गुरुवार, फ़रवरी 24, 2011

मलदान मिलेगा?

कोई अगर अपनी जान बचाने के लिए आप से आप का थोड़ा सा ताज़ा किया हुआ पाखाना माँगे तो क्या आप देंगे? आप सोच रहे होंगे कि शायद यह कोई मज़ाक है. लेकिन यह कोई मज़ाक नहीं है, बल्कि वैज्ञानिक खोज का विषय है, जिसकी कहानी न्यु साईन्टिस्ट पत्रिका में श्री अनिल अनन्तस्वामी ने लिखी है.

Scene from Pushpak, Kamalahassan
"पाखाना" शब्द ही कुछ ऐसा है जिसका सामाजिक प्रभाव छोटी उम्र से ही बहुत तेज़ होता है जिसकी वजह से शब्द से भी कुछ घिन सी आने लगती है. कमालहसन की एक पुरानी फ़िल्म थी "पुष्पक" जिसमें कोई डायलाग नहीं थे, उसमें मलदान के कुछ दृश्य थे. अगर आप ने यह फ़िल्म देखी है तो मेरे विचार में इन दृश्यों को भूलना कठिन है. फ़िल्म में हीरो ने एक पुरुष को घर में बन्द किया है, और उसके पाखने को छुपाने के लिए हर रोज़ एक डिब्बे में बँद करके, उस पर रंगीन कागज़ चढ़ा कर, बसस्टाप के पास रख आता है, जहाँ उसे ले कर जो भी खोलता है वह पाखाना देख कर उल्टी कर देता है. तब रंगीन डिब्बों में बम आदि छोड़ने का काम नहीं शुरु हुआ था, इसलिए यह दृश्य विश्वस्नीय था, आज तो डिब्बा खोलने से पहले ही पुलिस बम विस्फोट टीम के साथ हाज़िर हो जायेगी.

खैर बात मज़ाक या फ़िल्म की नहीं, सचमुच की बीमारी की है.

हमारी आँतों में रहने वाले सूक्ष्म किटाणु विटामिन बनाते हैं, खाना हज़म करने में सहायता करते हैं और शरीर को स्वस्थ रखते हैं. अगर आप को कुछ दिन एँटीबायटिक खाने पड़े तो कई बार दस्त लग जाते हैं, क्योंकि एँटीबायटिक से अक्सर हमारे शरीर के यह किटाणु मर जाते हैं. अधिकतर तो यह दस्त की तकलीफ़ थोड़े से दिन ही रहती है, और धीरे धीरे, आँतों के किटाणुओं का विकास होने के साथ, अपने आप ठीक हो जाती है. लेकिन कभी कभी, अगर एँटीबायटिक से इलाज लम्बा करना पड़े या फ़िर व्यक्ति के शरीर में पहले से अन्य बीमारियों की कमज़ोरी हो, तो एँटीबायटिक की वजह से हुए दस्त जानलेवा भी हो सकते हैं. ऐसे में अक्सर आँतों में नये किटाणु बढ़ने लगते हैं जिनपर ऐटीबायटिक का असर कम पड़ता है और जिन्हें शरीर से हटाना बहुत कठिन होता है. ऐसे एक किटाणु का नाम है क्लोस्ट्रिडियम दिफ़िसिल (Claostridium difficile), जो अगर आँतों में बस जाये तो बहुत से लोगों की जान को खतरा हो जाता है.

अभी तक क्लास्ट्रिडियम दिफ़िसल जैसे किटाणुओं का इलाज़ नये और बहुत शक्तिशाली एँटीबायटिक से है किया जाता है जो मँहगे तो होते हैं पर फ़िर भी अक्सर मरीज़ को बचा नहीं पाते.

इस बीमारी का नया इलाज निकाला केनेडा के कालगरी शहर के अस्पताल में काम करने वाले कुछ चिकित्सकों ने. वह मरीज़ के परिवार वाले किसी व्यक्ति से, जिसे दस्त वगैरा न लगे हों, थोड़ा सा सामान्य पाखाना देने के लिए कहते हैं, जिसे नलकी द्वारा मरीज़ की आँतों के उस हिस्से में छोड़ा जाता है जहाँ यह नये कीटाणु अधिक होते हैं. उन्होंने पाया कि पाखाने में पाये जाने वाले सामान्य किटाणु इन नये किटाणुओं से लड़ने में एँटीबायटिक दवाईयों के मुकाबले में अधिक सफ़ल होते हैं, और कुछ दिनों में ही उनका सफ़ाया कर देते हैं. एक शौध ने दिखाया कि इस तरह परिवार के पाखाने से मिले सामान्य किटाणु मरीज़ के शरीर में 24 सप्ताह तक रह सकते हैं.

वैज्ञानिकों के अनुसार हमारा पाखाना किटाणुओं के चिड़ियाघर की तरह है, जिसमें 25 हज़ार तरह के विभिन्न किटाणु करोड़ों की संख्या में मिल सकते हैं. इनमें से बहुत से किटाणु सिमबायटिक होते हैं, यानी परस्पर फायदा करने वाले, अगर मानव शरीर से कुछ लेते हैं तो साथ ही मानव शरीर का फायदा भी करते हैं, विटामिन बना के, खाने को पचा के या हानिकारक किटाणुओं से लड़ कर. अपनी आँतों में रहने वाली इस किटाणु सम्पदा की रक्षा करने के लिए आवश्यक है हम लोगों को बिना ज़रूरत एँटीबायटिक दवाईयाँ नहीं खानी चाहिये, क्योंकि उनसे शरीर का फ़ायदा करने वाले किटाणु नष्ट हो जाते हैं.

एँटीबायटिक यानि वह दवाईयाँ जो बीमारी फ़ैलाने वाले सूक्ष्म किटाणुओं को मारती हैं, बहुत काम की चीज़ हैं. इनकी वजह से ही आज हम टीबी, कुष्ठ रोग, न्यूमोनिया, एन्सेफलाइटिस, जैसी बीमारियों को काबू में ला सकते हैं और इनकी वजह से लाखों जानें बचती हैं. आम उपयोग में आने वाली एँटीबायटिक हैं पैनिसिलिन, एम्पीसिलिन, जैंटामाइसिन, बेक्ट्रिम, रिफैम्पिसिन, आदि.

लेकिन एँटीबायटिक का असर वायरस यानि सूक्ष्म किटाणुओं से भी अतिसूक्ष्म जीवन कण जो कि आम फ्लू से ले कर एडस जैसी बीमारियाँ करते हैं, पर नहीं पड़ता. वायरस पर काबू पाने के लिए अलग दवाईयों की आवश्यकता होती है. एँटीबायटिक के अधिक गलत उपयोग इसी लिए होते हैं कि लोग फ्लू जैसी बीमारियों के लिए भी एँटिबायटिक ले लेते हैं. फ्लू जैसी बीमारी फ़ैलाने वाले वायरस, बिना एँटीबायटिक के शरीर कुछ दिनों में अपने आप साफ़ कर देता है.

दूसरी आम गलती है कि एक बार एँटीबायटिक का प्रयोग शुरु किया जाये तो कम से कम तीन या पाँच दिन दिन अवश्य लेना चाहिये लेकिन लोग "तबियत अब ठीक हो गयी है" सोच पर, इन्हें पूरा समय नहीं लेते, जिससे बीमारी वाले किटाणु पूरी तरह नहीं मरते और कभी कभी ऐसे किटाणुओं को जन्म देते हैं जिनपर किसी दवाई का असर नहीं होता.

पाखाने से इलाज का सुन कर दवा कम्पनियों ने तुरंत आपत्ति उठायी है कि यह इलाज गैरवैज्ञानिक सबूतों की बिनाह पर किया जा रहा है. इस तरह के इलाज होंगे तो दवा की बिक्री भी कम होगी, इसलिए भी कुछ दवा कम्पिनयाँ चिंता करती हैं. इसलिए इस चिकित्सा विधि पर कई जगह वैज्ञानिक शौध भी किये जा रहे हैं, जैसे कि होलैंड में और प्रारम्भिक परिणाम भी अच्छे लग रहे हैं.

design about excretion donation

यानि वह दिन भी आ सकता है जब अस्पताल में आप का प्रियजन दाखिल हो, तो जैसे रक्तदान के लिए कहते हैं, कभी कभी, डाक्टर आप से थोड़ा सा मलदान कीजिये के लिए भी कह सकते हैं. अक्सर रक्तदान का सुन कर रिश्तेदार भाग उठते हैं, लेकिन मलदान में यह दिक्कत नहीं आनी चाहिये.

आप का क्या विचार है, इस इलाज के बारे में?

***

मंगलवार, फ़रवरी 22, 2011

बात निकलेगी तो ..

तीस पैंतीस साल पहले जगजीत सिंह का एक गीत था जो मुझे बहुत प्रिय था, "बात निकलेगी तो बहुत दूर तलक जायेगी ..". आज अचानक इटली के "फासीवाद" के बारे में छोटी सी बात से एक खोज शुरु की, वह मुझे ऐसे ही जाने कहाँ कहाँ घुमाते हुए बहुत दूर तक ले आयी. दरअसल बात शुरु हुई थी शहीद भगत सिंह से.

मैं पढ़ रहा था शहीद भगत सिंह के दस्तावेज़. लखनऊ की राहुल फाऊँडेशन ने 2006 में, श्री सत्यम द्वारा सम्पादित यह नया संस्करण छापा था जिसमें भगतसिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़ संकलित हैं. दिल्ली के क्नाट प्लेस की एक दुकान में इस किताब के मुख्यपृष्ठ ने मेरा ध्यान आकर्षित किया था जिस पर नवयुवक भगतसिंह हैं और तस्वीर देख कर सोचा था कि भारत में भगतसिंह का नाम जानने वाले तो थोड़े बहुत अब भी मिल जायेंगे, लेकिन उनकी तस्वीर देख कर पहचानने वाले मुश्किल से मिलेंगे. उनका नाम सोचो तो मन में मनोज कुमार या अजय देवगन या बोबी देवल द्वारा अभिनीत भगत सिंह की छवियाँ ही मन में आती हैं.

