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शनिवार, मार्च 17, 2012

अंकों के देवी देवता


हिन्दू जगत के देवी देवता दुनिया की हर बात की खबर रखते हैं, दुनिया में कुछ भी ऐसा नहीं जो उनकी दृष्टि से छुप सके। मुझे तलाश है उस देवी या देवता की जिनका काम है अंकों की देखभाल करना। व्यापारी लोग लाभ-नुकसान का ध्यान रखते हैं तो क्या व्यापारियों की आराध्य लक्ष्मी को ही अंको की देवी माना जाये? या फ़िर ज्ञान की देवी सरस्वती जो छात्रों की आराध्य हैं, अंक उनकी छत्रछाया में रहते हैं? जब तक लक्ष्मी जी और सरस्वती माँ के बीच अंकों की ज़िम्मेदारी का फैसला नहीं हो जाये, शायद हम गणपति बप्पा से कह सकते हैं कि वे ही अंकों की ज़िम्मेदारी का भार सम्भालें?

"क्या हुआ, क्यों इतने परेशान हो?" आप चुटकी लेते हुए पूछेंगे, "क्या कोई अंक खो गया है, और उसे खोजने की आरती का आयोजन करना है?"

नहीं, ऐसी बात नहीं, मेरा कोई अंक नहीं खोया। मुझे एक अन्य बात पूछनी है। बात यह है कि बाकी दुनिया ने हिन्दी और संस्कृत को पिछड़ा मान कर छोड़ दिया और अंग्रेज़ी को गले लगा लिया तो हमने मान लिया कि आज के आधुनिक युग में पैसा, तरक्की और कमाई ही सब कुछ है, अपनी भाषा की बात करना पिछड़ापन है। लेकिन उन्होंने देवी-देवता हो कर, क्यों उसी थाली में छेद किया जिसका खाते हैं? बिना हिन्दी और संस्कृत के उनकी पूजा कौन करेगा? क्यों उन्होंने अपने ही पैरों पर कु्ल्हाड़ी मारी?

"भैया बात का हुई, ठीक से बताओ", आप मन ही मन में हँसते हुए, ऊपर-ऊपर से नकली सुहानूभूति वाला चेहरा बना कर कहोगे। या फ़िर आप मन में सोच रहे हो कि यह साला तो सठिया गया, भला लक्ष्मी या सरस्वती ने कब कहा कि कान्वैंट में पढ़ो या अंग्रेज़ी में आरती करो?

पर बात सचमुच गम्भीर है। बात यह है कि उन्होंने सभी अंक अंग्रेज़ी की वर्णमाला के अक्षरों के नाम कर दिये हैं और बेचारी हिन्दी और संस्कृत की वर्णमाला के नाम कुछ नहीं छोड़ा। अब अपने नाम को शुभ कराके खाने का पैसा सब न्यूमरोलोजिस्ट खा रहे हैं, जब कि अंक-ज्ञान के पँडित भूखे मर रहे हैं। अगर एकता कपूर ने अपनी कम्पनी का नाम बालाजी पर रखा हैं, क्यों वह "K" पर सीरयल  बना कर, उन न्यूमरोलोजिस्टों को पैसा चढ़ाती है, वह उन्हें "क" पर क्यों नहीं  बना सकती थीं?

"अरे भाई, बस इतनी सी बात?" आप मुझे साँत्वना देते हुए कहेंगे, "आप उन सब को "K" के बदले "क" के सीरीयल समझ लीजिये। आप की बात भी रह गयी, और एकता कपूर की भी, उसमें देवी-देवताओं को घसीटने की क्या बात है?"

आप समझते नहीं हैं। अगर यह जानना हो कि कोई नाम शुभ है या अशुभ, तो इसे केवल अंग्रेज़ी में जाँचा जा सकता है, हिन्दी या संस्कृत में नहीं। ऐसा पक्षपात अंग्रेज़ी के साथ क्यों? तभी तो जब फ़िल्म नहीं चलती, तो विवेक Vivek से Viveik बन जाते हैं, अजय देवगन Devgan से Devgn बन जाते हैं, जिम्मी शेरगिल Shergill से Sheirgill बन जाते हैं, ऋतेष देशमुख Ritesh से Riteish बन जाते हैं, और सुनील शेट्टी Sunil से Suneil बन जाते हैं?

God of numerology - graphic by S. Deepak, 2012

इसका अर्थ तो यही हुआ कि भगवान भी अब लोगों के नाम केवल अंग्रेज़ी में सुनते हैं, हिन्दी में नहीं सुनते!

आप भी कुछ सोच में पड़ जाते हैं, और कुछ देर बाद कहते हैं, "नहीं भाई यह बात नहीं है। भगवान ने कहा कि अंग्रेज़ी भाषा ऐसी है कि उसे तोड़-मरोड़ लो, उसमें अक्षर जोड़ो या घटाओ, नाम वही सुनायी देता है। यानि माता-पिता के दिये हुए नाम की इज़्ज़त भी रह जाती है, और मन को तसल्ली भी मिल जाती है कि अपने बुरे दिन बदलने के लिए हमने न्यूमोरोलोजिस्ट वाली कोशिश भी कर ली। क्या जाने इसी से किस्मत बदल जाये!"

बात तो ठीक ही लगती है आप की।

"असल बात यह है", आप फुसफुसा कर कहते हैं मानो कोई रहस्य की बात बता रहे हों, "जब लक्ष्मी देवी बोर हो रही होती हैं तो वे भी स्टार डस्ट या सोसाईटी जैसी अंग्रेज़ी पत्रिका पढ़ कर अपना टाईम-पास करती हैं। तभी उनकी दृष्टि बेचारे विवेक ओबराय या अजय देवगन की इस प्रार्थना पर पड़ती है कि वह भक्त उनसे कुछ माँग रहे हैं। इसमें उनकी गलती नहीं, बात यह है कि देवी देवताओं के लिए कोई स्तर की हिन्दी की फ़िल्मी पत्रिका जो नहीं है!"

अब समझा। अगर हिन्दी में कोई स्तर की फ़िल्मी-पत्रिका होती तो लक्ष्मी जी अवश्य उसे ही पढ़तीं और चूँकि हिन्दी में आप नाम में उसकी ध्वनि बदले बिना नया अक्षर नहीं जोड़ सकते, तो यह न्यूमोरोलोजी वालों का धँधा ही ठप्प पड़ जाता। तब बेचारे अभिनेताओं को प्रति दिन, सचमुच की प्रार्थना करने के लिए बाला जी या सबरीमाला या सिद्धविनायक के मन्दिर में जाना पड़ता और मुम्बई के यातायात में यह काम उतना आसान नहीं है।

धन्यवाद गुरुजी, मेरी बुद्धि खोलने का। अब आप की बात मेरी अक्ल में भी आयी।

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सोमवार, जून 20, 2011

विचित्र शब्द

हिन्दी के "चंदू की चाची ने, चंदू के चाचा को चाँदी के चम्मच से चाँदनी चौंक में चटनी चटाई" जैसे वाक्यों को, जिन्हें बोलने में थोड़ी कठिनायी हो या बोलने के लिए बहुत अभ्यास करना पड़े, अंग्रेज़ी में "टँग टिविस्टर" (Tongue twister) यानि "जीभ को घुमाने वाले" वाक्य कहते हैं.

Grafic design about strange words by S. Deepak

इस तरह के वाक्य अन्य भाषाओं में भी होते हैं. चेक गणतंत्र की भाषा चेक में ऐसा एक वाक्य हैः "मेला बब्का वू कापसे ब्राबसे, ब्राबसे बाबसे वू कापसे पिप. ज़्मक्ला बबका ब्राबसे वू कापसे, ब्राबसे बाबसे वू कापसे चिप." यानि "नानी की जेब में चिड़िया थी, चिड़िया ने चींचीं की, नानी ने चिड़िया को दबाया, चिड़िया मर गयी."

विभिन्न भाषाओं कई बार छोटे से शब्द मिलते हें, जिनके अर्थ समझाने के लिए पूरा वाक्य भी कम पड़ सकता है. कुछ इस तरह के शब्दों के उदाहरण देखिये.

जापानी लोग कहते हैं "अरिगा मेईवाकू" जिसका अर्थ है, "वह काम जिसे कोई आप के लिए करता है, जो आप नहीं चाहते थे, और आप की पूरी कोशिश के बाद कि वह व्यक्ति वह काम न करे, वह उसे करता है, और आप के लिए इतना झँझट खड़ा कर देता है जिससे आप को बहुत परेशानी होती है, लेकिन फ़िर भी आप को उस व्यक्ति को धन्यवाद कहना पड़ता है". जर्मन शब्द "बेरेनडीन्स्ट" का अर्थ भी इससे मिलता जुलता है.

जापानी का एक अन्य शब्द है, "आजे ओतोरी" जिसका अर्थ है "बड़ा होने के समारोह के लिए अपने बालों का विषेश स्टाईल बनवाना, जिससे बजाय अच्छा लगने के, आप की शक्ल और भी बिगड़ी हुई लगे".

हालैंड निवासी कहते हैं "प्लिमप्लामप्लैटरेन", जब कोई पानी की सतह पर इस तरह से पत्थर फ़ैंके कि वह पत्थर कुछ दूर तक पानी पर उछलता हुआ जाये.

फ्राँसिसी बोली में कहते है, "सिन्योर तेरास", उस व्यक्ति के बारे में जो बार या रेस्टोरेंट में जा कर बहुत सा समय बिताता है, पर खाता पीता बहुत कम है जिससे उसका खर्चा कम होता है.

अलग अलग भाषाओं में बात को कहने के कुछ अजीब अजीब तरीके भी होते हैं, जैसे कि इंदोनेशिया में समय बरबाद को कहते हैं "कुसत सेबे लोकटी", यानि "अपनी कोहनियाँ चाटना". चीनी लोग, जब कोई ज़रूरत से अधिक ध्यान और हिदायत से काम करता है, कहते हैं, "तुओ कूरी फाँग पी" यानि "पाद मारने के लिए पैंट उतारना". कोरिया में जब कोई बिना आवश्यकता के बहुत ताकत लगा कर कुछ काम करता है, तो कहते हैं "मोजी जाबेरियूदाछोगा सामगान दा तायेवोन्दा" यानि "मच्छर पकड़ने के चक्कर में घर गिरा देना".

इस तरह के शब्दों के बारे में विचित्र और दिलचस्प बातें लिखीं हैं होलैंड के आदम जूआको ने अपने चिट्ठे "टिंगो का अर्थ" (The Meaning of Tingo) पर. उनका यह चिट्ठा इतना सफ़ल हुआ कि इसकी उन्होंने किताब छपवायी. किताब छपने के बाद से उन्होंने चिट्ठे पर नयी पोस्ट लिखना बन्द कर दिया, फ़िर भी पढ़ने के लिए वहाँ बहुत सी दिलचस्प बातें मिलती हैं.

हमारी भारतीय भाषाओं में भी जाने इस तरह के कितने शब्द होंगे, विचित्र तरीके होंगे बात को कहने के, ऐसे छोटे छोटे शब्द होंगे जिनके लम्बे अर्थ हों, जो सारी दुनिया से अलग हों. शायद हममें से कोई उस पर चिट्ठा बना सकता है, सफ़लता अवश्य मिलेगी. कुछ उदाहरण हमें भी देने की कोशिश कीजिये.

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सोमवार, मई 02, 2011

हिन्दी फ़िल्मों के बाउल गीत

अग्रेज़ी पत्रिका कारवाँ पिछले कुछ समय से अक्सर अनछुए से विषयों पर सुन्दर और लम्बे आलेख निकाल रही है, उस तरह का लेखन मेरे विचार में आजकल की अन्य किसी हिन्दी या अंग्रेज़ी की पत्रिका में नहीं दिखते. कारवाँ के नये अंक में मैंने त्रिषा गुप्ता का एक दिलचस्प आलेख पढ़ा जिसमें बात है मुम्बई के फ़िल्म जगत के बहुत से नये फ़िल्म निर्माताओं की, जो सोचते और बात तो अंग्रेज़ी में करते हैं और फ़िल्में बनाते हैं हिन्दी में.

आलेख में ऐसे कई उदाहरण हैं जिनसे इस बेमेल व्यवस्था का प्रभाव स्पष्ट दिखता है, चूँकि अंग्रेज़ी में सोचने समझने और लिखने वाले निर्देशक अपनी फ़िल्मों के सम्वाद भी अंग्रेज़ी में ही लिखते हैं जिनका बाद में हिन्दी में अनुवाद किया जाता है. पर यह अंग्रेज़ी के वाक्यों का शाब्दिक अनुवाद होता है, जिसमें मूल हिन्दी में सोचबने बोलने वाली सहजता नहीं.

आलेख में यह बात भी उठायी गयी है कि शहरों से आने वाले इन फ़िल्म निर्माता निर्देशकों की अधिकतर गाँवों और छोटे शहरों से कोई जान पहचान नहीं, इनकी फ़िल्मों के विषय बड़े शहरों में ही केन्द्रित हैं, मध्य वर्गीय और उच्च मध्यवर्गीय लोगों की सोचने समझने की दुनिया. हालाँकि अनुराग कश्यप, मनीष शर्मा जैसे निर्देशक भी हैं जिनकी मुफस्सिल भारत से जान पहचान है, पर आलेख में यही चिन्ता झलकती है कि जिस तरह से मुम्बई के फ़िल्म जगत में यह बदलाव आ रहा है, उस तरह से छोटे शहरों और गाँवों की कहानियाँ हिन्दी सिनेमा से लुप्त हो जायेंगी.

मेरे विचार में यह सच है कि बड़े शहरों में कमर्शियल मालस् और मल्टीप्लेक्स की संस्कृति का असर पड़ा है कि किस तरह की फ़िल्में बनायी जायें और ऐसे सिनेमा हालों में दिखायी जायें, लेकिन मुझे भविष्य में दूसरा बदलाव दिखता है, जिसमें आने वाले भारत के छोटे शहरों और गाँवों में बड़े होने वाले नवजवान हैं जिनमें आज अपने रहने सहने, तौर तरीकों पर बहुत गर्व है और आत्मस्वाभिमान भी. इसी बदलते भारत की व्यवसायिक ताकत हिन्दी फ़िल्म जगत में होने वाली भाषा और परिवेश को बदलेगी. पिछले कुछ वर्षों की सफ़ल फ़िल्मों के बारे में सोचें तो विदेशी परिवेश में सतही भारतीयकरण से बनी किसी भी सफ़ल फ़िल्म का नाम याद नहीं आता, जबकि छोटे शहरों और मुफ़स्सिल संस्कृति में घुली मिली सफ़ल फ़िल्मों के नाम तुरंत याद आ जाते हैं, "फ़स गये से ओबामा" से ले कर "तेरे बिन लादन" तक.

