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शुक्रवार, फ़रवरी 18, 2011

नारी मुक्ति की संत

शरीर की नग्नता में क्या नारी मुक्ति का मार्ग छुपा हो सकता है? कर्णाटक की संत महादेवी ने वस्त्रों का त्याग करके अपने समय के सामाजिक नियमों को तोड़ा था. क्यों?

Akka Mahadevi - Scribbles on Akka
मधुश्री दत्ता की सन् 2000 की डाक्यूमेंटरी फ़िल्म "स्क्रिब्बल्स आन अक्का" (अक्का पर लिखे कुछ शब्द - Scribbles on Akka) देखने का मौका मिला जो बाहरवीं शताब्दी की दक्षिण भारतीय संत अक्का महादेवी की कविताओं के माध्यम से उनके क्राँतिकारी व्यक्तित्व को विभिन्न दृष्टिकोणों से देखने का प्रयास है. फ़िल्म उन असुविधाजनक व्यक्तित्वों के बारे में सोचने पर बाध्य करती है जो समाज के हो कर भी धर्म के नाम पर, समाज के नियमों को तोड़ने का काम करते हैं पर जिनका समाज पर इतना गहरा प्रभाव होता है कि चाह कर भी उनको छुपाया या भुलाया नहीं जा सकता.

महादेवी या अक्का (दीदी) बाहरवीं शताब्दी की वीरशैव धार्मिक आंदोलन का हिस्सा मानी जाती हैं. वीरशैव आंदोलन में वैदिक कर्मकांड, मूर्तिपूजा, जाति भेदभाव, अवतारवाद, अंधश्रद्धा आदि को बाधक ठहराया और अल्लमप्रभु, अक्कमहादेवी, चेन्न-बंसव तथा सिद्धराम जैसे संतों ने जातिरहित, वर्णरहित, वर्गरहित समाज के निर्माण की कोशिश की. इन संतों के लेखन वचन साहित्य के नाम से प्रसिद्ध हुए जो कि गद्य शैली में लिखी कविताएँ हैं.

कणार्टक में शिमोगा के पास के उड़ुथाड़ी गाँव में जन्मी अक्कमहादेवी ने जब सन्यास लिया तो केवल घर परिवार ही नहीं छोड़ा, वस्त्रों का भी त्याग किया और उनके लेखन ने नारी शरीर और नारी यौनता के विषयों को जिस तरह खुल कर छुआ, वह सामान्य नहीं है. जैसे सुश्री लवलीन द्वारा अनुवादित अक्कमहादेवी की इस कविता को देखियेः
वस्त्र उतर जाएँ
गुप्त अंगों पर से तो
लज्जा व्याकुल हो जाते है जन
तू स्वामि जगत का, सर्वव्यापि
एक कण भी नहीं , जहाँ तू नहीं
फिर लज्जा किस से?
चेनामल्लिक अर्जुना देखे जग को
बन स्वयं नेत्र
फिर कैसे कोई ढके,
छिपाए अपने को?
(डा. रति सक्सेना द्वारा सम्पादित वेबपत्रिका "कृत्या" से )

मधुश्री दत्ता की डाक्युमेंटरी में आज की आधुनिक व्यवस्था में अक्का महादेवी किस रूप में जीवित हैं, इसको विभिन्न दृष्टिकोणों से देखने की चेष्ठा है. गाँव में गणदेवी की तरह, औरतों के कोपोरेटिव में, जहाँ उनके नाम से पापड़ और अचार बनते हैं, काम करने वाली औरतों की दृष्टि में, म़ंदिर के पुजारी और धर्म ज्ञान की विवेचना करने वाले शास्त्री की दृष्टि में, फेमिनिस्ट लेखन और चित्रकला में, महादेवी विभिन्न रूपों में दिखती हैं. इन विभिन्न रूपों में सामान्य जन में उनका रूप उनके व्यक्तित्व को धर्म मिथिकों में छुपा कर, मन्दिर में पूजने वाली देवी बना देता है, जिसमें उनके वचनों की क्राँति को ढक दिया जाता है. लेकिन फ़िल्म में उनकी एक भक्त का साक्षात्कार भी है जिसने गाँव में अक्का महादेवी के मंदिर के आसपास भक्तों के लिए सुविधाएँ बनवायी हैं और जो महादेवी के असुविधाजनक संदेश को छुपाने के प्रयास पर हँसती है.

Akka Mahadevi - Scribbles on Akka

फ़िल्म में महादेवी के कुछ वचनों को गीतों के रूप में प्रस्तुत किया गया है जिन्हें सुश्री सीमा बिस्वास पर विभिन्न परिवेशों में फ़िल्माया गया है, जिनमें एक परिवेश है एक ईसाई गिरजाघर में एक स्त्री द्वारा नन बनने की रीति, यानि महादेवी की बात को एक धर्म की सीमित दायरे से निकाल कर इन्सान के मन में ईश्वर से मिलने की ईच्छा के रूप में देखने की चेष्ठा.

Akka Mahadevi - Scribbles on Akka

फ़िल्म को देख कर मानुषी में पढ़े मधु किश्वर के एक पुराने आलेख की याद आ गयी जिसमें बात थी किस तरह गाँव में रहने वाली औरतें सीता मैया के पाराम्परिक गीतों के माध्यम से नारी मुक्ति की बात उठाती हैं. परम्परागत समाज में जहाँ नारी चारों ओर से नियमों में बँधी हो जिनमें उसकी अपनी इच्छाओं आकाँक्षाओं के लिए जगह न हो, वहाँ महादेवी जैसी नारी के विचारों को धर्म स्वीकृति मिलना थोड़ी सी जगह बना सकता है जहाँ सामाजिक नियमों की परिधि से बाहर जाने की अभिलाषा की अभिव्यक्ति हो सकती है.

महादेवी का व्यक्तित्व शारीरिक नग्नता को केवल लज्जा का कारण सोचने पर भी प्रश्न उठाता है. फ़िल्म में कुछ चित्रकार अक्का महादेवी के नग्न शरीर को ईश्वर का प्रतिरूप देखते हैं, तो कुछ इसमें नारी मुक्ति की चिंगारी. परम्परागत समाज को चुनौती देती महादेवी की छवि की जटिलता को ब्राह्मण विद्वान भी स्वीकारते हैं और आम व्यक्ति भी.

Akka Mahadevi - Scribbles on Akka

मेरी दृष्टि में फ़िल्म का अंतिम संदेश यही है कि भारत के विभिन्न हिस्सों में धर्म के संदेश को अलग अलग दृष्टिकोणों से देखा और समझा गया है. यही अनेकरूप विभिन्नता ही हिंदू धर्म की शक्ति रही है. इस जटिलता को सहेजना आज के भूमण्डलिकरण से जकड़े संसार में परम आवश्यक है, जहाँ सामाजिक जटिलताओं का सरलीकरण एवं ऐकाकीकरण करने की लालसाएँ बढ़ती जा रही हैं.

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शुक्रवार, जनवरी 21, 2011

अलेसान्द्रा का प्रश्न

बोलोनिया में रहने वाली मेरी जान पहचान की अलेस्साँद्रा की कहानी आज कल हर दिन किसी न किसी अखबार पत्रिका या टीवी पर दिखायी जा रही है. अलेस्साँद्रा कहती है, "मेरा बस चलता तो मैं यह बात इस तरह से नहीं उठाती, लेकिन बात मेरे मानव अधिकारों की है और मैं पीछे नहीं हटूँगी."

हुआ यह कि अलेस्साँद्रा ने नगरपालिका दफ़्तर में अर्ज़ी दी अपना नया व्यक्तिगत पहचानपत्र यानि आई कार्ड बनाने की. नगरपालिका वालों ने कहा कि हम आप को आई कार्ड में विवाहित नहीं लिख सकते, आप को तलाक लेना पड़ेगा, आप का विवाह हमारे देश के कानून के हिसाब से गलत है.

Alessandra Bernaroli, Bologna, Italy

अलेस्साँद्रा कहती है, "क्या जबरदस्ती है, मैं क्यों तलाक लूँ? मैंने चर्च में भगवान के सामने शादी की है, फ़िर कोर्ट में सिविल विवाह किया है. हमने सुख दुख में साथ निभाने की कसम खायी है, जब हम दोनो खुश हैं तो हम क्यों तलाक लें, हम तलाक नहीं लेंगे."

इस कहानी को समझने के लिए हमें घड़ी की सूई को पीछे ले जाना पड़ेगा. 39 वर्ष पहले जब अलेस्साँद्रा पैदा हुई थी तो उसका नाम अलेस्साँद्रो रखा गया था. पर बचपन से ही अलेस्साँद्रो को समझ आ गया कि कुछ गलत था, उसका शरीर तो पुरुष का था लेकिन वह भीतर से स्वयं को स्त्री महसूस करता था. साथ ही उसे यह भी समझ आया कि समाज में इस तरह के लोगों को पूरी तरह से स्वीकार नहीं किया जाता, उनकी हँसी उड़ाई जाती है, शर्मनाम समझते हैं. इसलिए इस बात को उसने स्वयं से ठीक से नहीं स्वीकारा, बल्कि वर्ज़िश करना, पहलवानों वाला शरीर बनाना जैसे शौक पाल लिए. उसके माता पिता, दोनो अध्यापक हैं, लेकिन कुछ पुराने विचारों के थे और चूँकि कैथोलिक चर्च इस बात को ठीक नहीं मानता, तो उसने अपने भीतर की इस इच्छा को दबा और भुला दिया.

