बुधवार, अगस्त 10, 2011

दुनिया का स्वाद

एक ही वस्तु से विभिन्न लोगों के अनुभव भिन्न भिन्न होते हैं. जिस वस्तु से हमें आनन्द मिलता है, किसी अन्य को उसी से भय लग सकता है. किस वस्तु का कैसा अनुभव होगा, यह हमारी मनस्थति पर निर्भर करता है.

मान लीजिये कि आप एक सड़क पर जा रहे हैं, सड़क के दोनो ओर बहुत से वृक्ष लगे हैं. शीतल हवा चल रही है, पक्षी चहचहा रहे हैं. उस सड़क से गुज़रते हुए आप को क्या अनुभव होगा यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप की मनस्थिति कैसी होगी. अगर आप सैर को निकले हैं तो प्रसन्न हो कर शायद आप गीत गुनगुनाने लगें. अगर लम्बी यात्रा से चल कर आ रहे हैं, थके हुए हैं तो आप किसी बात पर ध्यान न दें, बस अपने टाँगों के दर्द और थकान के बारे में सोचें. अगर आप ने नया जूता पहना जो पाँव को काट रहा है तो आप का सारा ध्यान अपने पैरों की ओर हो सकता है. अगर आप को नया नया प्यार हुआ है और आप के आगे आप की प्रेयसी अपनी सहेलियों के साथ जा रही है, तो शायद आप यही सोच रहे हों कि कैसे उससे अकेले में बात कर सकें, उस सड़क का अन्य कुछ आप को नहीं दिखता. अगर किसी प्रियजन के शव के पीछे पीछे शमशान घाट जा रहे हों, तो हृदय दुख से भरा होगा. अगर किसी को मिलने का समय दिया हो और देर हो गयी हो, तो जल्दी जल्दी में होंगे. यानि इन सब मनोस्थितियों में उसी सड़क का अनुभव आप को अलग अलग तरह से होगा.

मनस्थिति के हिसाब से हमारे देखने, सुनने, छूने, सूँघने या स्वाद में फ़र्क आये, इस बात को समझना आसान है. लेकिन क्या हमारी इन्द्रियों पर हमारी सभ्यता, पढ़ायी, सामाजिक स्थिति आदि का भी प्रभाव पड़ता है?

फ्राँस के सामाजिक शास्त्री, मानव व्यवहार शास्त्र के विषशज्ञ तथा लेखक श्री दाविद ल ब्रेतों (David Le Breton) ने अपनी किताब "दुनिया का स्वाद" (La saveur du Monde - une anthropologie des sens, 2006) में इसी प्रश्न पर लिखा है.

उनका कहना है कि पहले श्रवण यानि सुनने को ऊँचा स्थान दिया जाता था लेकिन आज की पश्चिमी दुनिया में दृष्टि का स्थान सर्वोच्च हो गया है, जिसके सामने बाकी सब इन्द्रियों का महत्व कम हो गया है. यानि कि हम जो भी अनुभव करते हें उसमें हमारा दिमाग दृष्टि से मिलने वाली सूचनाओं को अधिक ध्यान देता है, बाकी सब सूचनाओं को उतना ध्यान नहीं देता.

अपनी किताब में उन्होंने इसका एक उदाहरण धरती के उत्तरी ध्रुव के पास बर्फ़ में रहने वाली जातियों के जीवन से दिया है. वह कहते हैं कि जहाँ सब कुछ बर्फ़ से ढका हो, यूरोप से आने वाले आगुंतक के लिए यह समझना बहुत कठिन है कि कौन सी दिशा से जाना चाहिये, क्योंकि वह दृष्टि पर अधिक निर्भर है, जबकि वहाँ के रहने वाले, दृष्टि पर बहुत कम निर्भर करते हैं बल्कि बाकी इन्द्रियों पर अधिक ध्यान देते हैं. इस तरह से जब वहाँ के रहने वाले, बर्फ़ में, या अँधेरे में भी, जानते हैं कि किस दिशा में जाना चाहिये तो यूरोप से आये लोग हैरान रह जाते हैं.


श्री ल ब्रेतों का यह भी कहना है कि टेलीविजन, इंटरनेट आदि की वजह से आधुनिक मानव के जीवन में दृष्टि का महत्व और भी बढ़ता जा रहा है. दृष्टि के बाद स्थान आता है सुनने का, पर शहरों में रहने वाले अधिकाँश लोग आसपास में वातावरण में होने वाली ध्वनियों को नहीं सुन पाते, यानि सुनते हैं लेकिन बता नहीं पाते कि क्या सुना. दृष्टि के बाद स्थान आता है स्वाद का, पर यह भी कम हो रहा है. आधुनिक मानव में छूना यानि स्पर्श और सूँघने की शक्ति में सबसे अधिक कमज़ोरी आयी है.

वह मानते हैं कि इन्द्रियाँ दिमाग के काबू में हैं और जिस तरह से दिमाग का विकास होता है, वही तय करता है कि उस मानस में कौन सी इन्द्री का महत्व अधिक होगा.

श्री ल ब्रेतों भारत या पूर्वी देशों की बात नहीं करते लेकिन भारतीय दर्शन में "विश्व माया है" का विचार महत्वपूर्ण जिसमें इन्द्रियों की तुलना घोड़ों से की गयी है जिन्हें मस्तिष्क के सारथी द्वारा काबू में रखने की बात होती है.

कैनोपानिषद में इन्द्रियों की बात करते हुए एक एक इन्द्री के काम का वर्णन है और हर एक के बारे में यही प्रश्न उठता है कि ध्वनि, दृष्टि, स्वाद, स्पर्श आदि जो अनुभव कराते हैं उसे अनुभव करने वाला मानव शरीर के अन्दर कौन है? इसका हर बार एक ही उत्तर है कि वही आत्मा ही ब्राह्मण यानि जगत संज्ञा है, वही परमेश्वर है न कि वे देवी देवता जिनकी पूजा की जाती है. कैनोपानिषद के इस हिस्से की पहली ऋचा ध्वनि पर हैः
यदाचानुभ्युदितं येन वागभ्युद्यते !
तदेव ब्रह्मा त्वं नेदं यदिदमुपासते ॥
तो क्या इसका यह अर्थ लगाया जाये कि प्राचीन भारत में स्वर को यानि श्रवण इन्द्री को सबसे अधिक महत्व दिया जाता था? कैनोपानिषद में दिमाग को भी इन्द्रियों का हिस्सा माना गया है, यानि जिस दिमाग से हम सोचते हैं, कि हमारी इन्द्रियों ने हमें क्या अनुभव दिया, वह भी एक इन्द्री है, तथा हमारे प्राण यानि श्वास भी एक इन्द्री हैं.

इस तरह से प्राचीन भारतीय दर्शन श्री ल ब्रेतों की सोच से भिन्न है. लेकिन अगर भारतीय दर्शन की बात को छोड़ कर श्री ल ब्रेतों की दृष्टि से देखने की कोशिश करें तो क्या भारतीय मानस के इन्द्रियों द्वारा जगत अनुभव करने में कौन सी इन्द्री का अधिक महत्व है?

क्या भारत के लोग, सभी इन्द्रियों को एक सा महत्व देते हैं और उनका समन्वय करके जगत को समझते हैं?

क्या टेलीविज़न, फ़िल्मों, इंटरनेट के साथ साथ, भारतीय जगत अनुभव भी दृष्टि को ही सबसे अधिक महत्व दे रहा है? आप का क्या विचार है?

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सोमवार, अगस्त 08, 2011

चालिस साल बाद

1965 में आयी थी राजेन्द्र कुमार, साधना, फिरोज़ खान और नाज़िमा की फ़िल्म "आरज़ू", जिसके निर्देशक थे रामानन्द सागर. तब दिल्ली के इंडिया गेट पर अमर जीवन ज्योति का सैनिक स्मारक नहीं बना था और रानी विक्टोरिया की मूर्ति भी वहीं पर स्थापित थी. तब दिल्ली में कारें भी बहुत कम थीं, साइकल पर बाहर घूमने जाना न तो नीचा माना जाता था, और न ही उससे दिल्ली की सड़कों पर आप की जान को खतरा होता था.

