी पर कौन बात करता है? क्या इस सब के बारे में हमारे देश में सन्नाटा नहीं रहता? भारत के छोटे बड़े शहरों में लड़कियों व औरतों जब बाहर जाती है तो सड़कों पर, बसों में, काम की जगहों पर, "छेड़खानी" आम बात हैं और लोग चुपचाप देखते हैं.

हमारी पुलिस तथा न्याय व्यवस्था दोनों में कितनी सड़न है. इस स्थिति में मुकेश सिंह व उनके वकीलों की बलात्कारी सोच अपवाद नहीं, सामान्यता है. क्या हमारे राजनेता, धर्मगुरु, क्या यही नहीं कहते कि लड़कियों को रात को काम नहीं करना चाहिये, जीन्स नहीं पहननी चाहिये, आदि ? यानि उनकी सोच है कि इस सब की वजह से उनका बलात्कार हुआ. यानि गलती उन्हीं की है, समाधान भी उन्हें ही करना है. हमारे युवाओं तथा पुरुषों की सोच बदलने की बात नहीं होती. उनकी सोच मुकेश सिंह की सोच से अधिक भिन्न नहीं. शायद इसीलिए उस डाकूमैंटरी की बात हमें इतनी बुरी लगी क्योंकि उसमें हमारी सोच का सच है ?

कल टाईमस ऑफ़ इन्डिया के विनीत जैन के बारे में पढ़ा कि उन्होंने कहा हम समाचार पत्रों के धँधे में नहीं, विज्ञापन बेचने के धँधे में हैं. यानि समाचार पत्रों को बिक्री का सोचना है, नीति, या समाज का नहीं.

क्या हमारी टीवी चैनल भी टीआरपी के चक्कर में चिल्लाने वाली बहसों, हर बात को ब्राकिन्ग न्यूज़ बनाना, स्केन्डल बनाना जैसी बातों में नहीं व्यस्त रहतीं ? और समाचार पत्रों या चैनलों को दोष देना आसान है पर लाखों करोड़ों लोग उन्हीं चैनलों को देख कर चटकारे लेते हैं. जहाँ गम्भीरता से बात हो रही हो, तथा जटिल समस्याओं के समाधान सोचे खोजे जायें, तो उन्हें कितने लोग देखते हैं ?

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बुधवार, मार्च 04, 2015

जीवन का अंत

चिकित्सा विज्ञान तथा तकनीकी के विकास ने "जीवन का अंत" क्या होता है, इसकी परिभाषा ही बदल डाली है. जिन परिस्थितियों में दस बीस वर्ष पहले तक मृत्यू को मान लिया जाता था, आज तकनीकी विकास से यह सम्भव है कि उनके शरीरों को मशीनों की सहायता से "जीवित" रखा जाये. लेकिन जीवन का अंतिम समय कैसा हो यह केवल चिकित्सा के क्षेत्र में हुए तकनीकी विकास और मानव शरीर की बढ़ी समझ से ही नहीं बदला है, इस पर चिकित्सा के बढ़ते व्यापारीकरण का भी प्रभाव पड़ा है. तकनीकी विकास व व्यापारीकरण के सामने कई बार हम स्वयं क्या चाहते हैं, यह बात अनसुनी सी हो जाती है.

तो जब हमारा अंतिम समय आये उस समय हम किस तरह का जीवन और किस तरह की मृत्यू चुनते हैं? किस तरह का "जीवन" मिलता है जब हम अंतिम दिन अस्पताल के बिस्तर में गुज़ारते हैं? इस बात का सम्बन्ध जीवन की मानवीय गरिमा से है. यह बात इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इसकी कीमत केवल पैसों में नहीं मापी जा सकती है, बल्कि इसकी एक भावनात्मक कीमत भी है जो हमारे परिवारों व प्रियजनों को उठानी पड़ती है. आज मैं इसी विषय पर अपने कुछ विचार आप के सामने रखना चाहता हूँ.

ICU in an Indian hospital - Image by Sunil Deepak

चिकित्सा क्षेत्र में तकनीकी विकास

पिछले कुछ दशकों में चिकित्सा विज्ञान ने बहुत तरक्की की है. आज कई तरह के कैंसर रोगों का इलाज हो सकता है. कुछ जोड़ों की तकलीफ़ हो तो शरीर में कृत्रिम जोड़ लग सकते हैं. हृदय रोग की तकलीफ हो तो आपरेशन से हृदय की रक्त धमनियाँ खोली जा सकती हैं. कई मानसिक रोगों का आज इलाज हो सकता है. नये नये टेस्ट बने हैं. घर में अपना रक्तचाप मापना या खून में चीनी की मात्रा को जाँचना जैसे टेस्ट मरीज स्वयं करना सीख जाते हैं. नयी तरह के अल्ट्रासाउँड, केटस्केन, डीएनए की जाँच जैसे टेस्ट छोटे शहरों में भी उपलब्ध होने लगी हैं.