जब विश्वविद्यालय में पढ़ने गया तो वहाँ अलेस्साँद्रो की मुलाकात अपनी होने वाली पत्नी से हुई. जल्दी ही दोनो में प्यार हो गया, और दस वर्ष तक यह प्यार चला, फ़िर 2005 में दोनो ने वहले चर्च में विवाह किया फ़िर कोर्ट में सिविल विवाह भी किया. विवाह के कुछ समय बाद, उसमें इतनी हिम्मत आयी कि अपनी भावनाओं और इच्छाओं को इमानदारी से समझ सके, अपने आप को स्वीकार कर सके. उसने इस बात को अपनी पत्नी से बताया कि वह सेक्स बदल कर नारी बनना चाहता था.

"मेरी पत्नी बहुत हिम्मतवाली है, पर शर्माती है, इसलिए वह प्रेसवालों से कुछ नहीं कहना चाहती या मिलना चाहती. शुरु में उसे धक्का लगा, लेकिन फ़िर वह समझ गयी कि मैं जैसा भी हूँ मैं ही हूँ. तब से उसने हमेशा मेरा साथ दिया है, मेरे हर निर्णय को समझा है. मैंने अपने माता पिता से भी यह बात की, उन्हें भी धक्का लगा लेकिन फ़िर भी समय के साथ उन्होंने मुझे समझा, और मैंने लिंग बदलाव का रास्ता अपनाया."

लिंग बदलाव आसान नहीं. 2007 से ले कर अलेस्साँद्रा के 13 ओप्रेशन हुए हैं. अमरीका में जा कर गले का ओप्रेशन कराया जिससे आवाज़ औरत जैसे हुई. यौन हिस्से का ओप्रेशन थाईलैंड में हुआ. चेहरे के निचले भाग का भी एक नाज़ुक ओप्रेशन हो चुका है.

अलेस्साँद्रा कहती है, "शरीर का बाहरी बदलाव, यौन सम्बन्धों में बदलाव, यह सब आवश्यक हैं, लेकिन इन सबके साथ, एक बदलाव अपने अंदर भी है, जो आसान नहीं. आप किस तरह से दूसरों से बात करते हो, किस भाषा का प्रयोग करते हो, लोग आप से किस तरह बात करते हैं, जब पुरुष था तो यह भिन्न तरीके से होता था, अब नारी हो कर भिन्न होता है. पुरुष नारी से किस तरह मिलता बात करता है, और नारी पुरुष से किस तरह मिलती बात करती है, यह दोनो बातें भिन्न है, और मैंने समझी हैं. इनसे अलग मैंरे जीवन का एक हिस्सा है जो मैंने नारी और पुरुष दोनो की दृष्टि से देखा है. यह सब बातें बहुत जटिल हैं और कम शब्दों में नहीं समझायी जा सकती. इस विषय पर मेरे पास बहुत कुछ है कहने सुनाने को, मेरे मन में इस विषय पर किताब लिखने की इच्छा है."

Alessandra Bernaroli, Bologna, Italy

नर शरीर के साथ पैदा होना और अंदर से स्वयं को नारी महसूस करना या फ़िर, नारी शरीर के साथ पैदा होना पर भीतर से खुद को नर महसूस करना, इसे ट्राँसजेंडर कहा जाता है. अक्सर नर शरीर के साथ पैदा हुए हों पर भीतर से खुद को नारी महसूस करने वाले लोगों का यौन आकर्षण अन्य पुरुषों की ओर होता है, इसलिए अक्सर वह समलैंगिग माने जाते हैं, लेकिन अलेस्साँद्रो को प्यार हुआ एक लड़की से. पाँच साल पहले, दोनो ने चर्च में विधिवत विवाह किया. उस समय किसी ने उँगली नहीं उठायी क्योंकि उस समय अलेस्साँद्रो पुरुष थे और स्त्री से विवाह कर रहे थे. "शरीर की बाहरी और भीतरी यौन पहचान में अन्तर होना एक बात है, नर या नारी के लिए यौन आकार्षण महसूस करना अलग बात है", अलेस्साँद्रा समझाती है.

इटली में अधिकतर लोग कैथोलिक ईसाई हैं. इस धर्म में तलाक को आसानी से नहीं स्वीकारा जाता. साथ ही कैथोलिक चर्च समलैंगिकता के भी विरुद्ध है और समलैंगिक विवाहों को नहीं स्वीकारता. इन्हीं दो बातों से अलेस्साँद्रा का धर्मसंकट का प्रश्न उठा, क्योंकि उन्होंने बैंकाक जा कर पुरुष से नारी बनने की शल्यक्रिया करवाने के बाद, इतालवी कानून के हिसाब से कोर्ट में अर्ज़ी दी कि उन्हें लिंग बदलने की अनुमति दी जाये. कोर्ट ने उनकी यह बात स्वीकार की और इस तरह अलेस्साँद्रो कानूनी तौर से भी, अलेस्साँद्रा बन गये. लेकिन अलेस्साँद्रा के बारे में चर्च के लोगों ने नगरपालिका द्वारा उनके तलाक की जबरदस्ती करने का विरोध किया है, वह कहते हैं कि पुरुष रूप में अलेस्साँद्रो ने अपनी पत्नी से विधिवत विवाह किया था, हमारी नज़र में कुछ नहीं बदला है, यह दोनो पति पत्नि हैं.

इतालवी कानून जहाँ एक और समलैंगिक विवाह की अनुमति नहीं देता, दूसरी और ट्राँसजेंडर विषय में प्रगतिशील है, इसे एक बीमारी की तरह देखता है, उनके इलाज की सुविधा और लोगों को कानूनी लिंग बदलने की अनुमति देता है. अलेस्साँद्रा को क्या सलाह दी जाये, इस पर पुराने विचारों वाले लोग भी कुछ परेशान हैं, उन्हें भी कुछ समझ नहीं आता. अगर कहें कि उनका विवाह नहीं माना जा सकता क्योंकि वह दो औरतों का विवाह है, तो इसका यह अर्थ हुआ कि पति या पत्नी की बीमारी के नाम पर तलाक को स्वीकृति दी जा रही है. और अगर उन्हें तलाक के लिए मजबूर न करें तो समलैंगिक विवाह को स्वीकृति मिलती है.

अलेसान्द्रा ने मुझसे भारत में रहने वाले हिँजड़ों की स्थिति के बारे में पूछा. मुझे इस विषय में विषेश जानकारी नहीं थी, लेकिन मैंने उसे बताया कि इस वर्ष जनगणना में पहली बार भारत में ट्राँसजेन्डर लोगों को गिना जा रहा है, और उनके लिए पुरुष, स्त्री से अलग श्रेणी बनायी गयी है. अलेसान्द्रा बोली, "मुझे भारत के ट्राँसजेन्डर लोगों के बारे में मालूम नहीं इस लिए नहीं कह सकती कि यह सही है या गलत, लेकिन मैं नहीं मानती कि हमारे लिए एक अलग श्रेणी बनायी जाये. मैं अपने आप को पूर्ण रूप से स्त्री मानती हूँ और चाहती हूँ कि कानून मुझे नारी माने."

अलेस्साँद्रा कहती है, "हमारा समाज भिन्नता से डरता है, उसे स्वीकार नहीं करता. लेकिन मैं तलाक नहीं लूँगी. जब हम दोनो साथ खुश हैं तो हमें क्यों अलग किया जा रहा है? बात केवल आई कार्ड की नहीं, टेक्स, प्रापर्टी, सब की बी है, अगर नगरपालिका हमें पति पत्नी नहीं मानेगी तो वह सब झँझट खड़े हो जायेंगे. यह मेरे मानव अधिकारों की बात है, मैं लड़ूँगी."

आप का क्या विचार है, अलेसान्द्रा के प्रश्न के बारे में?

***
अलेसान्द्रा अलेसान्द्रा इटली के बड़े बैंक में कामगार यूनियन के लिए काम कार्यरत हैं और उनके काम का एक ध्येय यह भी है कि बैंक में काम करने वालों की भिन्नता को सम्पदा के रूप में देखा जाये न कि परेशानी के रूप में. इस विषय पर उन्होंने अन्य मित्रों के साथ मिल कर एक कम्पनी भी बनायी है जिसमें मानव भिन्नता से जुड़े विषयों का ध्यान और मान रख कर किस तरह बिज़नस किया जाये विषय पर सिखाया जाता है. उनकी तस्वीरें फेदेरीको बोरैला की हैं.

(Images of Alessandra Bernaroli are by Federico Borella)


रविवार, जनवरी 02, 2011

गार्गी की यवनी बेटी

कुछ दिन पहले स्पेन-चिली के फ़िल्म निर्देशक अलेहान्द्रो अमेनाबार (Alejandro Amenàbar) की फ़िल्म अगोरा (Agorà) देखी जिसमें चौथी शताब्दी की यवनी (ग्रीक) दर्शनशास्त्री और नक्षत्रशास्त्री हाइपाटिया (Hypatia) की कहानी है. पुरुष प्रधान समाज में स्वतंत्र सोचने वाली स्त्री के विषय के अतिरिक्त यह फ़िल्म धार्मिक कट्टरवाद के विषय को भी छूती है. इस फ़िल्म को देख कर भारत के पूर्व-इतिहास की ऐसी ही एक युवती, गार्गी, जिसकी कथा वेदों में लिखी है, के बारे में जानने की इच्छा भी मन में जागी.

