शुक्रवार, जुलाई 17, 2015

चमकीले फीतों का जहर

बहुत साल पहले एक पत्रिका होती थी "सारिका", उसमें किशन चन्दर की एक कहानी छपी थी "नीले फीते का जहर". क्या था उस कहानी में यह याद नहीं, बस यही याद है कि कुछ ब्लू फ़िल्म की बात थी. पर दुकानों पर लटकती चमकीली थैलियों के फीते देख कर मुझे हमेशा उसके शीर्षक की याद आ जाती है.

Sachet pollution in India - Images by Sunil Deepak

हवा में लटकते फीते किसी बुद्ध मन्दिर में फहराते प्रार्थना के झँडों की तरह सुन्दर लगते हैं. इन थैलियों में शैम्पू, काफी, मक्खन, आदि विभिन्न चीज़ें बिकती हैं, जिनमें कोई जहर नहीं होता. इन झँडों में आम भारतीय उपभोगता की स्वाभाविक चालाकी की कहानी भी है जोकि बड़े बहुदेशीय कम्पनियों के बिक्री मैनेजरों को ठैंगा दिखाती है. तो फ़िर क्यों यह थैलियाँ हमारे जीवन में जहर घोल रही हैं?

थैलियों से जान पहचान

छोटी छोटी यह चमकीली थैलियाँ देखीं तो पहले भी थीं, लेकिन पहली बार उनके बारे में सोचा जब पिछले साल स्मिता के पास केसला (मध्य प्रदेश) में ठहरा था.

थैलियों को कूड़े में देख कर मैंने स्मिता की साथी शाँतीबाई से पूछा था, इस कूड़े का क्या करती हो? यह भी क्या सवाल हुआ, उसने अवश्य अपने मन में सोचा होगा, यहाँ क्या गाँव में कोई कूड़ा उठाने आता है? नींबू या फल सब्जी का छिलका हो तो रसोई के दरवाज़े से पीछे खेत में फैंक दो. और प्लास्टिक या एलूमिनियम की थैली हो तो जमा करके जला दो, और क्या करेंगे इस कूड़े का?

इसीलिए यह थैलियाँ दूर दूर के गाँवों की हवा में रंग बिरंगी तितलियों की तरह उड़ती हैं. लाखों, करोड़ों, अरबों थैलियाँ. भारत इन चमकीली थैलियों की दुनिया भर की राजधानी है.

Sachet pollution in India - Images by Sunil Deepak

एक ओर यह थैलियाँ भारत में अरबों रुपयों की बिक्री करने वाली कम्पनियों के लिए सिरदर्द बनी हैं. वह कम्पनियाँ भी कोशिश करके हार गयीं लेकिन इसका हल नहीं खोज पायीं कि कैसे थैलियों में बेचना कम किया जाये, ताकि मुनाफ़ा बढ़े. उनको हवा में तितलियों की तरह उड़ने वाली थैलियों की चिन्ता नहीं, उनको चिन्ता है कि इन थैलियों से छुटकारा पा कर कैसे अपनी कम्पनी के लाभ को अधिक बढ़ायें.

आज जब "स्वच्छ भारत" की बात हो रही है, तो इन थैलियों की कथा को समझना भी आवश्यक है.

थैंलियाँ कैसे आयीं भारत में?

छोटी थैलियों में चीज़ बेचना यह एक भारतीय दिमाग का आविष्कार था - श्री सी के रंगानाथन का.

तमिलनाडू के कुडालूर शहर के वासी श्री रंगानाथन ने 1983 में चिक इन्डिया (Chik India) नाम की कम्पनी बनायी, जो चिक शैम्पू बनाती थी. उन्होंने चिक शैम्पू को छोटी एलूमिनियम की थैलियों में बेचने का सोचा. उनका सोचना था कि गाँव तथा छोटे शहरों के लोग एक बार में शैम्पू की बड़ी बोतल नहीं खरीद सकते, लेकिन वह भी शैम्पू जैसी उपभोगत्ता वस्तुओं का प्रयोग करना चाहते हैं, तो कम दाम वाली एक रुपये की थैली खरीदना उनके लिए अधिक आसान होगा. उनकी सोच सही निकली और चिक इन्डिया को बड़ी व्यवसायिक सफलता मिली.

