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मंगलवार, फ़रवरी 21, 2017

झाँकियों का अनूठा गाँव

यह दुनियाँ तेज़ी से बदल रही है और इस बदलती दुनियाँ में तकनीकी तथा अन्य विकासों की वजह से जीवनयापन के नये तरीके निकालना आवश्यक हो गया है. आज मैं उतरी इटली के एक गाँव की बात लिख रहा हूँ, जहाँ पर्यटकों को आकर्षित करने तथा स्थानीय व्यवसाय को बढ़ावा देने का एक नया तरीका अपनाया गया है. इस गाँव का नाम है संत अंतोनियो (Sant'Antonio) और यह उत्तरी पूर्व इटली में एल्पस की पर्वतश्रृख्ला के पाज़ूबियो पहाड़ के साये में बना एक गाँव है.

कुछ वर्ष पहले संत अंतोनियो के निवासियों ने पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए मोम की मूर्तियाँ बनाने की सोची. नीचे की तस्वीर में आप इन मूर्तियों का एक नमूना देख सकते हैं जिससे आप उनकी जीवंत कला का अन्दाज़ लगा सकते हैं.


स्कियो का बदलता जीवन

संत अंतोनियों का गाँव स्कियो (Schio) शहर की नगरपालिका का हिस्सा है. इसी स्कियो शहर में हमारा घर है जहाँ मैं रहता हूँ.

पाज़ूबियो (Pasubio) की पर्वत की छाया में बसे छोटे से शहर स्कियो में उन्नीसवीं शताब्दी में बड़े पैमाने पर उद्योगीकरण हुआ. यहाँ का सबसे बड़ा उद्योग था ऊन बनाने की फैक्टरियाँ. आसपास के पहाड़ों पर भेड़े तथा पहाड़ी बकरियाँ पालीं जाती जिनका फर कट कर स्कियो की फैक्टरियों में पहुँचता जहां उसकी रंगबिरंगी ऊन बनती. ऊनी कपड़े बुनने की भी फैक्टरियाँ थीं. इस सब की वजह से यह क्षेत्र बहुत समृद्ध था.

उस समय इटली की राष्ट्रसीमा स्कियो में पाज़ूबियो पर्वत पर थी, पहाड़ के उत्तर की ओर आस्ट्रिया था, दक्षिण में इटली. 1914 में यह क्षेत्र प्रथम विश्वयुद्ध की लपेट में आ गया, जब इटली तथा आस्ट्रिया (Austria) के बीच में भी लड़ाई छिड़ी. अमरीकी फौज की छावनी स्कियो में थी. विश्वयुद्ध के दौरान कुछ समय तक अमरीकी सिपाही अरनेस्ट हेमिगवे, स्कियो की एक ऊन की फैक्टरी में बने अस्पताल में एम्बूलैंस चालक थे, और युद्ध के बाद में प्रसिद्ध लेखक बने.

युद्ध का शहर पर तथा आसपास के गाँवों पर बहुत असर पड़ा लेकिन फ़िर धीरे धीरे, ऊन की फैक्टरियों का काम दोबारा से निकल पड़ा. युद्ध में आस्ट्रिया की हार हुई थी, इसलिए पाजूबियो पर्वत के उत्तर का हिस्सा भी इटली में जुड़ गया.

लेकिन पिछले बीस-तीस वर्षों में वैश्वीकरण की वजह से नयी समस्याएँ खड़ी हो गयीं थीं. चीन से आने वाली सस्ती ऊन तथा स्वेटरों की वजह से यहाँ बनने वाली स्थानीय ऊन का बाज़ार नहीं रहा और एक एक करके सारी ऊन की फैक्टरियाँ बन्द हो गयीं. नये तकनीकी विकास से जुड़े कुछ उद्योग उभर कर आये पर पहाड़ी गाँवों में भेड़ों बकरियों से जुड़े जीवन यापन करने वाले लोगों के लिए कुछ नया खोजना आवश्यक था.

विभिन्न देशों में छोटे पहाड़ी गाँवों में पर्यटन से जुड़े विकास की कई कहानियाँ हैं. कहीं पर मेले आयोजित किये जाते हैं, कहीं पर नये खेल तो कहीं पर गाँवों को रंगबिरंगा बनाया जाता है. इस सब में आवश्यक है कि कुछ ऐसा किया जाये तो अन्य जगह न हो, जिससे गाँव की अपनी, अनूठी पहचान बने और पर्यटक वहाँ आने के लिए आकर्षित हों. संत अंतोनियो के गाँव ने भी ऐसा ही कुछ करने का सोचा.

संत अंतोनियो का खुली हवा में बना क्रिसमस की मूर्तियों का संग्रहालय

जैसे भारत में कृष्ण जन्माष्टमी पर अक्सर लोग घरों के बाहर झाँकियाँ बनाते हैं, इटली में क्रिसमस के अवसर में घर घर में छोटी छोटी झाँकियाँ बनायी जाती हैं.

संत अंतोनियों के लोगों ने सोचा कि इसी प्रथा को बड़े पैमाने पर तथा उसमें कुछ नया जोड़ कर बनाया जाये. चूँकि गाँव में कुछ मूर्तिकार रहते थे, उन्होंने कहा कि मानव आकार की ऐसी मूर्तियाँ बनायी जायें जो देखने में जीती जागती लगें.



उनका दूसरा निर्णय था कि सदियों से जिस तरह गाँव में परिवार रहते आये थे, वे जीवन शैलियाँ लुप्त होने लगी थीं, तो उनकी याद को जीवित रखा जाये जिससे आजकल के बच्चे यह जान सकें कि उनके दादा परदादा किस तरह रहते थे, किस तरह काम करते थे. यह भी निर्णय लिया गया कि उन मूर्तियों में वहां के रहने वालों की छवि दिखनी चाहिये, यानी उनके चेहरे तथा वस्त्र वहाँ के निवासियों पर आधारित होने चाहिये.

नीचे की छवियों में आप इस संग्रहालय की कुछ मूर्तियों को देख सकते हैं. मानव आकार की इन मूर्तियाँ को देख कर अक्सर धोखा हो जाता है कि यह सचमुच के व्यक्ति तो नहीं. पर असली आश्चर्य तो तब होता है जब अब मूर्ति के पास उस व्यक्ति को देखते हैं जिसकी प्रेरणा ले कर वह बनायी गयी थी, लगता है कि दो जुड़वा लोग कहीं से निकल आये हैं.



हर वर्ष यह संग्रहालय करीब 20 दिसम्बर से ले कर जनवरी के अन्त तक सजता है. यहाँ आने का, मूर्तियाँ देखने का, कार पार्किन्ग आदि का, फोटो या वीडियो खींचने का, किसी का कोई शुल्क नहीं है. शायद इसी लिए दूर दूर से बसों में तथा कारों में भर के लोग यहाँ आते हैं. इससे इस क्षेत्र के होटल, रेस्टोरेंट, हस्तकला तथा कला के दुकान वालों के काम तथा आय दोनो बढ़ जाते हैं और गाँव का नाम आसपास सब जगह प्रसिद्ध हो गया है.



यहाँ के रहने वाले इसका एक अन्य फायदा बताते हैं. इस मूर्तियाँ बनाने के कार्य में छोटे बड़े सभी लोग मिल कर काम करते हैं. एक पुरानी कला को जीवित करने का मौका मिला है जिसे वहाँ के नवयुवकों ने सीखा है. आपस में मित्रता तथा जानपहचान के भी नये मौके मिले हैं जिनसे उनका समुदाय सुदृढ़ हुआ है.

वैसे तो यहाँ की मूर्तियों में कई मुझे अच्छी लगती हैं, जैसे कि घर की बालकनी में कपड़े सुखाने डालने वाली युवती की या फ़िर एक नवयुवती की खिड़की के नीचे खड़े उपर निहारते उसके प्रेम में पागल युवक की मूर्ति.


आइये आलेख के अंत में यहाँ की वह दो मूर्तियाँ दिखाऊँ जो मुझे सबसे अच्छी लगती हैं.

इन मूर्तियों में मध्यकालीन जीवन की वह छवि बनी है जब घरों में टायलट नहीं होते थे. तब लोग रात को कमरे में पिशाब करने का बर्तन रखते थे और सुबह उठ कर वह मूत्र सड़क पर फ़ैंक देते थे.


इन दो मूर्तियों में एक वृद्ध व्यक्ति हैं जो घर की बालकनी से रात का मूत्र फ़ैंकने को तैयार हैं. दूसरा व्यक्ति एक छोटा शैतान सा लड़का है, जिसके हाथ में गुलेल है जो वहाँ बालकनी के नीचे से गुज़र रहा है. इस दृश्य को देख कर सहसा हँसी आ जाती है. लगता है कि अभी बच्चा कदम आगे बढ़ायेगा और उसके सिर पर मूत्र की बरखा होगी.



तो बताना नहीं भूलियेगा कि संत अन्तोनियो की मोम की मूर्तियों का खुली हवा का यह संग्रहालय आप को कैसा लगा.

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शुक्रवार, जुलाई 17, 2015

चमकीले फीतों का जहर

बहुत साल पहले एक पत्रिका होती थी "सारिका", उसमें किशन चन्दर की एक कहानी छपी थी "नीले फीते का जहर". क्या था उस कहानी में यह याद नहीं, बस यही याद है कि कुछ ब्लू फ़िल्म की बात थी. पर दुकानों पर लटकती चमकीली थैलियों के फीते देख कर मुझे हमेशा उसके शीर्षक की याद आ जाती है.