Agora, a film by Alejandro Amernabar

ईसा से तीन सौ साल पहले यवनी सम्राट सिकन्दर यानि अलेक्ज़ान्डर (Alexander) ने आधुनिक तुर्की, सीरिया, मिस्र, ईराक, ईरान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान और भारत तक कर अपना साम्राज्य बनाया था. उनके नाम से बने यवनी शहर इन सभी देशों में आज भी उस इतिहास की गवाही देते हैं. हाइपेटिता की कहानी मिस्र (Egypt) में समुद्र तट पर बसे अलेज़ान्ड्रिया (Alexandria) शहर की है, जो उस समय अपने प्रकाश स्तम्भ तथा पुस्तकालय के लिए दुनिया भर में मशहूर था. तब तक यवन साम्राज्य कमज़ोर हो चुका था और रोमन साम्राज्य चर्म पर था.

हाइपेटिया, रोमन जिसे इपेत्सिया बुलाते हैं, अलेज़ान्ड्रिया के पुस्तकालय के अधिनायक की ज्ञानी बेटी थी जो दूर दूर से आये पुरुष छात्रों को दर्शनशास्त्र पढ़ाती थी तथा उसे नक्षत्र शास्त्र (Astronomy) में, विषेशकर धरती, सूर्य और अन्य ग्रहों के बारे में जानने में अधिक दिलचस्पी थी और वह विवाह से इन्कार करती थी. तब यवन और रोमन धार्मिक विश्वास था पुराने यवनी देवी देवताओं में, जैसे कि ज़ीअस, मिनर्वा, वीनस, आदि. इस धार्मिक विश्वास को बाद में "पागान" (Pagan) का नाम दिया गया.

Agora, a film by Alejandro Amernabar

फ़िल्म दिखाती है नये फैलते हुए ईसाई धर्म के द्वंद को, जो एक ओर तो शोषित दलित गुलामों को मानव मानता है और नये समताबद्ध समाज की संरचना करता है, दूसरी ओर उसके कुछ सदस्य अन्य धर्मों को मज़ाक उड़ाते हैं, और कुछ कट्टरपंथी अन्य विधर्मियों, यानि यहूदी (Jew) तथा पागान धर्मों में विश्वास करने वालों के विरुद्ध हिंसा का अभियान चलाते हैं. एक बार कट्टरपंथी राह चलती है तो बाकी सब धर्मों को दबा दिया जाता है, कुछ लोग वहाँ से भाग जाते है, बचे खुचे लोग धर्म परिवर्तन कर लेते हैं. हाइपेटिया पर डायन होने, पुरुषों को बहकाने और स्त्री शालिनता के विपरीत रहन सहन के आरोप लगा कर, मृत्युदंड की सजा दी जाती है. हाइपेटिया का ज्ञान कि धरती गोल है और ग्रह किस तरह सूर्य के आसपास घूमते हैं, अन्य कई सौ सालों के लिए खो जाते हैं. अलेज़ान्ड्रिया का अनूठा पुस्तकालय जहाँ सदियों का मानव ज्ञान संरक्षित था, नष्ट हो जाता है.

बाद के कुछ इतिहासकारों कहते हैं कि अलेज़ान्ड्रिया का प्राचीन पुस्तकालय पैगम्बर मुहम्मद के समय के बाद मुसलमानों ने नष्ट किया था और इसे "मुसलमान कट्टरवाद" के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करते हैं, जबकि अन्य इतिहासकारों को कहना है कि यह प्राचीन पुस्कालय "ईसाई कट्टरवादियों" द्वारा नष्ट किया गया था. इस फ़िल्म में इसी को सच माना गया है और फ़िल्म में पुराने अलेज़ान्ड्रिया शहर को बहुत भव्य रूप से दिखाया गया है.

Agora, a film by Alejandro Amernabar

हाइपेटिया अन्य बहुत बातों में अपने समय से बहुत आगे थीं, लेकिन वह गुलामों के साथ हाने वाले अमानवीय व्यवहार के बारे में कुछ नहीं कहतीं, और न ही गुलामी को गलत मानती हैं.

मुझे फ़िल्म की सबसे अच्छी बात लगी कि किस तरह उसमें धार्मिक कट्टरवाद की बात को दिखाया गया है जो कि सोचने पर मजबूर करती है. उस समय का पागान धर्म सहिष्णु और उदार था, और उस समय अलेज़ान्ड्रिया में यहूदी, पागान, ईसाई, विभिन्न धर्मों को लोग शांति से साथ रहते थे. लेकिन एक बार विभिन्न धर्मों के कट्टरपंथी एक दूसरे के विरुद्ध जहर फैलाने लगे तो रूढ़िवादी ईसाई धार्मिक शासन बना और दूसरी ओर, ज्ञान और विकास दोनों के रास्ते रुक गये.

कुछ लोगों ने इस फ़िल्म को "ईसाई धर्म विरोधी" कहा है लेकिन खुशी की बात है कि कम से कम इटली में इस बात पर न कोई दंगे हुए, न किसी के कहा कि फ़िल्म को बैन किया जाये, आदि. बल्कि फ़िल्म को फ्राँस के कान फ़ैस्टिवल में विषेश पुरस्कार भी मिला. मेरे विचार में फ़िल्म ईसाई धर्म के विरुद्ध नहीं, बल्कि कट्टरवाद के विरुद्ध है, क्योंकि फ़िल्म के अनुसार, उस समय हुई धार्मिक लड़ाईयों में पागान कट्टरपंथियों का भी उतना ही दोष था. अगर आप को यह फ़िल्म देखने का मौका मिले तो अवश्य देखियेगा.

इतिहास से हम क्या सबक सीख सकते हैं? क्या इतिहास हमें राह दिखा सकता है कि आज विश्व में छाये कट्टरवाद के खतरे से कैसे बचा जाये? फ़िल्म देख कर इस बात पर बहुत देर तक सोचता रहा, पर कोई आसान उत्तर नहीं मिला. एक तरफ से लगता है कि हर धार्मिक कट्टरवाद को, चाहे वह छोटा हो या बड़ा, तुरंत दबा दिया जाना चाहिये, पर यह भी लगता है कि हिंसा से हिंसा ही जन्मेंगी, दबाने से कट्टरवाद नष्ट नहीं होगा बल्कि और फैल सकता है.

***

हाइपेटिया उस समय की नायिका थी जब सामान्य जीवन में स्त्री को कुछ अधिकार नहीं थे, पढ़ने लिखने और खुल कर बोलने का अधिकार भी नहीं था. इसके बावजूद वह स्वतंत्र रूप से विकसित हो सकीं, अध्यापक बनी, वैज्ञानिक शौध किया, दर्शन पर पुरुषों से बहस की, वह इसलिए कि उन्हें अपने पिता से सहयोग मिला.

भारत के वेदों में वर्णित ब्रह्मावादिनी गार्गी भी हाइपेटिया की तरह पुरुष प्रधान समाज में रहती थीं. ऋगवेद को सबसे पुराना आदिग्रंथ माना जाता है, इसमें स्त्री की जगह पत्नि तथा ग्रहणी के रूप में ही है, यहाँ तक कि सभी देव देवता भी पुरुष ही हैं और देवियों के नाम बहुत कम जगह पर आते हैं. गार्गी को महाऋषि वचक्नु की बेटी और आजीवन ब्रह्मचारिणी कहा जाता है. बृहदारण्यक उपनिषद में, विदेह के राजा जनक द्वारा आयोजित एक शास्त्रार्थ में उनका एक वर्णन है.

वेदों में वर्णित अन्य प्रसिद्ध स्त्रियों में, जैसे अनुसूया, शाण्डिली, सावित्री, अरुन्धती, आदि को पतिव्रता, निष्ठा आदि जैसे गुणों की वजह से श्रेष्ठ माना जाता है, विदुषी होने के लिए नहीं. मित्र ऋषि की पत्नि मेत्रेयी को अवश्य विदुशी कहते हैं पर पुराणों के अनुसार, उन्हें यह ज्ञान उनके पति ने दिया. यानि हाइपेटिया की तरह स्वतंत्र व्यक्तित्व रखने वाली, ज्ञानवती स्त्री केवल गार्गी ही थी.

क्या गार्गी को भी समाज का सामना करना पड़ा था, इसके बारे में आज कैसे जान सकते हैं?

शुक्रवार, अक्तूबर 01, 2010

अयोध्या के राम

आज आखिरकार अयोध्या के मुकदमें का फैसला हो ही गया. पिछले कई दिनों से चिन्ता हो रही थी कि क्या होगा, फ़िर से दंगे, मार पीट तो नहीं शुरु हो जायेंगे!

जब बबरी मस्जिद को ढाया गया था तब 1992 में इंटरनेट आदि कुछ नहीं था, इटली में उसका समाचार तक मुझे बहुत दिन के बाद मिला था, लेकिन उसके कुछ वर्ष बाद मैंने उसके कुछ परिणाम बम्बई में देखे थे, जब भिवँडी की झोपड़पट्टी में दंगों में हिंसा के शिकार परिवारों से मिला था. धर्म के नाम पर मासूमों की जान लेना, इससे बड़ा धर्म का अपमान क्या हो सकता है?