1990 में चिक इन्डिया का नाम बदल कर ब्यूटी कोस्मेटिक प्र. लि. रखा गया और 1998 इसके नाम का अन्तर्राष्ट्रीयकरण हुआ तथा यह "केविन केयर प्र. लि." (CavinKare Pvt. Ltd.) कर दिया गया. श्री रंगनाथन को कई पुरस्कार मिल चुके हैं तथा उन्होंने विकलाँग मानवों के साथ काम करने वाली स्वयंसेवी संस्था "एबिलिटी फाउँनडेशन" भी स्थापित की है.

1991 में जब नरसिम्हाराव सरकार ने भारत के द्वार उदारीकरण की राह पर खोले तो दुनियाभर की बड़ी बड़ी बहुदेशीय कम्पनियों ने सोचा कि करोड़ों लोगों की आबादी वाले भारत के बाज़ार में उनकी कमाई के लिए जनता उनकी प्रतीक्षा में बैठी थी. इन कम्पनियों के कुछ उत्पादनों को FMCG (Fast Moving Consumer Goods) यानि "अधिक बिक्री होने वाली उपभोगत्ता वस्तुएँ" के नाम से जाना जाता है, छोटी थैलियाँ उन्हीं उत्पादनों से जुड़ी हैं.

इन कम्पनियों ने जोर शोर से भारत में अपने उद्योग लगाये और वितरण प्लेन बनाये, लेकिन जिस तरह की बिक्री की आशा ले कर यह कम्पनियाँ भारत आयी थीं, वह उन्हें नहीं मिली. कुछ ही वर्षों में लगातार घाटों के बाद सबमें हड़बड़ी सी मच गयी.

जब बहुदेशीय कम्पनियों को भारत के बाज़ार में सफलता नहीं मिली, तो उन्होंने भी छोटी थैलियों की राह पकड़ी. उनका सोचना था कि सस्ती थैलियों के माध्यम से एक बार लोगों को उनकी ब्रैंड की चीज़ खरीदने की आदत पड़ जायेगी तो वह बार बार दुकान में जा कर सामान खरीदने के बजाय उनकी बड़ी बोतल खरीदेंगे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. उनकी छोटी थैलियाँ खूब बिकने लगीं, लेकिन उनकी बड़ी बोतलों की बिक्री जितनी बढ़ने की उन्हें आशा थी, वैसा नहीं हुआ.

Sachet pollution in India - Images by Sunil Deepak

भारत में लोग हर चीज़ को माप तौल कर यह देखते हैं कि कहाँ अधिक फायदा है, और लोगों ने छोटी थैलियों के साथ भी यही किया. अगर आप बड़ी बोतल के बदले उतनी ही चीज़ छोटी पचास या सौ थैलियों में खरीदें तो आप को उसकी कीमत बोतल के मुकाबले कम पड़ती है. इसलिए अधिकतर लोग सालों साल तक छोटी थैलियाँ ही खरीदते रहते हैं, कभी बड़ी बोतल की ओर नहीं जाते. जैसा विदेशों में होता कि हफ्ते में एक दिन जा कर इकट्ठा सामान खरीद लो, वैसा भारत के छोटे शहरों व गावों में नहीं होता. अधिक सामान को खरीद कर कहाँ रखा जाये, यह परेशानी बन जाती है. लोग करीब की दुकान से हर दिन जितनी ज़रूरत हो उतना खरीदना बेहतर समझते हैं, और जिस दिन पैसे कम हों, उस दिन नहीं खरीदते. बड़ी बड़ी कम्पनियों को आखिरकार हार माननी पड़ी. अब उनसे न छोटी थैलियाँ का उत्पादन बन्द करते बनता है और जिस तरह की बिक्री की वह सोचती थीं वह भी उनके हाथ नहीं आयी.

आज छोटे गाँव हों या छोटे बड़े शहर, हर जगह आप को नुक्कड़ की दुकानों में भारतीय तथा बहुदेशीय कम्पनियों की यह छोटी थैलियाँ रंग बिरंगी चमकीली झालरों की तरह लटकी दिखेंगी. इन थैलियों को तकनीकी भाषा में सेशे (sachet) कहते हैं.

