बुधवार, जून 27, 2007

तारों का शहर

बिसाऊ तारों का शहर है. रात को सारा आसमान तारों से इस तरह भर जाता है मानो थाली में मोती बिखरे हों. इस तरह का आसमान देखने की आदत ही नहीं रही. बचपन में होता था इस तरह का आसमान. आजकल यूरोप में तो कहीं से आसमान में इतने तारे नहीं दिखते क्योंकि रात को हर तरफ इतनी बिजली की रोशनी रहती है कि उसकी चमक के सामने अधिकतर तारे छुप जाते हैं. बिसाऊ में यह दिक्कत नहीं होती, देश की राजधानी है पर यहाँ बिजली नहीं है. होटल आदि में जहाँ लोग विदेशी मुद्रा में बिल भरते हें, जेनेरेटर लगे हैं और सब सुख हैं. पर सड़कों पर रात को एक भी बत्ती नहीं जलती. घरों में भी सब घरों में बिजली नहीं अगर हो भी, तो भी अधिकतर समय बिजली काम नहीं करती और बिना जेनेरेटर वाले घरों में मिट्टी के तेल की लालटेन ही जलती हैं.

परसों रात को थकान और बियर की वजह से बाहर ध्यान से नहीं देखा था पर कल रात को वापस होटल आ रहे थे तो लगा कि कितना अँधेरा हो सकता है दुनिया में. गाड़ी की हेडलाईट में हर तरफ लोग दिखते थे, अँधेरे में टहलते, आपस में बातें करते, बाँहों में बाँहें डाले, बैंच पर बैठे. विक्टर कहता है कि गृहयुद्ध से पहले देश ने कुछ तरक्की की थी पर इस लड़ाई ने सब कुछ नष्ट कर दिया. युद्ध के बाद लड़ने वाले दो गुटों ने मिल कर सरकार बनाई है पर कोई सरकार अधिक दिन नहीं चलती और कुछ कुछ महीनों में सब मँत्री आदि बदल जाते हें.

कोई उद्योग नहीं हैं. देश का सबसे बड़ा उत्पादन है काजू और मछलियाँ. दक्षिण में कुछ बाक्साईट के खाने हैं. काजू का व्यापार भारतीय मूल के लोगों के हाथ में है. पिछले कुछ वर्षों में बाकि अफ्रीका से यहाँ भारतीय मूल के लोग आये हैं और उन्होने दुकाने खोली हैं. चीनी लोग कम ही हैं. विक्टर कहता है कि भारतीय मूल के लोगों के प्रति आम लोगों मे कुछ रोष है, क्योंकि यूरोपीय लोगों की तरह से वह भी यहाँ सिर्फ पैसा कमाने आये हैं, यहाँ के लोगों से मिलते जुलते नहीं और आपस में ही मिल कर अलग से रहते हैं. पिछले कुछ सालों में यहाँ भारतीय फिल्मों की डिवीडी भी बहुत चल पड़ी हैं.

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पेट में अभी भी थोड़ा थोड़ा दर्द है पर आज बिस्तर में लेटने का दिन नहीं है. रोज़ की तरह, आज भी नींद सुबह पाँच बजे ही खुल गयी. इस शरीर की आदतों को बदलना आसान नहीं. रात को कम सोया, सुबह कुछ देर और सो लेता तो अच्छा था, मालूम है कि सारा दिन फ़िर नींद आती रहेगी, पर शरीर के भीतर जो घड़ी है वह तर्क नहीं सुनती. कुछ देर बिस्तर में करवटे लेने के बाद उठ गया, सोचा कि डायरी में कुछ जोड़ दिया जाये.

यहाँ की बत्ती फ़िर सुबह चली गयी और तब से जेनेरेटर ही चल रहा है, पर मेरे जैसे पैसे दे सकने वाले आगंतुकों के अलावा यहाँ रहने वाले किस तरह आधा समय बिना बिजली के जीते हैं, यह बात मन में आ रही थी. टेलीविजन पर एक ही अग्रेजी चैनल है, सीएनएन जिससे मुझे अधिक लगाव नहीं है, पर दुनिया में क्या हो रहा इसे मालूम करने के लिए उसे देखने की कोशिश कई बार की पर हर बार टीवी पर आता है "यह सिगनल इस समय उपलब्ध नहीं है, बाद में कोशिश कीजिये". "सीएनएन क्यों नहीं आ रहा, यह चीज़ ठीक काम क्यों नहीं कर रही, ड्राईवर ठीक समय पर क्यों नहीं आया", जैसे अपने विचारों से थोड़ी सी शर्म आती है कि यहाँ एक कमरे का जितना किराया एक दिन का देता हूँ, वह यहाँ बहुत से रहने वालों की दो महीने की पगार है. इस होटल में रहने वाले सभी विदेशी हैं, चाहे उनकी चमड़ी गोरी हो या भूरी या काली. सबको लेने गाड़ियाँ आती हैं, सब काले बैग सम्भाले इधर उधर मीटिंगों में व्यस्त हैं.

पर जैसे यहाँ के लोग रहते हैं वैसे रहना पड़े तो दो दिनों में ही मेरी छुट्टी हो जाये. कल शाम को बाहर इंटरनेट की दुकान खोजते हुए कुछ चलना पड़ा था तो थोड़ी देर में ही गरमी से बाजे बज गये थे. वहाँ अपनी ईमेल देख कर वापस आया तो सारा शरीर पसीने से नहाया था और कमरे में आ कर निढ़ाल हो कर बिस्तर पर लेट गया था.

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एक विकलाँग पुनर्स्थान कार्यक्रम को देखने गये. उनका भी बुरा हाल था. वहाँ काम करने वाले एक युवक ने दीवार पर लगे युनिसेफ के पोस्टर की ओर इशारा किया, बोला, "देखिये युनिसेफ के इस पोस्टर को, जिस बच्ची की तस्वीर लगी है वह बाहर बैठा है. उनका फोटोग्राफर आया और तस्वीर खींच कर ले गया. उसका पोस्टर बनवाया है, पर हमें और उस बच्ची को क्या मिला? वह बच्ची अभी भी उसी हाल में है." तस्वीर छोटी सी लड़की की थी जिसकी एक टाँग माईन बम्ब से कट गयी थी. वह बच्ची जो कुछ बड़ी हो गयी थी, बाहर बैठी थी अपने पिता के साथ.

क्या भविष्य है ग्विनेया बिसाऊ का, मैंने प्रोफेसर फेरनानदो देलफिन देसिल्वा से पूछा जो इतिहास और दर्शनशास्त्र पढ़ाते हैं. वह बोले सबसे बड़ी कमी है सोचने वाले दिमागों की. जो बचे खुचे लोग थे वह गृह युद्ध के दौरान देश से भाग गये. राजनेतिक नेता हैं, उन्हें लड़ने से फुरसत नहीं, हर छह महीने में सरकार बदल जाती है. सारा देश केवल काजू के उत्पादन पर जीता है पर काजू का मूल्य घटता बढ़ता रहता है. पिछला साल बहुत बुरा निकला, यह साल भी बुरा ही जा रहा है. पैसा कमाते हैं भारतीय व्यापारी, जो सस्ता खरीद कर भारत ले जाते हैं और वहाँ तैयार करके उसे उत्तरी अमरीका में बेचते हैं.

