मंगलवार, फ़रवरी 06, 2007

मानव का सफ़र

करीब दो वर्ष पहले इंडोनेसिया के फ्लोरेस द्वीप पर एक प्राचीन मानव शरीर मिला था. 12,000 साल पुराना यह शरीर अब तक मिले सभी आदि मानव शरीरों से भिन्न था. कद में करीब एक मीटर और छोटे से खरबूजे के बराबर सिर वाले इस स्त्री शरीर के बारे में कहा गया था कि वह अभी तक अनजाने, एक नये आदिम मानव गुट की थी जिसे होमो फ्लोरेसियंसिस (Homo floresiensis) का नाम दिया गया था. इस आदि मानव गुट के सभी सदस्य छोटे कद के छोटे दिमाग वाले थे.

चूँकि 12,000 साल पहले, आधुनिक मानव गुट, होमो सेपियंस (Homo sapiens), भी धरती पर रह रहा था, इसका अर्थ हुआ कि कुछ समय तक होमो सेपियंस तथा होमो फ्लोरेसियंसिस के मानव दल समाज साथ साथ रहे.

पर कुछ वैज्ञानिकों ने संदेह किया है कि होमो फ्लोरेसियंसिस का कोई अलग मानव गुट था. उनका विचार है कि जो शरीर फ्लोरेस में पाया गया वह एक बीमार आधुनिक मानव होमो सेपियंस स्त्री का है जिसे माईक्रोसिफेलिया यानि छोटे दिमाग की बीमारी थी.

इस तरह की बहसें वैज्ञानिकों में आम हैं क्योंकि प्राचीन आदि मानवों के शरीर बहुत थोड़े से मिले हैं और उनके आधार पर सारी बातें जानना और समझना कठिन है. कुछ माह पहले अँग्रेजी विज्ञान पत्रिका वेलकम साईंस में इस विषय पर एक लेख निकला था जिसमें मानव शरीर के सूक्षम कोषों (cells) के अंदर छुपे डीएनए (DNA) तथा जेनोम (genome) के अध्ययन से आदि मानव के विकास को बेहतर समझने के बारे में बताया गया था.

जेनोम शोध से यह पता चलता है कि आज से 70 लाख साल पहले अफ्रीका में मानव तथा चिमपैंज़ी के गुट एक दूसरे से अलग हो कर विकसित होने लगे. आज तक का पाया हुआ सबसे प्राचीन मानव शरीर अफ्रीका में चाद (Tchad) देश में सन २००२ में पाया गया था, करीब 65 लाख पुराने इस शरीर को साहेलआथ्रोपस चादेंसिस का नाम दिया गया और यह मानव जाति के विकास का प्रथम पग था, जो सीधा खड़ा हो कर भी चल सकता था और गोरिल्ला जैसा था. फ़िर कारीब 44 से ले कर 17 लाख साल पहले, सारे अफ्रीका में एक नयी मानव जाति फैली, दुबले पतले छोटे मानवों की जिन्हें आउस्ट्रालोपिथेसीन (Australopithecines) के नाम से जाना जाता है. 1974 में ईथिओपिया में पाये गये एक आदिम मानव शरीर जिसे लूसी के नाम से पुकारा गया था, इसी समय का प्रतीक था और बाद में इसी मानव जाति के पैरों के निशान भी मिले थे.

पहला आधुनिक मानव जिसे होमो नाम दिया गया, करीब 24 लाख साल पहले विकसित हुआ और वैज्ञानिक उसे होमो एबिलिस का नाम देते हैं जो कि हाथ का उपयोग करने लगा था. फ़िर 19 लाख पहले आया होमो इरेक्टस, जो केवल सीधा दो पैरों पर ही चलता था. इसी मानव विकास यात्रा में करीब 6 लाख से 2 लाख साल पहले यूरोप में निअंडरथाल मानव आया और फ़िर अफ्रीका में होमो सेपियंस जो दोनो बहुत लम्बे अर्से तक अर्से तक साथ साथ रहे. करीब 80 से 50 हज़ार साल पहले होमो सेपियंस अफ्रीका से बाहर निकला और यह सोचा जाता है कि अंत में आधुनिक मानव से हार कर निअंडरथाल मानव जाति करीब 30 हजार वर्ष पहले समाप्त हो गयी. यही वह समय है जब आधुनिक मानव में वाणी का विकास हुआ.

जिस विकास और परिवर्तन में लाखों साल लग जाते थे, वह आधुनिक मानव के आने के बाद तीव्र होने लगा और अब तो और भी तीव्र हो रहा है. 30 हजार साल पहले मानव को शब्द मिले, 4 हज़ार साल पहले मिस्र में पिरामिड बनने लगे और आज से करीब ढाई हजार साल पहले वेद लिखे गये. आज तो परिवर्तन को दशकों में गिना जाता है, कल सालों में फ़िर महीनो में गिना जायेगा. पर इस तीव्र परिवर्तन का यह अर्थ नहीं कि प्रकृति के विकास के नियम बदल गये हैं. वैज्ञनिकों के अनुसार आज से 70,000 हजार वर्ष पहले जब सुमात्रा द्वीप में माऊँट टोबा नाम के ज्वालामुखी का विस्फोट हुआ था तो एक हज़ार सालों तक पृथ्वी के आसपास धूल छाई रही थी और पृथ्वी बर्फ से ढक गयी थी, जिसमें अधिकतर मनाव और पशु मर गये थे. आज जब मानव के पर्यावरण पर पड़ते असर का सुनता हूँ कि सागरों के स्तर बढ़ रहे हें, प्रदूषण बढ़ रहा है, ऊँचे पर्वतों पर बर्फ पिघल रही है, तो यह सोचता हूँ कि जब प्रकृति करवट लेगी तो कौन बचेगा और कब तक!

