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सोमवार, जुलाई 18, 2022

पानी रे पानी


ब्रह्माँड में जीवन तथा प्रकृति का किस तरह से विकास होता है और कैसे वह समय के साथ बदलते रहते हैं इसे डारविन की इवोल्यूशन की अवधारणा के माध्यम से समझ सकते हैं। इसके अनुसार दुनिया भर में कोई ऐसा मानव समूह नहीं है जिसे हरियाली तथा जल को देखना अच्छा नहीं लगता, क्योंकि जहाँ यह दोनों मिलते हैं वहाँ मानव जीवन को बढ़ने का मौका मिलता है।

शाम को जब मैं सैर के लिए निकलता हूँ तो मैं भी वही रास्ते चुनता हूँ जहाँ हरियाली और जल देखने को मिलें। आज आप दुनिया में कहीं भी रहें, अपने आसपास के बदलते हुए पर्यावरण से अनभिज्ञ नहीं रह सकते। इस बदलाव में बढ़ते तापमानों और जल से जुड़ी चिंताओं का विषेश स्थान है।


ऊपर वाली तस्वीर का सावन के जल से भरा हुआ तालाब भारत के छत्तीसगढ़ में बिलासपुर के करीब गनियारी गाँव से है।

नदी, नहर और खेती

उत्तरपूर्वी इटली में स्थित हमारा छोटा सा शहर पहाड़ों से घिरा है और इसकी घाटी का नाम है ल्योग्रा। हमारे घर के पीछे, इस घाटी की प्रमुख नदी बहती है जिसका नाम भी ल्योग्रा ही है। इसे बरसाती नदी कहते हैं, क्योंकि अगर दो-तीन महीने बारिश नहीं हो तो इसमें पानी कम हो जाता है या बिल्कुल सूख जाता है। 

ल्योग्रा नदी के किनारे पेड़ों के नीचे बनी एक पगडँडी मेरी शाम की सैर करने की सबसे प्रिय जगह है। पहाड़ों से नीचे आती नदी पत्थरों से टकराती है और बीच-बीच में झरनों पर छलाँगे लगाती है, इसलिए किनारे पर चलते समय, नदी का गायन चलता रहता है, कभी द्रुत में, तो कभी मध्यम में।

इस साल पहली बार हुआ है कि हमारी नदी पिछले छह-सात महीनों से सूखी है। सर्दियों में बारिश कम हुई, जनवरी से मार्च के बीच में बिल्कुल नहीं हुई। उसके बाद, हर दस-पंद्रह दिनों में छिटपुट बारिश होती रही है, पर केवल दो-तीन बार ही खुल कर पानी बरसा है। जब बारिश आती है उस समय नदी में पानी आता है, जब रुकती है तो दो-तीन घँटों में वह पानी बह जाता है या सूख जाता है। नीचे की तस्वीर कुछ दिन पहले आयी बारिश के बाद की है जिसे मैंने अपनी शाम की सैर के दौरान खींचा था।



शहर में घुसने से पहले इस नदी से एक नहर निकलती है। जब बिजली नहीं थी, यहाँ की लकड़ी और आटे की मिलें, ऊन और कपड़े बुनने की फैक्टरियाँ सब कुछ इसी नहर के पानी से चलती थीं। आजकल नहर के पानी का अधिकतर उपयोग यहाँ के आसपास के किसान करते हैं।

घाटी के आसपास के पहाड़ों से छोटे नाले पानी को नदी की ओर लाते हैं। हर नाले पर छोटे छोटे बँद बने हैं, जिसमें लोहे के दरवाज़े हैं, जिन्हें नीचे कर दो तो वह पानी का बहाव रोक लेते हैं। पिछले महीनों की बारिशों से जो पानी आया है उसे नालों पर बने बँदों की सहायता से जमा किया जाता है, ताकि नहर से किसानों को खेती के लिए पानी मिलता रहे।

इटली के कई हिस्सों में इस साल बारिश कम होने से किसानों को बहुत नुक्सान हुआ है। बहुत सी जगहों पर पहले तो महीनों बारिश नहीं आयी, फ़िर अचानक एक दिन ऐसी बारिश आयी मानों कोई आकाश से बाल्टियाँ उड़ेल रहा हो, या साथ में मोटे ओले गिरे, तो जो बची खुची फसलें थी वह भी नष्ट हो गयीं।

मौसम बदल रहे हैं, यहाँ पहाड़ों के बीच भी गर्मी आने लगी है। आज से दस-बारह साल पहले तक यहाँ घरों में पँखे नहीं होते थे, अब कुछ घरों में एयरकन्डीशनर भी लग गये हैं। सबको डर है कि अगले दशक में यह सूखे और ऊँचे तापमान और भी बढ़ेंगे, स्थिति बिगड़ेगी।

प्रकृति का चक्र

शाम को जब सैर के लिए निकलता हूँ तो सूखी हुई नदी को देख कर दिल में धक्का सा लगता है। सोचता हूँ कि मछलियों के अलावा जो बतखें, सारस और अन्य पक्षी यहाँ नदी में रहते थे, वह कहाँ गये होंगे। अंत में सोचा कि अब इसकी जगह सैर की कोई अन्य जगह खोजी जाये।

इस तरह से इस साल, सूखे के बहाने, मैंने आसपास की बहुत सी नयी जगहें देखीं। इन नयी जगहों को देख कर समझ में आया कि मानव धरती के भूगोल को बदल रहा है, लेकिन प्रकृति धैर्य से वहीं ताक में बैठी रहती है और जैसे ही मानव विकास नयी ओर मुड़ता है, प्रकृति उस बदले भूगोल को फ़िर से दबोच कर अपने दामन में छुपा लेती है। कुछ दिन पहले ऐसा ही एक अनुभव हुआ।

नदी के दूसरी ओर के सबसे ऊँचे पहाड़ का नाम है मग्रे, जो कि करीब सात सौ मीटर ऊँचा है। उसकी चोटी हमारे यहाँ से करीब पाँच किलोमीटर दूर है, लेकिन इतनी चढ़ाई करना मेरे बस की बात नहीं, मैं आसपास की छोटी पहाड़ियों की ही सैर करने जाता हूँ।

कुछ दिन पहले मैं सैर को निकला तो बहुत सुंदर रास्ता था। कहीं खेतों में सूरजमुखी के बड़े बड़े फ़ूल लगे थे तो कहीं खेतों में किसानों ने सर्दियों में जानवरों को चारा देने के लिए भूसे को गोलाकार गट्ठों में बाँधा था। बीच में एक पहाड़ी नाला था जिसमें आसपास की पहाड़ियों से छोटी छोटी जल धाराएँ आ कर मिल जाती थीं, जिन पर बँद बने थे, पूरे इलाके में पानी को सँभाल कर नियमित किया गया था।

एक जगह बँद को देख रहा था तो अचानक एक सज्जन आ गये, मुझसे पूछा कि क्या देख रहा था, तो मैंने बँद की ओर इशारा किया और पूछा कि उसकी देखभाल कौन करता था। वह हँसे, बोले कि, "हम लोग, यहाँ के किसान, इन सभी नालों, नालियों की देखभाल करते हैं। पत्ते जमा हो रहे हों तो उनको साफ़ कर देते हैं, कही से नाली की दीवार टूट रही हो तो उसे ठीक करते हैं। इस पानी से हमारी खेती होती है, यह पानी नहीं हो तो हम भी नहीं रहेंगे।"

नीचे की तस्वीर में पहाड़ी नाले पर बना वही बंद है जहाँ मेरी उस व्यक्ति से मुलाकात हुई थी।



उन्होंने बताया कि वह सड़क कभी वहाँ की प्रमुख सड़क होती थी, बोले, "जब वह बड़ी वाली नयी सड़क नहीं बनी थी, तब ऊपर पहाड़ पर जाने वाले ट्रक, बसें, सब कुछ यहीं से जाता था। यह पानी, यह नाले, सब कुछ खत्म हो गये थे। फ़िर जब वह नयी सड़क बनी तो लोगों ने इधर आना बंद कर दिया, अब यह जगह फ़िर से शांत और सुंदर बन गयी है, हमारे खेत, खलिहान, नाले, पेड़, सब को नया जीवन मिला है।"

कान्हा के भिक्षुकों का जल

मुम्बई में पूर्वी बोरिविली लोकल ट्रेन स्टेशन के पास संजय गाँधी राष्ट्रीय उद्यान है जिसके बीच में दो हज़ार साल पुरानी कन्हेरी की बौद्ध गुफ़ायें हैं, जोकि काली बाज़ाल्टिक चट्टानों में बनी हैं। "कन्हेरी" नाम उन्हीं काली चट्टानों की वजह से हैं। प्रणय लाल की अंग्रेज़ी पुस्तक "इन्डिका" में इन चट्टानों के बनने के बारे बहुत अच्छी तरह से बताया गया है।

ईसा से दो सौ या तीन सौ साल पहले पूरे भारत में इस तरह की बौद्ध गुफ़ाएँ विभिन्न स्थानों पर बनायी गयीं। औरंगाबाद के पास में अजँता की गुफ़ाएँ तो सारे विश्व में प्रसिद्ध हैं। यह गुफ़ाएँ बौद्ध भिक्षुओं के विहार थे, जहाँ चट्टानों में उनके रहने, प्रार्थना व पूजा करने, सभा करने, खाने, आदि सब जीवनकार्यों के लिए छोटे और बड़े कमरे बनाये गये थे। उसके साथ ही यह गुफ़ाएँ यात्रियों के रहने की सराय का काम भी करती थीं और भारत का व्यवसायिक जाल इन गुफ़ाओं से जुड़ा था।

यानि उन बोद्ध भिक्षुओं को चट्टानों के कठोर पत्थरों को कैसे काटा और तराशा जाये, इस सब की तकनीकी जानकारी थी। इन्हीं तकनीकों से एलौरा की गुफ़ाओं में एक महाकाय चट्टान के पहाड़ को काट कर पूरा कैलाश मन्दिर बनाया गया था। इन्हीं तकनीकों से दक्षिण भारत में भी बादामी तथा महाबलीपुरम के मन्दिर बनाये गये थे।

कान्हा की गुफ़ाओं में चट्टानें पहाड़ियों के ऊपर ऊँचाई में बनी हैं जबकि पानी नीचे घाटी में मिलता है जहाँ विभिन्न जल धाराएँ और नाले बहते हैं। उन गुफ़ाओं और चट्टानों में भी भिक्षुकों नें जल की एक-एक बूँद को इक्ट्ठा करने के लिए प्रयोजन किया था, जो दो हज़ार के बाद आज भी बढ़िया काम कर रहे हैं।

चट्टानों के ऊपर हर ढलान पर नालियाँ काटी गयीं थीं जिनमें बरसात का पानी इक्ट्ठा हो कर चट्टानों में बने जलाशयों में जमा होता था। नीचे की तस्वीर में कान्हा की चट्टानों में बनी गुफ़ाएँ हैं, ध्यान से देखेंगे तो हर सतह पर पानी जमा करने के लिए बनी हुई संकरी नालियों का जाल दिखाई देगा।



अगर आप मुम्बई जाते हैं तो कान्हा की गुफ़ाओं को अवश्य देखने जाईये, बहुत सुंदर जगह है, और वहाँ चट्टानों में काट कर बनी नालियों के जाल को भी अवश्य देखियेगा कि कैसे प्राचीन भारत ने जल संचय की तकनीकी का विकास किया था।

खरे हैं तालाब

अनुपम मिश्र की किताब "आज भी खरे हैं तालाब" हमारे गाँवों के ताल-तालाबों-बावड़ियों की बातें करती है, जोकि एक ज़माने में हर गाँव के जीवन का अभिन्न हिस्सा होते थे और जिनकी पूरी व्यवस्था तथा तकनीकी ज्ञान व कौशल पिछली दो सदियों में धीरे धीरे खोते गये हैं। इस किताब में मिश्र जी ने लिखा हैः

सैंकड़ों, हज़ारों तालाब अचानक शून्य से प्रकट नहीं हुए थे। इनके पीछे एक इकाई थी बनवाने वालों की, तो दहाई थी बनाने वालों की। यह इकाई, दहाई मिल कर सैकड़ों, हज़ार बनाती थी। पिछले दो सौ बरसों में नए किस्म की थोड़ी सी पढ़ाई पढ़ गये समाज ने इस इकाई, दहाई, सैकड़ा, हज़ार को शून्य ही बना दिया। ...

पाँचवीं सदी से पंद्रहवीं सदी तक देश के इस कोने से उस कोने तक तालाब बनते ही चले आये थे। कोई एक हज़ार वर्ष तक अबाध चलती हुई इस परम्परा में पद्रहवीं सदी के बाद कुछ बाधाएँ आने लगी थीं, पर उस दौर में भी यह धारा पूरी तरह से नहीं रुक पाई, सूख नहीं पाई। समाज ने जिस काम को इतने लम्बे समय तक इतने व्यवस्थित रूप में किया था, उस काम को उथल पुथल का वह दौर भी पूरी तरह से नहीं मिटा सका। अठाहरवीं तथा उन्नीसवीं सदी के अंत तक भी जगह जगह तालाब बन रहे थे। ...

देश में सबसे कम वर्षा के क्षेत्र जैसे राजस्थान और उसमें भी सबसे सूखे माने जाने वाले थार के रेगिस्तान में बसे हज़ारों गावों के नाम ही तालाब के आधार पर मिलते हैं। गावों के नाम के साथ ही जुड़ा है "सर"। सर यानि तालाब। सर नहीं तो गाँव कहां? ... एक समय की दिल्ली में करीब ३५० छोटे-बड़े तालाबों का ज़िक्र मिलता है। ...

आखिरी बार डुगडुगी पिट रही है। काम तो पूरा हो गया है पर आज फ़िर सभी लोग इकट्ठे होंगे, तालाब की पाल पर। अनपूछी ग्यारस को जो संकल्प लिया था, वह आज पूरा हुआ है। बस आगौर में स्तंभ लगना और पाल पर घटोइया देवता की प्राण प्रतिष्ठा होना बाकी है। आगर के स्तम्भ पर गणेश जी बिराजे हैं और नीचे हें सर्पराज। घटोइया बाबा घाट पर बैठ कर पूरे तालाब की रक्षा करेंगे। ...

आज जो अनाम हो गए, उनका एक समय में बड़ा नाम था। पूरे देश में तालाब बनते थे और बनाने वाले भी पूरे देश में थे। कहीं यह विद्या जाति के विद्यालय में सिखाई जाती थी तो कहीं यह जात से हट कर एक विषेश पांत भी बन जाती थी। बनाने वाले लोग कहीं एक जगह बसे मिलते थे तो कहीं ये घूम घूम कर इस काम को करते थे। ...