कारवाँ पत्रिका में एक अन्य आलेख है पश्चिम बँगाल के एक बाउल गायक मँडली की अमरीका यात्रा के बारे में, जिससे मुझे याद आये हिन्दी फ़िल्मों में गाये बाउल गीत.

Baul dolls from Sally Grossman's Baul Music archive

एक ज़माना था था जब डमरु या इकतारा ले कर गाने वाले साधु, हिन्दी फ़िल्मों में अक्सर दिखते थे. शायद इस तरह के गीतों के पीछे बिमल राय, ऋषीकेष मुखर्जी जैसे बँगला फ़िल्म निर्देशकों का हाथ था जिन पर बाउल और रवीन्द्र संगीत का असर था. इस तरह के गीतों के बारे में सोचूँ तो दो गीत तुरंत याद आते हैं -

1) 1955 की बिमल राय की फ़िल्म देवदास में गीता दत्त और मन्नाडे का गाया "आन मिलो, आन मिलो, आन साँवरे".

2) 1957 की गुरुदत्त की फ़िल्म प्यासा में गीता दत्त का गाया "आज सजन मोहे अंग लगालो, जन्म सफ़ल हो जाये".

इनके अतिरिक्त, हिन्दी फ़िल्मों के बाउल संगीत से प्रभावित अन्य कौन से गीत हैं, क्या आप को याद है?

आज शायद प्रभु से आत्मा मिलन के गीत के द्वारा अपने प्रेमी या प्रेमिका की विरह को व्यक्त करने का समय नहीं रहा. दूर दूर से देख कर प्यार करने के दिन गज़र गये. शायद इसलिए आज की हिन्दी फ़िल्मों में गली गली गाँव गाँव घूमने वाले बाउल भिक्षुक के गाने की जगह नहीं, लेकिन जिन मानव भावनाओं को यह गीत व्यक्त करते हैं, वह तो कभी पुराने नहीं पड़ेंगे.

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बुधवार, मार्च 16, 2011

देशभक्ती और भाषा

हिन्दी के भविष्य के बारे में चिन्ता भरी चर्चा हो रही हो, तो हम यह सवाल भी पूछ सकते हैं कि दुनिया की अन्य भाषाओं में भी क्या आज ऐसी ही चर्चाएँ हो रही हैं? और अगर हाँ तो वे क्या सोच रहे हैं, कर रहे हैं और उनसे क्या हम कुछ सीख सकते हैं. चूँकी मैं इटली में रहता हूँ, यूरोप में फ्राँसिसी, जर्मन आदि भाषाओं की इस तरह की चर्चा सुनने को मिलती हैं, लेकिन इस समय मैं केवल इतालवी भाषा में होने वाली चर्चा की करना चाहता हूँ.

इस वर्ष इटली के एक हो कर राष्ट्र बनने की 150वीं वर्षगाँठ मनायी जा रही है. इस बात पर इतने झगड़े हो रहे हैं कि सुन कर अचरज होता है. अचरज इसलिए कि बहस में लोग इटली की एकता के विरुद्ध टीवी और अखबारों में खुले आम बोलते हैं, लेकिन इस पर कोई "देशद्रोही" कह कर या "देश का अपमान किया" कह कर, कोई यह बात नहीं कर रहा कि इन्हें जेल होनी चाहिये या इन पर मुकदमा होना चाहिये. जैसे कि उत्तर पूर्वी इटली के राज्य आल्तो अदिजे (Alto Adige) के मेयर ने टीवी पर साफ़ कह दिया कि वह इटली की एकता के किसी समारोह में भाग नहीं लेंगे और न ही उन्हें इटली की एकता की कोई खुशी है. इसका कारण है कि इटली का यह हिस्सा प्रथम विश्वयुद्ध के पहले आस्ट्रिया का हिस्सा था और युद्ध में आस्ट्रिया की हार के बाद इटली से जोड़ दिया गया था. आज भी वहाँ के बहुत से लोग आपस में और घर में जर्मन भाषा बोलते हैं. हालाँकि यूरोपीय संघ बनने के बाद से इटली और आस्ट्रिया के बीच की सीमा का आज सामान्य जीवन में कुछ असर नहीं, पर पुराने घाव हैं जिन्हें वह खुले आम कहते हैं.

इटली की सरकार में "लेगा नोर्द" (Lega Nord) नाम की पार्टी भी है जिसके लोग सोचते हैं कि उत्तरी इटली के लोग, दक्षिणी इटली से भिन्न और ऊँचे स्तर के हैं. इनका पुराना नारा था कि "रोम के लोग सब चोर हैं और हम चोरों की सरकार को नहीं मानेगें". इस नारे को उन्होंने सरकार में शामिल होने के बाद, कुछ सालों के लिए स्थगित कर दिया है. यह पार्टी उत्तरी इटली को अलग देश बनाने की बात करती थी, पर सरकार में आने के बाद इनका राग थोड़ा सा बदल गया है. अब यह लोग अलग देश बनाने की बजाय बात करते हैं राज्यों के फेडरेलाइज़ेशन की, यानि देश के विभिन्न राज्यों को अपने निर्णय लेने की और अपनी नीतियाँ निर्धारित करने की स्वतंत्रता हो. देश की एकता की 150वीं वर्षगाँठ को इनमें से कुछ लोग शोक दिवस के रूप में देखते हैं, इसलिए इनमें से बहुत से लोग इस बात से भी सहमत नहीं कि इस वर्ष राष्ट्र एकता दिवस की 17 मार्च को विषेश राष्ट्रीय छुट्टी दी जाये.

"सारे देश में एक दिन की छुट्टी नहीं की जा सकती. उससे तो हमारी फैक्टरियों का, हमारे काम का बहुत नुक्सान होगा. वैसे ही मन्दी चल रही है, उस पर से एक दिन की एक्स्ट्रा छुट्टी, यह हम नहीं मान सकते", इस तरह की बातें करने वाले स्वयं सरकारी मंत्री भी थे. पहले सरकार ने घोषणा की कि 17 मार्च को पूरे देश में सरकारी छुट्टी होगी, पर जब सरकारी मंत्री ही इस छुट्टी के खिलाफ़ बोलने लगे तो सरकार ने कहा कि इस विषय पर मंत्री मीटिंग में बात की जायेगी. एक महीने तक बहस होती रही कि यह छुट्टी दी जाये या नहीं. आखिरकार छुट्टी को मान लिया गया, लेकिन साथ ही यह भी कहा गया कि अगर कोई इस दिन अपनी फैक्ट्री, दुकान या सुपरमार्किट खोले रखना चाहता है तो उन्हें इसकी छूट होगी.

इस पर कुछ अन्य पार्टियों ने और कामगार यूनियनों ने अभियान चलाया कि देश की एकता के विरुद्ध बोलने वालों को करारा जवाब दिया जाये और कई दिनों से कह रहे हैं कि 17 मार्च को हर घर की एक खिड़की पर इटली का राष्ट्रीय झँडा लगा होना चाहिये. मेरी एक मित्र बोली, "यह दुनिया इतनी बदल गयी है कि समझ में नहीं आता कि हमारी पहचान क्या है? मैं पुरानी कम्यूनिस्ट हूँ, हम लोग राष्ट्रवाद के विरुद्ध लड़ते थे, हम कहते थे केवल अपने देश की बात नहीं, बल्कि दुनिया में शाँति होनी चाहिये. तब राष्ट्रीय झँडा वह दकियानूसी लोग लगाते थे जो कहते थे कि हमारा देश सब अन्य देशों से ऊँचा है, हमारी संस्कृति सबसे अच्छी है, विदेशियों को देश से निकालो. आज वे दकियानूसी लोग देश का झँडा नहीं लगाना चाहते, और हम कम्यूनिस्ट हो कर देश का झँडा लगाने की बात रहे हैं."

इन चर्चाओं को सुन कर मुझे भारत में होने वाली कश्मीर या नागालैंड में स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस मनाया जाये या नहीं वाली चर्चाएँ याद आती हैं, हालाँकि भारत में इस तरह की बातों पर लोग बहुत गुस्सा हो जाते हैं, मरने मारने की बातें करने लगते हैं.

इस तरह की बहसों के साथ साथ, देश की भाषा के बारे में कुछ इस तरह की चर्चाएँ भी हो रही हैं जिसमे मुझे लगा कि शायद भारत में हिन्दी के बारे में होने वाली चर्चा से कुछ समानताएँ हैं.

इटली में हर क्षेत्र की अपनी स्थानीय बोली थी, लेकिन स्कूलों में केवल इतालवी भाषा में ही पढ़ायी होती है. पिछले कुछ सालों में वह लोग बढ़े हैं जो "हमें अपनी स्थानीय बोलियों पर गर्व है" की बात करते हैं. यह लोग इन स्थानीय भाषाओं में रेडियो प्रोग्राम करते हैं, नाटक, गीत समारोह आदि का आयोजन करते हैं, ब्लाग लिखते हैं. लेकिन युवा वर्ग को पुरानी स्थानीय बोलियों का उतना ज्ञान नहीं. धीरे धीरे स्थानीय बोलियाँ लुप्त हो रही हैं, युवा लोग घर में, और आपस में केवल इतालवी भाषा ही बोलते हैं.

दूसरी ओर पिछले दो दशकों में इटली में अंग्रेज़ी जानने बोलने की क्षमता पर भी बहुत सी बहसें हो रही हैं. नौकरी खोज रहे हों तो अंग्रेज़ी जानने से नौकरी मिलना अधिक आसान है. लेकिन भारत में हिन्दी की स्थिति से एक महत्वपूर्ण अंतर है. भारत में अच्छी नौकरी के लिए हिन्दी न भी आती हो तो कोई फर्क नहीं पड़ता जबकि यहाँ पर बिना अच्छी इतालवी भाषा जाने काम नहीं चल सकता. अब यहाँ अंग्रेज़ी पहली कक्षा से ही पढ़ायी जा रही है. कम्पयूटरों और तकनीकी विकास के साथ, इतालवी भाषा में अंगरेज़ी के शब्दों के आने से भी चिन्ता व्यक्त की जाती है कि हमारी भाषा बिगड़ रही है, इसका क्या होगा!

वामपंथी पार्टी के अखबार ल'उनिता (L'Unità) यानि "एकता" ने कुछ दिन पहले एक इतालवी चिट्ठाकारों की गोष्ठी आयोजित की जिसमें देश की एकता की बात की गयी कि देश का चिट्ठाजगत इस विषय में क्या सोचता है? एक जाने माने चिट्ठाकार लियोनार्दो (Leonardo) ने इस बारे में अपने चिट्ठे में लिखाः
"आज जितने लोग इतालवी भाषा में लिखते हैं, छापते हैं, इतिहास में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ. भाषा विषेशज्ञ रोना रोते हैं कि भाषा का स्तर खराब हो रहा है, और उनकी बात अपनी जगह पर ठीक भी है. लेकिन मात्रा की दृष्टि से देखा जाये तो इतालवी भाषा में पिछले एक वर्ष में इतना लिखा गया जितना इंटरनेट के आविष्कार के बाद के पहले पंद्रह सालों में नहीं लिखा गया था. आज इंटरनेट पर इतालवी भाषा के चिट्ठे, वेबपन्ने, चेट, नेटवर्क फ़ल फ़ूल रहे हैं, हर कोई लिखना चाहता है.

बहुतों ने इटली की एकता की 150वीं वर्षगाँठ पर भी लिखा है, चाहे यही लिखा हो कि वह देश की एकता नहीं मनाना चाहते, कि जीवन में और बहुत सी कठिनाइयाँ हैं नागरिकों की, वे लोग उनकी बात करना चाहते हैं, पर यह सब बातें इतालवी भाषा में लिख रहे हैं ...

अगर आज देश की एकता के लिए जान देने वाले लोग यहाँ आकर हमें देख सकते तो वे क्या सोचेंगे? वे हैरान होगें और खुश होंगे यह देख कर कि देश के उत्तर से ले कर दक्षिण तक कितने लोग इतालवी भाषा में लिख रहे हैं. उनके समय में यह देश विभिन्न बोलियों में बँटा था और उन्होंने निर्णय किया था कि देश को एक बनाने के लिए उसे एक भाषा देनी होगी. आज हम इस भाषा में कितना लिख रहे हैं, हर कोई किताब, कविता, चिट्ठा लिख रहा है, हम लिखते हुए थकते नहीं. इतालवी भाषा के विकिपीडिया में 7 लाख अस्सी हज़ार विषयों पर लेख हैं, इतने तो स्पेनी भाषा में भी नहीं जो कि बीस देशों में बोली जाती है. यह सच है इतालवी भाषा इन सालों में बहुत बिगड़ी है, पर जितनी जीवित आज है इतनी पहले कभी नहीं थी. आज हम सब इसी भाषा के गाने गाते हैं, इसी भाषा में फ़िल्म देखते हैं, इसी भाषा में चेट करते हैं, चिट्ठे लिखते हैं."
क्या इसका मतलब है कि भारत में इंटरनेट के फ़ैलने से हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं को बढ़ने का मौका मिलेगा? भारत में धीरे धीरे इंटरनेट का विस्तार हो रहा है, साथ ही हिन्दी, तमिल, तेलगू, मराठी, बँगाली आदि भाषाओं में लिखने का विस्तार भी हो रहा है. नयीं तकनीकें जो भारत में बन रही है, टेलीफ़ोन, कम्पयूटर, ईपेड आदि, इन सबको केवल पैसे वालों के लिए ही नहीं बल्कि जनता के बाज़ार में बिकना है तो हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं को जगह देनी ही होगी. हर कोई अपनी बात कहना चाहता है, पर अपने तरीके से. जब उस 90 प्रतिशत भारत को मौका मिलेगा अपनी बात कहने का तो वह हिन्दी में या अपनी भाषा में ही करेगा.

तकनीकी में, विज्ञान में, इतिहास और कला में, आज कहीं भी विश्वविद्यालय स्तर की शोध का काम अगर हिन्दी में किया जाये तो उसे वह सम्मान नहीं मिलता जो अंग्रेज़ी में किये जाने वाले काम को मिलता है. शायद इसलिए कि आज उस 90 प्रतिशत की आर्थिक ताकत कम है. लेकिन कल तकनीकी के विकास के साथ जब वह 90 प्रतिशत इन विषयों को समझना जानना चाहेगा, तो हिन्दी में यह काम बढ़ेगा, इसलिए नहीं कि कुछ लोग हिन्दी प्रेमी हैं, बल्कि इसलिए कि बाज़ार उसकी माँग कर रहा है.

Flags and languages - design by Sunil Deepak

जिन्हें हम भारत में "अंग्रेज़ी भाषी" कहते हैं, उनमें से बहुत सा हिस्सा बोलने लायक अंग्रेज़ी तो जानता है पर वह भारतीय अंग्रेज़ी है जिसे समझने के लिए विदेशियों को अनुवाद की आवश्यकता होती है. इस अध कच्ची अंग्रेज़ी का विकास किस ओर होगा? शुद्ध अंग्रेज़ी की ओर या अपनी भाषाओं की ओर? जब भारतीय भाषाओं का बाज़ार बढ़ेगा तो क्या यह भारतीय अंग्रेज़ी एक दिन उन्हीं में घुल मिल जायेगी?