Sachet pollution in India - Images by Sunil Deepak

हवा में लटकते फीते किसी बुद्ध मन्दिर में फहराते प्रार्थना के झँडों की तरह सुन्दर लगते हैं. इन थैलियों में शैम्पू, काफी, मक्खन, आदि विभिन्न चीज़ें बिकती हैं, जिनमें कोई जहर नहीं होता. इन झँडों में आम भारतीय उपभोगता की स्वाभाविक चालाकी की कहानी भी है जोकि बड़े बहुदेशीय कम्पनियों के बिक्री मैनेजरों को ठैंगा दिखाती है. तो फ़िर क्यों यह थैलियाँ हमारे जीवन में जहर घोल रही हैं?

थैलियों से जान पहचान

छोटी छोटी यह चमकीली थैलियाँ देखीं तो पहले भी थीं, लेकिन पहली बार उनके बारे में सोचा जब पिछले साल स्मिता के पास केसला (मध्य प्रदेश) में ठहरा था.

थैलियों को कूड़े में देख कर मैंने स्मिता की साथी शाँतीबाई से पूछा था, इस कूड़े का क्या करती हो? यह भी क्या सवाल हुआ, उसने अवश्य अपने मन में सोचा होगा, यहाँ क्या गाँव में कोई कूड़ा उठाने आता है? नींबू या फल सब्जी का छिलका हो तो रसोई के दरवाज़े से पीछे खेत में फैंक दो. और प्लास्टिक या एलूमिनियम की थैली हो तो जमा करके जला दो, और क्या करेंगे इस कूड़े का?

इसीलिए यह थैलियाँ दूर दूर के गाँवों की हवा में रंग बिरंगी तितलियों की तरह उड़ती हैं. लाखों, करोड़ों, अरबों थैलियाँ. भारत इन चमकीली थैलियों की दुनिया भर की राजधानी है.

Sachet pollution in India - Images by Sunil Deepak

एक ओर यह थैलियाँ भारत में अरबों रुपयों की बिक्री करने वाली कम्पनियों के लिए सिरदर्द बनी हैं. वह कम्पनियाँ भी कोशिश करके हार गयीं लेकिन इसका हल नहीं खोज पायीं कि कैसे थैलियों में बेचना कम किया जाये, ताकि मुनाफ़ा बढ़े. उनको हवा में तितलियों की तरह उड़ने वाली थैलियों की चिन्ता नहीं, उनको चिन्ता है कि इन थैलियों से छुटकारा पा कर कैसे अपनी कम्पनी के लाभ को अधिक बढ़ायें.

आज जब "स्वच्छ भारत" की बात हो रही है, तो इन थैलियों की कथा को समझना भी आवश्यक है.

थैंलियाँ कैसे आयीं भारत में?

छोटी थैलियों में चीज़ बेचना यह एक भारतीय दिमाग का आविष्कार था - श्री सी के रंगानाथन का.

तमिलनाडू के कुडालूर शहर के वासी श्री रंगानाथन ने 1983 में चिक इन्डिया (Chik India) नाम की कम्पनी बनायी, जो चिक शैम्पू बनाती थी. उन्होंने चिक शैम्पू को छोटी एलूमिनियम की थैलियों में बेचने का सोचा. उनका सोचना था कि गाँव तथा छोटे शहरों के लोग एक बार में शैम्पू की बड़ी बोतल नहीं खरीद सकते, लेकिन वह भी शैम्पू जैसी उपभोगत्ता वस्तुओं का प्रयोग करना चाहते हैं, तो कम दाम वाली एक रुपये की थैली खरीदना उनके लिए अधिक आसान होगा. उनकी सोच सही निकली और चिक इन्डिया को बड़ी व्यवसायिक सफलता मिली.

1990 में चिक इन्डिया का नाम बदल कर ब्यूटी कोस्मेटिक प्र. लि. रखा गया और 1998 इसके नाम का अन्तर्राष्ट्रीयकरण हुआ तथा यह "केविन केयर प्र. लि." (CavinKare Pvt. Ltd.) कर दिया गया. श्री रंगनाथन को कई पुरस्कार मिल चुके हैं तथा उन्होंने विकलाँग मानवों के साथ काम करने वाली स्वयंसेवी संस्था "एबिलिटी फाउँनडेशन" भी स्थापित की है.

1991 में जब नरसिम्हाराव सरकार ने भारत के द्वार उदारीकरण की राह पर खोले तो दुनियाभर की बड़ी बड़ी बहुदेशीय कम्पनियों ने सोचा कि करोड़ों लोगों की आबादी वाले भारत के बाज़ार में उनकी कमाई के लिए जनता उनकी प्रतीक्षा में बैठी थी. इन कम्पनियों के कुछ उत्पादनों को FMCG (Fast Moving Consumer Goods) यानि "अधिक बिक्री होने वाली उपभोगत्ता वस्तुएँ" के नाम से जाना जाता है, छोटी थैलियाँ उन्हीं उत्पादनों से जुड़ी हैं.

इन कम्पनियों ने जोर शोर से भारत में अपने उद्योग लगाये और वितरण प्लेन बनाये, लेकिन जिस तरह की बिक्री की आशा ले कर यह कम्पनियाँ भारत आयी थीं, वह उन्हें नहीं मिली. कुछ ही वर्षों में लगातार घाटों के बाद सबमें हड़बड़ी सी मच गयी.

जब बहुदेशीय कम्पनियों को भारत के बाज़ार में सफलता नहीं मिली, तो उन्होंने भी छोटी थैलियों की राह पकड़ी. उनका सोचना था कि सस्ती थैलियों के माध्यम से एक बार लोगों को उनकी ब्रैंड की चीज़ खरीदने की आदत पड़ जायेगी तो वह बार बार दुकान में जा कर सामान खरीदने के बजाय उनकी बड़ी बोतल खरीदेंगे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. उनकी छोटी थैलियाँ खूब बिकने लगीं, लेकिन उनकी बड़ी बोतलों की बिक्री जितनी बढ़ने की उन्हें आशा थी, वैसा नहीं हुआ.

Sachet pollution in India - Images by Sunil Deepak

भारत में लोग हर चीज़ को माप तौल कर यह देखते हैं कि कहाँ अधिक फायदा है, और लोगों ने छोटी थैलियों के साथ भी यही किया. अगर आप बड़ी बोतल के बदले उतनी ही चीज़ छोटी पचास या सौ थैलियों में खरीदें तो आप को उसकी कीमत बोतल के मुकाबले कम पड़ती है. इसलिए अधिकतर लोग सालों साल तक छोटी थैलियाँ ही खरीदते रहते हैं, कभी बड़ी बोतल की ओर नहीं जाते. जैसा विदेशों में होता कि हफ्ते में एक दिन जा कर इकट्ठा सामान खरीद लो, वैसा भारत के छोटे शहरों व गावों में नहीं होता. अधिक सामान को खरीद कर कहाँ रखा जाये, यह परेशानी बन जाती है. लोग करीब की दुकान से हर दिन जितनी ज़रूरत हो उतना खरीदना बेहतर समझते हैं, और जिस दिन पैसे कम हों, उस दिन नहीं खरीदते. बड़ी बड़ी कम्पनियों को आखिरकार हार माननी पड़ी. अब उनसे न छोटी थैलियाँ का उत्पादन बन्द करते बनता है और जिस तरह की बिक्री की वह सोचती थीं वह भी उनके हाथ नहीं आयी.

आज छोटे गाँव हों या छोटे बड़े शहर, हर जगह आप को नुक्कड़ की दुकानों में भारतीय तथा बहुदेशीय कम्पनियों की यह छोटी थैलियाँ रंग बिरंगी चमकीली झालरों की तरह लटकी दिखेंगी. इन थैलियों को तकनीकी भाषा में सेशे (sachet) कहते हैं.

कैसे बनती हैं सेशे की छोटी थैलियाँ?

छोटी थैलियों को बनाने में एलुमिनियम, प्लास्टिक तथा सेलूलोज़ लगता है. इनमें एलूमिनियम की एक महीन परत को सेलूलोज़ की या प्लास्टिक की दो महीन परतों के बीच में रख कर उन्हें जोड़ा जाता है. यह बहुत हल्की होती है और इनके भीतर के खाद्य पदार्थ, चिप्स, नमकीन या शैम्पू आदि न खराब होते हैं, न आसानी से फटते हैं. इस तकनीक से थैलियों के अतिरक्त ट्यूब, डिब्बा आदि भी बनाये जाते हैं.

उपयोग के बाद, खाली थैलियों से, माइक्रोवेव की सहायता से एलूमिनियम तथा हाइड्रोकारबन गैस बनाये जा सकते हैं. एलुमिनियम विभिन्न उद्योगों में लग जाता है जबकि हाईड्रोकार्बन गैस उर्जा बनाने में काम आती है. लेकिन अगर इन्हें जलाया जाये तो उससे हानिकारक पदार्थ हवा में चले जाते हैं तथा पर्यावरण प्रदूषित होता है.

एलूमिनयम की जानकारी सोलहवीं शताब्दी में आयी थी लेकिन इस धातू की वस्तुएँ बनाने में सफलता मिली सन् 1855 में. उस समय इसे "मिट्टी की चाँदी" कहते थे, क्योंकि तब यह बहुत मँहगी धातू थी और इससे केवल राजा महाराजाओं के प्याले-प्लेटें या गहने बनाये जाते थे.

