बुधवार, सितंबर 21, 2005

झूठे रिश्ते

"यह लोग झूठमूठ के रिश्ते बना कर लोगों को ले आते हैं. अपनी बिरादरी या अपने गाँव या अपनी भाषा बोलने वाले को, अपना भाई, अपना चाचा या मामा कह कर मिलवाते हैं. दूसरी तरफ मालिक लोग भी जान पहचान के लोगों को काम पर रखना अधिक पसंद करते हैं. अगर आप किसी को अपना भाई या रिश्तेदार बना कर प्रस्तुत करें और उसे काम मिल जाये, तो आप उस नये काम करने वाले के लिए मालिक के सामने जिम्मेदार बन जाते हैं..." यह इटली में रह रहे सिखों के बारे में किये हुए एक शोधग्रंथ में लिखा है.

उत्तरी पूर्वी इटली में सिख परिवार केवल चार पाँच जगहों पर ही बसे हैं और उन्हें आदर्श इमिगरेंटस् कहा जाता है. उत्तरी इटली में "लेगा नोर्द" नाम की राजनीतिक पार्टी है जो कि विदेश से आये काम करने वालों, विषेशकर मुस्लिम प्रवासियों के खिलाफ बहुत सक्रिय है, पर वह भी कहते हैं कि उन्हें सिख प्रवासियों से कोई शिकायत नहीं.

मैं सोच रहा था उन "झूठे" रिश्तों के बारे में. भारत में भी तो शहरों में गाँवों से काम ढ़ूँढ़ने आते हैं लोग. दिल्ली में बहुत से सम्पन्न घरों में गड़वाल या नेपाल से आये लड़के काम करते थे. वहाँ भी तो ऐसे ही भाईचारे में ही लोग अपनी बिरादरी या गाँव आदि के लोगों को काम पर लगवाने ले आते हैं. क्या हम उन्हें झूठे रिश्ते कहते हैं ?

मेरा विचार है कि भारतीय या शायद एशियाई समाज रिश्तों को भिन्न दृष्टी से देखता है. हमारे यहाँ तो सभी को भाई साहब, बहन जी, अम्मा या अंकल कह कर बुलाते हैं. पर क्या यह केवल बुलाने की बात है या रिश्तों को दूसरी नजर से देखने की बात है ?

आज की तस्वीरों में मेरे दो दोस्ती के रिश्ते - ‍न मानो तो कुछ भी नहीं, मानो तो सब कुछ

मंगलवार, सितंबर 20, 2005

अगर वह न आये

कल बात हो रही थी नींद की. पिछले १५ सालों में शायद एक बार जागा हूँ रात के १२ बजे तक, नये साल के आने के इंतज़ार में. अधिकतर तो पत्नी ही जगाती है नये साल की बधायी देने के लिए. कभी रात की यात्रा करनी पड़े या फिर बहुत साल पहले जब अस्पताल में रात की ड्यूटी करनी पड़ती थी, तब न सो पाने पर बहुत गुस्सा आता था.

पर अगर जल्दी सोने वाले की शादी, देर से सोने वाले से हो जाये तो क्या होता है ? अपना यही हुआ. मैं रात को दस बजे सोने वाला और श्रीमति जी रात को दो बजे सोने वाली. नयी शादी के बाद इस बात पर बहस होती थी कि सोने जायें या बाहर घूमने. पहले यह सोचा कि कभी हमारी चलेगी और कभी उनकी. पर बात बनी नहीं, जब हमें रात को बाहर जाना पड़ता, तो हर ५ मिनट में मेरा जुम्हाई लेना या घड़ी की ओर देखना, न श्रीमति को भाता न अन्य मित्रों को. खैर, शादी के २५ सालों में हमने इसका हल ढ़ूँढ़ ही लिया. मैं सोने जाता हूँ और वह सहेलियों के साथ घूमने.

