ब्रह्माँड में जीवन तथा प्रकृति का किस तरह से विकास होता है और कैसे वह समय के साथ बदलते रहते हैं इसे डारविन की इवोल्यूशन की अवधारणा के माध्यम से समझ सकते हैं। इसके अनुसार दुनिया भर में कोई ऐसा मानव समूह नहीं है जिसे हरियाली तथा जल को देखना अच्छा नहीं लगता, क्योंकि जहाँ यह दोनों मिलते हैं वहाँ मानव जीवन को बढ़ने का मौका मिलता है।
शाम को जब मैं सैर के लिए निकलता हूँ तो मैं भी वही रास्ते चुनता हूँ जहाँ हरियाली और जल देखने को मिलें। आज आप दुनिया में कहीं भी रहें, अपने आसपास के बदलते हुए पर्यावरण से अनभिज्ञ नहीं रह सकते। इस बदलाव में बढ़ते तापमानों और जल से जुड़ी चिंताओं का विषेश स्थान है।
ऊपर वाली तस्वीर का सावन के जल से भरा हुआ तालाब भारत के छत्तीसगढ़ में बिलासपुर के करीब गनियारी गाँव से है।
नदी, नहर और खेती
उत्तरपूर्वी इटली में स्थित हमारा छोटा सा शहर पहाड़ों से घिरा है और इसकी घाटी का नाम है ल्योग्रा। हमारे घर के पीछे, इस घाटी की प्रमुख नदी बहती है जिसका नाम भी ल्योग्रा ही है। इसे बरसाती नदी कहते हैं, क्योंकि अगर दो-तीन महीने बारिश नहीं हो तो इसमें पानी कम हो जाता है या बिल्कुल सूख जाता है।ल्योग्रा नदी के किनारे पेड़ों के नीचे बनी एक पगडँडी मेरी शाम की सैर करने की सबसे प्रिय जगह है। पहाड़ों से नीचे आती नदी पत्थरों से टकराती है और बीच-बीच में झरनों पर छलाँगे लगाती है, इसलिए किनारे पर चलते समय, नदी का गायन चलता रहता है, कभी द्रुत में, तो कभी मध्यम में।
इस साल पहली बार हुआ है कि हमारी नदी पिछले छह-सात महीनों से सूखी है। सर्दियों में बारिश कम हुई, जनवरी से मार्च के बीच में बिल्कुल नहीं हुई। उसके बाद, हर दस-पंद्रह दिनों में छिटपुट बारिश होती रही है, पर केवल दो-तीन बार ही खुल कर पानी बरसा है। जब बारिश आती है उस समय नदी में पानी आता है, जब रुकती है तो दो-तीन घँटों में वह पानी बह जाता है या सूख जाता है। नीचे की तस्वीर कुछ दिन पहले आयी बारिश के बाद की है जिसे मैंने अपनी शाम की सैर के दौरान खींचा था।
शहर में घुसने से पहले इस नदी से एक नहर निकलती है। जब बिजली नहीं थी, यहाँ की लकड़ी और आटे की मिलें, ऊन और कपड़े बुनने की फैक्टरियाँ सब कुछ इसी नहर के पानी से चलती थीं। आजकल नहर के पानी का अधिकतर उपयोग यहाँ के आसपास के किसान करते हैं।
घाटी के आसपास के पहाड़ों से छोटे नाले पानी को नदी की ओर लाते हैं। हर नाले पर छोटे छोटे बँद बने हैं, जिसमें लोहे के दरवाज़े हैं, जिन्हें नीचे कर दो तो वह पानी का बहाव रोक लेते हैं। पिछले महीनों की बारिशों से जो पानी आया है उसे नालों पर बने बँदों की सहायता से जमा किया जाता है, ताकि नहर से किसानों को खेती के लिए पानी मिलता रहे।
इटली के कई हिस्सों में इस साल बारिश कम होने से किसानों को बहुत नुक्सान हुआ है। बहुत सी जगहों पर पहले तो महीनों बारिश नहीं आयी, फ़िर अचानक एक दिन ऐसी बारिश आयी मानों कोई आकाश से बाल्टियाँ उड़ेल रहा हो, या साथ में मोटे ओले गिरे, तो जो बची खुची फसलें थी वह भी नष्ट हो गयीं।