अनुपम मिश्र जी इस किताब में तालाबों, बावड़ियों के बारे में जो विवरण हैं, वह उस खोये हुए समय का क्रंदन है जिसे संजोरने और सम्भालने की हममे क्षमता नहीं थी। ट्यूबवैल और हैंडपम्प लगा कर धरती के गर्भ में छुपे जल को मशीन से बाहर निकालने की आसानी ने उस ज्ञान और कौशल को बेमानी बना दिया। अब जब मानसून और बारिशें अपने रास्ते भूल रहे हैं, जब धरती के गर्भ में छुपे जल का स्तर घटता जा रहा है, तो लोग बारिश का पानी कैसे बचाया जाये, इसकी बातें करते हैं। लेकिन उन तालाबों से जुड़े संसार को क्या हम लोग समय पर सहेज पायेंगे?

इस आलेख की अंतिम तस्वीर में छत्तीसगढ़ में बिलासपुर के करीब गनियारी गाँव से एक तालाब का पुराना मंदिर है। आप बताईये क्या यह तालाब और मंदिर हम भविष्य के लिए समय रहते बचा पायेंगे या नहीं?



***

पानी और तालाबों पर गीत

इस आलेख को पढ़ कर, हमारे शहर से करीब बीस किलोमीटर दूर रहने वाली श्यामा जी ने, जो वेनिस विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग से जुड़ी हैं, फेसबुक पर अपनी टिप्पणी में मनोज कुमार की "शोर" फ़िल्म से "पानी रे पानी तेरा रंग कैसा, जिसमें मिला दो लगे उस जैसा" गीत को याद कराया, तो मन में प्रश्न उठा कि इस विषय पर, यानि पानी, जल और तालाब के विषय पर, और कौन कौन से प्रसिद्ध गीत हैं?

सबसे पहले तो कुछ-कुछ ऐसे ही अर्थ वाला "विक्की डोनर" से आयुष्मान खुराना का "पाणी दा रंग वेख के" याद आया। फ़िर एक अन्य पुरानी फ़िल्म से "ओह रे ताल मिले नदी के जल से" याद आया जिसे पर्दे पर संजीव कुमार ने गाया था। एक अन्य पुरानी फ़िल्म याद आयी, ख्वाजा अहमद अब्बास की "दो बूँद पानी" लेकिन गीत याद नहीं आया।

क्या आप को इस तरह का कोई अन्य गीत याद है? बस मेरी एक बिनती है कि अपनी याद वाला गीत बताईयेगा, गूगल करके खोजा हुआ नहीं।


शनिवार, जून 25, 2022

डिजिटल तस्वीरों के कूड़ास्थल

एक इतालवी मित्र, जो एक म्यूज़िक कन्सर्ट में गये थे, ने कहा कि उन्हें समझ नहीं आता था कि इतने सारे लोग जो इतने मँहगे टिकट खरीद कर एक अच्छे कलाकार को सुनने गये थे, वहाँ जा कर उसे सुनने की बजाय स्मार्ट फ़ोन से उसके वीडियो बनाने में क्यों लग गये थे? उनके अनुसार वह ऐसे वीडियो बना रहे थे जिनमें उस कन्सर्ट की न तो बढ़िया छवि थी न ध्वनि। उनका कहना था कि इस तरह के वीडियो को कोई नहीं देखेगा, वह खुद भी नहीं देखेंगे, तो उन्होंने कन्सर्ट का मौका क्यों बेकार किया?

उनकी बात सुन कर मैं भी इसके बारे में सोचने लगा। मुझे वीडियो बनाने की बीमारी नहीं है, कभी कभार आधे मिनट के वीडियो खींच भी लूँ, पर अक्सर बाद में उन्हें कैंसल कर देता हूँ। लेकिन मुझे भी फोटो खींचना अच्छा लगता है।

तो प्रश्न उठता है कि यह फोटो और वीडियो जो हम हर समय, हर जगह खींचते रहते हैं, यह अंत में कहाँ जाते हैं?


क्लाउड पर तस्वीरें

कुछ सालों से गूगल, माइक्रोसोफ्ट आदि ने नयी सेवा शुरु की है जिसमें आप अपनी फोटो और वीडियो अपने मोबाईल या क्मप्यूटर में रखने के बजाय, अपनी डिजिटल फाइल की कॉपी "क्लाउड" यानि "बादल" पर रख सकते हैं। शुरु में यह सेवा निशुल्क होती है लेकिन जब आप की फाईलों का "भार" एक सीमा पार लेता है तो आप को इस सेवा का पैसा देना पड़ता है।

शुरु में लगता था कि डिजिटल जगत में काम करने से हम प्रकृति को बचा सकते हैं। जैसे कि चिट्ठी लिखने में कागज़, स्याही लगेगें, उन्हें किसी को भेजने के लिए आप को उस पर टिकट लगाना पड़ेगा, पोस्ट करने जाना पड़ेगा, आदि। डिजिटल होने से फायदा होगा कि आप कम्प्यूटर या मोबाईल पर ईमेल या एस.एम.एस. या व्हाटसएप कर दीजिये, इस तरह आप प्रकृति की रक्षा कर रहे हैं। यानि हम सोचते थे कि आप का जो मन है करते जाईये, गाने डाऊनलोड कीजिये, तस्वीरें या वीडियो खींचिये, हर सुबह "गुड मॉर्निंग" के साथ उन्हें मित्रों को भेजिये, सब कुछ डिजिटल साइबर दुनिया में रहेगा, रोज़मर्रा के जीवन पर इसका प्रभाव नहीं पड़ेगा और इस तरह से आप प्रकृति की रक्षा कर रहे हैं।

प्रसिद्ध डिज़ाईनर जैरी मेकगोवर्न ने इसके बारे में एक आलेख लिखा है। वह कहते हैं कि पिछले वर्ष, 2021 में, केवल एक साल में 14 करोड़-गुणा-करोड़ तस्वीरें खींची गयीं (इस संख्या का क्या अर्थ है और इसमें कितने शून्य लगेंगे, मुझे नहीं मालूम)। इतनी तस्वीरें पूरी बीसवीं सदी के सौ सालों में नहीं खींची गयी थीं। उनके अनुसार इनमें से ९ करोड़-गुणा-करोड़ तस्वीरें, यानि दो तिहाई तस्वीरें और वीडियो गूगल, माइक्रोसोफ्ट आदि के क्लाउड पर रखी गयीं हैं और जिनमें से 90 प्रतिशत तस्वीरें और वीडियो कभी दोबारा नहीं देखे जायेंगे। यानि लोग उन तस्वीरों और वीडियो को अपलोड करके उनके बारे में सब कुछ भूल जाते हैं। इन क्लाउड को वह डिजिटल कूड़ास्थलों या कब्रिस्तानों का नाम देते हैं।

यह पढ़ा तो मैं इसके बारे में सोच रहा था। यह कूड़ास्थल किसी सचमुच के बादल में आकाश में नहीं बैठे हैं, बल्कि डाटा सैंटरों में रखे हज़ारों, लाखों कम्प्यूटर सर्वरों के भीतर बैठे हैं जिनको चलाने में करोड़ों टन बिजली लगती होगी। इन कम्प्यूटरों में गर्मी पैदा होती है इसलिए इन्हें ठँडा करना पड़ता होगा। डिजिटल फाईलों को रखने वाली हार्डडिस्कों की तकनीकी में लगातार सुधार हो रहे हैं, लेकिन फ़िर भी जिस रफ्तार से दुनिया में लोग वीडियो बना रहे हैं, तस्वीरें खींच रहे हैं और उनको क्लाउड पर डाल रहे हैं, उनके लिए हर साल उन डाटा सैंटरों को फ़ैलने के लिए नयी जगह चाहिये होगी? तो क्या अब हमें सचमुच के कूड़ास्थलों के साथ-साथ डिजिटल कूड़ास्थलों की चिंता भी करनी चाहिये?

मेरे फोटो और वीडियो

कुछ वर्ष पहले तक मुझे तस्वीरें खींचने का बहुत शौक था। हर दो - तीन सालों में मैं नया कैमरा खरीदता था। कभी किसी साँस्कृतिक कार्यक्रम में या देश विदेश की यात्रा में जाता तो वहाँ फोटो अवश्य खींचता। कैमरे के लैंस के माध्यम से देखने से मुझे लगता था कि उस जगह को या उस क्षण में होने वाले को या उस कलाकृति को अधिक गहराई से देख रहा हूँ। बाद में उन तस्वीरों को क्मप्यूटर पर डाउनलोड करके मैं उन्हें बड़ा करके देखता। बहुत सारी तस्वीरों को तुरंत कैंसल कर देता, लेकिन बाकी की तस्वीरों को पूरा लेबल करता कि किस दिन और कहाँ खींची थी, उसमें कौन कौन थे। मैंने बाहरी हार्ड डिस्क खरीदी थीं जिनको तस्वीरों से भरने में देर नहीं लगती थी, इसलिए यह आवश्यक था कि केवल चुनी हुई तस्वीरें रखी जायें और बाकियों को कैंसल कर दिया जाये। जल्दी ही उन हार्ड डिस्कों की संख्या बढ़ने लगी तो तस्वीरों को जगहों, देशों, सालों आदि के फोल्डर में बाँटना आवश्यक होने लगा।

तब सोचा कि एक जैसी दो हार्ड डिस्क रखनी चाहिये, ताकि एक टूट जाये तो दूसरी में सब तस्वीरें सुरक्षित रहें। यानि काम और बढ़ गया। अब हर तस्वीर को दो जगह कॉपी करके रखना पड़ता था। इस समय मेरे पास करीब सात सौ जिगाबाईट की तस्वीरें हैं। हार्ड डिस्क में फोटों को तरीके से रखने के लिए बहुत मेहनत और समय चाहिये। पहले आप सब फोटों को देख कर उनमें से रखने वाली तस्वीरों को फोटो चुनिये। उनको लेबल करिये कि कब, कहाँ खींची थी, कौन था उसमें। इसलिए हार्डडिस्क पर कूड़ा जमा नहीं होता, काम ती तस्वीरें जमा होती हैं। 

अंत में

जो हम हर रोज़ फेसबुक, टिवटर, इँस्टाग्राम आदि में लिखते हैं, टिप्पणियाँ करते हैं, लाईक वाले बटन दबाते हैं, यह सब कहाँ जाते हैं और कब तक संभाल कर रखे जाते हैं? अगर दस साल पहले मैंने आप की किसी तस्वीर पर लाल दिल वाला बटन दबाया था, तो क्या यह बात कहीं किसी डाटा सैंटर में सम्भाल कर रखी होगी और कब तक रखी रहेगी? क्या उन सबके भी कोई डिजिटल कूड़ास्थल होंगे जो पर्यावरण में टनों कार्बन डाईओक्साईड छोड़ रहे होंगे और जाने कब तक छोड़ते रहेंगे?

मैं गूगल, माईक्रोसोफ्ट आदि के क्लाउड पर भी कोई तस्वीरें या वीडियो नहीं रखता, मेरे पूरे आरकाईव मेरे पास दो हार्ड डिस्कों पर सुरक्षित हैं। मुझे लगता है कि जब मैं नहीं रहूँगा तो मेरे बाद इन आरकाईव को कोई नहीं देखेगा, अगर देखने की कोशिश भी करेगा तो देशों, शहरों, विषयों, सालों के फोल्डरों के भीतर फोल्डर देख कर थक जायेगा। भविष्य में शायद कृत्रिम बुद्धि वाला कोई रोबोट कभी उनकी जाँच करेगा और अपनी रिपोर्ट में लिख देगा कि इस व्यक्ति को कोई मानसिक बीमारी थी, क्योंकि उसने हर तस्वीर में साल, महीना, दिन, जगह, लोगों के नाम आदि बेकार की बातें लिखीं हैं।

यह भी सोच रहा हूँ कि भविष्य में जाने उन डिजिटल कूड़ास्थलों को जलाने से कितना प्रदूषण होगा या नहीं होगा? और जैसे सचमुच के कूड़ास्थलों पर गरीब लोग खोजते रहते हैं कि कुछ बेचने या उपयोग लायक मिल जाये, क्या भविष्य में डिजिटल कूड़ास्थलों पर भी इसी तरह से गरीब लोग घूमेंगे? आप क्या कहते हैं?

मेरे विचार में आप चाहे जितना मन हो उतनी तस्वीरें या वीडियो खींचिये, बस उन्हें आटोमेटिक क्लाउड पर नहीं सभाल कर रखिये। बल्कि बीच बीच में पुरानी तस्वीरों और वीडियो को देखने की कोशिश करिये और जिनको देखने में बोर होने लगें, उन्हें कैसल कीजिये। जो बचे, उसे ही सम्भाल के रखिये। इससे आप पर्यावरण की रक्षा करेंगे।




शुक्रवार, जुलाई 17, 2015

चमकीले फीतों का जहर

बहुत साल पहले एक पत्रिका होती थी "सारिका", उसमें किशन चन्दर की एक कहानी छपी थी "नीले फीते का जहर". क्या था उस कहानी में यह याद नहीं, बस यही याद है कि कुछ ब्लू फ़िल्म की बात थी. पर दुकानों पर लटकती चमकीली थैलियों के फीते देख कर मुझे हमेशा उसके शीर्षक की याद आ जाती है.

Sachet pollution in India - Images by Sunil Deepak

हवा में लटकते फीते किसी बुद्ध मन्दिर में फहराते प्रार्थना के झँडों की तरह सुन्दर लगते हैं. इन थैलियों में शैम्पू, काफी, मक्खन, आदि विभिन्न चीज़ें बिकती हैं, जिनमें कोई जहर नहीं होता. इन झँडों में आम भारतीय उपभोगता की स्वाभाविक चालाकी की कहानी भी है जोकि बड़े बहुदेशीय कम्पनियों के बिक्री मैनेजरों को ठैंगा दिखाती है. तो फ़िर क्यों यह थैलियाँ हमारे जीवन में जहर घोल रही हैं?

थैलियों से जान पहचान

छोटी छोटी यह चमकीली थैलियाँ देखीं तो पहले भी थीं, लेकिन पहली बार उनके बारे में सोचा जब पिछले साल स्मिता के पास केसला (मध्य प्रदेश) में ठहरा था.

थैलियों को कूड़े में देख कर मैंने स्मिता की साथी शाँतीबाई से पूछा था, इस कूड़े का क्या करती हो? यह भी क्या सवाल हुआ, उसने अवश्य अपने मन में सोचा होगा, यहाँ क्या गाँव में कोई कूड़ा उठाने आता है? नींबू या फल सब्जी का छिलका हो तो रसोई के दरवाज़े से पीछे खेत में फैंक दो. और प्लास्टिक या एलूमिनियम की थैली हो तो जमा करके जला दो, और क्या करेंगे इस कूड़े का?

इसीलिए यह थैलियाँ दूर दूर के गाँवों की हवा में रंग बिरंगी तितलियों की तरह उड़ती हैं. लाखों, करोड़ों, अरबों थैलियाँ. भारत इन चमकीली थैलियों की दुनिया भर की राजधानी है.

Sachet pollution in India - Images by Sunil Deepak

एक ओर यह थैलियाँ भारत में अरबों रुपयों की बिक्री करने वाली कम्पनियों के लिए सिरदर्द बनी हैं. वह कम्पनियाँ भी कोशिश करके हार गयीं लेकिन इसका हल नहीं खोज पायीं कि कैसे थैलियों में बेचना कम किया जाये, ताकि मुनाफ़ा बढ़े. उनको हवा में तितलियों की तरह उड़ने वाली थैलियों की चिन्ता नहीं, उनको चिन्ता है कि इन थैलियों से छुटकारा पा कर कैसे अपनी कम्पनी के लाभ को अधिक बढ़ायें.