भारतीय व्यापारियों के लिए यह कड़वापन अन्य कई अफ्रीकी देशों में भी देखा है जहाँ भारतीयों को शोषण और भेदभाव करने वाले लोगों की तरह से ही देखा जाता है. भारत के बारे में अच्छा बोलने वाले केवल यक्ष्मा अस्पताल के एक डाक्टर थे जो बोले कि भारत से अच्छी और सस्ती दवाईयाँ मिल जाती हैं वरना मल्टीनेशनल कम्पनियों की दवाईयाँ तो यहाँ कोई नहीं खरीद सकता. यहाँ एड्स की दवा भारत की सिपला कम्पनी द्वारा बनाई गयी ही मिलती हैं.

कल शाम को टीवी खोला तो ब्राजील का टेलीविजन आ रहा था. ब्राज़ील में भी पुर्तगाली ही बोलते हैं. बहुत अजीब लगता है ब्राज़ील का टीवी देखना. लगता है कि जैसे वह गोरों का देश हो, सब समाचार पढ़ने वाले, बात करने वाले, सब गोरे ही होते हैं, हालाँकि गोरो की संख्या ब्राज़ील में लगभग 15 प्रतिशत ही होंगे. सोच रहा था कि भेदभाव में भारत भी किसी से कम नहीं, क्या हमारे टेलीविजन को देख कर भी कोई लोग यही भेदभाव पाते हैं? हमारे फ़िल्मी सितारे तो अधिकतर गोरे ही होते हैं पर क्या हमारा टेलीविजन भी जातपात के भेदभाव पर बना है?

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पश्चिमी अफ्रीका के देश गवीनेया बिसाऊ की यात्रा की मेरी डायरी को पूरा पढ़ना चाहें तो यहाँ कल्पना पर पढ़ सकते हैं.

गुरुवार, जून 14, 2007

कटे हाथ

कल अनूप के चिट्ठे फुरसतिया पर बिटिया रानी वर्मा की कहानी देखी.

"जब उससे पूछा गया कि इंजीनियर ही क्यों और कोई पेशा क्यों नहीं तो उसका जवाब था-इंजीनियर इसलिये बनना चाहती हूं ताकि मैं ऐसी मशीने और औजार बना सकूं जो किसी को अपाहिज न बनायें।"
एक बात मेरे दुस्वपनों में बहुत सालों से आती है और में भी यही प्रश्न पूछना चाहता हूँ कि ऐसी मशीने और औज़ार जिनसे लोग अपाहिज न हों क्यों नहीं बना सकते हम? शायद इस बात पर पहले भी कुछ लिख चुका हूँ और स्वयं को दोहरा रहा हूँ, तो इसके लिऐ क्षमा चाहता हूँ.

बात है 1977-78 की जब मैं दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में ओर्थोपीडिक्स (orthopaedics) यानी हड्डियों के विभाग में काम कर रहा था. हाऊससर्जन होने का मतलब होता कि 36 घँटों तक लगातार ड्यूटी करो. तब फसल की कटाई के दिनों में कटे हाथों का मौसम आता था. बिजली की कमी की वजह से ग्रामीण क्षत्रों में बिजली केवल रात को दी जाती और चारे को या फसल को मशीन में काटने का काम जवान युवकों का होता. चारे को मशीन में घुसाते समय अगर नींद में होते तो साथ ही उनका हाथ भी भीतर चला जाता. कटे हाथों वाले पहले युवक करीब रात को दस बजे के आसपास आने शुरु होते और सुबह तक आते.

रात की ड्यूटी पर एक वरिष्ठ रेजिडेंट होता, कुछ स्नातकोत्तर छात्र होते और दो हाऊससर्जन. हममें से हाथ जोड़ने का काम, माँसपेशियों को साथ जोड़ कर हाथ को ठीक करना वरिष्ठ रेज़ीडेंट या किसी स्नातकोत्तर छात्र को ही आता था, हम कम अनुभव वाले लोगों को हाथ काटना आता था. हाथ जोड़ने के काम में तीन चार घँटे लगते, हाथ काटना एक घँटे से कम में हो जाता. सुबह हमारी ड्यूटी समाप्त होने से पहले, रात में आये सब मरीजों का काम जाने से पहले समाप्त करना हमारी जिम्मेदारी थी.
इन सब बातों का अर्थ यह होता कि पहले आने वाले एक या दो युवकों को हाथ जोड़ने के लिए रखा जाता, जिसके लिए वरिष्ठ रेज़ीडेंट सारी रात काम करते. उसके बाद में आने वाले अधिकतर लोगों के हाथ काटने पड़ते.

हाथ कटने के बाद, घाव भरने में बहुत दिन नहीं लगते, और कुछ दिन की पट्टी के बाद उन्हें घर भेज दिया जाता. जिनके हाथ जोड़े जाते थे, उनकी हड्डियों और माँसपेशियों को जोड़ कर उसे ढकने के लिए चमड़ी पेट से ली जाती, इसलिए उनका हाथ कुछ सप्ताह के लिए पेट से जोड़ दिया जाता. यह लोग महीनों अस्पताल में दाखिल रहते और रोज़ पट्टी की जाती. कई साल तक फिसियोथेरेपी आदि के बाद भी हाथ बिल्कुल ठीक तो नहीं होते थे, अकड़े, टेढ़े मेढ़े रह जाते थे. रात को ओप्रेशन थियेटर में काम करके, सुबह मेरा काम होता था वार्ड में भरती लोगों की पट्टियाँ करना. दर्द से चिल्लाते लोगों की आवाज़े देर तक मेरे दिमाग में घूमती रहतीं. हर नाईट ड्यूटी में नये लोग भरती होते और आधा वार्ड इन्हीं लोगों से भरा रहता था.

बहुत गुस्सा आता था कि क्या यह मशीने बदली नहीं जा सकतीं? क्या करें यह लोग, जिन्हे रात भर इस तरह का खतरनाक काम करना पड़ता है? कितने सारे तो 13 या 14 साल के बच्चे होते थे. सोचता था कि अखबारें यह बात क्यों नहीं छापतीं? खैर ओर्थोपीडिक में मेरे दिन बीते और मैं उस वातावरण से दूर हो गया. फ़िर 1991 या 1992 की बात है. एक मीटिंग में दिल्ली के एक ओर्थोपीडिक सर्जन से बात हुई. वह बोले कि फसल की कटाई के दिनों में तब भी वही मशीनें, वही कटे हाथों का सिलसिला चलता था. गरीब किसानों की तकलीफ थी, किसी को क्या परवाह होती! मालूम नहीं कि तीस साल के बाद आज क्या हाल है? इतने सारे समाचार चैनल बने हैं जो बेसिर पैर की बातों में समय गवाँते हैं, अगर आज भी यह हो रहा है तो शायद वह इस बात को उठा सकते हैं?

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पिछले कुछ माह से पैर में घूमने के पहिये लगे हैं जो रुकते ही नहीं. एक जगह से आओ और दूसरी जगह जाओ, बीच में रुक कर कुछ सोचने लिखने का भी समय नहीं मिलता. जो लोग पूछते हें कि इन दिनों मैं कम क्यों लिख रहा हूँ, यही कारण है उसका. आज मुझे फ़िर नयी यात्रा पर निकलना है, पश्चिमी अफ्रीका की ओर.

बुधवार, जून 13, 2007

मेरा गाँव, मेरा देश, मेरे लोग, मेरा झँडा

करीब तीस साल पहले की बात है. दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में शल्यचिकित्सा विभाग में हाऊससर्जन था और अस्पताल के परिसर के अंदर होस्टल में रहता था. होस्टल में साथ वाले कमरे में था अजय, जो पूना के आर्मी मेडिकल कोलिज से आया था. उसके पास रिकार्ड प्लेयर था. उसी के कमरे में पहली बार बीटलस (Beatles) का रिकार्ड "सार्जेंट पैपर लोन्ली हार्टस क्लब बैंड" सुना था. "लूसी इन द स्काई विद डायमँडस" (Lucy in the sky with diamonds) बहुत अच्छा लगता था और जब अजय ने बताया था यह गाना अपने शब्दों में एल.एस.डी (LSD) याने नशे की बात छुपाये हुए है तो बड़ा अचरज हुआ था.