Book Cover - documents of Bhagat Singh

जेल में लिखी डायरियों में भगत सिंह ने कई बार इटली के स्वतंत्रता युद्ध और देश को जोड़ने वाले व्यक्तियों जैसे कि माजीनी (Mazzini), कावूर (Cavour) और गरीबाल्दी (Garibaldi) का भी नाम लिया था और उनसे प्रेरणा ले कर भारत का स्वतंत्र स्वरूप कैसे हो इस पर सोचा था. इनके अतिरिक्त, वे विभिन्न इतालवी कम्यूनिस्ट विचारक, जैसे कि अंतोनियो ग्रामशी और रोज़ा लक्समबर्ग, के विचारों से भी प्रभावित थे. इस प्रभाव का एक कारण यह भी था कि 1861 में जब इटली एक देश बना था उस समय उसकी हालत कुछ कुछ पराधीन भारत जैसी थी, छोटे छोटे राजों महाराजों में बँटा देश जो आपस में लड़ते मरते और जिन पर अन्य पड़ोसी देश शासन करते थे.

भगत सिंह की बात सोचते हुए मन में इटली के दूसरे प्रभाव का ध्यान आया, फासीवाद के प्रभाव का, जिससे नाता था भारत के एक अन्य स्वतंत्रता सैनामी का, यानि सुभाष चन्द्र बोस. बोस भी भगत सिंह की तरह इतालवी देश एकाकरण के प्रमुख व्यक्ति जैसे माजीनी और गरीबाल्दी से प्रभावित थे, लेकिन साथ ही वह मुसोलीनी के फासीवाद से भी प्रभावित थे. द्वितीय महायुद्ध के दौरान जब वह कलकत्ता में ब्रिटिश सिपाहियों से बच कर भाग निकले थे, काबुल में इतालवी दूतावास ने उन्हें काऊँट ओरलान्दो मात्जो़त्ता के नाम का झूठा इतालवी पासपोर्ट बनवा कर यूरोप में यात्रा करवायी थी. उनकी सहायता के पीछे, मुसोलीनी का भारत प्रेम नहीं था, बल्कि "दुश्मनों का दुश्मन हमारा दोस्त" का विचार था कि बोस की सहायता करके वह अपने और हिटलर के दुश्मन अंग्रेजों के लिए झँझट बढ़वा रहे थे, लेकिन उन दिनों कुछ समय के लिए सुभाष इटली में रहे थे.

मुसोलीनी के फासीवाद से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के निर्माता भी प्रभावित थे और उसी प्रेरणा से उन्होंने अपनी संस्था का निर्माण किया था. क्या अर्थ था फासीवाद का और कहाँ से आया था यह शब्द? फासीवाद को तीसरा मार्ग घोषित किया गया. पहले दो मार्ग थे पूँजीवाद और कम्युनिस्म. फासीवाद राष्ट्रवादी तानीशाही का रास्ता था, जिसमें आज्ञाकारी और अनुशासित प्रजा होना आवश्यक था.

फासीवाद या फाशिस्म शब्द इटली के स्वतंत्रता संग्राम और फ्राँस की क्राँती से ही आया था. इस कथा का प्रारम्भ हुआ 1789 में फ्राँस की गणतंत्र क्राँती से, जिसका नारा था सब लोगों को बराबर अधिकार और स्वतंत्रता. इस क्राँती के 7 वर्ष बाद नेपोलियन की फौज उत्तरी इटली में घुस आयी. उस समय बोलोनिया शहर कैथोलिक धर्म के पोप के साम्राज्य का हिस्सा था और उनका साथ आस्ट्रिया की फौज देती थी. बोलोनिया में आस्ट्रिया की फौज हार गयी, और पोप के निर्युक्त गवर्नर को शहर छोड़ कर भागना पड़ा. उत्तरी इटली में नये गणतंत्र की स्थापना हुई, जिसका नाम रखा गया चिसपादाना और जिसकी राजधानी थी बोलोनिया. फ्राँस की क्राँती के चिन्ह "फाशियो लितोरियो" (Fascio Littorio), यानि रस्सी से बँधी लकड़ियाँ जिनका अर्थ था कि "एकता में शक्ति है", को पोप के नियुक्त गवर्नर के भवन में, पुराने धार्मिक निशान हटा कर, हर तरफ़ बनाया गया. तभी इतालवी झँडे को बनाया गया और उसके तीन रंगों को, लाल सफ़ेद और हरे रंगों को भी भवन में हर तरफ़ बनाया गया. यह गणतंत्र केवल तीन वर्ष चला. फ़िर पोप की सैनायें जीत कर वापस आ गयीं और उन्होंने झँडे के तीन रंगो को ढक दिया. कुछ वर्ष के बाद, नेपोलियन की फौजें फ़िर लौट आयीं, और इस बार पहले से भी बड़ा गणतंत्र बना जिसका नाम रखा गया चिसअल्पाईन और जिसकी राजधानी मिलान बना. फ़िर कभी आस्ट्रिया की मदद से पोप की सैना दोबारा शासन में आती, कभी गणतंत्र वालों का पलड़ा भारी होता. (तस्वीर में बोलोनिया के पुराने गवर्नर के भवन में फाशियो लितोरियो के चिन्ह)

Fascio littorio in Palazzo d'accursio of Bologna

यही दिन थे जब माजीनी, कावूर, गरीबाल्दी जैसे लोगों ने इटली के एकीकरण और स्वतंत्रता का सपना देखना शुरु किया जो 1861 में जा कर पूरा हुआ. इस वर्ष इस एकीकरण की 150वीं वर्षगाँठ मनायी जा रही है. जब मुसोलीनी का समय आया और 1925 में उन्होंने फासीवाद की स्थापना की, तो उनकी प्रेरणा स्वतंत्रता और एकीकरण संग्राम के वही पुराने चिन्ह थे, फाशियो लितोरियो, यानि रस्सी से बँधी लकड़ियाँ, यानि देश की एकता का चिन्ह, उसी फाशियो से फ़ाशिस्तवाद का नाम रखा गया.

यानि बात जहाँ से शुरु हुई थी, घूम कर वहीं वापस आ गयी, और हम सब माजीनी, गरिबाल्दी के साथ जुड़े इतिहास के इन पन्नों को भूल गये, जिन्होंने भगत सिंह और सुभाष चन्द्र बोस को प्रेरणा दी थी.

कभी यूरोप में आने वाले भारतीयों के लिए इटली से हो कर जाना आवश्यक था, क्योंकि सुएज़ कनाल से हो कर आने वाले पानी के जहाज़ दक्षिण इटली के बारी शहर में रुकते थे, फ़िर बारी से बर्लिन, पेरिस और लंदन तक की यात्रा रेलगाड़ी से की जाती थी. महात्मा गाँधी, रविन्द्रनाथ टैगोर, सुभाषचन्द्र बोस, जवाहरलाल नेहरू, राम मनोहर लोहिया, मदन मोहन मालवीय, सरदार पटेल, सब लोग कभी न कभी इटली से गुज़रे थे. (तस्वीर में बारी की बंदरगाह)

Port of Bari, 2008

तब बोलोनिया शहर का रेलवे स्टेश्न उत्तर तथा मध्य इटली को जोड़ता था, अक्सर यहीं पर गाड़ी बदलनी पड़ती थी. शहर में घूमते समय कभी सोचो कि शायद एक बार यहाँ सुभाष बाबू आये थे, कहाँ रुके होंगे? किसके साथ थे, क्या सोचते होगे? तब तो उन्हें यहाँ के लोग नहीं जानते थे, किसने सहारा दिया होगा ऊन्हें? मन करता है कि बीते हुए कल में जाने वाली चिड़िया बन जाऊँ, इस सारे इतिहास को देखने और समझने.

बातों से बातों का सिलसिला जुड़ता जाता है, और मन कभी एक ओर जाता है, कभी दूसरी. बात निकलेगी तो दूर तलक जायेगी ...

शुक्रवार, फ़रवरी 18, 2011

नारी मुक्ति की संत

शरीर की नग्नता में क्या नारी मुक्ति का मार्ग छुपा हो सकता है? कर्णाटक की संत महादेवी ने वस्त्रों का त्याग करके अपने समय के सामाजिक नियमों को तोड़ा था. क्यों?

Akka Mahadevi - Scribbles on Akka
मधुश्री दत्ता की सन् 2000 की डाक्यूमेंटरी फ़िल्म "स्क्रिब्बल्स आन अक्का" (अक्का पर लिखे कुछ शब्द - Scribbles on Akka) देखने का मौका मिला जो बाहरवीं शताब्दी की दक्षिण भारतीय संत अक्का महादेवी की कविताओं के माध्यम से उनके क्राँतिकारी व्यक्तित्व को विभिन्न दृष्टिकोणों से देखने का प्रयास है. फ़िल्म उन असुविधाजनक व्यक्तित्वों के बारे में सोचने पर बाध्य करती है जो समाज के हो कर भी धर्म के नाम पर, समाज के नियमों को तोड़ने का काम करते हैं पर जिनका समाज पर इतना गहरा प्रभाव होता है कि चाह कर भी उनको छुपाया या भुलाया नहीं जा सकता.

महादेवी या अक्का (दीदी) बाहरवीं शताब्दी की वीरशैव धार्मिक आंदोलन का हिस्सा मानी जाती हैं. वीरशैव आंदोलन में वैदिक कर्मकांड, मूर्तिपूजा, जाति भेदभाव, अवतारवाद, अंधश्रद्धा आदि को बाधक ठहराया और अल्लमप्रभु, अक्कमहादेवी, चेन्न-बंसव तथा सिद्धराम जैसे संतों ने जातिरहित, वर्णरहित, वर्गरहित समाज के निर्माण की कोशिश की. इन संतों के लेखन वचन साहित्य के नाम से प्रसिद्ध हुए जो कि गद्य शैली में लिखी कविताएँ हैं.