शनिवार, फ़रवरी 05, 2011

गालिब खड़े बाज़ार में

अमरीकी विश्वविद्यालय की प्राध्यापिका और कवयत्री रीटा डोव का  डिजिटल युग की कविता के बारे में वीडियो देख रहा था. इस तरह के वीडियो देखना मुझे बहुत अच्छा लगता है. अपने मन पसंद विषयों पर कवियों, विचारकों, वैज्ञानिकों, लेखकों, दर्शकों, इतिहासकारों आदि को सुनना, जब जी करे तब. बिना यह चिन्ता करे कि कितने बजे टीवी या रेडियो पर आयेगा, अपनी मर्ज़ी से जब जी चाहे देखो और जितनी बार चाहे देखो कि अब ऐसी आदत पड़ी है कि सामान्य टीवी बहुत कम देखता हूँ.

बिग थिंक, टेड, 99 प्रतिशत, पोपटेक, जेल वीडियो कोनफ्रैंस, रिसर्च चैनल, वीडियो लेक्चर, जाने कितनी जगहें हैं जहाँ पर जानने समझने के लिए खजाने भरे हैं, और कोई फीस या घर से बाहर जाने की भी आवश्यकता नहीं. जब हम स्कूल जाते थे तो किसी विषय पर कुछ जानने समझने के लिए बस स्कूल की किताबें ही थीं. एनसाईक्लोपीडिया या फ़िर विषेश किताबें कभी पुस्कालय में पढ़ने को मिल जाती, पर यह कभी कभी ही होता. आज आप सरकारी स्कूल में हों या कानवैंट में, विश्वविद्यालय में हों या मेरे जैसे घर में बैठ कर दिलचस्पी रखने वाले, कोई भी विषय हो, दुनिया के जाने माने विशेषज्ञ उसके बारे में क्या कहते हैं, हार्वर्ड, कैमब्रिज या मिट जैसे जगतविख्यात विश्वविद्यालयों के प्रोफेसर क्या पढ़ाते हैं, जाने माने डाक्यूमैंट्री बनाने वालों ने उस पर क्या फ़िल्म बनायी है, सब कुछ देखना सुनना  आसान. बस इंटरनेट चाहिये. चाहे अभी भी अधिकाँश स्कूल पाठ्यक्रम में रखी किताबों के रट्टे ही लगवायें, पर भविष्य में ज्ञान जाँचने के तरीके अवश्य बदलने पड़ेंगे.

कवयत्री रीटा डोव कहती हैं कि साहित्य की सभी विधाओं में से कविता आज के डिजिटल युग के सबसे उपयुक्त है, क्योंकि आज कल लोगों का ध्यान किसी बात पर थोड़ी सी देर के लिए ही जुड़ता है. कविता को ट्विटर के माध्यम से आसानी से बाँटा जा सकता है, दुनिया में कहीं भी पलों में पहुँचा सकते हैं, जो डिजिटल युग में कविता के बहुत उपयोगी है. आज जिस तरह से इंटरनेट पर वीडियो देखना आसान हो गया है, इससे यह भी आवश्यक नहीं कि आप कविता को पढ़ें, बल्कि आप कविता को उसके कवि के मुख से भी सुन सकते हैं. सुश्री डोव की बातें मुझे बहुत दिलचस्प लगीं, अगर आप चाहें तो उनकी पूरी बात को सुन सकते हैं.

रीटा डोव का वीडियो देखने के बाद सोच रहा था कि समय के साथ कविता कैसे बदली. उस समय जब किताबें नहीं थीं, प्रिटिंग प्रेस का आविष्कार नहीं हुआ था, तब कविता केवल बोलने और गाने के माध्यम से ही जानी जा सकती थी. गाँवों में घूमने वाले कविता कहानियाँ गाने वाले पारम्परिक कलाकार उन्हें कँठस्थ याद करते थे, इसलिए कविता और कथा का विषेश तरह से विकास हुआ जिसमें याद करने और गाने में आसानी हो. शायद इसी तरह गज़ल और शेरों का भी प्रचलन हुआ क्योंकि उनमें शब्दों का दोहराव और धुन, बोल कर या गा कर सुनाने के लिए ही बने थे.

फ़िर समय आया छपाई की प्रेस का और किताबों का. एक दशक पहले तक छपाई की तकनीक आसान नहीं थी और कुछ छपवाने में पैसा भी लगता था. तभी किताब छापना, बेचना, जैसे व्यव्साय बने, किताबें छापने वाले बने.

आज की दुनिया में लिखने पढ़ने की नयी क्राँती आ रही है. इंटरनेट, ईमेल, फेसबुक जैसे माध्यमों ने कविता, कहानी और उपन्यास, लिखना, पढ़ना, बाँटना, सबको बदल दिया है. लेखकों का गणतंत्र है, हर कोई चिट्ठा बना ले, जो मन में आये लिख ले. अगले ही क्षण, चाहे तो आप पढ़िये, उस पर टिप्पणी लिखिये, उसकी आलोचना कीजिये या प्रशँसा.

पर इतनी भीड़ में अच्छे लेखक और कवि कहीं खो तो नहीं जायेंगे? सचमुच सब अच्छे कवि लेखक, क्या इंटरनेट और फैसबुक से अपने पढ़नेवालों तक पहुँच पायेंगे? यानि अगर आज गालिब या महादेवी वर्मा लिखना शुरु करते, अपना चिट्ठा बनाते, फैसबुक पर पन्ना बनाते, तो क्या सचमुच गालिब और महादेवी वर्मा जैसा बन पाते? और आज के गालिब या महादेवी वर्मा को अगर न चिट्ठा लिखने में दिलचस्पी हो, न उनका कोई फैसबुक पर पन्ना हो, तो क्या आज वह गालिब और महादेवी वर्मा बन पायेंगे?

Ghalib Mahadevi Varma, collage

फैसबुक पर मिर्ज़ा गालिब के पन्ने के चालिस हज़ार से अधिक फैन हैं, जबकि महादेवी वर्मा के पन्ने को केवल छः सौ लोग चाहते हैं.

पर जिन्हें इन माध्यमों से खुद को बेचना आता है, जिन्हें अड़ोसियों पड़ोसियों को बेझिझक संदेश भेज कर अपनी प्रशँसा करना करवाना आता है, जिन्हें प्रतियोगिताओं में अपने लिए वोट माँगना आता है, उनके पीछे तो लाखों जाते हैं, उनके सामने क्या भविष्य के गालिब जी या महादेवी जी टिक पायेंगे? और अगर आप शर्मीलें हैं, खुद को बेझिझक बेच नहीं सकते तो क्या आप का लेखन घटिया माना जाये?

अगर गालिब या महादेवी आज ज़िन्दा होते तो क्या उन्हें अपनी कला को समझने वाले मिलते? आप का क्या विचार है?

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शुक्रवार, जनवरी 28, 2011

भाषाओं के चक्रव्यूह

लूका का ईमेल आया कि वह भाषाओं पर शौध कर रहा है और मुझ से हिन्दी के बारे में बात करना चाहेगा, और साथ में कहा कि मेरा नाम उसे बोलोनिया विश्वविद्यालय में काम करने वाली मेरी एक पुरानी मित्र से मिला था, तो मैंने अधिक सोचा नहीं, हाँ कर दी.

आज सुबह उसके साथ चार घँटे गुज़ारे तो समझ में आया कि हम जिस भाषा को अपनी सोचते और कहते हैं, उसके कई पक्षों को ठीक से नहीं समझते और जानते. लूका हालैंड के उट्रेख्ट विश्वविद्यालय में शौध कर रहा है जहाँ दुनिया भर की भाषाओं को परखा जा रहा है. इस शौध में लूका को कुछ भारतीय भाषाओं के बारे में जानकारी जमा करने की ज़िम्मेदारी मिली है, जिनमें हिन्दी, पँजाबी, बँगला, तमिल, तेलगू और मलयालम भी हैं.

Luca Ducceschi, Italian researcher on Indian languages

पहले ही वाक्य का हिन्दी अनुवाद करते हुए मैं रुक गया. "I wash" का क्या अनुवाद करता? मैंने पूछा कि यह तो बताना पड़ेगा कि क्या धोना है, हाथ, मुँह या कपड़े, इसको जाने बिना इस वाक्य का हिन्दी अनुवाद नहीं हो सकता. लूका बोला, धोना नहीं, अंग्रेज़ी में तो इसका अर्थ हुआ कि मैंने नहाया. मैंने कहा कि शायद लंदन में पानी की कमी नहीं, उनके लिए नहाने और धोने में फ़र्क न हो, पर भारत में तो हम इसका अर्थ हाथ मुँह धोने के लिए करेंगे, या फ़िर कपड़े या प्लेट धोने के लिए करेंगे, जबकि अगर नहाना हो तो उसे "I take bath" कहना चाहिये!

"उसे" और "उससे" में क्या अंतर है, क्या आप ने कभी सोचा है? "मैंने उसे कहा" और "मैंने उससे कहा" में कौन सा वाक्य सही है? मेरा कहना था कि "उससे" अधिक ठीक है, पर लूका की हिन्दी व्याकरण की किताब में "उसे" और "उससे" का अंतर नहीं समझाया गया था. मैं यह तो माना कि इस वाक्य में उसे या उससे कुछ भी प्रयोग किया जा सकता है, लेकिन उसके बाद, एक और प्रश्न पर मैं फ़िर अटक गया.

मैं बोला कि "मैंने उसे किताब दी" में तो केवल "उसे" का ही प्रयोग हो सकता है, और "मैंने उससे प्रश्न पूछा" में केवल "उससे" का ही प्रयोग होना चाहिये. तो लूका ने पूछा कि इसका नियम समझाओ, किस स्थिति में उसे का प्रयोग होना चाहिये, और किस स्थिति में उससे का? जितना अलग अलग वाक्यों के बारे में सोचता, उतना ही नियम स्पष्ट समझ नहीं आते. थोड़ी देर में लगने लगा कि उसके शौध में सहायता के लिए हाँ कह कर मैंने बेमतलब ही परेशानी अपने सिर पर ले ली थी.

अगले हिस्से के अनुवाद में तो और भी झँझट हुई. जिस वाक्य का अनुवाद करना था, वह था, "This woman (Mary) told that she (Mary) will win the race". मैंने अनुवाद किया, "इस औरत ने बताया कि वह दौड़ जीतेगी." लूका का कहना था कि जब "इस" की बात हो रही है तो इस वाक्य के दूसरे हिस्से में, "वह" की जगह "यह" का प्रयोग होना चाहिये. इस तरह के कितने ही वाक्यों पर बार बार अटकते रहे. मैं कुछ कहता और वह कहता कि यह बात अन्य भाषाओं से मेल नहीं खाती, अवश्य कुछ गलती होगी.

"This woman is in danger. She needs help." इसका मेरा अनुवाद था, "यह औरत खतरे में है. इसे मदद चाहिये." तो लूका बोला कि जब तुम पहले वाक्य में "वह" का प्रयोग करते हो, तो इस वाक्य में, "इसे" की जगह, "उसे" होना चाहिये. आखिर तंग आ कर मैं बोला कि मुझे बोलना आता है, हर बात के नियम और ऐसा क्यों होता है और वैसा क्यों नहीं होता, इसके उत्तर मैं नहीं दे सकता.

जो मैं कह रहा था, उसे लिखा कैसे जाये इस पर भी बहस हुई. जब "लड़की" लिखना था तो मैंने कहा कि "ladki" लिखो या "larki", क्योंकि अंग्रेज़ी में "ड़" की ध्वनि नहीं होती, तो वह बोला, पर हिन्दी को रोमन वर्णमाला में लिखने का नियम क्या है? मैंने कहा कि कोई नियम नहीं, जिसके जो मन में आये वह लिख लो. वह बोला कि जब तुम लोग ईमेल या एसएमएस में एक दूसरे को रोमन वर्णों में लिखते हो, तो बिना नियम के कैसे लिखते हो, और जिन हिन्दी शब्दों की ध्वनि अंग्रेज़ी में नहीं होती उसके लिखने के लिए जिससे किसी को कोई कन्फ़यूजन न हो, भारत सरकार ने कोई नियम क्यों बनाये, तो मुझे समझ नहीं आया कि क्या कहूँ. भारत सरकार को हिन्दी के शब्दों को अंग्रेज़ी में कैसे लिखा जाये इससे अधिक अन्य महत्वपूर्ण काम करने होते होगे, मुझे नहीं लगता कि कोई इस पर नियम बना सकता है.

खैर जब काम समाप्त हुआ तो लगा मानो किसी चक्रव्यूह से निकल कर आया हूँ. पर बाद में सोच रहा था कि विभिन्न भाषाओं के बीच में काम करना कितना कठिन है. जब हम नयी भाषा सीखते हैं तो छोटे छोटे नियमों को सीखना तो आ जाता है, लेकिन जो भाषा बोलने से बनती है, जिसमें किस तरह कहा जाये यह नियम से अधिक आदत पर निर्भर होता है, तो वह किताबों से नहीं मिलता. सबसे अधिक बात जो मन को चु।भ रही थी वह थी कि जिसे मातृभाषा कहते हैं, उसके बारे में कितना कुछ नहीं जानते!

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मंगलवार, दिसंबर 07, 2010

चर्चा - भाषा की पूजा

कुछ दिन पहले 1967 की "जन" पत्रिका में छपा, हिन्दी लेखक और विचारक श्री रघुवीर सहाय के हिन्दी भाषा के बारे में लिखे आलेख को "भाषा की पूजा" के नाम से प्रस्तुत किया था. आज प्रस्तुत है इसी आलेख के बाद में हुई चर्चा की रिपोर्ट जिसमें हिन्दी लेखन जगत के बहुत से जाने माने नाम इस बहस पर और रघुवीर सहाय के आलेख के बारे में, हिन्दी या प्रान्तीय भाषाएँ या अँग्रेजी के विषय पर कहते हैं. इन नामों में हैं श्रीकांत वर्मा, मुद्राराक्षस, मनोहर श्याम जोशी, नेमीचन्दर जैन, इत्यादि. यह रिपोर्ट श्री रमेश गौड़ ने तैयार की थी.

चर्चा

श्री नेमिचन्द्र जैनः लेख में स्वतः सिद्ध प्रकार के वक्तव्य हैं. भावुक अभिव्यक्ति और चिन्तन का यह एक नमूना है. सभी मातृभाषाएँ इस्तेमाल की जायें तो समस्या सुलझ जायेगी, इस तरह की धारणा लगती है जो गलत है.