बीटलस का नाम सुना था, मालूम था कि वह लोग ऋषीकेश में गुरु महेश योगी से मिलने आये थे और उनके चेले बन गये थे. पर उनके गानों के बारे में कुछ विषेश जानकारी नहीं थी. आकाशवाणी के दिल्ली बी स्टेशन पर सप्ताह में दो बार रात को अँग्रेजी गानो के कार्यक्रम आते थे, "फोर्सेस रिक्वेस्ट" और "ए डेट विद यू", उनमें सुने हुए कलाकारों में से क्लिफ रिचर्ड तथा जिम रीवस जैसे नाम मालूम थे.

जिस दिन पहली बार जोह्न लेनन (John Lennon) का "ईमेजिन" (Imagine) पहली बार सुना वह अभी तक याद है. जोह्न ने यह गीत 1971 में लिखा जब वह बीटलस के गुट से अलग हो चुके थे. गीत के कुछ शब्दों ने मुझे झकझोर दिया था -

Imagine there's no countries
It isn't hard to do
Nothing to kill or die for
And no religion too
Imagine all the people
Living life in peace...

कल्पना करो कि कोई देश नहीं हो
इतना कठिन नहीं है
न किसी के लिए मरना या मारना पड़े
और सोचो की धर्म भी न हो
कल्पना करो कि सभी लोग
शाँति से जीवन बिताते हैं ...
तब तक हमेशा अपना देश, अपना झँडा, "सारे जहाँ से अच्छा हिंदुस्तान हमारा" और "ऐ वतन ऐ वतन हमको तेरी कसम तेरी राहों में जाँ तक लुटा जायेंगे" जैसे गीत ही भाते थे, यह बात कि देश प्रेम और देश भक्ति से ऊपर भी कुछ हो सकता है यह बात पहली बार मन में आयी थी. इस गीत को जोह्न लेनन की आवाज में यूट्यूब पर सुन सकते हैं.

फ़िर इटली में आने के बाद करीब दस वर्ष पहले एक अन्य गाना सुना जिसका भी मुझ पर बहुत असर पड़ा. गीत गाया था स्पेन के गीतकार और गायक मिगेल बोसे (Miguel Bosé) ने. अगर आप ने पेड्रो अलमोदोवार की फिल्म "सब कुछ मेरी माँ के बारे में" (All about my mother) देखी हो तो शायद आप को मिगेल बोसे याद हो, उसमें उन्होंने स्त्री वेष में रहने वाले पुरुष की भाग निभाया था. मिगेल ने यह गीत बोज़निया और कोसोवो की लड़ाई के दिनों में लिखा था.

Sogna una Terra che guerre non ha
che ama la libertà
Sogna un colore che bandiere non ha
che ama la libertà

उस धरती के सपने देखो जहाँ युद्ध न हों
जो आजादी से प्यार करता हो
उस रंग के सपने देखो जो झँडों में न हो
जो आजादी से प्यार करता हो
इस गीत के यह शब्द जोह्न लेनन के देशों के, सीमा रेखाओं के, अपने और दूसरों के भेदों के विरुद्ध सपना देखते हैं. मानवता और भाईचारा का यह सपना मुझे बहुत प्रिय है. एक पत्रिका पढ़ रहा था जिसमें बीटलस के सार्जेंट पैपर वाले रिकोर्ड का चालिसवीं वर्षगाँठ की बात थी. उसी को पढ़ते पढ़ते ही यह सब बातें मन में याद आ गयीं.

मंगलवार, जून 12, 2007

शहर की आत्मा

जर्मन अखबार सुदडोयट्शेज़ाईटुँग (Sud Deutsche Zeitung) में हर सप्ताह एक साहित्यकार को किसी शहर के बारे में लिखा लेख छप रहा है. पिछले सप्ताह का इस श्रँखला का लेख लंदन में रहने वाले भारतीय मूल के लेखक सुखदेव सँधु ने अपने शहर, यानि लंदन पर लिखा था. उन्होंने पूर्वी लंदन की बृक लेन के बारे में लिखा कि, "यह सड़क एक रोमन कब्रिस्तान की जगह पर बनी है और पिछली पाँच शताब्दियों में इसे अपराधियों और आवारा लोगों की जगह समझा जाता था."

उनका लेख बताता है कि कैसे फ्राँस से आने वाले ह्योगनोट सत्ररहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में आ कर यहाँ रहे, फ़िर यह जगह फैक्टरी में काम करने वाले मजदूरों की हो गयी, अठारहवीं शताब्दी में पूर्वी यूरोप से यहूदी यहाँ शरणार्थी बन कर आये, आज यहाँ बँगलादेशी लोग अधिक हैं. बृक लेन के जुम्मा मस्जिद के बारे में उन्होंने लिखा है, "1742 में इस भवन को ह्योगनोट लोगों ने अपना केथोलिक गिरजाघर के रूप में बनाया था, अठाहरवीं शताब्दी में यहाँ मेथोडिस्ट गिरजाघर बना, 1898 में यहूदियों का सिनागोग बन गया."

बृक लेन आज पर्यटकों का आकर्षण क्षेत्र माना जाता है और इसे सुंदर बनाया गया है. सँधु जी लिखते हैं, "कभी कभी लगता है कि बृक लेन की आत्मा मर रही है. यहाँ अब कोई बूढ़े नहीं दिखते. वह इन फेशनेबल और महँगे रेस्टोरेंट और कैफे में अपने को अजनबी पाते हैं, नवजवान लड़कों के अपराधी गेंग जो यहाँ घूमते हैं उनसे डरते हैं, अपनी छोटी सी पैंशन ले कर वह इस तरह की जगह पर नहीं रह सकते."

लेख पढ़ा तो सँधु का शहर की आत्मा के मरने वाला वाक्य मन में गूँजता रहा. यहाँ इटली में बोलोनिया में रहते करीब बीस साल हो गये. बीस साल पहले वाले शहर के बारे में सोचो तो कुछ बातों में लगता है कि हाँ शायद इस शहर की आत्मा भी कुछ आहत है, जैसे कि सड़कों पर चलने वाली साईकलें जो अब कम हो गयीं हैं और कारों की गिनती बढ़ी है. शहर में रहने वाले लोग शहर छोड़ कर बाहर की छोटी जगहों में घर लेते हैं जबकि शहर की आबादी प्रवासियों से बढ़ी है. शहर के बीचों बीच, जहाँ कभी फैशनेबल और मँहगी दुकानें होतीं थीं, वहाँ विदेश से आये लोगों के काल सेंटर, खाने और सब्जियों की दुकाने खुल गयी हैं. पर गनीमत है कि साँस्कृतिक दृष्टि से शहर जीवंत है, जिसकी एक वजह यहाँ का विश्वविद्यालय भी है जहाँ दूर दूर से, देश और विदेश से, छात्र आते हैं.

चाहे बीस साल हो गये हों दिल्ली छोड़े हुए पर जब भी मन "अपने शहर" का कोई विचार आता है तो अपने आप ही यादें दिल्ली की ओर चल पड़ती हैं. बचपन की दिल्ली और आज की दिल्ली में बहुत अंतर है.