एलुमिनियम को सस्ते या टिकाऊ तरीके से बनाने की विधि 1911 में खोजी गयी और धीरे धीरे इसका उत्पादन बढ़ा और साथ ही इसकी कीमत गिरी. आज एलूमिनियम के बरतन अन्य धातुओं के बरतनों से अधिक सस्ते मिलते हैं और अक्सर गरीब घरों में प्रयोग किये जाते हैं. हर वर्ष दुनिया में लाखों टन एलूमिनयम का उत्पादन होता है जिन्हें बोक्साइट की खानों से निकाल कर बनाया जाता है. खानों की खुदाई से पर्यावरण तथा जनजातियों के जीवन की कुछ समस्याएँ जुड़ी हैं जैसा कि ओडिशा में वेदाँत कम्पनी की बोक्साइट की खानों के विरुद्ध जनजातियों के अभियान में देखा जा रहा है.

इस स्थिति में बजाय छोटी थैलियों को कूड़े की तरह फैंक कर पर्यावरण की समस्याएँ बढ़ाने से बेहतर होगा कि उन थैलियों के भीतर के एलूमिनियम को दोबारा प्रयोग के लिए निकाला जाये. इससे कूड़ा भी कम होगा. विकसित देशों में एलुमिनियम के पुनर्पयोग के कार्यक्रम आम है.

भारत में भी कुछ जगह एलुमिनयम के पुनर्पयोग के उदाहरण मिलते हैं लेकिन यह बहुत कम हैं. हमारे देश में अधिकतर जगह इन थैलियों में छुपी सम्पदा को नहीं पहचाना जाता, बल्कि उन्हें कूड़ा बना कर जलाया जाता है या जमीन में गाड़ा जाता है, जिससे नयी समस्याएँ बन जाती हैं.

गुवाहाटी का उदाहरण

यहाँ एक ओर तो जोर शोर से स्वच्छता अभियान की बात होती है, बड़े बड़े पोस्टर लगते हैं कि शहर में सफ़ाई रखिये. दूसरी ओर, हमारे शहरों में कूड़ा इक्ट्ठा करने का आयोजन ठीक से नहीं होता. गुवाहाटी (असम) में भी यही हाल है. शहर में कूड़े के डिब्बे खोजने लगेंगे तो खोजते ही रह जायेंगे. प्रसिद्ध पर्यटन स्थलों या मन्दिरों के आस पास भी कूड़े के डिब्बे नहीं मिलते. खुली जगह पर पिकनिक हो, कोई विवाह समारोह या पार्टी हो, या मन्दिरों में त्योहार की भीड़, लोग आसपास कूड़े के ढ़ेर लगा कर छोड़ जाते हैं.

कूड़े के डिब्बों की जगह पर, शहर में कई कई किलोमीटर की दूरी पर बड़े कूड़ा एकत्रित करने वाले कन्टेनर मिलते हैं. यानि आप पिकनिक पर जायें या मन्दिर जायें, तो उसके बाद कूड़े के थैले ले कर इन कन्टेनरों को खोजिये. अक्सर लोग दूर रखे कम्टेनर तक जाने की बजाय कूड़े को वहीं फैंक देते हैं. पिकनिक स्थलों पर प्लास्टिक की थैलियाँ, चमकीली कागज़ की प्लेटें, मुर्गियों के पँख, इधर उधर उड़ते रहते हैं. (तस्वीर में गुवाहाटी के उमानन्द मन्दिर के पीछे फैंका हुआ कूड़ा)

Sachet pollution in India - Images by Sunil Deepak

गुवाहाटी में छोटी थैलियों का क्या किया जाता है, मैं यह समझना चाहता था. इसी की खोज में मैं एक दिन, शहर के करीब ही, हाईवे से जुड़े "बोड़ो गाँवो" गया, जहाँ ट्रकों से गुवाहाटी शहर का सारा कूड़ा जमा होता है. उस जगह पर, बहुत दूर से ही कूड़े की मीठी गँध गाँव के हवा में बादलों की तरह सुँघाई देती है. इस कूड़े से कई सौ परिवारों की रोज़ी रोटी चलती है. वह लोग झोपड़ियों में कूड़े के आसपास ही रहते हैं. झोपड़ियों के आसपास भी कूड़े के ढ़ेर लगे होते हैं जहाँ उसकी छटाई होती है और जो वस्तुएँ बेची जा सकती हैं, वह निकाल ली जाती हैं. वहाँ कोई विरला ही लिखना पढ़ना जानता है, तथा बच्चे भी स्कूल नहीं जाते.

Sachet pollution in India - Images by Sunil Deepak

आज की दुनिया में हमारे शहरों में व्यवसाय तथा लोग कूड़ा बनाने में माहिर हैं. हर दिन हमारे यहां लाखों टन कूड़ा बनता है. लेकिन सभी कूड़ा बनाने वाले, अपने कूड़े से और उसकी गन्ध से नफरत करते हैं. ऐसी स्थिति में शिव की तरह विष पीने वाले, कूड़े में रह कर काम करने वाले लोग जो उस कूड़े से पुनर्पयोग की वस्तुएँ निकालते हैं, उन्हें तो संतों का स्थान मिलना चाहिये. पर हमारा समाज उनके इस काम की सराहना नहीं करता बल्कि उन्हें समाज से क्या मिलता है, इसकी आप स्वयं कल्पना कर सकते हैं.

उन कूड़े के ढेरों पर बहुत से पशु पक्षी भी घूमते दिखते हैं, जिनमें असम के प्रसिद्ध ग्रेटर एडजूटैंट पक्षी भी हैं.

Sachet pollution in India - Images by Sunil Deepak

कूड़े में अधिकतर स्त्रियाँ तथा बच्चे काम करते हैं. कई बच्चे तीन चार साल के भी दिखे, जो कूड़े की थैलियाँ सिर पर उठा कर ले जा रहे थे. जब भी नगरपालिका का कोई ट्रक आता, वह लोग उसके पीछे भागते ताकि कूड़े को चुनने का उन्हें पहले अवसर मिले.

Sachet pollution in India - Images by Sunil Deepak

कूड़े में काम करने वालों का क्या जीवन है, उनकी समस्याएँ क्या है, यह जानने नहीं गया था. उसके बारे में फ़िर कभी लिखूँगा. बल्कि मेरा ध्येय था यह जानना कि खाली थैलियों का क्या होता है?

Sachet pollution in India - Images by Sunil Deepak

संयोग से, वहाँ पहुँचते ही एक टेम्पो दिखा जिस पर कई हज़ार खाली थैलियाँ प्लास्टिक में बँधी थीं. मैंने उस टेम्पो को देख कर सोचा कि इसका अर्थ था कि खाली थैलियों को अलग कर के रखा जाता है, यानि इन्हे बेचने का तथा इनके पुनर्पयोग का कुछ कार्यक्रम चल रहा है.

पर ऐसा नहीं था. थोड़ी देर बाद वह टेम्पो भी कूड़े के ढेर की ओर बढ़ा जहाँ अन्य ट्रक अपना कूड़ा फैंक रहे थे. टेम्पो वाले युवकों ने प्लास्टिक को खोल कर उन खाली थैलियों को अन्य कूड़े के बीच में फैंक दिया.

Sachet pollution in India - Images by Sunil Deepak

Sachet pollution in India - Images by Sunil Deepak

स्वच्छ भारत

जब तक शहरों में कूड़ा फैंकने की उपयुक्त जगहें नहीं होंगी, लोगों को यह कहने का क्या फायदा है कि सफाई रखिये? शहरों में जगह जगह पर डिब्बे होना जिसमें लोग कूड़ा डाल सके, आवश्यक हैं. मन्दिर तथा पिकनिक स्थलों पर भी कूड़ा जमा करने के डिब्बे रखना ज़रूरी है.

हम से शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जो यह कहे कि वह स्वच्छ भारत नहीं चाहता. लेकिन क्या सड़कों पर झाड़ू लगाने या डिब्बों में कूड़ा फैंकने से भारत स्वच्छ हो जायेगा? झाड़ू लगा कर कूड़ा हटाना तथा डिब्बों में कूड़ा डालना तो केवल पहला कदम है. इससे शहरों में रहने वाले लोगों के सामने की गन्दगी हटती है. लेकिन वही गन्दगी हमारे शहरों के बाहर अगर जमा होती रहती है, तो क्या सच में हमारा वातावरण स्वच्छ हो गया?

देश में हर दिन लाखों करोड़ों टन नया कूड़ा बनता है, उसका क्या करेंगे हम? उसे जला कर वातावरण का प्रदूषण करेंगे या जितना हो सकेगा उसका पुनर्पयोग होना चाहिये?

Sachet pollution in India - Images by Sunil Deepak

चमकीली थैलियों में छुपे लाखों टन एलूमिनियम को निकाल कर उसका दोबारा उपयोग करना बेहतर है या नयी खानें बनाना?

फल सब्जी आदि खाद्य पदार्थों के कूड़े को जमा करके उनसे खाद बनाने से बेरोजगार लोगों को जीवनयापन के माध्यम मिल सकते हैं. वैसे ही थैलियों में छुपे एलुमिनियम के पुनर्पयोग से भी उद्योगों तथा बेरोजगार युवकों को फायदा हो सकता है. बोड़ा गाँव जैसी जगहों में कूड़ा जमा करने वाले लोगों को भी इससे जीवनयापन का एक अन्य सहारा मिलेगा. साथ ही कूड़ा जलाने से जो प्रदुषण होता है वह कम होगा.

