शुक्रवार, अप्रैल 28, 2006

पैर तुम्हारे, आलूबुखारे

चीनी, मंदारिन भाषा में शायद यही नाम है मेरा, "पैर तुम्हारे आलूबुखारे". चित्रमय भाषाओं, यानि वह भाषाएँ जिनकी लिपी चित्रों पर आधारित हैं, में दिक्कत तब आती है जब आप को कुछ ऐसा लिखना पड़े जिसका शब्द आप की भाषा में न हो. हिंदी जैसी भाषा जो चित्रों यानि शब्दों पर नहीं बल्कि अक्षरों से लिखी जाती है, उनके कोई भी नया शब्द हो उसे लिखने में कोई मुश्किल नहीं होती.

चित्रों पर आधारित भाषाओं में अक्षर नहीं होते, शब्द होते हैं. जब कोई नया शब्द आये तो आप को सबसे पहले उससे मिलते जुलते ध्वनी वाले शब्द खोजने पड़ते हैं जिनको मिला कर आप वह नया शब्द बना सकते हैं. मेरे नाम को ही लीजिए, सुनील. मंदारिन में लिखने के लिए मैं इससे मिलते जुलते शब्द खोजने लगा तो मुझे मिलेः

1. "ज़ू" यानि पैर - शब्दचित्र को ध्यान से देखिए, थोड़ी सी कल्पना से देखें तो इसमें आप को आदमी का सिर, हाथ और नीचे, लम्बा पैर दिखाई देगा.

2. "नि" यानि तुम, तुम्हारे - इसके शब्दचित्र में एक व्यक्ति खड़ा है तराजू के सामने जिस पर बैठा है एक और व्यक्ति

3. "लि" यानि आलूबुखारे का पेड़ + यह शब्दचित्र दो निशानों को मिला कर बना है, ऊपर है पेड़ का निशान और नीचे है बच्चे का निशान, यानि वह पेड़ जो बच्चों को पसंद है, यानि आलूबुखारा

और सबको मिला कर पढ़ियेः ज़ूनिलि यानि सुनील

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एक बार चीनी में अपना नाम लिखने लगा तो सोचा क्यों न यही काम मिस्र (Egypt) की पुरानी चित्रों पर आधारित भाषा (hieroglyphs) में भी किया जाये. मिस्र की यह भाषा पुराने पिरामिडों के साथ जुड़ी हुई है. इसमें वस्तुओं के चित्र किसी वस्तु की बात भी कर सकते हैं और उससे जुड़े विचारों की भी.

पहले प्रस्तुत है "देस" यानि चाकू. चित्र देख कर अर्थ पहचानने में कोई कठिनाई नहीं होती.

अब बारी है "परवेर" की, यानि कि पूजा स्थल या छोटा मंदिर, यह भी आसानी से पहचाना जाता है.

यह है "आ" यानि द्वार, इसे पहचानने में थोड़ी कठिनाई हो सकती है पर सोचिये कि एक दरवाजा जमीन पर रखा है तो पहचाना जायेगा. इसका स्वर और अर्थ हिंदी से मिलते हैं.

अंत में देखिये "का" यानि गुस्से में भरा बैल, नंदी. "का" को शाँत खड़े बैल से भी बनाया जा सकता है पर मुझे गुस्से से सिर मारता बैल अधिक अच्छा लगा.

मिस्र की भाषा लिखने वालों ने चीनी भाषा की कठिनाई से निकलने का तरीका भी ढ़ूँढ लिया था. अगर चित्रों को एक वर्गाकार रेखा की परिधी में बंद कर देगें तो हर शब्द का पहला स्वर अक्षर का काम करेगा. यानि ऊपर लिखे चित्रशब्दों को मिला दें और डिब्बे में बंद कर दें तो बनेगा "दपाक". दीपक ठीक से नहीं बना पाया, क्योंकि मेरा मिस्र की भाषा का ज्ञान कमजोर है!

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कल सुबह मुझे मिस्र की राजधानी कैरो जाना है इसलिए कुछ दिनों के लिए चिट्ठा लिखने से छुट्टी.

गुरुवार, अप्रैल 27, 2006

पीली पीली सरसों

पीली पीली सरसों के खेत तो शायद मैंने केवल यश चोपड़ा की फिल्मों में देखे हैं पर फ़ूलों से भरे बाग को देख कर अपने आप ही होठों पर गीत आ गया, "पीली पीली सरसों फ़ूली, पीली उड़ी पतंग, पीली पीली उड़ी चुनरिया, पीली पगड़ी के संग". मनोज कुमार से, उनकी फिल्मों से और इस गीत से, मुझे बचपन से चिड़ सी थी, इसलिए यह समझना थोड़ा कठिन है कि जिस बात से चिड़ थी, वही क्यों अब चालीस साल के बाद इस तरह खुशी के साथ ऐसे याद आ रही थी ?