मेरे लिए दिल्ली की आत्मा उसके रिश्तों में थी. अड़ोस पड़ोस में सिख, मुसलमान, हिंदु, दक्षिण भारतीय, पँजाबी, उत्तरप्रदेश और बिहार वाले, सब लोग मिल कर साथ रह सकते थे. खुली गलियाँ और सड़कें, हल्का यातायात, बहुत सारे बाग, डीसीएम के मैदान में रामलीला, फरवरी में फ़ूले अमलतास और गुलमोहर, क्नाटपलेस में काफी हाऊस या फ़िर कुछ दशक बाद, नरूला में आईस्क्रीम, कामायनी के बाहर बाग में रात भर भीमसेन जोशी और किशोरी आमोनकर का गाना, यार दोस्तों से गप्पबाजी, २६ जनवरी की परेड और 15 अगस्त को लाल किले पर प्रधानमँत्री का भाषण, नेहरु जी और शास्त्री जी की शवयात्रा में भीड़, राम लीला मैदान में जेपी को सुनना ...आज वापस जाओ तो यह सब नहीं दिखता. जिस चौड़ी गली में रहते थे, वहाँ लोहे के गेट लगे हैं जो रात को बंद हो जाते हैं, जहाँ घर के बाहर सोता था, वहाँ इतनी कार खड़ीं है कि जगह ही नहीं बची, सीधे साधे दो मँजिला मकान की जगह चार मँजिला कोठी है, चौड़ी सड़कें और भी चौड़ी हो गयीं हैं पर यातायात उनमें समाता ही नहीं लगता, नयी मैट्रो रेल, दिल्ली हाट, अँसल प्लाजा और उस जैसे कितने नये माल (mall), मल्टीप्लैक्स, बारिस्ता, और जाने क्या क्या.

जहाँ दोस्त रहते थे वहाँ अजनबी रहते हैं और शहर अपना लग कर भी अपना नहीं लगता. लगता है कि जिस छोटे बच्चे को जानता था, बड़े हो कर वह अनजाना सा हो गया है. पर यह नहीं सोचता कि शहर की आत्मा मर रही है. जब हम शरीर पुराने होने पर उन्हें त्याग कर नये शरीर पहन सकते हें तो शहरों को भी तो अपना रूप बदलने का पूरा अधिकार है.

शुक्रवार, जून 08, 2007

चिट्ठों की भाषा

टेक्नोराती के डेविड सिफरिंगस् ने अप्रैल में अपने चिट्ठे "चिट्ठाजगत का हाल" (State of the Live Web) शीर्षक से लेख लिखा जिसमें विश्व में चिट्ठाजगत के फ़ैलाव की विवेचना है. . इस रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में करीब 7 करोड़ चिट्ठे हैं और प्रतिदिन एक लाख बीस हजार नये चिट्ठे जुड़ रहे हैं. साथ साथ स्पैम यानि झूठे चिट्ठे भी बढ़ रहे हें और हर रोज तीन से सात हजार तक स्पैम चिट्ठे बनते हैं. एक तरफ चिट्ठों की संख्या में तेज़ी से बढ़ोतरी हो रही है, दूसरी ओर चिट्ठों में लिखना कुछ कम हो रहा है और हर रोज़ करीब 15 लाख लोग अपने चिट्ठों में लिखते हैं. 6 महीने पहले, अक्टूबर 2006 में कुल चिट्ठों की संख्या थी 3.5 करोड़ और हर रोज़ 13 लाख चिट्ठे लिखे जा रहे थे. अंतर्जाल पर सबसे लोकप्रिय 100 पन्नों में 22 चिट्ठे भी हैं.

चिट्ठों की सबसे लोकप्रिय भाषा है जापानी जिसमें 37 प्रतिशत चिट्ठे लिखे गये. चिट्ठों की प्रमुख भाषाओं में अन्य भाषाएँ हैं अँग्रेजी 36%, चीनी 8%, इतालवी 3%, स्पेनिश 3%, रूसी 2%, फ्रँसिसी 2%, पोर्तगीस 2%, जर्मन 1%, फारसी 1% तथा अन्य 5%. जबकि अँग्रेजी और स्पेनिश में लिखने वाले सारे विश्व में फ़ैले हैं और दिन भर उनके नये चिट्ठे बनते हैं, जापानी, इतालवी और फारसी जैसी भाषाओं वाले लोगों का लिखना अपने भूगोल से जुड़ा है और उनके चिट्ठे सारा दिन नहीं लिखे जाते बल्कि दिन में विषेश समयों पर छपते हैं.

इस रिपोर्ट को पढ़ कर मन में बहुत से प्रश्न उठे. हर रोज़ एक लाख बीस हजार नये चिट्ठे जुड़ रहे हैं चिट्ठाजगत में, यह सोच कर हैरानी भी होती है, थोड़ा सा डर भी लगता है मानो नये डायनोसोर का जन्म हो रहा हो. शायद इस डर के पीछे यह भाव भी है कि सब लोगों से भिन्न कुछ नया करें, और अगर सब लोग अगर चिट्ठा लिखने लगेंगे तो उसमें भिन्नता या नयापन कहाँ से रहेगा? पर इस डर से अधिक रोमाँच सा होता है कि इस क्राँती से दुनिया के संचार जगत में क्या फर्क आयेगा? हमारे सोचने विचारने, मित्र बनाने, लिखने पढ़ने में क्या फर्क आयेगा?

स्पैम चिट्ठों का सोचूँ तो सबसे पहले तो अपने अज्ञान को स्वीकार करना पड़ेगा. यह नहीं समझ पाता कि कोई स्पैम के चिटठे क्यों बनाता है? एक वजह तो यह हो सकती है कि किसी जाने पहचाने चिट्ठाकार से मिलता जुलता स्पैम चिट्ठा बनाया जाये, और वहाँ पर विज्ञापन से कमाई हो. पर इस तरह के स्पैम चिट्ठे में लिखने के लिए कहाँ से आयेगा? क्या उसकी चोरी करनी पड़ेगी? एक अन्य वजह हो सकती है स्पैम चिट्ठे बनाने की जिसमें किसी कम्पनी वाला उपभोक्ता होने का नाटक करे और अपनी कम्पनी की बनायी वस्तुओं की प्रशँसा करे ताकि लोग उसे खरीदें, पर मेरे विचार में यह बात केवल नयी क्मपनियों पर ही लागू हो सकती है. यानि कि मेरी जानकारी स्पैम चिट्ठों के बारे में शून्य है और यह सब अटकलें हैं.

अंतर्जाल में कौन सी भाषा का प्रयोग होता है और क्यों होता है, इस विषय पर "ओसो मोरेनो अबोगादो" नाम के चिट्ठे में यही विवेचना है कि फारसी जैसी भाषा का चिट्ठों में प्रमुख स्थान पाना अँग्रेजी के सामने गुम होती हुई भाषाओं के भविष्य के लिए अच्छा संकेत है. वह लिखते हैं, "भाषा वह गोंद है जो संस्कृति को जोड़ कर रखती है. जब कोई भाषा खो जाती है तो वह संस्कृती भी बिखर जाती है. जैसे कि बिना जर्मन भाषा के, क्या जर्मन संस्कृति हो सकती है? जब भाषा खोती है, जो उस भाषा के सारे मूल मिथक, कथाएँ, साहित्य खो जाते हैं जिनसे उस संस्कृति की नैतिकता और मूल्य बने हैं...भाषा से हमारे रिश्ते बनते हैं, अपने पूर्वजों से हमारा नाता बनता है. अगर हम अपने पूर्वजों की भाषा नहीं बोल पाते तो हमारा उनसा नाता टूट जाता है."