तब जँगली, कश्मीर की कली, जब प्यार किसी से होता है, जैसी फ़िल्मों में गाने कश्मीर में फ़िल्माये जाते थे, जहाँ हीरो हीरोइन का प्रेम मिलन दो फ़ूलों को एक दूसरे से टकरा कर दिखाते थे. उन दिनों में इंडियन एयरलाईंस की एयर होस्टेस हल्के नीले रंग के बोर्डर वाली साड़ी पहनती थीं और हवाई अड्डे खुले मैदान जैसे होते हैं बस उसकी बाऊँडरी के आसपास काँटों वाला तार लगा होता था. तब चित्रकार बड़े बड़े बोर्डों पर फ़िल्म के दृश्य बनाते थे.

ऐसे ही किसी बोर्ड पर हमने भी "आरज़ू" फ़िल्म का दृश्य बना देखा था जिसमें राजेन्द्र कुमार जी पहाड़ पर बर्फ़ में स्कीइंग कर रहे थे, और जिसने हमारा मन मोह लिया था. खूब ज़िद की हमने घर में कि हम यह फ़िल्म अवश्य देखेंगे. खैर जब तक फ़िल्म देखने का कार्यक्रम बना, फ़िल्म को आये छः सात महीने अवश्य हो चुके थे, उसकी गोल्डन जुबली मनायी जा चुकी थी, और उसे देखने हम लोग तीस हज़ारी के पास एक सिनेमा हाल में गये थे जिसका नाम शायद नोवल्टी था.

रंगीन फ़िल्म, बर्फ़ के सुन्दर नज़ारे, राजेन्द्र कुमार की स्कीइंग और त्याग, फ़िरोज़ खान की दोस्ती, साधना का रोना और अपना पाँव काटने की कोशिश करना, नाज़िमा की चीखें, नज़ीर हुसैन का रोते हुए कहना "बेटी, अपने खानदान की इज़्ज़त अब तुम्हारे हाथ में है", वाह! फ़िल्म की कहानी, डायलाग, गाने सब कुछ बहुत अच्छा लगा था.

चालिस साल बीतने के बाद भी "आरज़ू" फ़िल्म की याद मन में थी, इसलिए पिछली भारत यात्रा में जब एक दुकान में फ़िल्म की डीवीडी देखी तो रुका नहीं गया, सोचा कि पुरानी यादों को ताज़ा करने के लिए फ़िल्म को दोबारा देखना चाहिये.

फ़िल्म के पहले ही दृश्य में राजेन्द्र कमार को साइकल पर इंडियागेट में जहाँ अब अमर जवान ज़्योति है, वहाँ से बीच में से गुज़रते देखा, तो दिल्ली के भूले हुए दिन याद आ गये, पर साथ ही लगा कि चालिस साल के बाद भी हिन्दी फ़िल्मों में एक बात नहीं बदली. यानि कि चाहे आप एयरपोर्ट से आ रहे हों, वैसे ही बाहर घूम रहे हों, या काम पर जा रहे हों, कुछ भी हो, फ़िल्म में वह सड़क इन्डिया गेट, लाल किला और कुतुब मिनार के सामने से अवश्य गुज़रती है.

राजेन्द्र कुमार को कालिज का परिणाम पाने वाला दृष्य देखा और जब उनकी माँ बोली कि बेटा तुमने मेडिकल कोलिज में फर्स्ट कलास में सबसे अव्वल नम्बर पाये हैं तो भी यही ख्याल आया कि चालिस साल बाद यह भी नहीं बदला कि हमारे 35 या 40 साल के हीरो अभी भी कोलिज में पढ़ते हैं और कालिज के अन्य लड़के लड़कियों के बाप जैसे लगते हैं.

हीरो हीरोइन कई दिनों तक मिलते हैं, उनमें प्रेम होता जाता है लेकिन हीरोइन को न हीरो का नाम मालूम होता है न उसका पता. फ़िर संयोग से हीरोइन की सगाई हीरो के करीबी मित्र से हो जाती है और संयोग से ही हीरोइन हीरो की बहन से साथ पढ़ती है. इस तरह की संयोग वाली अविश्वस्नीय बातें भी इन चालिस सालों में हिन्दी सिनेमा में नहीं बदलीं.

लेकिन किसी किसी बात में बदलाव आया है. जैसे कि राजेन्द्र कुमार की स्कीइंग का दृश्य देखा तो हँसी आ गयी कि चालिस साल पहले यह किस तरह से ग्लेमरस लगा था! कश्मीर में इस तरह की फ़िल्म बनाना तो कई दशकों से बन्द हो गया है और अब कश्मीर में केवल आतंकवाद या मिलेट्री वाली फ़िल्में ही बनती हैं.

राजेन्द्र कुमार का अपनी प्रेमिका की सहेली सलमा के पिता हकीम साहब बन कर उसके घर जाने के दृष्य को देख कर लगा कि पहले उर्दू शेरो-शायरी की बात जितनी सहजता से कहानी में जोड़ दी जाती थी, वह अब नहीं होती. उससे एक साल पहले 1964 में राजेन्द्र कुमार और साधना की फ़िल्म "मेरे महबूब" बहुत हिट हुई थी, शायद आरज़ू फ़िल्म का यह सारा हिस्सा उसी की प्रेरणा से इस फ़िल्म में जोड़ दिया गया था.

लेकिन इतने सालों के बाद भी फ़िल्म के गानो को सुन कर लगा मानो मैं अभी वही लड़का हूँ जो इस फ़िल्म को देखने गया था -
  • अजी रूठ कर अब कहाँ जाईयेगा, जहाँ जाईयेगा हमें पाईयेगा
  • ऐ नरगिसे मस्ताना बस इतनी शिकायत है
  • छलके तेरी आँखों से शराब और भी ज़्यादा
  • ऐ फ़ूलों की रानी, बहारों की मल्लिका, तेरा मुस्कुराना गज़ब ढा गया
  • बेदर्दी बाल्मा तुझको मेरा मन याद करता है
शंकर जयकिशन के संगीत से सजे गानों में आज भी वही नशा है जो चालिस साल पहले होता था.

पुरानी यादों को ताज़ा करते हुए, "आरज़ू" के कुछ दृष्य प्रस्तुत हैं:

श्रीनगर हवाईअड्डा और एयर इंडिया की एयर होस्टेस
Arzoo by Ramanand Sagar, India, 1965

हीरो का भेष बदल कर हीरोइन के घर आना
Arzoo by Ramanand Sagar, India, 1965

संयोग से हीरोइन की बहन ने देखा कि उसकी सहेली के पास उसके भाई की तस्वीर थी
Arzoo by Ramanand Sagar, India, 1965

धूमल और महमूद की कामेडी
Arzoo by Ramanand Sagar, India, 1965

हीरोइन का अपना पैर काटने का बलिदान
(अगर वह लकड़ी काटने वाली मशीन के करीब ही बैठ जाती तो आप के दिल की धड़कन कैसे बढ़ती?)
Arzoo by Ramanand Sagar, India, 1965

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रविवार, जुलाई 17, 2011

संदेश किसके लिए है?

"तो कैसी लगी फ़िल्म?"