श्री विनय कुमारः  यह मान लिया गया है कि राजनीतिक ही अन्ततः भाषा के सम्बंध में निर्णय करेगा. भाषा की सड़न आदि के लिए केन्द्रीय सत्ता या सत्ताधारी दल को ही ज़िम्मेदार माना गया है. वास्तव में समस्या अधिक व्यापक है. सुविधा प्राप्त ऊँची हैसियत का पूरा वर्ग स्थिति के लिए ज़िम्मेदार है. अंग्रेज़ी हटाने का एहसास रखने वालों में भी चिंतन के स्तर पर अंग्रेज़ी का प्रभाव है. अंग्रेज़ी का इस्तेमाल एक तो स्वार्थ सिद्धि के लिए होता है, दूसरे दिमागी मजबूरी में. अंग्रेज़ी व्यक्तित्व के साथ जुड़ गयी है. इसलिए उसे सत्ताधारी दल तक ही सीमित नहीं करना चाहिये.

श्री भारतभूषण अग्रवालः अंग्रेज़ी जानने वाले शायद दो प्रतिशत ही नहीं हैं, आज़ादी के बाद बढ़े हैं.

श्री विनय कुमारः तीन चार साल पहले दसवें दर्जे तक अंग्रेज़ी पढ़े लोग 1.3 प्रतिशत थे, इसलिए दो प्रतिशत से अधिक नहीं.

श्री भारत भूषण अग्रवालः यह कहना आसान तरीका है कि मातृभाषा चले. लेकिन यह व्यवहारिक नहीं है. सारी अखिल भारतीय सेवाएँ केन्द्र की हैं. मातृभाषा चलने पर एक क्षेत्र के लोग दूसरे में कैसे काम करेंगे. केन्द्र में चौदह भाषाएँ चलें, यह कहना भी ठीक नहीं. करना यह होगा कि केन्द्र में हिन्दी चले और प्रान्तों में प्रान्तीय भाषाएँ, इतना ज़रूर है कि पिछले बीस सालों में मामला इतना बिगड़ गया है कि क्रांती जैसी चीज़ अब इसे सुलझा सकती है.

श्री रामानंद दोषीः भाषा सुविधा का माध्यम है. रोजमर्रा की भाषा और होती है, नौकरी आदि प्राप्त करने की दूसरी. हिन्दी या अंग्रेज़ी, कोई एक भाषा तो सीखनी ही होगी. केन्द्र में एक भाषा हो चाहे हिन्दी हो या कोई और भारतीय भाषा. चौदह भाषाओं का केन्द्र मे् चलना असम्भव है.

श्री श्रीकांत वर्माः चौदह भाषाओं की बात सही है. हिन्दी भाषी राजनीतिक और हिन्दी के लेखक, पराने तो सभी, कुछ नये भी, साम्राज्यवादी मनोवृति के हैं. लोक सभा में अन्य भाषओं के प्रयोग का विरोध हिन्दी वालों ने ही किया. वे समझते हें कि इससे हमारा नेतृत्व खतम हो जायेगा. हिन्दी भी एक क्षेत्रीय भाषा है. वह सम्पर्क भाषा है, उसे वही स्थान मिलना चाहिये, झूठी या अन्धी श्रद्धा नहीं. हिन्दी के साम्राज्यवाद की मनोवृति को खतम करना चाहिये. एकता भाषा के कारण नहीं होती. भारत की एकता का आधार पहले धर्म था, जैसे जैसे धर्म का ह्वास होता जायेगा, राजनीति उसकी जगह ले लेगी. स्वाधीनता आंदोलन में हिन्दी युद्ध के प्रचार की भाषा थी. अब वह स्थिति नहीं है. इसलिए सभी भाषाओं को उनका स्थान देना होगा. तमिलनाड में तमिल समर्थकों के जीतने से राष्ट्रीय एकता बढ़ी है. फ़िलहाल सभी भाषाओं का इस्तेमाल हो. हिन्दी राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकृत होती है या नहीं, यह बाद की बात है.

डा. सदाशिव कारन्थः एक राष्ट्र के लिए एक भाषा की ज़रूरत नहीं. आर्थिक एकता हो तो विभिन्न भाषाएँ होते हुए भी राष्ट्र एक हो सकता है. केंद्रीय प्रशासन में एक ही भाषा होनी चाहिये, लेकिन राजनीति और हिन्दी को जोड़ने के कारण अभी यह मुश्किल है. जब तक मातृभाषा को ले कर जनता तक नहीं पहुँचते, तब तक कुछ नहीं हो सकता. पहले से ही हिन्दी को केन्द्रीय भाषा घोषित करने से उसका घोर विरोध होगा, देश टूट भी सकता है.

श्री परिमल दासः सन 1947 में ही हिन्दी को राजभाषा बना देना चाहिये था. एक भाषा होने से ही राष्ट्रीय एकता हो सकती है. जिसे हिन्दी का साम्राज्यवाद कहा जा रहा है, वह साम्राज्यवाद है नहीं, लेकिन अगर हो भी तो मैं उसे राष्ट्रहित में मानता हूँ. भाषा के प्रश्न को भौगोलिक राजनीतिक दृष्टि से देखना चाहिये, उत्तर दक्षिण, मध्य क्षेत्र और तटवर्ती क्षेत्र की दृष्टि से नहीं. गांधी जी और नेता जी ने महसूस किया था कि मध्यक्षेत्र ही कुछ करने में समर्थ हो सकता है, हिन्दी ही राष्ट्रीय एकता को बचा सकती है. लेकिन हिन्दी भाषी लोगों ने हिन्दी के प्रति प्रेम नहीं. वे नपुसंक हैं. गैर हिन्दी इलाकों के लोग ही फैलायेंगे, और राष्ट्रभाषा के रूप में मान्यता दिलायेंगे.

श्री वेदप्रताप वैदिकः अंग्रेज़ी ने अभिव्यक्ति, चिंतन और दफ़्तर दोनो का स्थान घेर रखा है. हिन्दी को दफ़्तर के स्तर पर तो ला सकते हैं, अभिव्यक्ति और चिंतन के स्तर पर नहीं. सारी भाषाओं का दफ़्तर के स्तर पर प्रयोग बहुत मुश्किल, लेकिन अगर अभिव्यक्ति के स्तर पर सभी भाषाओं को स्वीकार कर लिया जाये, तो छोटे मोटे दफ़्तरी कामों के लिए हिन्दी के प्रयोग का विरोध नहीं होगा.

श्री रुद्र नारायण झाः लेख में भाषा समस्या का राजनीतिक समाधान खोजा गया है. प्रान्तीय भाषाओं को प्रान्तों में पूरी छूट होनी चाहिये, लेकिन सुनने की भी तो कोई भाषा होनी चाहिये. हिन्दी ने कोई भी साम्राज्यवादी काम नहीं किया है. सभी भाषाएँ चलें लेकिन एक केंद्रीय भाषा को भी तो मान्यता देनी पड़ेगी.

श्री ओम प्रकाश दीपकः जब तक अहिंदी भाषी इलाके हिन्दी को स्वीकार नहीं करते, तब तक क्या करें?

श्री रुद्र नारायण झाः इस प्रकार तो अंग्रेज़ी केन्द्रीय भाषा बनी रहेगी.

श्री ओम प्रकाश दीपकः आप के तर्क से तो यही नतीजा निकलता है.

श्री मन्थन नाथ गुप्तः राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान एक नारा उठा था, हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान. इसमें हिन्दू की वजह से पाकिस्तान बना. अब हिन्दी से देखिये क्या हो. जब दूसरे देश कई भाषाएँ ले कर एक रह सकते हैं तो भारत क्यों नहीं रह सकता. अभी तो सभी भाषाओं को मान्यता देनी होगी. फ़िर उस स्थिति से उत्पन्न प्रभावों के फ़लस्वरूप हो सकता है कि किसी एक भाषा पर सहमति हो जाये.

श्री रामधनीः भाषा का सवाल सामाजिक और आर्थिक सवालों से जुड़ा है. राष्ट्रभाषाएँ तो सभी हैं. बहुमत की भाषा को सम्पर्क भाषा मानना होगा, लेकिन हिन्दी के लिए जेहाद करने की ज़रूरत नहीं. यह जेहाद ही साम्राज्यवाद है. अंग्रेज़ी को तो हटा ही देना चाहिये. अंग्रेज़ी का मुल्क की ज़िन्दगी में कोई स्थान नहीं है. राष्ट्रीय एकता का इस साम्राज्यवाद से लाभ नहीं, नुकसान होगा. केन्द्र में सभी प्रान्तीय भाषाओं के प्रयोग को सिद्धान्ततः स्वीकार कर लेना चाहिये, अकेले हिन्दी का आग्रह और उसके लिए आन्दोलन अंग्रेज़ी के साम्राज्यवाद के स्थान पर नये साम्राज्यवाद की स्थापना करना है.

श्री मुद्राराक्षसः धर्म या भाषा को एकता का आधार बताना इतिहास की गलत व्याख्या है. भारत जितना बड़ा आज है, पहले कभी नहीं था. और यह एकता उसे अंग्रेज़ी शासन ने दी. पाकिस्तान बनने से आज यह ज़रूरत पैदा हो गयी है कि यह एकता बनी रहे. हिन्दी को जो साम्राज्यवादी बना रहे हैं, वे किसी को भी बना सकते हैं, लेकिन इससे क्या हम हिन्दी को छोड़ दें? अगर दक्षिण और बंगाल कट जाते हें तो यह कोई दुर्घटना नहीं होगी, भला ही होगा. भाषा नहीं होगी तो विभाजन के लिए दूसरे कारण पैदा हो जायेंगे. हिन्दी को अपनी सही छोटी जगह पर लाने की बात कहना समय को गलत समझना है, यह बड़ी बात कहना है. आज की राजनीतिक स्थिति में हिन्दी के साम्राज्यवाद की बात कहने में कुछ निहित स्वार्थ हैं.

श्री ओम प्रकाश दीपकः श्री मुद्राराक्षस ने इरादों के बारे में जो बात कही है उसे गम्भीरता से नहीं लेना चाहिये..

श्री मनोहर श्याम जोशीः भाषा का सवाल देश की अधूरी क्रांति से जुड़ा है. इसलिए साम्राज्यवाद आदि के सवाल उठते हैं. जब तक यह पूरी नहीं होती, तब तक समस्या बनी रहेगी.

श्री रमेश उपाध्यायः भाषा के सम्बन्ध में इतने भाषणों, बहसों आदि के बाद भी कोई क्रांतिकारी कदम नहीं उठाया जा सका इसके लिए वे लोग ज़म्मेदार हैं जो यथास्थिति को बनाये रखना चाहते हैं, स्वयं को खतरों से दूर रखने, जो मिल रहा है और उसे लेते रहने का लालच, और बिगड़ी परिस्थिति से अधिकतम लाभ उठाने की इच्छा के कारण हिन्दी के सम्बन्ध में यथास्थिति को कायम रखना, या केवल राजनीतिक लाभ के लिए असम्भव सुझाव रखना या पूँजीवादी व्यवस्था पर आँच न आये इसलिए अंग्रेज़ी की गुलामी चालू रखना, इन तीनों दृष्टियों से एक तरफ़ तो भाषा सम्बन्धी कोई क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं होने पाता, दूसरी तरफ़ भाषा विवाद का नशा लोगों को सामाजिक चेतना से पृथक रखता है.

श्री ओम प्रकाश दीपकः हिन्दी को हम लोक भाषा के रूप में लेते हें या अंग्रेज़ी की तरह सामन्ती राजभाषा के रूप में? मैं नहीं समझता कि हिन्दी साम्राज्यवादी हो सकती है, लेकिन हिन्दी नेताओं की दृष्टि जरूर ऐसी या संकीर्ण स्वार्थ वाली हो सकती है. बहस के लिए मान भी लें कि देश के अन्य टुकड़े होना अनिवार्य है, तो आखिर उससे भी तो हिन्दी एक क्षेत्र की ही भाषा रह जायेगी. देश की एकता के लिए मातृभाषाओं के अधिकार क्यों न स्वीकार करें? देश की एकता अंग्रेज़ों ने स्थापित नहीं की, बहुत पुरानी है, वरना बर्मा और श्री लंका के भारत से निकलने पर भी खून खराबा होता या फ़िर पाकिस्तान भी आसानी से बन जाता. लोकसभा में विभिन्न भाषाओं को मान्यता देनी ही होगी. उसी तरह केन्द्रीय सरकार का काम भी जनता के साथ उसी की भाषा में होना चाहिये. जब तक कोई एक भाषा सभी के लिए मातृभाषा जैसी नहीं होती, सभी भाषाओं का इस्तेमाल करना पड़ेगा. रह गये, केन्द्रीय सरकार के दफ़्तर. उनमें भी कोई ऐसा रास्ता निकालना पड़ेगा जो सबको मान्य हो. आगे चल कर कोई एक भाषा मान्य हो, इसके लिए भी फिलहाल सभी भाषाओं को मान्यता देना अनिवार्य लगता है. अन्ततः तो जैसा जोशी जी ने कहा है, मामला देश की अधूरी क्रांति के साथ जुड़ा है.

शनिवार, नवंबर 27, 2010

भाषा की पूजा

अप्रैल 1967 में डा. राम मनोहर लोहिया और समाजवादी पार्टी से जुड़े बहुत से लेखकों तथा विचारकों ने मिल कर नियमित रूप से देश के विभिन्न प्रश्नों पर विचार विमर्श करने के लिए मासिक गोष्ठियों का आयोजन करने का निर्णय लिया था, और पहली गोष्ठी का विषय था हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं के भविष्य के बारे में. इस गोष्ठी के लिए श्री रघुवीर सहाय को आमान्त्रित किया गया था कि वह इस विषय पर लेख लिखें, जिस पर बहस की जाये. यह लेख और उस पर हुई बहस, मई 1967 की "जन" पत्रिका में छपे थे. वही विचारोत्तेजक लेख यहाँ प्रस्तुत है.

अपने पिता के पुराने साथियों में रघुवीर सहाय की याद मेरे मन में बहुत सालों बाद भी ताजा है. उनका सिगार पीना, उनकी मृदुल हँसी और उनका हम बच्चों से गम्भीरता से बात करना, सब याद है. उनके बच्चों में से, उनकी बड़ी बेटी मँजरी जो मेरी उम्र के कुछ करीब थी, की याद है, लेकिन छोटी बेटी और बेटे के नाम भी याद नहीं, पिता की अकस्मात मृत्यु के बाद उनसे सम्बंध नहीं रहे, लेकिन आज रघुवीर जी के इस लेख को प्रस्तुत करते समय सब याद आ गया.

भाषा की पूजा बन्द करो - रघुवीर सहाय

(यह लेख बहस के लिए लिखा गया है. इसमें लेखक ने अन्तिम विश्लेषण करके बहस खत्म कर देने का दावा नहीं किया है. पर वह यह मान कर चलता है कि भाषा पर बहस यह समझने के लिए की जा रही है कि भाषा के मामले में इस वक्त क्या करना है.)