पर, इसी बात का दूसरा पहलू भी तो है. रोज आती थी, जाने एक दिन अचानक क्यों नहीं आती ? अनूप जी जैसा होने के लिए, यानि काम पड़े तो सारी रात जगते रहो और सोना हो तो घंटो सोते रहो, दिमाग में बिजली का बटन चाहिये, जिसे दबाने से काम की बात दिमाग से एकदम से बंद हो जाये.

कालीचरण जी को शायद ऐसे ही बटन की आवश्यकता है. और जब वह नींद नहीं आती तो क्या करें ? अगर दोपहर को या शाम को, काफी पी लूँ या सफेद वाइन पी लूँ तो ऐसा अक्सर होता है. जब बिस्तर में करवटें बदलते बदलते थक जायें तो नींद लाने के लिऐ क्या करें ?

मैं कोई भारी सी, न समझ में आने वाली किताब ढ़ूँढ़ता हूँ. होफश्टाडेर की किताब "गोडल, एशर, बाख", मुझे इसीलिए बहुत पसंद है. कितनी भी बार पढ़ लूँ कुछ समझ में नहीं आता पर आधा घंटा पढ़ने की कोशिश के बाद नींद अवश्य आ जाती है. इसी तरह की एक अन्य प्रिय पुस्तक है, कथोउपानिषद. धार्मिक किताबों में से यह मेरी सबसे प्रिय किताब है. पर अगर संस्कृत के श्लोक, बिना उनके हिंदी अर्थ के पढ़ूँ, तो भी नींद आ जाती है. और आप का कोई रामबाण नुस्खा है नींद लाने के लिए ?


इतालवी एसप्रेसो काफी का छोटा सा प्याला, मेरी नींद गुम कर देता है
इन्हें सोने की कोई चिंता नहीं - रोबेन द्वीप (दक्षिण अफ्रीका) का कब्रीस्तान

सोमवार, सितंबर 19, 2005

मुझे नींद क्यों आये ?

दुनिया में बहुत से ऐसे लोग हैं जो सच्चे दिल से गा सकते हैं कि "मुझे नींद न आये, मैं क्या करुँ". ऐसे लोग रात को १२ बजे तक फिल्म देखते हैं, क्लब जाते हैं, गुलछर्रे उड़ाते हैं. यह वे भाग्यशाली लोग हैं जिनके दिमाग अँधेरे होते ही खुल जाते हैं और जिनके शरीर में रात में नयी स्फुर्ती आ जाती है.

कुछ मेरे जैसे दुर्भाग्यशाली होते हैं जो केवल गाने में ही गा सकते हैं, "मुझे नींद न आये" पर सच में अँधेरा होते ही उबासिया लेने लगते हैं. मेरे जैसे लोगों के दिमाग केवल सुबह ही खुलते हैं, शाम होते ही ये अपने शटर बंद कर, "दुकान बंद है" का बोर्ड लटका देते हैं. शाम को कहीं जाना पड़े तो हमेशा कोई बहाना ढ़ूँढ़ता हूँ, कि न जाना पड़े. जब कोई बहाना न चले तो थोड़ी देर में ही, उबासियों का दौरा पड़ जाता है.

इन रात को जागने वालों में और सुबह जल्दी उठने वालों में कोयल और कौवे का अंतर होता है. सुबह जल्दी उठने वाले भक्त्ती, योग, ध्यान आदि बातें सोचने वाले गंभीर लोग होते हैं. सुबह के अँधेरे में बाग में लम्बे लम्बे साँस लेते हूए भाग भाग कर सैर करते हैं. न ये कभी क्लास छोड़ कर फिल्म देखने जाते हैं, न गप्पबाजी में समय बरबाद करते हैं. मोटी किताबें पड़ने वाले, इन्हें अक्सर उतने ही मोटे चश्मे से पहचाना जा सकता है.

रात देर जागने वाले यह सोचते हैं कि यह जीवन ही सब कुछ है, यह इंद्रियाँ प्रभु ने कुछ सोच कर ही मानव शरीर को दी हैं, इनका पूरा उपयोग होना चाहिये. सुबह देर से जब उठते हैं जो कभी कभी इनका सर अवश्य दुखता है और रात को अंत में क्या हुआ, इन्हें ठीक से याद नहीं रहता. लम्बी साँस ले कर कहते हैं, "बस, अब बहुत हो गया, अब मैं सुधर जाऊँगा, अब गम्भीरता से पढ़ायी करने का समय आ गया है" पर शाम तक वह सब भूल जाते हैं.