इस तरह से इस साल, सूखे के बहाने, मैंने आसपास की बहुत सी नयी जगहें देखीं। इन नयी जगहों को देख कर समझ में आया कि मानव धरती के भूगोल को बदल रहा है, लेकिन प्रकृति धैर्य से वहीं ताक में बैठी रहती है और जैसे ही मानव विकास नयी ओर मुड़ता है, प्रकृति उस बदले भूगोल को फ़िर से दबोच कर अपने दामन में छुपा लेती है। कुछ दिन पहले ऐसा ही एक अनुभव हुआ।
नदी के दूसरी ओर के सबसे ऊँचे पहाड़ का नाम है मग्रे, जो कि करीब सात सौ मीटर ऊँचा है। उसकी चोटी हमारे यहाँ से करीब पाँच किलोमीटर दूर है, लेकिन इतनी चढ़ाई करना मेरे बस की बात नहीं, मैं आसपास की छोटी पहाड़ियों की ही सैर करने जाता हूँ।
कान्हा की गुफ़ाओं में चट्टानें पहाड़ियों के ऊपर ऊँचाई में बनी हैं जबकि पानी नीचे घाटी में मिलता है जहाँ विभिन्न जल धाराएँ और नाले बहते हैं। उन गुफ़ाओं और चट्टानों में भी भिक्षुकों नें जल की एक-एक बूँद को इक्ट्ठा करने के लिए प्रयोजन किया था, जो दो हज़ार के बाद आज भी बढ़िया काम कर रहे हैं।
अगर आप मुम्बई जाते हैं तो कान्हा की गुफ़ाओं को अवश्य देखने जाईये, बहुत सुंदर जगह है, और वहाँ चट्टानों में काट कर बनी नालियों के जाल को भी अवश्य देखियेगा कि कैसे प्राचीन भारत ने जल संचय की तकनीकी का विकास किया था।
अनुपम मिश्र जी इस किताब में तालाबों, बावड़ियों के बारे में जो विवरण हैं, वह उस खोये हुए समय का क्रंदन है जिसे संजोरने और सम्भालने की हममे क्षमता नहीं थी। ट्यूबवैल और हैंडपम्प लगा कर धरती के गर्भ में छुपे जल को मशीन से बाहर निकालने की आसानी ने उस ज्ञान और कौशल को बेमानी बना दिया। अब जब मानसून और बारिशें अपने रास्ते भूल रहे हैं, जब धरती के गर्भ में छुपे जल का स्तर घटता जा रहा है, तो लोग बारिश का पानी कैसे बचाया जाये, इसकी बातें करते हैं। लेकिन उन तालाबों से जुड़े संसार को क्या हम लोग समय पर सहेज पायेंगे?
घाटी के आसपास के पहाड़ों से छोटे नाले पानी को नदी की ओर लाते हैं। हर नाले पर छोटे छोटे बँद बने हैं, जिसमें लोहे के दरवाज़े हैं, जिन्हें नीचे कर दो तो वह पानी का बहाव रोक लेते हैं। पिछले महीनों की बारिशों से जो पानी आया है उसे नालों पर बने बँदों की सहायता से जमा किया जाता है, ताकि नहर से किसानों को खेती के लिए पानी मिलता रहे।
इटली के कई हिस्सों में इस साल बारिश कम होने से किसानों को बहुत नुक्सान हुआ है। बहुत सी जगहों पर पहले तो महीनों बारिश नहीं आयी, फ़िर अचानक एक दिन ऐसी बारिश आयी मानों कोई आकाश से बाल्टियाँ उड़ेल रहा हो, या साथ में मोटे ओले गिरे, तो जो बची खुची फसलें थी वह भी नष्ट हो गयीं।
मौसम बदल रहे हैं, यहाँ पहाड़ों के बीच भी गर्मी आने लगी है। आज से दस-बारह साल पहले तक यहाँ घरों में पँखे नहीं होते थे, अब कुछ घरों में एयरकन्डीशनर भी लग गये हैं। सबको डर है कि अगले दशक में यह सूखे और ऊँचे तापमान और भी बढ़ेंगे, स्थिति बिगड़ेगी।