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एनडीटीवी पर इस चिट्ठे की बात होने की बधाई के लिए आप सबको धन्यवाद. इतना प्रतिष्ठित चैनल हिंदी चिट्ठों की बात करे, यह तो अच्छा है, शायद चिट्ठा लिखने वालों की संख्या बढ़े.

रविवार, फ़रवरी 04, 2007

चीख

कल मैंने अपने तस्वीरों के चिट्ठे पर नोर्वे के सुप्रसिद्ध चित्रकार एडवर्ड मुँच की लंदन में हुई एक कला प्रदर्शनी की तस्वीर लगाई थी तो सोचा आज उनकी सबसे प्रसिद्ध तस्वीर चीख की बात करनी चाहिए. मुँच का जन्म हुआ 1863 में लोटन नाम के शहर में, जब वह एक वर्ष के थे तो उनका परिवार क्रिसतियाना शहर में, जिसका आधुनिक नाम है ओस्लो, वहाँ रहने आया. नवयुवक मुँच ने 1881 में नोर्वे के राजकीय कला विद्यालय में शिक्षा पाई और फ़िर पैरिस भी कला सीखने गये.

"चीख" नाम की कलाकृति उन्होंने 1893 में बनाई.





इस तस्वीर में सामने आकृति है कि अँडे जैसे सिर वाले व्यक्ति की जिसके चेहरे पर गहन पीड़ा है और जिसका मुँह अनंत चीत्कार में खुला है. यह व्यक्ति एक पुल पर चल रहा है. पुल के साथ समुद्र दिखता है जिसमें पीछे पानी का रंग पीला सा है जिसमें दो नावें दिखतीं हैं. पुल पर उस व्यक्ति के पीछे दो अन्य धूमिल आकृतियाँ हैं. उपर आकाश सुर्यास्त की लालिमा में रँगा है.

क्या कुछ देखा उस व्यक्ति ने जिसे उसे डरा दिया और वह चीखने लगा? कोई खून या दुर्घटना देखी उसने? जिस तरह से व्यक्ति ने अपने दोनो हाथ अपने चेहरे के दोनो ओर रखे हैं उससे लगता है कि यह चीख किसी बाहरी घटना को देख कर नहीं बल्कि अपने ही मन में उठ रहे विचारों का हाहाकार है. हालाँकि व्यक्ति के शरीर का केवल ऊपरी हिस्सा दिखता है पर उसकी रेखाएँ इस तरह से खिंचीं हैं कि उसमें गति दिखती है. यह तस्वीर आधुनिक जीवन के अकेलेपन, उदासी और त्रास को व्यक्त करती है.

"चीख" जल्दी ही बहुत प्रसिद्ध हो गयी और मुँच ने इसी चीख को कुछ फेर बदल कर तीन बार और बनाया पर कला विशेषज्ञ इस पहली "चीख" को सबसे बढ़िया मानते हैं. नार्वे में इस आकृति से प्रेरित खेल खिलौने बाज़ार में मिलते हैं.

मुँच नें इस चित्र के बारे में बताया कि "सँध्या का समय था, सूरज डूब रहा था, अचानक सारा आसमान लाल हो गया. मैं रुका, लगा कि शरीर में जान ही नहीं थी, ... खून था और अग्नि की लपलपाती लपटें सागर और शहर के ऊपर मँडरा रही थीं ... मैं डर कर काँपता हुआ वहाँ खड़ा रहा, और मुझे लगा कि जैसे सारी प्रकृति में एक चीख गूँज रही हो". यानि उनका कहना था कि यह चीख किसी व्यक्ति का हाहाकार नहीं, सारी प्रकृति का हाहाकार था.

शौधकर्ताओं ने बताया है कि इस चित्र को बनाने से दस वर्ष पहले, 1883 में इंडोनेसिया का कराकातोवा ज्वालामुखी फ़ूटा था और आसमान में धूल छाई थी तो ओस्लो में भी आकाश का रंग लाल कई दिनों तक लाल रहा था और शायद मुँच तब की बात कर रहे थे.