अयोध्या में राम जन्मभूमि और बाबरी मस्जिद के विवाद का क्या निवारण हो, इसमें मुझे उन सुझावों से कभी सहमति नहीं हुई जो वहाँ अस्पताल या विद्यालय बनाने की बात करते थे. इसलिए नहीं कि मुझे अस्पतालों या विद्यालयों की उपयोगिता की समझ नहीं. बात मेरे धार्मिक विचारों की भी नहीं है.

भारत के अन्य करोड़ों हिंदूओं की तरह, मेरे लिए भगवान का स्वरूप वो है जो गायत्री मंत्र में व्याख्यित किया जाता है, यानि भगवान जिसका न कोई आदि है न अंत, जो सर्वव्यापा, सर्वज्ञानी है, जिसका कोई रूप या आकार नहीं. इसलिए मेरी समझ उस भगवान को राम, कृष्ण या शिव के रूप में चिन्ह की तरह स्वीकार करती है, पर उसकी प्रार्थना के लिए मुझे किसी मंदिर या मूर्ति की आवश्यकता नहीं. हर धर्म में, चाहे वह ईसाई हो या मुसलमान, सिख या पारसी या बहायी, अंत में मुझे यही आध्यात्मिक सच दिखता है.

लेकिन मेरे विचार में भारत में मुझ जैसे आध्यात्मिक हिंदूओं से कहीं गुणा अधिक वह लोग हैं जिनके लिए राम ही भगवान का रूप हैं, उन्हीं में उनकी आस्था और विश्वास हैं. इस आस्था में सच क्या या झूठ क्या, इतिहास क्या कहता है या पुरातत्व क्या कहता है, उस सबका कुछ अर्थ नहीं. सभी धर्मों को मानने वाले अधिकतर ऐसे ही होते हैं. लोगों को इस बात का कोई वैज्ञानिक सबूत नहीं चाहिये कि जीसस ने सचमुच समुद्र को चीरा था या नहीं, या फ़िर पैगम्बर मुहम्मद ने सचमुच अल्ला की आवाज़ सुनी थी या नहीं, यह विज्ञान या तर्क का सवाल नहीं, आस्था का है, उनके लिए तो उनका पैगम्बर ही ईश्वर का दूत और पुत्र है.

करोड़ों लोगों के इसी विश्वास के बारे में सोच कर मेरे विचार में अयोध्या में उस जगह पर राम का मन्दिर बनाने देना चाहिये, क्योंकि अगर सोचूँ कि ईसाई जिस जगह पर मानते हैं कि येसू का जन्म हुआ था, या मसलमान मक्का और मदीना में जिन जगहों को अपने पैगम्बर से जुड़ा मानते हैं, उनसे उनके विश्वास को छीन कर, उस पर कुछ बनाने की बात कभी कोई नहीं कर सकता. तो राम को मानने वालों के साथ ही तर्क या विज्ञान और सबूत की बात क्यों की जाये?

बचपन में अपनी दादी से रामायण की बहुत कहानियाँ सुनता था. उन कहानियों के नायक राम न शबरी से भेदभाव करते थे न सरयू पार कराने वाले केवट से, उनके सबसे बड़े भक्त और स्वयं पूजे जाने वाले हनुमान तो वानर जाति के थे. उन कथाओं के राम क्या धर्मी, विधर्मी का भेद करेंगे? मेरे विचार में नहीं, वह तो सबको अपनायेंगे. इसलिए मेरा बस चलेगा तो उस राम के मन्दिर को सब धर्मों को लोग मिल कर बनवायेंगे और विश्व हिंदू परिषद, हिंदू महासभा, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ आदि सब राम मन्दिर बनवाना चाहने वाले दल मिल कर उस मन्दिर में बाबरी मस्जिद का कमरा भी बनायेगे, यूसू का गिरजा भी, नानक का गुरुद्वारा भी, यहूदियों का सिनागोग भी. घृणा और भेद भाव के बदले अगर अयोध्या के राम सब धर्मों को मान देंगे तभी सचमुच अयोध्या में वापस आयेंगे.

शुक्रवार, जून 18, 2010

अगर फ़िर से शुरु होता?

कल सुबह कार पार्क कर रहा था तो अचानक मन में विचार आया, अगर यह जीवन फ़िर से शुरु करने का मौका मिले, एक बार फ़िर से बच्चा बन जाऊँ, तो क्या कौन सी बातें अपने इस जीवन की बदलना चाहूँगा? हरी भरी पहाड़ी के नीचे, सुंदर शांत जगह पर है यह कार पार्क, शायद इसीलिए वहाँ पर सुबह सुबह इस तरह के गम्भीर और महत्वपूर्ण विचार मन में आते हैं?

पिछले कुछ दिनों से मैं अमरीकी प्रोफेसर रेंडी पाउश (Randy Pausch) की किताब "द लास्ट लेक्चर" (The last lecture) पढ़ रहा था. शायद यह दोबारा जीवन शुरु करने वाली बात मन में अचानक उनकी किताब पढ़ने की वजह से ही आयी थी. उनके अमरीकी विश्वविद्यालय में इस तरह के भाषण देने का प्रचलन था कि प्रोफेसर से कहिये कि अगर आप को एक अंतिम बार विद्यार्थियों से बोलने का मौका मिले तो आप कौन सी बात कहना चाहेंगे? इन भाषणों को "अंतिम भाषण" कहा जाता है.

2007 में जब रेंडी से इस तरह का भाषण देने के लिए कहा गया था तो उनकी स्थिति कुछ भिन्न थी. कुछ ही महीने पहले उन्हें अपने शरीर में पनपते लाइलाज कैंसर होने की बात का पता चला था. डाक्टरों का कहना था कि उनके जीवन के कुछ महीने ही शेष बचे थे. पत्नी और तीन छोटे बच्चों का क्या होगा, इसकी चिंता भी थी उनके मन में.

फ़िर भी रेंडी ने इस भाषण को देना स्वीकार किया. उनका यह भाषण, इंटरनेट पर एक दूसरे से सुन कर, हज़ारों लोगों ने देखा, सुना और सराहा. इतना प्रसिद्ध हुआ उनका यह भाषण कि उसे किताब के रूप में भी छापा गया, जिसे मैंने भी पिछली भारत यात्रा में बँगलौर की एक दुकान में खरीदा था. रेंडी तो चले गये, लेकिन उनके इस भाषण की किताब ने उनकी पत्नी और तीन बच्चों को कुछ आमदनी भी दी. अगर आप चाहें तो रेंडी के इस भाषण को आप इंटरनेट पर भी सुन सकते हैं.

जो प्रश्न सुबह मेरे मन में उठा था, उस पर दिन में कई बार सोचा. बचपन से मुझे साहित्य, इतिहास, जैसे आर्ट विषयों में बहुत रुची थी, लेकिन जब विद्यालय में विषय चुनने का समय आया था तो मैंने विज्ञान के विषय चुने थे, जिसका प्रमुख कारण था कि उस समय मुझे लगता था कि इस रास्ते से अच्छी नौकरी मिलने और ठीक पैसा कमाने का मौका मिलेगा, साथ ही डाक्टरी से लोगों के काम भी आ सकूँगा. उस समय आज जैसी बात नहीं थी, तब इंजीनियर, डाक्टर या आई.ए.एस जैसे दो तीन काम छोड़ कर लगता था कि और कोई ढंग का काम नहीं होगा. जीवन में कई बार मन में आता रहा है कि अगर डाक्टरी न कर के कुछ साहित्य संम्बधी किया होता तो शायद मन को अधिक संतोष मिलता. तो क्या अगर जीवन दोबारा से शुरु किया जा सके तो इस बार साहित्य को चुनूँगा, इस बात पर देर तक सोचता रहा.

बहुत सोच कर इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि नहीं मैं इस तरह की कोई बात अपने जीवन में नहीं बदलना चाहूँगा, अगर जीवन दोबारा शुरु करने का मौका मिले, तो सब कुछ फ़िर से वैसा ही करूँगा जैसा इस बार किया था.

हाँ कुछ बातें हैं जिन्हें अगर मौका मिल पाता तो अवश्य बदलता. तीस साल पहले मेरे एक प्रिय मित्र ने आत्महत्या की थी. उसने मुझे बहुत संकेत दिये थे, लेकिन मैं उन्हें समझ नहीं पाया था, उसकी बात को गम्भीरता से नहीं लिया था. दोबारा मौका मिले तो उसे अकेला नहीं छोड़ूँगा, उसे रोक लूँगा.

कितनी बार छोटी छोटी बातों पर गुस्सा किया है, अपनों के मन को दुखाया है. दोबारा मौका मिले तो यह मागूँगा कि भगवान मुझे इतनी समझ दे कि उनका मन न दुखाऊँ. बस इसी तरह की बातें मन में आयीं, लेकिन अपने जीवन के किसी भी महत्वपूर्ण निर्णय को बदलने का बात मुझे ठीक नहीं लगी.