खैर आसपास कोई नहीं था, सिर्फ अपना कुकुर मित्र ब्रान्दो था, जिसने मेरी आवाज़ सुन कर चौंक कर मेरी ओर देखा. पर उसे भी मालूम है मेरी यह पुराने हिंदी फिल्मों के गाने की बीमारी. कुछ भी मौका हो, कोई न कोई गीत ध्यान में आ ही जाता है.

आखिरकार बसंत आ ही गया. केलेंडर के हिसाब से बसंत 1 मार्च को आता है (इतालवी केलेंडर में दिसंबर से फरवरी तक शीत ऋतु होती है, मार्च से मई तक बसंत, जून से अगस्त तक ग्रीष्म और सितंबर से नवंबर तक पतझड़ ऋतु) पर 21 अप्रैल को जब ओस्तूनी जाने के लिए बोलोनिया से चला था तो ठँड थी और बाग में फ़ूल नहीं दिख रहे थे. बीच में कुछ दिन कुछ गरमी सी आयी थी तो तुरंत चैरी की पेड़ पर सफ़ेद फ़ूल निकल आये थे. तीन-चार दिन में जब ठँड वापस आयी तो बेचारे चैरी के फ़ठल भी शरमा कर कहीं छिप गये थे. पर 23 को ओस्तूनी से वापस आया तो रास्ते में ही गरमी लगने लगी थी और शाम को बाग में गया तो चारों ओर फ़ूल खिले थे.

हमारे बाग का एक हिस्सा वृद्ध लोगों के खेतों के लिए सुरक्षित है. जो भी वृद्ध चाहे थोड़े से पैसे दे कर 5 मीटर x 5 मीटर का प्लाट ले सकता है अपनी सब्जियाँ उगाने के लिए. इससे उनका अकेलापन घटता है, अच्छा मौसम हो तो एक साथ मिल कर सुबह शाम "खेतों" में बिताते हैं. मुझे लगता है कि धरती को छू कर पेड़ पौधों के साथ काम करने मानसिक स्वास्थ्य बढ़ता है. खेतों के पास ही उन्होंने अपना छोटा सा घर बनाया है जहाँ वे लोग गरमियों में कुछ पकाते खाते हैं, संगीत चलता है. देख कर लगता है मानो मेला लगा हो, और बाहर खुली हवा में बैठ कर बोलोनया के तली हुई भारतीय पूरी जैसी रोटी (यहाँ की भाषा में प्यादीना) और लाल वाईन खाने पीने में बहुत आनंद आता है.

पिछले वर्ष एक रात कुछ लोगों ने रात को वृद्धों के इस घर में आग लगा थी. तब से बाग में जाने वाले हर व्यक्ति से वे लोग चंदा जमा कर रहे थे और अब आपस में मिल कर, उन्होंने अपना नया घर बनाया है. 1 मई को उसका उदघाटन होगा, प्यादीने और लाल वाईन के साथ. मुझे दुख है कि उस दिन तो मैं कैरो (इजिप्ट) में होंगा.

बोलोनिया की नगरपालिका का विचार है कि हर बाग में कुत्ते घुमाने वाले लोग और वृद्ध लगों के खेत होने चाहिए क्योंकि यह दोनो लोग सारा साल, धूप हो या बर्फ, बाग में घूमना नहीं छोड़ते जिससे बाग में कुछ भी गलत काम करने वाले (यहाँ गलत काम से मेरा आश्रय नशे का सामान बेचने वालों या वेश्या इत्यादि से है) नहीं पनप पाते.

आज की तस्वीरों में हमारे बाग के कुछ दृष्यः वृद्धों के खेत बर्फ से ढ़के और अभी, और उनका नया घर.



मंगलवार, अप्रैल 25, 2006

भगवान कहाँ हैं ?

आज यहाँ इटली में गणतंत्र दिवस की छुट्टी है. करीब दो महीने हो गये घर पर आराम किये हुए, इसलिए आज सारा दिन आराम फरमाया गया. सुबह फ़िल्म देखी, "सलाम नमस्ते" जो मुझे विषेश अच्छी नहीं लगी, विषेशकर अंत का भाग बेकार लगा.

दोपहर को इतने दिनों से न पढ़े हुए चिट्ठे पढ़े.

