सोमवार, अक्तूबर 10, 2005
लैला के मँजनू
वे दिन थे "हम लोग" और "बुनियाद" के. जाने कहाँ गयीं और आज क्या करतीं होगीं वह ? क्या वह अभी भी गाती हैं ? "हम लोग" में मेडिकल कोलिज का मेरा साथी अश्वनि, डाक्टर का भाग निभा रहा था. उन दिनों हमारी छोटी बहन दूरदर्शन पर एनाउँसर थीं और कुछ छोटे मोटे कार्यक्रम किये थे, उससे समाचार मिलते, "बड़की बम्बई जा रही है, फिल्मों में कोशिश करना चाहती है". बुनियाद की बीजी और बाऊजी, अनीता कँवर और आलोक नाथ, और उनके परिवार की गाथा में क्या हुआ यह जानने की उत्सुकता रहती.
पुराने रंगहीन टेलीविजन पर देखे वे प्रोग्राम आज भी याद हैं, पर पिछले सप्ताह क्या देखा यह याद नहीं आता. आज देखने के इतने कार्यक्रम हैं कि उनके नाम याद नहीं रहते, देखते समय हाथ रिमोट के बटन दबाने को तैयार रहते हैं और देखने के बाद, कुछ देर में ही भूल सा जाता है. जिस समय "हम लोग" या "रामायण" आते, सड़कें खाली हो जाती, हर कोई पड़ोसी ढ़ूँढ़ता जिसके यहाँ जा कर दूरदर्शन देखा जाये.
आज मुझे भारत जाना है, वापस आने पर तुरंत अन्य दो यात्राँए हैं, २९ अक्टूबर तक चिट्ठे लिखने का समय या मौका मिलना कठिन है. इन चिट्ठा उपवास दिनों में अन्य चिट्ठाकारों को पढ़ना अधिक आसान होगा, इसलिए आशा है कि आप लोग खूब लिखेंगे और अच्छा लिखेंगे.
शनिवार, अक्तूबर 08, 2005
बादल गाये राग मल्हार
मौसम का हाल बता रहे हैं, टेलिविजन पर फिल्म देखने का यही तो मजा है कि बीच बीच में आप को कुछ और सोचने पर मजबूर कर देते हैं, कह रहे हैं कि गरम और ठँडी हवाओं के मिलने से बादल छाने और बारिश होने की सम्भावना है पर मुझे बाथरुम जाना है और वहाँ सोच रहा हूँ कि अगर कार की खिड़की खोल दी जाये और बाहर गरमी हो और अंदर ठँडी एयरकंडीनशीनिंग पूरी चला दी जाये तो क्या गरम और ठँडी हवा के मिलने से कार के भीतर भी बादल बन सकते हैं और फिर ऐसा हो कि कार के बीतर बारिश हो और बाहर सूखा रहे ? और अगर सूखा छाया हो और कई हजार कारें साथ साथ ऐसा करें तो क्या वहाँ इतने बादल छा बन जाये कि बारिश हो सकती है, ऐसे सवाल मुझे याद दिलाते हैं कि भौतिकी या रसायन शास्त्र में कमजोर होने का यही फायदा है कि आप यह सवाल किसी और के सामने रखें और पूँछें.
अपने हिंदी के चिट्ठे लिखने वालों में से कई इन्जीनियर और वैसे ही महानुभाव हैं, वे अवश्य दे सकेंगे मेरे सवाल का उत्तर. उन्हें संदेश भेजूँगा, ले जइयो बदरा संदेशवा, जाने किस राग में गाया है यह गाना, राग मल्हार होगा जिससे बारिश आती है, जिसे मियाँ तानसेन जी अकबर के दरबार में फतहपुर सिकरी में गाते थे, आस पास फुव्वारे और बीच में बैठे हुए तानसेन जी जब राग मल्हार गायेंगे तो बारिश आ जायेगी लेकिन अगर बादल राग मल्हार गा कर बरस जायेंगे तो संदेश कौन ले कर जायेगा, क्योंकि बरसने के बाद तो बादलों का न बाँस रहेगा न बजेगी बाँसुरी ? बाथरुम की यही तो खासियत है, जाने कैसी ऊल जलूल बातें आती हैं दिमाग में.