आज जब "स्वच्छ भारत" की बात हो रही है, तो इन थैलियों की कथा को समझना भी आवश्यक है.

थैंलियाँ कैसे आयीं भारत में?

छोटी थैलियों में चीज़ बेचना यह एक भारतीय दिमाग का आविष्कार था - श्री सी के रंगानाथन का.

तमिलनाडू के कुडालूर शहर के वासी श्री रंगानाथन ने 1983 में चिक इन्डिया (Chik India) नाम की कम्पनी बनायी, जो चिक शैम्पू बनाती थी. उन्होंने चिक शैम्पू को छोटी एलूमिनियम की थैलियों में बेचने का सोचा. उनका सोचना था कि गाँव तथा छोटे शहरों के लोग एक बार में शैम्पू की बड़ी बोतल नहीं खरीद सकते, लेकिन वह भी शैम्पू जैसी उपभोगत्ता वस्तुओं का प्रयोग करना चाहते हैं, तो कम दाम वाली एक रुपये की थैली खरीदना उनके लिए अधिक आसान होगा. उनकी सोच सही निकली और चिक इन्डिया को बड़ी व्यवसायिक सफलता मिली.

1990 में चिक इन्डिया का नाम बदल कर ब्यूटी कोस्मेटिक प्र. लि. रखा गया और 1998 इसके नाम का अन्तर्राष्ट्रीयकरण हुआ तथा यह "केविन केयर प्र. लि." (CavinKare Pvt. Ltd.) कर दिया गया. श्री रंगनाथन को कई पुरस्कार मिल चुके हैं तथा उन्होंने विकलाँग मानवों के साथ काम करने वाली स्वयंसेवी संस्था "एबिलिटी फाउँनडेशन" भी स्थापित की है.

1991 में जब नरसिम्हाराव सरकार ने भारत के द्वार उदारीकरण की राह पर खोले तो दुनियाभर की बड़ी बड़ी बहुदेशीय कम्पनियों ने सोचा कि करोड़ों लोगों की आबादी वाले भारत के बाज़ार में उनकी कमाई के लिए जनता उनकी प्रतीक्षा में बैठी थी. इन कम्पनियों के कुछ उत्पादनों को FMCG (Fast Moving Consumer Goods) यानि "अधिक बिक्री होने वाली उपभोगत्ता वस्तुएँ" के नाम से जाना जाता है, छोटी थैलियाँ उन्हीं उत्पादनों से जुड़ी हैं.

इन कम्पनियों ने जोर शोर से भारत में अपने उद्योग लगाये और वितरण प्लेन बनाये, लेकिन जिस तरह की बिक्री की आशा ले कर यह कम्पनियाँ भारत आयी थीं, वह उन्हें नहीं मिली. कुछ ही वर्षों में लगातार घाटों के बाद सबमें हड़बड़ी सी मच गयी.

जब बहुदेशीय कम्पनियों को भारत के बाज़ार में सफलता नहीं मिली, तो उन्होंने भी छोटी थैलियों की राह पकड़ी. उनका सोचना था कि सस्ती थैलियों के माध्यम से एक बार लोगों को उनकी ब्रैंड की चीज़ खरीदने की आदत पड़ जायेगी तो वह बार बार दुकान में जा कर सामान खरीदने के बजाय उनकी बड़ी बोतल खरीदेंगे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. उनकी छोटी थैलियाँ खूब बिकने लगीं, लेकिन उनकी बड़ी बोतलों की बिक्री जितनी बढ़ने की उन्हें आशा थी, वैसा नहीं हुआ.

Sachet pollution in India - Images by Sunil Deepak

भारत में लोग हर चीज़ को माप तौल कर यह देखते हैं कि कहाँ अधिक फायदा है, और लोगों ने छोटी थैलियों के साथ भी यही किया. अगर आप बड़ी बोतल के बदले उतनी ही चीज़ छोटी पचास या सौ थैलियों में खरीदें तो आप को उसकी कीमत बोतल के मुकाबले कम पड़ती है. इसलिए अधिकतर लोग सालों साल तक छोटी थैलियाँ ही खरीदते रहते हैं, कभी बड़ी बोतल की ओर नहीं जाते. जैसा विदेशों में होता कि हफ्ते में एक दिन जा कर इकट्ठा सामान खरीद लो, वैसा भारत के छोटे शहरों व गावों में नहीं होता. अधिक सामान को खरीद कर कहाँ रखा जाये, यह परेशानी बन जाती है. लोग करीब की दुकान से हर दिन जितनी ज़रूरत हो उतना खरीदना बेहतर समझते हैं, और जिस दिन पैसे कम हों, उस दिन नहीं खरीदते. बड़ी बड़ी कम्पनियों को आखिरकार हार माननी पड़ी. अब उनसे न छोटी थैलियाँ का उत्पादन बन्द करते बनता है और जिस तरह की बिक्री की वह सोचती थीं वह भी उनके हाथ नहीं आयी.

आज छोटे गाँव हों या छोटे बड़े शहर, हर जगह आप को नुक्कड़ की दुकानों में भारतीय तथा बहुदेशीय कम्पनियों की यह छोटी थैलियाँ रंग बिरंगी चमकीली झालरों की तरह लटकी दिखेंगी. इन थैलियों को तकनीकी भाषा में सेशे (sachet) कहते हैं.

कैसे बनती हैं सेशे की छोटी थैलियाँ?

छोटी थैलियों को बनाने में एलुमिनियम, प्लास्टिक तथा सेलूलोज़ लगता है. इनमें एलूमिनियम की एक महीन परत को सेलूलोज़ की या प्लास्टिक की दो महीन परतों के बीच में रख कर उन्हें जोड़ा जाता है. यह बहुत हल्की होती है और इनके भीतर के खाद्य पदार्थ, चिप्स, नमकीन या शैम्पू आदि न खराब होते हैं, न आसानी से फटते हैं. इस तकनीक से थैलियों के अतिरक्त ट्यूब, डिब्बा आदि भी बनाये जाते हैं.

उपयोग के बाद, खाली थैलियों से, माइक्रोवेव की सहायता से एलूमिनियम तथा हाइड्रोकारबन गैस बनाये जा सकते हैं. एलुमिनियम विभिन्न उद्योगों में लग जाता है जबकि हाईड्रोकार्बन गैस उर्जा बनाने में काम आती है. लेकिन अगर इन्हें जलाया जाये तो उससे हानिकारक पदार्थ हवा में चले जाते हैं तथा पर्यावरण प्रदूषित होता है.

एलूमिनयम की जानकारी सोलहवीं शताब्दी में आयी थी लेकिन इस धातू की वस्तुएँ बनाने में सफलता मिली सन् 1855 में. उस समय इसे "मिट्टी की चाँदी" कहते थे, क्योंकि तब यह बहुत मँहगी धातू थी और इससे केवल राजा महाराजाओं के प्याले-प्लेटें या गहने बनाये जाते थे.

एलुमिनियम को सस्ते या टिकाऊ तरीके से बनाने की विधि 1911 में खोजी गयी और धीरे धीरे इसका उत्पादन बढ़ा और साथ ही इसकी कीमत गिरी. आज एलूमिनियम के बरतन अन्य धातुओं के बरतनों से अधिक सस्ते मिलते हैं और अक्सर गरीब घरों में प्रयोग किये जाते हैं. हर वर्ष दुनिया में लाखों टन एलूमिनयम का उत्पादन होता है जिन्हें बोक्साइट की खानों से निकाल कर बनाया जाता है. खानों की खुदाई से पर्यावरण तथा जनजातियों के जीवन की कुछ समस्याएँ जुड़ी हैं जैसा कि ओडिशा में वेदाँत कम्पनी की बोक्साइट की खानों के विरुद्ध जनजातियों के अभियान में देखा जा रहा है.

इस स्थिति में बजाय छोटी थैलियों को कूड़े की तरह फैंक कर पर्यावरण की समस्याएँ बढ़ाने से बेहतर होगा कि उन थैलियों के भीतर के एलूमिनियम को दोबारा प्रयोग के लिए निकाला जाये. इससे कूड़ा भी कम होगा. विकसित देशों में एलुमिनियम के पुनर्पयोग के कार्यक्रम आम है.

भारत में भी कुछ जगह एलुमिनयम के पुनर्पयोग के उदाहरण मिलते हैं लेकिन यह बहुत कम हैं. हमारे देश में अधिकतर जगह इन थैलियों में छुपी सम्पदा को नहीं पहचाना जाता, बल्कि उन्हें कूड़ा बना कर जलाया जाता है या जमीन में गाड़ा जाता है, जिससे नयी समस्याएँ बन जाती हैं.

गुवाहाटी का उदाहरण

यहाँ एक ओर तो जोर शोर से स्वच्छता अभियान की बात होती है, बड़े बड़े पोस्टर लगते हैं कि शहर में सफ़ाई रखिये. दूसरी ओर, हमारे शहरों में कूड़ा इक्ट्ठा करने का आयोजन ठीक से नहीं होता. गुवाहाटी (असम) में भी यही हाल है. शहर में कूड़े के डिब्बे खोजने लगेंगे तो खोजते ही रह जायेंगे. प्रसिद्ध पर्यटन स्थलों या मन्दिरों के आस पास भी कूड़े के डिब्बे नहीं मिलते. खुली जगह पर पिकनिक हो, कोई विवाह समारोह या पार्टी हो, या मन्दिरों में त्योहार की भीड़, लोग आसपास कूड़े के ढ़ेर लगा कर छोड़ जाते हैं.

कूड़े के डिब्बों की जगह पर, शहर में कई कई किलोमीटर की दूरी पर बड़े कूड़ा एकत्रित करने वाले कन्टेनर मिलते हैं. यानि आप पिकनिक पर जायें या मन्दिर जायें, तो उसके बाद कूड़े के थैले ले कर इन कन्टेनरों को खोजिये. अक्सर लोग दूर रखे कम्टेनर तक जाने की बजाय कूड़े को वहीं फैंक देते हैं. पिकनिक स्थलों पर प्लास्टिक की थैलियाँ, चमकीली कागज़ की प्लेटें, मुर्गियों के पँख, इधर उधर उड़ते रहते हैं. (तस्वीर में गुवाहाटी के उमानन्द मन्दिर के पीछे फैंका हुआ कूड़ा)

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गुवाहाटी में छोटी थैलियों का क्या किया जाता है, मैं यह समझना चाहता था. इसी की खोज में मैं एक दिन, शहर के करीब ही, हाईवे से जुड़े "बोड़ो गाँवो" गया, जहाँ ट्रकों से गुवाहाटी शहर का सारा कूड़ा जमा होता है. उस जगह पर, बहुत दूर से ही कूड़े की मीठी गँध गाँव के हवा में बादलों की तरह सुँघाई देती है. इस कूड़े से कई सौ परिवारों की रोज़ी रोटी चलती है. वह लोग झोपड़ियों में कूड़े के आसपास ही रहते हैं. झोपड़ियों के आसपास भी कूड़े के ढ़ेर लगे होते हैं जहाँ उसकी छटाई होती है और जो वस्तुएँ बेची जा सकती हैं, वह निकाल ली जाती हैं. वहाँ कोई विरला ही लिखना पढ़ना जानता है, तथा बच्चे भी स्कूल नहीं जाते.

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आज की दुनिया में हमारे शहरों में व्यवसाय तथा लोग कूड़ा बनाने में माहिर हैं. हर दिन हमारे यहां लाखों टन कूड़ा बनता है. लेकिन सभी कूड़ा बनाने वाले, अपने कूड़े से और उसकी गन्ध से नफरत करते हैं. ऐसी स्थिति में शिव की तरह विष पीने वाले, कूड़े में रह कर काम करने वाले लोग जो उस कूड़े से पुनर्पयोग की वस्तुएँ निकालते हैं, उन्हें तो संतों का स्थान मिलना चाहिये. पर हमारा समाज उनके इस काम की सराहना नहीं करता बल्कि उन्हें समाज से क्या मिलता है, इसकी आप स्वयं कल्पना कर सकते हैं.

उन कूड़े के ढेरों पर बहुत से पशु पक्षी भी घूमते दिखते हैं, जिनमें असम के प्रसिद्ध ग्रेटर एडजूटैंट पक्षी भी हैं.

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कूड़े में अधिकतर स्त्रियाँ तथा बच्चे काम करते हैं. कई बच्चे तीन चार साल के भी दिखे, जो कूड़े की थैलियाँ सिर पर उठा कर ले जा रहे थे. जब भी नगरपालिका का कोई ट्रक आता, वह लोग उसके पीछे भागते ताकि कूड़े को चुनने का उन्हें पहले अवसर मिले.

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कूड़े में काम करने वालों का क्या जीवन है, उनकी समस्याएँ क्या है, यह जानने नहीं गया था. उसके बारे में फ़िर कभी लिखूँगा. बल्कि मेरा ध्येय था यह जानना कि खाली थैलियों का क्या होता है?

Sachet pollution in India - Images by Sunil Deepak

संयोग से, वहाँ पहुँचते ही एक टेम्पो दिखा जिस पर कई हज़ार खाली थैलियाँ प्लास्टिक में बँधी थीं. मैंने उस टेम्पो को देख कर सोचा कि इसका अर्थ था कि खाली थैलियों को अलग कर के रखा जाता है, यानि इन्हे बेचने का तथा इनके पुनर्पयोग का कुछ कार्यक्रम चल रहा है.

पर ऐसा नहीं था. थोड़ी देर बाद वह टेम्पो भी कूड़े के ढेर की ओर बढ़ा जहाँ अन्य ट्रक अपना कूड़ा फैंक रहे थे. टेम्पो वाले युवकों ने प्लास्टिक को खोल कर उन खाली थैलियों को अन्य कूड़े के बीच में फैंक दिया.

Sachet pollution in India - Images by Sunil Deepak

Sachet pollution in India - Images by Sunil Deepak

स्वच्छ भारत

जब तक शहरों में कूड़ा फैंकने की उपयुक्त जगहें नहीं होंगी, लोगों को यह कहने का क्या फायदा है कि सफाई रखिये? शहरों में जगह जगह पर डिब्बे होना जिसमें लोग कूड़ा डाल सके, आवश्यक हैं. मन्दिर तथा पिकनिक स्थलों पर भी कूड़ा जमा करने के डिब्बे रखना ज़रूरी है.

हम से शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जो यह कहे कि वह स्वच्छ भारत नहीं चाहता. लेकिन क्या सड़कों पर झाड़ू लगाने या डिब्बों में कूड़ा फैंकने से भारत स्वच्छ हो जायेगा? झाड़ू लगा कर कूड़ा हटाना तथा डिब्बों में कूड़ा डालना तो केवल पहला कदम है. इससे शहरों में रहने वाले लोगों के सामने की गन्दगी हटती है. लेकिन वही गन्दगी हमारे शहरों के बाहर अगर जमा होती रहती है, तो क्या सच में हमारा वातावरण स्वच्छ हो गया?

