1965 में आयी थी राजेन्द्र कुमार, साधना, फिरोज़ खान और नाज़िमा की फ़िल्म "आरज़ू", जिसके निर्देशक थे रामानन्द सागर. तब दिल्ली के इंडिया गेट पर अमर जीवन ज्योति का सैनिक स्मारक नहीं बना था और रानी विक्टोरिया की मूर्ति भी वहीं पर स्थापित थी. तब दिल्ली में कारें भी बहुत कम थीं, साइकल पर बाहर घूमने जाना न तो नीचा माना जाता था, और न ही उससे दिल्ली की सड़कों पर आप की जान को खतरा होता था.
तब जँगली, कश्मीर की कली, जब प्यार किसी से होता है, जैसी फ़िल्मों में गाने कश्मीर में फ़िल्माये जाते थे, जहाँ हीरो हीरोइन का प्रेम मिलन दो फ़ूलों को एक दूसरे से टकरा कर दिखाते थे. उन दिनों में इंडियन एयरलाईंस की एयर होस्टेस हल्के नीले रंग के बोर्डर वाली साड़ी पहनती थीं और हवाई अड्डे खुले मैदान जैसे होते हैं बस उसकी बाऊँडरी के आसपास काँटों वाला तार लगा होता था. तब चित्रकार बड़े बड़े बोर्डों पर फ़िल्म के दृश्य बनाते थे.
ऐसे ही किसी बोर्ड पर हमने भी "आरज़ू" फ़िल्म का दृश्य बना देखा था जिसमें राजेन्द्र कुमार जी पहाड़ पर बर्फ़ में स्कीइंग कर रहे थे, और जिसने हमारा मन मोह लिया था. खूब ज़िद की हमने घर में कि हम यह फ़िल्म अवश्य देखेंगे. खैर जब तक फ़िल्म देखने का कार्यक्रम बना, फ़िल्म को आये छः सात महीने अवश्य हो चुके थे, उसकी गोल्डन जुबली मनायी जा चुकी थी, और उसे देखने हम लोग तीस हज़ारी के पास एक सिनेमा हाल में गये थे जिसका नाम शायद नोवल्टी था.
रंगीन फ़िल्म, बर्फ़ के सुन्दर नज़ारे, राजेन्द्र कुमार की स्कीइंग और त्याग, फ़िरोज़ खान की दोस्ती, साधना का रोना और अपना पाँव काटने की कोशिश करना, नाज़िमा की चीखें, नज़ीर हुसैन का रोते हुए कहना "बेटी, अपने खानदान की इज़्ज़त अब तुम्हारे हाथ में है", वाह! फ़िल्म की कहानी, डायलाग, गाने सब कुछ बहुत अच्छा लगा था.
चालिस साल बीतने के बाद भी "आरज़ू" फ़िल्म की याद मन में थी, इसलिए पिछली भारत यात्रा में जब एक दुकान में फ़िल्म की डीवीडी देखी तो रुका नहीं गया, सोचा कि पुरानी यादों को ताज़ा करने के लिए फ़िल्म को दोबारा देखना चाहिये.
फ़िल्म के पहले ही दृश्य में राजेन्द्र कमार को साइकल पर इंडियागेट में जहाँ अब अमर जवान ज़्योति है, वहाँ से बीच में से गुज़रते देखा, तो दिल्ली के भूले हुए दिन याद आ गये, पर साथ ही लगा कि चालिस साल के बाद भी हिन्दी फ़िल्मों में एक बात नहीं बदली. यानि कि चाहे आप एयरपोर्ट से आ रहे हों, वैसे ही बाहर घूम रहे हों, या काम पर जा रहे हों, कुछ भी हो, फ़िल्म में वह सड़क इन्डिया गेट, लाल किला और कुतुब मिनार के सामने से अवश्य गुज़रती है.
राजेन्द्र कुमार को कालिज का परिणाम पाने वाला दृष्य देखा और जब उनकी माँ बोली कि बेटा तुमने मेडिकल कोलिज में फर्स्ट कलास में सबसे अव्वल नम्बर पाये हैं तो भी यही ख्याल आया कि चालिस साल बाद यह भी नहीं बदला कि हमारे 35 या 40 साल के हीरो अभी भी कोलिज में पढ़ते हैं और कालिज के अन्य लड़के लड़कियों के बाप जैसे लगते हैं.