कैसा लगा आप को मेरा संज्ञा धारा (stream of consciousness) में लिखने का यह प्रयास ? आज की एक तस्वीर जहाज से दिखते एल्पस् पहाड़ों और बादलों की.
ताना तोराजा
तोराजा की सबसे पहली विषेश चीज़ जो आप को दिखेगी, वह है उनके नाव जैसी छतों वाले लकड़ी के मकान. लगता है किसी ने बड़ी बड़ी नाँवें ऊँचे डंडों पर टका कर, उन पर रंगदार नक्काशी की है. इन भव्य छतों के नीचे छोटे छोटे घर हैं, जिनमें रहना खास आरामदायक नहीं होगा. घरों के बाहर लम्बे डंडों पर जानवरों के सींग और अन्य हिस्से टँगे हुए होते हैं जिनका सम्बंध मृत पूर्वजों से जुड़े रीति रिवाजों से हैं. कहते हैं कि तोराजा तीन हजार साल पहले कहीं और से नाँवों में सुलावेजी में आये थे और यह घर उस यात्रा की यादगार हैं. पर तीन हजार साल तक कोई इतनी मेहनत करे घर बनाने के लिए, वह भी केवल दिखावे के लिये क्योंकि रहने की जगह तो छोटी ही रहती है, कुछ अटपटा सा लगता है.
इन घरों की तुलना भारत में बेटी के दहेज से की जा सकती है, यानि बड़ी छत वाला घर बनवाने से परिवार की इज्जत जुड़ी होती है और तोराजा इनको बनवाने के लिए बड़ा कर्ज तक उठा लेते हैं. तोराजा के समाजिक नियम भी बहुत विषेश हैं, जिसमें विभिन्न रिश्तों के साथ लेने देने के कड़े नियम हैं. किसी की मृत्यु पर इतनी रस्में हैं और खर्चे हैं कि भारत की हिंदु रस्में उनके सामने सरल लगती हैं. मरने वालों के शरीर पहाड़ों की गुफाओं में रख दिये जाते हैं और गुफा के मुख पर मरने वाले की लकड़ी की मूर्ती रखी जाती है जिसे ताउ ताउ कहते हैं. जहाँ यह कब्रिस्तान वाली गुफाँए हैं, नीचे वादी में खड़े हो कर वहाँ चारों और धुँध में से दिखती ताउ ताउ की मूर्तियाँ देख कर लगता है मानो पर्वत पर लोग खड़े नीचे देख रहे हैं. ताउ ताउ का काम है कि अपने परिवार की और अपने गाँव की रक्षा करें.
आज की तस्वीरों में (१) तोराजा घर (२) ताउ ताउ बनाने वाला एक कलाकार अपनी मूर्ती के साथ और (३) तोराजा कलाकार द्वारा लकड़ी से बनाये गये भैंस के सिर जिन्हें घर से सामने डँडों पर टाँगा जाता है.
शुक्रवार, अक्तूबर 07, 2005
अपने पराये
भक्त चाचा चुड़ैलों की कहानियाँ सुनाते. शादी नहीं हुई थी उनकी शायद इसलिए चुड़ैलें अक्सर श्वेत वस्त्र पहने सुंदर औरतों के रुप में उन्हें नदी के किनारे सुबह मिलती थीं, उन्हें बुलाती पर वह उनके पीछे की ओर घूमे पाँव देख कर समझ जाते, तो वह अपने असली रुप में आ कर, लम्बे दाँत निकाल कर उन्हें काटने को टूटती. कहानी सुन कर डर से दिल धक धक करता. रात के अँधेरे में पाखाने की तरफ जाने का तो सवाल ही नहीं उठता था, घर के भीतर भी अकेले न रहा जाता. लगता वे जानवरों के सिर पीछे भाग रहे हों.