देश में हर दिन लाखों करोड़ों टन नया कूड़ा बनता है, उसका क्या करेंगे हम? उसे जला कर वातावरण का प्रदूषण करेंगे या जितना हो सकेगा उसका पुनर्पयोग होना चाहिये?

Sachet pollution in India - Images by Sunil Deepak

चमकीली थैलियों में छुपे लाखों टन एलूमिनियम को निकाल कर उसका दोबारा उपयोग करना बेहतर है या नयी खानें बनाना?

फल सब्जी आदि खाद्य पदार्थों के कूड़े को जमा करके उनसे खाद बनाने से बेरोजगार लोगों को जीवनयापन के माध्यम मिल सकते हैं. वैसे ही थैलियों में छुपे एलुमिनियम के पुनर्पयोग से भी उद्योगों तथा बेरोजगार युवकों को फायदा हो सकता है. बोड़ा गाँव जैसी जगहों में कूड़ा जमा करने वाले लोगों को भी इससे जीवनयापन का एक अन्य सहारा मिलेगा. साथ ही कूड़ा जलाने से जो प्रदुषण होता है वह कम होगा.

जब तक ऐसे प्रश्नों के बारे में नहीं सोचेगें, भारत स्वच्छ हो, यह सपना सपना ही रहेगा और चमकीली थैलियाँ समृद्धी का रास्ता बनने के बजाय, जहर बन कर किसी शिव की प्रतीक्षा करती रहेंगी.

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शुक्रवार, मार्च 07, 2014

हिन्दी फ़िल्में और धूँए के छल्ले

इस वर्ष की ऑस्कर पुरस्कार समारोह में जब इतालवी फ़िल्म "द ग्राँदे बेलेत्ज़ा" (La grande Bellezza - एक बड़ी सुन्दरता) को विदेशी फ़िल्मों के श्रेणी का प्रथम पुरस्कार मिला है तो बहुत खुशी हुई. फ़िल्म के नायक हैं जीवन की सच्चाईयों से थके हुए साठ साल के पत्रकार जेप गाम्बेरदेल्ला, जो अपने जीवन के सूनेपन को रात भर चलने वाली पार्टियों, शराब और अपने से बीस साल छोटी औरतों के साथ रातें बिता कर भरने की कोशिश करते हैं. फ़िल्म की पृष्ठभूमि में है रोम शहर की इतिहास से भरी सुन्दर दुनिया, होटल और स्मारक.

फ़िर सोचा कि अगर यह फ़िल्म भारत में बनती तो सारी फ़िल्म में "धुम्रपान करना शरीर को नुकसान देता है" का संदेश सिनेमा हाल के पर्दे पर चिपका रहता क्योंकि शायद ही इस फ़िल्म में कोई दृश्य हो जिसमें इस फ़िल्म के नायक के हाथ में सिगरेट नहीं होती.

मुझे यह फ़िल्म बहुत अच्छी लगी थी, हालाँकि इटली में बहुत से लोगों ने इस फ़िल्म की निन्दा की है. बात कुछ वैसी ही है जैसे अगर किसी भारतीय फ़िल्म में गरीबी, गन्दगी, झोपड़पट्टी को दिखाया जाये और उसे विदेशों में प्रशँसा मिले तो भारत में लोग खुश नहीं होते, बल्कि कहते हैं कि विदेशियों को भारत में केवल यही दिखता है, अन्य कुछ नहीं दिखता. वैसे ही इतालवी जनता कहती है कि विदेशियों को इटली में केवल सुन्दर स्मारक और हर समय खाने, घूमने, पार्टी करने, शराब पीने वाले और सेक्स के बारे में सोचने वाले लोग दिखते हैं, अन्य कुछ नहीं दिखता!

"द ग्राँदे बेलेत्ज़ा" देखते हुए, मुझे भारत के धुम्रपान निषेध कार्यक्रम की फ़िल्मों में धुम्रपान दिखाने वाली बात का ध्यान आया. इसी बारे में कुछ दिन पहले के टाईमस ऑफ़ इन्डिया के अंग्रेज़ी समाचार पत्र में फ़िल्म निर्देशक अनुराग कश्यप व टाटा मेमोरियल होस्पिटक के डा. पंकज चतुर्वेदी के बीच हुई बहस  का समाचार था. अनुराग ने न्यायालय में सिगरेट व तम्बाकू उत्पादनों के विषय में बने कानून को कलात्मक अभिव्यक्ति के विरुद्ध बताया है और इस कानून को बदलने की माँग की है.

जबकि डा. चतुर्वेदी ने इस अपील के विरुद्ध याचना की है. उनका कहना है कि भारत में तम्बाकू उत्पादनों से मरने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है, इसलिए धुम्रपान व तम्बाकू उत्पादनों के विरुद्ध चलाये जाने वाले अभियान बन्द नहीं किये जाने चाहिये.

Anti-tabacco campaign, WHO, Geneva, Switzerland - images by Sunil Deepak, 2011

फ़िल्मों की कलात्मक अभिव्यक्ति

मैं अनुराग कश्यप तथा उन फ़िल्म निर्माताओं से सहमत हूँ जो कहते हैं कि फ़िल्में कला का माध्यम हैं, जैसे कि पुस्तकें, चित्रकला, संगीतकला, नाटक, शिल्प, इत्यादि. कला का ध्येय जीवन को दिखाना है, चाहे वह जीवन के अच्छे रूप हों या कड़वे व गलत रूप. कला के उपर कोई भी संदेश ज़बरदस्ती चिपकाना उस कला का रूप बिगाड़ना है. जब कोई आप के घर की दीवार पर बिना अनुमति के पोस्टर चिपका दे, या कुछ लिख दे, तो बुरा लगना स्वाभाविक है. सरकार द्वारा इस तरह का नियम बनाना कि फ़िल्म में किसी दृश्य में कोई सिगरेट बीड़ी पीते हुए दिखाया जाये तो धुम्रपान के खतरों के बारे में संदेश दिखाया जाये, सरकारी ताकत का गलत प्रयोग है.

पर सरकार के लिए अपने नागरिकों की जान व स्वास्थ्य की रक्षा करना भी महत्वपूर्ण है. इसलिए असली बहस इस विषय पर होनी चाहिये कि सरकार क्या कर सकती है कि लोगों में सिगरेट व तम्बाकू उत्पादनों का प्रयोग कम हो?

कोई भी फ़िल्म निर्माता या कलाकार इस बात से मना नहीं कर सकता कि सरकार जनसंचार के माध्यमों का प्रयोग करे जिससे जनता में सही जानकारी पहुँचे और जिस बात से जनता का अहित होता हो, उसके बारे में जानकारी फ़ैले. इसलिए फ़िल्म के प्रारम्भ से पहले, या इन्टरवल में, या टीवी, पत्रिकाओं व समाचार पत्रों आदि में, जनहित की जानकारी का प्रसार किया जाये, इसे सबको मानना चाहिये.

पर मेरा सोचना है कि धुम्रपान या गुटके जैसी वस्तुओं के प्रयोग को कम करने के लिए फ़िल्मों से जुड़ी कुछ अन्य बाते भी हैं जिनपर पूरा विचार नहीं किया गया है, और जिनके बारे में कुछ कहना चाहूँगा.

नशे से लड़ना

सिगरेट व तम्बाकू सेवन नशे हैं जिनकी आदत पड़ती है. यानि एक बार उनके उपयोग की आदत पड़ जाये तो शरीर को उनकी तलब होने लगती है और नशे से निकलना कठिन हो जाता है. कई बार दिल का दौरा पड़ने या तम्बाकू की वजह से पैर की नसों के बन्द होने से पैर काटने के ऑपरेशन के बाद भी, अपनी जान का खतरा होने पर भी, जिन्हें आदत पड़ी हो वह इनको छोड़ नहीं पाते. इसलिए इन अभियानों को सबसे अधिक कोशिश करनी चाहिये कि किशोर व नवजवान पीढ़ियाँ इस आदत के खतरों को समझें व इनसे दूर रहें. जो एक बार इनके झमेले में आ गया, उसे इस आदत से बाहर निकलने के लिए अभियान करने से सफलता कम मिलती है. उसके लिए फ़िल्मों में संदेश देना अभियान के लिए शायद सही तरीका भी नहीं है.

इस दृष्टि से देख कर सोचिये कि फ़िल्मों में क्या होता है जिनसे किशोरों व नवजवानों को सिगरेट पीने या गुटका खाने की प्रेरणा मिलती है? अगर फ़िल्मों में खलनायक, गुँडे, गरीब लोग, प्रौढ़ या बूढ़ों को धुम्रपान करते दिखाया जायेगा तो क्या किशोर व नवजवान उससे प्रेरणा लेंगे? मेरे विचार में किशोरों व नवजवानों को यह प्रेरणा तब मिलती है जब फ़िल्मों में नायक, नायिका, उनके मित्र, सखियाँ और नवयुवकों को धुम्रपान करते हुए दिखाया जाता है. जब सुन्दर जगह पर, सुन्दर घरों में, सुन्दर वस्त्र पहने सुन्दर लोग, यह संदेश देंगे कि धुम्रपान, शराब आदि से ही जीवन का असली मज़ा है, कि नवजवानों में सिगरेट पीना आम बात है, कि सब नवजवान ऐसा करते हैं, कि धुम्रपान करना या शराब पीना समाज से विरोध के या अपनी स्वतंत्रता दिखाने के या आधुनिकता दिखाने के अच्छे रास्ते हैं, तो इससे समाज की नयी पीढ़ी को यह प्रेरणा मिलती है.

मेरा सोचना है कि अगर सारी फ़िल्म में खलनायक सिगरेट पीता हो तो उसका कम असर होता है, लेकिन हीरो या हीरोइन बस एक दृष्य में दो पल के लिए भी सिगरेट पीते दिखा दियें जायें तो उसका छोटी उम्र व किशोरों पर बहुत असर होता है.

यानि, जीवन दिखाने के लिए फ़िल्मों में धुम्रपान के दृश्य हों तो कोई बात नहीं, लेकिन असली प्रश्न है कि क्या फ़िल्मों में हीरो-हीरोइन को धुम्रपान करते दिखाना क्या सचमुच आवश्यक है? अगर फ़िल्म दिखाना चाहती है कि कैसे हीरो हीरोइन को नशे की आदत पड़ी, तो इसे स्वीकारा जा सकता है लेकिन अगर इन दृश्यों का कहानी में कोई महत्व नहीं है तो क्यों आजकल की फ़िल्में इस तरह के दृश्य रखती हैं? क्या सिगरेट बनाने वाली कम्पनियाँ फ़िल्मों में पैसा लगा रही हैं कि हीरो व हीरोइन या उनके मित्रों वाला ऐसा एक दृश्य फ़िल्म में जबरदस्ती रखना चाहिये? उसके ऊपर जितने भी संदेश चिपका दीजिये, उनका किशोरों के दिमाग पर अवश्य असर पड़ेगा?

सिगरेट कम्पनियों का फ़िल्मों में पैसा

होलीवुड की फ़िल्मों में 1940-1960 के समय में सिगरेट कम्पनियों ने फ़िल्मों में पैसे लगाये ताकि फ़िल्मों में हीरो व हीरोइन दोनो को सिगरेट पीता दिखाया जाये. इस तरह से सिगरेट पीने से  "यह सामान्य है", "यह प्रचलित है, सब पीते हैं" व "इससे सेक्सी लगते हैं, मित्र बनते हैं" जैसे संदेश दिये गये. होलिवुड के अभिनेताओं को फ़िल्मों में और सामाजिक अवसरों पर विषेश ब्राँड की सिगरेट पीने के लाखों डालर दिये जाते थे क्योंकि सिगरेट कम्पनियाँ जानती थीं कि उन सितारों के चाहने वाले उनकी नकल करेंगे. फ़िल्मी सितारों का सबसे अधिक असर 10 से 19 वर्ष के किशोरों, युवकों व युवतियों पर पड़ता है, यह शोध ने दिखाया है फि़ल्मों में अपने प्रिय अभिनेताओं को धुम्रपान करते देख कर इस उम्र में सिगरेट पीना बढ़ता है यह भी शोध ने दिखाया है.

हालीवुड में यह सब कैसे किया गया, आज इसके विषय पर बहुत सी रिपोर्टें हैं, डाकूमैंटरी फ़िल्में भी बनी हैं. पिछले कुछ सालों में कुछ हिन्दी फ़िल्मों को देख कर लगता है कि भारत में भी बिल्कुल वैसे ही प्रयास किये जा रहे हैं, जिसपर धुम्रपान निषेध करनाने वाले फ़िल्मी अभियानों को कुछ असर नहीं हो रहा.

भारत में युवतियों में सिगरेट पीना बढ़ाने के लिए, फ़िल्मों के माध्यम से यह दिखाया जाये कि हीरोइन सिगरेट पीने से अधिक स्वतंत्र या आधुनिक है तो उसका किशोरो व किशोरियों पर असर पड़ सकता है. पिछले कुछ वर्षों में दीपिका पादूकोण (ब्रेकअप के बाद), कँगना रानावत (तनु वेडस मनु), परिणिति चौपड़ा (शुद्ध देसी रोमाँस) जैसी अभिनेत्रियों ने अपनी फ़िल्मों में इस तरह के दृश्य किये हैं जिनका उद्देश्य यह दिखाना है कि वह आधुनिक युवतियाँ हैं. आजकल फ़िल्मों में हर तरह की कम्पनियाँ पैसा लगाती हैं ताकि फ़िल्म के किसी दृश्य में उनकी ब्रैंड को दिखाया जाये. तो क्या सिगरेट कम्पनियाँ भी भारतीय फ़िल्मों में पैसा लगा रही हैं जिससे जवान हीरो हीरोइनों को एक दो दृश्यों में सिगरेट पीते दिखाया जाये?

यानि मेरे विचार में अगर "फैशन" जैसी फ़िल्म में प्रियँका चौपड़ा, या "हीरोइन" में करीना कपूर या "गैन्गस ऑफ़ वास्सेयपुर" में नवाजुद्दीन को धुम्रपान करते दिखाया जाये तो इन दृश्यों को फ़िल्म के कथानक की आवश्यकता माना जा सकता है और इनका किशोरों व नवयुवकों पर उतना प्रभाव नहीं पड़ेगा क्योंकि इन फ़िल्मों में धुम्रपान की नेगेटिव छवि बनती है, क्योंकि इनमें धुम्रपान के साथ असफलता, बुरे दिन, नशे जैसी बातें जुड़ जाती है, जिसे धुम्रपान निषेध अभियान का हिस्सा माना जा सकता है.

यह कुछ वैसा ही है जैसे कि हालीवुड की केविन कोस्टनर की फ़िल्म "वाटरवर्ल्ड" (Waterworld) में था. उस फ़िल्म में खलनायकों को सिगरेट पीने वाला व अच्छे लोगों को धुम्रपान विरोधी दिखाया गया था, जो एक तरह से सिगरेट न पीने का विज्ञापन था.