जब तक ऐसे प्रश्नों के बारे में नहीं सोचेगें, भारत स्वच्छ हो, यह सपना सपना ही रहेगा और चमकीली थैलियाँ समृद्धी का रास्ता बनने के बजाय, जहर बन कर किसी शिव की प्रतीक्षा करती रहेंगी.

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शुक्रवार, अप्रैल 17, 2015

एक चायवाले का विद्रोह

आजकल मोदी जी ने चायवालों को प्रसिद्ध कर दिया है, लेकिन यह आलेख उनके बारे में नहीं है. वैसे चाय की बातें मोदी जी के पहले भी महत्वपूर्ण होती थीं जैसा कि अमरीकी इतिहास बताता है, जहाँ अमरीका की ब्रिटेन से स्वतंत्रता की लड़ाई भी सन् 1733 के चाय लाने वाले पानी के जहाज़ से जुड़ी थी जिसे बोस्टन की "चाय पार्टी के विद्रोह" के नाम से जानते हैं. पर आज की मेरी बात भारत में सन् 1857 के अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध विद्रोह से जुड़े असम के एक चाय बागान वाले व्यक्ति के बारे में है जिनका नाम था मणिराम दत्ता बरुआ जिन्हें लोग मणिराम दीवान के नाम से भी जानते हैं. उन्हें उत्तर पूर्व के भारत के स्तंत्रता संग्राम के प्रथम शहीद सैनानी के नाम से जाना जाता है.

क्या आप ने पहले कभी उनका नाम सुना है? असम से बाहर रहने वाले लोग अक्सर उनके नाम से अपरिचित होते हैं. मैं भी उन्हें नहीं जानता था. उनसे "पहली मुलाकात" गुवाहाटी में नदी किनारे हुई थी. 

उत्तर पूर्व के स्वंत्रता सैनानी

असम की राजधानी गुवाहाटी में आये कुछ दिन ही हुए थे जब मछखोवा में ब्रह्मपु्त्र नदी के किनारे एक बाग में एक स्मारक देखा जिसमें आठ लोगों की मूर्तियाँ बनी हैं. स्मारक के नीचे लिखा था कि देश की स्वाधीनता के लिए इन वीर व वीरांगनाओं ने त्याग व बलिदान दिया. मुझे वह स्मारक देख कर कुछ आश्चर्य हुआ क्यों कि उन आठों में से एक का भी नाम मैंने पहले नहीं सुना था. वह आठ व्यक्ति थे कनकलता बरुआ, कुशल कोंवर, मणिराम दीवान, पियाली बरुआ, कमला मीरी, भोगेश्वरी फूकननी, पियाली फूकन तथा गँधर कोंवर.

Maniram Dewan & Cinnamara tea gardens, Jorhat, Assam, India - Images by Sunil Deepak

कुछ दिन बाद नेहरु पार्क में घूम रहा था तो वहाँ फ़िर से शहीद कुशल कोंवर की मूर्ति दिखी, तो मछखोवा के स्मारक की बात याद आ गयी. 

सोचा कि भारत में रहने वालों में अपने उत्तर पूर्वी भाग के इतिहास के बारे में तथा यहाँ रहने वाले लोगों के बारे में कितनी काम जानकारी है. जिन लोगों ने भारत की स्वतंत्रता के लिए जान दी, उनके नाम भी बाकी भारत में अनजाने हैं. तो सोचा कि इसके बारे में अधिक जानने की कोशिश करूँगा और इसके बारे में लिखूँगा. पर सोचने तथा करने में कुछ अंतर होता है. बात सोची थी, वहीं रह गयी, और मैं इसके बारे में भूल गया.

Kushal Konwar, Guwahati, Assam, India - Images by Sunil Deepak

Kushal Konwar, Guwahati, Assam, India - Images by Sunil Deepak

फ़िर पिछले माह काम के सिलसिले में उत्तरी असम में जोरहाट गया तो उनमें से एक स्वतंत्रता सैनानी के जीवन से अचानक परिचय हुआ.

मैं जोरहाट शहर से थोड़ा बाहर, मरियानी रेल्वे स्टेशन की ओर जाने वाली सड़क पर सिन्नामारा में विकलाँगों के लिए काम करने वाली एक संस्था "प्रेरणा" की अध्यक्ष सुश्री सायरा रहमान से मिलने गया था. उनकी संस्था गाँव में रहने वाले विकलाँग लोगों के साथ कैसे काम करती है, यह देखने के लिए सायरा जी ने अपने एक कार्यकर्ता मोनोजित के साथ, मुझे वहीं करीब ही एक चाय बागान से जुड़े गाँव में भेजा.

वहीं बातों बातों में मालूम चला कि यह सिन्नामारा के चाय बागान, स्वतंत्रता सैनानी मणिराम दीवान ने प्रारम्भ किये थे. इस बार संयोग से उनकी कर्मभूमि से परिचय हुआ था तो मुझे लगा कि उनके बारे में अवश्य अधिक जानना चाहिये.

उस दिन शाम को वापस जोरहाट में अपने होटल में पँहुचा तो मालूम चला कि वह चौराहा जिसके करीब मैं ठहरा था, उसे मणिराम दत्ता बरुआ चौक  (बरुआ चारिआली) ही कहते हैं. वहाँ सन् 2000 में असम सरकार की ओर से "मिल्लेनियम स्मारक" बनाया गया है जिसमें उनकी कहानी भी चित्रित है.

Maniram Dewan & Cinnamara tea gardens, Jorhat, Assam, India - Images by Sunil Deepak

Maniram Dewan & Cinnamara tea gardens, Jorhat, Assam, India - Images by Sunil Deepak

Maniram Dewan & Cinnamara tea gardens, Jorhat, Assam, India - Images by Sunil Deepak

तो कौन थे मणिराम दीवान और क्या किया था उन्होंने, जिसके लिए अंग्रेज़ी सरकार ने उन्हें विद्रोही मान लिया था?

मणिराम दत्ता बरुआ या मणिराम दीवान

मणिराम का जन्म 17 अप्रेल 1806 को चारिन्ग में हुआ जब उनके पिता श्री राम दत्ता को, उस समय के असम के अहोम राजा कमलेश्वर सिंह से, "डोलाकशारिया बरुआ" का खिताब मिला था. मणिराम को पढ़ाई के लिए बँगाल में नबद्वीप भेजा गया जहाँ उन्होंने अंग्रेज़ी तथा फारसी भाषाएँ भी पढ़ी. 1817 से 1823 के बीच अँग्रेज़ों ने असम पर काबू करने की कोशिश शुरु की, उसी के संदर्भ में मणिराम ने अंग्रेज़ी अफसर डेविड स्कोट तथा उनकी फौज को उत्तरी असम जाने में मार्गदर्शन दिया. वफ़ादार काम करने पर, बीस वर्ष की आयू में मणिराम को डेविड स्काट ने अंग्रेज़ी शासन की ओर से तहसीलदार व शेरिस्तदार का पद दिया.

1833 से 1838 तक, मणिराम अंग्रज़ो द्वारा स्वीकृत असम राजा पुरेन्द्र सिह के "बोरबन्दर बरुआ" यानि प्रधान मंत्री नियुक्त हुए. 1839 में असम में चाय उत्पादन के लिए लँदन में असम कम्पनी बनायी गयी. तभी असम की अंग्रेज़ी सरकार में डेविड स्काट की जगह कर्नल जेनकिन्स ने ली, जिन्होंने मणिराम को दीवान का खिताब दिया तथा वह असम कम्पनी के अफसर बन गये.

1843 में मणिराम ने असम कम्पनी की नौकरी छोड़ दी क्योंकि वह अपना चायबागान लगाना चाहते थे. असम कम्पनी के अंग्रेज़ इस बात से खुश नहीं थे.

1845 में मणिराम ने जोरहाट के पास अपना पहला चायबागान लगाया जहां कलकत्ता में रहने वाले चीनी चाय विषेशज्ञ लाये गये, जोकि उनके सलाहकार बने. उनकी वजह से उस चायबागान को लोग चिन्नामारा (चीनी बाग) कहने लगे. इस जगह को अब सिन्नामारा के नाम से लोग जानते हैं.

मणिराम उद्योगपति बन गये, केवल चाय उत्पादन में नहीं, बल्कि अन्य क्षेत्रों में भी - जैसे कि नमक बनाने व इस्पात बनाने का कारकाना भी लगाया, ईँटें तथा सिरेमिक बनाने की भट्टियाँ लगायीं.

Maniram Dewan & Cinnamara tea gardens, Jorhat, Assam, India - Images by Sunil Deepak

उनकी उन्नति से असम कम्पनी के अंग्रेज़ अफसर चितिंत हुए क्योंकि उनकी दृष्टि में भारतीयों का चाय कारोबार में पड़ने का अर्थ, अंग्रेज़ी कम्पनी का नुकसान था. 1851 में अंग्रेज़ सरकार ने उनके चायबागान तथा सम्पत्ति पर कब्ज़ा कर लिया. असम पर काबू रखने के लिए अंग्रेज़ों ने बंगाल तथा मारवाड़ से लोगों को बुला कर उन्हें अफसर बनाया. मणिराम ने कलकत्ता की अदालत में न्याय के लिए अर्ज़ी दी तथा अंग्रेज़ टेक्सों की आालोचना की कि उनसे स्थानीय अर्थव्यवस्था को कमज़ोर किया जा रहा है. लेकिन अदालत ने उनकी यह अर्ज़ी नामँजूर कर दी, तथा उनके चाय बागान अंग्रेजों को दे दिये गये.