सोच रहा था, भक्त चाचा जैसे लोगों के बारे में, जो परिवार के हो कर भी नहीं होते, जिनके लिए परिवार में कोई अपना ठीक से स्थान नहीं होता. ऐसे ही एक रिश्ते की कहानी थी बासु चेटर्जी की फिल्म "अपने पराये" में. शरतचंद्र के उपन्यास पर बनी यह फिल्म मुझे बहुत प्रिय है, हर छहः महीने में एक बार तो देख ही लेता हूँ. फिल्म कहानी है वकील बाबू (उत्पल दत्त) और उनकी पत्नी (आशालता), उनके घर में रहने वाले दूर के रिश्ते के गरीब लड़के (अमोल पालेकर) और उसकी पत्नी (शबाना आज़मी) की. उस घर में जब वकील बाबू के छोटे भाई (गिरीश करनाड) अपनी पत्नी (भारती अचरेरकर) के साथ रहने आते हैं तो वर्षों के बने घर के रिश्तों के अंदरुनी संतुलन टूट जाते हैं. अगर आप ने यह फिल्म नहीं देखी हो तो एक बार अवश्य देखिये. फिल्म के सभी कलाकार अच्छे हैं, पर विषेशकर उत्पल दत्त. फिल्म में जेसूदास का गाया एक मधुर गीत है, "श्याम रंग रंगा रे, हर पल मेरा रे".
आज की तस्वीरें फिर एक भारत यात्रा से, जिनका शीर्षक है "क्या सोच रहा रे"
गुरुवार, अक्तूबर 06, 2005
अपने शहर में अजनबी
क्या बाहर रहने से चलने, बोलने में कुछ अंतर आ जाता है ? कनाट प्लेस में चलते हुए जब लोग "चेंज मनी, सर चेंज मनी" पूछते हुए पीछे चलते हैं या रुमाल बेच रहे लड़के अंग्रेजी में कहते हैं रुमाल खरीदने के लिए, तो अचरज सा होता है कि क्या बात दिखायी दी उन्हें मुझमें जिससे वे समझ गये कि मैं बाहर से आया हूँ? ऐसा पहले नहीं होता था, पिछले कुछ सालों से ही होने लगा है और शुरु के दो तीन दिनों में ही होता है. दो तीन के बाद कुछ बदल जाता है, जैसे बाहरपन का संदेश छपा हो शरीर पर, वह धुल जाता है? यह बात कपड़े या चेहरे की नहीं, और हिंदी में उत्तर दो तो बात करने वाला एक क्षण का अचरज दिखाता है, "धत्त साला, धोखा हो गया, यह तो यहीं का है!"
हर बार शहर नया लगता है. नये घर, नये फ्लाई ओवर, नयी दुकाने.
जिस गली में बड़ा हुआ था, उसमें नीचे नीचे घर थे. बच्चे सड़क पर क्रिकेट या गुल्ली डँडा खेलते थे. रात को कभी गरमी अधिक होती थी तो चारपाई गेट से निकाल कर सड़क पर बिछती थी क्योंकि "बाहर हवा अच्छी रहेगी". शोर में भी, रोशनी में भी, नींद जम कर आती. गली में बस एक ही कार थी, डाक्टर आँटी की पुरानी छोटी सी "बेबी हिंदुस्तान", जिसे चलाने के लिए वह उसकी आरती उतारती और मिन्नत मनवाती.
आज उस गली में जा कर भौचक रह जाता हूँ. सभी मकान तीन या चार मंजिले हैं, गली के दोनो ओर कारें लगी हैं. बीच में सड़क बिल्कुल छोटी सी लगती है. गली के बाहर लोहे का बड़ा गेट लगा है जो रात को दस बजे बंद हो जाता है और जिस पर लिखा है कि कुछ बेचने वालों को गली में घुसने की अनुमती नहीं है.
जिस गली में खेला, बड़ा हुआ, वहाँ बीच में खड़ा हो कर फोटो खींचे पर किसी ने नहीं पुकारा. किसी ने नहीं पूछा कुछ. अपने ही शहर में अजनबी हो गया था.
स्वामी ने लिखा है, "मैं खुद अपने आप में जितना भी मैं हो सका उतनी पूरी एक देसी इकाई रहा. अभी भी हूं. उत्सुकताओं के चलते नई चीजें देखने-सीखने, परिवेश मे ढलने की और उससे प्रभावित होने की प्रक्रियाओं मे भी इस इकाई में से कुछ चीजें कभी घटीं नहीं".
मैं भी यही सोचता था कि मेरी इकाई में कुछ चीज़े कभी घटी नहीं, पर यह सोचते हुए भी न जाने क्या बदल गया, बाहर की दुनिया में और अपने अंदर.