दूसरी ओर नवजवान प्रेमकथाओं में, स्कूल व कोलिज की पृष्ठभूमि पर बनी फ़िल्मों में, बच्चों की कहानियों में अगर तीस पैंतीस साल से छोटी आयू के लोगों का  धुम्रपान का दृश्य हो जिससे किशोरों व नवयुवकों को धुम्रपान की प्रेरणा मिल सकती है, तो उन फ़िल्मों को "केवल व्यस्कों के लिए" कर देना चाहिये. फ़िल्म निर्माताओं के लिए यह बताना कि उन्होंने सिगरेट बनानी वाली कम्पनियों से सिगरेट पीने के दृश्य दिखाने का पैसा लिया है भी आवश्यक किया जा सकता है.

स्वास्थ्य मंत्रालय, धुम्रपान विरोधी अभियान वाले, फ़िल्म निर्माता व फ़िल्म अभिनेता सभी को साथ ला कर इस दिशा में विचार होना चाहिये कि कैसे नयी पीढ़ी पर धुम्रपान कम कराने के अभियान का काम आगे बढ़ाना चाहिये तथा फ़िल्में इस दिशा में क्या सहयोग दे सकती हैं? छोटी मोटी फ़िल्मों में छोटे मोटे अभिनेता क्या करते हें, उससे कम प्रभाव पड़ता हैं. जाने माने प्रसिद्ध अभिनेता क्या करते हैं, असली बात तो उसकी है, और उनको बदलने के लिए उनकी राय लेना आवश्यक है.

फ़िल्मों के बाहर

पर यह सोचना की धुम्रपान केवल फ़िल्मों की वजह से है, गलत है. आज जीवन के हर पहलू पर बाज़ार व व्यापारियों का बोलबाला है. सरकार एक ओर से धुम्रपान कम करने की बात करती है, दूसरी ओर सिगरेट शराब पर लगे टेक्स की आमदनी भी चाहती है.

सिगरेट बनाने वाली कम्पनियाँ अन्य कई धँधों में लग गयी हैं जिससे उनके पास अपनी ब्राँड का विज्ञापन करना आसान हो गया है. ऑस्ट्रेलिया सरकार ने यह कोशिश की सभी सिगरेट की डिब्बियों को एक जैसा कर दिया जाये जिससे ब्राँड का दबाव कम हो जाये पर इसके लिए ऑस्ट्रेलिया सरकार पर मुकदमा किया गया है और विकासशील देशों की सरकारों के लिए इस तरह के निर्णय लेना कठिन है. बहुदेशीय कम्पनियों की लड़ाई केवल सिगरेट बेचने की नहीं, बल्कि शराब, सोडा वाले पेय जैसे कोका कोला, और भी बहुत सी दिशाओं में है. इनके बारे में प्रश्न उठाने का अर्थ है कि आधुनिक विकास की परिभाषा पर प्रश्न उठाना, जिन्हें कोई नहीं उठाना चाहता.

Anti-tabacco campaign, WHO, Geneva, Switzerland - images by Sunil Deepak, 2011

मार्च 2014 के विश्व स्वास्थ्य संस्थान के बुलेटिन में प्रिसिवेल करेरा का आलेख है जिसमें उनका कहना है कि स्वास्थ्य को केवल स्वास्थ्य मंत्रालय की बात कह कर सोचना ठीक नहीं, बल्कि हर नीति से, चाहे वह व्यापार की हो या शिक्षा की, उसका स्वास्थ्य पर क्या असर पड़ता है, यह सोचने की बात है. अभी कुछ मास पहले अखबारों में रिपोर्ट थी कि दिल्ली दुनिया का सबसे प्रदूषित शहर है और बहस इस बात पर थी कि क्या यह श्रेय दिल्ली को मिलना चाहिये या चीन की राजधानी बेजिन्ग को. पर अगर दिल्ली दूसरे स्थान पर हो तो भी, उस प्रदूषण का लोगों के फेफड़ों पर क्या असर हो रहा है? अगर लोग धुम्रपान से नहीं प्रदूषण से मरेंगे तो क्या बदला?

सिगरेट पीना, शराब पीना, आदि को व्यक्तिगत स्वतंत्रता की बातें कहा जाता है, और बालिग लोगों के लिए इस तर्क को सही कह सकते हैं. लेकिन यह कम्पनियाँ जानती हैं कि इसकी आदत किशोरावस्था में डाल दी जाये तो लत पड़ जायेगी, फ़िर अधिकतर लोग उससे बाहर नहीं निकल पायेंगे, उसके बाद वह स्वयं ही उसे नशे या आदत को पूरा करने के लिए अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए लड़ेंगे. अगर स्वास्थ्य मंत्रालय को धुम्रपान को रोकना है तो कैसे किशोरों की सोच को बदला जाये, कैसे वे लोग धुम्रपान से बचें, उस पर सबसे अधिक ज़ोर देना चाहिये. फ़िल्मों में धुम्रपान के दृश्यों पर भी इसी सोच से विचार होना चाहिये.

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शनिवार, जनवरी 11, 2014

आप की कौन सी बीमारी? जनस्वास्थ्य और बाज़ार

मेरे विचार में आधुनिक समाज में विज्ञान व तकनीकी के बेलगाम बाज़ारीकरण से हमारे जीवन पर अनेक दिशाओं से गलत असर पड़ा है. जब इस तरह के विषयों पर बहस होती है तो मेरे कुछ मित्र कहते हैं कि मैं व्यर्थ की आदर्शवादिता के चक्कर में जीवन की सच्चाईयों का सामना नहीं करना चाहता. पर मैं सोचता हूँ कि मेरी सोच अत्याधिक आदर्शवादिता की नहीं है बल्कि मानव जीवन के संतुलित भविष्य की है.

Developing Delhi - images by Sunil Deepak, 2012

मैं यह मानता हूँ कि बाज़ार मानव जीवन का अभिन्न हिस्सा हैं, लेकिन यह नहीं मानता कि बाज़ार का अर्थ केवल बड़े कोर्पोरेशन और बहुदेशीय कम्पनियों का अधिपत्य है. मैं यह भी सोचता हूँ कि अगर हम विकास को केवल जी.डी.पी. (Gross domestic product) से तोलेंगे तो इसमें हम जीवन के कुछ अमूल्य हिस्सों को खो बैठेंगे. सुश्री वन्दना शिव ने कुछ समय पहले अँग्रेज़ी समाचार पत्र "द गार्जियन" में अपने एक आलेख में लिखा था कि  आज के अर्थशास्त्री, व्यापारी तथा राजनीतिज्ञ केवल सीमाहीन विकास की कल्पना करते हैं . इसकी वजह से किसी भी देश के विकास का सबसे महत्वपूर्ण मापदँड जी.डी.पी. बन गया है, लेकिन यह विकास का मापदँड क्या मापता है, यह समझना आवश्यक है. इसके बारे में वह कहती हैं -
"एक जीवित जँगल से जी.डी.पी. नहीं बढ़ता, वह बढ़ता है जब पेड़ काटे जाते हैं और लकड़ी बना कर बेचे जाते हैं. समाज स्वस्थ्य हो तो जी.डी.पी. नहीं बढ़ता, वह बढ़ता है बीमारी से और दवाओं की बिक्री से. अगर जल को सामूहिक धन माना जाये, सब उसकी रक्षा करें और अपने उपयोग के लिए बाँटें तो जी.डी.पी. नहीं बढ़ता, लेकिन अगर कोका कोला की फैक्टरी लगायी जाये, पानी को प्लास्टिक बोतलों में भर कर बेचा जाये तो विकास होता है. इस विकास में प्रकृति को और स्थानीय समुदायों को नुकसान हो, तो उसे इस मापदँड में अनदेखा कर दिया जाता है."
सोचिये क्या फायदा है कि विकास को केवल इस आँकणे से मापा जाये और देश की निति के निर्णय इसी सोच से लिये जायें?

स्वास्थ्य क्षेत्र में बाज़ारीकरण

भारत में स्वास्थ्य सेवाओं के बाज़ारीकरण के परिणामों पर मैं पहले भी लिख चुका हूँ, लेकिन इस बारे में नयी सूचनाएँ मिलती रहती हैं तो आश्चर्य भी होता है और उदासी भी.  जब भी भारत लौटता हूँ तो नये पाँच सितारा अस्पतालों के गुणगान सुनने को मिलते हैं कि देखिये कितने बढ़िया अस्पताल हैं हमारे और तकनीकी दृष्टि से अब भारत ने कितनी तरक्की कर ली है! दूसरी ओर वहाँ इलाज करवाने वाले मित्र व परिवारजन जब अपने मेडिकल के कागज़ पत्र दिखा कर सलाह माँगते हैं तो कई बार बहुत हैरानी होती है कि कितने बेज़रूरत टेस्ट कराये जाते हैं, बेतुकी दवाएँ दी जाती हैं और अनावश्यक आपरेशन किये जाते हैं. स्टीरायड जैसी दवाएँ जिनसे तबियत बेहतर लगती है लेकिन शरीर के अन्दर लम्बा असर बुरा होता है, कितनी आसानी और लापरवाही से दे दी जाती हैं.

एक मित्र ने बताया कि उसकी बेटी को कुछ दिनों से बुखार था और उसका प्रिस्कृपशन दिखाया, जिसे पढ़ कर मैं दंग रह गया कि डाक्टर ने मलेरिया व टाइफाइड की दवा के साथ एक अन्य एन्टीबायटिक भी जोड़ दिया था, यानि हमें मालूम नहीं कि मरीज को क्या बीमारी है तो उसे एक साथ हर तरह की दवा दे दो!

एक डाक्टर मित्र जो पाँच सितारा अस्पताल में काम करते थे, उसने बताया कि उनके यहाँ हर एक को महीने का कोटा पूरा करना होता है, कितने लेबोरेटरी टेस्ट, कितने स्केन, कितने अल्ट्रासाउँड, तो कुछ अनावश्यक टेस्ट करवाने ही पड़ते हैं. पर वह यह भी बोले कि बात केवल कोटे की नहीं, अगर बहुत से टेस्ट व दवाएँ न हों तो लोग मानते नहीं कि डाक्टर अच्छे हैं.

एक ओर जहाँ स्वास्थ्य सेवाओं का निजिकरण है, दूसरी ओर सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की कठिनाईयाँ हैं. विश्व स्वास्थ्य संस्थान के अनुसार स्वास्थ्य सेवाओं का निजिकरण की दृष्टि से भारत दुनिया के अग्रिम देशों में से है, जहाँ राष्ट्रीय बजट का बहुत छोटा सा हिस्सा सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं मे जाता है. दूसरी ओर विभिन्न सामूदायिक शोधों नें दिखाया है कि भारत में स्वास्थ्य सम्बन्धी खर्चा गरीब परिवारों के  लिए कर्ज़ा लेने का प्रमुख कारण है.

स्वास्थ्य क्षेत्र में "अच्छा इलाज और बीमारियों से बचिये" के नाम पर दवा, वेक्सीन तथा स्वास्थ्य सम्बन्धी उपकरण बेचने वाली कम्पनियों ने अपने अभियान चलाये हैं, जिनका जन स्वास्थ्य पर असर महत्वपूर्ण नहीं होता, लेकिन देशों के स्वास्थ्य बजट के पैसे इन अभियानों की ओर जाते हैं बजाय उन समस्याओं की ओर जिनसे सचमुच खतरा है. इस तरह के अभियानो को प्रसिद्ध वैज्ञानिक पत्रिकाओं में छपे शोध परिणामों को दिखा कर आवश्यक कहा जाता है. हाल में ही अन्तर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक पत्रिका "ब्रिटिश मेडिकल जर्नल" में डा. स्पेन्स ने लिखा कि (BMJ, 3 January 2014):
"हमें कहा जाता है कि आप ऐसा या वैसा इलाज कीजिये क्योंकि यह शोध ने साबित किया है लेकिन इस बात को अनदेखा कर देते हैं कि अधिकतर शोध कार्य, दवा बनाने वाली कम्पनियों के पैसे से किया जाता है, निष्पक्ष शोध नहीं होता. हर बात के लिए नयी बीमारियों और नयी दवाओं को बनाया जा रहा है. दवा की कम्पनियाँ चाहती है कि हम सब लोग अपने आप को किसी न किसी बीमारी का मरीज़ माने और रोज़ कुछ न कुछ दवा खायें. अगर बीमारी न हो तो उसे रोकने या उसका जल्दी इलाज़ करने के नाम पर खायें. आप इस बीमारी से बचने के समय समय पर यह टेस्ट कराइये, वह टेस्ट कराइये, के बहाने से पैसा खर्च करवाया जाता है. शोध तथा डाक्टरों की ट्रेनिन्ग के नाम पर अपनी बिक्री व प्रभाव बढ़ाने के लिए दवा कम्पनियाँ हर साल करोड़ों डालर लगाती हैं."
पिछले वर्ष कई अन्तर्राष्टीय विज्ञान पत्रिकाओं ने भी इस मुद्दे को उठाया था कि दवा कम्पनियाँ शोध तो कराती हैं लेकिन अगर शोध के परिणाम उनकी कम्पनी की दवा का अच्छा असर नहीं दिखाते तो उनकी रिपोर्ट को दबा दिया जाता है. उनका अनुमान है कि इस तरह से दवाओं पर होने वाले 60 प्रतिशत से अधिक शोध के परिणामों को दबा दिया जाता है. दूसरी ओर दवा कम्पनियाँ प्रसिद्ध डाक्टरों को पैसा देती है ताकि उनके नाम से अपनी दवाओं के अनुकूल असर दिखाने वाले शोध को छपवायें. इससे स्पष्ट है कि केवल यह कहने से कि "इस या उस शोध में यह प्रमाणित किया गया है" के बूते पर महत्वपूर्ण निणर्य नहीं लिये जा सकते.

जीवन के बाज़ारीकरण का स्वास्थ्य पर प्रभाव

स्वास्थ्य का सम्बन्ध केवल दवा या अस्पतालों से नहीं बल्कि सारे जीवन से है. पिछले बीस सालों में इंटरनेट या तकनीकी विकास से जीवन इतनी तेज़ी से बदले हैं जैसे शायद पूरे मानव इतिहास में नहीं हुआ था. दूसरी ओर जीवन के हर पहलू पर बहुदेशीय कम्नियों और बड़े कोर्परेशनो ने दुनिया में अपना प्रभुत्व कायम कर लिया है. विज्ञापन तथा संचार के सभी माध्यमों पर कब्ज़ा करके जीवन के बाज़ारीकरण का अर्थ है कि सागर, जँगल, पर्वत, खाने, हर स्तर पर प्रकृति पर बेलगाम हमला बोला गया है जिसका असर स्वास्थ्य पर भी पड़ रहा है. एन्टीबायटिक और हारमोन खिला कर पाले गये चिकन या मटन में, चारे में होरमोन पानी वाली गायों के दूध से, कीटनाशकों से उपजी फसलों से, इन सबका शरीर पर क्या प्रभाव होगा यह धीरे धीरे सामने आ रहा है. विकास के नाम पर विकसित देशों से इन "नयी तकनीकों" का आयात करके क्या सचमुच देश आधुनिक हो रहा है?