यह चित्र इसलिए भी प्रसिद्ध हुआ क्योंकि यह दो बार चोरी हो चुका है. पहले 1994 में जब नोर्वे में शीत ओलिम्पक खेल हो रहे थे तो यह चोरी हुआ और तीन महीने बाद मिला. फ़िर 2004 में इसे दिन दहाड़े ओस्लो कला संग्रहालय में दो मुँह ढके चोर बँदूक दिखा कर उठा ले गये. दो वर्ष के बाद इसके मिलने की कहानी भी बहुत अजीब है क्योंकि चोर को चाकलेट का लालच दे कर पकड़ा गया. पुलिस ने यह सुराग लगाया था कि इसका चोर चाकलेट का लालची है तो चाकलेट बनाने वाली कम्पनी एम एंड एम ने एलान किया कि जो इस तस्वीर का सुराग देगा उसे कई करोड़ रुपये की चाकलेट दी जायेगी.

कहते हैं कि चित्र के ऊपरी भाग में लाल रँग पर मुँच ने पैंसिल से छोटे अक्षरों में लिखा था "यह चित्र कोई पागल ही बना सकता था."

चित्र दुनिया में चाहे कितना ही प्रसिद्ध क्यों न हो, मुझे स्वयं अच्छा नहीं लगता. कुछ साल पहले ओस्लो के कला संग्रहालय में जब इसे देखा तो मन परेशान सा होने लगा. शायद यही इसकी प्रसिद्ध का कारण है कि यह हमें अपने अंतर्मन में छुपे अकेलेपन और उदासी के डर के सामने खड़ा कर देता है.

शनिवार, फ़रवरी 03, 2007

टेलीविज़न चैनलों की दुनिया

जहाँ तक भारत से समाचार मिलने और संचार साधनों की बात है उसमें 1980 के दशक के जीवन और आज की स्थिति में इतना अंतर आ चुका है कि सोचने पर विश्वास नहीं होता. यह बदलाव पहले तो धीरे धीरे शुरु हुआ. पहले टेलीग्राम के बदले में आया टेलेक्स और फ़िर फाक्स. आज क्या कोई टेलीग्राम का उपयोग करता है, मालूम नहीं, टेलेक्स अवश्य ही समाप्त हो गया. फाक्स आज भी जीवित है पर बूढ़े माँ बाप की तरह जिनके लिए बच्चों के पास समय नहीं होता.

शुरु में तो टेलीफोन करना भी कठिन था. काल बुक करा कर घँटों इंतज़ार में बैठे रहते और शायद आज के हिसाब से अधिक मँहगी भी थी. फ़िर 1994 में घर में पहला कंप्यूटर आया और साथ ही ईमेल और बुलेटिन बोर्ड वाले गुट जिसमें से भारत से सम्बंधी गुट खोजते रहते थे. कई सालों तक ईमेल से मिलने वाले अमरीका में रहने वाले भारतीयों के सौजन्य से मिलने वाले भारतीय समाचारों की डाईजेस्ट से ही पता चलता था कि भारत में क्या हुआ. आज कें अंतर्जाल और पिछले तीन चार वर्षों में चौड़े रास्ते यानि ब्रोडबैंड के आने से बदलाव में इतनी तेजी आई है कि सोचो तो विश्वास नहीं होता कि अभी कुछ साल पहले तक यह सब कुछ सम्भव नहीं था.

बस एक क्षेत्र में ही कुछ कठिनाईयाँ थीं, रेडियों सुनने और भारतीय टेलीविजन देखने के क्षेत्र में.

पिछले कुछ सालों से विदेशों में चलने वाले भारतीय रेडियो स्टेशनों की संख्या धीरे धीरे बढ़ रही है. लंदन से सनराईज रेडियो तथा बीबीसी की हिंदी सेवा, पेरिस से तीन ताल रेडियो और निंबूड़ा रेडियो, दुबाई से हम रेडियो. मुंबई से एक पूर्वरिकार्डिड कार्यक्रम देने वाले रेडियो भी है बोलीवुड ओन डिमांड पर भारत से अंतर्जाल पर सीधा प्रसारण करने वाले रेडियो नहीं हैं, शायद इसलिए कि भारतीय कानून इसकी अनुमति नहीं देता? आल इंडिया रेडियो का अंतर्जाल पृष्ठ बहुत सालों से यही संदेश देता है कि सीधा प्रसारण कुछ समय के लिए बंद है. अपने मन पसंद गाने चुन कर उन्हें अपनी मर्जी से सुनना भी बहुत आसान है.

वीडियो के मामले में कुछ पीछे थे पर 2006 में बहुत परिवर्तन आया है. स्मेशहिट, वाह इंडिया, सिफी मेक्स, जैसे पृष्ठों पर समाचारों, खाना बनाना, इधर उधर की गपबाजी, हिंदी सिनेमा जगत सम्बंधित बातें सब कुछ आप आराम से देख सकते हैं. राजश्री फिल्मस ने अंतर्जाल पर अपने फिल्में, गानों, महाभारत जैसे सीरियल आदि के कार्यक्रम इत्यादि देखने की सुविधा दी है. स्टार टीवी वालों ने भी अपना नया पृष्ठ बनाया जिसमें उनके कार्यक्रमों की छोटी सी झलक देख सकते हैं, पर यह इतना रुक रुक कर आता है कि मजा नहीं आता. बीडब्ल्यूसिनेमा जैसे पृष्ठ भी हैं जहाँ आप दो‍तीन डालर का टिकट खरीद कर नई हिंदी फिल्में देख सकते हैं.

