शुक्रवार, अक्टूबर 07, 2005

अपने पराये

गरमियों की छुट्टियों में पश्चिम बंगाल में एक छोटा सा शहर था अलिपुर द्वार, जहाँ हम लोग मौसी की घर जाते. रास्ते में रेलगाड़ी सिलिगुरी में बदलनी पड़ती जहाँ मौसा के बड़े भाई का घर था, वहाँ कुछ दिन रुक जाते. मौसी के बच्चों की तरह से हम भी उन्हें ताऊजी बुलाते. वँही मिले हमे भक्त चाचा. भक्त चाचा सचमुच के चाचा नहीं थे, शायद कोई दूर के रिश्तेदार थे, पर बहुत सालों से वँहा रहते थे और सब बच्चे उन्हें चाचा बुलाते. ताऊ जी का दोमंजिला घर बड़ी हवेली जैसा था. बड़ा मकान और चारों तरफ खुला मैदान. पाखाना घर के अंदर न हो कर, घर से दूर मैदान में बना था. करीब ही तिस्ता नदी बहती थी. घर में एक चीते का सिर और कई बाराहसिगों और हिरन जैसे जानवरों के सिर दिवारों पर लगे थे, जो ताऊजी और मौसा के जवानी के शिकारी दिनों की निशानियाँ थीं.

भक्त चाचा चुड़ैलों की कहानियाँ सुनाते. शादी नहीं हुई थी उनकी शायद इसलिए चुड़ैलें अक्सर श्वेत वस्त्र पहने सुंदर औरतों के रुप में उन्हें नदी के किनारे सुबह मिलती थीं, उन्हें बुलाती पर वह उनके पीछे की ओर घूमे पाँव देख कर समझ जाते, तो वह अपने असली रुप में आ कर, लम्बे दाँत निकाल कर उन्हें काटने को टूटती. कहानी सुन कर डर से दिल धक धक करता. रात के अँधेरे में पाखाने की तरफ जाने का तो सवाल ही नहीं उठता था, घर के भीतर भी अकेले न रहा जाता. लगता वे जानवरों के सिर पीछे भाग रहे हों.

सोच रहा था, भक्त चाचा जैसे लोगों के बारे में, जो परिवार के हो कर भी नहीं होते, जिनके लिए परिवार में कोई अपना ठीक से स्थान नहीं होता. ऐसे ही एक रिश्ते की कहानी थी बासु चेटर्जी की फिल्म "अपने पराये" में. शरतचंद्र के उपन्यास पर बनी यह फिल्म मुझे बहुत प्रिय है, हर छहः महीने में एक बार तो देख ही लेता हूँ. फिल्म कहानी है वकील बाबू (उत्पल दत्त) और उनकी पत्नी (आशालता), उनके घर में रहने वाले दूर के रिश्ते के गरीब लड़के (अमोल पालेकर) और उसकी पत्नी (शबाना आज़मी) की. उस घर में जब वकील बाबू के छोटे भाई (गिरीश करनाड) अपनी पत्नी (भारती अचरेरकर) के साथ रहने आते हैं तो वर्षों के बने घर के रिश्तों के अंदरुनी संतुलन टूट जाते हैं. अगर आप ने यह फिल्म नहीं देखी हो तो एक बार अवश्य देखिये. फिल्म के सभी कलाकार अच्छे हैं, पर विषेशकर उत्पल दत्त. फिल्म में जेसूदास का गाया एक मधुर गीत है, "श्याम रंग रंगा रे, हर पल मेरा रे".

आज की तस्वीरें फिर एक भारत यात्रा से, जिनका शीर्षक है "क्या सोच रहा रे"



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