Developing Delhi - images by Sunil Deepak, 2012

Developing Delhi - images by Sunil Deepak, 2012

भारत में जर्मन डाय्टश बैंक के भूतपूर्व अध्यक्ष पवन सुखदेव ने हाल में जर्मन पत्रिका डी ज़ाइट (Die Zeit) में छपे एक साक्षात्कार में कहा कि "नये तकनीकी उत्पादनों के साथ कठिनाई यह है कि उनको बेचते समय उनकी कीमत में यह नहीं गिना जाता कि उनको बनाने में प्रकृति का कितना विनाश हुआ, कितना प्रदूषण हुआ, और जब उन्हें फ़ैकने का समय आयेगा उससे प्रकृति पर क्या असर पड़ेगा. उपर से नयी तकनीकी उपकरण बनाये ही इस तरह जाते हैं कि थोड़े समय में बेकार हो जाये. दो महीने बाद उससे बढ़िया उपकरण बाज़ार में आयेगा, ताकि आप पुरानी चीज़ फ़ैंक कर नयी खरीदें. चाहे वह पुरानी वस्तु बिल्कुल ठीक काम कर रही हो, फ़िर भी उसे फैंक दिया जाता है." सुखदेव कहते हैं कि यह प्रकृति की सम्पदा का दुर्रोपयोग है और इस तरह की बिक्री पर टिका पूँजीवाद गलत है.

इससे एक ओर अमीरों तथा गरीबों में अन्तर बढ़ता जा रहा है, तनाव बढ़ने से मानसिक रोग बढ़ रहे हैं, साथ ही, वातावरण और प्रकृति पर इसके असर से नयी बीमारियाँ उत्पन्न हो रही हैं. बाज़ार का स्वास्थ्य पर क्या असर होता है, इसका एक अन्य उदाहरण है दुनिया में मधुमेह यानि डायबीटीज़ की बीमारी के बढ़ते मरीज़.

पिछले पचास सालों में दुनिया के हर देश में मधुमेह की बीमारी कई गुणा बढ़ी है. इस बढ़ोतरी में भारत दुनिया में सबसे आगे निकल गया है - दुनिया में मधुमेह की बीमारी के मरीज़ों की कुल संख्या में भारत सबसे पहले स्थान पर है. मधुमेह की बीमारी , मूलतः दो तरह की होती है और दोनो तरह की मधुमेह के बढ़ने के कारणों में लोगों में खाने की आदतों का बदलना, अधिक माँस और अधिक केलोरी वाला खाना, मोटापा व खाने में सफ़ेद चीनी की बढ़ोतरी है.

सफ़ेद चीनी को कुछ खाद्य वैज्ञानिकों ने बहुत हानिकारक माना है. वह कहते हैं कि चीनी तीन तरह के अणुओं की होती है - डेक्सट्रोज़, फ्रक्टोज़ और ग्लूकोज़. डेक्श्ट्रोज़ और ग्लूकोज़ एक जैसे होते हैं, जबकि आम उपयोग की जानी वाली चीनी डेक्ट्रोज़ व फ्रक्ट्रोज़ का मिश्रण होती है. खाने की चीज़ों में व मीठे पेय बोतलों में कोर्न सिरप होता है जिसमें फ्रक्टोज़ होता है और जो शरीर को नुक्सान पहुँचाता है. इससे शरीर में यूरिक एसिड बढ़ता है, मोटापा आता है, कैन्सर का खतरा बढ़ता है. 2009 में अमरीका के डा. रोबर्ट लस्टिग ने यूट्यूब (Sugar the bitter truth ) पर अपने भाषण में फ्रक्टोज़ के शरीर पर गलत प्रभावों के बारे में बताया, यह वीडियो बहुत प्रसिद्ध हुआ इसे लाखों लोगों ने देखा. इस वीडियो में डा लस्टिग चीनी की तुलना ज़हर से करते हैं. हालाँकि बहुत से लोगों ने बाद में माना कि डा. लस्टिग चीनी को जितने दोष देते हैं वे वैज्ञानिक शोध पर आधारित नहीं हैं लेकिन फ़िर भी अधिक खाना, गलत खाना, कोला या नीम्बू के स्वाद वाली सोडा वाली मीठी ड्रिंक अधिक पीना, खाने में चीनी के उपयोग का बढ़ना, इन सब का सम्बन्ध है मधुमेह के बढ़ने से. लेकिन इन सबको बेचने वाली कम्पनियाँ विज्ञापनो पर करोड़ों रुपये खर्च करती हैं, विषेशकर नवयुवकों व बच्चों में बिक्री बढ़ाने के लिए और उन पर किसी तरह से काबू पाना कठिन है.

दूसरी ओर हमारी परानी खाद्य सोच जिसमें शहद, गुड़, काँजी, शिकँजबी, जलजीरा जैसी चीज़ों का उपयोग होता था, उन्हें पुराना सोच कर हीन माना जाता है.

बाज़ार पर स्वास्थ्य के प्रभाव का एक अन्य उदाहरण है जेनेटिकली मोडीफाईड आरगेनिसम (GMO) की बायोटेक तकनीकी से बने बीज व फसलें जिनके बारे में कहते हैं कि उनमें कीटनाशक पदार्थों की आवश्यकता कम होती है और फसलें भी बढ़िया होती हैं. जो इनके विरुद्ध कुछ कहे तो कहते हैं कि वे व्यक्ति तरक्की और विकास के विरुद्ध है. लेकिन इन बदले हुए गुणत्व वाली फसलों के लम्बे समय में मानव शरीर पर क्या प्रभाव पड़ते हैं उसके बारे में जानकारी बहुत कम है या बिल्कुल नहीं है.

कुछ वर्ष पहले इस विषय पर बात करते हुए डा. वन्दना शिव ने कहा था कि "यह भविष्य के लिए महत्वपूर्ण विषय हैं, इनसे मानव विकास की आशाएँ हैं, इसलिए यह नहीं कहती कि इस पर शोध नहीं होना चाहिये. लेकिन बिना उनका मानव जीवन पर असर ठीक से समझे, इन फसलों को खुला उगाने का अर्थ है कि इनसे बाकी की फसलें भी प्रभावित होंगी और सदियों में कृषकों द्वारा पीढ़ी दर पीढ़ी संजोये गये बीजों की नस्लें नष्ट हो जायेंगी, उन्हें हम हमेशा के लिए खो देंगे."

नयी तकनीकी बायोटेक कम्पनियों का कहना है डा. वन्दना शिव जैसे लोग प्रगति के विरुद्ध हैं. लेकिन हाल में ही मैने लास एन्जेलस की कम्पनी बायोसिक्योरिटीज़ के अध्यक्ष सानो शिमोदा का भाषण देखा. शोमोदा स्वयं कृषि बायोटेक की दुनिया में पैसे लगाने वालो की दृष्टि से काम करने वाले हैं इसलिए उनकी बात को "प्रगति के विरुद्ध" कह कर नहीं टाला जा सकता. वह भी अपने भाषण में मानते हैं कि बायोटेक बीजो व फसलों के मानव व प्रकृति पर लम्बे समय में क्या असर होता है इस पर शोध आवश्यक है. वह कहते हैं कि जिन बीजों के लिए पहले कीटनाशक कम लगता था, उनमें नयी दिक्कते पैदा हो रही हैं और कीटनाशक पदार्थों की आवश्यकता होने लगी है. वह मानते हें कि बायोटेक फसलों से क्या फायदा हो हो रहा है, यह स्पष्ट नहीं है.

मैंने इस आलेख में अंतर्राष्ट्रीय दवा बनाने वाली कम्पनियों की बात नहीं की, लेकिन वह भी महत्वपूर्ण विषय है. विश्व व्यापार संस्थान के माध्यम से उन्होंने भारतीय दवा बनाने वालों पर कई बार हमले किये हैं. अभी तक भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने उन हमलों को सफ़ल नहीं होने दिया है. पिछले दशकों में भारत के दवा बनाने वालों ने विकासशील देशों में एडस जैसी बीमारियों के लिए महत्वपूर्ण काम किया है. दवाओं व बाज़ारवाद विषय पर तो नया आलेख लिखा जा सकता है, इसलिए इस विषय में यहाँ अधिक नहीं कहूँगा.

निष्कर्श

आधुनिक बाज़ारवाद व पूँजीवाद से हमारे स्वास्थ्य तथा स्वास्थ्य सेवाओं पर विभिन्न तरह से प्रभाव पड़ रहे हैं. एक ओर तकनीकी तरक्की है तो दूसरी ओर निजिकरण, प्रदूषण, प्रकृति विनाश और नयी बीमारियाँ भी हैं. व्यक्तिगत रूप से मैं यह नहीं सोचता कि सब कुछ सरकार के हाथ में होना चाहिये या हर तरह का निजिकरण गलत है. बल्कि मैं मानता हूँ कि बाज़ार का अपना महत्व है और बिना बाज़ार के जीवन नहीं हो सकता. लेकिन सरकार स्वास्थ्य विषय को केवल बाज़ार के भरोसे नहीं छोड़ सकती. जिनको पैसा कमाना है उनको बीमारियाँ कम करने या लोगों के अधिक स्वस्थ्य होने में दिलचस्पी नहीं. उन्हें बीमारियों को बढ़ाने तथा उनके मँहगे इलाज व टेस्ट कराने में फायदा है. इसलिए सरकारी राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवाओं का देश के नागरिकों के लिए महत्वपूर्ण भाग होना चाहिये. सरकार यह सोच कर कि प्राइवेट संस्थान है, अपनी ज़िम्मेदारी से नहीं बच सकती.

साथ ही अन्धाधुँध आर्थिक विकास और जी.डी.पी बढ़ाने की चाह में देश की व समुदायों की प्राकृतिक और साँस्कृतिक सम्पदा को नहीं भूला जा सकता. इसके लिए आवश्यक है कि आर्थिक विकास संतुलित रूप में होना चाहिये, और बहुदेशीय कम्पनियों तथा बड़े कोर्पेरशन वाली कम्पनियों को बेलगाम जो चाहे वह करने का मौका नहीं देना चाहिये.

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बुधवार, नवंबर 21, 2012

फ़िर ले आया दिल .. यमुना किनारे

उम्र के बीतने के साथ पुरानी भूली भटकी जगहों को देखने की चाह होने लगती है, विषेशकर उन जगहों की जहाँ पर बचपन की यादें जुड़ी हों. ऐसी ही एक जगह की याद मन में थी, दिल्ली में यमुना किनारे की.

बात थी 1960 के आसपास की. मेरी बड़ी बुआ डा. सावित्री सिन्हा तब दिल्ली के इन्द्रप्रस्थ कोलिज में हिन्दी पढ़ाती थीं. उनका घर था इन्द्रप्रस्थ कोलिज के साथ से जाती छोटी सी सड़क पर जिसे तब मेटकाफ मार्ग कहते थे, जो अँग्रेज़ो के ज़माने के मेटकाफ साहब के घर की ओर जाती थी जिन्होंने महरौली के पास के प्राचीन भग्नावशेषों को खोजा था और जहाँ आज भी उनके नाम की एक छतरी बनी है.

यमुना वहाँ से दूर नहीं थी, पाँच मिनट में पहुँच जाते थे. तब वहाँ घर नहीं थे, बस रेत ही रेत और कोई अकेला मन्दिर होता था. तभी वहाँ नया नया बौद्ध विहार बना था. वहीं रेत पर दिन में खेलने जाते थे या कभी शाम को परिवार वालों के साथ सैर होती थी.

बीस साल बाद, 1978 के आसपास जब सफ़दरजंग अस्पाल में हाउज़ सर्जन का काम करता था तो अपने मित्रों के साथ बौद्ध विहार के करीब बने तिब्बती ढाबों में खाना खाने जाया करते थे.

इस बार मन में आया कि उन जगहों को देखने जाऊँ. मैट्रो ली और आई.एस.बी.टी. के स्टाप पर उतरा. पीछे से बस अड्डे के साथ से हो कर, सड़क पार करके, यमुना तट पर पहुँचने में देर नहीं लगी. चारों ओर नयी उपर नीचे जाती साँपों सी घुमावदार सड़कें बन गयी थीं.

नदी के किनारे गाँवों और छोटे शहरों से आये गरीबों की भीड़ लगी थी, बहुत से लोग सड़क के किनारे सोये हुए थे, कुछ यूँ ही बैठे ताक रहे थे. उदासी और आशाहीनता से भरी जगह लगी, पर साथ ही यह भी लगा कि चलो बेचारे गरीबों को आराम करने के लिए खुली जगह तो मिली. वहाँ कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा चलाने वाले रैनबसेरे भी हैं जहाँ अधिक ठँड पड़ने पर रात को सोने के लिए कम्बल और जगह मिल जाती है, और दिन में खाने को भी मिल जाता है.

बैठे लोगों को पार करके नदी तक पहुँचा तो गन्दे बदबूदार पानी को देख कर मन विचट गया.

Pollution Yamuna river, Delhi

Pollution Yamuna river, Delhi

Pollution Yamuna river, Delhi

एक ओर निगम बोध पर जलते मृत शरीरों का धूँआ उठ रहा था. जगह जगह प्लास्टिक के लिफ़ाफे और खाली बोतलें पड़ी थीं.

Pollution Yamuna river, Delhi

दूसरी ओर छठ पूजा की तैयारी हो रही थी. नदी के किनारे देवी देवताओं की मूर्तियाँ रंग बिरंगे वस्त्र पहने खड़ी थीं. पानी में गहरे पानी में जाने से रोकने के लिए लाल ध्वजों वाले बाँस के खम्बे लगाये जा रहे थे. कुछ लोग नदी के गन्दे पानी में नहा रहे थे.

Pollution Yamuna river, Delhi

Pollution Yamuna river, Delhi

Pollution Yamuna river, Delhi

जिसे यमुना माँ कहते हैं, उसके साथ इस तरह का व्यवहार हो रहा है, उसमें लोग गन्दगी, कचरा, रसायन, आदि फैंक कर प्रदूषण कर रहे हैं. इसे धर्म को मानने वाले कैसे स्वीकार कर रहे हैं? यह बात बहुत सोच कर भी समझ नहीं पाया.

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पुराणों में यमुना नदी के जन्म की कहानी बहुत सुन्दर है. यमुना के पिता हैं सूर्य और माता हैं संज्ञा, भाई हैं यम. इस कहानी के अनुसार सूर्य देव के तेज प्रकाश तथा उष्मा से घबरा कर संज्ञा अपने पिता के घर भाग गयीं. उन्हें वापस लाने के लिए सूर्य के अपने प्रकाश के कुछ हिस्से निकाल कर बाँट दिये. सूर्य से ग्रहों के उत्पन्न होने की यह कथा, और संज्ञा तथा सूर्य की उर्जा से जल यानि जीवन तथा मृत्यू का जन्म होना, यह बातें आज की वैज्ञानिक समझ से भी सही लगती हैं.

