सोमवार, अगस्त 22, 2005

दिल्ली १९८४

इन दिनों नानावती रिपोर्ट के बाद १९८४ में दिल्ली में हुई घटनाओं के घाव फिर से खुल गये हैं. मैं उन दिनों इटली से अपनी पत्नी और कुछ महीने के बेटे के आने की प्रतीक्षा कर रहा था.

जहाँ हम रहते थे वहां ६ सिख परिवार थे, एक मुस्लिम और एक ईसाई, बाकी के घर हिंदु थे. जब शहर से दंगों के समाचार आये, हम सब लड़कों ने मीटिंग की और रक्षा दल बनाया, बाहर से आने वाले दंगा करने वालों को रोकने के लिए. हांलाकि छतों से शहर में उठते जलते मकानों के धूँए दिख रहे थे, पर सचमुच क्या हुआ यह तो हमें पहले पहल मालूम नहीं हुआ. वे सब समाचार तो कुछ दिन बाद ही मिले.

आज प्रस्तुत है अर्चना वर्मा की कविता "दिल्ली ८४" के कुछ अंश, उनके कविता संग्रह "लौटा है विजेता" से (१९९३). अगर पूरी कविता पढ़ना चाहें तो यहां क्लिक कीजिये.

दिल्ली ८४
दिन दहाड़े
बाहर कहीं गुम हो गया
सड़कों पर
जंगल दौड़ने
लगा.

उसके घर में
आज चूल्हा नहीं जला
चूल्हे में आज
घर
जल रहा था.

ऐन दरवाजे पर
मुहल्ले के पेट में
चाकू घोंप कर
भाग
गया था कोई.
रंगीन पानी में नहाई पड़ी थीं
गुड़ीमुड़ी गलियाँ, खुली हुई
अँतड़ियाँ.

और आज दो तस्वीरें एक चीन यात्रा से.

रविवार, अगस्त 21, 2005

अरुंधति राय या मेधा पटकर ?

आऊटलुक में अरुँधति राय का लेख पड़ा, जिसमें अंत में वे एक गाँव की बात करती हैं जहाँ गाँव वालों ने बिना किसी परेशानी के, दो औरतों को आपस में शादी करने दी. मैं सोचता हूँ कि अगर दो पुरुष या दो स्त्रियाँ एक दूसरे से प्रेम करते हैं और साथ जीवन गुजारना चाहते हैं तो उनको इस बात का पूरा हक होना चाहिये. ऐसी ही एक अपील मुम्बई से मेरे पास आयी है जो माँग करती है भारतीय कानून की धारा ३७७ को बदलने की. धारा ३७७ पुरुष या स्त्रियों में कुछ सेक्स सम्बंधों को जुर्म मानता है. मेरे विचार में जो बात जबरदस्ती से किसी से की जाये या फिर नाबालिग बच्चों के साथ हो, उसी को जुर्म मानना चाहिये. अगर बालिग लोग अपनी मर्जी से, अपनी प्राईवेसी में कुछ भी करते हैं तो यह उनका आपसी मामला है.

मुझे अरुँधति राय का लिखना बहुत अच्छा लगता है. हाँलाकि उनकी हर बात से मैं सहमत नहीं पर यह तो मानना ही पड़ेगा कि उनके लिखने का अन्दाज़, शब्दों और उपमाओं का चुनाव, हर बात के पीछे शौध से खोज कर निकाली हुई बातें, सभी उनके लेखों को पढ़ने योग्य बनाती हैं. कुछ वर्ष पहले मेरी उनसे मुलाकात दिल्ली के हवाई अड्डे पर हुई थी. दो मिनट बात की, नर्मदा के बारे में उनके लेखों की प्रशंसा की, अपना परिचय दिया और एक फोटो खींचा.

उस समय तो विचार ही नहीं किया पर बाद में सोचा कि उनके साथ उनके पति भी तो थे, जिनकी तरफ न मैंने देखा और उन्हें न ही नमस्ते की. उन्होंने भी सोचा होगा कि मुझे शिष्टता के नियम नहीं आते या फिर प्रसिद्ध पत्नी के प्रशंसकों के ऐसे ही व्यवहार के आदी हो गये हों.

