कुछ दिन दूर क्या हुए, हिंदी चिट्ठा जगत तो माने दिल्ली हो गया. हर साल जब दिल्ली लौट कर जाता हूँ तो सब बदला बदला लगता है. पुराने घर, वहाँ रहने वाले लोग, सब बदले लगते हैं. बहुत से लोग अपनी जगह पर नहीं मिलते. कहीं नये फ्लाईओवर, कहीं नये मेट्रो के स्टेशन तो कहीं सीधे साधे घर के बदले चार मंजिला कोठी. कुछ ऐसा ही लगा नारद पर. पहले तो लिखने वाले बहुत से नये लोग, जिनके नाम जाने पहचाने न थे. ऊपर से ऐसी बहसें कि लगा कि बस मार पिटायी की कसर रह गयी हो (शायद वह भी हो चुकी हो कहीं बस मेरी नजर में न आई हो?)
सोचा कुछ नया पढ़ना चाहिये तो पहले देखा सुरेश जी का चिटठा जिसमें उनका कहना था कि अपराधियों को बहुत छूट मिली है, उनके लिए मानवअधिकारों की बात होती है जबकि निर्दोष दुनियाँ जो उनके अत्याचारों से दबी है उसके मानवअधिकारों की किसी को चिंता नहीं है. यानि पुलिस वाले अगर अपराधियों को पकड़ कर बिना मुदकमें के गोली मार दें या उनकी आँखों में गँगाजल डाल दें तो इसे स्वीकार कर लेना चाहिये, क्योंकि कभी कभी "गेहूँ के साथ घुन तो पिसता ही है".
मैं ऐसे विचारों से सहमत नहीं हूँ क्योंकि मैं सोचता हूँ कि समाज को हर तरह के कानून बनाने का अधिकार है पर समाज में किसी को भी कानून को अपने हाथ में लेने का अधिकार नहीं होना चाहिये. क्योंकि एक बार किसी वर्ग के लिए अगर यह बात आप मान लेते हैं तो समस्त कानून की कुछ अहमियत नहीं रहेगी. अपराधी, राजनीति और पुलिस वर्गों में साँठ गाँठ की बात तो सबके सामने है ही, जिससे बड़े अपराधियों को पुलिस को संरक्षण मिलता है और लोगों को संतुष्ट करने के लिए छोटे मोटे या गरीब लोंगों को मार कर उन्हे अपराधी बना देना आसान हो जाता है. कोई कोई ईमानदार पुलिस वाले होंगे जो सचमुच कानून से बच कर निकल जाने वाले अपराधियों और उनके साथी नेताओं को जान मारना चाहें, पर उनसे कई गुना अधिक वह पुलिस वाले होंगे जो सचमुच के अपराधियों को बचाने के लिए छोटे मोटे चोर या गरीब लोगों के जान ले सकते हों. घुन के पिसने को आसानी से इसी लिए स्वीकारा जाता है क्योंकि हम जानते हैं कि हमारी पहुँच और जानपहचान है, हम खुद कभी घुन नहीं बनेंगे.
उसके बाद प्रेमेंद्र प्रताप सिंह के चिटठे को खोला तो वहाँ से मोहल्ला, पँगेबाज, सृजनशिल्पी, रमण और जीतेंद्र के नारद संचलन पर गर्म चर्चा देखता चला गया. फुरसतिया जी की टिप्पणीं को पढ़ कर कुछ ढाढ़स मिला कि आग को समय पर बुझा दिया गया. या फ़िर शायद यह कहना ठीक होगा कि इस बार तो आग को बुझा दिया गया पर अगली बार क्या होगा?
मैं स्वयं सेंसरशिप और किसी को बाहर निकालने के विरुद्ध हूँ, क्योंकि मुझे लगता है कि दुनिया में बहुत लोग हैं जिनकी बात से मैं सहमत नहीं पर साथ ही, दुनिया इतनी बड़ी है कि जो मुझे अच्छा न लगे, उसे कोई मुझे जबरदस्ती नहीं पढ़ा सकता. तो आप लिखिये जो लिखना है, अगर वह मुझे नहीं भायेगा तो अगली बार से आप का लिखा नहीं पढ़ूँगा, बात समाप्त हो गयी. पर मैं समझ सकता हूँ कि जब मन में उत्तेजना और क्षोभ हो तो गुस्से में यह सोचना ठीक नहीं लग सकता है.
प्रेमेंद्र ने "ईसा, मुहम्मद और गणेश" के नाम से एक और बात उठायी कि जब ईसाई और मुसलमान अपने धर्मों का कुछ भी अनादर नहीं मानते तो हिंदुओं को भी गणेश की तस्वीरों का कपड़ों आदि पर प्रयोग का विरोध करना चाहिये. मैं इस बात से भी सहमत नहीं हूँ.