इन सब नयी तकनीकों से हमारी सोच में अन्तर आया है. आज हमें कोई भी रोग हो, हम यह अपेक्षा करते हैं कि चिकित्सा विज्ञान इसका कोई न कोई इलाज अवश्य खोजेगा. कोई रोग बेइलाज हों, यह मानने के लिए हम तैयार नहीं होते.

कुछ दशक पहले तक, अधिकतर लोग घरों में ही अपने अंतिम क्षण गुज़ारते थे. उन अंतिम क्षणों के साथ मुख में गंगाजल देना, या बिस्तर के पास रामायण का पाठ करना जैसी रीतियाँ जुड़ी हुईं थीं. लेकिन शहरों में धीरे धीरे, घर में अंतिम क्षण बिताना कम हो रहा है. अगर अचानक मृत्यू न हो तो आज शहरों में अधिकतर लोग अपने अंतिम क्षण अस्पताल के बिस्तर पर बिताते हैं, अक्सर आईसीयू के शीशों के पीछे. जब डाक्टर कहते हैं कि अब कुछ नहीं हो सकता तब भी अंतिम क्षणों तक नसों में ग्लूकोज़ या सैलाइन की बोतल लगी रहती है, नाक में नलकी डाल कर खाना देते रहते हैं. अगर साँस लेने में कठिनाई हो तो साँस के रास्ते पर नली लगा कर तब तक वैंन्टिलेटर से साँस देते हैं जब तक एक एक कर के दिल, गुर्दे व जिगर काम करना बन्द नहीं कर देते. जब तक हृदय की धड़कन मापने वाली ईसीजी मशीन में दिल का चलना आये और ईईजी की मशीन से मस्तिष्क की लहरें दिखती रहीं, आप को मृत नहीं मानते और आप को ज़िन्दा रखने का तामझाम चलता रहता है.

वैन्टिलेटर बन्द किया जाये या नहीं, ग्लूकोज़ की बोतल हटायी जाये या नहीं, दिल को डिफ्रिब्रिलेटर से बिजली के झटके दे कर दोबारा से धड़कने की कोशिश की जाये या नहीं, यह सब निर्णय डाक्टर नहीं लेते. अगर केवल डाक्टर लें तो उन पर "मरीज़ को मारने" का आरोप लग सकता है. यह निर्णय तो डाक्टर के साथ मरीज़ के करीबी परिवारजन ही ले सकते हैं. पर परिवार वाले कैसे इतना कठोर निर्णय लें कि उनके प्रियजन को मरने दिया जाये? चाहे कितना भी बूढ़ा व्यक्ति हो या स्थिति कितनी भी निराशजनक क्यों न हो, जब तक कुछ चल रहा है, चलने दिया जाता है. बहुत कम लोगों में हिम्मत होती है कि यह कह सकें कि हमारे प्रियजन को शाँति से मरने दिया जाये.

अपने प्रियजन के बदले में स्वयं को रख कर सोचिये कि अगर आप उस परिस्थिति में हों तो आप क्या चाहेंगे? क्या आप चाहेंगे कि उन अंतिम क्षणों में आप की पीड़ा को लम्बा खींचा जाये, जबरदस्ती वैन्टिलेटर से, नाक में डली नलकी से, ग्लूकोज़ की बोतल और इन्जेक्शनों से आप के अंतिम दिनों को जितना हो सके लम्बा खीचा जाये?

चिकित्सा का व्यापारीकरण

लोगों की इन बदलती अपेक्षाओं से "चिकित्सा व्यापार" को फायदा हुआ है. कुछ भी बीमारी हो, वह लोग उसके लिए दबा कर तरह तरह के टेस्ट करवाते हैं. महीनों इधर उधर भटक कर, पैसा गँवा कर, लोग थक कर हार मान लेते हैं. भारत में प्राइवेट अस्पतालों में क्या हो रहा है,  किसी से छुपा नहीं है. उनके कमरे किसी पाँच सितारा होटल से कम मँहगे नहीं होते. लेकिन सब कुछ जान कर भी आज की सोच ऐसी बन गयी है कि कुछ भी हो बड़े अस्पताल में स्पेशालिस्ट को दिखाओ, दसियों टेस्ट कराओ, क्योंकि इससे हमारा अच्छा इलाज होगा.