कणार्टक में शिमोगा के पास के उड़ुथाड़ी गाँव में जन्मी अक्कमहादेवी ने जब सन्यास लिया तो केवल घर परिवार ही नहीं छोड़ा, वस्त्रों का भी त्याग किया और उनके लेखन ने नारी शरीर और नारी यौनता के विषयों को जिस तरह खुल कर छुआ, वह सामान्य नहीं है. जैसे सुश्री लवलीन द्वारा अनुवादित अक्कमहादेवी की इस कविता को देखियेः
वस्त्र उतर जाएँ
गुप्त अंगों पर से तो
लज्जा व्याकुल हो जाते है जन
तू स्वामि जगत का, सर्वव्यापि
एक कण भी नहीं , जहाँ तू नहीं
फिर लज्जा किस से?
चेनामल्लिक अर्जुना देखे जग को
बन स्वयं नेत्र
फिर कैसे कोई ढके,
छिपाए अपने को?
(डा. रति सक्सेना द्वारा सम्पादित वेबपत्रिका "कृत्या" से )

मधुश्री दत्ता की डाक्युमेंटरी में आज की आधुनिक व्यवस्था में अक्का महादेवी किस रूप में जीवित हैं, इसको विभिन्न दृष्टिकोणों से देखने की चेष्ठा है. गाँव में गणदेवी की तरह, औरतों के कोपोरेटिव में, जहाँ उनके नाम से पापड़ और अचार बनते हैं, काम करने वाली औरतों की दृष्टि में, म़ंदिर के पुजारी और धर्म ज्ञान की विवेचना करने वाले शास्त्री की दृष्टि में, फेमिनिस्ट लेखन और चित्रकला में, महादेवी विभिन्न रूपों में दिखती हैं. इन विभिन्न रूपों में सामान्य जन में उनका रूप उनके व्यक्तित्व को धर्म मिथिकों में छुपा कर, मन्दिर में पूजने वाली देवी बना देता है, जिसमें उनके वचनों की क्राँति को ढक दिया जाता है. लेकिन फ़िल्म में उनकी एक भक्त का साक्षात्कार भी है जिसने गाँव में अक्का महादेवी के मंदिर के आसपास भक्तों के लिए सुविधाएँ बनवायी हैं और जो महादेवी के असुविधाजनक संदेश को छुपाने के प्रयास पर हँसती है.

Akka Mahadevi - Scribbles on Akka

फ़िल्म में महादेवी के कुछ वचनों को गीतों के रूप में प्रस्तुत किया गया है जिन्हें सुश्री सीमा बिस्वास पर विभिन्न परिवेशों में फ़िल्माया गया है, जिनमें एक परिवेश है एक ईसाई गिरजाघर में एक स्त्री द्वारा नन बनने की रीति, यानि महादेवी की बात को एक धर्म की सीमित दायरे से निकाल कर इन्सान के मन में ईश्वर से मिलने की ईच्छा के रूप में देखने की चेष्ठा.

Akka Mahadevi - Scribbles on Akka

फ़िल्म को देख कर मानुषी में पढ़े मधु किश्वर के एक पुराने आलेख की याद आ गयी जिसमें बात थी किस तरह गाँव में रहने वाली औरतें सीता मैया के पाराम्परिक गीतों के माध्यम से नारी मुक्ति की बात उठाती हैं. परम्परागत समाज में जहाँ नारी चारों ओर से नियमों में बँधी हो जिनमें उसकी अपनी इच्छाओं आकाँक्षाओं के लिए जगह न हो, वहाँ महादेवी जैसी नारी के विचारों को धर्म स्वीकृति मिलना थोड़ी सी जगह बना सकता है जहाँ सामाजिक नियमों की परिधि से बाहर जाने की अभिलाषा की अभिव्यक्ति हो सकती है.

महादेवी का व्यक्तित्व शारीरिक नग्नता को केवल लज्जा का कारण सोचने पर भी प्रश्न उठाता है. फ़िल्म में कुछ चित्रकार अक्का महादेवी के नग्न शरीर को ईश्वर का प्रतिरूप देखते हैं, तो कुछ इसमें नारी मुक्ति की चिंगारी. परम्परागत समाज को चुनौती देती महादेवी की छवि की जटिलता को ब्राह्मण विद्वान भी स्वीकारते हैं और आम व्यक्ति भी.

Akka Mahadevi - Scribbles on Akka

मेरी दृष्टि में फ़िल्म का अंतिम संदेश यही है कि भारत के विभिन्न हिस्सों में धर्म के संदेश को अलग अलग दृष्टिकोणों से देखा और समझा गया है. यही अनेकरूप विभिन्नता ही हिंदू धर्म की शक्ति रही है. इस जटिलता को सहेजना आज के भूमण्डलिकरण से जकड़े संसार में परम आवश्यक है, जहाँ सामाजिक जटिलताओं का सरलीकरण एवं ऐकाकीकरण करने की लालसाएँ बढ़ती जा रही हैं.

***

रविवार, फ़रवरी 06, 2011

प्रेम निवेदन

हिन्दी फ़िल्मों के गानों में हमारे जीवन के सभी सुखों दुखों का हाल छिपा है. चाहे कोई भी मौका हो, मुंडन से ले कर मैंहदी तक, करवाचौथ से ले कर क्रियाकर्म तक, खाना बनाते समय सब्ज़ी जल गयी हो या काम पर जाते समय बस छूट गयी हो, प्रेयसी मिलने आये या दगा दे जाये, पापा गुस्सा हों या माँ ने मन पसंद खीर बनायी हो, कुछ भी मौका हो, बस उसका गीत मन में अपने आप आ जाता है. और चाहे उसे गायें या न गायें, मन में अपने आप ही गूँज जाता है. क्या आप को भी लगता है कि बिना इन गानों के जीवन का रस कुछ कम हो जायेगा?

और क्या आप के साथ कभी ऐसा हुआ है कि अचानक कोई गीत सुनते सुनते, अपने जीवन की वह बात समझ में आ जाती है जिस पर कभी ठीक से नहीं सोचा था? मेरे साथ यह अक्सर होता है.

अगले वर्ष मेरे विवाह को तीस साल हो जायेंगे. काम के लिए अक्सर देश विदेश घूमता भटकता रहता हूँ. इन्हीं यात्राओं से जुड़ी एक बात थी, जो अचानक "तनु वेड्स मनु" का एक गाना सुनते समय समझ आ गयी.

गाना के बोल लिखे हैं राजशेखर ने और गाया है मोहित चौहान ने . गाने के बोल हैं -
कितने दफ़े मुझको लगा
तेरे साथ उड़ते हुए
आसमानी दुकानो से ढूँढ़ के
पिघला दूँ यह चाँद मैं
तुम्हारे इन कानों में पहना ही दूँ
बूँदे बना
फ़िर यह मैं सोच लूँ समझेगी तू
जो मैं न कह सका
पर डरता हूँ कहीं
न यह तू पूछे कहीं
क्यों लाये हो ये यूँ ही
गाना सुना तो लगा कि वाह गीतकार ने सचमुच मेरे मन की बात को कैसे पकड़ लिया.

Design by sunil deepak

देश विदेश में घूमते समय कई बार कुछ दिख जाता है जो लगता है कि बहुत सुन्दर लगेगा मेरी पत्नि पर. पर साथ में मन में यह भी भाव होता है कि शायद वह बिना कहे ही समझ जायेगी वह बात जो कह नहीं पाता हूँ. पर अक्सर होता है कि वह मेरी भेंट देख कर नाक सिकोड़ लेती है, "यह क्या ले आये? बिल्कुल ऐसा ही तो पहले भी था." या फ़िर, "क्यों बेकार में पैसे खर्च करते हो, तुम्हे मालूम है कि मैं इस तरह की चीज़ें नहीं पहनती."

और मन छोटा सा हो जाता है. सोचता हूँ, यूँ ही बेकार खरीद लिया. आगे से नहीं खरीदूँगा. पर अगली यात्रा में फ़िर भूल जाता हूँ. प्रेम निवेदन कैसे हो? यह नहीं होता, शायद उम्र का दोष है. आजकल के जोड़े तो आपस में "लव" या "माई लव" करके बोलते हैं, पर मुझसे इस तरह नहीं बोला जाता.

हर बार आशा रहती है कि वह मेरे मन की बात को बिना कहे ही समझ जाये. कभी लगता है कि वह मेरे मन की बात को समझती ही है, उसमें भेंट लाने या न लाने से कुछ नहीं होता?

***

शनिवार, फ़रवरी 05, 2011

गालिब खड़े बाज़ार में

अमरीकी विश्वविद्यालय की प्राध्यापिका और कवयत्री रीटा डोव का  डिजिटल युग की कविता के बारे में वीडियो देख रहा था. इस तरह के वीडियो देखना मुझे बहुत अच्छा लगता है. अपने मन पसंद विषयों पर कवियों, विचारकों, वैज्ञानिकों, लेखकों, दर्शकों, इतिहासकारों आदि को सुनना, जब जी करे तब. बिना यह चिन्ता करे कि कितने बजे टीवी या रेडियो पर आयेगा, अपनी मर्ज़ी से जब जी चाहे देखो और जितनी बार चाहे देखो कि अब ऐसी आदत पड़ी है कि सामान्य टीवी बहुत कम देखता हूँ.

बिग थिंक, टेड, 99 प्रतिशत, पोपटेक, जेल वीडियो कोनफ्रैंस, रिसर्च चैनल, वीडियो लेक्चर, जाने कितनी जगहें हैं जहाँ पर जानने समझने के लिए खजाने भरे हैं, और कोई फीस या घर से बाहर जाने की भी आवश्यकता नहीं. जब हम स्कूल जाते थे तो किसी विषय पर कुछ जानने समझने के लिए बस स्कूल की किताबें ही थीं. एनसाईक्लोपीडिया या फ़िर विषेश किताबें कभी पुस्कालय में पढ़ने को मिल जाती, पर यह कभी कभी ही होता. आज आप सरकारी स्कूल में हों या कानवैंट में, विश्वविद्यालय में हों या मेरे जैसे घर में बैठ कर दिलचस्पी रखने वाले, कोई भी विषय हो, दुनिया के जाने माने विशेषज्ञ उसके बारे में क्या कहते हैं, हार्वर्ड, कैमब्रिज या मिट जैसे जगतविख्यात विश्वविद्यालयों के प्रोफेसर क्या पढ़ाते हैं, जाने माने डाक्यूमैंट्री बनाने वालों ने उस पर क्या फ़िल्म बनायी है, सब कुछ देखना सुनना  आसान. बस इंटरनेट चाहिये. चाहे अभी भी अधिकाँश स्कूल पाठ्यक्रम में रखी किताबों के रट्टे ही लगवायें, पर भविष्य में ज्ञान जाँचने के तरीके अवश्य बदलने पड़ेंगे.