फ़िल्म समाप्त होने पर मैंने अपनी मित्र से पूछा तो उसने मुँह बना दिया था. फ़िर कुछ देर सोच कर बोली थी, "यह फ़िल्म शायद विदेशियों के लिए बनायी गयी है, विदेशों में दिखाने के लिए. यहाँ भारत में इसे शहरों में रहने वाले पैसे वाले लोग देखें जिन्हें अपने देश में गाँव में कैसे रहते हैं यह मालूम नहीं. सचमुच की समस्याएँ क्या हैं गरीबों की, किस तरह इस व्यवस्था में शोषित होते हैं लोग, यह नहीं दिखाना चाहते इस फ़िल्मवाले. गरीबी की पोर्नोग्राफ़ी है, उसे रूमानी बना कर बेचने का ध्येय है उनका. ताकि दया दान देने वाले विदेशी और पैसे वाले मन ही मन खुश हो सकें कि उनकी दया से किसी बच्चे की ज़िन्दगी सुधर गयी, पर इससे व्यवस्था को बदलने के लिए कोई नहीं कहे."

फ़िल्म का नाम था "आई एम कलाम" (I am Kalam) जिसे बँगलौर की स्माईल फाउँडेशन ने निर्मित किया है. मेरी मित्र की आलोचना बिल्कुल गलत तो नहीं थी, पर शायद पूरी भी नहीं थी.

I am Kalam by Smile Foundation

इस फ़िल्म की कहानी सचमुच की गरीबी या सच की कहानी नहीं है, बल्कि बच्चों के लिए लिखी परियों की कथा जैसी है. फ़िल्म में एक राजकुँवर और ढ़ाबे में काम करने वाले गरीब बच्चे में बराबर की दोस्ती की है, और अंत में पुराने विचारों वाले राजा साहब द्वारा गरीब बच्चे को मान देने का सपना है. कुछ दृष्यों को छोड़ कर जिनमें बचपन में ढ़ाबे और रेस्टोरेंटों में काम करने वाले बच्चों के कड़वे सच दिखते हैं, बाकी सारी फ़िल्म में रेगिस्तान के मनोरम दृष्य, रंगीन पौशाकें, समझदार विदेशी लड़कियाँ, दयावान प्रेमी ढ़ाबेवाला, ऊँठ पर बैठ कर चाय बाँटनेवाला और मन लुभाने वाला गरीब लेकिन सुंदर बच्चा दिखता है. यानि मेरी मित्र की दृष्टि में "रुमानी गरीबी".

लेकिन मेरी मित्र की आलोचना मुझे कुछ अधिक कठोर लगी. मैंने सोचा कि सच को इस तरह कहना कि उसे अधिक लोग देख सकें, क्या गलत बात है? अगर सचमुच की गरीबी दिखानी वाली डाकूमैंटरी या कला फ़िल्म होती तो कितने लोग देखते और क्या गरीबी दिखाने वाली डाकूमैंटरियों की कमी है भारत में? जिन लोगों को गरीब बच्चों के जीवन के कड़वे सच मालूम हैं वे इस बारे में लिखते हैं, सेमीनार करते हैं, डाकूमैंट्री फ़िल्में बनाते हैं और देखते हैं. जिन्हें नहीं मालूम या जिनके पास अपने जीवन से बाहर देखने के फुरसत ही नहीं हैं, उनके पास यह सेमीनार, आलेख और डाकूमैंट्री कहाँ पहुँचती हैं?

कुछ इसी तरह की बात उठी थी जब अमोल पालेकर की फ़िल्म "पहेली" देखी थी. उसमें बात थी नारी के अधिकारों की, लेकिन इस तरह से कही गयी थी कि रानी मुखर्जी के रंगों और शाहरुख जैसे प्रेमी भूत की परतों के नीचे दबी हुई, वह भी शायद "रुमानी नारी अधिकारों" की बात थी. पर कम से कम उसे उन लोगों ने देखा तो था जिनको नारी अधिकारों के बारे में जानने और सोचने की आवश्यकता थी. वैसे तो "पहेली" को भी बहुत अधिक व्यवसायिक सफ़लता नहीं मिली थी, लेकिन उसी कहानी पर बनी मणि कौल की "दुविधा" को कितने लोगों ने देखा था?

अक्सर मेरे विचार में बहुत से बुद्धिजीवियों को विश्वास नहीं होता कि अगर कोई बात बिना चीख चिल्ला कर या भाषण की तरह नहीं कही जाये तो लोग उसे समझेंगे. अगर बात को भाषण की तरह बार बार न दोहराया जाये और कहानी का हिस्सा बना कर इस तरह रखा जाये कि तुरंत स्पष्ट न हो लेकिन धीरे धीरे मन को सोचने के लिए प्रेरित करे तो उसे वह प्रभावशाली नहीं मानते. ऐसे लोगों से दुनिया भरी हुई है जो "क्मप्रोमाईज़" नहीं करना चाहते हैं, कहते हैं कि जीवन के कड़वे सचों को उनकी पूरी कड़वाहट के साथ ही दिखाना चाहिये. पर जब सच इतने कड़वे होते हें कि कोई उन्हें देख ही नहीं पाये तो उसे कौन देखता है? वही लोग देखते हैं जिन्हें इस सब के बारे में पहले से मालूम है, पर जिन्हें इस चेतना की आवश्यकता है वे लोग क्या देखते हैं?

मुझे "आई एम कलाम" बहुत अच्छी लगी, आप को भी मौका मिले तो अवश्य देखियेगा. देख कर आप को सचमुच की गरीबी क्या होती है शायद उसकी समझ नहीं आयेगी, लेकिन देख कर अगर आप एक दिन के लिए भी अपने घर में काम करने वाले नाबालिग नौकर या ढाबे रेंस्टोरेंट में वेटर या बर्तन धोने का काम करने वाले बच्चे के कठोर जीवन के बारे में सोचेंगे तो क्या यह कम है?

I am Kalam by Smile Foundation

एक अन्य बात भी है, वह है देखने वाले को बुद्धिमान और व्यस्क समझने की. मुझे लगता है कि "कड़वा सच" दिखाने की ज़िद करने वाले लोगों में अक्सर यह सोच होती है कि जिस तरह हममें इस सच की समझ है, वह अन्य लोगों में नहीं और जब तक उसे बार बार कह कर, दिखा कर, जबरदस्ती कड़वी दवा की तरह लोगों को पिलाया नहीं जायेगा, तब तक उनकी समझ में नहीं आयेगा. जबकि मैं मानता हूँ कि कभी कभी कड़वे सच को सांकेतिक रूप में दिखाने से, बुद्धीमान दर्शक को मौका मिलता है कि वह उसे अपनी दृष्टि से अपने आप समझ सके.

रही बात उन लोगों की जिन्हें सांकेतिक बात समझ नहीं आती, उन्हें कड़वे सच को जिस तरह भी कह लीजिये, वह उसे देखने से या समझने से इन्कार कर देंगे, तो उनकी चिंता करना शायद व्यर्थ ही है.

मेरे कहने का यह अभिप्राय नहीं है कि सामाजिक समस्याओं और कड़वे सचों पर सभी कला अभिव्यक्ति केवल रंगीन, रूमानी तरीके से ही हो सकती है या होनी चाहिये. मणि कौल के सिनेमा अभिव्यक्ति के अंदाज़ में अपनी सुन्दरता थी, जो अमोल पालेकर की "पहेली" की सुन्दरता से भिन्न थी. कलात्मक अभिव्यक्ति के हर क्षेत्र में विभिन्नता आवश्यक है. लेकिन मेरा सोचना है कि अगर किसी कला का उद्देश्य जन सामान्य तक पहुँच कर उनको समझाना या जानकारी देना हैं, तो संदेश को उस भाषा में कहना बेहतर है जो जन सामान्य को समझ आ सके.

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दो महीने पहले विश्व स्वास्थ्य संस्थान (World Health Organisation) की वार्षिक एसेम्बली में जेनेवा गया था तो वहाँ एक हाल में तम्बाकू और सिगरेट प्रयोग के बारे में बड़े बड़े विज्ञापन लगे थे, जिसमें इन पदार्थों के प्रयोग से शरीर पर होने वाले प्रभावों को इस खूबी से दिखाया गया था कि उन तस्वीरों की ओर ठीक से देखने पर जी मिचलाने लगा था.