भाषा के मामले पर पिछले 20 वर्षों में जो कुछ हुआ है, उसका जायज़ा एक वाक्य में लिया जा सकता हैः थोड़े से लोगों को, जो भाषा का इस्तेमाल करने की जरूरत से प्रतिश्रुत रहे हैं उन बहुत से लोगों के विरुद्ध संघर्ष करने को मजबूर किया गया है जो भाषा की पूजा करते रहे हैं. इस संघर्ष में वह लेखक - और इस लेखक की भी यही स्थिति है - जो थोड़े लोगों में शामिल रहा अब एक कोने में धकेल दिया गया है जहाँ उसे अपनी आखिरी जी तोड़ कोशिश के साथ छटपटाती हुई एक लड़ाई लड़नी है. बहस के लिए सच पूछिये तो उसके पास वक्त नहीं रह गया हैः बहस पुकार कर शायद कुछ एक अन्य लेखकों को पास बुला सकती है मगर पास खड़े हो जाने वाले अगर खुद छटपटा कर लड़ नहीं सकते तो बहस सिर्फ़ आततायी को और अधिक आक्रमण का मौका देने का साधन बनती है.

एक अच्छे योद्धा की तरह अपनी क्षति स्वीकार कर लेनी चाहिये - भाषा बुरी तरह टूट चुकी है. राजनीतिक दिमाग एक भाषा में वोट माँगता है, दूसरी में वक्तव्य देता है तीसरी में शपथ लेता है. कलाकार दिमाग़ एक भाषा में सोचता है, दूसरी में लिखता है और फ़िर पहली में यश प्राप्त करना चाहता है. बाकी लोग, किसी भाषा में सोच नहीं पाते, किसी भाषा में बोल नहीं पाते. उनके लिए दो व्यक्तियों के मध्य भाषा की एक बड़ी उपलब्धी - मतभेद संभव नहीं रह गया है, अधिक से अधिक वे एक अव्यक्त समझौता कर सकते हैं जो एक दूसरे के भ्रष्ट चरित्र के लिए चुपचाप हामी भरने का समझौता होता है. यह सब इतना जानते हुए कह रहा हूँ कि ये राजनीतिक, कलाकार और लोग कोई आदर्श नहीं हैं.

परन्तु कुछ आदर्श इन तीन वर्गों में कहीं न कहीं हैं. जो भी हैं वे भाषा को पूजा की नहीं इस्तेमाल की चीज़ बनाने के लिए लड़ते रहे हैं. इस लड़ाई में अब अंतिम दौर शुरु हो गया है. एक जगह हम देखते हैं कि सरिहन सरासर झूठ बोल कर अब उसे छिपाने की कोशिश चल भले ही कर जाये, सच्चाई को उजागर किया जा सकता है. दूसरी जगह विद्रोह को भटकाने में भाषा का सहारा लेने की चेष्टा, आकर्षण भले दिख ले, भले दिख ले, भाषा इसमें दग़ा जरूर दे जाती है, तीसरी जगह, कहने का कोई असर न हो और यहाँ तक न हो कि शब्द की जगह पत्थर ही एक रास्ता रह जाये, फिर भी विचार जनमत बन सकता है. ये सब मुक्ति के, विजय के लक्षण हैं. परन्तु लम्बी लड़ाई के दौरान पीछे हटते हुए प्रतिद्वन्द्वी ने इतनी बस्तियाँ उजाड़ दी हैं कि अब सारी दुनिया नये सिरे से बसानी होगी.

सबसे पहले तो राष्ट्रीय एकता को नये सिरे से समझना और बनाना पड़ेगा. यह एक चीज़ है जो सबसे ज़्यादा जलायी फ़ूँकी गयी है. एक से एक सूक्ष्म अस्त्र काम में लाये गये हैं जैसे यह कि सारे देश की एक राजभाषा जिस संविधान द्वारा स्थापित की गयी है उस सम्बन्ध में विहित समता के किसी भी आदेश का पालन नहीं किया गया है. जिस भाषा को राजभाषा बनाने का संकल्प किया गया है, उसके बहुमत का शोषण किया गया है, उसकी भाषा का नहीं. स्वामी शासक के जाने के बाद उसकी जगह उस बहुमत के समृद्ध प्रतिनिधियों ने ले ली है और शासक की भाषा के रूप में उस भाषा को बिठा दिया है जिसे आज़ादी भी नहीं मिल पायी थी. उसे स्वामिभाषा का स्थान दिलाने के लिए लालच दिया गया कि वह दासभाषा बन कर रहे और दासत्व का मुआवजा उपभोग करे. यदि वह भाषा आज़ाद होती तो काफ़ी बड़ा शासक वर्ग अपनी जगह से हटता. इसलिए उसे अधिक से अधिक समय तक मुआवज़ा देने की पेशकश की गयी. उसका विकास करने के लिए बड़े पैमाने पर राष्ट्रीय धन का व्यय किया गया जिसमें हिस्सा बंटाने वह लोग आये जिन्होंने भाषा का विकास करते रहने का और उसे इस्तेमाल न होने देने का बीड़ा उठाया. राष्ट्रीय खर्च से एक भाषा को जो घूस दी गयी वह दूसरी राष्ट्रभाषाओं का पेट काट कर दी गयी. भाषाओं में एक भाषा के लिए घृणा फैलाने का काफ़ी इन्तज़ाम था. तब भाषा की दासता का मोर्चा यों बँधाः अंग्रेजी शासन की भाषा, हिन्दी प्रमुख दास भाषा और बाकी प्रतिद्वन्द्वी दासभाषाएँ.

यहाँ वह सम्पूर्ण कहानी दोहराना बहुत सी जानी मानी बातें दुहराना होगा जो हिन्दी के इस दास वैभव से उपजी विकृतियों की कहानी है. बहुत बड़े पैमाने पर हिन्दी क्षेत्र की प्रतिभा का विविध विद्याओं से, विविध भाषाओं और परम्पराओं से और अपने क्षेत्र के मनुष्य से अलगाव ही संक्षेप में वह कहानी है. एक प्रश्न अवश्य यहाँ अनुतरित नहीं छोड़ना चाहता हूँ. अक्सर कहा जाता है कि यदि स्वतंत्रता मिलते ही हिन्दी को सीधे राजभाषा घोषित करके स्थापित कर दिया होता तो अनन्तर जो कुछ हुआ, वह न होता - वैसा नहीं किया गया, यह बड़ी भूल हुई. पर ऐसा नहीं किया जा सका तो क्यों? क्यों कि जिन्होंने हिन्दी के नाम पर नेतृत्व सम्भाला था - सचमुच उन अल्प प्रतिशत लोगों के साथ थे जो बाद में अमीर से अमीर बने और इन नेताओं में स्वभावतः नैतिक शक्ति की कमी थी. और भी बहुत से काम हैं जो तब नहीं हुए और बाद में बहुत धीरे धीरे और तकलीफदेह तरीके से गलती सुधारने के प्रयत्न होते रहे. पर वे इतने दिखावटी थे कि उन्होंने न सिर्फ कोई परिवर्तन नहीं किया बल्कि हर बार समस्या को एक नयी उलझी हुई शक्ल दे डाली.

आज़ादी के बाद के पहले वर्षों में जब हिन्दी क्षेत्र में जन्म लेने के कारण हिन्दी भाषी को राजनीतिक सम्मान प्राप्त करने का निर्विवाद अधिकार दे दिया गया तभी उस क्षेत्र के असमपन्न हिन्दीभाषी को अपनी भाषा में अपना सामान्य सामाजिक अधिकार प्राप्त करने से निरन्तर वंचित रखा गया - उसे बताया गया कि कुछ लोग अभी उसकी हिन्दी का विकास करने के लिए अंग्रेज़ी से अनुवाद कर हैं और वह चाहे तो अपनी भाषा का इस्तमाल करने के खतरे और नुक़सान छोड़ कर अनुवाद के अनुष्ठान में शामिल हो सकता है. हिन्दी में अभिव्यक्ति की सामर्थ्य का जीवन में व्यवहार तब इस शकल में हुआ कि विद्याओं का, कौशल का और अन्ततः चरित्र का विकास नहीं, इन सबके अंग्रेज़ी नमूनों का भाषानुवाद ही हिन्दी भाषी का सामाजिक प्रतिष्ठा का माध्यम है. एक नतीजा इसका यह है कि हिन्दी में लिखने वाले लोग दिन ब दिन कम होते गये जो भाषा के अतिरिक्त किसी विद्या में पारंगत हों. सम्पूर्ण समाज रोक कर रखा गया, उस दिन की प्रतीक्षा में जब संविधान के अनुसार रातोंरात हिन्दी राजभाषा हो जायेगी और उस दिन भाषा का अधिकार हर एक को मिल जायेगा. यह दिन हिन्दीतर भाषाओं के सम्पन्न वर्ग को स्वभावतः खतरे का दिन दिखायी देने लगा क्योंकि यह प्रकट हो चुका था कि यह खुद हिन्दी भाषा के उतने ही सम्पन्न वर्ग के लिए खतरे का दिन है जिसे वे टालना चाहते हैं.

जब यह भय हिन्दीतर क्षेत्रों के सम्पन्न नेताओं ने प्रकट किया तो इसकी प्रतिक्रियाएँ हिन्दी क्षेत्र में और हिन्दीतर क्षेत्रों में प्रायः एक सी हुईं. हिन्दी नेताओं ने इसे हिन्दी विरोध का नाम दिया जबकि यह हिन्दी नेताओं का ही समधर्मी अंग्रेज़ी समर्थन था. हिन्दीतर क्षेत्र के वंचित पिछड़े वर्ग को भी अपने नेताओं का यह अंग्रेज़ी समर्थन मातृभाषा की रक्षा के साधन के रूप में दिखायी दिया, या कम से कम दिखाया गया और बहुत समय तक एक झूठी बहस हिन्दी और हिन्दीतर दोनो पक्षों के स्वार्थी नेताओं में चली जिससे वास्तव में दोनो अपने अपने क्षेत्र की भाषा शक्ति को आगे बढ़ने से रोकने के मामले में सहमत थे. हिन्दी नेताओं ने अपनी जनताओं से कहा, चूँकि सरकार और हिन्दीतर भाषी हिन्दी का विरोध कर रहे हैं इसलिए हम हिन्दी में हस्ताक्षर करने, हिन्दी में नामपट लिखवाने और हिन्दी में पुरस्कार दिलाने के कार्यक्रम और आंदोलन चला रहे हैं. हिन्दीतर क्षेत्र की जनता से इन्होंने कहा - हम दूसरी भाषाओँ हम दूसरी भाषाओं के विरोधी नहीं हैं, दूसरी भाषाओं का भी वैसा ही विकास होना चाहिये जैसा हम अपनी भाषा का कर रहे हैं, अर्थात उनके इस्तमाल को रोक रखने वाला विकास. फलतः केन्द्र ने सब भाषाओं के विकास का नारा उठाया, क्योंकि सत्ताधारी नेतृत्व इन दोनो क्षेत्रों के सम्पन्न नेतावर्ग को अपने साथ रखना चाहता था. हिन्दी के इस वर्ग की जो राजनीतिक शक्ति इस बीच बढ़ गयी थी. उसका पलड़ा दूसरी भाषाओं के समानधर्मी वर्ग की राजनीतिक शक्ति के बराबर लाने के लिए बन्दर बाँट का रास्ता केन्द्रीय नेतृत्व ने अपनाया, हिन्दीवालों का घमण्ड चूर करने के लिए सरल और सर्वसुगम हिन्दी का डँडा श्री नेहरू जब तब चलाते रहे. इस दौर की एक छोटी सी घटना का उल्लेख यहाँ किया जा सकता है जो दिखाती है कि हिन्दी का नेता इस काण्ड में किस तरह शामिल था. जब नये रेडियोमंत्री गोपाल रेड्डी से हिन्दी वालों की अक्ल दुरुस्त करने को नेहरू ने कहा तो मंत्री के स्वागत में सेठ गोविनददास के घर पर प्रीतिगोष्ठी का आयोजन हुआ. उसमें सेठ जी ने हिन्दी विरोधी रेड्डी की खूब खबर ली. मंत्री इस सत्कार के लिए तैयार न थे. बहुत नाराज हुए. डा. नगेन्द्र ने उन्हें शान्त होने में सहायता दी. उन्होंने बड़े अबदकायदे से कुछ बहस भी चलायी, पर उन्होंने या किसी बड़े आदमी ने मंत्री से एक बार भी नहीं कहा कि आप अंग्रेज़ी से अनुवाद बंद करा दें और मौलिक हिन्दी में लिखाना शुरु करें तो भाषा सरल हो सकती है. आखिरकार नेताओं और मंत्री के बीच तयतोड़ अनुवाद की जाँच कराने पर हुआ, मौलिक लेखन पर नहीं. भाषा की आज़ादी की बात नहीं उठी, भाषा की गुलामी का फायदा नयी अनुवाद जाँच समिति के रूप में उठाया गया. बन्दर बाँट ने जो टुकड़ा भाषा में से काटा वह भाषा के इस्तेमाल का टुकड़ा था.

फ़िर 1963 में अंग्रेज़ी को सहभाषा के रूप में बनाये रखने का कानून पास होते ही, विकास का ढोंग खत्म हो कर, एक नया ढोंग, पूजा का ढोंग शुरु हुआ, जिसके बीज विकास के ढोंग में पहले से ही थे. अब द्वार पर नामपट पर हिन्दी में नाम लिखाना भी भगवान को दरदर भटकाने का पाप समझा जाने लगा और हिन्दी सम्बंधी छोटे बड़े सराकारी कार्यलय शुद्ध रूप से मन्दिर बन गये जिनमें पूजा पाठ की विधियों पर शास्त्रीय उपदेश करते हुए छोटे बड़े पुजारी आज जय हिन्दी, जय नागरी कर रहे हैं. हिन्दी के विकास के काम में कभी मजबूरन कुछ गतिशीलता का जो बन्धन था वह भी अब आत्महत्या, न्यस्त स्वार्थ की हत्या, माना जाने लगा है. भाषा को कमरे में बैठ कर गढ़ने का काम दिन प्रतिदिन कम होने वाला काम हो तभी वह गतिशील कहला सकता है, पर अब तो प्रश्न उसे अनन्त बनाने का रह गया है, क्योंकि संविधान में हिन्दी के प्रकरण से हिन्दी भाषी को यह जो सामाजिक प्रतिष्ठा उपलब्ध हुई है अब कम से कम इसे बचाये रखने का सवाल हिन्दी नेता के लिए हिन्दी के नाम पर सबसे महत्वपूर्ण सवाल है.