फ़िर पंकज की पाठशाला में फोटोशाप के पाठ पढ़े. बढ़िया समझाया है, मुझ जैसे तकनीकी बुद्धू को भी समझ आ गया. पहले फोटोशोप फार डम्मिस जैसी किताबें खरीद कर भी नहीं पढ़ पाता था, समझ ही नहीं आती थीं. अब लगता है कि अगर पंकज इसी तरह से पाठ पढ़ाता रहा तो कुछ न कुछ तो समझ आ ही जायेगा. इसी खुशी में पंकज के "तरकश " को भी देखा और विभिन्न चिट्ठों को पढ़ा, जिसमें अनुगूँज कि पिछली धर्म पर हुई बहस भी थी. इस तरह घूमते फिरते, सोचा कि इस विषय पर कुछ लिखना चाहिये हालाँकि अनुगूँज का समय तो अब समाप्त हो गया है.

मैं स्वयं को हिंदू मानता हूँ और यह भी कि हिंदू धर्म में अन्य सभी धर्मों से अधिक सुविधा है कि आप भगवान और धर्म की हर बात को खुल कर सोच सकें, उसकी आलोचना कर सकें, उस पर बहस कर सकें. यह बात मुझे बहुत अच्छी लगती है. मेरे विचार में इसकी वजह है कि हिंदू धर्म में कोई एक पैगम्बर या मसीहा नहीं है और न ही एक किताब है जिसे सबसे ऊँचा माना जाये.

पर मुझे देवी देवताओं में विश्वास नहीं, न जात पात में, न पूजा पाठ में. मेरे विचार में हिंदू धर्म को खतरे में डालने वाले हैं वे लोग जो "हमारा धर्म खतरे में है" कह कर धर्म के नाम पर लड़ने के लिए तैयार रहते हैं और संकरे विचारों के साथ कट्टरपन दिखाते हैं.

बिना किसी देवी देवता में विश्वास किये बिना भी मुझे भगवान में विश्वास है, यह विश्वास किसी श्रद्धा के बल पर नहीं है बल्कि वैज्ञानिक तर्क के बल पर है. जानना चाहेगे मेरा वैज्ञानिक तर्क ?

मैं सोचता हूँ कि इस दुनिया की हर वस्तु, हवा, पानी, पत्थर, जीव, जानवर, पत्ते सब अणुओं के बने हैं जिनके भीतर एक जैसे न्यूट्रान, पोसिट्रोन (neutrone, positrones, etc.) आदि अतिसूक्ष्म कण अंतहीन घूमते हैं. हम यह तो कहते हैं कि विभिन्न तत्व विभिन्न एटम (atom) या मोलिक्यूल (molecule) के बने हैं, हाइड्रोजन का मोलिक्यूलर भार इतना है और कार्बन का उतना, पर एटम से नीचे स्तर पर उतरें तो हाइड्रोजन और कार्बन एक ही जैसे न्यूट्रान, पोसिट्रोन जैसे कणों से बने हैं. यानि कि जीवित और अजीवित, पत्थर और प्राणी, अंत में एक ही हैं, न दिखने वाले इतने छोटे कण. कणों का यह न समाप्त होने वाला नृत्य ही जीवन है जो पत्थर में भी है, प्राणियों में भी. प्राणियों में इस नृत्य की संज्ञा भी है, जो हमारी साँस बन कर चलती है. यह अतिसूक्ष्म कणों का अंतहीन नृत्य और कणों के बीच में घूमती संज्ञा, जो हम सबको एक दूसरे से जोड़ती है, यह ब्रह्म संज्ञा ही मेरे लिए ईश्वर हैं.

मुझे लगता है कि सभी आयोजित धर्म, एक सीमा के बाद अपनी शक्ति, पैसे, पहुँच, फैलाव आदि की चिंता करते हैं, अपनी रीति रिवाज़ो की रक्षा को परम लक्ष्य बना लेते हैं, दूसरों से स्वयं को कैसे भिन्न या अलग बनाया जाये की सोचते हैं, इश्वर की कम. अगर धर्मगुरुओं की चले तो शायद हम लोग हमेशा लड़ते मरते ही रहें. अच्छी बात यह है कि सभी धर्मों में कुछ समझदार लोग भी हैं जो अपने धर्म को आलोचना की नजर से देख कर उनके अच्छे बुरे पहलुओं पर विचार कर सकते हैं.

भाषा, संस्कृति और मर्यादा की सीमाएँ

रमण ने मेरे कल के लिखे "आपबीती कहने का साहस" पर टिप्पणी में लिखा है, "जहाँ तक आपबीती सुना पाने का प्रश्न है, क्या आप को यह नहीं लगता कि पश्चिमी समाज की सदस्या होने के नाते मरीआँजेला के लिए यह सब उतना मुश्किल नहीं होगा जितना भारतीय या अन्य कई समुदायों के सदस्यों के लिए होगा। कृपया राष्ट्रीयता और विभिन्न सामाजिक या आर्थिक बन्धनों का इस पहलू पर क्या असर होता है, इस बारे में अपना अनुभव बताएँ।"

बहुत हद तक यह बात सही है कि भाषा समाजिक व्यवहार की मर्यादा के दायरे में बंद होती है और अगर सामाजिक व्यवहार किसी विषय पर खुल कर बात करना या बातचीत में कई विषेश शब्दों का प्रयोग करना गलत नहीं मानता तो उस विषय पर बात करना आसान होता है.