कुछ कुछ रेंडी जैसी बात एडम सेवेज (Adam Savage) ने भी की है, अपने आलेख "फूड फार द ईगल" (Food for the eagle) में. धर्म में या ईश्वर में वह विश्वास नहीं करते. कहते हैं कि अगर विश्वास ही करना हो तो कार्लस कास्टानेडा जैसे लेखकों के बनाये मिथकों में किया जा सकता है. वह बात करते हैं कास्टानेडा (Carlos Castaneda) की किताब "द ईगल्स गिफ्ट" (The eagle's gift) की, जिसमें आध्यात्मिक गुरु दान जुआन (Don Juan) अंत में अपने शिष्य को बताते हैं कि जीवन का और कुछ ध्येय नहीं, जितने साल का भी जीवन मिलेगा, उसके बाद गरुड़ आप की संज्ञा को ले कर खा जायेगा, आत्मसात कर लेगा. इस लिए जीवन में अपनी संज्ञा को जितना ज्ञान और अनुभव दे कर उसे बढ़ा सको उतना ही अच्छा ताकि अंत में तब आप की संज्ञा गरुण से मिले तो उसे भी आनंद मिले.

शायद हम सब को जीवन क्या है और क्यों है इसका कोई उत्तर चाहिये होता है, विषेशकर जब अपने किसी प्रियजनों को खो बैठते हैं. बहुत सालों से मेरी प्रिय पुस्तक है कठोपानिषद, जिसमें कहानी है नचिकेता की, जो पिता की आज्ञा को मान कर यम के पास चले जाते हैं और यम से जीवन और मृत्यु के बारे में समझाने के लिए कहते हैं. मेरा विश्वास इसी पुस्तक से बना है, कठोपानिषद से. मुझे जैसा समझ आया वह कास्तानेदा के गुरु वाली बात ही है. यानि, मुझे भी यही विश्वास है कि जो संज्ञा संसार के कण कण में बसी है, वही भगवान है, और जीवन का ध्येय जितने अनुभव, जितना ज्ञान पा सकें, उसे प्राप्त करना ही है, जीवन समाप्त होगा तो इसी सर्वव्याप्त संज्ञा में हम घुलमिल जायेंगे.

कभी कभी इस तरह की किताब या आलेख पढ़ते रहना अच्छा लगता है ताकि जीवन में क्या आवश्यक है, क्या महत्वपूर्ण है उसका ध्यान बना रहे, छोटी मोटी बातों की चिंता में जीवन को व्यर्थ न करें. आप क्या सोचते हैं कि जीवन का ध्येय क्या है? आप को अपना जीवन फ़िर से जीने को मिले तो क्या बदलना चाहेंगे? और कोई आप से कहे कि आप अपना अंतिम भाषण दीजिये तो आप क्या कहना चाहेंगे?

मंगलवार, अप्रैल 20, 2010

वेदों की मूल दुनिया

हर नयी यात्रा में मेरा प्रयत्न होता है कि कुछ नया पढ़ा जाये जिसे पढ़ने का घर पर आम व्यस्तता में समय नहीं मिलता. इस बार बँगलौर गया तो पढ़ने के लिए श्री राजेश कोच्चड़ की लिखी पुस्तक "वेदिक पीपल", यानि "वेदों के समय के लोग" पढ़ी. चूँकि आईसलैंड के ज्वालामुखी की वजह से अभी बँगलौर में रुका हुआ हूँ तो इस पुस्तक के बारे में लिखने का समय भी मिल गया. दरअस्ल, यह पुस्तक सभी वेदों को लिखने वाले लोगों की बात नहीं करती, इसका मुख्य ध्येय सबसे पहले वेद, ऋगवेद को लिखने वाले लोगों के बारे में है. साथ ही, यह पुस्तक रामायण तथा महाभारत की कुछ मुख्य घटनाओं की इतिहासिक जाँच करती है. (The vedic people - Their history and geography, by Rajesh Kocchar, Orient Blackswan 2009 - first ediation, 2000 by Orient Longman).

Vedic People by Rajesh Kocchar
राजेश जी सामान्य व्यक्ति नहीं, नक्षत्रशा्स्त्र से जुड़ी भौतिकी के विषेशज्ञ हैं, बँगलौर में स्थित भारतीय नक्षत्रीय भौतिकी राष्ट्रीय संस्थान के डायरेक्टर रह चुके हैं तथा तथा आजकल दिल्ली में भारतीय विज्ञान, तकनीकी तथा विकास राष्ट्रीय संस्थान के डायरेक्टर हैं.

वेदों को लिखने वाले कौन लोग थे, वह कहाँ से आये थे, उनका क्या इतिहास था, इस सबके बारे में लिखने के लिए राजेश जी भाषा विज्ञान, साहित्य, प्राकृतिक इतिहास, पुरात्तवशास्त्र, नक्षत्रशास्त्र आदि विभिन्न दृष्टिकोणों से इस विषय की छानबीन करते हैं. उनके शौध के निष्कर्श चौंका देते हैं लेकिन उनके तर्क को नकारना कठिन है. जिस वैज्ञानिक तरीके से विभिन्न दृष्टिकोणों से उपलब्ध जानकारी को वह प्रस्तुत करते हैं, उससे यह लगता है कि किसी अन्य निष्कर्श पर पहुँचना संभव भी नहीं. इस पुस्तक को पढ़ कर, भारत की प्रचीन संस्कृति और धर्म के बारे में जो धारणाएँ थी, उनको नये सिरे से सोचने का अँकुश सा चुभता है.

पुस्तक का प्रमुख निष्कर्श है कि इंडोयूरोपी मूल के लोग एशिया के मध्य भाग में बसे थे, जहाँ इन्होंने घोड़े को पालतु बनाया, पहिये, रथों तथा घोड़ेगाड़ियों का आविष्कार किया. इन्हीं का एक गुट, पश्चिम की ओर निकला जिससे यूरोप के विभिन्न लोग बने. इन लोगों का फिनलैंड और हँगरी के मूल लोगों से सम्पर्क था जिससे दोनों की भाषाओं में आपसी प्रभाव पड़ा, जिसकी वजह से फिनिश तथा हँगेरियन इंडोयूरोपी भाषाएँ न होते हुए भी, इन भाषाओं के कुछ शब्द मिलते हैं. इन लोगों के दल विभिन्न समय पर जहाँ आज अफगानिस्तान है उस तरफ़ से हो कर ईरान भी गये और भारत की ओर भी बढ़े, जहाँ वह लोग हड़प्पा के जनगुटों से मिलजुल गये. इसी वजह से प्राचीन ईरानी धर्म जोरस्थत्रा के धर्मग्रंथ अवेस्ता में कुछ वही देवता मिलते हैं जो कि ऋगवेद में मिलते हैं जैसे कि इंद्र, मित्र, वरुण आदि. अग्नि पूजा का मूल भी दोनों लोगों को मिला.

राजेश जी के अनुसार ईसा से 1400 वर्ष पहले वहीं दक्षिण अफगानिस्तान में इसी भारतीय ईरानी मूल के कुछ लोगों ने ऋगवेद के श्लोक लिखना प्रारम्भ किया. यह श्लोक लिखने का कार्य करीब पाँच सौ वर्ष तक चला इसलिए ऋगवेद का मूल प्राचीन भाग ईसा से 900 वर्ष पहले के आसपास पूर्ण हुआ, तब तक यह लोग भारत के पश्चिमी भाग में पहुँच चुके थे. उनका कहना है कि जिस सरस्वती नदी जिसे "नदियों की माँ" कहा गया, वह दक्षिण अफगानिस्तान में बहने वाली नदी थी. उनके अनुसार रामायण की घटनाओं का समय भी ईसा से 1480 वर्ष पूर्व का है, वह सब दक्षिण अफगानिस्तान में ही घटित हुआ. महाभारत का युद्ध जो ईसा से करीब 900 वर्ष पहले हुआ, उसकी कर्मभूमि भी पश्चिम का वह हिस्सा है जहाँ आज पाकिस्तान है.

उनका कहना है पूर्व को बढ़ते यह मानव गुट, हड़प्पा के लोगों से मिल कर यायावर जीवन छोड़ कर कृषि में लगे. यह लोग अपने साथ साथ नदियों तथा जगहों के पुराने नाम भी ले कर आये और नये देश में कुछ जगहों तथा नदियों को यह पुराने नाम दिये, कुछ वैसे ही जैसे इटली, फ्राँस, ईग्लैंड से अमरीका जाने वाले प्रवासी अपने साथ अपने शहरों के नाम ले गये और नये अमरीकी शहरों को न्यू योर्क, न्यू ओरलियोन, रोम, वेनिस जैसे नाम दिये. यानि कुरुक्षेत्र, अयोध्या आदि मूल जगह दक्षिण अफगानिस्तान में थीं जिनके नामों को भारत में लाया गया. इसी वजह से ऋगवेद में गँगा नदी का नाम नहीं मिलता.

इन सब बातों के बारे में वह साहित्य, भाषाविज्ञान, पुरात्तव, गणिकी, नक्षत्रज्ञान आदि विभिन्न सूत्रों से जानकारी देते हैं, और उनके तर्कों के सामने अचरज सा होता है और लगता है कि हाँ यह हो सकता है.

किताब को पढ़ने के बाद सोच रहा था कि अगर अफगानिस्तान में पुरात्तव की खुदाई हो सके और राजेश जी कि विचारों को पक्का करने के लिए अन्य सबूत मिलने लगें तो इसका क्या असर पड़ेगा? शायद इस तरह की बातें भारत विभाजन के समय अगर मालूम होतीं तो क्या असर पड़ता?