अगर फारसी में चिट्ठा लिखने वाले इतने लोग हैं कि वह अपनी भाषा को चिट्ठा जगत की प्रमुख भाषा बना दें तो एक दिन भारत की सभी भाषाएँ भी अंतर्जाल पर अपनी महता दिखायेंगी, यह मेरी आशा और कामना है. केवल प्रमुख भाषाएँ ही नहीं, बल्कि वह सब भाषाएँ भी जिन्हें आज भारत में छोटी भाषाएँ माना जाता है जैसे कि मैथिली, भोजपुरी, अवधी आदि, इन सब भाषाओं को अंतर्जाल पर लिखने वाले लोग मिलें!


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मैं सोचता हूँ कि सब बच्चों को प्राथमिक शिक्षा अपनी मातृभाषा में मिलनी चाहिये जिससे उनके व्यक्तित्व का सही विकास हो सके. इसका यह अर्थ नहीं कि प्राथमिक शिक्षा में अँग्रेजी न पढ़ाई जाये, पर प्राथमिक शिक्षा अँग्रेजी माध्यम से देना मेरे विचार में गलती है. वैसे भी भारतीय शिक्षा परिणाली समझ, मौलिक सोच और सृजनता की बजाय रट्टा लगाने, याद करने पर अधिक जोर देती है. प्राथमिक शक्षा को अँग्रेजी माध्यम में देने से इसी रट्टा लगाओ प्रवृति को ही बल मिलता है.

गुरुवार, मई 31, 2007

बच्चन जी की कमसिन सखियाँ

आखिरकार मुझे करण जौहर की फ़िल्म "कभी अलविदा न कहना" देखने का मौका मिल ही गया. अक्सर ऐसा होता है कि जिस फ़िल्म की बहुत बुराईयाँ सुनी हों, वह उतनी बुरी नहीं लगती, कुछ वैसा ही लगा यह फ़िल्म देख कर.

फ़िल्म के बारे में पढ़ा था कि समझ में नहीं आता कि अच्छे भले प्यार करने वाले पति अभिशेख को छोड़ कर रानी मुखर्जी द्वारा अभिनेत्रित पात्र को इतने सड़ियल हीरो से किस तरह प्यार हो सकता है? मेरे विचार में इस फ़िल्म यह फ़िल्म भारत में प्रचलित परम्परागत विवाह होने वाली मानसिकता को छोड़ कर विवाह के बारे प्रचलित पश्चिमी मानसिकता से पात्रों को देखती है.

यह तो भारत में होता है कि अधिकतर युवक और युवतियाँ, अनजाने से जीवन साथी से विवाह करके उसी के प्रति प्रेम महसूस करते हैं. इसके पीछे बचपन से मन में पले हमारे संस्कार होते हैं जो हमें इस बात को स्वीकार करना सिखाते हैं. इन संस्कारों के बावजूद कभी कभी, नवविवाहित जोड़े के बीच में दरारें पड़ जाती है. मेरे एक मित्र ने विवाह में अपनी पत्नी को देखा तो उसे बहुत धक्का लगा, पर उस समय मना न कर पाया, लेकिन शादी के बाद कई महीनों तक उससे बात नहीं करता था. एक अन्य मित्र जो दिल्ली में रहता था, उसकी शादी बिहार में तय हुई, पर उसने जब अपनी नवविवाहित पत्नी को पहली बार देखा तो उसे अस्वीकार कर दिया. ऐसी कहानियाँ कभी कभी सुनने को मिल जाती हैं पर अधिकतर लोग परिवार दावारा चुने हुए जीवनसाथी के साथ ही निभाते हैं. अस्वीकृति या दिक्कत अधिकतर पुरुष की ओर से ही होती है, स्त्री की तरफ़ से जैसा भी हो, पति को स्वीकार किया जाता है.

पश्चिमी सोच विवाह से पहले अपने होने वाले जीवनसाथी के लिए प्रेम का होना आवश्यक समझती है. भारत में भी, कम से कम शहरों में, इस तरह की सोच का बढ़ाव हुआ है, कि विवाह हो तो प्रेमविवाह हो वरना कुवाँरा रहना ही भला है. पर इस तरह सोचने वाले नवजवान शायद अभी अल्पमत में हैं. फ़िल्म इसी दृष्टिकोण पर आधारित है. सवाल यह नहीं कि अभिशेख बच्चन जी कितने अच्छे हैं, बल्कि सवाल यह है कि रानी मुखर्जी को उनसे प्यार नहीं है.

फ़िल्म में शाहरुख खान द्वारा अभिनीत भाग बहुत अच्छा लगा. कम ही भारतीय सिनेमा में पुरुष को इतना हीन भावना से ग्रस्त और अपने आप में इतना असुरक्षित दिखाया है. इस तरह का पुरुष फ़िल्म का हीरो हो, यह तो मैंने कभी नहीं देखा. उसका हर किसी से गुस्सा करना, बात बात पर व्यँग करना, ताने मारना, छोटे बच्चे के साथ बुरी तरह से पेश आना, हीरो कम और खलनायक अधिक लगता है. यह तो फ़िल्म लेखक और निर्देशक की कुशलता है कि इसके बावजूद आप उससे नफरत नहीं करते पर उसके लिए मन में थोड़ी सी सुहानुभूति ही होती है. शाहरुख जैसे अभिनेता के लिए इस तरह का भाग स्वीकार करना साहस की बात है.



पर जिस पात्र से मुझे परेशानी हुई वह है अमिताभ बच्चन द्वारा निभाया अभिशेख के पिता का भाग. पैसे से खरीदी हुई, बेटी जैसी उम्र की युवतियों के साथ रात बिताने वाला यह पुरुष साथ ही बेटे और बहु के दर्द को समझने वाला समझदार पिता भी है, अच्छा दोस्त भी, मृत पत्नी को याद करने वाला भावुक पति भी. मैं यह नहीं कहता कि उम्र के साथ साथ बूढ़े होते व्यक्ति को सेक्स की चाह होना गलत है और कोई अन्य रास्ता न होने पर, उसका वेश्याओं के पास जाना भी समझ में आता है, पर समझ नहीं आता उसका पैसा दे कर पाई जवान लड़कियों को सबके सामने खुले आम जताना कि मैं अभी भी जवाँमर्द हूँ! क्या अगर यही बात स्त्री के रुप में दिखाई जाती तो क्या हम स्वीकार कर पाते? यानि अगर यह पात्र अभिशेख के विधुर पिता का नहीं विधवा माँ का होता, जो पैसे से हर रात नवयुवक खरीदती है, पर साथ ही अच्छी माँ, मृत पति को याद करने वाली स्त्री भी है, तो क्या स्वीकार कर पाते?



शायद फ़िल्म निर्देशक का सोचना है कि पुरुष तो हमेशा यूँ ही करते आयें हैं और फ़िल्म का काम सही गलत की बात करना नहीं, जैसा समाज है, वैसा दिखाना है?

शुक्रवार, मई 04, 2007

भूली बरसियाँ

इटली का स्वतंत्रता दिवस का दिन था, 25 अप्रैल. हर साल इस दिन छुट्टी होती है पर मुझे अक्सर याद नहीं रहता कि किस बात की छुट्टी है. सुबह कुत्ते को सैर कराने निकला तो घर के सामने वृद्धों के समुदायिक केंद्र का बाग है, वहाँ देखा कि एक बूढ़े से व्यक्ति पेड़ों पर पोस्टर लगा रहे थे. हर पोस्टर पर इटली का ध्वज बना था और लिखा था, "वीवा ला राज़िस्तेंज़ा" यानि संघर्ष जिंदाबाद.