समाज और परिवार हम पुरुषों को इस तरह पला बड़ा करते हैं जिसमें पत्नी को पति से कुछ कम ही होना चाहिये या फिर बहुत हो तो बराबरी हो. जब पत्नी पति से अधिक हो जाती है तो इसे स्वीकार करना आसान नहीं और मेरे विचार में इसके लिए पुरुष में गहरा आत्मविश्वास और आत्मसम्मान चाहिए. अगर पुरुष में पूरा आत्मविश्वास न हो तो अपने से प्रसिद्ध पत्नी के साथ नहीं निभा पाता. अरुंधति राय जितनी भी प्रसिद्ध हों, कम से कम सड़क पर लोग तो उनके पीछे न ही दौड़ेंगे और उनकी प्रसिद्धी एक छोटे से पढ़े लिखे वर्ग में ही सीमित रहेगी. उनके पति पर उतना दबाव नहीं होगा जितना किसी फिल्म अभिनेत्री के पति पर हो सकता है ?

मुझे कुछ साल पहले मेधा पटकर से भी मिलने का मौका मिला था जब वह रोम में हमारी एक सभा में आयीं थीं. मेधा जी के बोलने में आग और तूफान है. सोच सकता हूँ कि जब वह जनता से बोलती होंगी तो बहुत प्रभावित करती होंगी.

जहाँ अरुंधति की पढ़ी लिखी शहरी सभ्यता की छवि है, मेधा जी में गाँव की मिट्टी की सुगंध है. जब कभी लोगों से उनकी तुलना या किसी एक को ऊँचा नीचा दिखाने की बातें सुनता हूँ तो हँसी आती है. कोई भी बड़ा जन संघर्ष हो, जैसा कि नर्मदा संघर्ष है, तो उसमें हजारों लोगों के साथ काम करने से ही आंदोलन चल सकता है. ऐसे संघर्ष को मेधा और अरुँधति जैसे सभी योगदानों की आवश्यकता है. बेमतलब तुलना और छोटा बड़ा सोचना, केवल हमें कमज़ोर करता है.

दिल्ली हवाई अड्डे पर अरुंधति राय

रोम में मेधा पटकर और अन्य मित्र

शनिवार, अगस्त 20, 2005

त्रुल्लीप्रदेश के त्रुल्लो

इटली के दक्षिण पूर्व में है पूलिया राज्य जहाँ की राजधानी है बारी. करीब ही ब्रिन्देसी का प्रसिद्ध बंदरगाह है. इसी राज्य में कुछ छोटे छोटे शहर हैं, एक वादी के आसपास, जिन्हें "तैर्रा देई त्रुल्ली" यानि के त्रुल्लीप्रदेश कहा जाता है. यह नाम यहाँ के पारमपरिक घरों की बजह से है क्योंकि इन घरों को त्रुल्लो कहते है (एक घर त्रुल्लो और अनेक हों तो त्रुल्ली).

यह घर वहाँ के आसपास पाये जाने वाले एक विषेश तूफो पत्थर से, जो कि लाइमस्टोन जैसा पत्थर है, बनाते हैं और इन घरों को बनाने की कला करीब दो हजार साल पुरानी है. पत्थरों को खूबी से काट कर ऐसे एक के साथ दूसरा रखा जाता है कि बिना रेता या सीमेंट के पूरा त्रुल्लो बस सिर्फ पत्थरों से ही बनता है. घरों का विशिष्ट आकार ऐसा है कि धूँआ और गर्मी दोनो से ही बचाता है.

पाओलो, मेरे मित्र और इस यात्रा में मेरे साथी, कहते हैं कि त्रुल्लों को बनाने की कला अब धीरे धीरे लुप्त हो रही है. किसके पास इतना समय है कि पत्थर काट कर धीरे धीरे अपने लिए यह घर बनाये. इसलिये इस्तरिया की वादी में लोग त्रुल्लियां तोड़ कर साधारण घर बना रहे हैं.

लेकिन इस कला को खोने से बचाने के लिए आ पहुँचे हैं बाहर के लोग, जो यहाँ पुराने त्रुल्लों को खरीद कर, उन्हें अन्दर से आधुनिक घरों की तरह सब सुविधाओं से भर देते हैं पर बाहर से घर का
कुछ पारमपरिक रुप बनाये रखते हैं, और इन घरों का छुट्टियों में इस्तमाल करते हैं.

आज की तस्वीरें में देखिये इस्तरिया वादी के आधुनिक त्रुल्लों को और मेरे मित्र पाओलो को.


