बुधवार, अप्रैल 17, 2024

ब्रह्मी से देवनागरी की लिपि यात्रा

उत्तर भारत की सबसे प्राचीन भाषा जिसके आज लिखित प्रमाण हैं, वह वैदिक संस्कृत थी और इसका प्रमाण है ऋग्वेद जो ईसा से करीब १५०० वर्ष पहले लिखा गया। विशेषज्ञ कहते हैं कि इसे सबसे पहले ब्रह्मी लिपि में लिखा गया। नीचे की तस्वीर में ओडिशा में धौलागिरि की वह चट्टान है जिस पर सम्राट अशोक के संदेश ब्रह्मी लिपि में लिखे हैं। 

धौलागिरि चट्टान जिसपर सम्राट अशोक का संदेश ब्रह्मी लिपि में अंकित है

फ़िर समय के साथ ब्रह्मी से देवनागरी लिपि विकसित हुई। ब्रह्मी से ही मराठी, गुजराती, बंगाली और गुरुमुखी जैसी भारतीय भाषाओं की लिपियाँ बनीं जो देवनागरी से मिलती जुलती है, लेकिन उनमें भिन्नताएँ भी हैं। मैं सोचता था कि भाषाएँ तो यूरोप की भी बहुत भिन्न हैं, जैसे कि अंग्रेज़ी, स्पेनी, फ्राँसिसी, इतालवी, आइरिश, आदि, लेकिन उन सबकी लिपि एक जैसी है, जिसे रोमन वर्णमाला कहते हैं जो लेटिन पर आधारित है।

इसलिए मेरे मन में प्रश्न उठता था कि हमने भारत की भिन्न भाषाओ के लिए एक जैसी देवनागरी लिपि या कोई और लिपि क्यों नहीं अपनाई, उससे हमारी भाषाओं को सीखना शायद कुछ अधिक आसान हो जाता। 

कुछ दिनों से मैं आचार्य चतुर सेन की १९४६ में प्रकाशित हुई किताब "हिंदी भाषा और साहित्य का इतिहास" पढ़ रहा था, जिसमें उन्होंने अठाहरवीं शताब्दी में भारत में प्रिन्टिन्ग प्रैस के आने के बाद की भारतीय भाषाओं को लिपिबद्ध करने के बारे में जानकारी दी है, जिसमें मेरे प्रश्न का उत्तर था कि हमारी भाषाओं की लिपिया भिन्न क्यों हैं? यह आलेख इसी विषय पर है।

ब्रह्मी और देवनागरी लिपियों की वर्णमाला

सबसे पहले अगर हम स्वरों को देखें तो देवनागरी तथा ब्रह्मी भाषा की लिपि के अंतर देख सकते हैं - 

अ आ - 𑀅 𑀆    इ ई - 𑀇 𑀈    उ ऊ - 𑀉 𑀊   ए ऐ - 𑀏 𑀐    ओ औ - 𑀑 𑀒

अं अः - 𑀅𑀁 𑀅𑀂    ऋ -𑀋

और अब आप इन दो लिपियों में व्यंजनों के स्वरूप तथा अंतर देख सकते हैं -

क ख ग घ ङ  -  𑀓 𑀔 𑀕 𑀖 𑀗       च छ ज झ ञ - 𑀘 𑀙 𑀚 𑀛 𑀜    ट ठ ड ढ ण - 𑀝 𑀞 𑀟 𑀠 𑀡          

त थ द ध न - 𑀢 𑀣 𑀤 𑀥 𑀦          प फ ब भ म - 𑀧 𑀨 𑀩 𑀪 𑀫        य र ल व - 𑀬 𑀭 𑀮 𑀯

श ष स ह - 𑀰 𑀱 𑀲 𑀳

प्रारम्भ में अंग्रेज़ ब्रह्मी लिपि को पिन-मैन (Pin-man) लिपि कहते थे क्योंकि यह माचिस की तीलियों या छोटी डंडियों से बनी आकृतियों जैसी लगती थी। समय के साथ इस लिपी के स्वरूप भी कुछ बदले लेकिन पांचवीं शताब्दी ईस्वी में गुप्त साम्राज्य काल तक इसे ब्रह्मी लिपि ही कहते है। नीचे तस्वीर में दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय से वह चट्टान जिसपर सम्राट अशोक का संदेश ब्रह्मी लिपि में लिखा है।

दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में सम्राट अशोक का ब्रह्मी लिपि में लिखा संदेश
छठी शताब्दी के बाद से ब्रह्मी लिपि के बदलाव अधिक मुखर हुए और उन्हें नये नाम दिये गये। उत्तर भारत में ब्रह्मी से नागरी, सिद्धम तथा शारदा लिपियाँ बनी जबकि दक्षिण भारत में कदम्ब, पल्लव, आदि लिपियाँ बनी।

चूंकि दक्षिण भारत में ग्रंथों को नुकीली कलम से ताड़ के पत्तों पर खरोंच कर लिखने की परम्परा थी, उन पर नागरी की सीधी रेखाओं वाली लिपि से पत्ते कट जाते थे, इसलिए वहाँ गोलाकार लिपियाँ विकसित हुईं जिनमें शब्दों को देवनागरी की तरह ऊपरी रेखा से जोड़ा नहीं जाता था।

बोलचाल की बोली में बदलाव

एक ओर लिपि में बदलाव हो रहे थे, तो दूसरी ओर बोलने वाली भाषा भी बदल रही थी, क्योंकि जन सामान्य को बोलचाल की भाषा में सरलता चाहिये, वह भाषा की कठिन ध्वनियों को और जटिल व्याकरण नियमों की जगह आसान ध्वनियों और सरल व्याकरण को प्राथमिकता देते हैं। इस तरह से उत्तर भारत में समय के साथ, संस्कृत से लौकिक संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंष, खड़ी बोली और अन्य बोलियाँ बनी।
 
जब समाज बदलते हैं, और नये ज्ञान से नयी समझ और तकनीकी बदलती है, तो नये औज़ार, अस्त्र, कार्यक्षेत्र, कार्यकौशल, आदि बनते हैं, जिनके लिए भाषाओं को नये शब्द चाहिये। दूसरी ओर, जब सड़कें नहीं हों और यातायात के साधन सीमित हों तो कुछ लोग ही लम्बी यात्राएँ कर पाते हैं। इन दोनों बातों की वजह से, समय के साथ, एक ही भाषा विभिन्न क्षेत्रों में भिन्न स्वरूप बदल-बदल कर विकसित होती है।
 
इस तरह से उत्तरभारत में प्राकृत भाषा, देश के विभिन्न क्षेत्रों में डिन्गल, पिन्गल, ब्रज, खड़ी बोली, अवधी, मैथिली, भोजपुरी आदि लोकभाषाओं में विकसित हुई। यही नहीं, इनमें से हर लोकभाषा में कुछ-कुछ कोस की दूरी पर कुछ शब्दों में अंतर आ जाते थे और स्थानीय बोलियाँ बन जाती थीं, जैसे कि आज़मगढ़, जौनपुर और सुल्तानपुर, सभी में अवधी बोलते थे लेकिन उनकी अवधी एक जैसी नहीं थी, उसमें कुछ अंतर थे।
 
बीसवीं सदी में दुनिया के बदलने की गति और तेज़ हो गयी। सड़कों और यातायात के साधनों की वृद्धि से लोग अधिक यात्रा करने लगे हैं, और फ़िर, रेडियो-टीवी-फ़िल्म-इंटरनेट-यूट्यूब आदि नये संचार माध्यमों के आविष्कार से, लोगों के बीच दूरियाँ कम होने लगीं, इस वजह भाषाओं की छोटी-मोटी स्थानीय भिन्नताएँ भी लुप्त होने लगीं। आज के बच्चे स्कूल में, उपन्यासों में, फ़िल्मों और टीवी पर जो भाषा सुनते हैं, वही बोलने लगते हैं और अपने घर-परिवार-गांव की बोली को भूलने लगते हैं।
 