कैसे बनती हैं सेशे की छोटी थैलियाँ?

छोटी थैलियों को बनाने में एलुमिनियम, प्लास्टिक तथा सेलूलोज़ लगता है. इनमें एलूमिनियम की एक महीन परत को सेलूलोज़ की या प्लास्टिक की दो महीन परतों के बीच में रख कर उन्हें जोड़ा जाता है. यह बहुत हल्की होती है और इनके भीतर के खाद्य पदार्थ, चिप्स, नमकीन या शैम्पू आदि न खराब होते हैं, न आसानी से फटते हैं. इस तकनीक से थैलियों के अतिरक्त ट्यूब, डिब्बा आदि भी बनाये जाते हैं.

उपयोग के बाद, खाली थैलियों से, माइक्रोवेव की सहायता से एलूमिनियम तथा हाइड्रोकारबन गैस बनाये जा सकते हैं. एलुमिनियम विभिन्न उद्योगों में लग जाता है जबकि हाईड्रोकार्बन गैस उर्जा बनाने में काम आती है. लेकिन अगर इन्हें जलाया जाये तो उससे हानिकारक पदार्थ हवा में चले जाते हैं तथा पर्यावरण प्रदूषित होता है.

एलूमिनयम की जानकारी सोलहवीं शताब्दी में आयी थी लेकिन इस धातू की वस्तुएँ बनाने में सफलता मिली सन् 1855 में. उस समय इसे "मिट्टी की चाँदी" कहते थे, क्योंकि तब यह बहुत मँहगी धातू थी और इससे केवल राजा महाराजाओं के प्याले-प्लेटें या गहने बनाये जाते थे.

एलुमिनियम को सस्ते या टिकाऊ तरीके से बनाने की विधि 1911 में खोजी गयी और धीरे धीरे इसका उत्पादन बढ़ा और साथ ही इसकी कीमत गिरी. आज एलूमिनियम के बरतन अन्य धातुओं के बरतनों से अधिक सस्ते मिलते हैं और अक्सर गरीब घरों में प्रयोग किये जाते हैं. हर वर्ष दुनिया में लाखों टन एलूमिनयम का उत्पादन होता है जिन्हें बोक्साइट की खानों से निकाल कर बनाया जाता है. खानों की खुदाई से पर्यावरण तथा जनजातियों के जीवन की कुछ समस्याएँ जुड़ी हैं जैसा कि ओडिशा में वेदाँत कम्पनी की बोक्साइट की खानों के विरुद्ध जनजातियों के अभियान में देखा जा रहा है.

इस स्थिति में बजाय छोटी थैलियों को कूड़े की तरह फैंक कर पर्यावरण की समस्याएँ बढ़ाने से बेहतर होगा कि उन थैलियों के भीतर के एलूमिनियम को दोबारा प्रयोग के लिए निकाला जाये. इससे कूड़ा भी कम होगा. विकसित देशों में एलुमिनियम के पुनर्पयोग के कार्यक्रम आम है.

भारत में भी कुछ जगह एलुमिनयम के पुनर्पयोग के उदाहरण मिलते हैं लेकिन यह बहुत कम हैं. हमारे देश में अधिकतर जगह इन थैलियों में छुपी सम्पदा को नहीं पहचाना जाता, बल्कि उन्हें कूड़ा बना कर जलाया जाता है या जमीन में गाड़ा जाता है, जिससे नयी समस्याएँ बन जाती हैं.

गुवाहाटी का उदाहरण

यहाँ एक ओर तो जोर शोर से स्वच्छता अभियान की बात होती है, बड़े बड़े पोस्टर लगते हैं कि शहर में सफ़ाई रखिये. दूसरी ओर, हमारे शहरों में कूड़ा इक्ट्ठा करने का आयोजन ठीक से नहीं होता. गुवाहाटी (असम) में भी यही हाल है. शहर में कूड़े के डिब्बे खोजने लगेंगे तो खोजते ही रह जायेंगे. प्रसिद्ध पर्यटन स्थलों या मन्दिरों के आस पास भी कूड़े के डिब्बे नहीं मिलते. खुली जगह पर पिकनिक हो, कोई विवाह समारोह या पार्टी हो, या मन्दिरों में त्योहार की भीड़, लोग आसपास कूड़े के ढ़ेर लगा कर छोड़ जाते हैं.