तो भी कुछ अपनी नेतागिरी जताने के लिए और कुछ सचमुच पदहानि के दुख से हिन्दी नेता जनता के सामने आ कर "हा हिन्दी का दुर्भाग्य" कह कर रोया था. साथ ही उसने कहना शुरु किया था कि दूसरी भारतीय भाषाओं की मदद के बिना हम अंग्रेजी को नहीं हटा सकते. सुनने में यह हृदय परिवर्तन जैसा लगता है पर है यह केवल वेश परिवर्तन. वह अभी भी "अंग्रेजी को हटा नहीं सकते" के बाद "और हिन्दी को नहीं स्थापित कर सकते" जोड़ देता है और अभी भी समझौता उस हिन्दीतर भाषी से करना चाहता है जो अपने क्षेत्र में अपनी भाषा का इस्तेमाल रोक कर उसके विकास के लिए मोहलत और पैसा माँग रहा है और कहता है कि अंग्रेज़ी तभी हटे जब मेरी भाषा भी हिन्दी जितनी रिश्वत खा ले.

यह सब केन्द्रीय नेतृत्व के हित में है. प्रदेशों में वास्तविक जनमत को भटकाने दबाने नहीं तो भटकाने का कितना सीधा नुस्खा है. अंग्रेज़ी और हिन्दी को एक ही कोटि की भाषाएँ बताते रहना और देशी भाषाओं का अंग्रेज़ी विरोध, हिन्दी विरोध की तरफ़ भटकाते रहना. इस सिलसिले की अब वह घड़ी आ गयी है जब पीछे को जाने वाले दो गलत रास्ते बहुत आकर्षक हो उठे हैं. एक यह है कि अंग्रेज़ी को - दो प्रतिशत भारतीयों की जानी भाषा को जिसमें वह किसी तरह लड़खड़ाते हुए ही चल सकते हैं - सत्ता की, सामाजिक प्रतिष्ठा की भाषा हमेशा के लिए बनाये रखा जाये, और इसकी सिद्धी के लिए जो ढोंग, पाखण्ड और चरित्रपतन ज़रूरी हो वह मातृभाषाओं में प्रोतसाहित किया जाये. दूसरा रास्ता है, प्रदेशों को करने दो जो करते हैं, अपनी मातृभाषाओं में पढ़ायें, लिखायें, सरकार चलायें, केन्द्र में हमें अंग्रेज़ी के साथ हिन्दी को ही लगाये रखने दो फ़िर चाहे प्रदेश में आपस में कितनी भी दूरी बढ़े. "सम्पर्क भाषा ही राष्ट्र एकता है, प्रदेशों की परस्पर दूरी कम करने की, सम्पर्क बढ़ाने की ज़रूरत नहीं क्योंकि उससे विदेशी सम्पर्क भाषा की ज़रूरत कम होती है.

परन्तु मेरे विचार में आगे जाने वाले रास्तों की संख्या दो से भी कम है, एक ही रास्ता है और वह भी ऊबड़ खाबड़ ज़मीन पर से हो कर जाता है. वह भाषा की पूजा तुरंत बंद करके उसके इस्तेमाल का रास्ता है. अंग्रेज़ी का इस्तेमाल करने को संविधान बाध्य नहीं करता, हिन्दी का इस्तेमाल करने की इज़ाज़त देता है. परन्तु सरकारी काम में भी हिन्दी नेता हिन्दी न खुद इस्तेमाल करते हैं न दूसरों को करने देते हैं, क्योंकि उनका तर्क है कि जो हिन्दी नहीं चाहते वे भी केन्द्र की प्रजा हैं और उनके लिए अंग्रेज़ी इस्तेमाल करनी पड़ेगी. इस तरह बिल्कुल स्पष्ट है कि संघ भारतीय भाषाओं को दबाये और 2 प्रतिशत अंग्रेज़ी को बनाये रखने के लिए ही यह किया जा रहा है. अब प्रश्न यह है कि यह सब देखते हुए जो अंग्रेज़ी हटाना चाहते हैं वे लोग क्या पहले आपस में लड़ कर यह बात तय करेंगे कि कौन सी भाषा अंग्रेज़ी की जगह ले तब अंग्रेज़ी जायेगी? अंग्रेज़ों को हटाने के पहले यह निणर्य करने की ज़रूरत बहुत से भारतीय बताते थे और वे वही थे जो अंग्रेज़ों के जाने से सबसे अधिक दुखी होने वाले थे. भारतीय एकता की जो परिकल्पना हमनें अंग्रेज़ी शासनकाल में की थी उसमें भाषा की स्वतंत्रता का मुख्य स्थान था, परन्तु भाषा के प्राधान्य की कल्पना नहीं थी. सब भाषाओं के बोलनेवालों को एक सूत्र में बाँधने के लिए गाँधी ने एक राजनीतिक कार्यक्रम को साधन बनाया था, हिन्दी नामक भाषा के तंत्र मंत्र को नहीं. बाकी उन्होंने कई प्रकार से बार बार कहा था कि मातृभाषा में शिक्षा देना ही स्वाधीन व्यक्ति बनाने का उपाय है और अगर यह काम आज शुरु कर दिया जाये तो पाठ्यपुस्तकें झक मार के बन जायेंगी. भाषावार राज्यों का सिद्धांत भी इसी भावना के अंतर्गत माना गया था. परंतु स्वतंत्रता के बाद भारतीय एकता के सभी प्रतिमान सत्ताधारी पार्टी की एकता के प्रतिमान के साथ जोड़ दिये गये और हम लोगों को कुछ समय के लिए ऐसा समझाया गया कि भाषावार राज्यों में बाँटना तो बहुत अच्छी चीज़ है क्योंकि उससे देश की विविधता को समृद्धि मिलती है और जन समुदाय भावाभिव्यक्ति पाते हैं, परन्तु यदि यह सब भाषाएँ एक जगह एकत्र हो जायें तो देश टूटने लगता है. दरअसल देश नहीं सत्ताधारी दल टूटने लगता है क्योंकि विचार और कर्म के एक होने की प्रक्रिया और तेजी से चलने लगती है.

प्रश्न यह था कि अंग्रेज़ी हटाने के लिए हम ठीक इसी समय क्या करेंगे? जो 1951 में नहीं किया गया, वह क्या था, हिन्दी को निर्णयपूर्वक रातोंरात राजभाषा बना देना या सब भाषाओं को साथ मिला कर प्रयोग करना कि देश अपने लिए रास्ता निकाले. तब सरकार को काम करना था. वह सरकार प्रयोग नहीं कर सकती थी, पर वह सरकार तो निर्णय भी नहीं ले सकी. जो राजनीतिक शक्तियाँ अब देश में उभर रहीं हैं तथा जो परिवर्तन की प्रक्रिया चल रही है उनके सन्दर्भ में अब क्या किया जाना चाहिये जिससे 28 वर्ष की गलतियाँ दूर हों सकें?

ऊबड़खाबड़ रास्ते पर चलने के लिए तैयार होना ही एक उपाय है. रास्ता बनाने की ज़िम्मेदारी जिन पर है उनको भारतीय एकता की एक कहीं अधिक जीवित और स्पंदित परिकल्पना करनी होगी. छत्र के नीचे एक भारत की कल्पना जिसमें न यह भय रहता है कि केन्द्र में सिर्फ़ अंग्रेज़ी या हिन्दी रहने से ही एकता सम्भव है, न यह भ्रम कि दोनो रहने से अंग्रेज़ी जायेगी. आज भाषा के अन्दर के उस खोखल को जो पुजारियों ने उसका ढोल बजाने के लिए किया था, अस्वीकार करने वाली शक्तियाँ उदित हो रहीं हैं. शब्द में सत्य की अवधारण करने के लिए भाषा ने कोई दीप नैवद्य नहीं बरता, उसने असत्य को तोड़ा और वहीं सत्य स्थापित हुआ. 14 भाषाओं के एकत्र इस्तेमाल से देश की एकता टूटेगी इस असत्य को हम तोड़ें तो वास्तविक एकता का सत्य स्थापित होता है. इस सत्य में कोई शास्त्रीयता नहीं है. जीवन की शक्तियों के परस्पर टकराव से एक या दो या तीन बहुमान्य रास्ते निकालना ही इस सत्य की खोज है. भाषाओं की आंतरिक एकता, शब्दों की समानता और संस्कृतियों की समान धर्मिता के बहुत गुणगान करने वाले अंग्रेज़ी समर्थकों को संविधान सम्मत भाषाओं के टकराव से घबराना नहीं चाहिये. यदि प्रत्येक प्रदेश में ऊपर से नीचे तक मातृभाषा और केन्द्र में सभी भाषाओं के इस्तेमाल की व्यवस्था तुरंत की जाये तभी पिछले वर्षों से स्वार्थी नेताओं के हाथों नष्ट हुई राष्ट्रीयता आज सही रास्ते पर चल कर अपनी भारतीयता खोज सकती है, अन्यथा वह अंग्रेज़ी की खिड़की खोल कर बाहर का विश्वदृश्य निहारती रहेगी और भीतर भाषायिक भुखमरी और "श्टारवेशन डेथ" में अर्थभेद करते रहेंगे और शब्दकोश की पूजा होती रहेगी. जो लोग भाषा को मथ कर, कूट कर उसमें से बरतने योग्य कुछ गढ़ते रहे हैं, वे लोग ही आज मातृभाषाओं के इस्तेमाल का मामला आगे बढ़ा सकते हैं. उनकी छटपटाती हुई लड़ाई का यह आखिरी दौर होगा.

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मंगलवार, नवंबर 02, 2010

हिंदी राष्ट्रवाद का इतिहास

हिन्दी पत्रिका हँस के अगस्त, सितंबर और अक्टूबर के अंकों में, तीन हिस्सों में "राष्ट्रवाद और हिन्दी समाज" के शीर्षक से प्रसन्न कुमार चौधरी का लम्बा आलेख छपा है जिसे इन दिनों बहुत रुची से पढ़ा. हिन्दी लेखन और विमर्श जगत की सीमाएँ अक्सर अपनी घरेलू बातों तक ही रुक जाती हैं, या बहुत अधिक हो तो, अंग्रेज़ी बोलने वाले विश्व की कुछ बात कर लेती हैं.

उन घरेलू बातों की भी सीमाएँ संकरी हैं, अधिकतर साहित्य, कविता तक के विषयों पर रुकी हुई, ऐसा कुछ विमर्श मौहल्ला लाईव पर हो रहा है जहाँ पर इन्हीं दिनों में अविनाश ने "भारतीयता" पर ओम थानवी, पवन कुमार वर्मा आदि की बहस के बारे में लिखा, फ़िर उस पर विजय शर्मा का एक आलेख भी निकला.

प्रसन्न चौधरी का आलेख सभ्यता, संस्कृति, भाषा के विषयों पर विहंगम दृष्टि है जिसमें सारे विश्व के विभिन्न क्षेत्रों तथा ऐतिहासिक युगों के अनेक उदाहरण हैं. यह आलेख उन्होंने सुधीर रंजन सिंह की पुस्तक "हिंदी समुदाय और राष्ट्रवाद" की आलोचना के रूप में लिखना शुरु किया था, लेकिन पुस्तक की आलोचना आलेख का छोटा सा हिस्सा है.

वह लेख का प्रारम्भ राष्ट्र, राष्ट्र राज्य और राष्ट्रवाद के आधुनिक यूरोप के देशों के बनने से जुड़े अर्थों के विवेचन से करते हैं, कैसे राष्ट्रवाद के सिद्धांतों को विख्यातित किया गया, इन सिद्धांतों की क्या आलोचनाएँ हुईं, आदि. इस हिस्से में उनका विमर्श कि किस तरह यूरोप ने अपने नागरिकों के लिए सदियों से चले आ रहे शोषण को बदल कर नये आधुनिक समतावादी समाज की संरचना की और साथ ही, उपनिवेशवाद द्वारा, अपने देशों की सीमाओं के बाहर शोषण के नये रास्ते खोले, बहुत अच्छी तरह से किया गया है. इस विमर्श में वह पूर्व में रूस से ले कर पश्चिमी यूरोप तक की बात करते हैं, और साथ साथ, भारत तथा अन्य उपनिवेशित देशों में होने वाले विमर्श की परम्परा का ज़िक्र भी.

आलेख के दूसरे हिस्से में बात है भारत में प्रभाव डालने वाली पश्चिमी विचार परम्परा की और दूसरी ओर, भारत के अपने इतिहास, धर्म और दर्शन से जुड़ी सोच की, और किस तरह से यह दो दृष्टियाँ कभी एक दूसरे से मिलती हैं, और कभी एक दूसरे से अलग हो कर प्रतिद्वंदी बन जाती हैं. इस दूसरी दृष्टि को वह भारत से बाहर के भी विचारकों में खोजते हैं. आलेख का तीसरा भाग, हिंदी समुदाय और आधुनिक हिंदी साहित्य के इतिहास से ले कर, हिंदी समुदाय के राष्ट्रवाद का विश्लेषण करता है.

आलेख का पूरा अर्थ समझने के लिए उसे दो बार पढ़ा. उनकी हर बात से सहमत होना संभव नहीं, लेकिन यह मानना पड़ेगा कि उन्होंने अपनी बात को उसके ऐतिहासिक संदर्भ से ले कर, आज तक के विकास तक, बहुत खूबी से व्यक्त किया है. लेख पढ़ते हुए कई बार मन में आया कि काश वह यहीं कहीं आसपास रहते तो उनके साथ बहस करने में कितना आनंद आता!

हँस को इस लम्बे आलेख को पूरा छापने की लिए धन्यवाद.

शनिवार, अगस्त 21, 2010

अंतिम श्रद्धाँजलि - राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त

टिप्पणीः यह आलेख स्व. डा. सावित्री सिन्हा के आलेख संग्रह "तुला और तारे", (नेशनल पब्लिशिंग हाउस दिल्ली, 1966) से है. दद्दा (राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त) का देहांत 12 दिसंबर 1964 में हुआ.

