आऊटलुक में अरुँधति राय का लेख पड़ा, जिसमें अंत में वे एक गाँव की बात करती हैं जहाँ गाँव वालों ने बिना किसी परेशानी के, दो औरतों को आपस में शादी करने दी. मैं सोचता हूँ कि अगर दो पुरुष या दो स्त्रियाँ एक दूसरे से प्रेम करते हैं और साथ जीवन गुजारना चाहते हैं तो उनको इस बात का पूरा हक होना चाहिये. ऐसी ही एक अपील मुम्बई से मेरे पास आयी है जो माँग करती है भारतीय कानून की धारा ३७७ को बदलने की. धारा ३७७ पुरुष या स्त्रियों में कुछ सेक्स सम्बंधों को जुर्म मानता है. मेरे विचार में जो बात जबरदस्ती से किसी से की जाये या फिर नाबालिग बच्चों के साथ हो, उसी को जुर्म मानना चाहिये. अगर बालिग लोग अपनी मर्जी से, अपनी प्राईवेसी में कुछ भी करते हैं तो यह उनका आपसी मामला है.
मुझे अरुँधति राय का लिखना बहुत अच्छा लगता है. हाँलाकि उनकी हर बात से मैं सहमत नहीं पर यह तो मानना ही पड़ेगा कि उनके लिखने का अन्दाज़, शब्दों और उपमाओं का चुनाव, हर बात के पीछे शौध से खोज कर निकाली हुई बातें, सभी उनके लेखों को पढ़ने योग्य बनाती हैं. कुछ वर्ष पहले मेरी उनसे मुलाकात दिल्ली के हवाई अड्डे पर हुई थी. दो मिनट बात की, नर्मदा के बारे में उनके लेखों की प्रशंसा की, अपना परिचय दिया और एक फोटो खींचा.
उस समय तो विचार ही नहीं किया पर बाद में सोचा कि उनके साथ उनके पति भी तो थे, जिनकी तरफ न मैंने देखा और उन्हें न ही नमस्ते की. उन्होंने भी सोचा होगा कि मुझे शिष्टता के नियम नहीं आते या फिर प्रसिद्ध पत्नी के प्रशंसकों के ऐसे ही व्यवहार के आदी हो गये हों.
समाज और परिवार हम पुरुषों को इस तरह पला बड़ा करते हैं जिसमें पत्नी को पति से कुछ कम ही होना चाहिये या फिर बहुत हो तो बराबरी हो. जब पत्नी पति से अधिक हो जाती है तो इसे स्वीकार करना आसान नहीं और मेरे विचार में इसके लिए पुरुष में गहरा आत्मविश्वास और आत्मसम्मान चाहिए. अगर पुरुष में पूरा आत्मविश्वास न हो तो अपने से प्रसिद्ध पत्नी के साथ नहीं निभा पाता. अरुंधति राय जितनी भी प्रसिद्ध हों, कम से कम सड़क पर लोग तो उनके पीछे न ही दौड़ेंगे और उनकी प्रसिद्धी एक छोटे से पढ़े लिखे वर्ग में ही सीमित रहेगी. उनके पति पर उतना दबाव नहीं होगा जितना किसी फिल्म अभिनेत्री के पति पर हो सकता है ?
मुझे कुछ साल पहले मेधा पटकर से भी मिलने का मौका मिला था जब वह रोम में हमारी एक सभा में आयीं थीं. मेधा जी के बोलने में आग और तूफान है. सोच सकता हूँ कि जब वह जनता से बोलती होंगी तो बहुत प्रभावित करती होंगी.
जहाँ अरुंधति की पढ़ी लिखी शहरी सभ्यता की छवि है, मेधा जी में गाँव की मिट्टी की सुगंध है. जब कभी लोगों से उनकी तुलना या किसी एक को ऊँचा नीचा दिखाने की बातें सुनता हूँ तो हँसी आती है. कोई भी बड़ा जन संघर्ष हो, जैसा कि नर्मदा संघर्ष है, तो उसमें हजारों लोगों के साथ काम करने से ही आंदोलन चल सकता है. ऐसे संघर्ष को मेधा और अरुँधति जैसे सभी योगदानों की आवश्यकता है. बेमतलब तुलना और छोटा बड़ा सोचना, केवल हमें कमज़ोर करता है.
दिल्ली हवाई अड्डे पर अरुंधति राय
रोम में मेधा पटकर और अन्य मित्र
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आपका लिखा अच्छा लगा। हम तमाम मख्यालियों में डूबोने वाले हीरो-हीरोइनों ,खिलाड़ियों के आगे-पीछे जितना पागलों की तरह भागते हैं उसका कुछ अंश भी अगर इस जैसे सामाजिक लोगों से जुड़ सकें तो सोच बदलेगी हमारी।
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