कूड़े के डिब्बों की जगह पर, शहर में कई कई किलोमीटर की दूरी पर बड़े कूड़ा एकत्रित करने वाले कन्टेनर मिलते हैं. यानि आप पिकनिक पर जायें या मन्दिर जायें, तो उसके बाद कूड़े के थैले ले कर इन कन्टेनरों को खोजिये. अक्सर लोग दूर रखे कम्टेनर तक जाने की बजाय कूड़े को वहीं फैंक देते हैं. पिकनिक स्थलों पर प्लास्टिक की थैलियाँ, चमकीली कागज़ की प्लेटें, मुर्गियों के पँख, इधर उधर उड़ते रहते हैं. (तस्वीर में गुवाहाटी के उमानन्द मन्दिर के पीछे फैंका हुआ कूड़ा)

Sachet pollution in India - Images by Sunil Deepak

गुवाहाटी में छोटी थैलियों का क्या किया जाता है, मैं यह समझना चाहता था. इसी की खोज में मैं एक दिन, शहर के करीब ही, हाईवे से जुड़े "बोड़ो गाँवो" गया, जहाँ ट्रकों से गुवाहाटी शहर का सारा कूड़ा जमा होता है. उस जगह पर, बहुत दूर से ही कूड़े की मीठी गँध गाँव के हवा में बादलों की तरह सुँघाई देती है. इस कूड़े से कई सौ परिवारों की रोज़ी रोटी चलती है. वह लोग झोपड़ियों में कूड़े के आसपास ही रहते हैं. झोपड़ियों के आसपास भी कूड़े के ढ़ेर लगे होते हैं जहाँ उसकी छटाई होती है और जो वस्तुएँ बेची जा सकती हैं, वह निकाल ली जाती हैं. वहाँ कोई विरला ही लिखना पढ़ना जानता है, तथा बच्चे भी स्कूल नहीं जाते.

Sachet pollution in India - Images by Sunil Deepak

आज की दुनिया में हमारे शहरों में व्यवसाय तथा लोग कूड़ा बनाने में माहिर हैं. हर दिन हमारे यहां लाखों टन कूड़ा बनता है. लेकिन सभी कूड़ा बनाने वाले, अपने कूड़े से और उसकी गन्ध से नफरत करते हैं. ऐसी स्थिति में शिव की तरह विष पीने वाले, कूड़े में रह कर काम करने वाले लोग जो उस कूड़े से पुनर्पयोग की वस्तुएँ निकालते हैं, उन्हें तो संतों का स्थान मिलना चाहिये. पर हमारा समाज उनके इस काम की सराहना नहीं करता बल्कि उन्हें समाज से क्या मिलता है, इसकी आप स्वयं कल्पना कर सकते हैं.

उन कूड़े के ढेरों पर बहुत से पशु पक्षी भी घूमते दिखते हैं, जिनमें असम के प्रसिद्ध ग्रेटर एडजूटैंट पक्षी भी हैं.

Sachet pollution in India - Images by Sunil Deepak

कूड़े में अधिकतर स्त्रियाँ तथा बच्चे काम करते हैं. कई बच्चे तीन चार साल के भी दिखे, जो कूड़े की थैलियाँ सिर पर उठा कर ले जा रहे थे. जब भी नगरपालिका का कोई ट्रक आता, वह लोग उसके पीछे भागते ताकि कूड़े को चुनने का उन्हें पहले अवसर मिले.

Sachet pollution in India - Images by Sunil Deepak

कूड़े में काम करने वालों का क्या जीवन है, उनकी समस्याएँ क्या है, यह जानने नहीं गया था. उसके बारे में फ़िर कभी लिखूँगा. बल्कि मेरा ध्येय था यह जानना कि खाली थैलियों का क्या होता है?

Sachet pollution in India - Images by Sunil Deepak

संयोग से, वहाँ पहुँचते ही एक टेम्पो दिखा जिस पर कई हज़ार खाली थैलियाँ प्लास्टिक में बँधी थीं. मैंने उस टेम्पो को देख कर सोचा कि इसका अर्थ था कि खाली थैलियों को अलग कर के रखा जाता है, यानि इन्हे बेचने का तथा इनके पुनर्पयोग का कुछ कार्यक्रम चल रहा है.