बस एक भारतीय टेलीविजन देखने की कमी थी जिसके लिए इटली जैसे देश जहाँ भारतीय बहुत कम हैं सेटेलाईट का डिश एंटेना लगवा कर भी उतना आसान नहीं था. पर पिछले महीनों में इसमें भी परिवर्तन आने लगा है. दूरदर्शन समाचार वालों ने पहले शुरु किया था पर उसमें वीडियो अच्छा नहीं था और बहुत रुक रुक कर आता था. फिर जब से आबीएन और आईबीएन 7 अंतर्जाल पर आने लगे तो दूरदर्शन देखने की कोशिश करनी ही बंद कर दी.

अब आईदेसीटीवी नया जाल स्थल है जहाँ आप विभिन्न भारतीय टेलीविजन चैनलों को देख सकते हैं. थोड़े से भी लोग हों तो यह रुक रुक कर आता है, और शायद इसीलिए अभी मुफ्त है. यानि कि बस थोड़े ही समय की बात है, देश विदेश में दूर दूर तक सभी प्रवासी अब एकता कपूर के सास बहू के झगड़े देख सकेंगे, भूत प्रेतों की कहानियाँ समाचारों के रूप में सुनेगे, लालूजी, अडवानी जी जैसे महानुभावों की मधुर वाणी और ज्ञानी वचन सुन सकेंगे.

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हिंदी की मासिक पत्रिका हँस का जनवरी अंक कल मिला. इस बार सारा अंक ही समाचारों की टेलीविजन चैनलों की दुनिया पर है. अभी केवल राजेंद्र यादव का उत्तेजनीय संपादकीय ही पढ़ा है और देखा है कि विभिन्न टीवी चैनलों में काम करने वालों ने कहानियाँ लेख आदि लिखे हैं. उनमें से एक अविनाश का नाम ही जानता हूँ, पर उन सबको पढ़ने के लिए बहुत उत्सुक हूँ. नये लोग नया लिखे और शायद हिंदी लेखन में कुछ नया ला पायें!

हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में समाचार पत्रों और किताबों में लिखने वालों को, अँग्रेजी में लिखने वालों के सामने नीचा समझा जाता है पर शायद हिंदी टेलीविजन करने वालों को अधिक सम्मान मिलता है?

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यहाँ बरलुस्कोनी और उनकी पत्नी वेरोनिका के बारे में बहस सब टीवी चैनलों पर चल रही है. एक सर्वेक्षण में 55 प्रतिशत लोगों ने कहा कि वेरोनिका ने ठीक नहीं किया जबकि 33 प्रतिशत लोग, अधिकतर स्त्रियाँ, उनको ठीक मानती हैं. कुछ का कहना है कि वेरोनिका यह इसलिए किया क्योंकि बरलुस्कोनी जी का किसी के साथ चक्कर है और वह पत्नी को छोड़ने की सोच रहे थे. कुछ कहते हैं कि वेरोनिका राजनीति में भाग लेने वाली हैं. कुछ कहते हें कि यह तलाक की तैयारी हो रही है.

बरलुस्कोनी जी के लिए इस तरह की बातें नयी नहीं हैं. सत्तर वर्ष के हैं पर शल्य चिकित्सा से लिफ्टिंग करवा कर, सिर पर नये बाल लगवा कर जवान दिखते हैं. कुछ साल पहले नोर्वे की प्रधानमंत्री से इसी तरह की घुमाने फिराने की कुछ बात कर हल्ला मचवा दिया था. चुनाव से पहले उन्होंने कहा कि वह जीतने के लिए छह महीने तक ब्रह्मचर्य करके देश के लिए त्याग करेंगे पर उनके विरोधियों ने कहा कि यह तो सिर्फ बहाना था दुनिया को दिखाने के लिए कि वह इतने बूढ़े नहीं हैं. खैर जो भी हो, उनका पीछा करने वाले पत्रकारों ने समाचार दिया कि वह अपनी पत्नी के साथ रात का खाना खाते देखे गये और सारी शाम घर में ही रहे, यानि कि पति पत्नी झगड़ा अभी तो शाँत हो गया है.

गुरुवार, फ़रवरी 01, 2007

स्वाभिमान

कल सुबह इतालवी अखबार "ला रिपुब्लिका" पढ़ने वाले हैरान रह गये जब उन्होंने अखबार में पूर्व प्रधानमंत्री सिलवियो बरलुस्कोनी जी की धर्मपत्नी वेरोनिका का एक पत्र छपा देखा. बरलुस्कोनी जी इटली के सबसे धनवान लोगों में गिने जाते हैं, उनके अपने तीन टेलीविजन स्टेशन, कई रेडियो, अखबार, पत्रिकाएँ इत्यादि हैं. "ला रिपुब्लिका" अखबार बरलुस्कोनीजी के विरोधी दल की तरफ़ का अखबार है, इसलिए अचरज के दोनो कारण थे - ऐसा क्या हुआ कि श्रीमति वेरोनिका जी को आम अखबार में पत्र लिख कर कुछ कहना पड़ा और उसके लिए उन्होंने विपक्ष के अखबार ही को क्यों चुना?