पुराणों की अनुसार, गँगा की तरह यमुना भी देवलोक में बहने वाली नदी थी जिसे सप्तऋषि अपनी तपस्या से धरती पर लाये. देवलोक से यमुना कालिन्द पर्वत पर गिरी जिससे उसे कालिन्दी के नाम से भी पुकारते हैं और पर्वतों में नदी के पहले कुँड को सप्तऋषि कुँड कहते हैं. इस कुँड का जल यमुनोत्री जाता है जहाँ वह सूर्य कुँड के गर्म जल से मिलता है.

भारत की धार्मिक पुस्तकों में और सामान्य जन की मनोभावनाओं में पर्वत, नदियों और वृक्षों को पवित्र माना गया है. नदी में स्नान करने को स्वच्छ होने, पवित्र होने और पापों से मुक्ति पाने की राहें बताया गया हैं. इसलिए नदियों के प्रदूषण के विरोध में साधू संतो ने भी आवाज उठायी है. लेकिन राजनीतिक दलों से और आम जनता में इन लड़ाईयों को उतना सहयोग नहीं मिला है.

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यमुना के किनारे जहाँ बौद्ध विहार होता था वह सारा हिस्सा पक्के भवनों से भर गया है. जहाँ ढाबे होते थे वहाँ भी पक्के रेस्त्राँ बन गये हैं. जहाँ कुछ तिब्बती लोग बैठ कर ऊनी वस्त्र बेचते थे, उस जगह पर भीड़ भाड़ वाली मार्किट बन गयी है.

Pollution Yamuna river, Delhi

Pollution Yamuna river, Delhi

मन में लगा कि बेकार ही इस तरफ़ घूमने आया. जितनी मन में सुन्दर यादें थीं, उनकी जगह अब यह सिसकती तड़पती हुई नदी और सूनी आँखों वाले गरीबों के चेहरे याद आयेंगे.

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मंगलवार, मई 08, 2012

हवा में तैरती हुई हरी नदी


प्राचीन संसार के सात अजूबों में से एक अजूबा था बेबीलोन के झूलते बाग. यह सचमुच के बाग थे या मिथक यह कहना कठिन है क्योंकि इन बागों के बारे में कुछ प्राचीन लेखकों ने लिखा अवश्य है लेकिन इनका कोई पुरात्तव अवशेष नहीं मिल सका है. प्राचीन कहानियों के अनुसार इन बागों को आधुनिक ईराक के बाबिल जिले में ईसा से 600 सौ वर्ष पूर्व बेबीलोन के राजा नबुछडनेज़ार ने अपनी पत्नी के लिए बनवाया था, जिसमें राजभवन में विभिन्न स्तरों पर पत्थरों के ऊपर बाग बनवाये गये थे.

न्यू योर्क में सड़क से ऊँचे स्तर पर बनी पुरानी रेलगाड़ी की लाईन पर बाग बनाने की प्रेरणा शायद बेबीलोन के झूलते बागों से ही मिली थी.

न्यूयोर्क में मेनहेटन के पश्चिमी भाग के इस हिस्से में विभिन्न फैक्टरियाँ और उद्योगिक संस्थान थे, जिनके लिए 1847 में पहली वेस्ट रेलवे की लाईन बनायी गयी थी जो सड़क के स्तर पर थी. रेलगाड़ी से फैक्टरियों तथा उद्योगिक संस्थान अपने उत्पादन सीधा रेल के माध्यम से भेज सकते थे. लेकिन उस रेलवे लाईन की कठिनाई थी कि वह उन हिस्सों से गुज़रती थी जहाँ बहुत से लोग रहते थे, और आये दिन लोग रेल से कुचल कर मारे जाते थे. इतनी दुर्घटनाएँ होती थीं कि इस इलाके का नाम "डेथ एवेन्यू" (Death avenue) यानि "मृत्यू का मार्ग" हो गया था.

Highline park New York - old line

तब इन रेलगाड़ियों के सामने लाल झँडी लिए हुए घुड़सवार गार्ड चलते थे ताकि लोगों को रेल की चेतावानी दे कर सावधान कर सकें, जिन्हें "वेस्टसाईड काओबायज़" के नाम से बुलाते थे. (यह पुरानी तस्वीरें हाईलाईन की वेबसाईट से हैं.)

Highline park New York - cow boys

1929 में शहर की नगरपालिका ने यह निर्णय लिया कि यह रेलवे लाईन बहुत खतरनाक थी और दुर्घटनाओं को रोकने के लिए सड़क से उठ कर ऊपरी स्तर पर नयी रेल लाईन बनायी जाये. 1934 में यह नयी रेलवे लाईन तैयार हो गयी और इसने 1980 तक काम किया, हालाँकि इसके कुछ हिस्से तो 1960 में बन्द कर दिये गये थे.

फ़िर समय के साथ शहर में बदलाव आये और इस रेलवे लाईन के आसपास बनी फैक्टरियाँ और उद्योगिक संस्थान एक एक करके बन्द हो गये. बजाय रेल के अधिकतर सामान ट्रकों से जाने लगा. शहर का यह हिस्सा भद्दा और गन्दा माना जाता था. वहाँ अपराधी तथा नशे की वस्तुएँ बेचने वाले घूमते थे, इसलिए लोग शहर के इस भाग में रहना भी नहीं चाहते थे.

तब कुछ लोगों ने, जिन्होंने रेलवेलाईन के नीचे की ज़मीन खरीदी थी, नगरपालिका से कहा कि ऊपर बनी रेलवेलाईन को तोड़ दिया जाना चाहिये ताकि वे लोग उस जगह पर नयी ईमारते बना सकें.लेकिन 1999 में वहाँ आसपास रहने वाले लोगों ने न्यायालय में अर्जी दी कि रेलवे लाईन के बचे हुए हिस्से को शहर की साँस्कृतिक और इतिहासिक धरोहर के रूप में संभाल कर रखना चाहिये और तोड़ना नहीं चाहिये. 2003 में एक प्रतियोगिता का आयोजन किया गया कि पुरानी सड़क के स्तर से ऊँची उठी रेलवे लाईन का किस तरह से जनहित के लिए प्रयोग किया जाये. इस प्रतियोगिता में एक विचार यह भी था कि पुरानी रेलवे लाईन पर एक बाग बनाया जाये, जिसका कला और साँस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए प्रयोग किया जाये.

इस तरह से 2006 में हाईलाईन नाम के इस बाग का निर्माण शुरु हुआ. अब तक करीब 1.6 किलोमीटर तक की रेलवे लाईन को बाग में बदला जा चुका है. इसके कई हिस्सों में पुरानी रेल पटरियाँ दिखती हैं, जिनके आसपास पेड़ पौधै और घास लगाये गये हैं, साथ में सैर करने की जगह भी है. दसवीं एवेन्यू के साथ साथ बना यह बाग मेनहेटन के 14वें मार्ग से 30वें मार्ग तक चलता है. अगर आसपास के किसी गगनचुम्बी भवन से इसको देखें तो यह परानी रेलवे लाईन शहर के बीच तैरती हुई हरे रंग की नदी सी लगती है.

Highline park New York - S. Deepak, 2012

इस बाग की वजह से शहर के इस हिस्से की काया बदल गयी है. आसपास के घरों की कीमत बढ़ गयी और पुरानी फैक्टरियों को तोड़ कर उनके बदले में नये भवन बन रहे हैं. बाग दिन भर पर्यटकों से भरा रहता है.

इस बाग की कुछ तस्वीरें प्रस्तुत हैं.

Highline park New York - S. Deepak, 2012

Highline park New York - S. Deepak, 2012

Highline park New York - S. Deepak, 2012

Highline park New York - S. Deepak, 2012

Highline park New York - S. Deepak, 2012

Highline park New York - S. Deepak, 2012

Highline park New York - S. Deepak, 2012

जिस दिन मैं बाग देखने गया, वहाँ "लिलिपुट कला प्रदर्शनी" लगी थी जिसमें विभिन्न कलाकारों ने भाग लिया था. इस कला प्रदर्शनी की कुछ तस्वीरें प्रस्तुत हैं.

Highline park New York - S. Deepak, 2012

Highline park New York - S. Deepak, 2012

Highline park New York - S. Deepak, 2012

कुछ ऐसा ही स्पेन में वालैंसिया शहर में भी हुआ था. वहाँ तुरिया नदी शहर में हो कर गुज़रती थी. 1957 में नदी में बाढ़ आयी और शहर को बहुत नुकसान हुआ, तब यह निर्णय किया कि नदी का रास्ता बदल दिया जाये जिससे नदी शहर के बीच में से न बहे. शहर में जहाँ नदी बहती थी, वहाँ "तुरिया बाग" बनाया गया, जो शहर के स्तर से नीचा है. (नीचे तुरिया बाग की यह तस्वीर विला ज़समीन के वेबपृष्ठ से)

Turiya river park Valencia, Spain

जब नागरिक जागरूक हो कर अपने शहरों की प्राकृतिक, साँस्कृतिक और इतिहासिक सम्पदा को बचाने की ठान लेते हैं, तो उसमें सभी का फायदा है.

काश हमारे भारत में भी ऐसा हो. गँगा, जमुना, नर्मदा जैसी नदिया हों, प्रकृतिक सम्पदा से सुन्दर शिमला या मसूरी के पहाड़ हों या दिल्ली शहर के बीच में प्राचीन पहाड़ी, हर जगह खाने खोदने वाले, उद्योग लगाने वाले, प्राईवेट स्कूल चलाने वाले, मन्दिर, मस्जिद गुरुद्वारे बनवाने वाले, हाऊसिंग कोलोनियाँ बनवाने वालों के हमले जारी हैं, जिनके सामने राजनीति आसानी से बिक जाती है. इनकी रक्षा के लिए हम सब जागें, जनहित के लिए लड़ें, यह मेरी कामना है.

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रविवार, फ़रवरी 26, 2012

गिद्ध, मुर्गियाँ और इन्सान


क्या आप को कभी भारतीय शहरों में गिद्धों की याद आती है? क्या आप को याद है कि आप ने आखिरी बार किसी गिद्ध को कब देखा था? शायद आप के छोटे बच्चों ने तो गिद्ध कभी देखे ही न हों, सिवाय चिड़ियाघरों में? पिछले कुछ सालों में मैं अपनी भारत यात्राओं के बारे में सोचूँ तो मुझे एक बार भी याद नहीं कि कोई गिद्ध दिखा हो.

बचपन में हम लोग दिल्ली में झँडेवालान के पास ईदगाह वाले रास्ते के पास रहते थे. तब वहाँ गिद्धों के झुँड के झुँड दिखते थे. कुछ साल पहले उधर गया था तो उस तरफ भी कोई गिद्ध नहीं दिखे थे. लेकिन पहले इसके बारे में सोचा नहीं था. कोई चीज़ न दिखे, तो समझ में नहीं आता कि नहीं दिखी, जब तक उसके बारे में सोचो नहीं.

पिछले कुछ दशकों में भारत के नब्बे प्रतिशत गिद्ध मर चुके हैं. इसके बारे में मीरा सुब्रामणियम का आलेख पढ़ा तो दिल धक सा रह गया. अचानक याद आ गया कि कितने सालों से भारत में कभी कोई गिद्ध नहीं दिखा.

बदलती दुनिया के साथ भारत भी बदल रहा है. इसके बारे में बहुत सालों से सुन रहा था, पर गिद्धों के बारे में पढ़ कर महसूस हुआ कि सचमुच यह बदलाव कितने बड़े विशाल स्तर हो रहा है. पर बदलाव कुछ छुपा छुपा सा है. कुछ अनदेखा सा. ऐसा कि उसकी ओर सामान्य किसी का ध्यान नहीं जाता.

जितनी बार दिल्ली, बँगलौर या बम्बई जैसे शहरों में जाता हूँ, हर बार लगता है कि दमे या खाँसी या एलर्जी वाले लोग कितने बढ़ गये हैं. डाक्टर होने की यही दिक्कत है कि बीमारियों के समाचार अवश्य मिलते हैं. लोग मेरा हाल चाल पूछने के बाद, अपनी तकलीफ़ें अवश्य बताते हैं. और मुझसे सलाह भी माँगते हैं कि कौन सी दवायी लेनी चाहिये? पर वातावरण में प्रदूषण के बढ़ने से होने वाली बीमारियों को दवा कैसे ठीक कर सकती हैं? यह सोच कर मैं अक्सर कहता हूँ कि दवा के साथ कुछ दिन पहाड़ पर या गाँव में घूम आईये, उससे शायद अधिक असर होगा दवा का.

पर धीरे धीरे, हमारे गाँव और पहाड़ भी उसी प्रदूषण का शिकार हो रहे हैं. कुछ दिन पहले आकाश कपूर का लेख पढ़ा था, जिसमें वह दक्षिण भारत में पाँडेचेरी के पास एक गाँव में अपने घर से दो मील दूर कूड़ा फैंकने की जगह पर जलने वाले प्लास्टिक की बदबू और प्रदूषण की बात कर रहे हैं. उन्होंने लिखा है कि "भारत में हर वर्ष शहरों में दस करोड़ टन कूड़ा बनता है, जिसमें से करीब साठ प्रतिशत इक्टठा किया जाता है, बाकी का चालिस प्रतिशत वहीं आसपास जला दिया जाता है. कुछ कूड़ा लैंडफ़िल यानि बड़े खड्डों में भर दिया है, और वहाँ पर जलता है... भारत की पचास प्रतिशत ज़मीन ऊपरी उपजाऊ सतह खो रही है, सत्तर प्तिशत नदियों का पानी प्रदूषित है, हवा के प्रदूषण की दृष्टि से भारत दुनिया में सबसे अधिक प्रदूषित है ..". वह पूछते हैं कि वह प्रदूषण से बचने के लिए गाँव में रहने आये, लेकिन अगर प्रदूषण गाँवों को लपेट में ले लेगा तो कहाँ जायेंगे?

आर्थिक विकास भारत में कैसे लाया जाये, इसके लिए उदारीकरण का मार्ग चुना गया है. इसके लिए बहुदेशी विदेशी कम्पनियाँ भारतीय कम्पनियों से मिल कर भारत में नये तरीके के बीज और उपज बढ़ाने के लिए नये तरीके की खाद और कीटनाशक स्प्रे ला रही हैं. इस सब से वह चुपचाप होने वाली एक क्राँती हो रही है. जिससे हज़ारों सालों से किसानों द्वारा खोजे और सम्भाले हुए बीज, नये लेबोरेटरी में तैयार हुए बीजों से मिल कर नष्ट हो रहे हैं. लैबोरेटरी में बने बीजों को बहुदेशी कम्पनियाँ बेचती हैं. इनमे वह बीज भी हैं जो एक बार ही उगाये जाते हैं. उन पौधों से बीज नहीं मिलते, उन्हें नया खरीदना पड़ता है. उपज बढ़ाने के लालच में किसान ऋण लेते हैं ताकि यह बीज खरीद सकें. और ऋण न भर पाने पर आत्महत्या करते हैं.