पर ऐसा नहीं था. थोड़ी देर बाद वह टेम्पो भी कूड़े के ढेर की ओर बढ़ा जहाँ अन्य ट्रक अपना कूड़ा फैंक रहे थे. टेम्पो वाले युवकों ने प्लास्टिक को खोल कर उन खाली थैलियों को अन्य कूड़े के बीच में फैंक दिया.

Sachet pollution in India - Images by Sunil Deepak

Sachet pollution in India - Images by Sunil Deepak

स्वच्छ भारत

जब तक शहरों में कूड़ा फैंकने की उपयुक्त जगहें नहीं होंगी, लोगों को यह कहने का क्या फायदा है कि सफाई रखिये? शहरों में जगह जगह पर डिब्बे होना जिसमें लोग कूड़ा डाल सके, आवश्यक हैं. मन्दिर तथा पिकनिक स्थलों पर भी कूड़ा जमा करने के डिब्बे रखना ज़रूरी है.

हम से शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जो यह कहे कि वह स्वच्छ भारत नहीं चाहता. लेकिन क्या सड़कों पर झाड़ू लगाने या डिब्बों में कूड़ा फैंकने से भारत स्वच्छ हो जायेगा? झाड़ू लगा कर कूड़ा हटाना तथा डिब्बों में कूड़ा डालना तो केवल पहला कदम है. इससे शहरों में रहने वाले लोगों के सामने की गन्दगी हटती है. लेकिन वही गन्दगी हमारे शहरों के बाहर अगर जमा होती रहती है, तो क्या सच में हमारा वातावरण स्वच्छ हो गया?

देश में हर दिन लाखों करोड़ों टन नया कूड़ा बनता है, उसका क्या करेंगे हम? उसे जला कर वातावरण का प्रदूषण करेंगे या जितना हो सकेगा उसका पुनर्पयोग होना चाहिये?

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चमकीली थैलियों में छुपे लाखों टन एलूमिनियम को निकाल कर उसका दोबारा उपयोग करना बेहतर है या नयी खानें बनाना?

फल सब्जी आदि खाद्य पदार्थों के कूड़े को जमा करके उनसे खाद बनाने से बेरोजगार लोगों को जीवनयापन के माध्यम मिल सकते हैं. वैसे ही थैलियों में छुपे एलुमिनियम के पुनर्पयोग से भी उद्योगों तथा बेरोजगार युवकों को फायदा हो सकता है. बोड़ा गाँव जैसी जगहों में कूड़ा जमा करने वाले लोगों को भी इससे जीवनयापन का एक अन्य सहारा मिलेगा. साथ ही कूड़ा जलाने से जो प्रदुषण होता है वह कम होगा.

जब तक ऐसे प्रश्नों के बारे में नहीं सोचेगें, भारत स्वच्छ हो, यह सपना सपना ही रहेगा और चमकीली थैलियाँ समृद्धी का रास्ता बनने के बजाय, जहर बन कर किसी शिव की प्रतीक्षा करती रहेंगी.

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शुक्रवार, अप्रैल 17, 2015

एक चायवाले का विद्रोह

आजकल मोदी जी ने चायवालों को प्रसिद्ध कर दिया है, लेकिन यह आलेख उनके बारे में नहीं है. वैसे चाय की बातें मोदी जी के पहले भी महत्वपूर्ण होती थीं जैसा कि अमरीकी इतिहास बताता है, जहाँ अमरीका की ब्रिटेन से स्वतंत्रता की लड़ाई भी सन् 1733 के चाय लाने वाले पानी के जहाज़ से जुड़ी थी जिसे बोस्टन की "चाय पार्टी के विद्रोह" के नाम से जानते हैं. पर आज की मेरी बात भारत में सन् 1857 के अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध विद्रोह से जुड़े असम के एक चाय बागान वाले व्यक्ति के बारे में है जिनका नाम था मणिराम दत्ता बरुआ जिन्हें लोग मणिराम दीवान के नाम से भी जानते हैं. उन्हें उत्तर पूर्व के भारत के स्तंत्रता संग्राम के प्रथम शहीद सैनानी के नाम से जाना जाता है.