हीरो हीरोइन कई दिनों तक मिलते हैं, उनमें प्रेम होता जाता है लेकिन हीरोइन को न हीरो का नाम मालूम होता है न उसका पता. फ़िर संयोग से हीरोइन की सगाई हीरो के करीबी मित्र से हो जाती है और संयोग से ही हीरोइन हीरो की बहन से साथ पढ़ती है. इस तरह की संयोग वाली अविश्वस्नीय बातें भी इन चालिस सालों में हिन्दी सिनेमा में नहीं बदलीं.
लेकिन किसी किसी बात में बदलाव आया है. जैसे कि राजेन्द्र कुमार की स्कीइंग का दृश्य देखा तो हँसी आ गयी कि चालिस साल पहले यह किस तरह से ग्लेमरस लगा था! कश्मीर में इस तरह की फ़िल्म बनाना तो कई दशकों से बन्द हो गया है और अब कश्मीर में केवल आतंकवाद या मिलेट्री वाली फ़िल्में ही बनती हैं.
राजेन्द्र कुमार का अपनी प्रेमिका की सहेली सलमा के पिता हकीम साहब बन कर उसके घर जाने के दृष्य को देख कर लगा कि पहले उर्दू शेरो-शायरी की बात जितनी सहजता से कहानी में जोड़ दी जाती थी, वह अब नहीं होती. उससे एक साल पहले 1964 में राजेन्द्र कुमार और साधना की फ़िल्म "मेरे महबूब" बहुत हिट हुई थी, शायद आरज़ू फ़िल्म का यह सारा हिस्सा उसी की प्रेरणा से इस फ़िल्म में जोड़ दिया गया था.
लेकिन इतने सालों के बाद भी फ़िल्म के गानो को सुन कर लगा मानो मैं अभी वही लड़का हूँ जो इस फ़िल्म को देखने गया था -
पुरानी यादों को ताज़ा करते हुए, "आरज़ू" के कुछ दृष्य प्रस्तुत हैं:
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तब जँगली, कश्मीर की कली, जब प्यार किसी से होता है, जैसी फ़िल्मों में गाने कश्मीर में फ़िल्माये जाते थे, जहाँ हीरो हीरोइन का प्रेम मिलन दो फ़ूलों को एक दूसरे से टकरा कर दिखाते थे. उन दिनों में इंडियन एयरलाईंस की एयर होस्टेस हल्के नीले रंग के बोर्डर वाली साड़ी पहनती थीं और हवाई अड्डे खुले मैदान जैसे होते हैं बस उसकी बाऊँडरी के आसपास काँटों वाला तार लगा होता था. तब चित्रकार बड़े बड़े बोर्डों पर फ़िल्म के दृश्य बनाते थे.
ऐसे ही किसी बोर्ड पर हमने भी "आरज़ू" फ़िल्म का दृश्य बना देखा था जिसमें राजेन्द्र कुमार जी पहाड़ पर बर्फ़ में स्कीइंग कर रहे थे, और जिसने हमारा मन मोह लिया था. खूब ज़िद की हमने घर में कि हम यह फ़िल्म अवश्य देखेंगे. खैर जब तक फ़िल्म देखने का कार्यक्रम बना, फ़िल्म को आये छः सात महीने अवश्य हो चुके थे, उसकी गोल्डन जुबली मनायी जा चुकी थी, और उसे देखने हम लोग तीस हज़ारी के पास एक सिनेमा हाल में गये थे जिसका नाम शायद नोवल्टी था.
रंगीन फ़िल्म, बर्फ़ के सुन्दर नज़ारे, राजेन्द्र कुमार की स्कीइंग और त्याग, फ़िरोज़ खान की दोस्ती, साधना का रोना और अपना पाँव काटने की कोशिश करना, नाज़िमा की चीखें, नज़ीर हुसैन का रोते हुए कहना "बेटी, अपने खानदान की इज़्ज़त अब तुम्हारे हाथ में है", वाह! फ़िल्म की कहानी, डायलाग, गाने सब कुछ बहुत अच्छा लगा था.