कवयत्री रीटा डोव कहती हैं कि साहित्य की सभी विधाओं में से कविता आज के डिजिटल युग के सबसे उपयुक्त है, क्योंकि आज कल लोगों का ध्यान किसी बात पर थोड़ी सी देर के लिए ही जुड़ता है. कविता को ट्विटर के माध्यम से आसानी से बाँटा जा सकता है, दुनिया में कहीं भी पलों में पहुँचा सकते हैं, जो डिजिटल युग में कविता के बहुत उपयोगी है. आज जिस तरह से इंटरनेट पर वीडियो देखना आसान हो गया है, इससे यह भी आवश्यक नहीं कि आप कविता को पढ़ें, बल्कि आप कविता को उसके कवि के मुख से भी सुन सकते हैं. सुश्री डोव की बातें मुझे बहुत दिलचस्प लगीं, अगर आप चाहें तो उनकी पूरी बात को सुन सकते हैं.

रीटा डोव का वीडियो देखने के बाद सोच रहा था कि समय के साथ कविता कैसे बदली. उस समय जब किताबें नहीं थीं, प्रिटिंग प्रेस का आविष्कार नहीं हुआ था, तब कविता केवल बोलने और गाने के माध्यम से ही जानी जा सकती थी. गाँवों में घूमने वाले कविता कहानियाँ गाने वाले पारम्परिक कलाकार उन्हें कँठस्थ याद करते थे, इसलिए कविता और कथा का विषेश तरह से विकास हुआ जिसमें याद करने और गाने में आसानी हो. शायद इसी तरह गज़ल और शेरों का भी प्रचलन हुआ क्योंकि उनमें शब्दों का दोहराव और धुन, बोल कर या गा कर सुनाने के लिए ही बने थे.

फ़िर समय आया छपाई की प्रेस का और किताबों का. एक दशक पहले तक छपाई की तकनीक आसान नहीं थी और कुछ छपवाने में पैसा भी लगता था. तभी किताब छापना, बेचना, जैसे व्यव्साय बने, किताबें छापने वाले बने.

आज की दुनिया में लिखने पढ़ने की नयी क्राँती आ रही है. इंटरनेट, ईमेल, फेसबुक जैसे माध्यमों ने कविता, कहानी और उपन्यास, लिखना, पढ़ना, बाँटना, सबको बदल दिया है. लेखकों का गणतंत्र है, हर कोई चिट्ठा बना ले, जो मन में आये लिख ले. अगले ही क्षण, चाहे तो आप पढ़िये, उस पर टिप्पणी लिखिये, उसकी आलोचना कीजिये या प्रशँसा.

पर इतनी भीड़ में अच्छे लेखक और कवि कहीं खो तो नहीं जायेंगे? सचमुच सब अच्छे कवि लेखक, क्या इंटरनेट और फैसबुक से अपने पढ़नेवालों तक पहुँच पायेंगे? यानि अगर आज गालिब या महादेवी वर्मा लिखना शुरु करते, अपना चिट्ठा बनाते, फैसबुक पर पन्ना बनाते, तो क्या सचमुच गालिब और महादेवी वर्मा जैसा बन पाते? और आज के गालिब या महादेवी वर्मा को अगर न चिट्ठा लिखने में दिलचस्पी हो, न उनका कोई फैसबुक पर पन्ना हो, तो क्या आज वह गालिब और महादेवी वर्मा बन पायेंगे?

Ghalib Mahadevi Varma, collage

फैसबुक पर मिर्ज़ा गालिब के पन्ने के चालिस हज़ार से अधिक फैन हैं, जबकि महादेवी वर्मा के पन्ने को केवल छः सौ लोग चाहते हैं.

पर जिन्हें इन माध्यमों से खुद को बेचना आता है, जिन्हें अड़ोसियों पड़ोसियों को बेझिझक संदेश भेज कर अपनी प्रशँसा करना करवाना आता है, जिन्हें प्रतियोगिताओं में अपने लिए वोट माँगना आता है, उनके पीछे तो लाखों जाते हैं, उनके सामने क्या भविष्य के गालिब जी या महादेवी जी टिक पायेंगे? और अगर आप शर्मीलें हैं, खुद को बेझिझक बेच नहीं सकते तो क्या आप का लेखन घटिया माना जाये?

अगर गालिब या महादेवी आज ज़िन्दा होते तो क्या उन्हें अपनी कला को समझने वाले मिलते? आप का क्या विचार है?

***

गुरुवार, फ़रवरी 03, 2011

फुरसत के रात दिन

कुछ दिन पहले पंडित भीमसेन जोशी के देहावसान का समाचार पढ़ा तो 1975-76 के वो दिन याद आ गये जब उन्हें पहली बार सुना था. पहले तो परम्परागत शास्त्रीय संगीत में बिल्कुल दिलचस्पी नहीं थी, लगता था कि बस "आ आ" करते रहते हैं जिसमें मुझे कोई रस नहीं मिलता था. तब छोटी बुआ दिल्ली के जानकीदेवी महाविद्यालय में पढ़ाती थीं और महाविद्यालय परिसर के अन्दर ही हँसध्वनि के घरों में रहती थीं. मेरा खाली समय अक्सर वहीं गुज़रता था. दीदी या भाँजे के साथ बड़े मैदान में घूमते घूमते, बाते चुकती ही नहीं थीं.

जानकी देवी में नहीं होता था तो शंकर रोड पर मित्रों के साथ होता. कालिज से घर आ कर, एक बार मित्रों के साथ घूमने और गप्प मारने के लिए निकलता तो रात को देर तक घर वापस नहीं लौटता था. तब सब मित्रों के नाम, काका, मुन्ना, शिशु, नानी, पप्पू, आदि, सभी छोटे बच्चों को प्यार से पुकारने वाले नाम ही थे.

वहीं जानकी देवी में हँसध्वनि वाले घर में ही पहली बार शास्त्रीय संगीत की सुंदरता मन में समझ आयी थी जब पहली बार फ़ूफ़ा ने कुमार गंधर्व का निरगुणी भजनों वाला रिकार्ड सुनवाया था.
उड़ जायेगा, उड़ जायेगा
हँस अकेला
जग दर्शन का मेला
एक बार मन को शास्त्रीय संगीत का रस चखने का स्वाद लगा तो फ़िर तो लत ही पड़ गयी. उन्हीं दिनों में शाम को जानकी देवी महाविद्यालय वालों की तरफ़ से, छात्राओं की शास्त्रीय संगीत से पहचान कराने के लिए जाने माने गायकों और संगीतकारों को बुलाया जाने लगा. तब कुमार गँधर्व को सुना, पंडित भीमसेन जोशी को सुना, पंडित जसराज को सुना. कालेज के रंगमँच पर जब वह गाने की तैयारी करते तो हम बच्चे लोग वहीं आसपास घूमते, वैसे भी सुनने वालों की बहुत भीड़ नहीं होती थी, बस पचास सौ लोग जमा हो जाते थे. तो उन्हें सुनने के साथ साथ, व्यक्ति को भी करीब से देखने का मौका मिलता था.

अब पैंतीस साल बाद, शास्त्रीय संगीत को सुने ज़माना बीत गया. कुछ वर्ष पहले सुश्री अश्विनी भिड़े देशपाँडे और श्री उदय भवालकर जब बोलोनिया आये थे, तभी अखिरी बार ठीक से बैठ कर उन्हें सुना था. भारत से कोई गायक आये तो उसे सुनने जाना और बैठ कर ठीक से सुनना तो हो जाता है, लेकिन आम दिनों में अब नहीं सुना जाता, शायद क्योंकि अब ध्यान को एक जगह या एक बात पर रोकने की आदत कम होती जा रही है. इस लिए नयी फ़िल्म का गाना हो या भीमसेन जोशी का भजन, कुछ अन्य काम करते हुए साथ साथ सुनते रहो, यह तो होता है लेकिन ध्यान से बैठ कर पाँच दस मिनट से अधिक कुछ सुनना पड़े तो मन अधीर हो जाता है.

फेसबुक पर 700 से अधिक मित्र हैं. क्या नाम हैं, कौन क्या करता है, कहाँ रहता है, इस सब से कुछ मतलब नहीं. कभी किसी की लिखी किसी बात पर नज़र पड़ी तो "लाइक" का बटन दबा दिया, या फ़िर बहुत अच्छा लगा तो कुछ लिख भी दिया, दो मिनट बाद ही याद नहीं रहता कि किसको क्या लिखा था. मित्र सुख दुख के नहीं, नलके की टूटी हैं, जब दिल किया खोल कर एक घूँट पिया, नहीं किया तो टूटी बंद रखी. लगे कि अधिक बातें करके मित्र हमारा समय बरबाद कर रहे हैं तो कहा कि हम व्यस्त हैं और गूगल चेट को बंद कर दिया. दो मिनट कोई वीडियो देखा, विषेश आनन्द नहीं मिला तो बन्द किया और कुछ अन्य पन्ना खोल लिया.

तो ऐसे में लम्बी तान ले कर राग शुरु होगा, तो कैसे चलेगा? इसे तो धीमे स्वर में वातावरण बनाने के लिए चलाईये, बस पृष्ठभूमि हल्की सी आवाज़ आये. आवाज़ तेज़ होगी तो परेशानी होगी, जिससे काम ठीक से नहीं होता.