वेरोनिका जी ने पत्र में लिखा थाः

संपादक जी, यह पत्र बहुत झिझक कर लिख पायी हूँ. अपने पति से मेरा 27 वर्ष का साथ है, जो कि पहले उद्योगपति थे और फ़िर बने राजनेतिक नेता. मैंने हमेशा यह सोचा है कि मेरा स्थान लोगों की दृष्टि से दूर परिवार के भीतर व्यक्तिगत स्तर पर है, इसी से परिवार को सुख शाँती मिल सकते हैं. ... यह पत्र इस लिए लिखना पड़ रहा क्योंकि टेलीगातो पुस्कार समारोह के बाद दिये गये समारोह में मेरे पति ने उस कार्यक्रम में
भाग लेने वाली युवतियों से कुछ इस तरह के बातें कीं जैसे ".. अगर मैं शादी शुदा न होता तो अवश्य तुमसे शादी कर लेता", "..तुम्हारे साथ तो में कहीं भी चलने को तैयार हूँ.." इत्यादि, जो मैं स्वीकार नहीं कर सकती. इस तरह की बातें मेरे आत्मसम्मान के विरुद्ध है और यह बातें मेरे पति की उम्र, पद, सामाजिक स्थान, पारिवारिक स्थिति (पहले विवाह से दो बच्चे और वेरोनिका जी के साथ तीन बच्चे, सभी व्यस्क हैं) देखते हुए भी नहीं स्वीकार की जा सकतीं. मैं अपने पति से और जन नेता से मैं सबके सामने अपनी गलती पर क्षमा माँगने के लिए कहती हूँ. मैंने अपने वैवाहिक जीवन में कुछ भी लड़ने झगड़ने का मौका कभी नहीं आने दिया, कुछ बात हो भी तो चुप रहना ही ठीक समझा... पर उनके इस तरह के व्यवहार पर अगर चुप रहूँगी तो अपना आत्मसम्मान खो बैठूँगी... मुझे अपनी बेटियों को वह उदाहरण देना है कि औरत का आत्मसम्मान महत्वपूर्ण है और अपनी मर्याद को बना कर रखना चाहिये. मुझे अपने बेटों को सिखाना है कि नारी का सम्मान का क्या महत्व है.





आज सुबह अखबारों में श्री सिलवियो बरलुस्कोनी ने सबके सामने पत्नी से क्षमा माँगी और लिखा कि वह अपनी पत्नी से बहुत प्यार करते हैं, उनका बहुत सम्मान करते हैं और उनके हँसी मज़ाक में पत्नी के आत्मसम्मान को ठेस पहुँचाने की कोई इच्छा नहीं थी.

मंगलवार, जनवरी 30, 2007

प्रेम की परिभाषा

पँद्रहवीं शताब्दी के इतालवी चित्रकार ब्रोंज़ीनो की कलाकृति "वीनस की जीत की प्रतीक कथा" (Allegory of triumph of Venus), पहली दृष्टि में कामुकता का खुला चित्रण करती लगती है. लंदन की नेशनल गैलरी में लगी यह तस्वीर आँजेलो ब्रोंज़ीनो ने करीब 1545 में बनाई थी जिसे फ्लोरेंस के शासक कोसिमो दे मेदिची प्रथम ने फ्राँस के राजा फ्राँसिस प्रथम को भेंट में दी थी. तस्वीर को कामुक और दिमाग भ्रष्ट करने वाली कह कर, इसके कुछ हिस्सों को ऊपर से रंग लगा कर ढक दिया गया था, जो अब हटा दिये गये हैं. यह तस्वीर लंदन कैसे पहुँची इसकी पूरी जानकारी इतिहास में नहीं है. पर इस तस्वीर में ब्रोंज़ीनो ने प्रेम की पूरी परिभाषा को समझाया है, इसलिए इसे ध्यान से देखिये.




इतालवी कला विशेषज्ञ फेदेरीको ज़ेरी जिनका देहांत 1998 में हुआ था इस तस्वीर के बारे में विस्तार से लिखा है, और यह मेरा वर्णन उन्हीं की एक किताब से है.

चित्र की कहानी ग्रीस के पुराने देवी देवताओं की कहानियों से जुड़ी है. चित्र के बीचों बीच सबसे बड़ी आकृति है प्रेम की देवी वीनस की. जिस तरह वह बैठीं हैं उस मुद्रा को सरपेनटाईन यानि साँप जैसी कहा जाता है. उनके बायें हाथ में सोने का सेब है जो पारिदे ने जूनोने तथा मिनर्वा की प्रतिस्पर्धा के दौरान उन्हें दिया था. वीनस के साथ कामुक मुद्रा में उन्हें चूमने वाले नवयुवक हैं क्यूपिड यानि कामदेव. कामदेव का दायाँ हाथ वीनस के वक्ष पर है और ध्यान से न देखें तो लगता है कि हाँ दोनो काम की अग्नि में एक दूसरे के लिए बेकरार हो कर जल रहे हैं. पर ध्यान से देखें तो वीनस दायें हाथ से कामदेव का तीर चुरा रहीं हैं और कामदेव जी बायें हाथ से वीनस का मुकुट उतारने की कोशिश में हैं. यानि प्रेम के बहाने से दोनो एक दूसरे को धोखा देने और अपने स्वार्थ के लिए लगे हैं.