गत वर्ष में आस्ट्रेलिया के एक नवयुवक डाक्टर डेविड बर्गर ने चिकित्सा विज्ञान की विख्यात वैज्ञानिक पत्रिका "द ब्रिटिश मेडिकल जर्नल" में भारत के चिकित्सा संस्थानों के बारे में अपने अनुभवों पर आधारित एक आलेख लिखा था जिसकी बहुत चर्चा हुई थी. वह भारत में छह महीनों के लिए एक गैरसरकारी संस्था के साथ वोलैंटियर का काम करने आये थे.

डा. बर्गर ने लिखा था कि "भारत में हर क्षेत्र में भ्रष्टाचार कैसर की तरह फ़ैला है. इस भ्रष्टाचार की जड़े चिकित्सा की दुनिया में हर ओर गहरी फ़ैली हैं जिसका प्रभाव डाक्टर तथा मरीज़ के सम्न्धों पर भी पड़ता है. स्वास्थ्य सेवाएँ भी विषमताओं से भरी हैं, भारत में स्वास्थ्य सेवाओं का निजिकरण दुनिया में सबसे अधिक है. भारत में बीमारी पर होने वाला सत्तर प्रतिशत से भी अधिक खर्चा, लोग स्वयं उठाते हैं. यानि स्वास्थ्य सेवाओं का निजिकरण अमरीका से भी अधिक है. जिनके पास पैसा है उन्हें आधुनिक तकनीकों की स्वास्थ्य सेवा मिल सकती है, हालाँकि इसकी कीमत उन्हें उँची देनी पड़ती है. पर भारत के अस्सी करोड़ लोगों को यह सुविधा नहीं, उनके लिए केवल घटिया स्तर के सरकारी अस्पताल या नीम हकीम हैं जिनको किसी का डर नहीं. लेकिन अमीर हों या गरीब, भ्रष्टाचार सबके लिए बराबर है."

हाल ही में एक गैर सरकारी संस्था "साथी" (Support for Advocacy and Training to Health Initiatives) ने भारतीय चिकित्सा सेवा में लगी सड़न की रिपोर्ट निकाली है, जिसमें बहुत से डाक्टरों ने साक्षात्कार दिये हैं और किस तरह से भ्रष्टाचार से चिकित्सा क्षेत्र प्रभावित है इसका खुलासा किया है. इस रिपोर्ट में 78 डाक्टरों के साक्षात्कार हैं कि किस तरह भारतीय चिकित्सा सेवाएँ लालच तथा भ्रष्टाचार से जकड़ी हुई हैं. प्राइवेट अस्पतालों में व्यापारिता इतनी बढ़ी है कि किस तरह से अधिक फायदा हो इस बात का उनके हर कार्य पर प्रभाव है.

एक सर्जन ने बताया कि अस्पताल के डायरेक्टर ने उनसे शिकायत की कि उनके देखे हुए केवल दस प्रतिशत लोग ही क्यों आपरेशन करवाते हैं, यह बहुत कम है और इसे चालिस प्रतिशत तक बढ़ाना पड़ेगा, नहीं तो आप कहीं अन्य जगह काम खोजिये.

अगर डाक्टर किसी को हृद्य सर्जरी एँजियोप्लास्टी के लिए रेफ़र करते हें तो उन्हें इसकी कमीशन मिलती है. एमआरआई, ईसीजी जैसे टेस्ट भी कमीशन पाने के लिए करवाये जाते हैं.

कुछ दिन पहले मुम्बई की मेडिएँजलस नामक संस्था ने भी अपने एक शोध के बारे में बताया था जिसमें बारह हज़ार मरीजों के, जिनके आपरेशन हुए थे, उनके कागज़ों की जाँच की गयी. इस शोध से निकला कि हृदय में स्टेन्ट लगाना, घुटने में कृत्रिम जोड़ लगाना, कैसर का इलाज या बच्चा न होने का इलाज जैसे आपरेशनों में 44 प्रतिशत लोगों के बिना ज़रूरत के आपरेशन किये गये थे.

डाक्टरों ने किस तरह से कई सौ औरतों को गर्भालय के बिना ज़रूरत आपरेशन किये, इसकी खबर भी कुछ वर्ष पहले अखबारों में छपी थी.

इन समाचारों व रिपोर्टों के बावजूद, क्या स्थिति कुछ सुधरी है? आप अपने व्यक्तिगत अनुभवों के बारे में सोचिये और बताईये कि क्या चिकित्सा क्षेत्र में भ्रष्टाचार कम हुआ है या बढ़ा है?