क्या आपको भी मेरी तरह दुख होता है कि सारा जीवन यूँ ही बीत गया, "अजुँरी में भरा हुआ जल जैसे रीत गया" ? यानि आप कोयल हैं या मेरी तरह का कौवा ?

आज की तस्वीरें, इटली के फैरारा शहर के पुराने मध्ययुगीन भाग सेः

रविवार, सितंबर 18, 2005

लंदन बदला क्या ?

कल शाम को लंदन से वापस आया. पिछली बार लंदन बम फटने से पहले गया था. सोच रहा था कि क्या बमों के फटने से लंदन बदल गया होगा ?

लंदन में रहने वालों से बात की तो यही सवाल पूछा. विभिन्न उत्तर मिले, पर सभी मान रहे थे कि कुछ बातों में उनका शहर बदल गया है. शहर के केंद्रीय हिस्से में रहने वाली सूसन बोली, "हमारे यहाँ रात का जीवन बिल्कुल बदल गया है. पहले रात को भीड़ होती थी, पब बीयर पीने वालों से भरे रहते थे, अब शाम को ७ बजे ही सड़कें खाली हो जाती हैं. पब वालों का बिजनेस बिल्कुल ठप्प हो गया है."

किसी ने कहा कि अब ट्यूब में कम भीड़ होती है, शहर में साईकल और स्कूटर चलाने वाले बढ़ गये हैं, विषेशकर बृहस्पतिवार को क्योंकि दोनो बार बम बृहस्पतिवार को ही फटे थे. एक और सज्जन बोले कि शुरु शुरु में अगर कोई ट्यूब में रकसेक या कंधे वाला बैग ले कर चढ़ता तो सब लोग उसे ध्यान से देखते थे.

पर मुझे तो कोई बदलाव नहीं लगा शहर में. यह सच है कि मैं रात को लंदन के केंद्रीय हिस्से में नहीं गया, पर ट्यूब में मुझे कुछ कम भीड़ नहीं लगी. वही धक्का मुक्की, वैसा ही विभिन्न देशों के पर्यटकों से भरा लंदन जहाँ एक तरफ नये आलीशान भवन बन रहे हैं, ट्यूब स्टेशन पर ही नये शोपिंग माल बने हैं और दूसरी तरफ गंदी, जंग लगी तारें जो ट्यूब की रेल लाइन के साथ साथ चलती हैं, स्टेशन कब बंद हो जायें पता नहीं, और मेट्रो वाले क्षमा माँगते हैं कि काम करने वालों की कमी की वजह से मेट्रों में कुछ देर हो सकती है.

आज की तस्वीरों लंदन के मिलेनियम पुल के पास से हैं

नया मिलेनियम पुल जिसका उद्घाटन सन २००० में हुआ - सौ वर्षों के बाद लंदन में कोई नया पुल बना है
टेट आधुनिक कला गेलरी के बाहर एक "पंक" जोड़ा

गुरुवार, सितंबर 15, 2005

माँसाहारी दुनिया में शाकाहारी

फणीश्वरनाथ रेणू की कहानी "मारे गये गुलफाम" के नायक हीरामन की तीसरी कसम थी कि फिर कभी अपनी बैलगाड़ी में नाचने वाली बाई जी को नहीं बिठायेंगे. ऐसे ही कसम है हमारी, कहीं भी जायेंगे, किसी से नहीं पूछेंगे कि खाने में क्या है, बस जो भी हो चुपचाप खा लो. दुनिया में जाने क्या क्या खाते हैं लोग बंदर, कुत्ता, चूहा, घोड़ा, साँप, केंचुआ. अगर पूछो तो खाना ही न खाया जाये, और मतली हो जाये.