पहली बात है किन शब्दों में यह बात करें. इतालवी भाषा में बहुत सारे वे शब्द जो हिंदी में गाली कहे जायेंगे, बातचीत में आम बोले जाते हैं, दोनो, पुरुषों और महिलाओं द्वारा. हिंदी में पुरुष ऐसे शब्द आपस में मित्रों के बीच तो बोल सकते हैं पर घर में या महिलाओं के सामने उस भाषा में बोलना अशिष्टा समझी जाती है. जनता के सामने भाषण देते समय इतालवी में भी उन शब्दों का प्रयोग करना भौँडा समझा जायेगा और आपको उनके पर्यायवाची कुछ "वैज्ञानिक" से शब्द ढ़ूँढने पड़ेंगे. यह वही बात है कि यौन विषय पर खुल कर स्पष्ट शब्दों में अपने शोध के बारे में अगर हिंदी में बात करनी पड़े तो मुझे पहले तो स्वीकृत शब्द खोजने पड़ेंगे जैसे लिंग या योनी या यौन सम्पर्क, फ़िर सामाजिक व्यवहार की सोच कर निर्धारित करना पड़ेगा कि क्या कह सकता हूँ, क्या नहीं. इतालवी भाषा में भी यही करना पड़ेगा.

दूसरी बात है कौन सी बात आप लोगों के सामने कह सकते हैं. यह सच है कि इटली में सेक्स सम्बंधी कुछ बातें परिवार में या टेलीविजन पर अन्य कई देशों के अपेक्षाकृत अधिक आसानी से कही जाती हैं. अँग्रेज़ी बोलने वाले देशों (इंग्लैंड, अमरीका, कैनेडा आदि) में मित्रों के परिवारों के अनुभव से मुझे लगता है कि वहाँ सेक्स के विषय पर बात करना कुछ कम आसान है, पर हो सकता है कि मेरा अनुभव सीमित हो. हिंदी में ऐसी बातें घर में करना तो मुझे असोचनीय सा लगता है.

बात केवल देश की नहीं, संस्कृति भी है. मेरे अनुभव में भारतीय परिवार ऐसे देशों में रह कर भी, जहाँ इन विषयों पर बात करना आम हो, अपनी भारतीय मर्यादा की सीमा को नहीं भूल पाते. यह बात उन पर लागू होती है तो भारत में पैदा और बड़े हुए हों. उनके विदेश में पले बड़े बच्चे जल्दी सीख जाते हैं कि बाहर मित्रों के साथ तो वे यह बातें कर सकते हैं, घर पर नहीं.
इन सब बातों का सोच कर, क्या यहाँ अनजान लोगों के सामने अपनी आपबीती कहना क्या अधिक आसान है ? एक तरह से हाँ, क्योंकि अपनी बात कहने के बाद आप को समाज के सामने शरमाने या छुपने की आवश्यकता नहीं पड़ती.

पर यौन सम्बंधी बातें हमारे भीतर के आत्मज्ञान और आत्मछवि का अभिन्न हिस्सा होती हैं, उन पर खुल कर लोगों के सामने बोलने के लिए हिम्मत बहुत चाहिये. शायद हिंदी में लिखने वालों को इस तरह के आत्मकथन के लिए और भी अधिक हिम्मत चाहिए, पर कई भारतीय लेखक और लेखिकाओं ने यह हिम्मत दिखाई ही है.

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आज की तस्वीरें मोजाम्बीक यात्रा से.



सोमवार, अप्रैल 24, 2006

आप बीती कहने का साहस

गाड़ी छोटी सी संकरी गली में फँस गयी थी, और समझ नहीं आ रहा कि क्या करें. हम लोग ओस्तूनी शहर में थे. दक्षिण पूर्वी इटली का यह शहर बहुत सुंदर है और उसके सफ़ेद रंग के घरों की वजह से उसे "श्वेत शहर" भी कहते हैं. मैं और मरीआँजेला वहाँ के चिकत्सकों की एसोसियेशन के निमंत्रण पर आये थे. शाम को चिकत्सक एसोसियेशन के सभापति ने हमें भोजन का निमंत्रण दिया था पर दिक्कत यह थी कि मरीआँजेला की बिजली वाली व्हील चेयर बंद करके किसी कार की डिक्की में नहीं आती और मरीआँजेला की टाँगों में लकवा है जिसकी वजह से उसे किसी कार में बिठाना कठिन है. इसलिए वह हर जगह अपनी बड़ी गाड़ी में जाती है जिसमें विषेश मशीन लगी है और वह व्हील चेयर समेत ही चढ़ जाती है.