भाषा के कुछ बदलाव दो उल्टी दिशाओं में जा रहे हैं। एक ओर भविष्य में नौकरी अच्छी मिले, यह सोच कर हम अपने बच्चों को अंग्रेज़ी बुलवाने में गौरव महसूस करते हैं इसलिए शहरों के समृ्द्ध परिवारों में बच्चे केवल अंग्रेज़ी पढ़ते-बोलते हैं।
 
दूसरी ओर, यूट्यूब, टिक-टॉक आदि एप्प से छोटे शहरों और गावों में स्थानीय बोलियों के गीत-संगीत-नाटक-शिक्षा-ज्ञान से आय के नये साधन निर्मित हो रहे हैं, जिनसे उन बोलियों के उपयोग को बढ़ावा मिल रहा है।
 
कृत्रिम बुद्धि के अनुवादक की सहायता से आप किसी भी भाषा के लेखन, फ़िल्म, नाटक आदि को आसानी से समझ सकते हैं। गूगल के आटोमेटिक अनुवादक से आप केवल हिंदी, इतालवी, फ्रांसिसी या स्पेनी भाषाओं में ही नहीं, असमिया, भोजपुरी, मैथिली जैसी भाषाओं में अनुवाद कर सकते हैं। आने वाली सदियों में इन सब बदलावों का हमारी बोलियों और भाषाओं पर क्या असर पड़ेगा, यह कहना मुझे कठिन लगता है। 

छपाईखानों की तकनीकी से जुड़े लिपि के बदलाव

आचार्य चतुरसेन अपनी पुस्तक "हिंदी भाषा और साहित्य का इतिहास" में इस विषय पर दिलचस्प जानकारी देते हैं।
 
छापेखाने यानि प्रिन्टिन्ग प्रैस का प्रारम्भिक विकास चीन में हुआ था, लेकिन इसे बड़े पैमाने पर विकसित किया जर्मनी के जोहान गूटनबर्ग ने जिन्होंने १४४८ ई. में पहली बाईबल की किताब छापी। इससे पहले किताबें हस्तलिपि से ही लिखी जाती थीं और केवल एक-दो पन्नों के इश्तहार आदि छापने के लिए आप लकड़ी पर उल्टे शब्द काट कर उस पर स्याही लगा कर उन्हें छाप सकते थे। हस्तलिपि से किताब लिखना और पूरे पन्ने को लकड़ी में काट कर छापना, दोनों मेहनत के काम थे और बहुत मंहगे थे।
 
गूटनबर्ग ने वर्णमाला के हर अक्षर को धातू में बनाया, फ़िर इन अक्षरों को लोहे की प्लेट पर चिपका कर आप एक पृष्ठ की हज़ारों प्रतियाँ छाप सकते थे। उस पृष्ठ को छापने के बाद, उन्हीं अक्षरों को उसी लोहे की प्लेट पर उनकी जगह बदल कर आप दोबारा प्रयोग कर सकते थे और नया पृष्ठ छाप सकते थे। छपाई प्रेस के जगह-बदलने वाले अक्षरों से किताबों की छपाई में क्रांति आ गई।
 
इसी तकनीक की प्रेरणा से बाद में टाईप-राईटर का भी आविष्कार हुआ। एक बार यह छपाई वाले अक्षर बने तो यूरोप के भिन्न देशों ने उन्हें अपना लिया और सबने रोमन वर्णमाला में अपनी भाषाओं के ग्रंथों को छापना शुरु किया। सबसे पहले और सबसे अधिक छपाई बाईबल ग्रंथ की हुई। इस तरह से सबकी भाषाएँ अलग रहीं लेकिन लिपि एक जैसी हो गयी।
 