हाँ भूपेन्द्र का गाना आये कि "दिल ढूँढ़ता है फ़िर वही फुरसत के रात दिन", तो एक पल के लिए मन भावुक हो जाता है. कितने अच्छे दिन थे! कैसा लगा था जब पहली बार प्रभा अत्रे को सुना था, या जब पहली बार किशोरी आमोनकर का "म्हारो प्रणाम" सुना था. फ़िर कुछ क्षणों में मन किसी और बात में लग जाता है.

बस मस्त रहिये जी, अधिक सोचा नहीं करते, यही ब्रह्ममंत्र है आज का. बहुत भावुकता आ रही हो तो फेसबुक पर लिख दीजिये, "आज हम उदास हैं", आप के दसियों मित्र आप का "लाईक" का बटन दबा कर, या कुछ लिख कर, उदासी को भगा देंगे.

***

शुक्रवार, जनवरी 28, 2011

भाषाओं के चक्रव्यूह

लूका का ईमेल आया कि वह भाषाओं पर शौध कर रहा है और मुझ से हिन्दी के बारे में बात करना चाहेगा, और साथ में कहा कि मेरा नाम उसे बोलोनिया विश्वविद्यालय में काम करने वाली मेरी एक पुरानी मित्र से मिला था, तो मैंने अधिक सोचा नहीं, हाँ कर दी.

आज सुबह उसके साथ चार घँटे गुज़ारे तो समझ में आया कि हम जिस भाषा को अपनी सोचते और कहते हैं, उसके कई पक्षों को ठीक से नहीं समझते और जानते. लूका हालैंड के उट्रेख्ट विश्वविद्यालय में शौध कर रहा है जहाँ दुनिया भर की भाषाओं को परखा जा रहा है. इस शौध में लूका को कुछ भारतीय भाषाओं के बारे में जानकारी जमा करने की ज़िम्मेदारी मिली है, जिनमें हिन्दी, पँजाबी, बँगला, तमिल, तेलगू और मलयालम भी हैं.

Luca Ducceschi, Italian researcher on Indian languages

पहले ही वाक्य का हिन्दी अनुवाद करते हुए मैं रुक गया. "I wash" का क्या अनुवाद करता? मैंने पूछा कि यह तो बताना पड़ेगा कि क्या धोना है, हाथ, मुँह या कपड़े, इसको जाने बिना इस वाक्य का हिन्दी अनुवाद नहीं हो सकता. लूका बोला, धोना नहीं, अंग्रेज़ी में तो इसका अर्थ हुआ कि मैंने नहाया. मैंने कहा कि शायद लंदन में पानी की कमी नहीं, उनके लिए नहाने और धोने में फ़र्क न हो, पर भारत में तो हम इसका अर्थ हाथ मुँह धोने के लिए करेंगे, या फ़िर कपड़े या प्लेट धोने के लिए करेंगे, जबकि अगर नहाना हो तो उसे "I take bath" कहना चाहिये!

"उसे" और "उससे" में क्या अंतर है, क्या आप ने कभी सोचा है? "मैंने उसे कहा" और "मैंने उससे कहा" में कौन सा वाक्य सही है? मेरा कहना था कि "उससे" अधिक ठीक है, पर लूका की हिन्दी व्याकरण की किताब में "उसे" और "उससे" का अंतर नहीं समझाया गया था. मैं यह तो माना कि इस वाक्य में उसे या उससे कुछ भी प्रयोग किया जा सकता है, लेकिन उसके बाद, एक और प्रश्न पर मैं फ़िर अटक गया.

मैं बोला कि "मैंने उसे किताब दी" में तो केवल "उसे" का ही प्रयोग हो सकता है, और "मैंने उससे प्रश्न पूछा" में केवल "उससे" का ही प्रयोग होना चाहिये. तो लूका ने पूछा कि इसका नियम समझाओ, किस स्थिति में उसे का प्रयोग होना चाहिये, और किस स्थिति में उससे का? जितना अलग अलग वाक्यों के बारे में सोचता, उतना ही नियम स्पष्ट समझ नहीं आते. थोड़ी देर में लगने लगा कि उसके शौध में सहायता के लिए हाँ कह कर मैंने बेमतलब ही परेशानी अपने सिर पर ले ली थी.

अगले हिस्से के अनुवाद में तो और भी झँझट हुई. जिस वाक्य का अनुवाद करना था, वह था, "This woman (Mary) told that she (Mary) will win the race". मैंने अनुवाद किया, "इस औरत ने बताया कि वह दौड़ जीतेगी." लूका का कहना था कि जब "इस" की बात हो रही है तो इस वाक्य के दूसरे हिस्से में, "वह" की जगह "यह" का प्रयोग होना चाहिये. इस तरह के कितने ही वाक्यों पर बार बार अटकते रहे. मैं कुछ कहता और वह कहता कि यह बात अन्य भाषाओं से मेल नहीं खाती, अवश्य कुछ गलती होगी.

"This woman is in danger. She needs help." इसका मेरा अनुवाद था, "यह औरत खतरे में है. इसे मदद चाहिये." तो लूका बोला कि जब तुम पहले वाक्य में "वह" का प्रयोग करते हो, तो इस वाक्य में, "इसे" की जगह, "उसे" होना चाहिये. आखिर तंग आ कर मैं बोला कि मुझे बोलना आता है, हर बात के नियम और ऐसा क्यों होता है और वैसा क्यों नहीं होता, इसके उत्तर मैं नहीं दे सकता.

जो मैं कह रहा था, उसे लिखा कैसे जाये इस पर भी बहस हुई. जब "लड़की" लिखना था तो मैंने कहा कि "ladki" लिखो या "larki", क्योंकि अंग्रेज़ी में "ड़" की ध्वनि नहीं होती, तो वह बोला, पर हिन्दी को रोमन वर्णमाला में लिखने का नियम क्या है? मैंने कहा कि कोई नियम नहीं, जिसके जो मन में आये वह लिख लो. वह बोला कि जब तुम लोग ईमेल या एसएमएस में एक दूसरे को रोमन वर्णों में लिखते हो, तो बिना नियम के कैसे लिखते हो, और जिन हिन्दी शब्दों की ध्वनि अंग्रेज़ी में नहीं होती उसके लिखने के लिए जिससे किसी को कोई कन्फ़यूजन न हो, भारत सरकार ने कोई नियम क्यों बनाये, तो मुझे समझ नहीं आया कि क्या कहूँ. भारत सरकार को हिन्दी के शब्दों को अंग्रेज़ी में कैसे लिखा जाये इससे अधिक अन्य महत्वपूर्ण काम करने होते होगे, मुझे नहीं लगता कि कोई इस पर नियम बना सकता है.

खैर जब काम समाप्त हुआ तो लगा मानो किसी चक्रव्यूह से निकल कर आया हूँ. पर बाद में सोच रहा था कि विभिन्न भाषाओं के बीच में काम करना कितना कठिन है. जब हम नयी भाषा सीखते हैं तो छोटे छोटे नियमों को सीखना तो आ जाता है, लेकिन जो भाषा बोलने से बनती है, जिसमें किस तरह कहा जाये यह नियम से अधिक आदत पर निर्भर होता है, तो वह किताबों से नहीं मिलता. सबसे अधिक बात जो मन को चु।भ रही थी वह थी कि जिसे मातृभाषा कहते हैं, उसके बारे में कितना कुछ नहीं जानते!

***

शुक्रवार, जनवरी 21, 2011

अलेसान्द्रा का प्रश्न

बोलोनिया में रहने वाली मेरी जान पहचान की अलेस्साँद्रा की कहानी आज कल हर दिन किसी न किसी अखबार पत्रिका या टीवी पर दिखायी जा रही है. अलेस्साँद्रा कहती है, "मेरा बस चलता तो मैं यह बात इस तरह से नहीं उठाती, लेकिन बात मेरे मानव अधिकारों की है और मैं पीछे नहीं हटूँगी."

हुआ यह कि अलेस्साँद्रा ने नगरपालिका दफ़्तर में अर्ज़ी दी अपना नया व्यक्तिगत पहचानपत्र यानि आई कार्ड बनाने की. नगरपालिका वालों ने कहा कि हम आप को आई कार्ड में विवाहित नहीं लिख सकते, आप को तलाक लेना पड़ेगा, आप का विवाह हमारे देश के कानून के हिसाब से गलत है.

Alessandra Bernaroli, Bologna, Italy

अलेस्साँद्रा कहती है, "क्या जबरदस्ती है, मैं क्यों तलाक लूँ? मैंने चर्च में भगवान के सामने शादी की है, फ़िर कोर्ट में सिविल विवाह किया है. हमने सुख दुख में साथ निभाने की कसम खायी है, जब हम दोनो खुश हैं तो हम क्यों तलाक लें, हम तलाक नहीं लेंगे."

इस कहानी को समझने के लिए हमें घड़ी की सूई को पीछे ले जाना पड़ेगा. 39 वर्ष पहले जब अलेस्साँद्रा पैदा हुई थी तो उसका नाम अलेस्साँद्रो रखा गया था. पर बचपन से ही अलेस्साँद्रो को समझ आ गया कि कुछ गलत था, उसका शरीर तो पुरुष का था लेकिन वह भीतर से स्वयं को स्त्री महसूस करता था. साथ ही उसे यह भी समझ आया कि समाज में इस तरह के लोगों को पूरी तरह से स्वीकार नहीं किया जाता, उनकी हँसी उड़ाई जाती है, शर्मनाम समझते हैं. इसलिए इस बात को उसने स्वयं से ठीक से नहीं स्वीकारा, बल्कि वर्ज़िश करना, पहलवानों वाला शरीर बनाना जैसे शौक पाल लिए. उसके माता पिता, दोनो अध्यापक हैं, लेकिन कुछ पुराने विचारों के थे और चूँकि कैथोलिक चर्च इस बात को ठीक नहीं मानता, तो उसने अपने भीतर की इस इच्छा को दबा और भुला दिया.