1857 की अंगरेज़ों के विरुद्ध सिपाही क्राँती से मणिराम ने प्रेरणा पायी और उत्तरपूर्व में अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध काम प्रारम्भ किया. अंग्रेज़ी शासन के विद्रोह के आरोप में मणिराम को गिरफ्तार किया गया और 26 फरवरी 1858 को उन्हें फाँसी दी गयी.

आज का सिन्नामारा

सिन्नामारा में आज भी चायबागान हैं, जहाँ बहुत से लोग संथाल जनजाति के हैं. चायबागानों में काम करने के लिए अंग्रेज़ केन्द्रीय भारत से संथाल जाति के लोगों को ले कर आये थे. स्थानीय भाषा न जानने वाले लोगों को रखने का फायदा था कि उन्हें आसानी से दबाया जा सकता था और उनमें विद्रोह कठिन था. इस तरह से आज असम में लाखों संथाली रहते हैं जिनके पूर्वज यहाँ एक सौ पचास वर्ष पहले मजदूर की तरह लाये गये थे.

Maniram Dewan & Cinnamara tea gardens, Jorhat, Assam, India - Images by Sunil Deepak

असम में होने वाले जाति-प्रजाति सम्बँधित झगड़ों-विवादों में एक यह विवाद भी है जिसमें "विदेशी" और "भूमिपुत्रों" की बात की जाती है. आर्थिक तथा सामाजिक पिछड़ापन, संचार तथा यातायात की कठिनाईयाँ आदि की वजह से इतने सालों में असम के समुदायों में जो एकापन आना या समन्वय आना चाहिये था, वह नहीं आया. बल्कि आज उस पर धर्म सम्बँधी भेद भी जुड़ गये हैं.

चायबागान चलाने वालों का कहना है कि चाय के दाम अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार पर निर्भर करते हैं, इस लिए चायबागानों में काम करने के लिए न्यूनतम पगार जैसी बातों को नहीं लागू किया जा सकता. इस तरह से प्रतिदिन आठ घँटे काम करने वाले यहाँ के चायबागान के काम करने वालों को, सप्ताह के 400 रुपये के आसपास की तनख्वाह तथा कुछ खाने का सामान दिया जाता है.

सिन्नामारा में अंग्रेज़ों के समय का पुराना अस्पताल भी है, जिसे असम चाय उद्योग चालाता था लेकिन जो कई वर्षों से बन्द पड़ा है.

Maniram Dewan & Cinnamara tea gardens, Jorhat, Assam, India - Images by Sunil Deepak

अंगरेज़ों के समय और आज का समय देखें तो, बहुत सी बातों में आज दुनिया बहुत बदल गयी है. आज हम स्वतंत्र हैं, जो काम करना चाहें, जिस राह पर बढ़ना चाहें, उसे स्वयं चुन सकते हैं. लेकिन गरीबी, अशिक्षा तथा भ्रष्टाचार, आज भी जँज़ीरें है जो हमें बाँधे रखती हैं.

मेरी चायबागान में काम करने वाले पढ़े लिखे कुछ नवयुवकों से बात हुई, बोले कि पढ़ायी करके भी वही मजदूरी करनी पड़ती है क्योंकि "बिना घूस दिये कुछ काम नहीं मिलता, और घूस देने लायक पैसा हमारे पास नहीं".

आज के भारत की दुनिया बदली है लेकिन चायबागानों में काम करने वाले मजदूरों की दृष्टि से देखे तो जितनी बदलनी चाहिये थी उतनी नहीं बदली.

Maniram Dewan & Cinnamara tea gardens, Jorhat, Assam, India - Images by Sunil Deepak

मणिराम दीवान ने अपना जीवन अंग्रेजों के साथी की तरह प्रारम्भ किया, पर उनमें चाकरी की भावना कम थी, वह स्वयं को उनसे कम नहीं मानते थे, स्वयं उद्योगपति बनने का सपना देखते थे! इन सब बातों की वजह से उन्हें विद्रोह की राह चुननी पड़ी. स्वतंत्रता की राह में उन जैसे कुर्बानी करने वाले अन्य बहुत लोग होंगे लेकिन उनकी अपेक्षा मणिराम दीवान की याद को अधिक प्रमुखता मिली, जोकि स्वाभाविक है क्योंकि इतिहास ऐसे ही बनना है,

कुछ लोग अपने व्यक्तित्व या सामाजिक स्थिति की वजह से लोगों में प्रतीक बन कर रास्ता दिखाते हैं, प्रेरणा देते हैं. पर उस स्वतंत्रता का जितना लाभ यहाँ के गरीब लोगों को मिलना चाहिये था, उसमें हमारे देश में कुछ कमी आ गयी!

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शनिवार, फ़रवरी 22, 2014

हमारे शरीर, सामाजिक विद्रोह व कलात्मक अभिव्यक्ति

सदियों से पैसे वाले व ताकतवर लोग अपनी तस्वीरें बनवाते आये हैं. पिछली सदी में फोटोग्राफ़ी के विस्तार से हर कोई अपनी तस्वीरें खिचवाने लगा. पिछले दशक में डिजिटल कैमरों के प्रचार से और फेसबुक, टिविटर जैसी वेबसाइट के वजह से तस्वीर खीचना और उस पर बातें करना इतना फैला है कि कुछ लोग मानते हैं कि यह सदी शब्दों की नहीं तस्वीरों की सदी कहलायेगी और इससे मानव सभ्यता में बड़ा बदलाव आयेगा. इन सब की वजह से लोगों का अपनी असहमती दिखाना, विद्रोह प्रदर्शित करना या अपनी बात को कलात्मक तरीकों से अभिव्यक्त करना, इस सब में भी नये प्रयोग हो रहे हैं.

शायद फेमेन (Femen) की विद्रोही युवतियों के बारे में आप ने सुना होगा जो कि अपने वस्त्रहीन शरीर के माध्यम से अपनी बात कहती हैं?

फेमेन का नारा है "मेरा शरीर, मेरा घोषणापत्र". फेमेन में हिस्सा लेने वाली युवतियाँ कहती हैं कि वे लोग नारी का यौनिक शोषण, तानाशाही व धर्म के माध्यम से नारी शरीर पर अधिपत्य कायम करने के विरुद्ध हैं. अक्सर फेमेन की युवतियों पर विभिन्न देशों की सरकार व पुलिस बहुत सख्ती से पेश आती हैं, शायद क्योंकि उनके इस वस्त्रहीन विद्रोह में पृतसत्ता पर आधारित समाज की नींव हिलाने वाली बात है जोकि नारी शरीर को नैतिकता से ढकने पर टिका है.

नारी का शरीर ढकना, लज्जा करना, कौमार्य बचाना आदि को विभिन्न समाजों ने इतना महत्वपूर्ण माना है कि उसे धार्मिक ग्रंथों की सहायता से भगवान के दिये आदेशों की मान्यता दी है. बचपन से ही कन्याओं को यह सिखाया जाता है कि यही नारी का जन्मजात स्वभाव है, और पुरुषों को सीख दी जाती है कि माँ, पत्नी व बहनों के इस लक्ष्मणरेखा में बाँध कर रखने में उनकी व उनके पूर्वजों की इज्जत व आत्मसम्मान निहित हैं.

फेमेन का जन्म यूक्रेन में 2008 में हुआ और जल्दी ही पूर्वी व पश्चिमी यूरोप से होता हुआ उत्तरी अफ्रीका व मध्यपूर्व के देशों तक फ़ैल गया. कुछ समय पहले, मिस्र की आलिया अलमाहदी ने जब फेसबुक के माध्यम से अपनी वस्त्रहीन तस्वीर लगा कर अपने परिवार व समाज के प्रति अपना विद्रोह अभिव्यक्त किया तो कुछ लोगों ने उन्हें जान से मारने की धमकी दी और उन्हें मिस्र छोड़ कर स्वीडन में शरण लेनी पड़ी. लेकिन आलिया ने देशनिकाला ले कर भी अपना विद्रोह नहीं छोड़ा, स्वीडन में मिस्री दूतावास के सामने उन्होंने वस्त्रहीन हो कर, हाथ में कुरान को ले कर अपना विद्रोह जताया (आलिया का वीडियो). इससे उनकी जान लेने वाले और बढ़ गये हैं और उन्हें कुछ कुछ दिनो में घर बदल कर, भेष बदल कर रहना पड़ रहा है.

दूसरी ओर शारीरिक नग्नता को कला के माध्यम से सामाजिक संदेश पहुँचाने का माध्यम भी बनाया गया है. अमरीकी फोटोग्राफर स्पैन्सर ट्यूनिक अपनी अमूर्त कला तस्वीरों के लिए बड़ी संख्या में लोगों की वस्त्रहीन तस्वीर खींचने के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध हैं, उनके बारे में मैंने कई वर्ष पहले लिखा था.

मैं अपने शरीर के माध्यम से दुनिया को संदेश देने वाले लोगों के साहस की दाद देता हूँ. इसलिए जब मेरे ब्राज़ीली मित्र मारसेलो ने मुझसे पूछा कि क्या मैं उसके "शरीर के माध्यम से संदेश देने" के फोटोप्रोजेक्ट में हिस्सा लेना चाहुँगा तो मैंने तुरंत हाँ कर दी. मारसेलो के इस फोटोप्रोजेक्ट का नाम है "आ फ्लोर दा पेले" यानि "त्वचा के फ़ूल".