चालिस साल बीतने के बाद भी "आरज़ू" फ़िल्म की याद मन में थी, इसलिए पिछली भारत यात्रा में जब एक दुकान में फ़िल्म की डीवीडी देखी तो रुका नहीं गया, सोचा कि पुरानी यादों को ताज़ा करने के लिए फ़िल्म को दोबारा देखना चाहिये.
फ़िल्म के पहले ही दृश्य में राजेन्द्र कमार को साइकल पर इंडियागेट में जहाँ अब अमर जवान ज़्योति है, वहाँ से बीच में से गुज़रते देखा, तो दिल्ली के भूले हुए दिन याद आ गये, पर साथ ही लगा कि चालिस साल के बाद भी हिन्दी फ़िल्मों में एक बात नहीं बदली. यानि कि चाहे आप एयरपोर्ट से आ रहे हों, वैसे ही बाहर घूम रहे हों, या काम पर जा रहे हों, कुछ भी हो, फ़िल्म में वह सड़क इन्डिया गेट, लाल किला और कुतुब मिनार के सामने से अवश्य गुज़रती है.
राजेन्द्र कुमार को कालिज का परिणाम पाने वाला दृष्य देखा और जब उनकी माँ बोली कि बेटा तुमने मेडिकल कोलिज में फर्स्ट कलास में सबसे अव्वल नम्बर पाये हैं तो भी यही ख्याल आया कि चालिस साल बाद यह भी नहीं बदला कि हमारे 35 या 40 साल के हीरो अभी भी कोलिज में पढ़ते हैं और कालिज के अन्य लड़के लड़कियों के बाप जैसे लगते हैं.
हीरो हीरोइन कई दिनों तक मिलते हैं, उनमें प्रेम होता जाता है लेकिन हीरोइन को न हीरो का नाम मालूम होता है न उसका पता. फ़िर संयोग से हीरोइन की सगाई हीरो के करीबी मित्र से हो जाती है और संयोग से ही हीरोइन हीरो की बहन से साथ पढ़ती है. इस तरह की संयोग वाली अविश्वस्नीय बातें भी इन चालिस सालों में हिन्दी सिनेमा में नहीं बदलीं.
लेकिन किसी किसी बात में बदलाव आया है. जैसे कि राजेन्द्र कुमार की स्कीइंग का दृश्य देखा तो हँसी आ गयी कि चालिस साल पहले यह किस तरह से ग्लेमरस लगा था! कश्मीर में इस तरह की फ़िल्म बनाना तो कई दशकों से बन्द हो गया है और अब कश्मीर में केवल आतंकवाद या मिलेट्री वाली फ़िल्में ही बनती हैं.
राजेन्द्र कुमार का अपनी प्रेमिका की सहेली सलमा के पिता हकीम साहब बन कर उसके घर जाने के दृष्य को देख कर लगा कि पहले उर्दू शेरो-शायरी की बात जितनी सहजता से कहानी में जोड़ दी जाती थी, वह अब नहीं होती. उससे एक साल पहले 1964 में राजेन्द्र कुमार और साधना की फ़िल्म "मेरे महबूब" बहुत हिट हुई थी, शायद आरज़ू फ़िल्म का यह सारा हिस्सा उसी की प्रेरणा से इस फ़िल्म में जोड़ दिया गया था.
लेकिन इतने सालों के बाद भी फ़िल्म के गानो को सुन कर लगा मानो मैं अभी वही लड़का हूँ जो इस फ़िल्म को देखने गया था -
- अजी रूठ कर अब कहाँ जाईयेगा, जहाँ जाईयेगा हमें पाईयेगा
- ऐ नरगिसे मस्ताना बस इतनी शिकायत है
- छलके तेरी आँखों से शराब और भी ज़्यादा
- ऐ फ़ूलों की रानी, बहारों की मल्लिका, तेरा मुस्कुराना गज़ब ढा गया
- बेदर्दी बाल्मा तुझको मेरा मन याद करता है
पुरानी यादों को ताज़ा करते हुए, "आरज़ू" के कुछ दृष्य प्रस्तुत हैं:
श्रीनगर हवाईअड्डा और एयर इंडिया की एयर होस्टेस
हीरो का भेष बदल कर हीरोइन के घर आना
संयोग से हीरोइन की बहन ने देखा कि उसकी सहेली के पास उसके भाई की तस्वीर थी
धूमल और महमूद की कामेडी
हीरोइन का अपना पैर काटने का बलिदान
(अगर वह लकड़ी काटने वाली मशीन के करीब ही बैठ जाती तो आप के दिल की धड़कन कैसे बढ़ती?)