मैंने उससे पूछा कि क्या बात है और पोस्टर क्यों लग रहे हैं तो उसने कुछ नाराज हो कर कहा, "यह हमारा स्वतंत्रता दिवस है". शायद उसे कुछ गुस्सा इस लिए आया था कि उसके विचार में इतना महत्वपूर्ण दिन है इसका अर्थ तो यहाँ रहने वाले हर किसी को मालूम होना चाहिये.

मैंने फ़िर पूछा, "हाँ, वह तो मालूम है पर स्वतंत्रता किससे?"

"मुस्सोलीनी और फासीवाद से. यहाँ बोलोनिया में उसके विरुद्ध संघर्ष करने वाले बहुत लोग थे. जँगल में छुप कर रहते थे और मुस्सोलीनी की फौज और जर्मन सिपाहियों पर हमला करते थे. बहुत से लोग मारे गये. 25 अप्रैल 1945 को अमरीकी और अँग्रेज फौजों ने इटली पर कब्जा किया था और फासीवाद तथा नाजियों की हार हुई थी", उन्होंने समझाया. वह स्वयं भी उस संघर्ष में शामिल थे.

उनका गर्व तो समझ आता है पर मन में आया कि "संघर्ष जिंदाबाद" जैसे नारों का आजकल क्या औचित्य है? और आज जब अधिकतर नवजवानों को मालूम ही नहीं कि 25 अप्रैल का क्या हुआ था तो क्या इस तरह के दिन मनाने क्या केवल खोखली रस्म बन कर नहीं रह जाता?



"फासीवाद आज भी जिंदा है, अगर हम अपने बीते हुए कल को भूल जायेंगे तो वह फ़िर से लौट कर आ सकता है", वह बोला. पर केवल कहने से या चाहने से क्या कुछ जिंदा रह सकता है जब आज के नवजवानों के लिए यह बात किसी भूले हुए इतिहास की है?

और कितने सालों तक यह छुट्टी मनायी जायेगी? पचास सालों तक? यही बात भारत के स्वतंत्रता दिवस जैसे समारोहों पर भी लागू हो सकती है. बचपन में लाल किले से जवाहरलाल नेहरु या लाल बहादुर शास्त्री ने क्या कहा यह सुनने और जानने के लिए मन में बहुत उत्सुक्ता होती थी. बचपन में भारत की अँग्रेजों से लड़ाई और स्वतंत्रता की यादें जिंदा थीं, जिन नेताओं के नाम लिये जाते थे, उनमें से अधिकाँश जिंदा थे. वही याद आज भी मन में बैठी है और हर वर्ष यह जाने का मन करता है कि इस वर्ष क्या कहा होगा. पर अखबार देखिये या लोगों से पूछिये तो आज किसी को कुछ परवाह नहीं कि क्या कहा होगा, केवल एक भाषण है वह. और आज की पीढ़ी के लिए अँग्रेज, स्वतंत्रता संग्राम सब साठ साल पहले की गुजरी हुई बाते हैं जिसमें उन्हें विषेश दिलचस्पी नहीं लगती.

यही सब सोच रहा था उस सुबह को कि शायद यही मानव प्रवृति है कि अपनी यादों को बना कर रखे और जब नयी पीढ़ी उन यादों का महत्व न समझे तो गुस्सा करे. फ़िर जब वह लोग जिन्होंने उस समय को देखा था नहीं रहेंगे, तो धीरे धीरे वह बात भुला दी जाती है, तो रस्में और बरसी के समारोह भी भुला दिये जाते हैं. यह समय का अनरत चक्र है जो नयी बरसियाँ, समारोह बनाता रहता है और कोई कोई विरला ही आता है, महात्मा गाँधी जैसा, जिसका नाम अपने स्थान और समय के दायरे से बाहर निकल कर लम्बे समय तक जाना पहचाना जाता है.

****
उसी सुबह, कुछ घँटे बाद साइकल पर घूमने निकला तो थोड़ी सी ही दूर पर एक चौराहे पर कुछ लोगों को हाथ में झँडा ले कर खड़े देखा तो वहाँ रुक गया.

माईक्रोफोन लगे थे, सूट टाई पहन कर नगरपालिका के एक विधायक खड़े थे, कुछ अन्य लोग "संघर्ष समिति" के थे. वे सब लोग भाषण दे रहे थे. पहले बात हुई उस चौराहे की. 19 नवंबर 1944 को वहाँ बड़ी लड़ाई हुई थी जिसमें 26 संघर्षवादियों ने जान खोयी थी. उनके बलिदान की बातें की गयीं कि हम तुम्हें कभी नहीं भूलेंगे और तुम्हारा बलिदान अमर रहेगा. उस लड़ाई में मरे 19 वर्षीय एक युवक की बहन ने दो शब्द कहे और बोलते हुए उसकी आँखें भर आयीं. थोड़े से लोग आसपास खड़े थे उन्होंने तालियाँ बजायीं.

फ़िर बारी आयी प्रशस्तिपत्र देने की. जिनको यह प्रशस्तिपत्र मिलने थे उनमें से कई तो मर चुके थे और उनके परिवार के किसी अन्य सदस्य ने आ कर वे प्रशस्तिपत्र स्वीकार किये. कुछ जो जिंदा थे, वह बूढ़े थे. हर बार पूरी कहानी सनाई जाती. "वह जेल से भाग निकले .. उनकी नाव डूब गयी...अपनी जान की परवाह न करते हुए ...लड़ाई में उनकी पत्नी को गोली लगी ... तीन गोलियाँ लगी और उन्हें मुर्दा समझ कर छोड़ दिया गया..".



बूढ़े डगमगाते कदम थोड़ी देर के लिए अपने बीते दिनों के गौरव का सुन कर कुछ सीधे तन कर खड़े होते. किसी की आँखों में बिछुड़े साथियों और परिवार वालों के लिए आँसू थे. उनकी यादों के साथ मैं भी भावुक हो रहा था. आसपास खड़े पँद्रह बीस लोग कुछ तालियाँ बजाते.

पर शहर के पास इन सब बातों के लिए समय नहीं था. चौराहे पर यातायात तीव्र था, गुजरते हुए कुछ लोग कार से देखते और अपनी राह बढ़ जाते. पीछे बास्केट बाल के मैदान में लड़के चिल्ला रहे थे, अपने खेल में मस्त.

बुधवार, मई 02, 2007

सौभाग्य

"यह तुम्हारा नाम कैसे बोलते हैं?" मैंने उनसे पूछा. लम्बा हरे रँग का कुर्ता. थोड़ी सी काली, अधिकतर सफ़ेद दाढ़ी. सिर के बाल लम्बे, पीछे छोटी सी चोटी में बँधे थे. और निर्मल सौम्य मुस्कान जो दिल को छू ले.

जब उनका ईमेल देखा तो स्पेम समझ कर उसे कूड़ेदान में डालने चला था क्योंकि अनुभव से मालूम है कि इतने अजीब नाम वाले तो स्पेम ही भेजते हैं. फ़िर नज़र पड़ी थी ईमेल के विषय पर जिसमें लिखा था "कल्पना के बारे में", तो रुक गया था. सँदेश में लिखा था कि वह अधिकतर भारत में रहते हैं, पर उनकी पत्नि और परिवार इटली में बोलोनिया के पास रहते हैं, वह आजकल छुट्टी में इटली आयें हैं, उन्होंने अंतर्जाल पर कल्पना के कुछ पृष्ठ देखे और वह मुझसे मिलना चाहते हैं.