ईसा के नाम पर कम से कम पश्चिमी देशों में टीशर्ट आदि आम मिलती हैं, उनके जीवन के बारे में जीसस क्राईसट सुपरस्टार जैसे म्युजिकल बने हें जिन्हें कई दशकों से दिखाया जाता है, फिल्में और उपन्यास निकलते ही रहते हैं जिनमें उनके जीवन और संदेश को ले कर नयी नयी बातें बनाई जाती है. इन सबका विरोध करने वाले भी कुछ लोग हैं पर मैंने नहीं सुना कि आजकल पश्चिमी समाज में कोई भी फिल्म या उपन्यास सेसंरशिप का शिकार हुए हों या किसी को बैन कर दिया हो या फ़िर उसके विरोध में हिसक प्रदर्शन हुए हों. असहिष्णुता, मारपीट दँगे, भारत, पाकिस्तान, बँगलादेश, मिडिल ईस्ट के देशों में ही क्यों होते हैं? हम लोग अपने धर्म के बारे में इतनी जल्दी नाराज क्यों हो जाते हैं?
मेरा मानना है कि भगवदगीता और अन्य भारतीय धर्म ग्रँथों के अनुसार संसार के हर जीवित अजीवित कण में भगवान हैं. दुनिया के हर मानव की आत्मा में भगवान हैं. भगवान की कपड़े पर तस्वीर लगाने से, उनका मजाक उड़ाने से, उनके बारे में कुछ भी कहने या लिखने से भगवान का अनादर नहीं होता. जो "हमारे धर्म का अनादर हुआ है" यह सोच कर तस्वीर हटाओ, यह मंत्र का प्रयोग न करो, इसके बारे में न लिखो और बोलो, इत्यादि बातें करते हैं वह अपनी मानसिक असुरक्षा की बात कर रहे हैं, उनका भगवान से लेना देना नहीं है. अगर भगवान का अपमान सचमुच रोकना हो तो छूत छात, जाति और धर्म के नाम पर होने वाले इंसान के इंसान पर होने वाले अत्याचार को रोकना चाहिये.
जब पढ़ कर नारद को बंद किया तो खुशी हो रही थी कि इतने सारे नये लोग हिंदी में लिखने लगे हैं. यह तो होना ही था कि जब हिंदी में चिट्ठे लिखना जनप्रिय होगा तो सब तरह के लोग तो आयेंगे ही, और यही तो अंतर्जाल की सुंदरता है कि हर तरह की राय सुनने को मिले. अगर मैं असहमत हूँ तो इसका यह अर्थ नहीं कि मैं आप का मुँह बंद करूँ. आप अपनी बात कहिये, कभी मन किया तो अपनी असहमती लिख कर बताऊँगा, कभी मन किया तो आप के लिखे को नहीं पढ़ूँगा. यह दुनिया बहुत बड़ी है, आप अपनी बात सोचिये, मैं अपनी बात.
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लोग यूं ही तो आपको हिन्दी चिट्ठा जगत का सबसे परिपक्व चिट्ठाकार नही कहते...बात तो है सर जी
जवाब देंहटाएं:)
पुलिस ,जज और जल्लाद सब की अलग-अलग जिम्मेदारियों को खतम कर ,सारा काम चिपलूनकर या वैसी सोच वाली भीड़ को दे दिया जाय तो क्या होगा ?
जवाब देंहटाएंआप बहस में नहीं पड़ते यह गलफ़हमी दूर होना,बहुत सुखद है ।
आदरणीय , मैं अपने चिट्ठे पर आपके चिट्ठे का लिंक देना चाहता हूं अगर आपकी इज़ाज़त हो तो,
जवाब देंहटाएंप्रतीक्षारत
तर्क वितर्कों में उलझे होते तो हल निकल जाता किंतु अहम् का टकराव समस्याओं को उलझाता ही है.
जवाब देंहटाएंआप दिल से बातें कहते हैं. सीधी सच्ची साफ़ तर्कों के जाल में उलझते नहीं यह सादादिली और साफ़गोई मुझे प्रभावित करती है. यह गहन चिंतन और अनुभव से आती है.
'' दिल से जो बात निकलती है, असर रखती है.
पर नहीं परवाज़ मगर रखती है.''
जो नाहक उलझते हैं उनके लिए निदा फ़ाज़ली का शेर याद आता है-
''दो और दो का जोड़ हमेशा चार कहां होता है..
सोच समझ वालों को थोड़ी नादानी दे मौला.''