क्या आप ने पहले कभी उनका नाम सुना है? असम से बाहर रहने वाले लोग अक्सर उनके नाम से अपरिचित होते हैं. मैं भी उन्हें नहीं जानता था. उनसे "पहली मुलाकात" गुवाहाटी में नदी किनारे हुई थी. 

उत्तर पूर्व के स्वंत्रता सैनानी

असम की राजधानी गुवाहाटी में आये कुछ दिन ही हुए थे जब मछखोवा में ब्रह्मपु्त्र नदी के किनारे एक बाग में एक स्मारक देखा जिसमें आठ लोगों की मूर्तियाँ बनी हैं. स्मारक के नीचे लिखा था कि देश की स्वाधीनता के लिए इन वीर व वीरांगनाओं ने त्याग व बलिदान दिया. मुझे वह स्मारक देख कर कुछ आश्चर्य हुआ क्यों कि उन आठों में से एक का भी नाम मैंने पहले नहीं सुना था. वह आठ व्यक्ति थे कनकलता बरुआ, कुशल कोंवर, मणिराम दीवान, पियाली बरुआ, कमला मीरी, भोगेश्वरी फूकननी, पियाली फूकन तथा गँधर कोंवर.

Maniram Dewan & Cinnamara tea gardens, Jorhat, Assam, India - Images by Sunil Deepak

कुछ दिन बाद नेहरु पार्क में घूम रहा था तो वहाँ फ़िर से शहीद कुशल कोंवर की मूर्ति दिखी, तो मछखोवा के स्मारक की बात याद आ गयी. 

सोचा कि भारत में रहने वालों में अपने उत्तर पूर्वी भाग के इतिहास के बारे में तथा यहाँ रहने वाले लोगों के बारे में कितनी काम जानकारी है. जिन लोगों ने भारत की स्वतंत्रता के लिए जान दी, उनके नाम भी बाकी भारत में अनजाने हैं. तो सोचा कि इसके बारे में अधिक जानने की कोशिश करूँगा और इसके बारे में लिखूँगा. पर सोचने तथा करने में कुछ अंतर होता है. बात सोची थी, वहीं रह गयी, और मैं इसके बारे में भूल गया.

Kushal Konwar, Guwahati, Assam, India - Images by Sunil Deepak

Kushal Konwar, Guwahati, Assam, India - Images by Sunil Deepak

फ़िर पिछले माह काम के सिलसिले में उत्तरी असम में जोरहाट गया तो उनमें से एक स्वतंत्रता सैनानी के जीवन से अचानक परिचय हुआ.

मैं जोरहाट शहर से थोड़ा बाहर, मरियानी रेल्वे स्टेशन की ओर जाने वाली सड़क पर सिन्नामारा में विकलाँगों के लिए काम करने वाली एक संस्था "प्रेरणा" की अध्यक्ष सुश्री सायरा रहमान से मिलने गया था. उनकी संस्था गाँव में रहने वाले विकलाँग लोगों के साथ कैसे काम करती है, यह देखने के लिए सायरा जी ने अपने एक कार्यकर्ता मोनोजित के साथ, मुझे वहीं करीब ही एक चाय बागान से जुड़े गाँव में भेजा.

वहीं बातों बातों में मालूम चला कि यह सिन्नामारा के चाय बागान, स्वतंत्रता सैनानी मणिराम दीवान ने प्रारम्भ किये थे. इस बार संयोग से उनकी कर्मभूमि से परिचय हुआ था तो मुझे लगा कि उनके बारे में अवश्य अधिक जानना चाहिये.

उस दिन शाम को वापस जोरहाट में अपने होटल में पँहुचा तो मालूम चला कि वह चौराहा जिसके करीब मैं ठहरा था, उसे मणिराम दत्ता बरुआ चौक  (बरुआ चारिआली) ही कहते हैं. वहाँ सन् 2000 में असम सरकार की ओर से "मिल्लेनियम स्मारक" बनाया गया है जिसमें उनकी कहानी भी चित्रित है.