हम लोग होटल से तो सभीपति जी की गाड़ी के पीछे ही निकले थे पर थोड़ी दूर के बाद भीड़ में गड़बड़ हो गयी. मरीआँजेला किसी और गाड़ी के पीछे चल पड़ी जो कि वनवे (सिर्फ एक दिशा में यातायात वाली) वाली एक छोटी सी गली में घुस गयी. कुछ अंदर जा कर मालूम चला कि हम लोग गलत गाड़ी के पीछे गलत जगह आ गये थे तब तक बहुत देर हो गयी थी. आगे जा कर गली इतनी तंग थी कि मरीआँजेला की बड़ी गाड़ी न आगे जा पा रही थी न पीछे. पीछे से अन्य कुछ कारें भी आ पहुँची.
लगा कि बोतल में बंद हो गये हों.

आखिरकार, मैंने ही पीछे वाली गाड़ियों को हटवाया, फिर बहुत मुश्किल से पीछे घुमा कर गलत दिशा में ले जा कर ही बाहर निकल पाये. किस्मत अच्छी थी कि कोई पुलिसवाला नहीं टकराया. तब तक सभापति जी हमें खोज कर परेशान हो गये थे, मैंने अपना मोबाइल बंद किया हुआ था इसलिए वे मुझे टेलीफ़ोन नहीं कर पा रहे थे.

जब भी ओस्तूनी का सोचूँगा, इस बात को अवश्य याद करुँगा.
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पर ओस्तूनी की सभा मरीआँजेला की एक और बात से भी याद रहेगी, उसका सबके सामने अपनी आपबीती कहने का साहस. सभा का विषय था "स्त्री, विकलाँगता और यौनता" (Disabled women and sexaulity) जिसमें मुझे बुलाया गया अपने शोधकार्य के बारे में बताने जिसमें मैंने कुछ इतालवी विकलाँग स्त्रियों और पुरुषों से उनके यौन जीवन में आनेवाली रुकावटों पर शोध किया था. मरीआँजेला से मेरी इसी शोध के दौरान मुलाकात हुई थी. मैंने सोचा कि केवल शोध के बारे में कहना अधूरा सा रहेगा, अगर शोध में भाग लेने वाली कोई विकलाँग महिला मेरे साथ अपने व्यक्तिगत अनुभव के बारे में बात कर सके तो शोध के बारे में समझाना अधिक आसान होगा.

यह सोचना तो आसान था पर किसी को खोजना जिसमें भरी सभा के सामने अपने यौन अनुभवों के बारे में बात करने की हिम्मत हो, आसान नहीं था. इसलिए जब मरीआँजेला ने हाँ कही तो पहले मुझे विश्वास ही नहीं हुआ था.

सभा में हम दोनो ने मिल कर भाषण दिया. मैं बात करता वैज्ञानिक तरीके से, कैसे शोध तैयार हुआ, कैसे लोगों ने भाग लिया, क्या निश्कर्ष निकले, आदि और मरीआँजेला मेरी हर बात पर अपने अनुभव सुनाती. भीड़ के सामने अपने बलात्कार की बात करना या विकलाँगता की वजह से ठुकराये जाने की बात करना, अकेलेपन में पुरुष वेश्या खोजना जैसी व्यक्तिगत बातें भरे हाल में लोगों के सामने कहना कितना कठिन हो सकता है, इसका अंदाज़ा आप लगा सकते हैं. बोलते बोलते कई बार उसकी आवाज़ भर्रा आई पर रुकी नहीं वह. सारा हाल उसके सामने स्तब्ध सा था.

ओस्तूनी से गाड़ी में वापस आने में करीब आठ घँटे लगे, बहुत बातें की रास्ते में हमने. मरीआँजेला कहती है कि हम दोनो को मिल कर "विकलाँगता और यौनता" विषय पर किताब लिखनी चाहिये. मैं हाँ हाँ तो करता रहा पर यहाँ चक्करधुन्नी की तरह घूमने से फ़ुरसत मिलेगी तभी कुछ लिखने की बात सोच सकता हूँ. कल रविवार रात को ओस्तूनी से वापस आये. अभी तक फरवरी में की हुई नेपाल यात्रा की रिपोर्ट नहीं पूरी कर पाया हूँ और अगले शनिवार को कैरो (इजिप्ट - Egypt) जाना है.

आज की तस्वीरों में ओस्तूनी और मरीआँजेला, अपनी गाड़ी में.