***
बुधवार, अक्तूबर 05, 2005
कुछ यहाँ से, कुछ वहाँ से
शायद यह मुझे इस लिए लगता है क्यों कि यही मेरे जीवन का किस्सा है. शायद, हजारों, लाखों लोग, जो छोटे शहरों या गाँवों में रहते हैं, उनके लिए यह बात सत्य नहीं है ? पर अगर आप अपनी जगह से नहीं भी हिलें तो भी, टेलीविजन, फिल्म और अंतर्जाल कुछ न कुछ तो मिलावट डाल ही रहें हैं हमारी अपनी पहचानों में ?
आप लोग कलकत्ता से हैं या कानपुर से, पहले ऐसे सवाल पूछना आसान था और उनके उत्तर देना भी आसान था. पर आज पूछिये तो उत्तर मिल सकता है, पिता जी कलकत्ता से हैं और माँ कानपुर से, मैं पढ़ा तो पटना में और मेरी पत्नी भवनेश्वर से हैं और हम दोनो बँगलौर में काम कर रहे हैं. जो ऐसा उत्तर देगा, उसके बच्चों से पूछिये कि बेटा कहाँ से हैं आप, तो क्या उत्तर देगें ? जैसे हम सब यात्री हों, हमारी पहचाने भी यात्रा के साथ साथ बदलने वाली हो रही हैं. आज ऐसी, कल न जाने कैसी, थोड़ी सी ऐसी और थोड़ी सी कुछ और जैसी.
स्पेन के प्रसिद्ध विचारक, राइमोन पन्निकर एक कैथोलिक पादरी हैं. भारतीय हिंदू पिता और स्पेनिश कैथोलिक माँ की संतान, राइमोन ने सारा जीवन अपने दोनो धर्मों के बीच में मिलने की धारा को खोजा है. उन्हें संस्कृत तथा तिब्बत्ती भाषाँए भी आती हैं. स्पेन में पैदा हुए राइमोन पादरी बनने के बाद भारत गये. उन्होने वेदों का स्पेनिश में अनुवाद किया है और अपनी यात्रा के बारे में उन्होंने लिखा है, "मैं चला तो इसाई था, वहाँ जा कर पाया कि हिंदू भी था और वापस आया तो स्वयं को बुद्ध धर्म का महसूस करता था, पर इसाई भी था.... मुझे माँ से कैथोलिक धर्म की शिक्षा मिली पर माँ में मेरे पिता की तरफ के पूर्वजों के खुले और सहिष्णु धर्म का बहुत आदर था. इसलिये मैं संस्कृति और धर्म में दोनो तरफ से मिला जुला हूँ. जीसस आधा पुरुष और आधा भगवान नहीं था, पूरा पुरुष था और पूरा भगवान था. उसी तरह मैं १०० प्रतिशत हिंदू और भारतीय हूँ, और १०० प्रतिशत कैथोलिक और स्पेनिश भी."
राइमोन की तरह अपनी बदलती हुई, मिली जुली पहचान को इस तरह खुले मन से मान लेना हम सबके बस की बात नहीं. मेरे विचार से चिट्ठे लिखने वाले और पढ़ने वालों में मुझ जैसे मिले जुले लोगों की, जिन्हें अपनी पहचान बदलने से उसे खो देने का डर लगता है, बहुतायत है. हिंदी में चिट्ठा लिख कर जैसे अपने देश की, अपनी भाषा की खूँट से रस्सी बँध जाती है अपने पाँव में. कभी खो जाने का डर लगे कि अपनी पहचान से बहुत दूर आ गये हम, तो उस रस्सी को छू कर दिल को दिलासा दे देते हैं कि हाँ खोये नहीं, मालूम है हमें कि हम कौन हैं.
ब्राज़ील शायद दुनिया का सबसे अधिक "मिला जुला" देश है, जहाँ विभिन्न जातियों, रंगों, संस्कृतियों और विचारों के मिलने से एक नयी पहचान बनी है. मध्य अफ्रीका से लाये गुलामों का ओरिशा धर्म और नयी धरती के इसाई धर्म से मिल कर कंदोम्बले धर्म का जिस तरह विकास हुआ है, उसके लिए तो अलग चिट्ठे की जरुरत है. पर आज केवल कुछ तस्वीरे एक ब्राजील यात्रा से.