Maniram Dewan & Cinnamara tea gardens, Jorhat, Assam, India - Images by Sunil Deepak

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तो कौन थे मणिराम दीवान और क्या किया था उन्होंने, जिसके लिए अंग्रेज़ी सरकार ने उन्हें विद्रोही मान लिया था?

मणिराम दत्ता बरुआ या मणिराम दीवान

मणिराम का जन्म 17 अप्रेल 1806 को चारिन्ग में हुआ जब उनके पिता श्री राम दत्ता को, उस समय के असम के अहोम राजा कमलेश्वर सिंह से, "डोलाकशारिया बरुआ" का खिताब मिला था. मणिराम को पढ़ाई के लिए बँगाल में नबद्वीप भेजा गया जहाँ उन्होंने अंग्रेज़ी तथा फारसी भाषाएँ भी पढ़ी. 1817 से 1823 के बीच अँग्रेज़ों ने असम पर काबू करने की कोशिश शुरु की, उसी के संदर्भ में मणिराम ने अंग्रेज़ी अफसर डेविड स्कोट तथा उनकी फौज को उत्तरी असम जाने में मार्गदर्शन दिया. वफ़ादार काम करने पर, बीस वर्ष की आयू में मणिराम को डेविड स्काट ने अंग्रेज़ी शासन की ओर से तहसीलदार व शेरिस्तदार का पद दिया.

1833 से 1838 तक, मणिराम अंग्रज़ो द्वारा स्वीकृत असम राजा पुरेन्द्र सिह के "बोरबन्दर बरुआ" यानि प्रधान मंत्री नियुक्त हुए. 1839 में असम में चाय उत्पादन के लिए लँदन में असम कम्पनी बनायी गयी. तभी असम की अंग्रेज़ी सरकार में डेविड स्काट की जगह कर्नल जेनकिन्स ने ली, जिन्होंने मणिराम को दीवान का खिताब दिया तथा वह असम कम्पनी के अफसर बन गये.

1843 में मणिराम ने असम कम्पनी की नौकरी छोड़ दी क्योंकि वह अपना चायबागान लगाना चाहते थे. असम कम्पनी के अंग्रेज़ इस बात से खुश नहीं थे.

1845 में मणिराम ने जोरहाट के पास अपना पहला चायबागान लगाया जहां कलकत्ता में रहने वाले चीनी चाय विषेशज्ञ लाये गये, जोकि उनके सलाहकार बने. उनकी वजह से उस चायबागान को लोग चिन्नामारा (चीनी बाग) कहने लगे. इस जगह को अब सिन्नामारा के नाम से लोग जानते हैं.

मणिराम उद्योगपति बन गये, केवल चाय उत्पादन में नहीं, बल्कि अन्य क्षेत्रों में भी - जैसे कि नमक बनाने व इस्पात बनाने का कारकाना भी लगाया, ईँटें तथा सिरेमिक बनाने की भट्टियाँ लगायीं.

Maniram Dewan & Cinnamara tea gardens, Jorhat, Assam, India - Images by Sunil Deepak

उनकी उन्नति से असम कम्पनी के अंग्रेज़ अफसर चितिंत हुए क्योंकि उनकी दृष्टि में भारतीयों का चाय कारोबार में पड़ने का अर्थ, अंग्रेज़ी कम्पनी का नुकसान था. 1851 में अंग्रेज़ सरकार ने उनके चायबागान तथा सम्पत्ति पर कब्ज़ा कर लिया. असम पर काबू रखने के लिए अंग्रेज़ों ने बंगाल तथा मारवाड़ से लोगों को बुला कर उन्हें अफसर बनाया. मणिराम ने कलकत्ता की अदालत में न्याय के लिए अर्ज़ी दी तथा अंग्रेज़ टेक्सों की आालोचना की कि उनसे स्थानीय अर्थव्यवस्था को कमज़ोर किया जा रहा है. लेकिन अदालत ने उनकी यह अर्ज़ी नामँजूर कर दी, तथा उनके चाय बागान अंग्रेजों को दे दिये गये.

1857 की अंगरेज़ों के विरुद्ध सिपाही क्राँती से मणिराम ने प्रेरणा पायी और उत्तरपूर्व में अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध काम प्रारम्भ किया. अंग्रेज़ी शासन के विद्रोह के आरोप में मणिराम को गिरफ्तार किया गया और 26 फरवरी 1858 को उन्हें फाँसी दी गयी.