भारत में हर क्षेत्र में अलग बोलियाँ थीं जिन्हें लोग हस्तलिपि से लिखते थे। इनकी लिपि जो नागरी पर आधारित थी, समय के साथ हर क्षेत्र में कुछ भिन्न तरीके से विकसित हुई। अठाहरवीं शताब्दी के प्रारम्भ में भारत में ईसाई मिशनरी बाईबल को स्थानीय भाषाओं में छापना चाहते थे। उन्होंने पहले सोचा कि हर भारतीय भाषा को रोमन वर्णमाला में ही छापा जाये, ताकि नये अक्षर न बनाने पड़ें, लेकिन उन्हें इसमें सफलता नहीं मिली, क्योंकि भारतीय भाषाओं में ध्वनियाँ अधिक थीं जिनके लिए रोमन वर्णमाला में लिखे शब्दों के अर्थ समझना कठिन था। तब उन्होंने हर क्षेत्र में स्थानीय हस्तलिपि को ले कर उसके लिए अक्षर बनाये, इस तरह से उनकी किताबें स्थानीय भाषाओं में छपीं। भारत की विभिन्न भाषाओं में अक्षर बनाने का काम कठिन था और इसमें करीब सौ/डेढ़ सौ साल लगे। इसका यह नतीजा हुआ कि हमारे हर क्षेत्र की हस्तलिपियों पर आधारित भिन्न लिपियाँ विकसित हुईं।
 
बाद में जब विभिन्न लिपियों की कठिनाईयाँ समझ में आयीं तब उनके एकीकरण, यानि भारत की हर भाषा को एक लिपि में लिखा जाये, की कई कोशिशें हुईं लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली। लोगों को एक बार जिस लिपि में अपनी भाषा पढ़ने की आदत पड़ी, वह उसे बदलना नहीं चाहते थे।

आचार्य चतुर सेन देवनागरी लिपि की छपाई की कुछ अन्य कठिनाईयों पर भी विस्तार से बताते हैं, विषेशकर मात्राओं और संयुक्ताक्षरों की छपाई से जुड़ी कठिनाईयाँ, जिनके लिए विभिन्न उपाय खोजे गये लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली या सीमित सफलता मिली। उनकी यह किताब पीडीएफ में इंटरनेट पर उपलब्ध है।

अंत में

आचार्य चतुरसेन का भाषा और साहित्य का इतिहास भारत की स्वतंत्रता से कुछ पहले तक की कहानी कहता है। उसे पढ़ते समय मुझे पिछले तीस वर्ष की इंटरनेट पर देवनागरी और अन्य भारतीय भाषाएँ लिखने से जुड़ी बातों की याद आ रही थी।
 
१९९० के दशक में जब इंटरनेट फ़ैलने लगा तो प्रारम्भ में हर वेबसाईट के अपने फोन्ट होते थे। मैंने १९९४ में अमरीका में बोस्टन के संग्रहालय में इंटरनेट क्या होता है वह देखा, तो इटली में घर लौट कर तुरंत इंटरनेट का कनेक्शन ले लिया। तब इंटरनेट में देवनागरी में कुछ नहीं मिलता था।
 
सन् २००० के आसपास कम्पयूटर पर इक्का-दुक्का देवनागरी दिखने लगी लेकिन तब देवनागरी के लिए कृतिदेव, मंगल आदि फोन्ट का प्रयोग होता था। उनकी कठिनाई थी कि अगर आप के कम्पयूटर पर वह वाला फोन्ट नहीं है तो आप उसे नहीं पढ़ सकते थे, आप को हर जगह केवल चकौर डिब्बे दिखते थे।
 
तब रोमन वर्णमाला के युनिकोड के फोन्ट ऐसे बनाये गये थे कि उन्हें कोई भी कम्पयूटर समझ सकता था। हम पूछते थे कि हिंदी का युनीकोड कब आयेगा। सबसे पहले हिंदी को युनीकोड में लिखने के लिए ASCII कोड आया लेकिन एक-एक अक्षर के लिए कोड नम्बर लिखना बहुत कठिन काम था।