मंगलवार, अक्तूबर 04, 2005
उदास मन
बोलोनिया के दक्षिण में पहाड़ हैं, वहीं छोटा सा गाँव है मारजाबोतो, जहाँ पिएत्रो पैदा हुए थे. १९४३ में दूसरे महायुद्ध की लड़ाई मारजाबोतो में भी आ गयी थी. इटली के शासक मुसोलीनी ने जर्मनी के हिटलर से मिल कर यूरोप के अन्य देशों पर हमला बोला था. इटली में जर्मन सिपाही फैले हुए थे क्योंकि देश में मुसोलीनी के खिलाफ बगावत हो रही थी. इस बगावत का बड़ा केंद्र था बोलोनिया, जहाँ के बगावत करने वाले स्वत्रंता सिपाही, जर्मन सिपाहियों पर मौका मिलने पर हमला करते थे.
मारजाबोतो में भी जरमन सिपाहियों का कब्ज़ा था. पिएत्रो तब पढ़ाई समाप्त कर नौकरी पर लगे थे. बगावत करने वालों में से कुछ लोगों को जानते थे, कभी कभार संदेश ले जा कर उनकी मदद करते थे. ४ ओक्टूबर को एक हमले में बगावत करने वालों ने एक जर्मन सिपाही को मार डाला. उसका बदला लेने के लिए जर्मन सिपाहियों ने गाँव के सभी लोगों को जमा करके गोली मार दी. उनमें पिएत्रो की छोटी बहन मरिया भी थी. पिएत्रो जंगल में भाग गये थे. मारिया भी उनके साथ आना चाहती थी पर उन्होंने मारिया को वापस घर भेज दिया, सोचा कि जर्मन लड़कियों को नहीं मारेंगे.
यही बात अब तक भूल नहीं पाये हैं पिएत्रो. कहते हैं "मैंने अपनी बहन को मार डाला, वो मेरे साथ आ रही थी, मैंने उसे वापस भेज दिया. क्यों मरी वह, क्यों मरे मेरे चाचा, उनके बच्चे ? क्यों बच गया मैं, मैं क्यों नहीं मरा ?"
मरने वालों में हम केवल अपनी तरफ के लोग ही गिनते हैं, दूसरी तरफ कौन मरा इससे हमें क्या मतलब ? जर्मनी में भी परिवार होंगे जो उसी लड़ाई में मरे अपने घर वालों के लिए उदास होते होंगे.
लंदन का युद्ध स्मारक केवल अपने सिपाहियों को याद करता है, उन शहरों को याद करता है जहाँ अंग्रेजी सम्राज्य ने सिपाही खोये. स्मारक पर जलंधर, अमृतसर, इम्फाल जैसे नाम देख कर झुरझरी सी आती है.
सोमवार, अक्तूबर 03, 2005
यह कहाँ आ गये हम
वैसी ही थी, हेमंत कुमार की फिल्म "राहगीर" जिसके मुख्य पात्र में, जाने पहचाने संसार से दूर भाग जाने की छटपटाहट थी. बहुत रुमानी लगता था वह जीवन जिसमें न रिश्तों के बंधन हों, न एक ही जगह पर रहने की बोरियत. तब उस नायक का फिल्म के अंत में, इस यायावरी और अपने जीवन के सूनेपन से थक कर हार मान जाना, धोखा लगता था. थके हारे नायक की भावनाओं का वर्णन इस गीत में हैः
मितवा रे, भूल गये थे राहें क्यों मितवा
एक मुसाफिर लाखों रास्ते, जाने कहाँ थी तेरी राहें
एक से एक जुदा थी राहें, साथ थे सारे, संग न कोई
धूप में देखी छाँव की चोंटे छाँव में देखे धूप के छाले
होंठों पर ही रोक ली हमने एक हँसी में सारी आहें
कभी कभी ऐसा ही लगता है, जब जीवन एक यात्रा से दूसरी यात्रा में खो जाने लगता है. कुछ साल पहले लगातार बहुत यात्राँए करनी पड़ी. एक रात को होटल में नींद खुली, पास मेज़ पर रखी बत्ती जलाई. कहाँ हूँ मैं, सोचने की कोशिश की पर याद नहीं आ रहा था कि कौन से देश में था. उठ कर होटल के कागज पर पढ़ा कि वह पश्चिम अफ्रीका में गिनेया बिसाऊ था. वैसा ही हाल इस महीने भी होने का डर है, एक के बाद दूसरी यात्रा, बीच में एक दिन का भी आराम नहीं. बस एक ही अच्छी बात है, कि इनमें से एक यात्रा भारत में भी है. चाहे भागम भाग ही हो, कम से कम वहाँ यह खतरा तो नहीं कि सोचना पड़े, यह कहाँ आ गये हम!