आज का सिन्नामारा

सिन्नामारा में आज भी चायबागान हैं, जहाँ बहुत से लोग संथाल जनजाति के हैं. चायबागानों में काम करने के लिए अंग्रेज़ केन्द्रीय भारत से संथाल जाति के लोगों को ले कर आये थे. स्थानीय भाषा न जानने वाले लोगों को रखने का फायदा था कि उन्हें आसानी से दबाया जा सकता था और उनमें विद्रोह कठिन था. इस तरह से आज असम में लाखों संथाली रहते हैं जिनके पूर्वज यहाँ एक सौ पचास वर्ष पहले मजदूर की तरह लाये गये थे.

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असम में होने वाले जाति-प्रजाति सम्बँधित झगड़ों-विवादों में एक यह विवाद भी है जिसमें "विदेशी" और "भूमिपुत्रों" की बात की जाती है. आर्थिक तथा सामाजिक पिछड़ापन, संचार तथा यातायात की कठिनाईयाँ आदि की वजह से इतने सालों में असम के समुदायों में जो एकापन आना या समन्वय आना चाहिये था, वह नहीं आया. बल्कि आज उस पर धर्म सम्बँधी भेद भी जुड़ गये हैं.

चायबागान चलाने वालों का कहना है कि चाय के दाम अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार पर निर्भर करते हैं, इस लिए चायबागानों में काम करने के लिए न्यूनतम पगार जैसी बातों को नहीं लागू किया जा सकता. इस तरह से प्रतिदिन आठ घँटे काम करने वाले यहाँ के चायबागान के काम करने वालों को, सप्ताह के 400 रुपये के आसपास की तनख्वाह तथा कुछ खाने का सामान दिया जाता है.

सिन्नामारा में अंग्रेज़ों के समय का पुराना अस्पताल भी है, जिसे असम चाय उद्योग चालाता था लेकिन जो कई वर्षों से बन्द पड़ा है.

Maniram Dewan & Cinnamara tea gardens, Jorhat, Assam, India - Images by Sunil Deepak

अंगरेज़ों के समय और आज का समय देखें तो, बहुत सी बातों में आज दुनिया बहुत बदल गयी है. आज हम स्वतंत्र हैं, जो काम करना चाहें, जिस राह पर बढ़ना चाहें, उसे स्वयं चुन सकते हैं. लेकिन गरीबी, अशिक्षा तथा भ्रष्टाचार, आज भी जँज़ीरें है जो हमें बाँधे रखती हैं.

मेरी चायबागान में काम करने वाले पढ़े लिखे कुछ नवयुवकों से बात हुई, बोले कि पढ़ायी करके भी वही मजदूरी करनी पड़ती है क्योंकि "बिना घूस दिये कुछ काम नहीं मिलता, और घूस देने लायक पैसा हमारे पास नहीं".

आज के भारत की दुनिया बदली है लेकिन चायबागानों में काम करने वाले मजदूरों की दृष्टि से देखे तो जितनी बदलनी चाहिये थी उतनी नहीं बदली.

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मणिराम दीवान ने अपना जीवन अंग्रेजों के साथी की तरह प्रारम्भ किया, पर उनमें चाकरी की भावना कम थी, वह स्वयं को उनसे कम नहीं मानते थे, स्वयं उद्योगपति बनने का सपना देखते थे! इन सब बातों की वजह से उन्हें विद्रोह की राह चुननी पड़ी. स्वतंत्रता की राह में उन जैसे कुर्बानी करने वाले अन्य बहुत लोग होंगे लेकिन उनकी अपेक्षा मणिराम दीवान की याद को अधिक प्रमुखता मिली, जोकि स्वाभाविक है क्योंकि इतिहास ऐसे ही बनना है,

कुछ लोग अपने व्यक्तित्व या सामाजिक स्थिति की वजह से लोगों में प्रतीक बन कर रास्ता दिखाते हैं, प्रेरणा देते हैं. पर उस स्वतंत्रता का जितना लाभ यहाँ के गरीब लोगों को मिलना चाहिये था, उसमें हमारे देश में कुछ कमी आ गयी!

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