शुक्रवार, अगस्त 19, 2005

बेतुके शीर्षक का रहस्य

कल सुबह हड़बड़ी में लिखा था चिट्ठा, इसलिए गड़बड़ हो गयी. चिट्ठे का शीर्षक लिखा "कैसे आऊँ पिया के नगर" पर उसमें बातें कम्प्यूटर, मोडम, सर्वर और कुत्तों की थीं, पिया के नगर का कोई नामोनिशान ही नहीं था. शायद ऐसा होने का कारण है कि कुछ सोच कर शीर्षक लिखता हूँ कि आज का चिट्ठा इस बारे में होगा, पर फिर जब लिखने लगता हूँ तो विचार कभी कभी किसी अन्य दिशा में चले जाते हैं. अगर हड़बड़ी न हो, तो अंत में कोई नया शीर्षक ढ़ूंढ़ा जाता है और चिट्ठा तैयार हो जाता है.

पर क्या सब बात केवल हड़बड़ी की थी ? अगर आप मनोविज्ञान जानते हैं तो समझ गये होंगे कि जल्दबाजी में की हुई गलती में मन की छुपी हुई बातें भी कई बार निकल कर आ सकती हैं. अगर इस दृष्टि से देखें तो इस शीर्षक से सपष्ट समझ में आता है कि शादीशुदा होने के वावजूद मेरी कहीं कोई छिपी हुई प्रेमिका है जिससे मैं मिलने को बेताब था. क्या खयाल है आप का ? या फिर इस शीर्षक में भक्त्ती भाव भी ढ़ूंढ़ा जा सकता है जैसे मन्नाडे जी के गीत "लागा चुनरी में दाग, छुपाऊँ कैसे" में था. यानी कि जिस "पिया" से मैं मिलने को बेचैन हूँ, वह इश्वर है. राम नाम सत्य!

कुछ वर्ष पहले मैंने एक कोर्स किया था कि कैसे हाथ कि लिखाई से लिखने वाले के व्यक्तित्व को समझें. यानी आप अगर कागज़ के दाहिने हाशिये की तरफ खाली जगह छोड़ देते हैं तो इसका अर्थ है कि आप को भविष्य से डर है और आप उसका सामना नहीं करना चाहते. अगर आप बायें हाशिये पर जगह छोड़ देते हैं तो आप अपने बीते हुए कल से भागने के चक्कर में हैं. अगर बिना लाइन के कागज पर आप सीधा एक लकीर में लिखते हैं तो, आप में भयंकर आत्मसंयम है, अगर शब्द ऊपर की ओर जा रहे हैं तो आप आशावादी हैं और अगर शब्द नीचे जा रहे हैं तो निराशावादी. इस कला के विशेषज्ञ तो केवल हाथ की लिखाई से पहचान लेते हैं कि आप असली खूनी हैं या नहीं. अगर आप सोचते हैं कि मैं यूँ ही लम्बी हाँक रहा हूँ तो पढ़िये इस बारे में. अमरीका में लिखाई विशेषज्ञ की गवाही कानून में भी स्वीकार की जाती है.

मेरे इस चिट्ठे से तो आप समझ ही गये होंगे कि मुझमें भयंकर आत्मसंयम है. तो इन कम्प्यूटर, एस एम एस, आदि की दुनिया में यह विशेषज्ञ शायद बेकार हो रहे होंगे ? नहीं, अब यह देखते हैं कि आप कौन सा फौंट इस्तेमाल करते हैं, छोटा फौंट पसंद करते हैं या बड़ा, इत्यादि. अगर आप यूनीफौंट में विश्वास रखते हैं तो आप प्रगतिवादी हैं ...

अगर आप के पास कोई नये विचार हों कि कैसे चिट्ठे से उसके लिखने वाले की बेवकूफी को मापा जाये तो मुझसे संपर्क करें. तब तक, आज की तस्वीरों से आप यह समझने की कोशिश कीजिये कि मैंने इन्हें क्यों चुना ?


गुरुवार, अगस्त 18, 2005

कैसे आऊँ पिया के नगर?