मारसेलो ने एडस् रोग से पीड़ित बच्चों के साथ काम किया है और वह इस फोटोप्रोजेक्ट से सामाजिक व पर्यावरण सरंक्षण का संदेश देना चाहते हैं. उनकी तस्वीरों में शरीर का कमर से ऊपर का हिस्सा वस्त्रहीन होता है जिसपर रंगों से चित्र बनाये जाते हैं. अप्रैल के महीने में मारसेलो इटली आयेगा तो इसके लिए मेरी भी तस्वीर खिंचेगी. आधे धड़ की तस्वीर खिंचवाने में कोई साहस नहीं चाहिये, इसलिए मैं चितित भी नहीं हूँ!

मैं सोच रहा हूँ कि मारसेलो की तस्वीर के लिए शरीर पर कौन सा डिजाइन बनवाना चाहिये? कुछ ऐसा होना चाहिये जिसमें भारत भी हो और प्रकृति व पर्यावरण की बात भी हो. अगर आप के पास कोई सुझाव हों तो अवश्य बताईयेगा.

जब मारसेलो मेंरी तस्वीर खीचेगा तो उसके बारे में आपको बताऊँगा. लेकिन मैं पहले भी कुछ फोटोप्रोजेक्ट में हिस्सा ले चुका हूँ जिनकी कुछ तस्वीरें प्रस्तुत हैं:

(1) पहली तस्वीर मेरा कार्टून है जो मारसेलो ने सन 1997-98 के आसपास एक ब्राज़ील यात्रा के दौरान बनाया था.

Sunil Deepak by Marcelo Mendonça

(2) दूसरी तस्वीर वह है जो कुष्ठ रोग दिवस के अवसर पर एक इतालवी पोस्टर के लिए 2003 में खींची गयी थी. इस पोस्टर से कुछ दिनों के लिए मुझे कुछ प्रसिद्ध मिली थी, क्योंकि यह तस्वीर बहुत सी पत्रिकाओं में छपी थी. जहाँ जाता कुछ लोग पहचान जाते , उँगली उठा कर मेरी ओर इशारा करते.

Sunil Deepak for world leprosy day campaign 2003

(3) तीसरी तस्वीर है सन् 2011 से जब मैंने इतालवी कलाकार विर्जिनया फरीना के मृत्यू के बारे में विभिन्न संस्कृतियों में क्या विचार हैं जो कि इस विषय पर आधारित फोटोप्रोजेक्ट के लिए खिचवायी थी. इस तस्वीर को खींचने के लिए उन्होंने अँधेरे कमरे में एक टोर्च व एक गोल नली का उपयोग किया था जिससे वह मृत्यू का आभास देना चाहती थीं.

Sunil Deepak by Virginia farina

इस प्रोजेक्ट की प्रदर्शनी बोलोनिया शहर के कब्रिस्तान में सात सौ वर्ष पुरानी कब्रों के कक्ष में लगी थी. मुझे कई लोगो ने कहा था कि इसमें हिस्सा न लो, जीते जी मरने की तस्वीर खिंचवाना ठीक नहीं होगा. पर मुझे इस फोटोप्रोजेक्ट में हिस्सा लेना बहुत अच्छा लगा था.

Exhibition of Virginia farina at Certosa cemetery of Bologna

(4) चौथी तस्वीर है पिछले वर्ष से जब लाउरा फ्रास्का व लाउरा बासेगा नाम की दो युवतियों ने इटली में रहने वाले विभिन्न देशों के प्रवासियों के बारे में फोटोप्रदर्शनी बनायी थी. इसमें मुझे एक किताब की दुकान में बैठ कर किताब पढ़ते हुए दिखाया गया था.

Sunil Deepak by Laura Frasca & Laura Bassega

(5) यह अंतिम तस्वीर है इसी वर्ष यानि 2014 की. विकलाँग व्यक्तियों के मानव अधिकारों के बारे में चित्रकथा की किताब में मैं भी एक पात्र हूँ. इसको बनाने वाले कलाकार का नाम है कनजानो.

Sunil Deepak by Kanjano

मेरे विचार में एक विषय को ले कर तस्वीरें खीचने का प्रोजेक्ट बनाना कला की नयी विधि है जिससे सामाजिक संचेतना लाना कुछ आसान हो जाता है क्योंकि जितने अधिक लोग इसमें हिस्सा लेते हैं, उनमें से हर कोई फेसबुक, टिविटर, ब्लाग, आदि के माध्यम से अपने परिवार, मित्रों आदि में इसका विज्ञापन करता है और अधिक लोगों को इसके बारे में जानकारी मिलती है.

जिस तरह से मारसेलो ने अपना प्रोजेक्ट बनाया है, उसमें सभी तस्वीरें ब्लाग पर लगायी जा रही हैं इसलिए प्रदर्शनी लगाने का खर्चा नहीं है और यह प्रोजेक्ट वह धीरे धीरे कई सालों तक बना सकते हैं.

मुझे आशा है कि आप को इनसे अपना कोई फोटोप्रोजेक्ट बनाने की प्रेरणा मिलेगी! अगर   ऐसा हो तो मुझे इस बारे में अवश्य बताईयेगा.

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बुधवार, जनवरी 22, 2014

रेखाचित्रों में स्मृतियाँ (भाग 2)

1980 में जब छात्रवृति ले कर इटली आया था तो वेनिस के पास विचेन्ज़ा नाम के शहर में रहता था. तब मेरे पास कैमरा नहीं था लेकिन एक डिज़ाईन पुस्तिका थी, जिसमें मैं रेखाचित्र बनाता था. कुछ दिन पहले तैंतीस साल पुरानी वह डिज़ाईन पुस्तिका हाथ में आ गयी. उसे देख कर, बहुत सी पुरानी बातें याद आ गयीं. दिसम्बर में एक दिन मैं विचेन्ज़ा वापस लौटा और उन सब जगहों को देखने गया जहाँ मैं प्रारम्भ के दिनों में घूमा था और  चित्र बनाये थे. यह उसी स्मृति यात्रा के विवरण का दूसरा भाग है. ( पहला भाग)

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विचेन्ज़ा शहर के पास एक पहाड़ी है, जिसका नाम है मोन्ते बेरिको (Monte Berico), यानि बेरिको की पहाड़ी. वहाँ एक मध्ययुगीन गिरज़ाघर बना हुआ है. ऊपर पहाड़ी से शहर का विहँगम दृश्य दिखता है और शहर की पृष्ठभूमि में बर्फ़ से ढके एल्पस पहाड़ भी दिखते हैं. मुझे पहाड़ी पर जाना बहुत अच्छा लगता था. अक्सर अँधेरे मुँह सुबह उठ कर ऊपर तक जाता और सूर्योदय की प्रतीक्षा करता जब उगते सूर्य की लालिमा से एल्पस पर्वत बहुत सुन्दर लगते. सुबह जाने का यह फायदा भी था कि अन्य लोगों की भीड़ नहीं होती थी.

भारत में गर्मी की वजह से सुबह घूमने जाना बहुत प्रचलित है. जहाँ बाग हो वहाँ सुबह सुबह सैर करने वालों की भीड़ लग जाती है. मुझे भी सुबह ही घूमने की आदत थी. लेकिन यहाँ ऐसा बहुत कम होता है. अधिकतर लोग सैर करने दिन में या शाम को जाते हैं.

मुझे उस पहाड़ी की ओर अँधेरा होने पर, शाम को जाना भी अच्छा लगता था. ऊपर जाने वाला रास्ता कुछ सुनसान सा होता था तो शाम को वहाँ इधर उधर युवा जोड़ों की भीड़ लग जाती थी. भारत में खुले आम चुम्बन तक नहीं देखे थे, जबकि बेरिको पहाड़ी पर युवा जोड़े एक दूसरे में इतना गुत्थम गुत्था हो रहे रहे होते थे कि उनको देखने का मन में बहुत कौतूहल होता था, जिसे जाने में कई वर्ष लगे.

एक रविवार को बेरिको पहाड़ी पर बैठ कर मैंने नीचे फ़ैले हुए शहर का चित्र बनाया. उस दिन धूप निकली थी, मौसम सुन्दर था और पहाड़ी पर बहुत से लोग घूमने आये थे. रेखाचित्र बनाने के बहाने से अन्य लोगों से मुलाकात और बातें करने का अवसर मिलता था. लोग मुझे रेखाचित्र बनाता देख कर, उसे देखने आते तो बातें शुरु हो जातीं.

उपर से दिखने वाले अधिकतर शहर को मैं नहीं पहचानता था. शहर का वह हिस्सा जहाँ मैं रहता था, केवल उसे पहनता था. शहर के उस हिस्से के बड़े स्मारक, चर्च और भवन जैसे कि प्रसिद्ध इतालवी वास्तूशास्त्र विषेशज्ञ अँद्रेया पाल्लादियो (Andrea Palladio) की बनायी गोलाकार हरी छत वाली बजिलिका (Basilica), वहाँ पहाड़ी से स्पष्ट दिखते थे.

Vicenza memories, 1980 - images by Sunil Deepak, 2014

दिसम्बर में तैतीस सालों के बाद विचेन्ज़ा लौटा तो सबसे पहले, बेरिको की पहाड़ी की ओर ही बढ़ा. चढ़ाई से साँस फ़ूलने लगी और टाँगें दुखने लगी, यानि इतने सालों के गुज़रने की तकलीफ़ होना स्वभाविक ही था.