WHO poster on tobacco use

WHO poster on tobacco use

तब भी मेरे मन में यही बात आयी थी कि तम्बाकू और सिगरेट बेचने वाली कम्पनियाँ अपना प्रचार करने के लिए जाने माने सुन्दर लोगों और जगहों का उपयोग करती हैं. उससे लड़ने के लिए, यह तो ठीक है कि इन पदार्थों के डिब्बों पर इस तरह की फोटो लगाई लगाई जानी चाहिये जिनसे इनका उपयोग करने वाले लोगों में वितृष्णा हो.

लेकिन अगर जन सामान्य को संदेश देना हो, या नवजवानों और किशोरों को संदेश देना है, और उसके लिए इस तरह की वीभत्स तस्वीरों का प्रयोग होगा तो मुझे लगता है कि अधिकतर लोग उन्हें ध्यान से नहीं देखना चाहेंगे न ही इस तरह की तस्वीरों के पास क्या लिखा है उसे पढ़ना चाहेंगे.

सिगरेट और तम्बाकू का प्रयोग शरीर के लिए हानिकारक है और जन सामान्य में उसके खतरों की जानकारी देना आवश्यक है. पर यह संदेश किस तरह की भाषा में, किस तरह की तस्वीरों के साथ, किस तरह से दिया जाना चाहिये, ताकि नवयुवकों और किशोरों पर असरकारी हो सके? रुमानी बनाके, ताकि अधिक लोग उसे देखें या फ़िर कड़वे सच को उसकी सच्चाई के साथ?

और जन सामान्य में गरीब बच्चों के साथ होने वाले अमानवीय वर्ताव के बारे में सँचेतना जगानी हो, तो उसमें "आई एम कलाम" या "चिल्लर पार्टी" जैसी हँसी खुशी वाली फ़िल्मों का कोई स्थान है या गम्भीर विषयों पर केवल गम्भीर फ़िल्में ही बननी चाहिये?

आप क्या सोचते हैं?

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सोमवार, जुलाई 11, 2011

सभ्यता का मूल्य

"संग्रहालय के मूल्य को केवल खर्चे और फायदे में मापना गलत है, उसकी कीमत को मापने के लिए उसके उद्देश्य को मापिये. उसका उद्देश्य है जनता को नागरिक बनाना." यह बात कह रहे थे रोम के वेटीकेन संग्रहालय के निर्देशक श्री अन्तोनियो पाउलूच्ची (Antonio Paolucci).

श्री पाउलूच्ची इन दो शब्दों, जनता और नागरिक, को विषेश अर्थ देते हैं. "जनता" यानि एक जगह पर रहने वाले लोग और "नागरिक" यानि वह लोग जो अपने अधिकारों और कर्तव्यों को समझते हैं, जिनके लिए जीवन में सभ्य होने का महत्व हो, जिनमें अपनी कला, संगीत, लेखन, शिल्प को जानने की समझ हो. लेकिन आज के भूमण्डलिकृत जगत में जहाँ पूँजीवाद के आदर्शों से स्वास्थ्य, शिक्षा, आदि जनकल्याण सेवाओं को मापते हैं, सभ्यता के मापदँड भी अधिकतर खर्चे और फायदे में गिने जाते हैं. उसे नागरिक अधिकार मानना कोई कोई विरला शहर ही कर पाता है, जैसे कि लंदन जहाँ सभी संग्रहालय मुफ्त हैं, अपनी कला और सभ्यता को जानने के लिए आप को कोई टिकट नहीं खरीदना पड़ता.

मैं श्री पाउलूच्ची की बात से सहमत हूँ कि अपनी कला, संस्कृति को बाज़ार के मापदँड से नहीं, सभ्यता के मादँड से तौलना चाहिये. पर यही काफ़ी नहीं. साथ ही, मुझे यह भी लगता है कि कला और सभ्यता की बातों को विषेशज्ञों के बनाये पिँजरों से बाहर निकाल कर जनसामान्य के लिए समझने लायक बनाया जाये. वह कहते हैं कि कला सँग्रहालयों को मैनेजरों की नहीं, कला को समझने वाले निर्देशकों की आवश्यकता है, जो नफ़े नुक्सान की बातों से ऊपर उठ सकें.

बदलते परिवेश में पर्यटक बदल गये हैं जिसके बारे में पाउलूच्ची कहते हैं, "आज कल चार्टर उड़ानों से अलग अलग देशों के बहुत से पर्यटकों के गुट आते हैं. उनके पास रोम घूमने के लिए एक ही दिन होता है, जिसमें से वह लोग एक डेढ़ घँटा वेटीकेन संग्रहालय को देखने के लिए रखते हैं. उनके पास संग्रहालय के अमूल्य चित्रों या शिल्पों की कोई कीमत नहीं, क्योंकि उनके पास कुछ देखने का समय नहीं है. उन्हें देखना होता है केवल सिस्टीन चेपल में माईकल एँजेलो की कलाकृति को. वह लोग संग्रहालय में भागते हुए घुसते हैं, सिस्टीन चेपल देख कर, सेंट पीटर के गिरजाघर की ओर भागते है. फ़िर कोलोसियम देखो, त्रेवी का फुव्वारा देखो, स्पेनी सीढ़ियाँ देखो, बस रोम हो गया. अब बारी है अगले शहर जाने की."

यह सच है कि विदेश घूमते हुए थोड़े दिनों की छुट्टियाँ होती हैं, रहने घूमने के खर्चे भी भारी होते हैं. तो बस यही चिन्ता रहती है कि कैसे जानी मानी प्रसिद्ध चीज़ें देखीं जायें. बाकी सबको देखना समझना मुमकिन नहीं होता. मेरे विचार में असली प्रश्न है कि जिन शहरों में हम रहते हैं क्या वहाँ के इतिहास को जानते समझते हैं, वहाँ के कला संग्रहालयों को देखने का समय होता है हमारे पास?

जब बात संग्रहालयों की हो रही हो तो कला और शिल्प को कैसे जाना और समझा जाये, इसकी बात करना उतना ही आवश्यक है. और मेरे विचार में इस बात को खर्चे और फायदे की बात करने वाले मैनेजरों ने भी समझा है, चाहे वह अपने स्वार्थवश ही समझा हो. यानि पैसे बनाने के लिए, कला और सभ्यता का भला करने के लिए नहीं.

बचपन में स्कूल के साथ कभी दिल्ली के कुछ संग्रहालयों को देखने का मौका मिला था, लेकिन सामने गुज़रने भर से क्या समझ में आता? कोई बताने समझाने वाला नहीं था. कुछ साल पहले एक बार इंडियागेट के पास पुरात्तव संग्रहालय में गया था लेकिन तब भी वहाँ संग्रहालय की विभिन्न कलाकृतियों को समझने के लिए कोई गाइड या किताब आदि नहीं थे. वहाँ जो कुछ देखा उसका हमारे समाज और संस्कृति के लिए क्या अर्थ था? हमारी संस्कृति में क्या स्थान था उस पुरात्तव इतिहास का, यह सब समझने की कोई जगह नहीं थी.

जब विभिन्न देशों में घूमने का मौका मिला तो भी शुरु शुरु में समझ नहीं थी कि कला, इतिहास या पुरात्तव को उसकी सन्दरता देखने के अतिरिक्त, और गहराई से जानना और समझना भी दिलचस्प हो सकता था. वाशिंगटन का आधुनिक कला का संग्रहालय, अमस्टरडाम का वान गोग संग्रहालय, लंदन की टेट गेलरी, जैसे जगहें देखीं पर तब बात वहीं तक जा कर रुक जाती थी कि कौन सी कलाकृति देखने में अच्छी लगती है.