विभिन्न जटिल स्थितियाँ

पर इस वातावरण में ईमानदार डाक्टर होना भी आसान नहीं. आप को कुछ भी रोग हो या तकलीफ़, चिकित्सक यह कहने से हिचकिचाते हैं कि उस तकलीफ़ का इलाज नहीं हो सकता. अगर वह ऐसा कहें भी तो मरीज़ इसे नहीं मानना चाहते हैं तथा सोचते हैं कि किसी अन्य जगह में किसी अन्य चिकित्सक की सलाह लेनी चाहिये. यानि अगर कोई चिकित्सक ईमानदारी से समझाना चाहे कि उस बीमारी का कुछ इलाज नहीं हो सकता तो लोग कहते हें कि वह चिकित्सक अच्छा नहीं, उसे सही जानकारी नहीं.

अगर बिना ज़रूरत के एन्टीबायटिक, इन्जेक्शन आदि के दुर्पयोग की बात हो तो देखा गया है कि लोग यह मानते हैं कि मँहगी दवाएँ, इन्जेक्शन देने वाला डाक्टर बेहतर है. लोग माँग करते हैं कि उन्हें ग्लूकोज़ की बोतल चढ़ायी जाये या इन्जेक्शन दिया जाये क्योंकि उनके मन में यह बात है कि केवल इनसे ही इलाज ठीक होता है.

ऐसी एक घटना के बारे में कुछ दिन पहले असम के जोरहाट शहर के पास एक चाय बागान में सुना. बागान में काम करने वाले मजदूर के चौदह वर्षीय बेटे को दीमागी बुखार हुआ और बुखार के बाद वह दोनों कानों से बहरा हो गया. मेडिकल कालेज में उन्हें कहा गया कि दिमाग के अन्दर के कोषों को हानि पहुँच चुकी है जिसकी वजह से बहरा होने का कुछ इलाज नहीं हो सकता. उन्होंने सलाह दी कि लड़के को बहरों की इशारों की भाषा सिखायी जानी चाहिये. पर वह नहीं माने, बेटे को ले कर कई अन्य अस्पतालों में भटके. अंत में डिब्रूगढ़ के एक अस्पताल में बच्चे को भरती भी किया गया. कई जगह उसके एक्सरे, अल्ट्रसाउँड, केट स्केन जैसे टेस्ट हुए. इसी इलाज के चक्कर में उन्होंने अपनी ज़मीन बेच दी, कर्जा भी लिया, जिसे चुकाने में उन्हें कई साल लगेंगे, पर बेटे की श्रवण शक्ति वापस नहीं आयी. घर में सन्नाटे में बन्द बेटा अब मानसिक रोग से भी पीड़ित हो गया है. यह कथा सुनाते हुए उसके पिता रोने लगे कि बेटे की बीमारी में सारे परिवार के भविष्य का नाश हो गया.

इसमें किसको दोष दिया जाये? शायद भारत की सरकार को जो स्वतंत्रता के साठ वर्ष बाद भी नागरिकों को सरकारी चिकित्सा संस्थानों में स्तर की चिकित्सा नहीं दे सकती? उन चिकित्सा संस्थानों को जो जानते थे कि बहुत से टेस्ट ऐसे थे जिनसे उस लड़के को कोई फायदा नहीं हो सकता था लेकिन फ़िर भी उन्होंने करवाये? या उन माता पिता का, जो हार नहीं मानना चाहते थे और जिन्होंने बेटे को ठीक करवाने के चक्कर में सब कुछ दाँव पर लगा दिया?

जीवन के अंत की दुविधाएँ

शहरों में रहने वाले हों तो परिवार में किसी की स्थिति गम्भीर होते ही सभी अस्पताल ले जाने की सोचते हैं. लेकिन जब बात वृद्ध व्यक्ति की हो या फ़िर गम्भीर बीमारी के अंतिम चरण की, तो ऐसे में अस्पताल से हमारी क्या अपेक्षाएँ होती हैं कि वह क्या करेंगे? जो खुशकिस्मत होते हैं वह अस्पताल जाने से पहले ही मर जाते हैं. पर अगर उस स्थिति में अस्पताल पहुँच जायें,  तो उस अंतिम समय में क्या करना चाहये, यह निर्णय लेना आसान नहीं. कैंसर का अंतिम चरण हो या अन्य गम्भीर बीमारी जिससे ठीक हो कर घर वापस लौटना सम्भव नहीं तो मशीनों के सहारे जीवन लम्बा करना क्या सचमुच का जीवन है या फ़िर शरीर को बेवजह यातना देना है?