जब विश्वविद्यालय में पढ़ने गया तो वहाँ अलेस्साँद्रो की मुलाकात अपनी होने वाली पत्नी से हुई. जल्दी ही दोनो में प्यार हो गया, और दस वर्ष तक यह प्यार चला, फ़िर 2005 में दोनो ने वहले चर्च में विवाह किया फ़िर कोर्ट में सिविल विवाह भी किया. विवाह के कुछ समय बाद, उसमें इतनी हिम्मत आयी कि अपनी भावनाओं और इच्छाओं को इमानदारी से समझ सके, अपने आप को स्वीकार कर सके. उसने इस बात को अपनी पत्नी से बताया कि वह सेक्स बदल कर नारी बनना चाहता था.

"मेरी पत्नी बहुत हिम्मतवाली है, पर शर्माती है, इसलिए वह प्रेसवालों से कुछ नहीं कहना चाहती या मिलना चाहती. शुरु में उसे धक्का लगा, लेकिन फ़िर वह समझ गयी कि मैं जैसा भी हूँ मैं ही हूँ. तब से उसने हमेशा मेरा साथ दिया है, मेरे हर निर्णय को समझा है. मैंने अपने माता पिता से भी यह बात की, उन्हें भी धक्का लगा लेकिन फ़िर भी समय के साथ उन्होंने मुझे समझा, और मैंने लिंग बदलाव का रास्ता अपनाया."

लिंग बदलाव आसान नहीं. 2007 से ले कर अलेस्साँद्रा के 13 ओप्रेशन हुए हैं. अमरीका में जा कर गले का ओप्रेशन कराया जिससे आवाज़ औरत जैसे हुई. यौन हिस्से का ओप्रेशन थाईलैंड में हुआ. चेहरे के निचले भाग का भी एक नाज़ुक ओप्रेशन हो चुका है.

अलेस्साँद्रा कहती है, "शरीर का बाहरी बदलाव, यौन सम्बन्धों में बदलाव, यह सब आवश्यक हैं, लेकिन इन सबके साथ, एक बदलाव अपने अंदर भी है, जो आसान नहीं. आप किस तरह से दूसरों से बात करते हो, किस भाषा का प्रयोग करते हो, लोग आप से किस तरह बात करते हैं, जब पुरुष था तो यह भिन्न तरीके से होता था, अब नारी हो कर भिन्न होता है. पुरुष नारी से किस तरह मिलता बात करता है, और नारी पुरुष से किस तरह मिलती बात करती है, यह दोनो बातें भिन्न है, और मैंने समझी हैं. इनसे अलग मैंरे जीवन का एक हिस्सा है जो मैंने नारी और पुरुष दोनो की दृष्टि से देखा है. यह सब बातें बहुत जटिल हैं और कम शब्दों में नहीं समझायी जा सकती. इस विषय पर मेरे पास बहुत कुछ है कहने सुनाने को, मेरे मन में इस विषय पर किताब लिखने की इच्छा है."

Alessandra Bernaroli, Bologna, Italy

नर शरीर के साथ पैदा होना और अंदर से स्वयं को नारी महसूस करना या फ़िर, नारी शरीर के साथ पैदा होना पर भीतर से खुद को नर महसूस करना, इसे ट्राँसजेंडर कहा जाता है. अक्सर नर शरीर के साथ पैदा हुए हों पर भीतर से खुद को नारी महसूस करने वाले लोगों का यौन आकर्षण अन्य पुरुषों की ओर होता है, इसलिए अक्सर वह समलैंगिग माने जाते हैं, लेकिन अलेस्साँद्रो को प्यार हुआ एक लड़की से. पाँच साल पहले, दोनो ने चर्च में विधिवत विवाह किया. उस समय किसी ने उँगली नहीं उठायी क्योंकि उस समय अलेस्साँद्रो पुरुष थे और स्त्री से विवाह कर रहे थे. "शरीर की बाहरी और भीतरी यौन पहचान में अन्तर होना एक बात है, नर या नारी के लिए यौन आकार्षण महसूस करना अलग बात है", अलेस्साँद्रा समझाती है.

इटली में अधिकतर लोग कैथोलिक ईसाई हैं. इस धर्म में तलाक को आसानी से नहीं स्वीकारा जाता. साथ ही कैथोलिक चर्च समलैंगिकता के भी विरुद्ध है और समलैंगिक विवाहों को नहीं स्वीकारता. इन्हीं दो बातों से अलेस्साँद्रा का धर्मसंकट का प्रश्न उठा, क्योंकि उन्होंने बैंकाक जा कर पुरुष से नारी बनने की शल्यक्रिया करवाने के बाद, इतालवी कानून के हिसाब से कोर्ट में अर्ज़ी दी कि उन्हें लिंग बदलने की अनुमति दी जाये. कोर्ट ने उनकी यह बात स्वीकार की और इस तरह अलेस्साँद्रो कानूनी तौर से भी, अलेस्साँद्रा बन गये. लेकिन अलेस्साँद्रा के बारे में चर्च के लोगों ने नगरपालिका द्वारा उनके तलाक की जबरदस्ती करने का विरोध किया है, वह कहते हैं कि पुरुष रूप में अलेस्साँद्रो ने अपनी पत्नी से विधिवत विवाह किया था, हमारी नज़र में कुछ नहीं बदला है, यह दोनो पति पत्नि हैं.

इतालवी कानून जहाँ एक और समलैंगिक विवाह की अनुमति नहीं देता, दूसरी और ट्राँसजेंडर विषय में प्रगतिशील है, इसे एक बीमारी की तरह देखता है, उनके इलाज की सुविधा और लोगों को कानूनी लिंग बदलने की अनुमति देता है. अलेस्साँद्रा को क्या सलाह दी जाये, इस पर पुराने विचारों वाले लोग भी कुछ परेशान हैं, उन्हें भी कुछ समझ नहीं आता. अगर कहें कि उनका विवाह नहीं माना जा सकता क्योंकि वह दो औरतों का विवाह है, तो इसका यह अर्थ हुआ कि पति या पत्नी की बीमारी के नाम पर तलाक को स्वीकृति दी जा रही है. और अगर उन्हें तलाक के लिए मजबूर न करें तो समलैंगिक विवाह को स्वीकृति मिलती है.

अलेसान्द्रा ने मुझसे भारत में रहने वाले हिँजड़ों की स्थिति के बारे में पूछा. मुझे इस विषय में विषेश जानकारी नहीं थी, लेकिन मैंने उसे बताया कि इस वर्ष जनगणना में पहली बार भारत में ट्राँसजेन्डर लोगों को गिना जा रहा है, और उनके लिए पुरुष, स्त्री से अलग श्रेणी बनायी गयी है. अलेसान्द्रा बोली, "मुझे भारत के ट्राँसजेन्डर लोगों के बारे में मालूम नहीं इस लिए नहीं कह सकती कि यह सही है या गलत, लेकिन मैं नहीं मानती कि हमारे लिए एक अलग श्रेणी बनायी जाये. मैं अपने आप को पूर्ण रूप से स्त्री मानती हूँ और चाहती हूँ कि कानून मुझे नारी माने."

अलेस्साँद्रा कहती है, "हमारा समाज भिन्नता से डरता है, उसे स्वीकार नहीं करता. लेकिन मैं तलाक नहीं लूँगी. जब हम दोनो साथ खुश हैं तो हमें क्यों अलग किया जा रहा है? बात केवल आई कार्ड की नहीं, टेक्स, प्रापर्टी, सब की बी है, अगर नगरपालिका हमें पति पत्नी नहीं मानेगी तो वह सब झँझट खड़े हो जायेंगे. यह मेरे मानव अधिकारों की बात है, मैं लड़ूँगी."

आप का क्या विचार है, अलेसान्द्रा के प्रश्न के बारे में?

***
अलेसान्द्रा अलेसान्द्रा इटली के बड़े बैंक में कामगार यूनियन के लिए काम कार्यरत हैं और उनके काम का एक ध्येय यह भी है कि बैंक में काम करने वालों की भिन्नता को सम्पदा के रूप में देखा जाये न कि परेशानी के रूप में. इस विषय पर उन्होंने अन्य मित्रों के साथ मिल कर एक कम्पनी भी बनायी है जिसमें मानव भिन्नता से जुड़े विषयों का ध्यान और मान रख कर किस तरह बिज़नस किया जाये विषय पर सिखाया जाता है. उनकी तस्वीरें फेदेरीको बोरैला की हैं.

(Images of Alessandra Bernaroli are by Federico Borella)


रविवार, जनवरी 02, 2011

गार्गी की यवनी बेटी

कुछ दिन पहले स्पेन-चिली के फ़िल्म निर्देशक अलेहान्द्रो अमेनाबार (Alejandro Amenàbar) की फ़िल्म अगोरा (Agorà) देखी जिसमें चौथी शताब्दी की यवनी (ग्रीक) दर्शनशास्त्री और नक्षत्रशास्त्री हाइपाटिया (Hypatia) की कहानी है. पुरुष प्रधान समाज में स्वतंत्र सोचने वाली स्त्री के विषय के अतिरिक्त यह फ़िल्म धार्मिक कट्टरवाद के विषय को भी छूती है. इस फ़िल्म को देख कर भारत के पूर्व-इतिहास की ऐसी ही एक युवती, गार्गी, जिसकी कथा वेदों में लिखी है, के बारे में जानने की इच्छा भी मन में जागी.

Agora, a film by Alejandro Amernabar

ईसा से तीन सौ साल पहले यवनी सम्राट सिकन्दर यानि अलेक्ज़ान्डर (Alexander) ने आधुनिक तुर्की, सीरिया, मिस्र, ईराक, ईरान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान और भारत तक कर अपना साम्राज्य बनाया था. उनके नाम से बने यवनी शहर इन सभी देशों में आज भी उस इतिहास की गवाही देते हैं. हाइपेटिता की कहानी मिस्र (Egypt) में समुद्र तट पर बसे अलेज़ान्ड्रिया (Alexandria) शहर की है, जो उस समय अपने प्रकाश स्तम्भ तथा पुस्तकालय के लिए दुनिया भर में मशहूर था. तब तक यवन साम्राज्य कमज़ोर हो चुका था और रोमन साम्राज्य चर्म पर था.