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India's national poet Maithili SharanGupt
उस दिन दद्दा की विदा के बाद हम सबका मन भारी हो रहा था. स्टेशन के वेटिंग रूम में थोड़ी देर के लिए उनके गले में जलन सी होने लगी थी, इसलिए हमारी चिन्ता और भी बढ़ गयी थी. रात में दो तीन बार आँखें खुल गयीं. सुबह तड़के ही मुझसे रहा न गया और झाँसी के लिए ट्रंककाल बुक करवायी, न जाने मन में कैसी कैसी दुश्चिताएँ उठती रहीं, परन्तु टेलीफोन एक्सचेंज की कृपा से काल झाँसी नहीं, राँची की मिली, वह भी ग्यारह बजे दिन को. मेरे क्लास का समय हो रहा था इसलिए विवश हो कर उसे कैंसल करवाना पड़ा. पत्र लिखने की सोच रही थी कि ज्वरग्रस्त हो गयी और फ़िर उसी ज्वर में खबर मिली कि दद्दा नहीं रहे. जीवन की कुछ अमूल्य निधियों में मेरे लिए सबसे गौरवपूर्ण निधि दद्दा का अकारण स्नेह था. कहाँ मैं, एक अकिंचन, महत्वहीन तुच्छ व्यक्ति, और कहाँ भारत के महान राष्ट्रकवि के वात्सल्य का अगाध समुद्र. आज लग रहा है जैसे मेरी अपात्रता और अकिंचता ने ही मुझे उस अपार वैभव से वंचित कर दिया है. न जाने कौन सा सूत्र पिछले तीन दिनों से दद्दा के लिए बैचेन कर रहा था. निधन का समाचार कान में पड़ते ही मैं भरे बुखार में रजाई छोड़ कर उठ खड़ी हुई, डा. नगेन्द्र के घर फोन किया, मालूम पड़ा कि जब से चिरगाँव से ट्रंककाल आयी है, डा. साहब कमरा बन्द किये बैठे हैं. डा. विजयेनद्र स्नातक जी के यहाँ फोन किया तो मालूम हुआ उन्हें यह सन्देश डा. साहब के यहाँ से ही मिला था. मेरी अस्वस्थता और रुग्णता के कारण मुझे खबर नहीं दी गयी. मन किया किसी तरह चिरगाँव उड़ जाऊँ. दद्दा के अन्तिम दर्शन तो मिल जायेंगे, परन्तु फोन से पता चला कि उनकी अन्त्येष्टि क्रिया के लिए निर्धारित समय तक पहुंचना सम्भव नहीं है. और फ़िर दद्दा की बातें, उनकी हँसी, उनके लाड़ दुलार, कानों में गूँजते रहे, उनकी तस्वीर आँखों के आँसुओं के साथ उभरती रही.

दद्दा की त्रयोदशी में सम्मिलित होने के लिए दिल्ली से एक स्पेशल बोगी का प्रबन्ध हो गया था. यात्रियों में से अधिक ऐसे थे जिन्हें दद्दा चिरगाँव आने का निमन्त्रण दे गये थे, पर अपने अतिथियों को हाथों हाथ लेने वाला अतिथेय, अपने स्वभाव और संस्कार के विरुद्ध सबको अपने घर बुला कर स्वयं अदृष्य हो गया था. रात को लगभग डेढ़ बजे गाड़ी झाँसी पहुँच गयी, और वहीं हमारा डिब्बा कट गया. झाँसी का स्टेशन फ़िर अपने साथ अनेक स्मृतियाँ ले कर सामने खड़ा हो गया. पिछली दो बार जब हम आये थे, दद्दा स्टेशन पर आतुरता से हमारा इन्तजार करते हुए मिले थे, उनके चेहरे पर उमड़ता हुआ वह आह्लाद, वह स्फटिक सा व्यवहार आज इस लेखनी में कैसे बाँधू -
"छिन्न भी है, भिन्न भी है हाय,
क्यों न रोवे लेखनी निरुपाय?"
जितनी देर हमारे सामान इत्यादि की व्यवस्था होती रही, दद्दा वहीं प्लेटफार्म पर पड़ी हुई लकड़ी की बैंच पर बैठे रहे, और आते जाते लोग उनके सामने सिर झुका झुका कर जाते रहे. जनता का यह नमन किसी खद्दरधारी राजनीतिज्ञ के प्रति नहीं था, उनकी श्रद्धामयी आँखों में और मुग्ध भावाभिव्यक्ति में भक्ति का आह्लाद ही था आतंकजन्य विनय नहीं. एक जीर्ण शीर्ण वस्त्रधारी भिखारी दद्दा के चरणों के पास आ कर साष्टांग प्रणाम करके लेट गया, उनकी दयार्द्र आँखों ने उसे कुछ दिलवा कर विदा किया, एक अर्ध विक्षिप्त सा व्यक्ति बाल बिखराये उनके निकट आ कर प्रलाप करता रहा, और दद्दा बड़ी सहिष्णुता और सुहानुभूति के साथ उसे देखते और उसकी बात सुनते रहे. मैंने कई बार बड़े बड़े मठाधिकारियों और धर्म के संरक्षकों का व्यवहार इस वर्ग के प्रति देख रखा था. पीड़ित दुखी जनता के प्रति उनकी दुरदुराहट की तीव्र प्रतिक्रिया के फ़लस्वरूप ही मेरा मन मिशनों, धर्म संस्थाओं और आध्यात्मिक व्यक्तित्वों से विमुख हो गया है, पर उस दिन स्वच्छता और छूत पाक के वैष्णव विधान पर पूर्ण विश्वास करने वाले दद्दा का वैष्णव नहीं केवल मानव रूप देखा. आज झाँसी के उसी महामानव और हिन्दी संसार के दद्दा के स्नेहपूर्ण स्वागत के बिना स्टेशन भाँय भाँय कर रहा था.

हिन्दी के प्रसिद्ध उपन्यासकार श्रद्धेय वृन्दावनलाल वर्मा के प्रेस में हमारे भोजन की व्यवस्था थी. निःशब्द भोजन चल रहा था जैसे यह कोई यांत्रिक काम था जिसे किसी तरह पूरा करना था. ग्रास थाली से हाथ में आ कर मुँह में जा रहे थे और पिछली बार झाँसी की हवेली में भोजन करते हुए दद्दा के स्नेहपूर्ण आग्रह कान में गूँज रहे थे. श्रुतिपुट से आयी दद्दा की स्मृतियाँ पलकों में न समा सकने के कारण आँसू बन कर बिखर रही थीं.

भोजनोपरान्त, हम बस में बैठ कर चिरगाँव चले. चारों ओर की हरियाली भरी पहाड़ियों का हमारे लिए कोई अर्थ नहीं था, अतीत के मौन ताने बाने में बस की घरघराहट और आसपास का शोर गुल जैसे लुप्त हो गया था और फ़िर उसके बाद हम बेतवा के बाँध पर आये. यह स्थान दद्दा को बहुत प्रिय था, मेरे मानस चक्षु के सामने दद्दा बोल रहे थे, "पंडित जी (पं. जवाहरलाल नेहरू) को यह स्थान बहुत अच्छा लगा था, वे इसे देख कर भाव विभोर काफ़ी देर तक खड़े रहे, हमारे मना करते करते भागते दौड़ते वहाँ .. वहाँ.. दूर तक पहुँच गये थे." उस दिन दद्दा बेतवा के किनारे खड़े हो कर दिवंगत राष्ट्रनायक को भरे गले से याद कर रहे थे और आज राष्ट्रकवि के अभाव में बेतवा की पछाड़ खाती लहरों के निकट ठहरने का हमें साहस नहीं हुआ. उदास और क्लांत हृदय यात्री बस से उतर पैदल मौन गुप्त बंधुओं की प्रसिद्ध बखरी की ओर चले, "चिरगाँव की शोभा" को झुक झुक प्रणाम करने वाली, हाट की जनता हमारी ओर उदास नेत्रों और म्लान मुख से देख रही थी, जैसे उन्हें यह पूछने की आवश्यकता ही नहीं थी कि हम वहाँ किस उद्देश्य से गये हैं. बखरी के फाटक पर गम्भीर विषाद से युक्त गिरधारी ने मौन विनयाचार में हाथ जोड़े, उसके होंठ सिहरे और आँखें आँसुओं से भर आयीं. गुप्त बंधुओं की पुश्तैनी बखरी मौन साधे सविषाद पाषाण बनी खड़ी थी, हमारे पहुँचते ही प्रस्तर मूर्तियों की तरह निश्चल खड़े दद्दा के स्वजन यन्त्रवत चल कर निकट आये और फ़िर बखरी में कुहराम मच गया, दद्दा के पुत्र उर्मिल जी डा. नगेन्द्र के अंक में मुँह छिपा कर क्रन्दन कर उठे और फ़िर सारी बखरी में रुदन और विलाप का स्वर छा गया.

हिम्मत नहीं होती थी अंदर जाने की. "गौरवमंण्डित सुहागनी" के करुण वैधव्य का सामना करने का साहस मुझे नहीं हो रहा था, मैं बड़ी हिम्मत करके अन्दर गयी और जिया के वलयशून्य हाथों ने मुझे लपेट लिया, उनकी आँखों से निरन्तर आँसू बहते रहे, साकेत की "मूर्तिमति ममता माया" आज अपना मुँह अवगुण्ठन में लपेटे वटवृक्ष की छाया से छिन्न लता सी क्लांत, शिथिल हो रही थी. शान्ति, दद्दा की पुत्रवधू अपनी गोद में नन्ही सी बिटिया को लिए बिलख रही थी.

श्राद्ध पूरा हुआ. होम का धूँआ सारी बखरी पर छा गया, जिया ने लाल जोड़ा उतार कर श्वेत वस्त्र धारण किया और गु्प्त कुल की बखरी की दीवारें जैसे सिर धुन धुन कर रोने लगीं. उसके इतिहास का उज्जवलतम अध्याय अब नये चरण में प्रवेश कर रहा था, वह माई का लाल जिसने पितृव्यों को भौतिक ऋण से मुक्त किया था, अपने कुल के उपास्यदेव राम की नयी प्रतिष्ठा द्वारा उनका आध्यात्मिक ऋण चुकाया. जिसकी वाणी से सारा राष्ट्र प्रेरणा स्फूर्त हो उठा आज इस बखरी से सदा के लिए विदा ले चुका था. शेष रह गयी थी मस्तिष्क में एक दूसरे को ढकेलती हुई उसकी असंख्य स्मृतियाँ, उसकी दिव्य साधना के भौतिक अवशेष.

दर्शक उनके शयन कक्ष, अध्ययन कक्ष और बैठक के सामने सिर नवा कर अपनी श्रद्धा अर्पित कर रहे थे और मेरे मानस चक्षु के सामने दद्दा बोल रहे थे, "यह देखिए सावित्री जी, इसी कमरे में दोपहरी बिताता हूँ, पीछे का दरवाजा खोल देता हूँ, खूब अच्छी हवा आती है. यह ऊपर वाला कमरा मैंने जब विनोबा जी आने वाले थे तब बनवाया था ..बहुत दिल्ली देखी है, जरा गवंई गाँव भी देखिए."

और फ़िर चिरगाँव की शोकसभा का अविस्मरणीय दृश्य, बूढ़े बच्चे, चिरगाँव की अवगुण्ठनवती स्त्रियाँ और झाँसी की जाग्रत महिलाएँ सब आँसू बरसाते, श्रद्धा के सुमन चढ़ाते हुए. वहाँ का दृश्य देख कर साहित्यिक मनीषियों और कवियों के शब्द चुक गये. सर्वेश्वर दयाल की कविता के पाठ पर बूढ़ों की पुरानी पीढ़ी करुण आर्द्रता से सिर हिलाती रही, अज्ञेय का वक्तव्य भीड़ पर छा गया. एक युग समाप्त हुआ, इतिहास का एक पृष्ठ पलट गया, हिन्दी का सबसे बड़ा स्तम्भ गिर गया. नये और पुराने, बूढ़े और जवान, कृषक और कवि, स्त्री और पुरुष, एक भाव, एक रस में निमग्न हो गये, सब करुणा प्लावित, सब असहाय.
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मैथिलीशरण गुप्त की मूल तस्वीर कविताकोष के साभार

रविवार, अगस्त 15, 2010

पूज्य दद्दा अंतिम बार

भारत के राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की, उनके अवसान से कुछ दिन पहले की, अंतिम दिल्ली यात्रा का संस्मरण स्व. डा. सावित्री सिन्हा की कलम से

जिसकी मुक्त आत्मीयता हर व्यक्ति के लिए एक खुली पुस्तक हो, उस व्यक्ति के अन्तरंग क्षणों का वैशिष्ट्य व्याख्या विश्लेषण की अपेक्षा नहीं रखता. परन्तु इस बार दद्दा के दिल्ली प्रवास की संक्षिप्त अविधि में कई बार ऐसा भास हुआ जैसे उनकी स्निग्ध आत्मीयता और कातर आर्द्रता जाने अनजाने ही बहुत बार हृदय के किसी बड़े ही अन्तरंग अंश को छू जाती है, सामान्य सहज से अधिक वह विशिष्ट आर्द्र हो उठती है.

Rashtrakavi Mailisharan Gupt, India
दिल्ली में दद्दा का निवास स्थान, 35 मीना बाग, इधर बहुत दिनों से वह संगम स्थल बन गया था, जहाँ दिल्ली की भागदौड़ में महीनों और बरसों एक दूसरे से न मिलने वाले व्यक्ति बरबस ही मिल जाते थे. साहित्य अकादमी, विश्व विद्यालय, आकाशवाणी, सरकारी दफ्तर और प्राईमरी स्कूल तक के छोटे से छोटे और बड़े से बड़े प्रतिनिधि वहाँ एक धरातल , एक स्तर पर मिलते थे. इस बार दद्दा के आने के साथ ही दिल्ली के इन सभी वर्गों के व्यक्ति इस संगम की ओर दूने उत्साह और वेग से आने जाने लगे थे, क्योंकि इस बार दद्दा संसद सदस्य के नहीं दिल्ली के अतिथि के रूप में आये थे. ऐसे अतिथि के रूप में, जिससे मिलने को उत्सुक श्रद्धालुओं के स्वागत में एलेक्ट्रिक मिक्सर में बनी हुई काफ़ी, बीकानेरी भुजिया और मिठाई का सतत दौर चलता रहता था. जिया के हाथों की बनी हुई मट्ठी और लड्डू के स्थान पर राजस्थानी अतिथेय श्री रामेश्वर टाँटिया द्वारा निर्धारित मीनू के इस परिवर्तन पर ध्यान सबका गया परन्तु डा. नगेंद्र का पाँच वर्षीय दौहित्र वर्तमान में अतीत को नहीं भुला सका. उसे तो दद्दा के घर में हर रोज लड्डू ले कर तोड़ फोड़ कर खाने खी आदत पड़ी हुई थी. उसने जोर जोर से चिल्लाना शुरु कर दिया, "लड्डू चाहिए, लड्डू चाहिए". दद्दा सामान्यतः इस प्रकार की ज़िद्द के प्रति थोड़े सहिष्णु हो उठते थे, पर उस दिन उसे बड़ी देर तक बहलाते फुसलाते रहे. उनके स्वर की आर्द्रता और नेत्रों के वात्सल्य से ऐसा लग रहा था जैसे बच्चों को बहलाने के लिए दद्दा स्वयं बच्चा बन गये हों. मैं मौन, मुग्ध नेत्रों से वयोवृद्ध राष्ट्रकवि का बाल रूप देखती रही.