जिन सभ्यताओं में शाकाहारी खाने का कंसेप्ट ही नहीं है, वहाँ जरा यह बता कर देखिये कि साहब हम मीट नही खाते, वे कहेंगे, अच्छा तो चिकन ले लेजिये या मछली खा लीजिये. जब आप मीट, चिकन, हेम, पोर्क, मछली, अंडे इत्यादि की पूरी सफाई दे कर समझाते हैं कि आप कुछ नहीं खाते, तो वे आपको ऐसे देखते हें मानो आप हिमालय के येती हैं या फिर अस्पताल में बंद करने लायक पागल, और दया भरी आवाज में कहते हैं, अच्छा तो यह लीजिये, हमने इसमे से सारा माँस निकाल दिया है, कोई छोटा मोटा टुकड़ा रह गया हो तो आप खाते समय निकाल दीजियेगा.

अरे फिर भी आप इसे खाने से हिचकचा रहे हैं ? समझाईये आप उन्हें, कि माँस के साथ बने, मिले खाने को नहीं खा सकते या माँस न खाने का मतलब है कि आप माँस का सूप भी नहीं पीते!

पर बात मेरी कसम की हो रही थी. मानता हूँ कि यह कसम गाँधी जी के आँख मूंदे हुए बंदर जैसी है, पर जीने के लिए कोई न कोई बहाना तो निकालना ही पड़ता है. दिक्कत तब होती है जब पकवान ऐसे पकाया जाता है कि आप को जंतु को पहचानने में गलती नहीं हो सकती. कुछ पूछने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती. एक ऐसा अनुभव कोंगो में हुआ. वहाँ की राजधानी किनशासा में एक खाने में कानखजूरे बने थे. उन्हें शायद भाप में पकाया गया था, क्योंकि साफ दिख रहा था कि वे कानखजूरे ही थे. एक प्लेट में लाल या भूरे रंग के, दूसरी प्लेट में काले से. जिनके यहाँ खाना था वे बोले, बहुत प्रोटीन है इनमें. उनके बहुत जोर देने पर, बस एक ही खा पाया. मेरी चीन में केवल तीन मधुमक्खियों के खाने पर कुछ बेदर्द सी चुटकियाँ लीं गयीं तो जाहिर है कि सिर्फ एक कानखजूरा खाने पर कुछ और कहा जायेगा. कह लीजिये जनाब, जो मधुमक्खी या कानखजूरे खा सकते हैं वह आप की बात भी सुन लेंगे.

आज लंदन जाना है इसलिए दो दिन के लिए चिट्ठे की छुट्टी. आज की तस्वीरें कोंगो से.


बुधवार, सितंबर 14, 2005

शाहरुख का नया रुख

कल के समाचारों में दो बातों ने सोचने पर मजबूर किया. पहली खबर थी शाहरुख खान के नये विज्ञापन की चर्चा, यानि लक्स साबुन का विज्ञापन जिसमें वह टब में नहाते हुए दिखाये गये हैं.

दूसरी बात थी दिल्ली के क्नाट प्लेस की जहाँ कार चलाती हुई २७ वर्षीय युवती को मोटर साइकल पर जा रहे दो लड़कों ने छेड़ा और मार पिटाई की. उस समय कार में युवती के साथ उसकी माँ, छोटा भाई और मंगेतर भी थे.

सोच रहा था कि कैसे धीरे धीरे स्त्री और पुरुष के रुप और समाज स्वीकारित व्यवहार बदल रहे हैं.

पुरुषों के लिए कोमल होना, संवेदनशील होना, नृत्य, संगीत या संस्कृति की बात करना, लाल या गुलाबी रंग के कपड़े पहनना, आँसू बहाना, जैसी बातें उसमें किसी कमी या फिर उसकी पुरुषता के बारे में शक पैदा कर देती हैं. ऐसे में बिना यह सोचे कि दूसरे क्या सोचेंगे या कहेंगे, जो मन में आये करना केवल विकसित आत्मविश्वास वाले लोग ही कर सकते हैं. पर छोटी छोटी बातों में कुछ परिवर्तन सभी पुरुषों के जीवन में आये हैं. पिता के लिए बच्चे से प्यार जताना पहले पुरुष व्यवहार के योग्य नहीं समझा जाता था, सड़क पर कोई आदमी गोद में बच्चे के साथ दिख जाये तो कुछ अजीब सा लगता था, पर आज इसमें किसी को अजीब नहीं लगता.