सोचा है कि अगर घर पर ही हूँ तो प्रतिदिन चिट्ठे में कुछ न कुछ तो अवश्य लिखने की कोशिश करनी चाहिये. इसलिए सुबह उठते ही पहला काम होता है कम्प्यूटर जी का बटन दबाना और कुछ देर तक सोचना कि क्या लिखा जाये. पर कभी कभी इसमें कुछ अड़चन भी आ सकती हैं, जैसे आज सुबह पाया कि मोडम जी को कुछ परेशानी थी और हमारे अंतरजाल के सर्वर जी उन्हें अपने से जुड़ने की अनुमति ही नहीं दे रहे थे.

शुरु शुरु में तो थोड़ी मायूसी हुई. फिर सोचा कि भाई आज अगर चिट्ठे से छुट्टी है तो कुछ और काम ही किया जाये. कई काम पिछले दिनों से रुके थे क्योंकि हमें चिट्ठा लिखने से ही फुरसत नहीं थी. कुछ देर काम किया फिर सोचा क्यों न काम पर जाने से पहले, कुत्ते को ही घुमा लाया जाये, इससे पत्नि जिसे कमर का दर्द हो रहा है, उसे कुछ आराम ही मिलेगा. अच्छा ही हुआ कि आज इसने हमें छुट्टी दे दी सोचते हुए हमने कहा बस एक बार और कोशिश कर के देख लेते हैं, शायद सर्वर जी का मिजाज़ अब ठीक हो गया हो. और यूँ ही हुआ.

बस हो गयी मुश्किल. क्या करें हम, आप ही कहिये ? अब हमें अपने कुत्ते के साथ सैर को जाना चाहिये या यहाँ बैठ कर चिट्ठा लिखना चाहिये ? दोनो काम तो हो नहीं सकते क्योंकि काम पर भी तो जाना है.

शाम को बेटे को डाँट रहा था. सारा दिन इस कम्प्यूटर के सामने. कुछ बाहर जाओ, छोड़ो इस मिथ्या दुनिया के मोह को, सच्ची दुनिया में जीना सीखो. बच्चों को उपदेश देना आसान है पर आप क्या सोचते हैं, क्या फैसला किया मैंने ?

आज की तस्वीर, कल रात को निकला चाँद.

बुधवार, अगस्त 17, 2005

दे दाता के नाम

इटली की सड़कों पर कुछ नये भिखारी आये हैं. पूर्वी यूरोप से आये इन भिखारियों के बारे में अखबार में निकला था कि इन्हें बसों द्वारा हर सप्ताह लाया जाता है और हर सप्ताह नये लोग आते हैं, भीख मांगने. काम पर जाते समय एक चौराहे पर आजकल एक जवान महिला दिखती हैं भीख मांगते हुए. करीब २५ या २६ वर्ष की उम्र होगी, सुनहरे बाल और सुंदर चेहरा. कल वे गुलाबी और सफेद धारियों वाली टी शर्ट और नीचे कसी हुई जीनस् पहने थीं. देख कर लगा कि अगर इन्हें दिल्ली के भिखारी देख लें तो कभी माने ही न कि यह भी भिखारी हैं.

आम तौर पर मैं पैशेवर भिखारियों को कुछ नहीं देना चाहता पर कैसे मालूम चले कि कौन पैशेवर है और कौन मुसीबत का मारा, जिसे सचमुच जरुरत है ? रेल के डिब्बे में अक्सर नवजवान युवक और युवतियां यह कह कर पैसे मांगते हैं कि उनका पर्स खो गया है और वह घर जाने का किराया इकट्ठा कर रहे हैं. डर लगता है कि शायद यह नशे के लिए पैसे जमा कर रहे हों. पर शायद कभी कभी उनमें कोई सचमुच ऐसा भी होगा जिसका पर्स खो गया हो ? कुछ वर्ष पहले, एक बार रेल में चढ़ने के बाद मैंने पाया कि जल्दी में अपना पर्स घर ही छोड़ आया था. उस दिन डर डर कर बिना टिकट ही यात्रा की और फिर जान पहचान के किसी से पैसे मांगे, घर वापस जाने के लिए. इसलिए लगता है कि अगर कोई बेझिझक, बिना शर्म के पैसे मांग रहा हो तो अवश्य ही पैशेवर भिखारी होगा.