फ़िर एक बार मेरे मन में कुछ आया और मैंने "खुले विश्वविद्यालय" के "कला को कैसे समझा जाये" के कोर्स में अपना नाम लिखवा लिया. इस कोर्स की कक्षाएँ रात को होती थी. दिन भर काम के बाद रात को कक्षा जाने में नींद बहुत आती थी. कई बार मैं कक्षा में ही सो गया. फिर भी, उस कोर्स का कुछ फ़ायदा हुआ. यह समझ आने लगी कि कला को समझने के लिए उसके कलाकार को और जिस परिवेश में उस कलाकार ने जिया और वह कृति बनायी, उसे समझना उतना ही आवश्यक है. समझ आने लगा कि संग्राहलय में जो देखो, उसकी सुन्दरता के साथ साथ, उसके बारे में भी जानो और समझो, तो संग्रहालयों से किताबे खरीदना प्रारम्भ किया.

पिछले दस वर्षों में इंटरनेट के माध्यम से संग्रहालय, कला और शिल्प को समझने के अन्य बहुत से रास्ते खुल गये हैं. जब भी किसी नये संग्रहालय में जाने का मौका मिलता है तो पहले उसके बारे में, वहाँ की प्रसिद्ध कलाकृतियों के बारे में पढ़ने की कोशिश करता हूँ. वहाँ जा कर जो कुछ अच्छा लगता है उसकी बहुत सी तस्वीरें खींचता हूँ. घर वापस आ कर, उन तस्वीरों के माध्यम से कलाकृतियों और कलाकारों के बारे में जानने की कोशिश करता हूँ. कई बार इस तरह से उन कलाकृतियों के बारे में मन में और जानने समझने की इच्छा जागती है तो वापस संग्रहालय जा कर उन्हें दोबारा देखने जाता हूँ.

शायद यही वजह है कि आजकल दुनिया के बहुत से आधुनिक संग्रहालयों में तस्वीर खींचने से कोई मना नहीं करता, बस फ्लैश का उपयोग निषेध होता है. पहले लोग सोचते थे कि संग्रहालय की हर वस्तु को गुप्त रखना चाहिये, तभी लोग आयेंगे. संग्रहालय चलाने वाले लोग सोचते थे कि अगर लोग तस्वीर खींच लेंगे तो उनके मित्र तस्वीरें देख कर ही खुश हो जायेंगे, संग्रहालय नहीं आयेंगे. इसलिए वहाँ फोटो खींचने की मनाई होती थी. तस्वीरें, कार्ड आदि कुछ भी हो, उसे आप केवल संग्रहालय की दुकान से मँहगा खरीद सकते थे.

आज के संग्रहालयों को समझ आ गया है कि जो लोग वहाँ घूमते हुए तस्वीरें खींचते हैं, वही लोग बाद में उन्हें फेसबुक, फिल्क्र, चिट्ठों आदि के द्वारा अपने मित्रों व अन्य लोगों में उस संग्रहालय का मुफ्त में विज्ञापन करते हैं. जितनी तस्वीरें अधिक खींची जाती हैं, उतना विज्ञापन अधिक होता है, और अधिक लोग वहाँ जाने लगते हैं.

पैसा कमाने के लिए संग्रहालयों को नये तरीके समझ में आये हैं, जैसे कि विभिन्न कलाकारों की कला को समझने के लिए उसके बारे में किताबें, पोस्टर, प्रिंट आदि और संग्रहालय में बने काफ़ी हाउस, बियर घर और रेस्टोरेंट.

यह सच है कि ग्रुप यात्रा में निकले लोगों के पास समय कम होता है, बस कुछ महत्वपूर्ण चीज़ों को ही देख सकते हैं. लेकिन मेरे विचार में ग्रुप यात्रा के बढ़ने के साथ साथ, दुनिया में कला को अधिक गहराई से समझने वाले भी बढ़ रहे हैं, जो अब इंटरनेट के माध्यम से कला और इतिहास को इस तरह समझ सकते हैं जैसे पहले मानव इतिहास में कभी संभव नहीं था.

इसका एक उदाहरण है दिल्ली के पुरात्तव संग्रहालय में मोहनजोदारो और हड़प्पा से मिली प्राचीन मुद्राएँ. जब उन्हें देखा था तो वह मुद्राएँ केवल छोटे मिट्टी के टुकड़े जैसी दिखी थीं, उनमें कुछ दिलचस्प भी हो सकता है, यह समझ नहीं आया था. आज टेड वीडियो पर प्रोफेसर राजेश राव का यह वीडियो देखिये. उन मुद्राओं को देख कर उन्हें समझने की उत्सुकता अपने आप बन जाती है.
 
कलाकार और उसके परिवेश को जानने से, उसकी कला को समझने की नयी दृष्टि मिलती है, इसका एक उदाहरण है श्री ओम थानवी द्वारा लिखा वान गोग की एक कलाकृति "तारों भरी रात" का विवरण. किसी संग्रहालय में वान गोग के चित्र देखने का मौका मिल रहा हो, तो पहले इसे पढ़ कर देखिये, कला को समझने की नयी दृष्टि मिल जायेगी.

पर इस तरह कला को देखने, समझने का जिस तरह का मौका आज अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बन गया है वैसा पहले कभी नहीं था, जिसका एक उदाहरण है गूगल द्वारा संग्रहालयों की प्रसिद्ध कलाकृतियों को देख पाना.

भारत में कला के बारे में, संग्रहालयों के बारे में कैसे जानकारी मिलेगी, यह अभी आसान नहीं हुआ है. भारत के कौन से प्रसिद्ध चित्रकार हैं, किसी अच्छे भले, पढ़े लिखे व्यक्ति से पूछिये तो भी आप को अमृता शेरगिल, मकबूल फिदा हुसैन आदि दो तीन नामों से अधिक नहीं बता पायेगा. हेब्बार, राम कुमार, बी प्रभा जैसे नाम कितनों को मालूम हैं? काँगड़ा और राजस्थानी मिनिएचर चित्रकला शैलियों की क्या विषेशताएँ हैं, शायद लाखों में एक व्यक्ति भी नहीं बता सकेगा.

भारत के प्रसिद्ध शिल्पकार कौन हैं तो शायद कुछ लोग अनिश कपूर का नाम ले सकते हैं क्योंकि वे लंदन में प्रसिद्ध हैं. कैसे कला में पैसा लगाना आज फायदेमंद है, इस पर फायनेन्शियल टाईमस या बिजनेस टुडे पर लेख मिल जायें, पर आम टीवी कार्यक्रमों में भारतीय कलाकारों की कला को कैसे समझा जाये, इसका कोई कार्यक्रम क्या आप ने कभी देखा है? जब तक किसी कलाकार की बिक्री लाखों करोड़ों में न हो, या उसे विदेश में कुछ सम्मान न मिले, लगता है कि भारत में उसका कुछ मान नहीं.

भारतीय पुरात्तव विभाग की वेबसाईट तो हिन्दी में भी है लेकिन वहाँ पर आप को केवल प्रकाशनों की लिस्ट मिलेगी. इंटरनेट पर पढ़ने वाली किताबों पत्रिकाओं की लिंक अंग्रेज़ी वाले हिस्से में हैं. तस्वीरों की गैलरी है, लेकिन उनमें जगह के नाम के सिवा, उसे जानने समझने के लिए कुछ नहीं. वैसे तो भारत दुनिया भर के क्मप्यूटरों की क्राँती का काम कर रहा है तो आशा है कि भारतीय पुरात्तव विभाग की वेबसाईट को भी अच्छा होने का मौका मिलेगा.

दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय की वेबसाईट केवल अंग्रेज़ी में है और उसपर उपलब्ध जानकारी बहुत सतही है. तस्वीरें छोड़ कर किसी तरह की समझ बढ़ाने वाली जानकारी नहीं मिलती. वेबसाईट पुराने तरीके की है, उसे देख कर नहीं लगता कि यह भारत के सबसे प्रमुख संग्रहालय का परिचय दे सकती है.