दूसरी तरफ औरतें घर से बाहर निकल रहीं हैं, बहुत बार पुरुषों से अधिक कमाती हैं, उनमें आत्म विश्वास है. जो युवक क्नाट प्लेस में कार चलाती युवती के साथ बद्तमीजी कर रहे थे, शायद उसकी वजह केवल गुंडा गर्दी ही हो पर मुझे शक है कि उसके साथ साथ स्त्रियों के बढ़ते आत्मविश्वास के सामने नीचा महसूस करने का गुस्सा भी हो सकता है ?

आज की तस्वीरों में आज के नये स्त्री पुरुष जिन्हें समाज स्वीकृति या अस्वीकृति की चिंता नहीं:


मंगलवार, सितंबर 13, 2005

किटाणु रहित दुनिया

यहाँ टीवी पर प्रतिदिन नये विज्ञापन आते हैं जिनका सार यही होता है कि हमारे आसपास की दुनिया, फर्श पर, सोफे पर, रसोई में, हर जगह खतरनाक किटाणुओं से भरी है और जिनसे बचने के लिए केवल सफाई से काम नहीं चलेगा. अगर आप अच्छी गृहणीं हैं तो अवश्य यह नया पदार्थ खरीदये, जिसे पानी में मिला कर सफाई करने से या जिसे स्प्रे करने से, सारे किटाणु १२ घंटे या २४ घंटे के लिए नष्ट हो जायेंगे. विज्ञापन का असर बढ़ाने के लिए इनमें अक्सर बच्चे भी अवश्य दिखाये जाते हैं. यानि कि खतरनाक किटाणुओं के बारे में सुन कर अगर आपके मन पर कोई असर न हो तो, उस विज्ञापन में एक छोटा सा गोल मटोल बच्चा जोड़ दीजिये जो जमीन पर रेंग रहा हो या फिर उठा कर कोई चीज़ अपने मुँह में डाल रहा हो. अगर आप अच्छे माता पिता हैं तो अवश्य अपने बच्चे की सुरक्षा के लिए किटाणु रहित संसार बनाना चाहेंगे ?

यह सब बिकरी कराने के विषेशज्ञों का कमाल है, जो यह देखते हैं कि कैसे अपनी ब्रेंड बनायी जाये, कैसे अपने प्रोडक्ट को बाजार मे बिकने वाली उस जैसी अन्य सभी वस्तुओं से भिन्न बनाया जाया और कैसे मानव मन में छुपे डरों और विश्वासों का विज्ञापनमों में ऐसे प्रयोग किया जाये कि आप उनकी कम्पनी की वस्तु को ही खरीदें.

अगर आपने जीव विज्ञान पढ़ा है तो जानते ही होंगे कि यह दुनिया, आँखों से न दिखने वाले किटाणुओं से भरी है. ये मानव के लिए कोई हानी नहीं करते. मानव शरीर के अंदर भी ऐसे किटाणु भरे हैं, जो हमारे जीने के लिए जरुरी हैं और जब बिमार होने पर एंटीबायटिक लेने से यह किटाणु मर जाते हैं तो दस्त लगना और अन्य तकलीफें हो जाती हैं. एंटीबायटिक के गलत इस्तमाल की वजह से बहुत से किटाणु पर इन दवाईयों का असर होना बंद हो जाता है इसलिए नयी दवाईयों की खोज हमेशा जारी रहती है. ऐसे में, मेरे विचार में ऐसे विज्ञापन लोंगो को गलत विचार देते हैं और इन पर विश्वास नहीं करना चाहिये.

आज की तस्वीरें किटाणुओं से भरी हुई प्रकृति कीः

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