मन में यह बात भी उठी कि पश्चिम से आने वाले यह लोग, अपने पहले आ कर बस जाने वाले लोगों से किस तरह मिले, किस तरह उनके धर्मों का समन्वय हुआ? जैसे कि हिंदू धर्म के तीन सबसे अधिक पूजे जाने वाले भगवान, राम, कृष्ण तथा शिव, तीनों ही श्याम वर्ण के कैसे हुए जबकि ऋगवेद को लिखने वाले तो गोरे रंग के थे? कैसे भारत के एक हिस्से में महोबा का पूजा होती है, दूसरे हिस्से में उसे महिषासुर कह कर मारा जाता है? कैसे पुरुष देवताओं की पूजा करने वाले आर्य भारत में बस कर शक्ति, लक्षमी और ज्ञान की देवियों को मानने लगे?

इन प्रश्नों के उत्तर कहाँ से मिलेंगे, अगर आप किसी बढ़िया किताब के बारे में जानते हों तो मुझे अवश्य बताईयेगा. आप को मिले तो राजेश कोच्चड़ की इस किताब को अवश्य पढ़ियेगा. और अगर आप इस किताब को पढ़ चुके हैं तो यह भी बतलाईयेगा कि उनके तर्क आप को कैसे लगे?

गुरुवार, दिसंबर 17, 2009

शीबा को गुस्सा क्यों आता है?

"हँस" का नवंबर अंक स्त्री विषशांक था, इसमें शीबा असलम फाहमी का लेख "... खाने के और, दिखाने के और" पढ़ा. शीबा जी दिल्ली के जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय में डोक्टरेट के लिए शौध कर रहीं हैं और मुसलमान समाज या इस्लाम धर्म से जुड़े उनके लेख कई बार "हँस" पर पढ़े हैं. उनके किसी लेख के बारे में कुछ लिखा भी था, जिस पर उनसे ईमेल से कुछ बात भी हुई.

पिछले माह दो तीन दिन के लिए दिल्ली में था, तभी सैंट स्टीफन कोलिज में "भारत में धर्म, राजनीति और लैंगिकता" विषय पर सेमीनार में शीबा जी को देखा, उन्हें सुनने का मौका भी मिला और कुछ बातचीत भी हुई.

उन्होंने पूछा कि क्या मैंने उनका "हँस" के नवंबर अंक वाला लेख पढ़ा या नहीं और कैसा लगा? मैंने कहा कि अभी नहीं पढ़ा, क्योंकि पत्रिका इटली आने में कुछ देर लगाती है और मेरे घर से यात्रा के लिए चलने तक नवंबर अंक नहीं पहुँचा था. इसलिए उनसे वायदा किया कि जब पढ़ूँगा तो उसके बारे में अपनी राय अवश्य दूँगा.

भारत से घर वापस लौटे दस दिन हो गये, तो उनका एक अन्य संदेश मिला कि लेख पढ़ा या नहीं? तो रात को सोने से पहले, सोचा कि लेख को पढ़ने की कोशिश की जाये. पढ़ा तो नींद छू मंतर हो गयी, बहुत देर तक सोचता रहा, शीबा जी के गुस्से के बारे में.

***
शीबा जी ने बात उठायी है धर्मग्रंथ में लिखे आदर्शों की और समाज में होने वाली असलियत की, और मुसलमान औरतों के लिए इन दोनो की बीच की दूरी की. एक तरफ़ कुरान शरीफ़ में बाते हैं नारी की बराबरी की, उसके अधिकारों की, उसकी अस्मिता की, दूसरी ओर है मुसलमान समाज में नारी की हकीकत. उन्होंने मुसलमान समाज के बारे में छपने वाली किताबों का अध्ययन किया है, जिनमें नारी के लिए क्या जायज़ है और क्या नाजायज़ बताया गया है. इन किताबों में नारी को क्या सलाह दी जाती है, उसके बारे में उन्होंने लिखा हैः

एक अल्लाह-एक इस्लाम के नारे के नीचे यह नीच साहित्य औरत को न सिर्फ कामपिपासू बताता है बल्कि, शिकार करने वाली, चुग़लखोर, ग़ीबत (परनिंदा) करने वाली, झगड़ालू, पैसे की भूखी, काहिल, बहानेबाज़, और खानदान परिवार तोड़ने वाली भी बताता है और "यही वजह है कि औरतें जन्नत में कम होंगी". ... जन्नत के "आठों दरवाज़ों" से दाखिल होने का रास्ता शौहर को ख़ुश रखना, उसकी इज़्ज़त रखना भर है. शौहर की मर्ज़ी के बगैर नफली नमाज़ रोज़ा भी न करे औरत. शौहर को "मना" करने वाली पर फ़रिश्ते लानत भेजते हैं आदि आदि. इसमें सब्र, कनात, ज़ब्त, ख़ामोशी, घर से बाहर न निकलना, मायके में शिकायत न करना, शौहर से अपना कोई काम न लेना, माँ बाप से ज़्यादा बड़ा दर्जा शौहर को. ... दूसरी औरतों के साथ भी सफ़र नहीं. रेल के ज़नाना डिब्बे में भी नहीं. कुछ घंटों का हवाई जहाज़ का तन्हा सफ़र भी जायज़ नहीं. दिर्फ़ शरई सफ़र करो. घर में रहो. पर्दे की पाबंदी इसी में है. घर में आने वाली औरतों से भी बेवजह न बोलो बतियाओ. घरों के झरोखे खिड़कियाँ बंद रखो. ... औरत को नेकी करने और शौहर को "ख़ाविंद", "हाकिम" समझने से जिस जन्नत के आठों दरवाज़े खुलेंगे वहां उनके मर्द कुंवारी हूरों के साथ होंगे. यह नेक बीबियाँ करेंगी क्या यह नहीं मालूम.

उनका कहना है कि कुरान शरीफ़ में औरत की बराबरी और अधिकारों की बात करने वाले, अपने समाज की इस असलियत को नहीं बदलना चाहते. मर्द नहीं बदलना चाहते क्योंकि उनका इसी में फ़ायदा है, और शायद औरतों के मन में यही बात बिठा दी गयी हैः

मुसलमान औरत खुद को कमज़ोर चरित्र, चरित्रहीन, बहु पुरुष गामिनी, कामपिपासु और निरंतर अवसर की तलाश में रहने वाली अपराधी मान ले इसके लिए इन मुल्लों ने इतने कागज़ काले किये हैं कि एक पूरा प्रकाशक वर्ग इस प्रकार के साहित्य से रोज़ी कमा रहा है. लेकिन मेरे लिए यह एक छोटी मक्कारी है क्योंकि बड़ी मक्कारी यह है कि इन्हीं गुणों को मुल्ला वर्ग "मर्द की कुदरती प्रवृति" की संज्ञा दे कर उसमें "सुधार" नहीं बल्कि उसको "आत्मसात कर" जीने के तरीके और रणनीति भी मुसलमान औरत को सिखाता है.

जहाँ वह एक तरफ़ रूढ़िवादि मुल्ला की ओर उँगली उठाती हैं, दूसरी ओर मुस्लिम मीडिया और मुसलमान समाज के "प्रोगेसिव एक्टिविस्ट" कहलाने वाले लोगों की बात भी करती हैं:

"घर" पर बीवी और दिल्ली में गर्लफ्रेंड (रखेल) और पावरफुल माईबाप के आगे बैचलर बने इस मुसलिम एक्टिविस्ट, उर्दू एक्टिविस्ट, जर्नलिस्ट, राइटर आदि आदि की बहस यूं तो अल्लामा इकबाल से सीधे मार्क्स-नीत्शे-देरीदा पर गिरती है लेकिन मुसलमान औरत के चरित्रहनन और इस्लाम के नाम पर पनपाए जा रहे घोर स्त्री विरोधी समाजी रुझान पर वह कभी मुंह खोल ही नहीं सकता. बल्कि वह तो इस पर बहस आमादा होगा कि मीडिया ने ही मुसलमान समाज को "स्टीरियोटाइप" कर डाला है. इस मुद्दे पर बहस, सेमीनार, वर्कशाप, सिम्पोज़ियम आदि संस्थागत खर्चे से करेगा ... मुसलमान और उर्दू तुष्टीकरण के इस आत्मकेंद्रित खेल में मुसलमान महिलाएं बहुत कम हैं. उनका रास्ता कठिन है और विश्वविद्यालय के उर्दू विभागों के इज़्ज़तदार रास्ते से ही वे अपनी मंज़िल तक पहुँच सकती हैं. वहां भी अपने (उर्दू विभाग के) मर्दों का शिकार हो कर वामपंथी शिक्षक गुट में सुरक्षा तलाशती घूमती हैं.

***
शीबा के शब्दों में क्रोध भी है, कड़वाहट भी. इसके उत्तर में क्या कहा जायेगा उसे समझने के लिए किसी विषेश कल्पना शक्ति की आवश्यकता नहीं. "वह तो छिछरी, चरित्रहीन, किस्म की एम्बीशय औरत हैं, आगे आना चाहती है, नयी तस्लीमा बनना चाहती है, यूँ ही उछाल रही हैं" जैसी बातें कही जायेंगी, विषेशकर उन एक्टिविस्ट किस्म के लोगों के द्वारा. कुछ शुभचिंतक कहेंगे, कि बात तो तुम्हारी ठीक है पर इस तरह घर की गंदगी को दूसरों के सामने बाज़ार में धोना गलत बात है, इसको हमें आपस में भीतर से बदलना की कोशिश करनी चाहिये.