जहाँ तक मुझे याद है, मैं २००३ तक शूशा फोंट से लिखता था। उस समय सुनते थे कि युनिकोड के हिंदी फोन्ट बन रहे थे। शायद यह काम २००४-०५ के आसपास पूरा हुआ। शुरु में जब यनिकोड के फोन्ट बन गये तब भी यह दिक्कत थी कि अंग्रेज़ी कीबोर्ड से उन्हें कैसे लिखा जाये, इसके सोफ्टवेयर को प्रयोग करना आसान नहीं था।
 
मैंने युनिकोड के रघू फोन्ट का उपयोग जून २००५ में अपना ब्लाग बना कर शुरु किया। आप चाहें तो २००५ की मेरी उस ब्लोगपोस्ट में युनीकोड उपलब्धी के बारे में मेरी खुशी के बारे में पढ़ सकते हैं। उन दिनों में युनीकोड में लिखना भी आसान नहीं था, उन प्रारम्भिक कठिनाईयों के बारे में पढ़ सकते हैं।
 
जब भारत से मेरे इंटरनेट के मित्र पंकज ने मुझे "तख्ती" प्रोग्राम के बारे में बताया। उन दिनों में हिंदी में ब्लाग लिखने वालों का हमारा गुट था जिसमें कई इन्फोरमेशन तकनीकी के विशेषज्ञ थे, जो हम सब को सलाह देते थे। अगस्त २००५ में अनूप शुक्ला ने अनुगूँज नाम का ब्लाग बनाया था जिसमें हम सब चिट्ठा लेखक उनकी दी गयी थीम पर आलेख लिखते थे। मार्च २००६ में हमारे ब्लाग साथी देवाषीश ने "द एशियन एज" अखबार में आलेख में हिंदी और भारतीय चिट्ठाजगत के बारे में आलेख लिखा था।
 
करीब दो साल पहले तक, मैं अपना सारा हिंदी लेखन उसी "तख्ती" पर करता था, और वहाँ से कॉपी-पेस्ट करके हर जगह चेप देता था। इतने साल तक बहुत कोशिश करने के बाद भी विन्डोज पर हिंदी लेखन का कीबोर्ड याद करना मुझे कठिन लगता था। बहुत सालों तक मैंने भारत में हिंदी का कम्पयूटर कीबोर्ड खरीदने की कोशिश की लेकिन उसमें सफलता नहीं मिली। क्या मालूम अब वह आसान हुआ है नहीं?
 
दो साल पहले, २०२१ में पुराने ब्लागर साथी रवि रतलामी, जो अब नहीं रहे, उनकी सलाह से मुझे लीनक्स पर हिंदी लिखने के लिए "का-पा-गा" सोफ्टवेयर मिला जिसे मैंने अंग्रेज़ी कीबोर्ड पर लिखना आसानी से सीख लिया, तब जा कर मेरा जीवन आसान हुआ।
 
लेकिन आज भी अगर विन्डोज़ वाला कम्पयूटर हो, जैसे कि यात्राओं में लैपटॉप का प्रयोग करना हो, तो अभी भी "तख्ती" पर ही लिखता हूँ, क्योंकि उनका हिंदी कीबोर्ड मुझे कठिन लगता है। अगर आज कोई हिंदी भाषा और साहित्य का इतिहास लिखे तो उसे इन सब बदलावों के बारे में भी जानकारी होनी चाहिये।

***

4 टिप्‍पणियां:

  1. एक चिकित्सक के अलावा इतना कैसे कर लेते हैं ?

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. मैं रिटायर हो गया हूँ, थोड़ा बहुत काम स्वयंसेवी संस्थाओं के लिए करता हूँ, बस! आलेख पढ़ने के लिए धन्यवाद

      हटाएं

"जो न कह सके" पर आने के लिए एवं आप की टिप्पणी के लिए धन्यवाद.

इस वर्ष के लोकप्रिय आलेख