बुधवार, अप्रैल 19, 2006

नेपाल जल रहा है

मोज़ाम्बीक में था तो भी नेपाल के समाचार मिल रहे थे. हर रोज़ पुलिस लोगों पर गोली चला रही, लाठियाँ बरसा रही है. आग लगी है नेपाल में और मन में बार बार वहाँ के स्थिति के बारे में चिंता होती है.

पंद्रह साल पहले जब बर्लिन की दीवार गिरी थी तब एक के बाद एक, पुलिस, मिलेट्री और बंदूकों से रक्षित तानाशाहों को अचानक समझ आया था कि जिन किलों में बंद करके खुद को सुरक्षित महसूस करते थे वे बालू के किले थे जो जनरोष के सामने आसानी से ठह गये थे. वैसा ही लगता है नेपाल के बारे में भी. जिस तरह से डाक्टर, वकील, छात्र, पर्यटन कार्य वाले, आम व्यक्ति, सब लोग मिल कर नेपाल के राजा से प्रजातंत्र लाने के लिए मांग कर रहे हैं, उसके सामने पुलिस का दमन अधिक नहीं चल सकता. मेरे विचार में पुलिस और मिलेट्री वाले भी जनता के साथ हो जायेंगे क्योंकि अगर सारा नेपाल मिल कर एक आवाज़ से बदलाव माँग रहा है तो वे इससे बाहर नहीं रह सकते.

यह ताश के पत्तों का किला गिरेगा तो सही, पर गिरने से पहले कितनों की जानें लेगा ?

मंगलवार, अप्रैल 18, 2006

मोज़ाम्बीक यात्रा

इस यात्रा की डायरी पूरी पढ़ना चाहें या फ़िर इस यात्रा की अन्य तस्वीरें देखना चाहें तो उसे कल्पना पर पढ़ सकते हैं, आज प्रस्तुत हैं इसी डायरी का एक पृष्ठ.

"सुबह यहाँ शहर की छोटी जेल देखने गया. शहर के बीचों बीच बहुत सुंदर जगह पर बनी है. सामने मिलेटरी की अकेडमी का भव्य भवन है. जेल के सामने से निकलिये तो भी वह दिखाई नहीं देती. नीची टूटी फूटी इमारत है. सलेटी रंग के पत्थर की दीवार पुराना खँडहर सी लगती है.

अंदर घुसे तो एक टीन की छत वाली खोली में हमें बिठा दिया गया. खोली में एक युवक बैठा टाईपराईटर पर कुछ टिपटिप करता लिख रहा था. उसके सामने मेज़ पर अपने हाथों में सिर छुपा करके एक और युवक बैठा था जिसके हाथ में कँपन हो रहा था. सोचा कि शायद वह युवक बेचारा अभी नया नया जेल में लाया गया है और उसी के कागज़ तैयार हो रहे हैं.

जेल का भवन बहुत नीचा सा एक मंजिला है. भीतर से लोगों के बात करने और चिल्लाने की आवाज़ें आ रहीं थी. बीच बीच में तेज गँध का झौंका भी आ जाता, हालाँकि जुकाम से मेरी नाक आजकल बंद है इसलिए गँध कम सूँघ पाता हूँ. तभी मेरे करीब खड़े एक सिपाही ने अपनी बंदूक की सफाई करना और उसमें गोलियाँ भरना शुरु कर दिया. पहले कभी कालाशनिकोव बंदूक इतने करीब से नहीं देखी थी, और उसमें भरती एक के बाद एक गोलियों की कतार को देख कर थोड़ी सी घबराहट हुई. सोचा कहीं गलती न चल जाये.

तभी जेल के भीतर से एक सिपाही बाहर निकला और कुछ क्षणों के लिए दरवाजे से जेल के कैदी दिखाई दिये. जाँघिया पहने नंगे काले बदन, जाल में फँसी मछलियों जैसे. उनके ऊपर पानी डाल कर उनकी सफाई की जा रही थी. फ़िर दरवाजा बंद हो गया. वापस खोली में, सिर नीचा करके बैठा काँपते हाथों वाला युवक अब टाँगें फैला कर मेज़ पर यूँ बैठा था जैसे यहाँ का अफसर हो. मन में सोचा कि शायद वह कोई नशा करता हो जिससे उसके हाथ यूँ काँप रहे थे.