भारत से कोई भी आये और उससे मिलने का मौका मिले तो उसे नहीं छोड़ना चाहता. तुरंत उन्हे उत्तर लिखा और घर पर आने का न्यौता दिया. कल एक मई का दिन मिलने के लिए ठीक था क्योंकि मेरी छुट्टी थी और उन्हें शायद बोलोनिया आना ही था.
Mark Dyczkowski, कितना अजीब नाम है, कौन से देश से होगा, मैं सोच रहा था. फ़िर कल सुबह अचानक मन में आया कि उनके बारे में गूगलदेव से पूछ कर देखा जाये. पाया कि वह बनारस में रहते हैं, हिंदू धर्म में ताँत्रिक मार्ग पर बहुत से किताबें लिख चुके हैं, सितार भी बजाते हैं.



वह अपनी पत्नी ज्योवाना और एक मित्र फ्लोरियानो के साथ आये. उन्हे देखते ही पहली नज़र में उनसे एक अपनापन सा लगा. कभी कभी ऐसा होता है कि कोई अनजाना भी मिले तो लगता है मानो बरसों से उसे जानते हों, वैसा ही लगा मार्क को मिल कर. इससे पहले कि कुछ बात हो मैंने तुरंत पूछ लिया, "यह तुम्हारा नाम कैसे बोलते हैं?" और मार्क ने बताया, कि उनके पारिवारिक नाम का सही उच्चारण है "दिचकोफस्की".

पोलैंड के पिता और इतालवी माँ की संतान, मार्क का जन्म लंदन में हुआ. सतरह अठारह वर्ष की उम्र में गुरु और ज्ञान की खोज उन्हें भारत ले आयी, जहाँ उन्होने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में दाखिला लिया. भारत में ही उनकी मुलाकात अपनी पत्नी ज्योवाना से हुई और पहला पुत्र भी भारत में पैदा हुआ. पिछले पैंतीस वर्षों से वह भारत में ही रहते हैं और ताँत्रिक मार्ग के अलावा संगीत, योग, भारतीय दर्शन आदि बहुत से विषयों में दिलचस्पी रखते हैं. पोलिश, इतालवी, हिंदी, अँग्रेजी और संस्कृत भाषाएँ जानते हैं.

दो घँटे के करीब वह रुके और इस समय में बहुत सी बातें हुई. वह भी बहुत बोले, पर मैं भी उन्हें बार बार टोक कर कुछ न कुछ प्रश्न पूछता. कभी कृष्ण की बात करते तो कभी राम की. कभी वेदों उपानिषदों से उदाहरण देते कभी बढ़ती उपभोक्तावादी सँस्कृति से भारतीय मूल्यों को आये खतरे के बारे में चिंता व्यक्त करते. "मानव के भीतर की असीमित विशालता की ओर हिदू दर्शन ने जो ध्यान बँटाया है और सदियों से इस दिशा में ज्ञान जोड़ा है वह विश्व को भारत की देन है", बोले. मैं उन्हे मंत्रमुग्ध हो कर सुनता रहा.

जब चलने लगे तो मुझे दुख हुआ कि बातचीत में इतना खोया कि उनकी बातों को रिकार्ड नहीं किया, वरना सब बातों को लिख कर अच्छा साक्षात्कार बनता और नये लोगों को उनके विचार जानने का मौका भी मिलता. अभी तो मैं यहीं हूँ, यहाँ एक सप्ताह पहले ही आया हूँ, अगले दिनों में फ़िर अवश्य मिलेंगे, तब रिकार्ड कर लेना, उन्होने मुझे मुस्करा कर कहा. इतने ज्ञानी विद्वान से घर बैठे अपने आप मिलने का मौका मिला, यह तो मेरा सौभाग्य ही था.

****
कल रात को समाचार मिला कि भारत से यहाँ आये शौध विद्यार्थी विवेक कुमार शुक्ल के माता पिता जो कानपुर में रहते थे, उनका किसी ने खून कर दिया. विवेक आज ही घर वापस जाने की कोशिश कर रहे हैं. हम सब इस समाचार से स्तब्ध हैं. विवेक को बोलोनिया के भारतीय समुदाय की संवेदना.

सोमवार, अप्रैल 30, 2007

बहुत बड़ी है दुनिया

कुछ दिन दूर क्या हुए, हिंदी चिट्ठा जगत तो माने दिल्ली हो गया. हर साल जब दिल्ली लौट कर जाता हूँ तो सब बदला बदला लगता है. पुराने घर, वहाँ रहने वाले लोग, सब बदले लगते हैं. बहुत से लोग अपनी जगह पर नहीं मिलते. कहीं नये फ्लाईओवर, कहीं नये मेट्रो के स्टेशन तो कहीं सीधे साधे घर के बदले चार मंजिला कोठी. कुछ ऐसा ही लगा नारद पर. पहले तो लिखने वाले बहुत से नये लोग, जिनके नाम जाने पहचाने न थे. ऊपर से ऐसी बहसें कि लगा कि बस मार पिटायी की कसर रह गयी हो (शायद वह भी हो चुकी हो कहीं बस मेरी नजर में न आई हो?)

सोचा कुछ नया पढ़ना चाहिये तो पहले देखा सुरेश जी का चिटठा जिसमें उनका कहना था कि अपराधियों को बहुत छूट मिली है, उनके लिए मानवअधिकारों की बात होती है जबकि निर्दोष दुनियाँ जो उनके अत्याचारों से दबी है उसके मानवअधिकारों की किसी को चिंता नहीं है. यानि पुलिस वाले अगर अपराधियों को पकड़ कर बिना मुदकमें के गोली मार दें या उनकी आँखों में गँगाजल डाल दें तो इसे स्वीकार कर लेना चाहिये, क्योंकि कभी कभी "गेहूँ के साथ घुन तो पिसता ही है".

मैं ऐसे विचारों से सहमत नहीं हूँ क्योंकि मैं सोचता हूँ कि समाज को हर तरह के कानून बनाने का अधिकार है पर समाज में किसी को भी कानून को अपने हाथ में लेने का अधिकार नहीं होना चाहिये. क्योंकि एक बार किसी वर्ग के लिए अगर यह बात आप मान लेते हैं तो समस्त कानून की कुछ अहमियत नहीं रहेगी. अपराधी, राजनीति और पुलिस वर्गों में साँठ गाँठ की बात तो सबके सामने है ही, जिससे बड़े अपराधियों को पुलिस को संरक्षण मिलता है और लोगों को संतुष्ट करने के लिए छोटे मोटे या गरीब लोंगों को मार कर उन्हे अपराधी बना देना आसान हो जाता है. कोई कोई ईमानदार पुलिस वाले होंगे जो सचमुच कानून से बच कर निकल जाने वाले अपराधियों और उनके साथी नेताओं को जान मारना चाहें, पर उनसे कई गुना अधिक वह पुलिस वाले होंगे जो सचमुच के अपराधियों को बचाने के लिए छोटे मोटे चोर या गरीब लोगों के जान ले सकते हों. घुन के पिसने को आसानी से इसी लिए स्वीकारा जाता है क्योंकि हम जानते हैं कि हमारी पहुँच और जानपहचान है, हम खुद कभी घुन नहीं बनेंगे.

उसके बाद प्रेमेंद्र प्रताप सिंह के चिटठे को खोला तो वहाँ से मोहल्ला, पँगेबाज, सृजनशिल्पी, रमण और जीतेंद्र के नारद संचलन पर गर्म चर्चा देखता चला गया. फुरसतिया जी की टिप्पणीं को पढ़ कर कुछ ढाढ़स मिला कि आग को समय पर बुझा दिया गया. या फ़िर शायद यह कहना ठीक होगा कि इस बार तो आग को बुझा दिया गया पर अगली बार क्या होगा?