कैमिकल खाद और कीटनाशक पौधों के कीड़े मकोड़े मारते हैं. पर यही पदार्थ नयी बीमारियाँ भी बना रहे हैं. साथ ही ज़मीन के सतह के नीचे छुपे पानी को दूषित कर रहे हैं. नवदान्य संस्था की सुश्री वन्दना शिवा जैसे लोगों ने इसके बारे में बहुत कुछ शौध किया है और लिखा भी है.

अधिकतर लोग सोचते हैं कि यह सब बेकार की बातें हैं. पर्यावरण की रक्षा कीजिये, बाँध बना कर वातावरण को नष्ट न कीजिये, खानों से प्रदूषण होता है, जैसी बातों को विकास विरोधी कहा जाता है. लेकिन यही लोग जब बाज़ार में ताज़ी सब्ज़ी खरीदने जाते हैं तो कैसे जान पाते हैं कि वह सब्जी किस तरह के कीटनाशक तत्वों के संरक्षण में उगायी गयी है? या फ़िर क्या उस सब्जी को नये बीजों से बनाया गया है, जिनका शरीर पर क्या असर पड़ता है इसका किसी को ठीक से मालूम नहीं? जिसे वह लोग बेकार की बात सोचते हैं, वही बात उनके अपने और बच्चों के जीवन पर उतना ही असर करेगी. तो कहाँ जायेंगे, साँस लेने?

माँस मछली खाने वाले सोचते हैं कि शरीर में बढ़िया पोषण पदार्थ जा रहे हैं. लेकिन यह माँस मछली कहाँ से आते हैं? आजकल अधिकतर मुर्गियाँ "ब्रोयलर चिकन" होती हैं, जो पिँजरों मे पैदा होती हैं, वहीं पिँजरों में बढ़ती हैं. सारा दिन विषेश बना चारा खाती हैं. तीन महीने में चूजा मुर्गी बन कर खाने की मेज़ पर तैयार हो कर आ जाता हैं. यह चिकन बनाने की फैक्टरियाँ होती हैं जहाँ हज़ारों लाखों की मात्रा में चिकन तैयार होता है. इसकी कीमत भी सीमित रहती है ताकि लोग खरीद सकें. एक एक पिँजरे में हज़ारों मुर्गियों को साथ रखने से उन्हें पोषित चारा देना और उनकी देखभाल आसान हो जाती है. लेकिन एक खतरा भी होता है. किसी एक मुर्गी को कुछ बीमारी लग गयी तो सारी मुर्गियों में तुरंत फ़ैल जाती है, बहुत नुक्सान होता है. इसलिए उनके चारे में एँटिबायटिक मिलाये जाते हैं ताकि उन्हें बीमारियाँ न हों. चूज़ों को एँटिबायटिक देने का एक अन्य फायदा है कि उससे वह जल्दी बड़े और मोटे होते हैं. वैसे मीट के लिए पाले जाने वाले पशुओं को एँटिबायटिक के अतिरिक्त बहुत से लोग होरमोन भी देते हैं जिससे चिकन और बकरी की मासपेशियाँ सलमान खान और हृतिक रोशन की तरह मोटी और तंदरुस्त दिखती हैं.

Poultry farming for broiler chicken

जितना वजन अधिक होगा, उतनी कमायी होगी. तो मुर्गी हो या बकरी, उसे एँटीबायटिक देना, हारमोन देना, खाने में पिसी हड्डी मिलाना, सब उन्हें मोटा करने में काम आते हैं. खाने वाले भी खुश रहते हैं कि देखो कितना सुन्दर माँस खरीदा, कितना बढ़िया और स्वादिष्ट पकवान बनेगा.

बस कुछ छोटी मोटी दिक्कते हैं. दिक्कत यह कि वही एँटीबायटिक और हारमोन माँस के साथ खाने वाले के शरीर में भी आ जाते हैं. लगातार नियमित रूप से छोटी छोटी मात्रा में एँटिबायटिक और हारमोन आप के शरीर में जाते रहें इससे आप के शरीर को कितना लाभ होगा, यह तो आप स्वयं ही सोच सकते हैं. कई शोधों ने जानवरों को दिये जाने वाले होरमोन की वजह से शहर में रहने वाले लोगों के शरीर में होने वाले कई बदलावों से जोड़ा है, जिसमें कैन्सर तथा एलर्जी जैसी बीमारियाँ भी हैं. पुरुषों के वीर्य पर असर होने से पिता न बन पाने की बात भी है.

इसी बात से जुड़ा कुछ दिन पहले एक अन्य समाचार था. इस समाचार के अनुसार अमरीका ने कहा है कि वह आयात हो कर लाये जाने वाले माँस में एँटिबायटिक तथा हारमोन की जाँच करेंगे और अगर उनमें यह पदार्थ पाये गये तो उन्हें अमरीका में आयात नहीं किया जायेगा. इस समाचार से मैक्सिकों की पशुपालक कम्पनियों में हड़बड़ी फ़ैल गयी कि इसका कैसे समाधान किया जाये. पर अमरीकी, अपने देश में वह हानिकारक माँस नहीं चाहते, लेकिन साथ ही अमरीकी कम्पनियाँ पूरे विश्व में वही हारमोन और कीटनाशक बेचती हैं, उस पर कोई रोक नहीं है.

इसी से मिलता जुलता एक समाचार कुछ दिन पहले चीन से आया था. चीनी एथलीटों को डर है कि वहाँ की मर्गियों को क्लेनबूटेरोल नाम की दवा खिलायी जाती है जो कि चिकन खाने के साथ खिलाड़ियों के शरीर में आ जाती है. इसे ओलिम्पिक वाले गैरकानूनी दवाओं में गिनते हैं. यानि ओलिम्पिक में भाग लेने वाले खिलाड़ियों के शरीर में अगर यह दवा पायी जायेगी तो उन्हें खेलों में भाग नहीं लेने दिया जायेगा. इसलिए उन खिलाड़ियों ने फैसला किया है कि अपने खाने के लिए चिकन स्वयं पालेंगे ताकि उनके शरीर में माँस के साथ इस तरह के कैमिकल पदार्थ न जायें.

लेकिन जिनको किसी ओलोम्पिक खेलों में भाग नहीं लेना, क्या उनके लिए इस तरह के कैमिकल खाना अच्छी बात है? हमारे देशों में पशुओं को कौन सा चारा या दवा खिलायी जाती है, इसकी चिन्ता कौन करता है? क्या आप डर के मारे अपनी मुर्गियाँ स्वयं अपने घर में पालेंगे?

गिद्धों के बारे में अपने आलेख में मीरा सुब्रामणियम ने  अमरीका  में किये गये एक शौध के बारे में लिखा है. गिद्धों की मृत्यु का कारण है कि भारत में जिन मृत पशुओं को वह खाते हैं के शरीर में एक दवा होती है, जिसका नाम है डाईक्लोफेनाक. इस दवा का जोड़ों के दर्द के उपचार के लिए मनुष्यों और पशुओं में प्रयोग होता है. जिन पशुओं को यह दवा दी गयी हो, उनका माँस अगर गिद्ध खाते हैं तो उनके गुर्दे नष्ट हो जाते हैं. इसी वजह से भारत के नब्बे प्रतिशत गिद्ध मर चुके हैं. यानि यह दवा इतने पशुओं को दी जाती है कि इसने भारत के अधिकतर गिद्धों को मार दिया.

मीरा जी का यह आलेख पढ़िये, और सोचिये कि अभी गिद्ध मर रहे हैं, कल वही माँस खा कर बड़े होने वाले आज के छोटे बच्चे बड़े होंगे तो क्या उनको भी नयी बीमारियाँ हो सकती है?

आधुनिक प्रदूषण ट्रेफिक के धूँए से है, शोर से है, प्लास्टिक से है, इसकी बात तो कुछ होती है. लेकिन यह प्रदूषण दवाईयों से भी है, रसायन पदार्थों से भी है, नयी तकनीकों से भी हैं, इसके बारे में कितनी जानकारी है लोगों को?

पर्यावरण और जल का प्रदूषण, खाने में मिली दवायें और कीटनाशक, बदलते बीज और फसलें! यह सब सतह के नीचे छुपे दानव सा बदलाव हो रहा है. यह ऊपर से नहीं दिखता लेकिन भीतर ही भीतर से हमारे भविष्य को खा रहा हैं. जो नेता और उद्योगपति पैसे के लालच में या अज्ञान के कारण, भारत के भविष्य को विकास और आधुनिकता के नाम पर बेच रहे हैं, यह दानव उन्हें भी नहीं छोड़ेगा. उसी हवा में उन्हें भी साँस लेनी है, उसी मिट्टी का खाना उन्हें भी खाना है.

पर क्या भारत समय रहते जागेगा और इस भविष्य को बदल सकेगा?

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रविवार, नवंबर 01, 2009

प्रकृति का चक्र

पिछले दो दशकों से बदलते पर्यावरण के बारे में बहुत कुछ पढ़ा सुना है. एक तरफ कहा जाता है कि मानव क्रियाओं, जिनमें मानव निर्मित फैक्टरियाँ आदि भी शामिल हैं, की वजह से पर्यावरण प्रदूषण का स्तर खतरे की सीमा से बाहर जाने वाला है, पर साथ ही विभिन्न देशों की सरकारें इसी चिंता में रहती हैं कि किस तरह उन का विकास न रुके और विकास रोकने के लिए नयी फैक्टरियाँ बनाना, अधिक से अधिक नयी वस्तुएँ बेचना, बड़ी बड़ी कारें बनाना और उन्हें भी अधिक से अधिक बेचना, जैसी नीतियाँ बनाती रहती हैं, जिनसे प्रदूषण का रोना बिल्कुल बनावटी लगता है.

कुछ थोड़े से लोग हैं जो यह कहते हैं कि मानव जीवन के विकास के दृष्टिकोण को बदलने की आवश्यकता है पर उन्हें बाकी के लोग उन्हें आदर्शवादी या पागल ही कह कर टाल देते हैं.

कुछ दिन पहले जब अमरीकी पत्रिका अटलाँटिक के जुलाई अंक के एक लेख को पढ़ने का मौका मिला तो पर्यावरण की बहस की गम्भीरता को समझने के लिए नयी बात जानी. इस लेख का विषय था कि किस तरह नयी तकनीकों के माध्यम से पर्यावरण के बदलाव के बुरे प्रभावों को रोका जाये. इस लेख में बहुत सारी तकनीकों का विवरण है जिनके बारे में वैज्ञानिक विचार कर रहे हैं.

कई वैज्ञानिकों का सुझाव है कि आकाश में करीब बीस हज़ार मीटर की ऊँचाई पर सल्फर डाईओक्साइड गैस छोड़ी जायी जिससे विश्व के बड़े हिस्से पर इस गैस के बादल छा जायें और कई महीनों या सालों तक छाये रहें, जिससे सूरज की रोशनी तथा गर्मी धरती तक न पहुँचे या कम पँहुचे. उनका विचार है कि इस तरह से थोड़े समय में ही धरती ठँडी होने लग जायेगी और समुद्र का तापमान कम हो जायेगा. इस सुझाव में यह उपाय नहीं बताया गया कि जब बारिश से सल्फर की गैस सल्फूरिक एसिड बन कर धरती पर गिरेगी और पेड़, खेत, फसलें जला देगी और लोंगो को साँस की बीमारी से मारेगी, उसका क्या किया जाये?

इस सुझाव में एक अन्य कठिनाई है कि इससे मानसून के बादल बनने बंद हो जायेगे, जिससे भारत और अफ्रीका के कई देशों पर बुरा असर पड़ेगा, पर चूँकि यह मानवता को बचाने के लिए किया जायेगा तो इस "कोलेटरल डेमेज" को स्वीकार किया जा सकता है?

दूसरी ओर इस सुझाव की अच्छाई है कि हमें कार्बन डाईओक्साइड को कम करने की या अपनी जीवन पद्धिति को बलने की चिंता नहीं करनी पड़ेगी, हम जितना चाहें प्रदूषण बढ़ाते रहें, उसकी कोई चिंता नहीं.

जोह्न लाथाम तथा स्टेफन साल्टर का विचार है कि अगर समु्द्र से पानी की भाप को बादलों पर छोड़ा जाये तो बादल घने और गहरे हो जायेंगे और उनका रंग भी अधिक सफेद हो जायेगा, जिससे सूरज की रोशनी धरती पर नहीं आ सकेगी और धरती ठँडी हो जायेगी. इस तरह से धरती को ठँडा करने के लिए १५०० जहाज़ो की आवश्यकता होगी, जिसके लिए इन वैज्ञानिकों ने बहुत सी जहाज़ कम्पनियों से बात की है कि और छह सौ करोड़ डालर के खर्च पर इसकी कोशिश की जा सकती है. यानि चाहें तो बिल गेटस जैसे अमीर लोग अपनी सम्पत्ति का थोड़ा सा हिस्सा दे दें तो यह किया जा सकता है. पहले साल अधिक खर्च होगा फ़िर हर साल करीब सौ करोड़ डालर के खर्च से इसकी मैंन्टेनेन्स हो सकती है.

अरिज़ोना के रोजर एँजेल का विचार है कि आकाश में एक विशालकाय छतरी खोली जाये, जिससे सूर्य ग्रहण जैसा वातावरण बन जाये. एँजेल कहते हैं कि "यह बात आप को पागलपन की लग सकती है, पर जिस तरह पर्यावरण बदल रहा है, उससे जो जीवन बदलने वाला है उसके असर को हम लोग समझ नहीं पा रहे हैं, चूँकि मानव प्रकृति को बदला नहीं जा सकता, बस इसी तरह के पागलपन के विचार ही शायद मानवता को बचा सकते हैं."

इस तरह की बात करने वाले लोग कोई अनजाने वैज्ञानिक नहीं बल्कि उनमें थोमस शैलिंग जैसे नोबल पुरस्कार विजेता भी हैं, जिनका कहना है कि पर्यवरण के बदलाव में प्रकृति चक्र इतना आगे जा चुका है कि अब वापस लौटना सँभव नहीं, बस इसी तरह की किसी तरकीब से इस विपत्ति को टाला जा सकता है. मानवता को अगर सौ या दो सौ साल और मिल जायें तो ऊर्जा की नयी तकनीकें खोजी जा सकती हैं जिनसे प्रदूषण कम हो जायेगा और भविष्य में इस तरह की तरकीबों की आवश्यकता नहीं पड़ेगी.

कल जब कीनिया के सूखे में मर रही गायों की तस्वीर देखी तो जी मिचला गया. रोयटर के फोटोग्राफर थोमस मूकोया ने यह तस्वीर कीनिया की राजधानी नैरोबी से करीब पचास किलोमीटर दूर अथी नदी पर खींची है.

शायद यही भविष्य है हमारा, या हमारे बाद आने वाली पीढ़ी का, प्यासे तड़प तड़प कर मरना?

हमारी भाषा कैसे बनी

कुछ दिन पहले मैंने जाने-माने डॉक्यूमैंट्री फ़िल्म निर्देशक अरुण चढ़्ढ़ा की १८५७ के लोक-गीतों पर बनी फ़िल्म के बारे में लिखा था। आज उन्हीं की ए...

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