प्रकृति का चक्र
शाम को जब सैर के लिए निकलता हूँ तो सूखी हुई नदी को देख कर दिल में धक्का सा लगता है। सोचता हूँ कि मछलियों के अलावा जो बतखें, सारस और अन्य पक्षी यहाँ नदी में रहते थे, वह कहाँ गये होंगे। अंत में सोचा कि अब इसकी जगह सैर की कोई अन्य जगह खोजी जाये।इस तरह से इस साल, सूखे के बहाने, मैंने आसपास की बहुत सी नयी जगहें देखीं। इन नयी जगहों को देख कर समझ में आया कि मानव धरती के भूगोल को बदल रहा है, लेकिन प्रकृति धैर्य से वहीं ताक में बैठी रहती है और जैसे ही मानव विकास नयी ओर मुड़ता है, प्रकृति उस बदले भूगोल को फ़िर से दबोच कर अपने दामन में छुपा लेती है। कुछ दिन पहले ऐसा ही एक अनुभव हुआ।
नदी के दूसरी ओर के सबसे ऊँचे पहाड़ का नाम है मग्रे, जो कि करीब सात सौ मीटर ऊँचा है। उसकी चोटी हमारे यहाँ से करीब पाँच किलोमीटर दूर है, लेकिन इतनी चढ़ाई करना मेरे बस की बात नहीं, मैं आसपास की छोटी पहाड़ियों की ही सैर करने जाता हूँ।
कुछ दिन पहले मैं सैर को निकला तो बहुत सुंदर रास्ता था। कहीं खेतों में सूरजमुखी के बड़े बड़े फ़ूल लगे थे तो कहीं खेतों में किसानों ने सर्दियों में जानवरों को चारा देने के लिए भूसे को गोलाकार गट्ठों में बाँधा था। बीच में एक पहाड़ी नाला था जिसमें आसपास की पहाड़ियों से छोटी छोटी जल धाराएँ आ कर मिल जाती थीं, जिन पर बँद बने थे, पूरे इलाके में पानी को सँभाल कर नियमित किया गया था।
एक जगह बँद को देख रहा था तो अचानक एक सज्जन आ गये, मुझसे पूछा कि क्या देख रहा था, तो मैंने बँद की ओर इशारा किया और पूछा कि उसकी देखभाल कौन करता था। वह हँसे, बोले कि, "हम लोग, यहाँ के किसान, इन सभी नालों, नालियों की देखभाल करते हैं। पत्ते जमा हो रहे हों तो उनको साफ़ कर देते हैं, कही से नाली की दीवार टूट रही हो तो उसे ठीक करते हैं। इस पानी से हमारी खेती होती है, यह पानी नहीं हो तो हम भी नहीं रहेंगे।"
नीचे की तस्वीर में पहाड़ी नाले पर बना वही बंद है जहाँ मेरी उस व्यक्ति से मुलाकात हुई थी।
उन्होंने बताया कि वह सड़क कभी वहाँ की प्रमुख सड़क होती थी, बोले, "जब वह बड़ी वाली नयी सड़क नहीं बनी थी, तब ऊपर पहाड़ पर जाने वाले ट्रक, बसें, सब कुछ यहीं से जाता था। यह पानी, यह नाले, सब कुछ खत्म हो गये थे। फ़िर जब वह नयी सड़क बनी तो लोगों ने इधर आना बंद कर दिया, अब यह जगह फ़िर से शांत और सुंदर बन गयी है, हमारे खेत, खलिहान, नाले, पेड़, सब को नया जीवन मिला है।"
कान्हा के भिक्षुकों का जल
मुम्बई में पूर्वी बोरिविली लोकल ट्रेन स्टेशन के पास संजय गाँधी राष्ट्रीय उद्यान है जिसके बीच में दो हज़ार साल पुरानी कन्हेरी की बौद्ध गुफ़ायें हैं, जोकि काली बाज़ाल्टिक चट्टानों में बनी हैं। "कन्हेरी" नाम उन्हीं काली चट्टानों की वजह से हैं। प्रणय लाल की अंग्रेज़ी पुस्तक "इन्डिका" में इन चट्टानों के बनने के बारे बहुत अच्छी तरह से बताया गया है।