दुखती रग पर हाथ रख कर, "राजा के बढ़िया वस्त्र नहीं, राजा तो नंगा है" की बात कहने वाले को ही दोषी समझा जाता है, उसे ही मारने डराने की धमकी देते हैं. ढ़क कर रखो, देख कर भी न देखो, यही नियम है शांति से जीने का.

शीबा अपने समाज की बात कर रहीं हैं, पर बाकी धर्मों वाले भी खेल तो वहीं खेलते हैं. बुर्का पहनाने की ज़िद नहीं करते लेकिन सिर ढ़को, गैर मर्द से बात न करो, जीन्स न पहनो, शर्म नारी का गहना है, पति परमेश्वर है और भारतीय सभ्यता और संस्कृति यही चाहती है, जैसी बातें भारत के किस समाज में नहीं करते? फर्क इतना है कि बाकी समाजों में शायद इस बारे में बोलने वाले कुछ अधिक हो रहे हैं, भारत के मुसलमान समाज में इस तरह की खुली बात कहने वाले कम हैं!

रविवार, नवंबर 01, 2009

घादा जमशीर की लड़ाई

घादा जमशीर (Ghada Jamshir) बहरेन की रहने वाली हैं और उन्होंने स्त्री अधिकारों की माँग के लिए एक संस्था बनायी है जिसका ध्येय है कि शरीयत कानून के द्वारा होने वाले स्त्रियों के मानव अधिकारों के विरुद्ध होने वाले फैसलों के बारे में आवाज़ उठायें. उन्होंने इस संस्था को बनाने का निर्णय आठ वर्ष पहले लिया जब उनकी मुलाकात एक अदालत के बाहर एक स्त्री से हुई जिसे उसके पति ने तलाक दिया था और साथ ही अदालत ने फैसला किया था कि उसकी बेटी पिता के साथ रहेगी. जमशीर का भी तलाक हुआ है.

(From nomulla.net)

धीरे धीरे जमशीर की संस्था वुमेनज़ पेटिशन कमेटी (Women's petition committee) को स्थानीय स्त्रियों का सहारा मिला है और घादा जमशीर का नाम जाने जाना लगा है. जमशीर ने देश में घूञ घूम कर शरीयत अदालयतों में होने वाले फैसलों से प्रभावित स्त्रियों की कहानियाँ एकत्रित की, उन्हों लोगों तक पहुँचाया और सरकार से माँग की न्याय पद्धती में बदलाव आवश्यक है.

जिन मुद्दों को जमशीर की संस्था ने उठाया है उनमें बड़ी संख्या में तलाकशुदा स्त्रियाँ हैं जिनके अधिकारों को पुरुषों के अधिकारों से कम माना गया, पर साथ ही अन्य मुद्दे भी हैं जैसे कि नवयुवतियों से कच्ची शादी करके उनसे शारीरिक सम्बंध करना और फ़िर उन्हें छोड़ देना, जबरदस्ती की शादियाँ और नाबालिग लड़कियों से बलात्कार, जिनमें अदालतें केवल पुरुषों की बात सुनती हैं और स्त्रियों को न्याय नहीं मिलता.

घादा जमशीर पर अदालत की मान हानि करने का आरोप लगाया गया है, उनके पीछे खुफ़िया पुलिस कई सालों से लगी है, उन्हें जान से मारे जाने की धमकियाँ मिल चुकी हैं और कई लोगों ने घूस देने की कोशिश भी की. सन 2006 में अमरीकी पत्रिका फोरबस (Forbes) ने घादा का नाम अरब जगत की दस सबसे महत्वपूर्ण स्त्रियों मे गिना था, लेकिन उनके अपने देश में अखबारों आदि में उनकी लड़ाईयों के बारे में समाचार नहीं छपते और उन पर विदेशी एजेंट होने का आरोप लगाया जाता है.

जमशीर की सबसे प्रमुख माँग है कि पारिवारिक झगड़ों में शरीयत का कानून नहीं केवल सामान्य सिविल कानून का प्रयोग होना चाहिये.

जमशीर ने एक साक्षात्कार में कहा कि, "बहरेन में शिया मुसलमान मुता'ह करते हैं, यानि कुछ तो इस तरह के विवाह जिनमें पत्नी को सभी हक हों और कुछ "आनंद" लेने के लिए विवाह जैसे रिश्ते, जिसमें स्त्री को कोई हक नहीं. किसका आनंद है, केवल पुरुष का? और स्त्री का क्या? इस तरह के रिश्तों से होने वाले बच्चों को क्या मिलता है, कुछ नहीं. मुझे यह बताईये कि क्या यह कुरान शरीफ़ के नाम पर किया जा रहा है? मुता'ह के नाम पर नाबालिग लड़कियों से जबरदस्ती शारीरिक सम्बंध बनाना क्यों जायज़ है? क्या कोई धर्म इस तरह की बात की अनुमति दे सकता है? क्यों स्त्रियों से परिवार नियोजन की बात नहीं की सकती?"

तो कहा गया कि वह शिया मुसलमानों के विरुद्ध बोलती हैं क्योंकि स्वयं सुन्नी हैं. पर जमशीर इस आरोप ने नहीं डरती, "हमारे देश में शिया बहुसंख्यक हैं पर उन्हें हमेशा दबाया गया है, यह तो शब्दों और पोलिटि्कस का खेल है. जो धर्म सुधार होने चाहिये वह अल खलीफ़ा राज घराने ने कुछ नहीं किया, बस पारिवारिक कानून बनाया है जिससे लोगों का ध्यान हटाया जाये और कट्टरपंथियों से समझौता किया जाये."

जमशीर सुन्नी मुसलमानों के रिवाज़ो के बारे में बोली हैं, "हमारे सुन्नियों में जवाज़ यानि कानूनी विवाह है, और साथ में पुरुष मिसयार भी कर सकते हैं यानि कानूनी रिश्ता जिसमें औरत को कोई हक नहीं, वह अपने परिवार में रहती है और उसका "पति" जब उसका दिल करे उससे मिलने जाता है. यह कैसी पत्नी है, यह तो कोई और रिश्ता है, क्या इससे औरत को इज़्जत मिलती है, क्या उसे अधिकार मिलते हैं?

जमशीर के विरुद्ध कहते हैं कि वह पर्दा नहीं करती, धर्म के खिलाफ़ हैं, तो वह उत्तर देती हैं, "मेरे बारे में मसजिदों में क्या कहा जाता है, इससे मुझे कोई चिंता नहीं, अल्ला तालाह फैसला करेंगे कि मुझे स्वर्ग मिले या नर्क. किसने इनको यह हक दिया कि मेरे फैसले करें? इन्हें मालूम है कि मैं रोज़े रखती हूँ या नहीं? इन्हें मालूम है कि मैं कितनी बार नमाज पढ़ती हूँ?"

जमशीर से पूछा गया कि अगर तुम्हें जेल में डाल देंगे तो डर नहीं लगता? वह बोलीं, "बाहर भी बड़ा जेलखाना है जिसमें औरतों का जीवन बंद है. मेरी लड़ाई है कि अरब समाज में औरतों को पुरुषों के समान अधिकार मिलें और मैं इसके लिए हमेशा बोलने को तैयार हूँ."

गुरुवार, जून 04, 2009

प्रेम के लिए जेहाद

इस बार के बोलिनिया फ़िल्म फेस्टिवल में भारतीय मूल के फ़िल्म निर्देशक परवेज़ शर्मा की फ़िल्म "प्रेम के लिए जेहाद" (Jehad for Love) देखने का मौका मिला. इस फ़िल्म के बारे में पिछले वर्ष के जैंडर बैंडर फ़ैस्टिवल (Gender Bender Film Festival) में सुना था पर तब इसे देख नहीं पाया था. फ़िल्म का विषय है आज के वातावरण में विभिन्न देशों में मुसलमान समुदाय में समलैंगिक होने का अर्थ. फ़िल्म में भारत, मिस्र, दक्षिण अफ्रीका, पाकिस्तान, तुर्की, मोरोक्को जैसे देशों से मुसलमान समलैंगिक स्त्रियों तथा पुरुषों की कहानियाँ दिखायीं गयीं हैं. यह अपनी तरह की पहली फ़िल्म है क्योंकि ईस्लाम समलेंगिकता को बिल्कुल स्वीकृति नहीं देता और शारिया की बात की जाये, तो बहुत से परम्परावादी मुसलमान समलैंगकिता की सजा मौत बताते हैं.

यही वजह है कि फ़िल्म में साक्षात्कार देने वाले बहुत से लोग अपनी कहानियाँ तो सुनाते हैं पर अपना चेहरा नहीं दिखाते, हालाँकि सुना है कि 2007 में इस फ़िल्म के प्रदर्शित होने के बाद स्वयं परवेज़ को और फ़िल्म में अपनी कहानी सुनाने वाले कई लोगों को मृत्यु की धमकियाँ मिल चुकी हैं.