वहाँ गया जिस जगह पर बैठ कर ऊपर वाली तस्वीर बनायी थी. वहाँ बैठा तो नीचे शहर स्पष्ट नहीं दिख रहा था, बीच में पेड़ पौधे आ रहे थे. पर अन्य जगहों से नीचे का नज़ारा अब भी पहले जितने सुन्दर था, लगता था कि शहर बिलकुल नहीं बदला. शहर की पृष्ठभूमि में बर्फ़ से ढके पहाड़ भी पहले जैसे मेरी स्मृतियों में थे, वैसे ही सुन्दर लग रह थे.

Vicenza memories, 1980 - images by Sunil Deepak, 2014

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होस्टल के पास शहर का सबसे महत्वपूर्ण स्कवायर था, "पियात्ज़ा देल्ला सिनोरिया" (Piazza della Signoria) यानि "राजघरानों का स्कवायर". इस स्कवायर में विभिन्न प्रसिद्ध भवन बने हैं, जिनमें से सबसे महत्वपूर्ण है पाल्लादियो का हरी छत वाला बजिलिका. बीच में एक ऊँचा घँटाघर है और उसके सामने दो ऊँचे खम्बे बने हैं, एक पर वेनिस गणतंत्र का चिन्ह शेर है और दूसरे पर एक पुरुष मूर्ति बनी है. वहाँ बैठ कर मुझे लगता मानो बेनहुर या टेन कमान्डमैंटस जैसी किसी फ़िल्म के सेट पर आ गया हूँ.

एक दिन में वहाँ बैठ कर खम्बे पर बनी पुरुष मूर्ति की तस्वीर बना रहा था तो तीन इतालवी युवकों से बातचीत हुई.

Vicenza memories, 1980 - images by Sunil Deepak, 2014

वे तीनो युवक मिलेटरी की ट्रेनिंग के लिए विचेन्ज़ा आये थे. उस समय इटली में हर नवयुवक को अठारह वर्ष पूरे करने पर, एक साल के लिए मिलेटरी में बिताना लेना अनिवार्य होता था. युवा लोगों को हाई स्कूल पास करने के बाद और कोलिज की पढ़ाई पूरी करने से पहले, जीवन का एक साल पढ़ाई को छोड़ कर, देश के नाम देना पड़ता था. बहुत से युवा मन्नत माँगते थे कि उनके मेडिकल चेकअप में कोई कमी निकल आये जिससे उन्हें मिलेटरी सर्विस के उस एक साल से छुट्टी मिल जाये. जो लोग मिलेटरी में हिस्सा नहीं लेना चाहते थे, उन्हें एक साल के बजाय, दो सालों के लिए समाज सेवा का कोई काम करना होता था. इसलिए एक साल बचाने के लिए लोग मिलेटरी की सर्विस न चाहते हुए भी कर लेते थे.

उन तीन युवकों के नाम थे एत्ज़िओ, फ्राँचेस्को और मारिउत्ज़ो. फ्राँचेस्को को मिलेटरी में वह वर्ष बिता कर "बेकार करने" का बहुत गुस्सा था. जबकि एत्ज़िओ को कविता लिखने का शौक था. उस दिन एत्ज़ओ ने मेरी डिज़ाइन पुस्तिका पर दो कविताएँ लिखी. तब कुछ बात करने लायक इतालवी तो आ गयी थी लेकिन एत्ज़िओ की कविता मुझसे समझ नहीं आयी थी. अब समझ में आती है. उसमें एत्ज़िओ ने लिखा थाः

Vicenza memories, 1980 - images by Sunil Deepak, 2014
"... मैं आसपास देखता हूँ
अपनी छोटी सी खिड़की से
एक बिन पेड़ों की दुनिया
घर, और अन्य घर
और कुछ नहीं.
प्रिय दूर के मित्र
तुम्हें लिखना चाहता हूँ
लेकिन मेरे हाथ एक खालीपन में सिमट जाते हैं ..."
इस बार, तैंतीस साल बाद जब उस स्कवायर में लौटा तो लगा कि कुछ भी नहीं बदला था. वहीं अपनी पुरानी सीढ़ियों पर बैठ कर मैंने आइसक्रीम खाई, जहाँ उस दोपहर को बैठा था जब एत्ज़िओ, फ्राँचेस्को और मारिउत्ज़ो मिले थे. क्या जाने वह तीनो अब कहाँ होंगे और जीवन के रास्ते उन्हें किन दिशाओं में ले गये होंगे!

Vicenza memories, 1980 - images by Sunil Deepak, 2014

Vicenza memories, 1980 - images by Sunil Deepak, 2014

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नदी के किनारे पर बना क्वेरीनी पार्क (Parco Querini) मुझे बहुत अच्छा लगता था. बाग की हरियाली के बीच में नदी से ली हुई एक छोटी सी नहर बनी थी जिसमें बतखें तैरती थीं और बच्चे उन्हें रोटी के टुकड़े डालते थे. नहर के एक गोल घुमाव के बीच में एक छोटी सी पहाड़ी थी जिस पर एक गुम्बज वाली छतरी बनी थी. तभी कुछ दिन पहले समाचार सुना था कि उस गुम्बज पर बिजली गिरी थी और उसके नीचे बैठे एक पंद्रह वर्ष के लड़के की मृत्यू हो गयी थी. इस वजह से मुझे उस गुम्बज से डर भी लगता था और उसकी ओर आकर्षित भी होता था.

Vicenza memories, 1980 - images by Sunil Deepak, 2014

एक दिन में वहाँ बाग में लगी मूर्तियों की तस्वीर बना रहा था तो एक अमरीकी लड़का मेरे पास आया था. कोट, टाई पहने हुए, वह लड़का किसी एवान्जेलिक चर्च का प्रचारक था जिससे कई घँटे तक मैंने धर्म के विषय पर बहस की थी. इस बात को बिल्कुल भूल गया था लेकिन बाग की वह बैन्च देखी जहाँ मैं उस दिन बैठा था तो यह सारी बात याद आ गयी. पार्क में भी कोई विषेश अन्तर नहीं दिखा.

Vicenza memories, 1980 - images by Sunil Deepak, 2014

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क्रमशः  -  पहला भाग

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रविवार, जनवरी 19, 2014

रेखाचित्रों में स्मृतियाँ - भाग 1

1980 में जब छात्रवृति ले कर इटली आया था तो वेनिस के पास विचेन्ज़ा नाम के शहर में रहता था. वहाँ के अस्पताल में आईसीयू में प्रोफेसर रित्ज़ी के शाथ काम कर रहा था. तब मेरे पास कोई कैमरा नहीं था. हाँ तस्वीरें बनाने का शौक था और पास में डिज़ाईन पुस्तिका थी. हर जगह अपनी डिज़ाईन पुस्तिका व पैन्सिल ले कर जाता और मित्रों की, उनके बच्चों की, जगहों की, तस्वीरें बनाता. कभी कभी उन तस्वीरें के पीछे डायरी की तरह कुछ लिख भी देता. करीब छः महीनों में वह डिज़ाईन पस्तिका पूरी भर गयी थी.

फ़िर समय बीता, शहर बदले और विचेन्ज़ा की बातें भूल गया. दोबारा फ़िर कोई डिज़ाईन पुस्तिका नहीं खरीदी, क्योंकि तब मेरे पास कैमरा आ गया था. उसके बाद कुछ बार विचेन्ज़ा से गुज़रा, लेकिन वहाँ रुका नहीं. कुछ दिन पहले तैंतीस साल पुरानी वह डिज़ाईन पुस्तिका हाथ में आ गयी. उसे देख कर, बहुत सी पुरानी बातें याद आ गयीं. दिसम्बर में एक दिन मैं विचेन्ज़ा वापस लौटा और उन सब जगहों को देखने गया जहाँ मैं प्रारम्भ के दिनों में घूमा था और  चित्र बनाये थे. इस पोस्ट में उन पुराने रेखाचित्रों की और उनके पीछे लिखी बातों की, और ३३ साल लौट कर उन पुरानी जगहों को देखने के अनुभव की चर्चा है.

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विचेन्ज़ा की प्रमुख सड़क कोर्सो पाल्लादियो पर फिलीप्पीनी चर्च है जिसके ऊपर एक विद्यार्थी होस्टल था जहाँ अस्पताल वालों ने मेरे रहने का इन्तज़ाम किया था. उस होस्टल की दूसरी और तीसरी मन्ज़िल पर हाई स्कूल के लड़कों की डोरमेटरी थी, जबकि मुझे पादरियों के साथ पहली मन्ज़िल पर एक अलग कमरा मिला था. मेरे सामने वाले कमरे में फादर लुईजी रहते थे, बहुत शान्त, विनम्र व शर्मीले थे वह और हाई स्कूल में पढ़ाते थे. उन्होंने मुझे अपना रिकार्ड प्लेयर दिया था जिस पर में भारत से लाये कुछ रिकार्ड सुनता था. मेरे कमरे की खिड़की छोटी सी सड़क पर खुलती थी जहाँ पर एक सिनेमाघर था. शुरु शुरु में सारी शाम उसी खिड़की पर बैठा रहता, कोई किताब पढ़ता रहता और सिनेमा देखने वाले आते जाते लोगों को देखता.