तस्वीर के दायीं ओर एक नग्न बच्चा है, पाँव में पायल, हाथ में गुलाब के फ़ूल, हँसमुख चेहरा. यह है आनंद.

आनंद के पीछे एक सुंदर कन्या है, जिसके हाथ में शहद का छत्ता है. इसे ध्यान से देखिये तो पायेंगे कि इसके हाथ उल्टे हें यानि दायाँ हाथ बायीं ओर और बायाँ हाथ दायीं ओर. इसकी टाँगें नहीं साँप जैसी पूँछ है जो दो मुखोटों के पास छुप कर डँक मारने का इंतज़ार कर रही है. यह है आनंद के पीछे छुपा धोखा.

तस्वीर के बायीं ओर कामदेव के पीछे हैं सिर को पकड़े, दर्द से चिल्लाने वाले ईर्ष्यादेव और और उनके ऊपर भर्राई आखों वाली पागलपन की देवी.

तस्वीर की अंतिम आकृति है ऊपर बायीं ओर का वृद्ध जो आँखें घुमा कर कह रहा है कि "अभी दिखाता हूँ मैं मजा". यह है समयदेव जो समय की नीली चादर लिए खड़ा है और कह रहा है अभी कुछ समय निकलने दो, सब प्यार भूल जाओगे.

यानि पहली दृष्टि में काम भावना दिखाने वाली यह तस्वीर असल में प्रेम का बहुत निराशाजनक चित्रण करती है.

शनिवार, जनवरी 27, 2007

विचारों की आज़ादी

कल भारत का गणतंत्र दिवस था. जब भी 26 जनवरी आती है तो दिल करता है कि किसी तरह दिल्ली के राजपथ पहुँच कर परेड देखने को मिल जाये. मेरे लिए उस परेड का सबसे अच्छा हिस्सा होता था विभिन्न प्राँतों से आये लोकनर्तक और रंग बिरंगी झाँकियाँ. बचपन में ताल कटोरा बाग और रवींद्र रंगशाला के पास लगे गणतंत्र दिवस शिविर जहाँ देश के विभिन्न भागों से आये बच्चे और जवान ठहरते थे, वहाँ घूमना बहुत अच्छा लगता था. अचरज भी होता था और गर्व भी हमारे भारत में कितने अलग अलग लोग हैं जिनकी भाषा, पौशाक, चेहरे इतने अलग अलग हो कर भी हमसे इतने मिलते जुलते हैं.

1950 में बना हमारा गणतंत्र हमें अपनी बात कहने की आज़ादी देता है और इस बात पर भी गर्व होता है कि कुछ छोटे मोटे अपवाद छोड़ कर भारत में आज भी विभिन्न दृष्टिकोण रखने की आज़ादी बनी हुई है, जबकि अपने पड़ोसी देश चीन से ले कर अन्य बहुत से देशों में यह आज़ादी कितने समय से बेड़ियों में बँधी है.

पत्रकारों की अंतर्राष्ट्रीय संस्था सीविप यानि "सीमाविहीन पत्रकार" (Reporter without Borders) इस बात की जानकारी देता है कि किस देश में अपने विचार रखने की कितनी स्वतंत्रता है. सन 2007 का प्रारम्भ हुए 26 दिन ही हुए है पर इन 26 दिनों में सीविप के अनुसार 6 पत्रकार और 4 मीडिया सहायक मारे गये हैं, तथा 142 पत्रकार, 4 मीडिया सहायक और 59 अंतर्जाल के द्वारा विरोध व्यक्त करने वाले लोग जेल में बंद किये गये हैं. इराक में जिस गति से पत्रकारों को मारा जा रहा है उसके बारे में सीविप का अभियान कहता है, "अगर इराक में पत्रकार इसी तरह मरते रहे तो जल्द ही आप को स्वयं वहाँ से समाचार लेने जाना पड़ेगा".



कहते हैं कि संयुक्त राष्ट्र संघ की विश्व मानव अधिकार घोषणा में "हर मानव का अपने विचार व्यक्त करने" के अधिकार कवियों, लेखकों तथा उपन्यासकारों की एक गैर सरकारी संस्था पेन इंटरनेशनल के जोर डालने तथा अभियान करने पर रखा गया था. आज भी पेन इंटरनेशनल (PEN - Poets, Essayists, Novelists) भी जेल में बंद और मारे जाने वाले लेखकों, कवियों और उपन्यासकारों के बारे में सूचना देती है.