दक्षिण अफ्रीकी कहानी है एक समलैंगिक इमाम मुहसिन हैंडरिक्स की, जिनका विवाह हुआ था, दो बेटियाँ भी थीं पर जब उन्होंने पत्नी से तलाक होने के बाद अपनी समलैंगिकता की बात को छुपाने के बजाय खुलेआम स्वीकार किया तो उनके जीवन में तूफ़ान आ गया और उन्हें इमाम के पद से हटा दिया गया. बहुत कोशिशों के बाद उनके शहर के कुछ मुसलमानों ने स्वीकार किया कि वे उन्हें अपनी मस्जिद में इमाम चाहते थे. उनसे बात करने के लिए, बाहर से एक जाने माने करान शरीफ़ के ज्ञानी को बलाया गया, जिनका फैसला बहुत कठोर था, "अगर तुम अपने को नहीं बदल सकते तो समलैंगिकता की सजा मृत्यु दँड है. इस बात पर बहस कर सकते हें कि किस तरह से यह मृत्यु दँड दिया जाये, लेकिन इस बात में कोई शक नहीं कि इसकी सज़ा मृत्यु दँड ही है."

मुहसिन का अपनी बेटियों से बात करने का दृष्य बहुत अच्छा लगा. मुहसिन पूछते हैं, "अगर मुझे पत्थर मार कर जान से मारने की सजा सुनायी जायेगी तो क्या होगा?" उनकी बड़ी बेटी कहती है कि दक्षिण अफ्रीका में इस तरह की सज़ा कोई नहीं दे सकता. उनकी छोटी बेटी कहती है, "पापा, अगर ऐसा होगा तो में चाहुँगी कि तुम पहले पत्थर से ही मर जाओ और तुम्हें तकलीफ़ न हो."

ईरान के कुछ नवयुवकों की कहानियाँ हैं जो कि तुर्की में छुपे हैं और प्रतीक्षा कर रहे हैं कि संयुक्त राष्ट्र संघ का शरणार्थी कमीशन उनकी अर्ज़ी को मान ले और उन्हें कनाडा में जाने की अनुमति मिल जाये. उनके दिन घर वालों, साथियों, मित्रों और प्रेमियों की यादों में कटते हैं जिनको वह अपने गाँवों में छोड़ कर आये हैं, माँ से टेलिफ़ोन से बात करने वाला एक युवक बिलख कर रोता है, उसे मालूम है कि वापस गाँव जा कर वह अपनी माँ को दोबारा कभी नहीं मिल पायेगा क्योंकि उसके नाम पर पुलिस का वारंट है.

कुछ मिलती जुलती कहानी है मिस्र के लड़के की जो कि फ्राँस में शरणार्थी बन कर रह रहा है. मिस्री जेल में अपने बलात्कार के बारे में बताते हुए उसकी भी आँखों में आँसू आ जाते हैं. सबकी बातों में घर परिवार, मित्रों से बुछुड़ने का दर्द भी है और अपनी समाज व्यवस्था पर रोष भी जो उन्हें मानव नहीं मानती.



भारत की कहानियां उत्तरप्रदेश से हैं. एक व्यक्ति बताता है कि वह मक्का की तीर्थ यात्रा कर चुका है और उसने निश्चय किया है वह स्वयं पर कँट्रोल करने की कोशिश करेगा, वह दोबारा से स्त्री वस्त्र नहीं पहनेगा. एक अन्य नवयुवक, जो कि एक इस्लाम के ज्ञानी से अपनी परेशानी की सलाह चाहता है, कहता है, "क्या करें, जब मुसलमान जात में पैदा हुए हैं तो अपनी जात की बात तो माननी ही पड़ेगी." ज्ञानी जी का विचार है कि समलैंगिता गलत है और किसी भी हालत में उसी सही नहीं माना जा सकता, इसलिए उनकी सलाह है कि नवयुवक को स्वयं पर अपने "गलत आदतों" को रोकने के लिए संयम का प्रयोग करना होगा. जब वह नवयुवक ज़िद करता है कि यह बात उसके बस में नहीं, तो ज्ञानी जी कहते हैं कि समलैंगिकता एक बिमारी है जिसका इलाज उन्हें अस्पताल में कराना चाहिये. रात को सब समलैंगिक मित्र छुप कर एक घर में मिलते हैं जब उनमें से कई लोग स्त्री वस्त्र पहनते हैं और "जब प्यार किया तो डरना क्या" पर नाचते हैं.

मिस्र की दूसरी कहानी दो स्त्रियों की है, माहा और मरियम. माहा ने अपनी समलैंगिकता को स्वीकार कर लिया है, जबकि मिरियम को अपराधबोध खा रहा है कि वह अपने धर्म के विरुद्ध जा रही है. "हमें नहीं मिलना चाहिये, हमें खुद को बदलने की कोशिश करनी चाहिये", मिरियम कहती है. माहा अपनी सखी को समझाने के लिए इस्लाम धर्म के बारे में एक किताब खरीद कर लाती है, "देखो, इसमें लिखा है कि अगर मिथुन क्रिया न हो तो वह समलैंगिकता उतनी गम्भीर बात नहीं, इसका मतलब है कि हमारा पाप उतना बड़ा नहीं."



फ़िल्म में बस एक ही खुश जोड़ा है, तुर्की की दो औरतें, फेर्दा और केयमत, जो मसजिद के बाहर भी आपस में मज़ाक करती हैं और छुप कर एक दूसरे को चूम लेती हैं. उनके रिश्ते को पारिवारिक स्वीकृति भी मिली है.

समलैंगिकता किसी धर्म में आसान नहीं, लेकिन इस्लाम से जुड़ी कठिनाईयां अधिक जटिल लगती हैं. फ़िल्म देखने से पहले मुझे नहीं मालूम था कि मुसलमान और समलैंगिक होने में इतनी कठिनाईयाँ है. इस दृष्टि से यह फ़िल्म महत्वपूर्ण है क्योंकि एक दबे छुपे विषय को, जिसका असर विभिन्न देशों के इतने सारे लोगों पर पड़ता है, को खुले में लाती है और उनसे जुड़े प्रश्न उठाती है. फ़िल्म में जिन लोगों की बात उठायी गयी है उन सब के जीवन की कठिनाईयों में मुसलमान समाज का समलैंगिकता के प्रति दृष्टिकोण और सोच का हिस्सा तो है लेकिन साथ ही साथ, उनका स्वयं के बारे में यह सोचना कि वे लोग धर्म के विरुद्ध गलत काम करते हैं, भी एक बड़ी समस्या है.
यानि औरों की सोच बदलने के साथ साथ, इस फ़िल्म के अनुसार, मुस्लिम समलैंगिक लोगों को अपनी सोच को भी बदलने की समस्या है और जब तक वह लोग अपने इस अपराधबोध से नहीं निकल पायेंगे, किस तरह संतोषजनक जीवन बिता सकते हैं? इस बात से मुझे थोड़ा सा आश्चर्य हुआ कि इतने सारे मुस्लिम समलैगिक युवक और युवतियाँ, "उनका धर्म क्या कहता है" वाली बात को इतनी गँभीरता से लेते हैं.

हिंदू धर्म में समलैंगिकता को किसी प्राचीन धार्मिक पुस्तक में गलत कहा गया हो, मुझे नहीं मालूम हालाँकि हिंदू धर्म के रक्षक होने का दावा करने वाले हिंदुत्व वादी कहते हैं कि समलैंगिकता धर्म के विरुद्ध है. बल्कि शिव के अर्धनारीश्वर होने की बात या फ़िर देवी देवताओं के मनचाहने पर पुरुष या स्त्री रूप धारण करना आदि बातों से लगता है कि हिंदू धर्म में मानव के पुरुष रूप और स्त्री रूप की भिन्नता को स्वीकारने की जगह थी. यह सच है कि आज का हिंदू समाज हिँजड़ा कहे जाने वाले लोगों को जिनमें अंतरलैंगिकता, समलैंगिकता के अंश होते हैं, को समाज से बाहर देखता है, लेकिन मैंने नहीं सुना कि कोई कहे कि वे लोग हिंदू धर्म के विरुद्ध हैं. ईसाई धर्म में बाईबल की कुछ बातों को ले कर यह कहा जाता है कि समलैंगिकता अप्राकृतिक है, प्रकृति के नियमों के विरुद्ध है, गलत है.

मुझे लगता है कि उनके धर्म कुछ भी कहें, परिवार कुछ भी कहें, आज अन्य धर्मों के समलैंगिक लोग अपना जीवन अपनी मर्जी से, स्वतंत्रता से जीने के लिए लड़ते हैं और कई बार अपने धर्म की संकीर्ण तरीके से सोच के विरुद्ध आवाज़ उठाते हैं. लड़कपन में जब अपनी यौनिक पहचान स्पष्ट न बनी हो, उस समय में उनमें अपराधबोध हो सकता है पर समय के साथ वे लोग इस अपराधबोध से निकल जाते हैं और अक्सर धर्म से दूर हो जाते हैं. जबकि फ़िल्म देख कर लगा कि मुस्लिम समलैंगिक लोगों में अपराधबोध से निकलना अधिक कठिन है. मैं सोचता हूँ कि अगर हमारे धर्म में कोई बात मानव अधिकारों के विरुद्ध है तो उसे बदलना चाहिये, जबकि फ़िल्म से लगता है कि इस्लाम में यह नहीं हो सकता क्योंकि कुरान शरीफ़ को बदला नहीं जा सकता.

इस तरह की फ़िल्म बनाने के लिए बहुत साहस चाहिये. परवेज़ को धमकियाँ मिली हैं, उनके विरुद्ध फेसबुक पर पृष्ठ बनाये गये हैं. परवेज़ अपने चिट्ठे पर अपनी लड़ाई के बारे में बताते हैं.

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