ईसा से दो सौ या तीन सौ साल पहले पूरे भारत में इस तरह की बौद्ध गुफ़ाएँ विभिन्न स्थानों पर बनायी गयीं। औरंगाबाद के पास में अजँता की गुफ़ाएँ तो सारे विश्व में प्रसिद्ध हैं। यह गुफ़ाएँ बौद्ध भिक्षुओं के विहार थे, जहाँ चट्टानों में उनके रहने, प्रार्थना व पूजा करने, सभा करने, खाने, आदि सब जीवनकार्यों के लिए छोटे और बड़े कमरे बनाये गये थे। उसके साथ ही यह गुफ़ाएँ यात्रियों के रहने की सराय का काम भी करती थीं और भारत का व्यवसायिक जाल इन गुफ़ाओं से जुड़ा था।
यानि उन बोद्ध भिक्षुओं को चट्टानों के कठोर पत्थरों को कैसे काटा और तराशा जाये, इस सब की तकनीकी जानकारी थी। इन्हीं तकनीकों से एलौरा की गुफ़ाओं में एक महाकाय चट्टान के पहाड़ को काट कर पूरा कैलाश मन्दिर बनाया गया था। इन्हीं तकनीकों से दक्षिण भारत में भी बादामी तथा महाबलीपुरम के मन्दिर बनाये गये थे।
कान्हा की गुफ़ाओं में चट्टानें पहाड़ियों के ऊपर ऊँचाई में बनी हैं जबकि पानी नीचे घाटी में मिलता है जहाँ विभिन्न जल धाराएँ और नाले बहते हैं। उन गुफ़ाओं और चट्टानों में भी भिक्षुकों नें जल की एक-एक बूँद को इक्ट्ठा करने के लिए प्रयोजन किया था, जो दो हज़ार के बाद आज भी बढ़िया काम कर रहे हैं।
चट्टानों के ऊपर हर ढलान पर नालियाँ काटी गयीं थीं जिनमें बरसात का पानी इक्ट्ठा हो कर चट्टानों में बने जलाशयों में जमा होता था। नीचे की तस्वीर में कान्हा की चट्टानों में बनी गुफ़ाएँ हैं, ध्यान से देखेंगे तो हर सतह पर पानी जमा करने के लिए बनी हुई संकरी नालियों का जाल दिखाई देगा।
खरे हैं तालाब
अनुपम मिश्र की किताब "आज भी खरे हैं तालाब" हमारे गाँवों के ताल-तालाबों-बावड़ियों की बातें करती है, जोकि एक ज़माने में हर गाँव के जीवन का अभिन्न हिस्सा होते थे और जिनकी पूरी व्यवस्था तथा तकनीकी ज्ञान व कौशल पिछली दो सदियों में धीरे धीरे खोते गये हैं। इस किताब में मिश्र जी ने लिखा हैःसैंकड़ों, हज़ारों तालाब अचानक शून्य से प्रकट नहीं हुए थे। इनके पीछे एक इकाई थी बनवाने वालों की, तो दहाई थी बनाने वालों की। यह इकाई, दहाई मिल कर सैकड़ों, हज़ार बनाती थी। पिछले दो सौ बरसों में नए किस्म की थोड़ी सी पढ़ाई पढ़ गये समाज ने इस इकाई, दहाई, सैकड़ा, हज़ार को शून्य ही बना दिया। ...
पाँचवीं सदी से पंद्रहवीं सदी तक देश के इस कोने से उस कोने तक तालाब बनते ही चले आये थे। कोई एक हज़ार वर्ष तक अबाध चलती हुई इस परम्परा में पद्रहवीं सदी के बाद कुछ बाधाएँ आने लगी थीं, पर उस दौर में भी यह धारा पूरी तरह से नहीं रुक पाई, सूख नहीं पाई। समाज ने जिस काम को इतने लम्बे समय तक इतने व्यवस्थित रूप में किया था, उस काम को उथल पुथल का वह दौर भी पूरी तरह से नहीं मिटा सका। अठाहरवीं तथा उन्नीसवीं सदी के अंत तक भी जगह जगह तालाब बन रहे थे। ...