मैं स्वयं सेंसरशिप और किसी को बाहर निकालने के विरुद्ध हूँ, क्योंकि मुझे लगता है कि दुनिया में बहुत लोग हैं जिनकी बात से मैं सहमत नहीं पर साथ ही, दुनिया इतनी बड़ी है कि जो मुझे अच्छा न लगे, उसे कोई मुझे जबरदस्ती नहीं पढ़ा सकता. तो आप लिखिये जो लिखना है, अगर वह मुझे नहीं भायेगा तो अगली बार से आप का लिखा नहीं पढ़ूँगा, बात समाप्त हो गयी. पर मैं समझ सकता हूँ कि जब मन में उत्तेजना और क्षोभ हो तो गुस्से में यह सोचना ठीक नहीं लग सकता है.

प्रेमेंद्र ने "ईसा, मुहम्मद और गणेश" के नाम से एक और बात उठायी कि जब ईसाई और मुसलमान अपने धर्मों का कुछ भी अनादर नहीं मानते तो हिंदुओं को भी गणेश की तस्वीरों का कपड़ों आदि पर प्रयोग का विरोध करना चाहिये. मैं इस बात से भी सहमत नहीं हूँ.

ईसा के नाम पर कम से कम पश्चिमी देशों में टीशर्ट आदि आम मिलती हैं, उनके जीवन के बारे में जीसस क्राईसट सुपरस्टार जैसे म्युजिकल बने हें जिन्हें कई दशकों से दिखाया जाता है, फिल्में और उपन्यास निकलते ही रहते हैं जिनमें उनके जीवन और संदेश को ले कर नयी नयी बातें बनाई जाती है. इन सबका विरोध करने वाले भी कुछ लोग हैं पर मैंने नहीं सुना कि आजकल पश्चिमी समाज में कोई भी फिल्म या उपन्यास सेसंरशिप का शिकार हुए हों या किसी को बैन कर दिया हो या फ़िर उसके विरोध में हिसक प्रदर्शन हुए हों. असहिष्णुता, मारपीट दँगे, भारत, पाकिस्तान, बँगलादेश, मिडिल ईस्ट के देशों में ही क्यों होते हैं? हम लोग अपने धर्म के बारे में इतनी जल्दी नाराज क्यों हो जाते हैं?

मेरा मानना है कि भगवदगीता और अन्य भारतीय धर्म ग्रँथों के अनुसार संसार के हर जीवित अजीवित कण में भगवान हैं. दुनिया के हर मानव की आत्मा में भगवान हैं. भगवान की कपड़े पर तस्वीर लगाने से, उनका मजाक उड़ाने से, उनके बारे में कुछ भी कहने या लिखने से भगवान का अनादर नहीं होता. जो "हमारे धर्म का अनादर हुआ है" यह सोच कर तस्वीर हटाओ, यह मंत्र का प्रयोग न करो, इसके बारे में न लिखो और बोलो, इत्यादि बातें करते हैं वह अपनी मानसिक असुरक्षा की बात कर रहे हैं, उनका भगवान से लेना देना नहीं है. अगर भगवान का अपमान सचमुच रोकना हो तो छूत छात, जाति और धर्म के नाम पर होने वाले इंसान के इंसान पर होने वाले अत्याचार को रोकना चाहिये.

जब पढ़ कर नारद को बंद किया तो खुशी हो रही थी कि इतने सारे नये लोग हिंदी में लिखने लगे हैं. यह तो होना ही था कि जब हिंदी में चिट्ठे लिखना जनप्रिय होगा तो सब तरह के लोग तो आयेंगे ही, और यही तो अंतर्जाल की सुंदरता है कि हर तरह की राय सुनने को मिले. अगर मैं असहमत हूँ तो इसका यह अर्थ नहीं कि मैं आप का मुँह बंद करूँ. आप अपनी बात कहिये, कभी मन किया तो अपनी असहमती लिख कर बताऊँगा, कभी मन किया तो आप के लिखे को नहीं पढ़ूँगा. यह दुनिया बहुत बड़ी है, आप अपनी बात सोचिये, मैं अपनी बात.

बुधवार, अप्रैल 25, 2007

ऊन से बुनी मूर्तियाँ

स्पेन की दो वृतचित्र बनाने वाली निर्देशिकाओं लोला बारेरा और इनाकी पेनाफियल ने फिल्म बनायी है "के तियेन देबाहो देल सामब्रेरो" (Qué tienes debajo del sombrero), समब्रेरो यानि मेक्सिकन बड़ी टोपी और शीर्षक का अर्थ हुआ "तुम्हारी टोपी के नीचे क्या है".

यह फ़िल्म है अमूर्त ब्रूट कला की प्रसिद्ध कलाकार जूडित्थ स्कोट के बारे में, जो अपनी बड़ी टोपियों और रंगबिरंगे मोतियों के हार पहनने की वजह से भी प्रसिद्ध थीं. ब्रूट कला यानि अनगढ़, बिना सीखी कला जो विकलाँग या मानसिक रोग वाले कलाकारों द्वारा बनायी जाती हैं. जूडित्थ गूँगी, बहरी थीं और डाऊन सिंड्रोम था, जिसकी वजह से उनका मानसिक विकास सीमित था.

जूडुत्थ की कहानी अनौखी है. 1943 में अमरीका में सिनसिनाटी में जन्म हुआ, जुड़वा बहने थीं, जूडित्थ और जोयस. दोनो बहने एक जैसी थी बस एक अंतर था. जूडित्थ को डाऊन सिंड्रोम यानि मानसिक विकलाँगता थी और गूँगी बहरी थीं, जोयस बिल्कुल ठीक थी. छहः वर्ष की जूडित्थ को घर से निकाल कर बाहर मानसिक विकलाँगता के एक केंद्र में भेज दिया गया. घर में उसके बारे में बात करना बंद हो गया, मानो वह कभी थी ही नहीं पर जोयस अपनी जुड़वा बहन को न भूली. 36 वर्षों तक जूडित्थ एक केंद्र से दूसरे केंद्र में घूमती रहीं, अपने घर वालों के लिए वह जैसे थीं ही नहीं, केवल उनकी जुड़वा बहन को उनकी तलाश थी. 1986 में जोयस ने अपनी बहन को खोज निकाला और अपने घर ले आयीं. 43 सालों तक विभिन्न केंद्रों मे रहने वाली जूडित्थ को केवल उपेक्षा ही मिली थी, वह लिखना पढ़ना नहीं जानती थी और जिस केंद्र में जोयस को मिलीं, वहाँ किसी को नहीं मालूम था कि वह गूँगी बहरी हैं, सब सोचते थे कि केवल उनका दिमाग कमज़ोर है, जिससे अनुमान लगाया जा सकता है कि केंद्र में कौन उनसे कितना सम्पर्क रखता होगा.

घर लाने के बाद, जोयस ने ही कोशिश की कि जूडित्थ एक कला केंद्र में नियमित रूप से जायें. पहले तो जूडित्थ ने चित्रकारी से आरम्भ किया. 1987 में जूडित्थ ने अपनी पहली मूर्तियाँ बनायीं. उनकी खासियत थी कि चीजों को ऊन में लपेट कर उसके आसपास मकड़ी का जाला सा बुनती थीं जो उनकी रंग बिरंगी मूर्तियाँ थीं. 2005 में 61 वर्ष की आयु में जब जूडित्थ का देहाँत हुआ तो उनकी ऊन की मूर्तियाँ देश विदेश के बहुत से कला सग्रहालयों में रखी जा चुकीं थीं और उनकी कीमत भी ऊँचीं लगती थी. प्रस्तुत हैं जूडित्थ की कला के कुछ नमूने.

पहली तस्वीर में अपनी कलाकृति के साथ स्वयं जूडित्थ भी हैं.








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