होस्टल में मेरा पहला मित्र बना था मनार, जो जोर्डन से आया था. उसे थोड़ी अंग्रेज़ी आती थी इसलिए उससे बात कर सकता था. अस्पताल में कुछ अंग्रेज़ी बोलने वाले लोग थे, पर शाम को वापस होस्टल आने पर मनार के अतिरिक्त कोई अन्य अंग्रेज़ी बोलने वाला नहीं था. मनार गरीब परिवार का था, उसके पास होस्टल की फ़ीस देने के लिए पैसे नहीं थे, इसलिए वह होस्टल की रसोई में बर्तन धोने का काम भी करता था. शाम को वह बर्तन धोता तो मैं वहीं उसके पास ही बैठा रहता, उससे बातें करने के लिए.

होस्टल के सामने थोड़ी सी खुली जगह थी, वहाँ रविवार को लड़के फुटबाल खेलते. मनार भी बर्तन धो कर उनके साथ खेलने में लग जाता. वहीं पर एक दिन मैंने अपना पहला रेखाचित्र बनाया था, सामने वाली दीवार का, जिसपर एक पुरानी मूर्ति लगी थी और आसपास खिड़कियाँ थीं. नीचे फुटबाल का द्वार बना था.

Vicenza memories, 1980 - images by Sunil Deepak, 2014

फ़िर एक दिन मनार की तस्वीर भी बनायी. मुझे वहाँ रहते करीब एक महीना हुआ था जब मनार ने बताया कि उसे मिलान में इन्जीनियरिन्ग कालेज में दाखिला मिल गया. मुझे बहुत दुख हुआ जब वह मिलान चला गया.

Vicenza memories, 1980 - images by Sunil Deepak, 2014

लेकिन मनार के जाने के बाद, मेरी इतालवी भाषा की पढ़ाई आसान हो गयी थी. सोमवार से गुरुवार तक तो फ़िर भी अस्पताल में किसी न किसी से अंग्रेज़ी में बात कर सकता था लेकिन शाम को और सप्ताहान्त में, आसपास सब केवल इतालवी भाषी थे, तो इतालवी बोले बिना काम नहीं चलता था. इस तरह से सही गलत बोलने का डर मिट गया, शब्दों, इशारों से बोलना ही पड़ता. पहले महीने में मनार के रहते इतालवी बोलना नहीं सीख पाया था, उसके जाने के बाद, कुछ दिन में ही नये नये शब्द सीखने लगा. उन्हीं दिनो अस्पताल के हमारे डिपार्टमैंट वाले एक अन्तर्राष्ट्रीय कोनफ्रैन्स का आयोजन करने वाले थे जिस के लिए मुझे कुछ आलेखों को इतलावी से अँग्रेज़ी में अनुवाद करने के लिए कहा गया. उसके लिए मैं प्रतिदिन कई घँटे इतालवी-अंग्रेज़ी शब्दकोष के साथ बिताता. इतालवी भाषा बोलने का ऐसा अभ्यास हुआ कि अंग्रेज़ी में बात करना बन्द ही हो गया. एक दो महीने के बाद मनार एक दिन वापस आया तो मुझे फर्राटे से सबसे इतालवी भाषा बोलते देख कर हैरान हो गया.

तैंतीस सालों के बाद इस दिसम्बर में वहां लौट के गया तो पहले फिलीप्पीनी चर्च में घुसा. जब ऊपर होस्टल में रहता था तो एक दो बार उस चर्च में सिम्फोनिक संगीत की कन्सर्ट सुनने गया था, पर कभी उसे ठीक से नहीं देखा था. पहले दिल्ली में करोल बाग में जहाँ रहते थे, वहाँ सामने मेथोडिस्ट चर्च था, जहाँ मैं पादरी के बेटे के साथ खेलता था. तो सोचता था कि चर्च केवल प्रार्थना की जगह है, वहाँ देखने को कुछ नहीं होता. इस बार उस छोटे से चर्च को ठीक से देखा. इस चर्च में बहुत सुन्दर ऑरगन है जिसकी वजह से यहाँ संगीत कन्सर्ट का आयोजन होता रहता है. जिन दिनों में वहाँ रहता था, तब मेरे कमरे में भी उस ऑरगन की आवाज़ गूँजती थी.

चर्च के साथ गली में गया तो पुराने सिनेमा हाल को देख कर पुरानी बातें याद आ गयीं. ऊपर उस खिड़की को देखा जहाँ घँटों बैठा रहता था.

फ़िर पीछे होस्टल की ओर गया तो कुछ पहचान नहीं पाया. वह जगह बिल्कुल बदल गयी लग रही थी. जहाँ लड़कों के खेलने की जगह थी, वहाँ कारों की पार्किन्ग बन गयी थी. दीवार से वह मूर्ति हटा दी गयी थी उसके पीछे वाले घर नये बने थे. बीच में कुछ पेड़ लग गये थे. सब कुछ बिल्कुल सुनसान. नीचे रसोई के बाहर जहाँ मैं बैठता था, वहाँ गया तो भीतर कुछ लोग दिखे. उन्हें बताया कि मैं वहाँ तैंतीस साल पहले रहता था, उनसे पूछा कि क्या कोई पुराना है, बोले इतना पुराना तो कोई भी नहीं है.

Vicenza memories, 1980 - images by Sunil Deepak, 2014

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सन लोरेन्ज़ो स्कवायर से हो कर हर रोज़ मैं अस्पताल पैदल ही जाता था. तैहरवीं शताब्दी के सन लौरेन्ज़ो चर्च में भीतर कभी नहीं गया था. एक दिन चर्च के बाहर वहाँ लगी एक मूर्ति को बना रहा था तो चर्च से एक पादरी निकल कर आया था और मुझसे पूछने लगा था कि उस मूर्ति में या उसके पीछे वाले बैंक के भवन में  ऐसा क्या था जो मैं उसकी तस्वीर बना रहा था? उसके विचार में मुझे प्राचीन गिरज़ाघर की तस्वीर बनानी चाहिये थी. मैंने उस पादरी की बात हँस कर टाल दी थी.

Vicenza memories, 1980 - images by Sunil Deepak, 2014

तब मुझे "तैहरवीं शताब्दी का प्राचीन गिरजाघर" का क्या अर्थ या महत्व होता है, यह नहीं मालूम था. तब उस जगह का क्या इतिहास था, उसके भीतर क्या था, यह सब जानने की कोई उत्सुकता नहीं थी.

कुछ मास बाद, सर्दियाँ आ गयीं थी जब एक दिन शाम को अस्पताल से वापस आते हुए मुझे देर हो गयी थी, अँधेरा हो गया था. सन लोरेन्ज़ो स्कवायर से गुजर रहा था तो एक लड़के ने मुझे पुकारा था. बैंक के सामने एक खम्बे से किसी ने उसके हाथ पीछे करके बाँध दिये थे. किसने किया यह, मैंने पूछा था. उसने कहा था कि उसके कुछ मित्रों ने मज़ाक में ऐसा किया था, और वह वहाँ आधे घँटे से खड़ा था लेकिन कोई उस ओर से गुज़रा ही नहीं था. मुझे बहुत अज़ीब लगा, लेकिन मैंने उसके हाथ खोल दिये थे. बाद में बहुत देर तक सोचता रहा था कि यह कैसा मज़ाक था और कैसे मित्र थे जो ऐसा मज़ाक करते थे? थोड़ी देर के लिए, बस बाँधा और चले गये? और अगर मैं वहाँ से न गुज़रता तो क्या वह वहीं बँधा रहता? शायद बीयर या वाइन के नशे में उनकी सोच समझ गुम हो गयी थी?

एक अन्य बार होस्टल के अपने एक मित्र के साथ, उस स्कवायर में बैठ कर रात को देर तक बातें करना भी याद है. किस बारे में वे बातें थीं, यह नहीं याद.

इस बार दिसम्बर में जब विचेन्ज़ा गया तो घूमते घूमते जब सन लोरेन्ज़ो स्कवायर पहुँचा तो बहुत देर तक उस जगह को पहचान नहीं पाया था. मूर्ति के सामने नये फुव्वारे बन गये थे इसलिए वह जगह भिन्न लग रही थी. वहाँ फिलीप्पीनी होस्टल से जाने वाले रास्ते से नहीं गया था, शायद इसलिए भी तुरंत समझ नहीं पाया था कि कहाँ पहुँच गया था. जब पीछे होस्टल की ओर जाने वाली सड़क देखी तभी समझ आया था कि वह कौन सी जगह थी. एक पल के लिए अचरज हुआ कि इतनी जानी पहचानी जगह को इस तरह कैसे भूल गया था!

Vicenza memories, 1980 - images by Sunil Deepak, 2014

इस बार पहली बार उस प्राचीन सन लोरेन्ज़ो चर्च में भी घुसा, जिसके बाहर से इतनी बार गुजर कर भी उसे भीतर से पहले देखने का नहीं सोचा था. नेपोलियन के इटली पर शासन के समय में यहाँ एक मिलेटरी अस्पताल बनाया गया था. प्रथम विश्व युद्ध के समय यहाँ मिलेटरी का गोदाम बनाया गया था. 1228 में गौथिक शैली में बने गिरजाघर में कुछ खम्बें व दीवारें पुरानी हैं और कुछ हिस्से नये हैं. उस चर्च कुछ प्रसिद्ध प्राचीन कलाकृतियाँ भीं हैं.

Vicenza memories, 1980 - images by Sunil Deepak, 2014

(क्रमशः)

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हमारी भाषा कैसे बनी

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