आजकल सरकारी सेंसरशिप का नया काम है अंतर्जाल पर पहरे लगाना ताकि लोगों की पढ़ने और लिखने की आज़ादी पर रोक लगे. सीविप इन देशों को "काले खड्डे" (Black holes) का नाम देती है और इनमें सबसे पहले स्थान पर है चीन, जहाँ कहते हैं कि 30,000 लोग सरकारी सेसरशिप विभाग में अंतर्जाल को काबू में रखने का काम करते हैं. कहते हें कि चीन में अगर आप किसी बहस के फोरम या चिट्ठे पर कुछ ऐसा लिखे जिससे सरकार सहमत नहीं है तो एक घंटे के अंदर उसे हटा हुआ पायेंगे. जिन अंतर्जाल स्थलों को चीन में नहीं देख सकते उनमें वीकीपीडिया भी है.



दुख की बात तो यह है कि बड़ी अंतर्राष्ट्रीय कम्पनियाँ चीनी सरकार से डर कर इस काम में सरकार की मदद कर रहीं हैं. चीनी अर्थशास्त्र के बारे में निकलने वाले समाचार पत्र "आधुनिक अर्थशास्त्र समाचार" के प्रमुख सम्पादक शि ताओ ने एक सरकारी फरमान जिसमें समाचार पत्रों को कहा जा रहा था कि वह "तियानामेन की बरसी पर इसके बारे में कोइ समाचार न छापें" को विदेश में भेजने की कोशिश की तो याहू ने यह संदेश रोक कर उसे चीनी सरकार को दिया और शीताओ को देश विरोधी होने के अपराध में दस साल के कारागार की सजा हुई.

सीविप के अनुसार पत्रकारों की सेंसरशिप और दमन में वियतनाम, तुनिसी, ईरान, क्यूबा, जैसे देश भी शामिल हैं. अंतर्जाल में सेसरशिप से कैसे बचें इस विषय पर सीविप ने एक किताब भी निकाली है.


शुक्रवार, जनवरी 26, 2007

अधिकार

संयुक्त परिवार वाले चिट्ठे पर मिली टिप्पणियों में इतने सारे रोचक प्रश्न और पहलू हैं कि मैं अपने ही बनाये नियम "बहस में नहीं पड़ना, वैसे ही समय इतना कम मिलता है, उसमें भी अगर बहस में लग गया तो ..." को एक बार खुशी से भूलने के लिए तैयार हूँ.

सबसे पहले तो जितेंद्र की शिकायत को लें:

सुनील भाई, ब्लॉग की थीम बदलो यार! बहुत दु:खी लगती है।

असल में जाने क्यो मन की गहराई में कहीं छुपा हुआ है कि गम्भीर, उदास, फ़ीके रंगों से अपनी छवि बुद्धिजीवी की हो जायेगी, इसलिए जब भी चिट्ठे का कोई टेम्पलेट ढूँढ़ता हूँ तो रो धो कर ऐसे ही डिज़ाइन पर जा कर मन रुकता है जिसे देख कर मन से निकले, वाह कितना गम्भीर और दुखी है! खैर जीतू तुम्हारी मन से निकली इस आह को कैसे देख कर अनदेखा कर देता? तो नतीजा तुम्हारे सामने है. यह नहीं कि रँग बहुत खुशनुमा हो गयें हैं पर शायद थोड़ा सा फर्क पड़ा है? :-)

अब बात करें संजय की, जिन्होंने लिखा हैः


अपनी बात स्पष्ट करने के लिए एक ऐसे पुरूष की बात करता हूँ जो जन्म से तो पुरूष हैं मगर स्त्री बनना चाहता है, वह समलिंगी है. ऐसे लोगो के लिए मेरा मत है की-व्यक्तिगत स्वतंत्रता सर्वोत्तम है, मगर अपनी जिम्मेदारी से भागना कहाँ तक सही है. प्रकृति ने पुरूष बनाया है तो एक पुरूष का कर्तव्य निभाओ. कुछ कमी रही है तो ईलाज करवाओ. एक महिला बनने की कामना करते हुए उल्टा ईलाज करवाने से कहीं ज्यादा अच्छे परिणाम एक पुरूष बनने का ईलाज करवाना चाहिए. मन तो और भी बहुत कुछ करने को चाहता होगा, अच्छा
हो अन्य मामलो की तरह इसका भी ईलाज मनोचिकित्सक से करवाया जाय.यह सब नैतिक या धार्मिक प्रेरणाओं से नहीं बल्कि शारीरिक जटिलताओं को ध्यान में रख कर लिखा है.
संजय जैसा तुम सोचते हो, मेरे विचार में दुनिया के अधिकाँश लोग शायद ऐसा ही सोचते हैं. जो लोग इस द्वँद से गुज़रते हैं, उनमें से भी बहुत से लोग अपने मन और भावनाओं को दबा कर यही कोशिश करते हैं कि किसी को मालूम न चले, छुप कर दब कर रहो. जो लोग इतना साहस जुटा पाते हें कि दुनिया में अपना सच बता सकें, उन्हें कदम कदम पर तिरस्कार और परिहास का सामना करना पड़ता है. केवल उन पर ही नहीं, उनके सारे परिवार के लिए कितना कष्टदायक होता है इसका अंदाज़ इस बात से मिलता है कि उनमें से अधिकतर लोगों को घर परिवार से नाता तोड़ना पड़ता है. जब इतनी तकलीफ़ें उठानी पड़ती हैं तो भी क्यों कुछ लोग लिंग बदलाव की कोशिश करते हैं? शायद इसलिए कि "गलत" शरीर में रहने की पीड़ा उनसे सहन नहीं होती? जितना मैंने जाना है, वे कोई भी फैसला करें, भावनाओं को छुपाने और दबाने का या अपने सच के साथ सामने आने का, कोई भी आसान नहीं होता. बहुत से लोग मनोचिकित्सकों के पास ही जाते हैं पर आधुनिक सोच के अनुसार मनोचिकित्सक का काम यह नहीं कि वह किसी को बतायें क्या ठीक है या क्या गलत, बल्कि उनका काम है व्यक्ति को अपने अंतर्द्वंद को समझना और उसे स्वीकार करना. पहले किसी ज़माने में समलैंगिकता को बीमारी माना जाता था पर आज तो वह मानव प्रकृति की विविधता का ही एक हिस्सा है.