हाइपेटिया, रोमन जिसे इपेत्सिया बुलाते हैं, अलेज़ान्ड्रिया के पुस्तकालय के अधिनायक की ज्ञानी बेटी थी जो दूर दूर से आये पुरुष छात्रों को दर्शनशास्त्र पढ़ाती थी तथा उसे नक्षत्र शास्त्र (Astronomy) में, विषेशकर धरती, सूर्य और अन्य ग्रहों के बारे में जानने में अधिक दिलचस्पी थी और वह विवाह से इन्कार करती थी. तब यवन और रोमन धार्मिक विश्वास था पुराने यवनी देवी देवताओं में, जैसे कि ज़ीअस, मिनर्वा, वीनस, आदि. इस धार्मिक विश्वास को बाद में "पागान" (Pagan) का नाम दिया गया.

Agora, a film by Alejandro Amernabar

फ़िल्म दिखाती है नये फैलते हुए ईसाई धर्म के द्वंद को, जो एक ओर तो शोषित दलित गुलामों को मानव मानता है और नये समताबद्ध समाज की संरचना करता है, दूसरी ओर उसके कुछ सदस्य अन्य धर्मों को मज़ाक उड़ाते हैं, और कुछ कट्टरपंथी अन्य विधर्मियों, यानि यहूदी (Jew) तथा पागान धर्मों में विश्वास करने वालों के विरुद्ध हिंसा का अभियान चलाते हैं. एक बार कट्टरपंथी राह चलती है तो बाकी सब धर्मों को दबा दिया जाता है, कुछ लोग वहाँ से भाग जाते है, बचे खुचे लोग धर्म परिवर्तन कर लेते हैं. हाइपेटिया पर डायन होने, पुरुषों को बहकाने और स्त्री शालिनता के विपरीत रहन सहन के आरोप लगा कर, मृत्युदंड की सजा दी जाती है. हाइपेटिया का ज्ञान कि धरती गोल है और ग्रह किस तरह सूर्य के आसपास घूमते हैं, अन्य कई सौ सालों के लिए खो जाते हैं. अलेज़ान्ड्रिया का अनूठा पुस्तकालय जहाँ सदियों का मानव ज्ञान संरक्षित था, नष्ट हो जाता है.

बाद के कुछ इतिहासकारों कहते हैं कि अलेज़ान्ड्रिया का प्राचीन पुस्तकालय पैगम्बर मुहम्मद के समय के बाद मुसलमानों ने नष्ट किया था और इसे "मुसलमान कट्टरवाद" के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करते हैं, जबकि अन्य इतिहासकारों को कहना है कि यह प्राचीन पुस्कालय "ईसाई कट्टरवादियों" द्वारा नष्ट किया गया था. इस फ़िल्म में इसी को सच माना गया है और फ़िल्म में पुराने अलेज़ान्ड्रिया शहर को बहुत भव्य रूप से दिखाया गया है.

Agora, a film by Alejandro Amernabar

हाइपेटिया अन्य बहुत बातों में अपने समय से बहुत आगे थीं, लेकिन वह गुलामों के साथ हाने वाले अमानवीय व्यवहार के बारे में कुछ नहीं कहतीं, और न ही गुलामी को गलत मानती हैं.

मुझे फ़िल्म की सबसे अच्छी बात लगी कि किस तरह उसमें धार्मिक कट्टरवाद की बात को दिखाया गया है जो कि सोचने पर मजबूर करती है. उस समय का पागान धर्म सहिष्णु और उदार था, और उस समय अलेज़ान्ड्रिया में यहूदी, पागान, ईसाई, विभिन्न धर्मों को लोग शांति से साथ रहते थे. लेकिन एक बार विभिन्न धर्मों के कट्टरपंथी एक दूसरे के विरुद्ध जहर फैलाने लगे तो रूढ़िवादी ईसाई धार्मिक शासन बना और दूसरी ओर, ज्ञान और विकास दोनों के रास्ते रुक गये.

कुछ लोगों ने इस फ़िल्म को "ईसाई धर्म विरोधी" कहा है लेकिन खुशी की बात है कि कम से कम इटली में इस बात पर न कोई दंगे हुए, न किसी के कहा कि फ़िल्म को बैन किया जाये, आदि. बल्कि फ़िल्म को फ्राँस के कान फ़ैस्टिवल में विषेश पुरस्कार भी मिला. मेरे विचार में फ़िल्म ईसाई धर्म के विरुद्ध नहीं, बल्कि कट्टरवाद के विरुद्ध है, क्योंकि फ़िल्म के अनुसार, उस समय हुई धार्मिक लड़ाईयों में पागान कट्टरपंथियों का भी उतना ही दोष था. अगर आप को यह फ़िल्म देखने का मौका मिले तो अवश्य देखियेगा.

इतिहास से हम क्या सबक सीख सकते हैं? क्या इतिहास हमें राह दिखा सकता है कि आज विश्व में छाये कट्टरवाद के खतरे से कैसे बचा जाये? फ़िल्म देख कर इस बात पर बहुत देर तक सोचता रहा, पर कोई आसान उत्तर नहीं मिला. एक तरफ से लगता है कि हर धार्मिक कट्टरवाद को, चाहे वह छोटा हो या बड़ा, तुरंत दबा दिया जाना चाहिये, पर यह भी लगता है कि हिंसा से हिंसा ही जन्मेंगी, दबाने से कट्टरवाद नष्ट नहीं होगा बल्कि और फैल सकता है.

***

हाइपेटिया उस समय की नायिका थी जब सामान्य जीवन में स्त्री को कुछ अधिकार नहीं थे, पढ़ने लिखने और खुल कर बोलने का अधिकार भी नहीं था. इसके बावजूद वह स्वतंत्र रूप से विकसित हो सकीं, अध्यापक बनी, वैज्ञानिक शौध किया, दर्शन पर पुरुषों से बहस की, वह इसलिए कि उन्हें अपने पिता से सहयोग मिला.

भारत के वेदों में वर्णित ब्रह्मावादिनी गार्गी भी हाइपेटिया की तरह पुरुष प्रधान समाज में रहती थीं. ऋगवेद को सबसे पुराना आदिग्रंथ माना जाता है, इसमें स्त्री की जगह पत्नि तथा ग्रहणी के रूप में ही है, यहाँ तक कि सभी देव देवता भी पुरुष ही हैं और देवियों के नाम बहुत कम जगह पर आते हैं. गार्गी को महाऋषि वचक्नु की बेटी और आजीवन ब्रह्मचारिणी कहा जाता है. बृहदारण्यक उपनिषद में, विदेह के राजा जनक द्वारा आयोजित एक शास्त्रार्थ में उनका एक वर्णन है.

वेदों में वर्णित अन्य प्रसिद्ध स्त्रियों में, जैसे अनुसूया, शाण्डिली, सावित्री, अरुन्धती, आदि को पतिव्रता, निष्ठा आदि जैसे गुणों की वजह से श्रेष्ठ माना जाता है, विदुषी होने के लिए नहीं. मित्र ऋषि की पत्नि मेत्रेयी को अवश्य विदुशी कहते हैं पर पुराणों के अनुसार, उन्हें यह ज्ञान उनके पति ने दिया. यानि हाइपेटिया की तरह स्वतंत्र व्यक्तित्व रखने वाली, ज्ञानवती स्त्री केवल गार्गी ही थी.

क्या गार्गी को भी समाज का सामना करना पड़ा था, इसके बारे में आज कैसे जान सकते हैं?

शनिवार, दिसंबर 11, 2010

इच्छा मृत्यु या हत्या ?

संजय लीला भँसाली की फ़िल्मों से अन्य जो भी शिकायत हो, उनके मौलिक कलात्मक अंदाज़ को, तथा उसकी सौंदर्यपूर्ण और संवेदशनशील अभिव्यक्ति को, नहीं नकारा जा सकता. उनकी फ़िल्मों के विषयों की प्रेरणा तो अक्सर विश्व सिनेमा से मिली लगती है, लेकिन फ़िल्म को कहने का तरीका उनका अपना है.

मेरे विचार में उनकी फ़िल्मों की विशेषता है कि उनमें एक ओर मानव भावों को प्रधानता दी जाती है, दूसरी ओर उन भावनाओं की संकेतात्मक अभिव्यक्ति करने के लिए अक्सर वह कोई विशेष वातावरण बनाते हैं जिसमें प्रकृति, रंग, भवन वास्तुकला, संगीत आदि, कला के हर पक्ष को वह खोज कर गढ़ा जाता है. इस तरह उनकी फ़िल्मों का वातावरण भव्य, सुंदर और भावपूर्ण तो होता है, पर साथ ही, अगर सोच कर देखा जाये तो नकली या नाटकीय भी. यह तो उनकी कला अभिव्यक्ति की व्यक्तिगत शैली है, जो विषेशकर पिछली कुछ फ़िल्मों में गहरी हो गयी है. कोई कलाकार अपनी कला की अभिव्यक्ति के लिए किस शैली को चुनता है, यह तो उसका निजि निर्णय है, लेकिन मुझे लगता है कि बहुत से आलोचक उनकी फ़िल्मों को केवल इस शैली के मापदँड से देख कर उनकी आलोचना लिखते हैं, उसके परे नहीं जा पाते.

"खामोशी" से ले कर "देवदास", "साँवरिया" और "ब्लैक" तक, मुझे अब तक उनकी कोई फ़िल्म सिनेमा हाल में देखने का मौका नहीं मिला था, टेलीविज़न पर ही डीवीडी से देखा था, और हर बार सोचता था कि उनकी फ़िल्मों के हर दृश्य की भव्य नाटकीयता को सिनेमा हाल के बड़े परदे पर देखना अच्छा लगेगा. इसलिए इस बार भारत में था तो उनकी नयी फ़िल्म "गुज़ारिश" को सिनेमा हाल में देखने का मौका मिला, तो बहुत अच्छा लगा.

Guzaarish by Sanjay Leela Bhansali

इस फ़िल्म में भी वह अपनी कला शैली पर ही डटे हैं, यानि फ़िल्म में देखने में भव्य भी है और सुंदर भी, हर एक दृश्य जैसे चित्रकार ने तूलिका से बनाया हो. घने बादलों और बारिश के रंगों का फ़िल्म में प्रभुत्व हैं - गहरा नीला, भूरा, कत्थई, काला.