दिल्ली के राष्ट्रीय कला संग्रहालय की वेबसाईट देखने में बहुत सुन्दर है, और हिन्दी में भी है. वेबसाईट पर संग्रहालय के विभिन्न संग्रहों की कुछ सतही जानकारी भी है, लेकिन सभी प्रकाशन केवल खरीदने के लिए ही हैं, इंटरनेट से कलाकारों और कला के बारे में जानकारी सीमित है.

अगर हमारी संस्कृति, सभ्यता को जनसामान्य तक पहुँचाना आवश्यक है तो भारतीय संग्रहालय और पुरात्तव विभागों को इंटरनेट के माध्यम से नये कदम उठाने चाहिये, ताकि जनता में अपने इतिहास और कला को जानने समझने की इच्छा जागे.

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नीचे की मेरी खींची तस्वीरें दुनिया के विभिन्न देशों में संग्रहालयों से हैं.

Museums - images by S. Deepak

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शनिवार, जुलाई 09, 2011

मन पसंद गैर फ़िल्मी गीत

सुबह साइकल पर जा रहा था. कुछ देर पहले ही बारिश रुकी थी. आसपास के पत्ते, घास सबकी धुली हुई हरयाली अधिक हरी लग रही थी. अचानक मन में गाना आया "इस तुमुल कोलाहल कलह में". जाने कितने साल पहले सुना था यह गीत, शायद चालिस साल पहले. आशा भौंसले का गाया यह गीत, मन की गहराईयों में जाने कहाँ चुपा था जो इस तरह से अचानक उभर आया था. आसपास बिल्कुल सन्नाटा था, कोई तुमल, कोलाहल, कलह नहीं था, फ़िर क्यों यही गीत मन में आया था?

विदेशों में अधिकतर फ़िल्मों में गीत नहीं होते, जबकि भारतीय फ़िल्मों में गीतों के बिना फ़िल्में नहीं होती. हम लोग अधिकतर फ़िल्मी गीतों से ही अधिक परिचित हैं, पर फ़िर भी कभी कभी आशा भौंसले के "तुमुल कोलाहल" जैसे गीत कुछ प्रसिद्ध हो ही जाते हैं. जब एम टीवी और वी चैनल आने लगे थे तो मैं सोचता था कि अब गैर फ़िल्मी गानो को अपना सही स्थान मिलेगा, पर इस तरह का कुछ हुआ लगता नहीं, हालाँकि नब्बे के दशक के बाद से गैर फ़िल्मी गीतों की कुछ लोकप्रियता बढ़ी है. नीचे की तस्वीर में सुश्री अश्विनी भिड़े देशपांडे हैं जिनके भजन और गायकी मुझे बहुत पसंद हैं।

फ़िर सोचने लगा कि अगर गैर फ़िल्मी गानों के बारे में सोचूँ तो क्या अपने मन पंसद दस गैर फ़िल्मी गानों की सूची बना पाऊँगा? साथ में ही मेरी शर्त यह भी थी कि एक एँल्बम से एक से अधिक गीत नहीं चुन सकते, और गीत अपने आप याद आना चाहये, गूगल पर खोज कर नहीं निकनला उसे. प्रारम्भ में कुछ ध्यान में नहीं आ रहा था, लेकिन फ़िर धीरे धीरे कुछ गाने याद आने लगे. यह सूची बनायी है, हालाँकि इनमें से यह चुनना कि कौन सा गीत अधिक पसंद है कठिन है. कुछ गायकों के नाम याद आये पर उनका कोई गीत याद नहीं आया.

1. "कृष्णा नीबेगने बरो" जिसे कोलोनियल कज़नस् (Colonial Cousins) ने गाया था. इनकी इसी एल्बम में से मुझे "स नि धा पा गा मा गा रे सा" भी बहुत अच्छा लगता है लेकिन अगर एक ही चुनना पड़े तो मैं "कृष्णा" को ही चुनुँगा.

2. रब्बी का गाया "बुल्ला की जाणा मैं कौण" - इस गाने के बाद मैंने रब्बी की एक और एँल्बम भी खरीदी थी जो मुझे अच्छी भी लगी थी, लेकिन अब सोचने पर भी उसके गीत याद नहीं आते.

3. मुकुल और मितुल का "सावन" यह दोनो गायक अधिक प्रसिद्ध नहीं हुए लेकिन मुझे इनके गाने का अंदाज़ बहुत पसंद है.




4. आशा जी का "इस तुमुल कोलाहल कलह में"

5. जगजीत सिंह और चित्रा सिंह का "सरकती जाये है रुख से नकाब आहिस्ता आहिस्ता"

6. किशोरी आमोनकर का "सहेला रे"

7. अश्विनी भिडे देशपांडे का "गणपति विघ्नहरण गजानन". इस गीत के पीछे एक छोटी सी कहानी है. कुछ वर्ष पहले डा. देशपांडे हमारे शहर आयीं थीं. उनसे बात करने का भी मौका मिला. उनसे बात करते हुए मैंने उन्हें कहा कि मुझे उनका यह भजन बहुत प्रिय है. उस दिन शाम को जब उनका गायन कार्यक्रम समाप्त होने वाला था, उन्होंने इस गीत को मेरे लिए गाया. तब से यह गीत मेरे मन में और गहरा उतर गया.

8. मोहित चौहान का "सजना" - आज कल के गायकों में से मेरे सबसे प्रिय हैं मोहित चौहान.

9. ग़ुलाम अली का "आवारागी" - चालिस साल पहले यह गीत एक बार दिल्ली की ललित कला अकेदमी की लायब्रेरी में सुना था तो उसने मंत्र मुग्ध कर दिया था.

10. कुमार गंधर्व का "उड़ जायेगा हँस अकेला" - बचपन में कुमार गंधर्व जी के निर्गुणी भजनों से मेरी मुलाकात मेरे छोटे फ़ूफा ने करायी थी. उसके बाद कई बार कुमार गंधर्व जी को गाते हुए सुनने का मौका भी मिला. उनके कबीर भजन मुझे बहुत प्रिय हैं.

यह दस गीत तो मैंने आज चुने हैं लेकिन यह भी है कि समय के साथ मेरी पसंद भी बदलती रहती है. आप के सबसे प्रिय गैर फ़िल्मी गीत कौन से हैं, हमें भी बताईये. शायद आप की पसंद के गीतों में मेरी पसंद के अन्य गीत भी छुपे हों?

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सोमवार, जून 20, 2011

विचित्र शब्द

हिन्दी के "चंदू की चाची ने, चंदू के चाचा को चाँदी के चम्मच से चाँदनी चौंक में चटनी चटाई" जैसे वाक्यों को, जिन्हें बोलने में थोड़ी कठिनायी हो या बोलने के लिए बहुत अभ्यास करना पड़े, अंग्रेज़ी में "टँग टिविस्टर" (Tongue twister) यानि "जीभ को घुमाने वाले" वाक्य कहते हैं.

Grafic design about strange words by S. Deepak

इस तरह के वाक्य अन्य भाषाओं में भी होते हैं. चेक गणतंत्र की भाषा चेक में ऐसा एक वाक्य हैः "मेला बब्का वू कापसे ब्राबसे, ब्राबसे बाबसे वू कापसे पिप. ज़्मक्ला बबका ब्राबसे वू कापसे, ब्राबसे बाबसे वू कापसे चिप." यानि "नानी की जेब में चिड़िया थी, चिड़िया ने चींचीं की, नानी ने चिड़िया को दबाया, चिड़िया मर गयी."

विभिन्न भाषाओं कई बार छोटे से शब्द मिलते हें, जिनके अर्थ समझाने के लिए पूरा वाक्य भी कम पड़ सकता है. कुछ इस तरह के शब्दों के उदाहरण देखिये.