देश में सबसे कम वर्षा के क्षेत्र जैसे राजस्थान और उसमें भी सबसे सूखे माने जाने वाले थार के रेगिस्तान में बसे हज़ारों गावों के नाम ही तालाब के आधार पर मिलते हैं। गावों के नाम के साथ ही जुड़ा है "सर"। सर यानि तालाब। सर नहीं तो गाँव कहां? ... एक समय की दिल्ली में करीब ३५० छोटे-बड़े तालाबों का ज़िक्र मिलता है। ...
आखिरी बार डुगडुगी पिट रही है। काम तो पूरा हो गया है पर आज फ़िर सभी लोग इकट्ठे होंगे, तालाब की पाल पर। अनपूछी ग्यारस को जो संकल्प लिया था, वह आज पूरा हुआ है। बस आगौर में स्तंभ लगना और पाल पर घटोइया देवता की प्राण प्रतिष्ठा होना बाकी है। आगर के स्तम्भ पर गणेश जी बिराजे हैं और नीचे हें सर्पराज। घटोइया बाबा घाट पर बैठ कर पूरे तालाब की रक्षा करेंगे। ...
आज जो अनाम हो गए, उनका एक समय में बड़ा नाम था। पूरे देश में तालाब बनते थे और बनाने वाले भी पूरे देश में थे। कहीं यह विद्या जाति के विद्यालय में सिखाई जाती थी तो कहीं यह जात से हट कर एक विषेश पांत भी बन जाती थी। बनाने वाले लोग कहीं एक जगह बसे मिलते थे तो कहीं ये घूम घूम कर इस काम को करते थे। ...
अनुपम मिश्र जी इस किताब में तालाबों, बावड़ियों के बारे में जो विवरण हैं, वह उस खोये हुए समय का क्रंदन है जिसे संजोरने और सम्भालने की हममे क्षमता नहीं थी। ट्यूबवैल और हैंडपम्प लगा कर धरती के गर्भ में छुपे जल को मशीन से बाहर निकालने की आसानी ने उस ज्ञान और कौशल को बेमानी बना दिया। अब जब मानसून और बारिशें अपने रास्ते भूल रहे हैं, जब धरती के गर्भ में छुपे जल का स्तर घटता जा रहा है, तो लोग बारिश का पानी कैसे बचाया जाये, इसकी बातें करते हैं। लेकिन उन तालाबों से जुड़े संसार को क्या हम लोग समय पर सहेज पायेंगे?
इस आलेख की अंतिम तस्वीर में छत्तीसगढ़ में बिलासपुर के करीब गनियारी गाँव से एक तालाब का पुराना मंदिर है। आप बताईये क्या यह तालाब और मंदिर हम भविष्य के लिए समय रहते बचा पायेंगे या नहीं?
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पानी और तालाबों पर गीत
इस आलेख को पढ़ कर, हमारे शहर से करीब बीस किलोमीटर दूर रहने वाली श्यामा जी ने, जो वेनिस विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग से जुड़ी हैं, फेसबुक पर अपनी टिप्पणी में मनोज कुमार की "शोर" फ़िल्म से "पानी रे पानी तेरा रंग कैसा, जिसमें मिला दो लगे उस जैसा" गीत को याद कराया, तो मन में प्रश्न उठा कि इस विषय पर, यानि पानी, जल और तालाब के विषय पर, और कौन कौन से प्रसिद्ध गीत हैं?
सबसे पहले तो कुछ-कुछ ऐसे ही अर्थ वाला "विक्की डोनर" से आयुष्मान खुराना का "पाणी दा रंग वेख के" याद आया। फ़िर एक अन्य पुरानी फ़िल्म से "ओह रे ताल मिले नदी के जल से" याद आया जिसे पर्दे पर संजीव कुमार ने गाया था। एक अन्य पुरानी फ़िल्म याद आयी, ख्वाजा अहमद अब्बास की "दो बूँद पानी" लेकिन गीत याद नहीं आया।
क्या आप को इस तरह का कोई अन्य गीत याद है? बस मेरी एक बिनती है कि अपनी याद वाला गीत बताईयेगा, गूगल करके खोजा हुआ नहीं।