गोवा की जो सामान्य छवि मन में होती है, नीला समुद्र तट और उस पर अठखेलियाँ करते पर्यटक, या "आयेंगा खायेंगा, तुम हमको क्या बोलता" जैसी भाषा बोलने वाले मछुआरे, वे सब नहीं दिखते इस फ़िल्म में. फ़िल्म के तीनो मुख्य चरित्र, ईथन, सोफ़िया, उसकी देखभाल करने वाली नर्स देवयानी और जादू सीखने वाला शिष्य ओमार, गोवा के गाँवों के पुर्तगाली घर, वहाँ के पुर्तगाली रहन सहन, वस्त्रों आदि के साथ, भारतीय और पुर्तगाली सम्मिश्रण से रचा गया है, कुछ कुछ वैसा जैसे "ब्लैक" के लिए रचा गया था.

फ़िल्म के सभी अभिनेता अभिनेत्रियाँ, हृतिक रोशन और एश्वर्या राय से ले कर छोटे बड़े सभी चरित्र, चाहे वह डाक्टर हो या रसोई में काम करने वाली मारिया या चर्च का पादरी, हर एक को सोच कर सावधानी से रचा गया है जिससे कि सभी पात्रों हाड़ माँस के व्यक्ति हैं, केवल कहानी को बढ़ाने वाले कागज़ी चरित्र नहीं. अभिनय की दृष्टि से सभी प्रशंसनीय हैं, किसी के अभिनय के सुर में बेसुरापन नहीं लगता. हृतिक रोशन ने तो ईथन के भाग में जान डाली ही है, लेकिन बहुत समय के बाद मुझे एश्वर्य राय भी अच्छी लगीं.

भँसाली जी ने पहले भी "खामोशी" और "ब्लैक" फ़िल्मों में विकलाँगता की बात बहुत संवदेना के साथ की थी और "गुज़ारिश" में एक बार फ़िर इस विषय को छूना प्रशंसनीय है. आज के मल्टीप्लेक्स वातावरण में, व्यवसायिक प्रेम कहानियों से निकल कर, गम्भीर बातों को छूने का साहस सामान्य बात नहीं.

लेकिन जहाँ फ़िल्म एक ओर कला अनुभव के रूप में खरी उतरती है, उसकी कथा के संदेश, यानि विकलाँगता और इच्छा मृत्यु, के बारे में मेरे मन में कुछ दुविधाएँ हैं. लेकिन उन दुविधाओं के बारे में बात करने से पहले, मैं कुछ माह पहले अंग्रेज़ी साप्ताहिक पत्रिका "तहलका" में छपे एक लेख के बारे में कहना चाहूँगा जिसमें बात थी तमिलनाडू तथा दक्षिण भारत में गरीब परिवारों में, वृद्ध माता पिता को जान से मारने की.

इस लेख के अनुसार, कुछ गरीब परिवारों में वृद्ध माता पिता की जबरदस्ती तेल से मालिश की जाती है और दिन भर उन्हें नारियल का पानी पिलाया है जिससे उनके गुर्दे काम करना बन्द देते हैं और दो तीन दिनों में बूढ़े मर जाते हैं. अगर तेल मालिश और नारियल के पानी से बात न बने तो नाक बन्द करके जबरदस्ती मुँह में मिट्टी या जहर भी दिया जा सकता है. कुछ वृद्ध इसी डर से घर छोड़ कर चले जाते हैं, पर साथ ही वे अपने बच्चों को दोष नहीं देना चाहते क्योंकि वह जानते हैं कि गरीबी में बूढ़े माता पिता का ध्यान रखना आसान नहीं. कई बार इस तरह मारने से पहले, सब रिश्तेदारों को बुलाया जाता हैं ताकि मरनेवाले से मिल कर सब लोग ठीक से विदा ले सकें.

जीवन और मानव अधिकारों को बात करते हुए भी, मुझे मालूम है कि गरीब घर में भूखे प्यासे लोग जो जीवन मृत्यु के निर्णय लेते हैं, उन्हें वह लोग नहीं समझ सकते जिन्होंने स्वयं भूख न झेली हो. नैतिकता की बात करना आसान है पर जब छोटे छोटे खर्चों पर पूरे परिवार के जीने मरने का भविष्य टिका हो तो असली अनैकतिकता, गरीबी और भुखमरी हैं. अनचाही बच्चियों या विकलाँग बच्चों को मारने के लिए ज़हर या गला घोंटने की ज़रूरत नहीं, बस इतना काफ़ी है कि खाने के लिए कम दो या बीमारी में डाक्टर के पास न ले जाओ.

लेकिन आज के जीवन में, जिसमें खरीदना, दिखना, सफलता पाना ही जीवन के सबसे महत्वपूर्ण ध्येय हैं, शायद बात भुखमरी वाली गरीबी की नहीं, मनचाहा न खरीद पाने वाली गरीबी की है जिसमें बूढ़े माता पिता या विकलाँग बच्चों की जानें, हमारी आकाक्षाओं की राह में रुकावट बन जाती है और जिन्हें राह से हटाना अधिक आसान है? सचमुच स्वेच्छा से मरना चाहने वालों से, लालच में मारने वाले कई गुणा अधिक हैं और इसी लिए मानव जीवन रक्षा के कानून बने हैं. इस दृष्टि से देख कर मेरे मन में "गुज़ारिश" से कुछ दुविधाएँ उठीं थीं.

"गुज़ारिश" फ़िल्म के नायक ईथन को, 14 वर्ष पहले एक दुर्घटना की वजह से शरीर के गर्दन से नीचे के भाग को लकवा मार गया है. वह न हाथ पाँव हिला सकते हैं न शरीर पर स्पर्श का अनुभव कर सकते हैं. अपने आप वह करवट भी नहीं ले सकते और लेटे रहने की वजह से, उनकी पीठ पर घाव बन रहे हैं और उनके गुर्दे भी काम नहीं कर रहे जिससे उन्हें नियमित रूप से डायलेसिस की आवश्यकता होने लगी है. उनका जिगर भी ठीक से काम नहीं कर रहा. इन सब का अर्थ है कि उनका शरीर धीरे धीरे मृत्यु के करीब जा रहा है और वह उनके जीवन के कुछ ही महीने बचे हैं.

इस हालत में, यह जान कर कि अंत समय आ रहा है, कुछ महीनों की बात है, और घुट घुट कर मरने के बजाय, ईथन चाहता है कि उसे शान्ति से मरने दिया जाये, यह बात मेरी समझ में आती है. लेकिन फ़िल्म में ईथन के मरने की इच्छा की बात इस दृष्टि से नहीं की जाती, या की जाती है पर बहुत सीमित रूप में.

बजाय यह कहने के कि ईथन कुछ ही महीनों में मरने वाला है, और शायद वह घुट घुट के, तड़प तड़प के मरेगा, अदालत में बहस के दौरान तर्क दिये जाते हैं कि चूँकि ईथन कुछ महसूस नहीं कर सकता, अपने आप हिल भी नहीं सकता, और इसकी वजह से मानसिक तकलीफ़ में है इसलिए उसे मरने दिया जाये. लेकिन अगर इस विचार को सही मान लिया जाये तो शायद यह नहीं माना जायेगा कि जिनका आधा या पूरा शरीर लकवे से बँधा है, या जो विकलाँगता की वजह से सीमित है, उन सबको मरने दिया जाये या मार दिया जाये? वैसे "गुज़ारिश" में कई बार कहा जाता है कि बात सभी या अन्य विकलाँग व्यक्तियों की नहीं, केवल ईथन की है लेकिन ईथन के बारे में जो तर्क दिये जाते हैं वे तर्क तो अन्य व्यक्तियों के लिए भी कहे जा सकते हैं.

बोलोनिया में मेरे एक मित्र क्लाऊडियो इमप्रूदेंते का, जन्म से ही गर्दन से नीचे का हिस्सा लकवाग्रस्त है. वह बोल भी नहीं सकते लेकिन पारदर्शी बोर्ड जिसपर ए, बी, सी, डी, लिखा हो, के माध्यम से आँखों के इशारे से बात करते हैं, लिखते हैं, मानव अधिकारों की बात करते हैं, स्कूलों में बच्चों को विकलाँगता और मानव अधिकारों की बात समझाते हैं. अगर "गुज़ारिश" के तर्कों को मान लिया जाये तो क्या यह समाज इस बात की अनुमति देगा कि क्लाऊडियो जैसे लोगों को जन्म होते ही जीवित न रखा जाये?

मैं सोचता हूँ कि जीवन की गुणवत्ता को मापने की कसौटी विकलाँगता का होना या होना नहीं है. बहुत से लोग, विकलाँगता के बावजूद जीवन को खुल कर, पूरा जीते हैं, और कुछ लोग विकलाँग न हो कर भी, जीवन को उस तरह से नहीं जी पाते.

मैं यह नहीं कहता कि हर हालत में जबरदस्ती मानव शरीर को मशीनों के सहारे ज़िन्दा रखा जाये. जीवन और मृत्यु, दोनों जुड़े हुए हैं और प्रकृति का हिस्सा हैं, बिना मृत्यु के जीवन नहीं हो सकता. मैं मानता हूँ कि जब वह समय आये जिसमें जीवन केवल पीड़ा भरी मृत्यु की प्रतीक्षा भर ही रह जाये, तो व्यक्ति को शान्ति से मरने का अधिकार चुनने की स्वतंत्रता होनी चाहिये. लेकिन मेरे विचार में "गुज़ारिश" में इस विचार को बिल्कुल ठीक ढंग से नहीं प्रस्तुत किया गया है. बजाय ईथन की विकलाँगता के तर्क दे कर, अगर फ़िल्म ईथन के सम्मान से और शांति से मर पाने के मानव अधिकार की बात करती तो वह बेहतर होता.

Guzaarish by Sanjay Leela Bhansali

***

इस वर्ष के लोकप्रिय आलेख