सोमवार, अक्टूबर 10, 2005

लैला के मँजनू

कल सारा दिन एक पुराना गाना गुनगुनाता रहा. कभी कभी ऐसा होता है कि कोई गाना जीभ से चिपक जाता है सारा दिन बार बार उसे गुनगुनाये बिना रहा नहीं जाता. कल का वह गाना था रुना लैला का, "मेरा बाबू छैल छबीला.." और इसीलिए रुना लैला और उन दिनों के दूरदर्शन के बारे में याद आ गयी. ठीक से साल याद नहीं पर शायद १९७७ के आसपास की बात होगी. रुना लैला को "दमा दम मस्त कलंदर" गाते देखा तो अन्य हजारों की तरह हम भी उनके मँजनू हो गये. उनकी हर अदा पर फिदा थे.

वे दिन थे "हम लोग" और "बुनियाद" के. जाने कहाँ गयीं और आज क्या करतीं होगीं वह ? क्या वह अभी भी गाती हैं ? "हम लोग" में मेडिकल कोलिज का मेरा साथी अश्वनि, डाक्टर का भाग निभा रहा था. उन दिनों हमारी छोटी बहन दूरदर्शन पर एनाउँसर थीं और कुछ छोटे मोटे कार्यक्रम किये थे, उससे समाचार मिलते, "बड़की बम्बई जा रही है, फिल्मों में कोशिश करना चाहती है". बुनियाद की बीजी और बाऊजी, अनीता कँवर और आलोक नाथ, और उनके परिवार की गाथा में क्या हुआ यह जानने की उत्सुकता रहती.

पुराने रंगहीन टेलीविजन पर देखे वे प्रोग्राम आज भी याद हैं, पर पिछले सप्ताह क्या देखा यह याद नहीं आता. आज देखने के इतने कार्यक्रम हैं कि उनके नाम याद नहीं रहते, देखते समय हाथ रिमोट के बटन दबाने को तैयार रहते हैं और देखने के बाद, कुछ देर में ही भूल सा जाता है. जिस समय "हम लोग" या "रामायण" आते, सड़कें खाली हो जाती, हर कोई पड़ोसी ढ़ूँढ़ता जिसके यहाँ जा कर दूरदर्शन देखा जाये.

आज मुझे भारत जाना है, वापस आने पर तुरंत अन्य दो यात्राँए हैं, २९ अक्टूबर तक चिट्ठे लिखने का समय या मौका मिलना कठिन है. इन चिट्ठा उपवास दिनों में अन्य चिट्ठाकारों को पढ़ना अधिक आसान होगा, इसलिए आशा है कि आप लोग खूब लिखेंगे और अच्छा लिखेंगे.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

"जो न कह सके" पर आने के लिए एवं आप की टिप्पणी के लिए धन्यवाद.

इस वर्ष के लोकप्रिय आलेख