कुछ देर बाद कैदियों का नहाना पूरा करके उन्हें वापस बंद कर दिया गया था और हमें जेल में भीतर ले गये. पाँच कमरे हैं इस जेल में जिसमें 90 कैदियों की जगह है. पहले कमरा नम्बर 1 में गये. घुसते ही जी मिचला गया, मन किया की भाग जाऊँ और भीतर न देखूँ. नीचे एक साथ आगे पीछे कतार में बैठे युवकों को देख कर लगा पुराने अफ्रीकी गुलामों को बेचने जाने वाले जहाज़ पर बनी फिल्म का दृष्य हो. भीतर की ओर चार छोटी खिड़कियाँ थी और एक कोने में एक पाखाना. पीछे की दीवार पर नीले प्लास्टिक के थैलों में कैदियों का सामान लटका था. और सामने जमीन पर उकड़ू बैठे 217 अधिकतर जवान लड़के, एक दूसरे के साथ सटे. दिन रात कैसे रहते हैं यह 217 लोग इस छोटे से कमरे में जिसमें ज़्यादा से ज़्यादा 10 या 12 पलँग लग सकते हैं! वे खाते सोते कैसे हैं ? सुबह पाखाने में अगर उनमें से हर आदमी केवल २ मिनट लगाये, तो भी सबकी बारी आने में सात या आठ घँटे चाहिये. अंदर पानी का नल भी नहीं है.

दूसरा कमरा बीमार कैदियों के लिए था, तीसरे कमरे में पुराने और बिगड़े हुए खतरनाक कैदी थे.कमरा नम्बर चार अँधेरा कमरा था जहाँ सजा देने के लिए कैदियों को अँधेरे में रखा जाता है. वहाँ से किसी की आवाज़ आ रही थी. कमरा नम्बर पाँच जो सबसे बड़ा था, उसमें 271 कैदी थे.

यह नर्कतुल्य जेल उन कैदियों के लिए है जिनका मुकदमा नहीं पूरा हुआ और जिनकी सज़ा नहीं निर्धारित हुई. साल या छहः माह तक की छोटी सजा पाने वाले कैदी भी यहीं रहते हैं. जेल में फोटो नहीं खींच सकते, यह कहा गया मुझसे जब मैंने कमरे में बकरियों की तरह ठूँसे लड़कों की तस्वीर लेनी चाही.

प्रस्तुत हैं इसी यात्रा से कुछ तस्वीरें.



रविवार, अप्रैल 16, 2006

इल्या के सपने

लगता है कि मानो चिट्ठा लिखे बरसों हो गये हों. अब तो यह मोज़म्बीक यात्रा करीब करीब समाप्त ही हो गयी है पर आज जहाँ ठहरा हूँ वहाँ इंटरनेट की सुविधा है और आज सुबह समय भी है, इसलिए सोचा कि आज अपनी इस यात्रा के बारे में ही कुछ लिखा जाये. बहुत घूमने का मौका मिला और एक द्वीप में जाने का मौका भी मिला जिसका नाम है "इल्या दे मोज़ाम्बीक".

इल्या याने द्वीप. मोजाम्बीक के पूर्वी तट से कुछ दूर, छोटा सा द्वीप है जहाँ पोर्तगीस लोगों का पहला शहर बना था और जहाँ उन्होंने इस देश की पहली राजधानी बनाई थी. अफ्रीकी गुलामों के व्यापार में इल्या ने प्रमुख भाग निभाया था.

इल्या दो मोजाम्बीक का द्वीप धरती से एक लम्बे पुल से जुड़ा है. सागर, नाव, मछुआरे, समुद्रतट पर घूमते पर्यटक देख कर छुट्टियों और मजे करने का विचार मन में आता है हालाँकि हम लोग यहाँ काम से आये हैं.

द्वीप पुराने रंग बिरंगे घरों से भरा है जिनमे से बहुत सारे आज खँडहर जैसे हो रहे हैं, जिनकी भव्य दीवारों के बीच घासफूस उगी है या फिर पेड़ उग आये हैं. मछुआरों के घर फूस की झोपड़ियाँ हैं.

द्वीप के उत्तरी कोने पर पोर्तगीस का पुराना किला है जहाँ गवर्नर रहते थे, उनकी फौज रहती थी और जहाँ यूरोप और अमरीका की तरफ जाने वाले गुलाम बंद किये जाते थे.

अस्पताल में काम समाप्त करके, रात को छोटे से होटल "कासा बरान्का" में ठहरे. सुबह यहाँ के हिंदू मंदिर भी गया जहाँ के पंडित जी भारत से आये हैं. उन्होंने बताया कि १९६० से पहले इल्या में करीब ५०० भारतीय रहते थे पर स्वतंत्रता की लड़ाई के बाद पोर्तगीस के साथ वे भी यहाँ से चले गये. आज इल्या में कुछ भारतीय मूल के हिंदू लोगों के व्यापार हैं और उन्होंने ही पंडित जो को भारत से बुलवाया है पर वह स्वयं वहाँ नहीं रहते, नमपूला में रहते हैं.

इल्या के सम्बंध भारत से गोवा की वजह से भी थे. इल्या के एक पोर्तगीस गवर्नर गोवा से आये थे, उनके घर का बहुत सा सामान भी गोवा का ही है.