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कितनी ख़ूबसूरती से बयाँ किया आपने ... मैं उस दौर में नहीं थी पर उस दौर की नफासत आज हमको भी उसी तरह लुभाती है ... आज की पीढ़ी से हूँ पर देल्ली बेल्ली से जोड़ नहीं पाती
जवाब देंहटाएंउफ़ क्या याद दिला दी...... मैंने ये फिल्म अजंता सिनेमा पर ५ बार देखि....... जब ये दुबारा लगी थी... सन १९८९ में ......
जवाब देंहटाएंटिकट मूल्य था १.९० पैसे जाहिर है १० पैसे वापिस नहीं मिलते थे और आगे आगे की सीट मिलती थी....
ओखला गाँव भी याद आ गया ..
जवाब देंहटाएंएकदम जीवंत चिंत्रण।
जवाब देंहटाएं------
ब्लॉग के लिए ज़रूरी चीजें!
क्या भारतीयों तक पहुँचेगी यह नई चेतना ?
खूबसूरत फिल्म है। तब हमने भी देखी थी। और अब, अब तो थिएटर में फिल्म देखे बरसों बीत चुके हैं।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन फ़िल्मीनामा...
जवाब देंहटाएंफिल्म तो नहीं देखी किन्तु ये सब गीत दिन रात रेडियो पर सुना करते थे. यादें ताजा हो गईं. आभार.
जवाब देंहटाएंघुघूती बासूती
Puraani Films aaj bhi lubhati hain...
जवाब देंहटाएंआप सभी को धन्यवाद
जवाब देंहटाएंदीपक बाबू, हमने भी यह फ़िल्म सबसे आगे वाली लाईन में ही बैठ कर देखी थी, और 1965 में टिकट था 12 आने :)
बीते दिनों की सुन्दर कहानी।
जवाब देंहटाएंये सीन देखकर तो हमें अपना बचपन याद आ गया। वीसीआर पर यह फ़िल्म देखकर तो हमारी सांसें ही अटक गई थीं जब हीरोईन आरा मशीन पर बैठ गई थी प्रेम दीवानी बनकर।
जवाब देंहटाएं@ सुनील दीपक जी ! आप पिछली मर्तबा हमारी ब्लॉगर्स मीट में आए थे। अगर आप हर हफ़्त शनिवार तक अपनी किसी पोस्ट का लिंक भेज दिया करें तो हम उसे अपने पाठकों के सामने रख दिया करेंगे जिससे लोगों के बीच की अजनबियत की दीवार गिरेगी और फ़ासले ख़त्म होंगे।
ब्लॉगर्स मीट वीकली में आप सादर आमंत्रित हैं।
बेहतर है कि ब्लॉगर्स मीट ब्लॉग पर आयोजित हुआ करे ताकि सारी दुनिया के कोने कोने से ब्लॉगर्स एक मंच पर जमा हो सकें और विश्व को सही दिशा देने के लिए अपने विचार आपस में साझा कर सकें। इसमें बिना किसी भेदभाव के हरेक आय और हरेक आयु के ब्लॉगर्स सम्मानपूर्वक शामिल हो सकते हैं। ब्लॉग पर आयोजित होने वाली मीट में वे ब्लॉगर्स भी आ सकती हैं / आ सकते हैं जो कि किसी वजह से अजनबियों से रू ब रू नहीं होना चाहते।
आरजू के गाने बड़े लाजवाब हैं। जहां तक मुझे याद है इसी फिल्म के बनने के साल या पहले शायद जवाहरलाल नेहरू की मौत हुई थी और उस पर गमगीन माहौल में बातें करते महमूद और राजेन्द्र कुमार को शायद इसी फिल्म में दिखाया गया है।
जवाब देंहटाएंखूबसूरत कहानी जो उतनी ही ख़ूबसूरती से बयाँ हुई है . बधाई दीपक जी . फोटो देखा और अब यहाँ लेखनी से साक्षात्कार हुआ .
जवाब देंहटाएंold is gold
जवाब देंहटाएंपुरानी बातें याद करके हमें भी खूब मजा आया आपके साथ...शुक्रिया...
जवाब देंहटाएंनीरज