घुघुटीबसूटी, मालूम नहीं कि यह नाम ठीक से लिखा है या नहीं, की बात से में बहुत कुछ सहमत हूँ पर उनकी इस बात परः


समलैंगिकता आदि व्यक्तिगत पसन्द हैं, और इसे आम व्यक्ति समझ नहीं सकता ।
मैं कुछ जोड़ना चाहूँगा. समलैंगिकता व्यक्तिगत पसंद है या व्यक्ति के अंदर उसके व्यक्तित्व का अभिन्न अंग, इस पर बहस तो हमेशा से ही चलती आई है, पर यह सोचना कि आम आदमी इसे नहीं समझ सकता केवल आज की परिस्थिति को बताता है. मेरे विचार में इस विषय पर आम आदमी के लिए और जानकारी दी जानी चाहिये. बहुत से लोग इन विषयों पर बात करना पसंद नहीं करते क्योंकि उनको लगता है कि जब यह बात हमारे समाज में नहीं है तो इस पर बात करने से शायद इसे प्रोत्साहन मिले या नवयुवकों को गलत विचार मिलें. वैज्ञानिक शोध से पता चलता है कि करीब 10 प्रतिशत लोग इस श्रेणी में आते हैं, आप मान लें कि 10 न हो कर वे केवल 5 प्रतिशत हैं तो भी हम भारत में कितने करोड़ लोंगो की बात कर रहे हैं? जो बात इतने जीवन छूती है, उस पर आम आदमी को क्यों न जानकारी और समझ हो?

अंत में देखें ईस्वामी की टिप्पणियाँ:

१) मुझे समलैंगिकों से बस इतना कहना है की वे अपनी जीवनशैली जीने के लिए स्वतंत्रता का हक रखते हैं लेकिन वे "विवाह" शब्द की परिभाषा से छॆडछाड ना करें. विवाह एक स्त्री और एक पुरुष के बीच ही हो सकता है इस परिभाषा का सम्मान करें. अगर दो पुरुषों को या दो स्त्रीयों को अपनी जोडी को सामाजिक और न्यायिक मान्यता दिलवानी है तो अपने गठजोडों के लिए कोई नये शब्द गढें और सटीक परिभाषा गढें जैसे की
पुरुष-पुरुष का हो तो हीवाह और स्त्री-स्त्री का होतो शीवाह - विवाह कतई नहीं मैरिज कतई नहीं - इस बारे में मैं बहुत कट्टर हूं!

मेरे विचार में बात यह नहीं कि इसे क्या नाम दिया जाये, बात अधिकारों की है चाहे उसे कुछ भी नाम दें. अधिकार कई स्तरों पर हैं. एक आम युगल को विवाह एक दूसरे की सम्पत्ती की वसीयत से जुड़े अधिकार देता है, अगर उनमें से किसी एक को अस्पताल में दाखिल हो तो उससे मिलने का अधिकार देता है, उसका आपरेशन हो इसका फैसला करने का अधिकार देता है, जिस घर में रहते हैं एक की मृत्यु के बाद उसी घर में रहने का अधिकार देता है. समलैंगिक युगल जो सारा जीवन साथ रहें उन्हें यह अधिकार क्यों न मिलें?

बात केवल समलैंगिक युगलों की ही नहीं, उन स्त्री पुरुषों की भी है जो बिना विवाह के साथ रहते हैं, वह भी यही अधिकार चाहते हैं.

आज इन अधिकारों की बात दुनिया के अधिकतर देशों में नहीं मानी जाती और केवल कुछ ही देश हैं जहाँ इने माना गया है. बहुत से समलैंगिक लोग भी इस बारे में अलग अलग राय रखते हैं. मेरे जानने वाले एक समलैंगिक मित्र कहते हैं कि यह सब बेकार की बाते हैं क्योंकि अधिकतर समलैंगिक लोग एक ही आदमी के साथ सारा जीवन बिताना पसंद नहीं करते. मैं इस बात से सहमत नहीं हूँ, क्योंकि यह मानव अधिकारों की बराबरी की बात है फ़िर चाहे इससे केवल आधा प्रतिशत समलैंगिक युगल फ़ायदा उठाना चाहें और बाकी नहीं.

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