आज की तस्वीरें एक्वाडोर यात्रा सेः १. सब बीमारियों का इलाज यह जड़ी बूटियों वाला जूस पीजिये २. राजधानी कीटो में पर्यटकों की मदद के लिए पुलिसवाली
रविवार, अक्तूबर 02, 2005
ट्यूबालय
बार बार एक ही शहर जाने से सबसे बुरी बात यह होती है कि आप सोचें, यहाँ कितनी बार आ चुका हूँ, अब तो यह शहर वही जाना पहचाना है और आसपास जो हो रहा है उसे पर्यटक की उत्सुकता से न देखें. लंदन के बारे में मुझे ऐसा ही लगता था. हवाई अड्डे से बाहर निकलते ही, रेल में या ट्यूब में कोई किताब या पत्रिका खोल कर बैठ जाता, न खिड़की से बाहर देखता न ट्यूब में बैठे अन्य यात्रियों को. हालाँकि भीड़ के समय ट्यूब में लोग आप के शरीर के हर भाग को छूते हों और आप की साँसों से साँसे मिला रहे हों, ट्यूब शिष्टाचार कहता है कि आप किसी से न नजर मिलाईये न, किसी को घूरिये. यानि भीड़ में भी अकेले.
***
हेमरस्मिथ के ट्यूब स्टेशन से निकले तो तेज बारिश देख कर थम गये. इतनी तेज कि लंदन की नहीं, दिल्ली की बारिश लग रही थी. साथ में छतरी नहीं थी पर होटल अधिक दूर नहीं था इसलिए बैग से सिर को ढ़का और भागे. किंगस् स्टीर्ट को पार करते समय अचानक सामने एक लड़की आ गयी. ऊँचा कद, काले घुँघराले बाल, लम्बा सुंदर चेहरा. बारिश में एकदम भीगी हुई वह एक पहिये वाली अटैची खींच रही थी. बोली, "मेरी मदद कीजिये." जब कोई भीख माँगता है तो जैसे अकसर होता है, हम लोग रुके नहीं, दुसरी तरफ मुड़ कर उससे कुछ दूर हो कर निकलने की कोशिश की. चिल्ला पड़ी, "चले जाओ, मुझसे दूर चले जाओ." हम लोग रुके नहीं, तेज बारिश में भागे जा रहे थे. पीछे से उस लड़की की आवाज आ रही थी. वह जोर जोर से रोने लगी थी. "हे भगवान, कोई मेरी मदद करो." एक पल के लिए मुड़ कर देखा. चौराहे के पास, वह जमीन पर बैठ गयी थी और जोर जोर से रो रही थी. थोड़ी देर में बारिश और ट्रेफिक के शोर में उसकी आवाज सुनायी देनी बंद हो गयी और हमारा होटल आ गया. मन में लग रहा था कि रुक कर उसकी मदद करनी चाहिये थी. शायद वह आम भिखारन नहीं थी, मुसीबत की मारी कोई थी.
***
ट्यूब में यह कविता पढ़ी, कुर्दी लेखिका चमोन हर्दी कीः
माँ की चिंता न करो, वह तो कुर्दिस्तानी है.
मैं उनकी बातें सुन सकती हूँ, अपने बच्चों की
बढ़िया अंग्रेज़ी और टूटी फूटी कुर्दी.
और जब उनकी किसी बात से सहमत नहीं होती
वह एक दुसरे को हौंसला देने के लिए कहते हैं
क्या मैं अपने ही घर में विदेशी बन जाऊँगी ?