जापानी लोग कहते हैं "अरिगा मेईवाकू" जिसका अर्थ है, "वह काम जिसे कोई आप के लिए करता है, जो आप नहीं चाहते थे, और आप की पूरी कोशिश के बाद कि वह व्यक्ति वह काम न करे, वह उसे करता है, और आप के लिए इतना झँझट खड़ा कर देता है जिससे आप को बहुत परेशानी होती है, लेकिन फ़िर भी आप को उस व्यक्ति को धन्यवाद कहना पड़ता है". जर्मन शब्द "बेरेनडीन्स्ट" का अर्थ भी इससे मिलता जुलता है.

जापानी का एक अन्य शब्द है, "आजे ओतोरी" जिसका अर्थ है "बड़ा होने के समारोह के लिए अपने बालों का विषेश स्टाईल बनवाना, जिससे बजाय अच्छा लगने के, आप की शक्ल और भी बिगड़ी हुई लगे".

हालैंड निवासी कहते हैं "प्लिमप्लामप्लैटरेन", जब कोई पानी की सतह पर इस तरह से पत्थर फ़ैंके कि वह पत्थर कुछ दूर तक पानी पर उछलता हुआ जाये.

फ्राँसिसी बोली में कहते है, "सिन्योर तेरास", उस व्यक्ति के बारे में जो बार या रेस्टोरेंट में जा कर बहुत सा समय बिताता है, पर खाता पीता बहुत कम है जिससे उसका खर्चा कम होता है.

अलग अलग भाषाओं में बात को कहने के कुछ अजीब अजीब तरीके भी होते हैं, जैसे कि इंदोनेशिया में समय बरबाद को कहते हैं "कुसत सेबे लोकटी", यानि "अपनी कोहनियाँ चाटना". चीनी लोग, जब कोई ज़रूरत से अधिक ध्यान और हिदायत से काम करता है, कहते हैं, "तुओ कूरी फाँग पी" यानि "पाद मारने के लिए पैंट उतारना". कोरिया में जब कोई बिना आवश्यकता के बहुत ताकत लगा कर कुछ काम करता है, तो कहते हैं "मोजी जाबेरियूदाछोगा सामगान दा तायेवोन्दा" यानि "मच्छर पकड़ने के चक्कर में घर गिरा देना".

इस तरह के शब्दों के बारे में विचित्र और दिलचस्प बातें लिखीं हैं होलैंड के आदम जूआको ने अपने चिट्ठे "टिंगो का अर्थ" (The Meaning of Tingo) पर. उनका यह चिट्ठा इतना सफ़ल हुआ कि इसकी उन्होंने किताब छपवायी. किताब छपने के बाद से उन्होंने चिट्ठे पर नयी पोस्ट लिखना बन्द कर दिया, फ़िर भी पढ़ने के लिए वहाँ बहुत सी दिलचस्प बातें मिलती हैं.

हमारी भारतीय भाषाओं में भी जाने इस तरह के कितने शब्द होंगे, विचित्र तरीके होंगे बात को कहने के, ऐसे छोटे छोटे शब्द होंगे जिनके लम्बे अर्थ हों, जो सारी दुनिया से अलग हों. शायद हममें से कोई उस पर चिट्ठा बना सकता है, सफ़लता अवश्य मिलेगी. कुछ उदाहरण हमें भी देने की कोशिश कीजिये.

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शुक्रवार, जून 17, 2011

अंत का प्रारम्भ

पिछले कुछ सालों में इटली के प्रधानमंत्री श्री सिल्वियो बरलुस्कोनी का नाम विश्व भर में जाना जाने लगा है. जिन्हें इटली के बारे में कोई अन्य जानकारी नहीं है, वे भी बरलुस्कोनी का नाम जानते हैं. इसका कारण यह भी है कि विश्व भर में पत्रकारिता बदल रही है. उदारवाद और वैश्वीकरण से, अखबारों में बिक्री कैसे बढ़ायी जाये की चिन्ता भी बढ़ी है और इस चिन्ता को घटाने में बरलुस्कोनी जी बड़े सहयोगी हैं क्योंकि वह नियमित रूप से सेक्स से जुड़े स्कैंडलों के हीरो हैं जिनकी खबरे दुनिया के समाचार पत्र खुशी से छापते हैं.

उत्तरी इटली के मिलान शहर के उद्योगपति, बरलुस्कोनी ने पहला पैसा ज़मीन और घरों के बनाने और उनकी बिक्री से बनाया, फ़िर टेलीविज़न और अखबारों के व्यवसाय में झँडे गाड़े. आज उनके व्यवसाय विभिन्न क्षेत्रों में फ़ैले हैं और वह दुनिया के सबसे अमीर लोगों में गिने जाते हैं. सत्रह वर्ष पहले, राजनीति में आने से पहले, वह 1980 के दशक में इटली की समाजवादी पार्टी के नेता इटली के प्रधान मंत्री बेत्तिनो क्राक्सी के करीबी मित्र समझे जाते थे. 1990 के दशक के प्रारम्भ में इटली में "साफ़ हाथ" का स्कैंडल हुआ जिसकी चपेट में उस समय के बहुत सारे भ्रष्टाचारी राजनीतिज्ञ आ गये. जेल से बचने के लिए क्राक्सी को इटली छोड़ मोरोक्को भागना पड़ा. उस समय को इटली के "पहले गणतंत्र का अंत" कहा जाता है और तब आशा थी कि इटली में भ्रष्टाचार विहीन नया "दूसरा गणतंत्र" बनेगा. उस समय नये गणतंत्र के दूत के रूप में राजनेता बरलुस्कोनी का जन्म हुआ, उन्होंने "फोर्स्ज़ा इतालिया" (Forza Italia) यानि "मजबूत इटली" नाम का नया राजनीतिक दल बनाया जिसमें राजनीति से बाहर के नये "ईमानदार" लोगों को जगह दी गयी.

Berlusconi posters

लोगों का कहना था कि बरलुस्कोनी राजनीति से बाहर के व्यक्ति हैं, पहले से ही इनके पास पैसा है, उन्हें देश का पैसा खाने की आवश्यकता नहीं, वह ईमानदारी से देश की सेवा करेंगे. उनकी इस स्वच्छ छवि में कुछ कमियाँ थीं, जैसे कि उनके विरुद्ध चल रहे कुछ मुकदमें और राजनीति में उनका पुरानी फासिस्ट पार्टी से गठबँधन, पर इन दोनो बातों को उनके प्रशंसकों ने बहुत गम्भीरता से नहीं लिया. नब्बे के दशक में उन्होंने चुनाव जीते और सरकार बनायी, लेकिन गठबँधन के साथियों ने उनका पूरा साथ नहीं दिया और उनकी सरकार बहुत समय तक नहीं चली. उसी समय में उन पर लगे मुकदमे भी बढ़ने लगे. इससे बरलुस्कोनी ने दो तरह की बातों को बढ़ावा दिया - पहली बात कि मुझसे सत्ता में रहने वाले वामपंथी दल डरते हैं और मुझे राह से हटाने के लिए वामपंथी मजिस्ट्रेटों के सहयोग से झूठे मुकदमे चलाये रहे हैं, और दूसरी बात कि मैं देश को तरक्की की राह पर ले जाना चाहता हूँ लेकिन बाकी के दल आपस में मिल कर मुझे यह मौका नहीं दे रहे.

इन्हीं दो संदेशों को वह विभिन्न रूपों में पिछले दशक में भी दौहराते रहें हैं, हालाँकि इस दशक में वह स्वयं सबसे अधिक समय से सत्ता में हैं. जवान कम उम्र की लड़कियों और युवतियों पर सेक्स सम्बंधी बातें व इशारे करना, अपनी मर्दानगी की डींगे मारना, इन सब बातों के लिए वह शुरु से ही जाने जाते थे. प्रधानमंत्री बनने के बाद जब विभिन्न अंतरराष्ट्रीय सभाओं आदि में उन्होंने अन्य देशों की नारी नेताओं के बारे में बिना सोचे समझे टिप्पणियाँ की या इशारे किये, तो विभिन्न देशों की जनता ने उन्हें पहचानना शुरु कर दिया. विरोधी दलों की औरतों के बारे में उनकी टिप्पणियाँ बार बार अखबारों में मुख्यपृष्ठ का मसाला बनती रही हैं.