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कल दोपहर को नमपूला शहर का एक नाटक ग्रुप जो स्वास्थ्य मंत्रालय के साथ काम करता है और गाँवों में स्वास्थ्य संबंधी संदेश नाटक के द्वारा ले जाता है, मुझे एक नाटक दिखाने आया. ९ युवा लोग है इस नाटक समूह में. नाटक एक कुष्ठ रोगी के बारे में था जिसकी पत्नी उसे छोड़ कर चली जाती है जब उसे मालूम चलता है कि उसके पति को कुष्ठ रोग है. तब उसका पति अस्पताल से अपना इलाज कराता है, ठीक हो जाता है और अपनी पुरानी प्रेमिका से विवाह कर लेता है और जब उसकी पहली पत्नी क्षमा मांग कर घर वापस आना चाहती है, वह उसे धक्के मार कर बाहर निकाल देता है. यह सारी बात मुझे उनके सामाजिक वातावरण से प्रभावित लगी जहाँ पुरुष अक्सर पत्नी को छोड़ कर दूसरी शादी कर लेते हैं या प्रेमिकाएँ रखते हैं जबकि स्त्री इस तरह का व्यवहार करे, यानि, पति को छोड़ कर दूसरा मर्द कर ले, उसको समाज नहीं मानता. पर क्या नाटककार होकर हमें समाज में हो रही गलत बातों को मान लेना चाहिये, उसको बदलने केलिए कोशिश नहीं करनी चाहिए, इस पर मेरी उनसे नाटक के बाद खूब बहस हुई. उनका कहना था कि अगर वे समाजिक चलन के विपरीत बात करेंगे तो लोग नाटक देखने नहीं आयेंगे.

आज की तस्वीरों में इल्या और कल का नाटक समूह.


रविवार, अप्रैल 02, 2006

मेरा कुछ सामान

गुलज़ार का गीत है "मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है", जिसे आजकल अक्सर गुनगुनाने का दिल करता है. ऐसा पहले भी कई बार होता है, विषेशकर जिन दिनों में बहुत सी यात्राएँ करनी पड़ें.

आजकल मेरा यात्रा का मौसम है, एक सूटकेस से निकाल कर गन्दे कपड़े निकालो और दूसरा सूटकेस उठाओ और फ़िर से निकल पड़ो. जब लोग मेरी यात्राओं का सुन कर कहते हैं कि "वाह, कितने मज़े हैं आप के!", तो मुझे झूठी हँसी के साथ, हाँ कह कर सिर हिलाने का अच्छा अभ्यास है.

जीवन के हर हिस्से में जैसे अलग अलग "मैं" रहते हैं, काम पर एक मैं, इतालवी मित्रों के साथ एक और मैं और भारतीय मित्रों के साथ एक अन्य मैं. आप तौर पर यह सब भिन्न मैं, भिन्न हो कर भी एक दूसरे से बिल्कुल कटे हुए नहीं, कहीं न कहीं कोई सिरा मिलता है उनका.

पर शहर से बाहर अनजान लोगों के बीच में यात्रा हो तो वहाँ जाने वाला मैं, बाकी सभी मैं से बिल्कुल कटा हुआ होता है. शायद इसीलिए वहाँ छोड़ी हुई यादें ज्यादा भारी लगती हैं ? जीवन जीने के हिस्से, मैं के टुकड़े जो यहाँ वहाँ छूट जाते हैं. शायद जो बचपन में कुछ कुछ सालों के बाद घर और शहर बदलने के लिए मज़बूर होते हैं उन्हें भी ऐसा ही लगता है कि जीवन का सामान कहीं छूट गया हो ?

कल लंदन से वापस आया. आज अफ्रीका में मोज़ाम्बीक जाना है. दो सप्ताह के बाद जब वापस आऊँगा तो पहले दक्षिण इटली जाना है फ़िर इजिप्ट और फ़िर जेनेवा.
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लंदन में इस बार वहाँ के चिड़ियाघर गया. करीब पंद्रह पाऊँड का टिकट है जितने में आप डिस्नेलैंड में जा सकते हैं, और दिल्ली के चिड़ियाघर में तो प्रतिदिन तक कई सालों तक जा सकते हैं.

अंदर जा कर देखा तो बहुत से हिस्से बंद थे, उन पर काम चल रहा था. बस पेलीकेन और फ्लेमेंगो पक्षियों वाला हिस्सा अच्छा लगा और ब्राज़ील के छोटे बंदर भी बहुत सुंदर लगा पर मन में कुछ संतुष्टी नहीं हुई! खैर आज की तस्वीरें इसी चिड़ियाघर से हैं.


हमारी भाषा कैसे बनी

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