बड़ी राहत मिली
जवाब देंहटाएंआपकी इस पोस्ट ने आपके चिट्ठाकार व्यक्तित्व के एक बड़े रिक्त को भरा है, इसलिए नहीं कि मैं इससे किसी अग्निशमन की उम्मीद लगा रहा हूँ पर इसने आपकी बच बच के चलने वाली गैरजरूरी छवि को तोड़ा है जिसका टूटना मुझे जरूरी जान पड़ता था। किंतु इसके लिए कहना उस स्वतंत्रता का हनन लगता था जो मुझे और भी जरूरी जान पड़ती है।
अब बस रह गए समीर बाबू- देखें वे कुछ कहेंगे कि अजातशत्रु की छवि का ही आनंद लेते रहेंगे। :)
आपके विचारों से पूर्ण सहमत न होते हुए भी आपकी लेखन शैली से प्रभावित हुआ। बहुत बढ़िया!
जवाब देंहटाएंअगर मैं असहमत हूँ तो इसका यह अर्थ नहीं कि मैं आप का मुँह बंद करूँ. आप अपनी बात कहिये, कभी मन किया तो अपनी असहमती लिख कर बताऊँगा, कभी मन किया तो आप के लिखे को नहीं पढ़ूँगा. यह दुनिया बहुत बड़ी है, आप अपनी बात सोचिये, मैं अपनी बात.
जवाब देंहटाएं---बिल्कुल सही फरमा रहे हैं, सुनील जी. मैं पूर्णतः सहमत हूँ.
यह पोस्ट पढ़कर सुखद अनुभूति हुयी! :)
जवाब देंहटाएंबहुत संतुलित विचार हैं. मुझे कहना चाहिए कि आपको पढकर एक अद्भूत शान्ति का अहसास होता है. चाहे आपके विचारों से सहमत हुँ या ना हुँ, पर आप मुझे सोचने पर मजबूर कर देते हैं.. ऐसी लेखनी की क्षमता और किसी में नहीं है.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
ऊपर से ऐसी बहसें कि लगा कि बस मार पिटायी की कसर रह गयी हो (शायद वह भी हो चुकी हो कहीं बस मेरी नजर में न आई हो?)
जवाब देंहटाएंयदि लोग आमने-सामने होते तो कदाचित् वह भी हो ही जाती जी!! ;)
सुरेश जी ने जो मानवाधिकार की बात की है उससे मैं भी सहमत हूँ लेकिन सभी को गोली मारने आदि वाले रवैये से मैं भी असहमत हूँ, क्योंकि इस मामले में carte blanche का उचित प्रयोग न हो अनुचित प्रयोग ही होगा, गेंहूँ तो पिसे न पिसे पर घुन अवश्य पिसेगा।
ईसा, मुहम्मद आदि वाले प्रकरण में भी यह सत्य है कि ईसा पर अनेकों किताबें आई हैं। कई ऐसी हैं जिनमें ईसा पर कई ऐसी बातें लिखीं गईं कि यदि ऐसा मुहम्मद आदि पर लिख दिया गया होता तो बवाल मच गया होता।
असहिष्णुता, मारपीट दँगे, भारत, पाकिस्तान, बँगलादेश, मिडिल ईस्ट के देशों में ही क्यों होते हैं? हम लोग अपने धर्म के बारे में इतनी जल्दी नाराज क्यों हो जाते हैं?
अच्छा प्रश्न है। मेरे ख्याल से ऐसा इसलिए होता है क्योंकि यहाँ धर्म को बहुत ज़्यादा सीरियसली ले लिया जाता है, वह मानव और मानवता से ऊपर उठ जाता है।
विवादो पर आपकी पोस्ट देख दो इंच की मुस्कान खिल उठी.
जवाब देंहटाएंआपका मौन तोड़ना सुखद है. खास कर सरल शब्दो में तर्कसंगत बात रखना कोई आपसे सीखे.
चिपलूकरजी का ऐसा लिखना एक आम आदमी का रोष मात्र है.
लम्बे अंतराल के बाद जब नारद पर वापिस लौटी तो मुझे भी बिल्कुल आप की तरह महसूस हुया। हालात कष्टकारी थे। वजह समझ नहीं पा रही थी इसलिए कुछ कहने करने में असमर्थ थी। परन्तु आपके विचार पढ़ कर लगा कि शायद अब कुछ कहने की आवश्यकता ही नहीं रही है। क्यों कि यही सब था जो न मैं कह सकी। काश आपके संयम के बांध से यह टूटन रुक जाए।
जवाब देंहटाएंआपका लेख पढ़ा । अच्छा लगा । सुरेश जी ने मेरे एक लेख 'यह कैसा न्याय' में अपनी टिप्पणी में कहा था कि वह इस विषय पर लिख रहे हैं । आप मेरा लेख http://ghughutibasuti.blogspot.com/2007/04/blog-post_27.html भी पढ़ने का कष्ट करें ।
जवाब देंहटाएंघुघूती बासूती
आपका लेखन सच का -- सादगी से कहे गये विवादहीन और अहिंसक सच का -- नायाब नमूना है .
जवाब देंहटाएं