अपनी इस दृष्टि के समर्थन में उन्होंने यह कहना शुरु कर दिया कि मैं जिस औरत को चाहूँ, उसे राजनीति में नेता बना सकता हूँ, क्योंकि नेता बनने के लिए उनको बस किसी पुरुष नेता का सहारा चाहिये, और कुछ नहीं. जनता में वह बहुत लोकप्रिय थे, और उनकी इस तरह की बातों को बहुत गम्भीरता से नहीं लिया गया, लोग कहते थे कि वह अच्छे नेता हैं, काम बढ़िया करते हैं, इस तरह की बातें तो वह हँसी मज़ाक में कहते रहते हैं और साथ ही यह भी कि इस तरह की बातें उनकी व्यक्तिगत जीवन की बाते हैं, इन्हें गम्भीरता से नहीं लेना चाहिये.

पर पिछले दो तीन सालों में उनकी इस तरह की बातें इतनी बढ़ गयीं हैं कि इन बातों के पीछे उनकी सरकार क्या करती है या नहीं करती, इसकी बात होनी बन्द हो गयी है. उन पर चलने वाले मुकदमे हर साल नये जुड़ रहे हैं, लेकिन वह कहते हैं कि सब झूठे हैं, कि मुकदमे कम्युनिस्ट मजिस्ट्रेटों द्वारा उन्हें सत्ता से हटाने के लिए बनाये जा रहे हैं. उनकी सरकार ने कई नये कानून बनाये हैं ताकि वह अपने मुकदमों से छुटकारा पा सकें.

उनके विरुद्ध पैसे दे कर जवान युवतियों से सेक्स सम्बंध करने के बहुत से मामले निकले हैं. पैसा दे कर सेक्स करना, यह इतालवी कानून के विरुद्ध नहीं, लेकिन युवती कम से कम 18 साल की होनी चाहिये. लेकिन अन्य युवतियों की वेश्यावृति से पैसे कमाना, यानि दल्लेबाज़ी गैरकानूनी है.

इसलिए, इन मामलों में यही कहा गया कि उन्होंने कोई गैर कानूनी काम नहीं किया, लेकिन उन युवतियों ने पत्रिकाओं को प्रधान मंत्री के साथ अपने आत्मीय अनुभवों की बातों के साक्षात्कार बेच कर सनसनी फैलायी और दल्लाबाज़ी के अपराध में उनके कुछ सहयोगियों पर मुकदमे चले. ऐसी बातें भी निकलीं कि अच्छे खाते पीते घरों की पढ़ी लिखी युवतियाँ उनसे दोस्ती बनाती हैं ताकि ऊँचे पद की नौकरी या संसद में जगह पा सकें. कहते हैं कि उनके मंत्री मंडल में और देश के विभिन्न शहरों की स्थानीय सरकारों में इस तरह से उन की जान पहचान वाली बहुत सी यवतियाँ हैं जिनमें से कुछ ने स्वीकारा है कि उनके प्रधान मंत्री से प्रेम या सेक्स सम्बंध भी रहे हैं. उनकी संगीत, नृत्य और कम कपड़े पहने हुए युवतियों की पार्टियों में विदेशी राष्ट्रपति, मंत्री, प्रधानमंत्री भी हिस्सा लेते हैं, इसकी बातें भी कई बार निकली.

इन सब बातों में हर बार अखबार में पहले पन्ने पर हेडलाईन निकलती हैं, कुछ दिन हल्ला उठता है, फ़िर बात गुम हो जाती है, यह समझना कठिन होता है कि क्या सच है, क्या झूठ. तीन साल पहले उनकी पत्नी ने उन पर आरोप लगाया कि वह नाबालिग युवतियों से सम्बंध बना रहे थे और उनसे अलग होने का फैसला किया. लेकिन 75 वर्षीय बरलुस्कोनी इससे हताश नहीं हुए हैं और तलाक के बाद उनके चर्चे और भी बढ़ गये हैं. कुछ महीने पहले, मोरोक्को की एक सत्रह साल की नाबालिग लड़की रूबी से सेक्स का स्कैंडल निकला, जिसकी बहुत चर्चा रही, लेकिन यह कहना कठिन है कि इसका कुछ असर पड़ेगा या यह भी भुला दिया जायेगा. इस बात पर कुछ मास पहले सारी इटली में विभिन्न शहरों में उनके विरुद्ध स्त्री समूहों द्वारा आयोजित बड़े प्रदर्शन हुए थे. नीचे की तस्वीरों में, बरलुस्कोनी के विरुद्ध बोलोनिया शहर में हुए प्रदर्शन की कुछ तस्वीरें.

Anti-Berlusconi protests, Bologna, February 2011 - images by S. Deepak

Anti-Berlusconi protests, Bologna, February 2011 - images by S. Deepak

Anti-Berlusconi protests, Bologna, February 2011 - images by S. Deepak

विदेश में लोग बार बार पूछते हैं कि इतने स्कैंडल के बाद भी बरलुस्कोनी कैसे प्रधानमंत्री बने हुए हैं और जनता में इतने लोकप्रिय हैं. ऐसा नहीं कि इटली में उनके विरुद्ध बोलने वाले लोग नहीं, लेकिन यह भी सच है कि 30 या 33 प्रतिशत वोट लेने वाली उनकी पार्टी पिछले राष्ट्रीय चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी थी. यानि, 67 से 70 प्रतिशत लोग उनके विरुद्ध हैं, पर उनके विरोधी अलग अलग गुटों या दलों में बँटे हैं, मिल कर उनका सामना नहीं कर पाते. पिछले दो दशकों में विरोधी दल अगर सत्ता में आये भी हैं, तो आपस में ही लड़ते रहे हैं.

लेकिन शायद अब स्थिति कुछ बदलने लगी है. मई के अंत में देश के कई बड़े शहरों में चुनाव हुए. करीब करीब हर जगह, बरलुस्कोनी की पार्टी को मात मिली. पिछले सप्ताह, सरकार के चार निर्णयों पर विरोधी दलों ने जनमत का आयोजन किया, जिसमें बरलुस्कोनी ने सबसे कहा कि वोट देने नहीं जाईये ताकि जनमत असफ़ल हो जाये. लेकिन लोग वोट देने गये और सरकार के चारों निर्णयों को जनता ने गलत कहा, यानि सरकार को यह निर्णय बदलने पड़ेंगे. इनमें से एक निर्णय बरलुस्कोनी पर चलने वाले मुकदमें से सम्बंधित भी है.

कल तक बरलुस्कोनी जी लगता था कि अपने किले में सुरक्षित हैं, उन्हें कोई हरा नहीं सकता, अब अचानक लोग कहने लगे हैं कि शायद बरलुस्कोनी का समय गया, जनता का उन पर विश्वास नहीं रहा. बहुत से लोग कह रहे हैं कि यह बरलुस्कोनी के अंत का प्रारम्भ है.

उनकी सरकार के पास अभी दो साल और हैं. प्रतीक्षा करनी पड़ेगी यह देखने के लिए कि क्या वह इन दो सालों में अपनी छवि को सुधार सकेंगे? नयी नीतियाँ बना सकेंगे जिनसे उनके प्रशंसक फ़िर से उन पर विश्वास करने लगें? क्या विरोधी दल मिल कर काम कर सकेंगे और सरकार बना सकेंगे? इन सब प्रश्नों के उत्तर तो समय ही देगा.

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