कोमा में हो बेहोश हो कर, मशीनों के सहारे कई बार लोग हफ्तों तक या महीनों तक अस्पतालों में आईसीयू पड़े रहते हैं. परिवार वालों के लिए यह कहना कि मशीन बन्द कर दीजिये आसान नहीं. उन्हें लगता है कि उन्होंने पैसा बचाने के लिए अपने प्रियजन को जबरदस्ती मारा है. व्यापारी मानसिकता के डाक्टर हों तो उनका इसी में फायदा है, वह उस अंतिम समय का लम्बा बिल बनायेंगे.

ईमानदार डाक्टर भी यह निर्णय नहीं लेना चाहते. वह कैसे कहें कि कोई उम्मीद नहीं और शरीर को यातना देने को लम्बा नहीं खींचना चाहिये? वह सोचते हैं कि यह निर्णय तो परिवार वाले ही ले सकते हैं. इस विषय में बात करना बहुत कठिन है क्योंकि मन में डर होता है कि उस परिस्थिति में कुछ भी कहा जायेगा तो उसका कोई उल्टा अर्थ न निकाल ले या फ़िर भी मरीज़ की हत्या करने का आरोप न लगा दिया जाये.

अपना बच्चा हो या अपने माता पिता, कहाँ तक लड़ाई लड़ना ठीक है और कब हार मान लेनी चाहिये, इस प्रश्न के उत्तर आसान नहीं. हर स्थिति के लिए एक जैसा उत्तर हो भी नहीं सकता. जब तक ठीक होने की आशा हो, तो अंतिम क्षण तक लड़ने की कोशिश करना स्वाभाविक है. लेकिन जब वृद्ध हों या ऐसी बीमारी हो जिससे बिल्कुल ठीक होना सम्भव नहीं हो या फ़िर जीवन तो कुछ माह लम्बा हो जाये पर वह वेदना से भरा हो तो क्या करना चाहिये? कौन ले यह निर्णय कि ओर कोशिश की जाये या नहीं?

अपने अंतिम समय का निर्णय

भारतीय मूल के अमरीकी चिकित्सक अतुल गवँडे ने अपनी पुस्तक "बिइन्ग मोर्टल" (Being Mortal) में इस विषय पर, अपने पिता के बारे में तथा अपने कुछ मरीजों के अनुभवों के बारे में बहुत अच्छा लिखा है. मालूम नहीं कि यह पुस्तक हिन्दी में उपलब्ध है या नहीं, पर हो सके तो इसे अवश्य पढ़िये. उनका कहना है कि हमें अपने होश हवास रहते हुए अपने परिवार वालों से इस विषय में अपने विचार स्पष्ट रखने चाहिये कि जब हम ऐसी अवस्था में पहुँचें, जब हमारी अंत स्थिति आयी हो, तो हमें मशीनों के सहारे ज़िन्दा रखा जाये या नहीं. किस तरह की मृत्यू चाहते हैं हम, इसका निर्णय केवल हम ही ले सकते हैं. ताकि जब हमारा अंत समय आये तो हमारी इच्छा के अनुसार ही हमारा इलाज हो.

जब हमें होश न रहे, जब हम अपने आप खाना खाने लायक नहीं रहें या जब हमारी साँस चलनी बन्द हो जाये, तो कितने समय तक हमें मशीनों के सहारे "ज़िन्दा" रखा जाये? इसका निर्णय हमारी परिस्थितियों पर निर्भर करेगा और हमारे विचारों पर. अगर मैं सोचता हूँ कि महीनों या सालों, इस तरह स्वयं के लिए "जीवित" रहना नहीं चाहता तो आवश्यक नहीं कि बाकी लोग भी यही चाहते हैं. यह निर्णय हर एक को अपने विचारों के अनुसार लेने का अधिकार है. और आवश्यक है कि हम अपने प्रियजनों से इस विषय में खुल कर बात करें तथा अपनी इच्छाओं के बारे में स्पष्ट रूप से कहें.

अपने बारे में मेरी अंतिम इच्छा मेरे दिमाग में स्पष्ट है. मुझे लगता है कि मैंने अपना सारा जीवन पूरी तरह जिया है, अपने हर सपने को जीने का मौका मिला है मुझे. जहाँ तक हो सके, मैं अपने घर में मरना चाहूँगा. अगर मेरी स्थिति गम्भीर हो तो मैं चाहूँगा कि मुझे अपने पारिवार का सामिप्य मिले, लेकिन मुझे मशीनों के सहारे ज़िन्दा रखने की कोई कोशिश न की जाये!

मैंने इस विषय में कई बार अपनी पत्नी, अपने बेटे से बात भी की है और अपने विचार स्पष्ट किये हैं. आप ने क्या सोचा है अपने अंतिम समय के बारे में?

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