कभी कभी पैशेवर भिखारियों पर भी दया आ जाती है. बोलोनिया रेलवे स्टेशन पर कुछ साल पहले तक एक वृद्ध इतालवी महिला दिखती थीं. उन्हें कई मैं रेलवे स्टेशन के रेस्टोरेंट में खाना खिलाने ले गया. उन पर दया इस लिए आती थी क्योंकि उन्हें देख कर मुझे अपनी दादी की याद आ जाती थी.

आप ने अगर नोबल पुरस्कार विजेता मिस्र के लेखक नगीब महफूज़ की किताब "मिदाक गली" पढ़ी हो तो भिखारियों को देखने का तरीका ही बदल जाता है. इस किताब में उन्होंने पैशेवर भिखारियों की दुनिया का बहुत अच्छा विवरण दिया है.

कभी कभी लगता है कि भीख मांगना भी एक काम है, अन्य कामों के सहारे. समृद्ध यूरोपीय जीवन में, वयस्त जीवनों में कभी कभी बहुत सूनापन सा लगता है. अनीता देसाई ने अपनी पुस्तक "फास्टिंग, फीस्टिंग" में उपभोक्तावादी जीवन के सूनेपन को बखूबी दिखाया है. इस सूनेपन में किसी भिखारी को पैसे दे कर लगता है कि हाँ हम भी अभी मानव है, दूसरों का दर्द महसूस कर सकते हैं.

आज की तस्वीर में मुम्बई में काम करने वाली डा. उषा नायर की (बीच में हरे कुर्ते में). यह तस्वीर चीता कैम्प स्लम से है. उनके दाहिने ओर हैं उनकी दो साथी, बीबीजान और वहां के पुजारी की बेटी, वसंती. यह तस्वीर मैंने इस लिए चुनी क्योंकि, गरीबी केवल भीख नहीं, विकास की इच्छा भी हो सकती है जिसमें बिना हिंदु मुसलमान के भेद के, हम साथ काम भी कर सकते हैं.

मंगलवार, अगस्त 16, 2005

पतझड़ के बसंती रंग

कल की बारिश से थोड़ी सर्दी आ गयी है. सुबह खिड़की से बाहर देखा तो सामने मेपल के पेड़ के पीले होते पत्ते दिखायी दिये. मन कुछ उदास हो गया. शामें भी छोटी होने लगीं हैं. जून में रात दस बजे तक सूरज की रोशनी रहती थी पर अब तो ८ बजते बजते अँधेरा सा होने लगता है. कुछ ही दिनों में, पेड़ों के सारे पत्ते पीले या लाल हो कर झड़ जायेंगे.

पतझड़ के रंग बसंत के रंगों से कम नहीं होते. घर के नीचे एक बाग है जहाँ होर्स चेस्टनट, मेपल, पलेन, इत्यादि के पेड़ हैं, सभी रंग बदल कर लाल पीले पत्तों से ढ़क जाते हैं, जिन्हें हवा के झोंके गिरा देते हैं. जमीन पर गिरे इन पीले या भुरे पत्तों पर चलना मुझे बहुत अच्छा लगता है. पतझड़ के इन रंगों से दिल्ली के बसंत की याद आती है जब सड़क के दोनों ओर लगे अमलतास और गुलमोहर खिलते हैं और लगता है कि पेड़ों में आग लगी है.

रंग बदलने में मेपल के पेड़ जैसा शायद कोई अन्य पेड़ नहीं. इन पेड़ों से ढ़की बोलोनिया के आस पास की पहाड़ियाँ बहुत मनोरम लगती हैं. अमरीका और कनाडा में मेपल के पेड़ के रस के साथ पेनकेक खाने का चलन है. कुछ कड़वा सा, कुछ शहद जैसा, यह रस मुझे अच्छा नहीं लगता पर बहुत से लोग इसे पसंद करते हैं. इटली के मेपल उन अमरीकी मेपल से भिन्न हैं, और इनमें से कोई रस नहीं निकलता.

मेपल को हिंदी में क्या कहते हैं ? लिखते लिखते ही शब्दकोश में देखने गया तो पाया कि इसे हिंदी में द्विफ़ल कहते हैं. शायद इसके बीजों की बजह से ? छोटा सा हवाई ज़हाज लगते हैं इसके बीज. बीच में दो उभरे हुए इमली के बीज जैसी गाँठें और उनसे जुड़े दो पँख.

आज की तस्वीरें हैं समुद्री चीड़ों की, जिनके पत्ते पतझड़ में भी यूँ ही हरे रहते हैं.

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