आज की तस्वीरों में लंदन में बकिंगम पैलेस के पास की मूर्तियाँ
बुधवार, सितंबर 28, 2005
यह शरीर किसका ?
आज बात करना चाहता हूँ स्त्री यौन अंगो की कटायी की, यानि कि female genital mutilation और इसके खिलाफ वारिस दिरिए की लड़ाई की. वारिस सोमालिया से हैं और एक प्रसिद्ध माडल हैं, कुछ फिल्मों में भी काम कर चुकी हैं. उन्होंने अपने जीवन के बारे में एक किताब लिखी है Desert Flower (रेगिस्तान का फ़ूल). वह इस किताब में अपनी, अपनी बहनों की और अपने जैसी लाखों लड़कियों के जीवन में होने वाले इस समाज स्वीकृत अपराध के बारे में बताती हैं.
बहुत से देशों में, विषेशकर उत्तरी अफ्रीका तथा मध्य पूर्व में, यह प्रथा प्रचलित है. विश्व स्वास्थ्य संस्थान के अनुसार, सोमालिया, इथिओपिया, कीनिया जैसे देशों में करीब ६० प्रतिशत लड़कियों और स्त्रियों के जीवन प्रभावित करती है. स्त्री यौन अंगों की कटायी अलग अलग देशों में भिन्न तरह से होती है. सबसे अधिक प्रचलित तरीका है कि यौन अंग का बाहरी हिस्सा काट दिया जाये और अंग खुला कर दिया जाये. पर बहुत सी जगह, इसमें स्त्री यौन अंग को भीतर तक काट कर उसे धागे से सिल दिया जाता है. यह "आपरेशन" गाँव की दाईयाँ बिना किसी एनेस्थीसिया के करती हैं और अधिक खून निकलने से या इन्फेक्शन होने से कई बार इसमें लड़की की मृत्यु भी हो जाती है. आपरेशन सात-आठ साल की उम्र से ले कर सतरह-अठारह बरस तक किया जाता है. पिशाब करने के दौरान, माहवारी के समय और बच्चा पैदा करते समय इससे लड़की को पीड़ा होती है जो सारा जीवन उसे नहीं छोड़ती.
पर बात केवल गरीब, अनपढ़, गाँव में रहने वालों की नहीं, धनवान परिवार इसे शहरों में डाक्टरों की सहायता से पूरी हिफाजत से भी करवाते हैं. यूरोप और अमरीका में रहने वाले प्रवासी, इसे अपने समाज के प्रवासी डाक्टरों की मदद से छुप छुप कर करवाते हैं. कुछ बार कहा गया है कि यह मुसलमानों मे ही होता है पर यह सच नहीं है. जिन जगहों पर यह प्रथा प्रचलित है, वहाँ सभी धर्मों के लोग इसे अपनाते हैं.
कहते हैं कि यह प्रथा उनकी संस्कृति की रक्षा के लिए आवश्यक है और इसे रोकने के सभी प्रयासों पर दंगे शुरु हो जाते हैं. यह प्रथा जरुरी है ताकि लड़कियों का कुँवारापन उनके पतियों के लिए सुरक्षित रखा जा सके. इसका अन्य फायदा है कि इससे स्त्री को यौन सम्बंधों में पीड़ा होगी, इसलिए वह परमर्दों को नहीं देखेगी और परिवार टूटने से बचेंगे. जिन समाजों में लड़कियों को अपने से उम्र में बड़े पुरुषों से उनके विवाह का चलन हो, वहाँ परिवार की रक्षा और भी जरुरी हो जाती है.
शादी की रात को पति देव अपने जोर से उस धागे से सिले अंग को खोलेंगे, तो कसे बंधे अंग में उन्हे अधिक आनंद आयेगा. उनका आनंद कम न हो, इसलिए कई जगह बच्चा जनने के बाद, सूई धागे से अंग को दोबारा सिल कर कसा जाता है. वारिस पूछती है, "यह शरीर किसका है, असली प्रश्न तो यही है ? मेरे पिता का, मेरे भाईयों का, मेरे पति का, मेरे बेटों का ?" आप क्या उत्तर देंगे उसे ?
आज मुझे तीन दिन के लिए बाहर जाना है इसलिए रविवार तक चिट्ठे की छुट्टी.
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