एक दिन जब हम उनके यहाँ पहुँचे दद्दा वात्स्यायन जी के यहाँ जाने को व्यग्र थे. बाबू गंगाशरण सिंह जी के साथ उन्हें जाना था जो किसी मीटिंग में व्यस्त हो जाने के कारण समय पर नहीं आ पाये थे. गंगा बाबू के आते ही उनके मुख पर ऐसी सहज प्रसन्नता दौड़ गयी जैसे किसी बालक को मिठाई मिल गयी हो. हर्षातुर हो कर उन्होंने मुझसे फ़ोन द्वारा कपिला से उनके घर का पता और उसका रास्ता पुछवाया. चलने से पहले मैंने खूब अच्छी तरह से उन्हें रास्ता समझा दिया, पर सत्य मार्ग के आसपास 45 मिनट तक चक्कर लगा कर वे लौट आये. उनके मुँह पर ऐसी कातरता थी जैसे मिठाई हाथ से छिनने पर कोई बालक रुँआसा हो गया हो. मुझे उलाहना सा देते हुए बोले, "मैं कह रहा था सावित्री जी आप चलिए हमारे साथ, आप नहीं गयी इसीलिए हमें रास्ता नहीं मिला." उस शाम को काफ़ी देर तक वे अपनी सहज प्रफुल्ल मनःस्थिति में नहीं आ सके.

दद्दा जैसे इस बार दिल्ली में हर परिचित व्यक्ति से मिल कर जाने का निश्चय करके आये थे. "अमुक का कोई कार्य अड़ा हुआ है, वो आ जाता तो शायद मैं कुछ कर सकता", न जाने कितने फ़ोन कराये. अमुक बड़ा दुखी है उससे मिलना चाहता हूँ, अमुक का पत्र मेरे पास चिरगाँव गया था, वह मिल जाता तो अच्छा था, अमुक को मेरे आने का पता नहीं है, अमुक दिल्ली से बाहर है उससे नहीं मिल सका, इत्यादि, इत्यादि. अतिशय भावनामयता की इन घड़ियों के अतिरिक्त दद्दा खूभ प्रसन्न और स्वस्थ रहे. वही खुली हुई हँसी, विनोद हास्य, छेड़ छाड़, चुभते हुए संस्मरण, हँसाने वाले चुटकले, जो छोटो को विश्वास और साहस देते थे, और उनके मित्रों को मनोरंजन की सामग्री. उस दिन डा. नगेन्द्र के रस सिद्धांत ग्रन्थ के विमोचन समारोह के बाद दद्दा बहुत प्रसन्न थे. सेठ गोविन्ददास और श्री नरेंद्र शर्मा समारोह से लौटते समय उन्हीं के साथ कार में आये. रास्ते भर दद्दा अपने सरल आर्द्र शब्दों में सेठ जी को सान्तवना देने का प्रयास करते रहे. कई सन्तानों को अपने हाथ से पृथ्वी में सुला देने वाले पिता के हृदय का मौन क्रन्दन जैसे स्वतः ही उनके कण्ठ में हिल हिल उठता था, उधर जवान पुत्र की मौट से विषण्ण पिता के मुख पर करुणा साकार हो रही थी. अन्ततः दद्दा बोले, "तुम मेरी कविता 'सान्त्वना' पढ़ो उससे तुम्हारा मन अवश्य स्थिर होगा, सावित्री जी, उच्छवास (जिसमें सान्त्वना कविता छपी है) की अपनी कापी इनके पास भिजवा दें, मैं आप को और भेज दूँगा." "तुम" सम्बोधन उस व्यस्क मित्र के लिए था जिसके करुणा विगलित हृदय की द्रवित व्यथा को दद्दा बाँट लेना चाहते थे और "आप" सम्बोधन उस व्यक्ति के प्रति जिसे उन्होंने पिता का सा वात्सल्य और स्नेह दे कर कृतकृत्य कर दिया था. शायद दद्दा की सामन्तीय कुलीनता, वैष्णव शील और मर्यादा के संस्कार का आग्रह नारी के प्रति "आप" सम्बोधन का स्थान "तुम" को नहीं लेने देता था. सेठ जी को उनके निवास स्थान पर छोड़ कर हम मीना बाग़ आये. घर आते आते दद्दा स्वस्थ और प्रकृतिस्थ हो चुके थे जैसे जानबूझ कर वे हमारे मन पर छा गये अवसाद को दूर करने का प्रयास करते रहे.

विविध प्रसंगों पर चर्चा होते होते बात कविता में प्रयुक्त लय और छन्द विधान पर पहुँची. मैंने नरेन्द्र जी से एक प्रश्न पूछ लिया, "गीतों की रचना करते समय आप का ध्यान लय की गेयता पर रहता है या मात्राओं की संख्या पर?" इसी प्रसंग को स्पष्ट करने के लिए दद्दा ने दर्जनों संस्कृत के श्लोक सुनाये, हिन्दी में उनका अनुवाद किया, उनमें निहित सौष्ठव और लय तथा छन्द के अन्योन्याश्रित सम्बन्धों को स्पष्ट किया. घण्टे डेढ़ घण्टे हम उनकी बातों में विभोर, तन्मय मुग्ध रहे. इस आयु में यह स्मरण शक्ति! लड़ी में पिरोई हुई मुक्ताओं के समान श्लोक उनके मुख से निकलते रहे और कक्षा के लिए आवश्यक उद्धरणों को भी याद कर सकने में असमर्थ मैं उनकी स्मरण शक्ति पर अवाक् आश्चर्यान्वित होती रही.

जिस दिन दद्दा को जाना था उसके एक दिन पहले कुछ परिस्थितियोंवश मैं मीना बाग नहीं पहुँच पायी. दूसरे दिन जब हम पहुँचे दद्दा का सामान बँध चुका था. उनकी गाड़ी यद्यपि साढ़े नौ के लगभग छूटती थी, परन्तु शीत का आधिक्य और कुछ दूसरे कारणों से उन्होंने जल्दी स्टेशन पहुँचने का निर्णय कर लिया था. मुझे देखते ही बोले, "कल मैं आप के लिए बड़ा दुखी रहा. कई बार फ़ोन किया पर वह भी न मिला." मैं भावविमूढ़, ठगी सी उनका मुँह देखती रह गयी. आज दद्दा होते तो यह वाक्य अपने मित्रों के बीच दुहरा कर मैं कितनी बार गौरावान्वित होती, पर अब तो वह हृदय में एक फाँस बन कर समाया हुआ है जिसकी चुभन जिन्दगी भर न मिट सकेगी.

नयी दिल्ली स्टेशन पर हम उन्हें पहुँचाने गये. पटना विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष डा. देवेन्द्र शर्मा, डा. दशरथ ओझा, डा. नगेन्द्र और कई व्यक्ति साथ थे. स्टेशन पहुँचते ही मुझे अलग बुला कर धीरे कहा, "मेरे पास रुपये काफी हैं, इसलिए सामान पर ध्यान रखियेगा." डा. साहब के पास जा कर उनके कान में भी यही बात कही. पर उसकी हमें अधिक चिन्ता नहीं थी, क्योंकि गिरधारी जैसा स्वामीभक्त और सतर्क परिचारक और सजग प्रहरी उनके साथ था. वेटंग रूम में काफी देर तक मैं उनके साथ अकेली रही. अभिनव कुर्सियाँ खीचता, शोर मचाता, और मुँह से सीटी बजा कर रेलगाड़ी चलाता रहा, दद्दा उसको देखते रहे और बोले, "बड़ा ही चंचल है यह." फ़िर न जाने कैसे उन्हें मेरे पुत्र अन्नु की याद आ गयी. बड़ी कोमलता से कहा उन्होंने, "अन्नु तो अब बड़ा हो गया है, अब वह हम लोगों की परवाह नहीं करता. वह भी छोटेपन में बड़े हज़रत थे. इस बार उसको नहीं देख सका." दद्दा के मन में पौत्र देखने की साध छिपी हुई थी. बातों ही बातों में कहने लगे, "मेरे सामने उर्मिल जी का एक भी लड़का हो जाता तो अच्छा था, पर मेरे यहाँ तो एक और देवी अवतरित हुई है." मैंने कहा "दद्दा! चार पौत्रियाँ पा कर तो आप अब पूरी तरह से विदेह हो गये हैं." दद्दा के ठहाके से सारा वेटिंग रूम गूँज उठा. आज सोचती हूँ न जाने किस मनहूस घड़ी में मेरे मुँह से यह शब्द निकला था. मेरे होठों में मन्थरा बैठ गयी थी क्या! विभिन्न शब्द शक्तियों की अर्थवत्ता के वैपरीत्य की इतनी कठोर, यथार्थ और तीक्ष्ण अनुभूति शायद ही कभी किसी को हुई होगी. श्लेष का इतना क्रूर मजाक शायद ही किसी ने झेला होगा.

थोड़ी देर में फ़िर बोले, "सावित्री जी! अब की दिसम्बर की छुट्टियों में आप चिरगाँव आइये, चार पाँच दिन रहिये निश्चिंत हो कर, कार मे सारा बुन्देलखण्ड घूमेंगे." कुछ देर रुक कर बोले, "आप को विश्वास नहीं आयेगा, मुझे आप की चिरगाँव में बहुत बार याद आती है, कुछ संस्कार होंगे हमारे आप के", और उनकी आँखों से आँसू टप टप गिरने लगे, मैं कृतकृत्य, अभिभूत भावावेश को गले और आँखों में सम्हाले मौन सिर झुकाये रही, आँख उठा कर उनकी ओर देखने का साहस भी नहीं हुआ. वात्सल्य का अपार समुद्र मेरी झोली में भरकर दद्दा संयत हो गये, मैं उसी में अवगाहन करती डूबती उतरती रही. गाड़ी चलने का समय हुआ, डा. नगेन्द्र को उन्होंने मोहाकुल आलिंगन में बाँध लिया, अभिनव को प्यार किया, सबसे विदा ली और मेरे भर्राये हुए चेहरे को देख सिर पर हाथ रख कर मौन आशीर्वाद दिया, बोले, "अब आप लोग जाइये, बहुत देर हो गयी है, सर्दी भी बहुत हो रही है. हमारे चलने का भी समय हो गया है." एक स्निग्ध दृष्टि उन्होंने हम सब पर डाली और कम्पार्टमेण्ट का दरवाजा खींच दिया. हमें क्या मालूम था कि वह हमारे लिए उस महानायक के जीवन नाटक का अन्तिम पटाक्षेप था.
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टिप्पणीः यह आलेख डा. सावित्री सिन्हा के आलेख संग्रह "तुला और तारे", (नेशनल पब्लिशिंग हाउस दिल्ली, 1966) से है. दद्दा (राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त) का देहांत 12 दिसंबर 1964 में हुआ.

मैथिलीशरण गुप्त की मूल तस्वीर कविताकोष के साभार

शनिवार, अगस्त 14, 2010

जिया, राष्ट्रकवि की प्रेरणा

टिप्पणीः यह आलेख मेरी बड़ी बुआ स्व. डा. सावित्री सिन्हा की पुस्तक तुला और तारे से है जो 1966 में नेश्नल प्रिन्टिंग प्रेस द्वारा छपी थी, जब वह दिल्ली विश्वविद्यलय के हिन्दी विभाग की रीडर थीं. मेरे विचार में यह आलेख 1963 तथा 1964 के बीच में लिखा गया, क्योंकि इसको लिखते समय मैथिलीशरण गुप्त के अनुज सियाराम शरण गुप्त की मृत्यु हो चुकी थी जो 1963 में हुई.

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त के बारे में कुछ जानकारी इंटरनेट पर उपलब्ध है, जिनमें उनके माता पिता के नाम तो हैं तो लेकिन उनकी पत्नी, यानि इस आलेख की नायिका "जिया" का नाम नहीं मिला मुझे. गुप्त जी के काव्य में उपेक्षित उर्मिला की बात तो होती है, लेकिन उनकी अपनी उर्मिला को भूलने वाली भी क्या वही बात नहीं?

जिया

लगभग दस वर्ष पूर्व छः, नार्थ एवेन्यू की बैठक में घुसते ही स्क्रीन की आड़ में खड़ी एक नारी मूर्ती की ओर अनायास ही मेरी आँखें उठ गयीं, और मैं अपने आप ही समझ गयी कि यह "जिया" हैं. ग्रामवधु की सहज मुस्कान, स्निग्ध आर्द्र वात्सल्यमयी आँखें, गौरवान्वित भावाभिव्यक्ति, पर अभिमान और दम्भ का स्पर्श नहीं - साकेत की "मूर्तिमती ममता माया" ही जैसे मेरे सामने खड़ी थी. मुझे देखते ही मुस्कान का स्थान, मृदुल हास्य ने ले लिया और फ़िर हँसते हुए हाथ जोड़ कर उन्होंने मुझे नमस्ते किया - सब कुछ एक क्षण में हो गया और मैं स्तम्भित खड़ी रह गयी. क्या कहूँ, क्या करूँ ? संकोशवश बिना कुछ बोले केवल नमस्कार कर सकी. उनके प्रथम दर्शन की वह झलक मेरे मानस पर जैसे स्थायी हो गयी है. शुद्ध खद्दर की केसरिया साड़ी उनके त्यागपूर्ण गौरव भरे सुहाग की कहानी कह रही थी. गले में पड़ी हुई सोने की जंजीर के साथ तुलसी की कण्ठी में, मानो उच्चकुल वधू का गरिमापूर्ण पत्नित्व और यशोधरा की वैष्णव भावना एक दूसरे को बल देते हुए साकार थी. माथे पर लगी चमकती हुई बिंदिया पर सुनहले अक्षरों
Jiya - Maithili Sharan Gupt
में अंकित "सीताराम" शब्द बार बार चमक कर यह घोषित करना चाहता था कि "पति का इष्ट ही उनका इष्ट है, उनके गौरव से ही उनका सुहाग मण्डित है." पैरों में पड़ी हुई हल्की सी चाँदी की पायल, पैर की उँगली में सुहाग चिन्ह बिछुये, हाथों की लाल काँच की चूड़ियाँ और लाल सिन्दूर से भरी माँग को देख कर साकेत की "सुहागनियों" और यशोधरा के व्यक्तित्व के सभी अंश आँखों में उमड़ आये जिन्हें दद्दा ने बार बार दोहराया है और महत्ता दी है. मुझे ऐसा लगा जैसे मैं दद्दा द्वारा निर्मित त्यागमयी नारियों को उनकी प्रौढ़ावस्था में देख रही हूँ, जिनके त्याग, समर्पण, सेवा और आत्मदान की परिणति कुण्ठा, हीनभाव और स्नायविक विकृतियों में नहीं, आनन्द और सुख में होती है.

यदि मैं यह कहूँ तो अतिशयोक्ति न होगी कि दद्दा की नारी भावना का व्यवहारिक मूल्य मैंने जिया के सम्पर्क में आ कर ही जाना. हो सकता है इसका कारण यह भी हो कि समय के साथ साथ प्रौढ़ता प्राप्त करने के कारण भी नारी के जीवन मूल्यों के सम्बन्ध में मेरी धारणाओं में परिवर्तन आया हो. नारी सम्स्याओं के विषय में जब कुछ सोचने समझने की बुद्धि आयी उसी समय मैंने महादेवी जी की "श्रृंखला की कड़ियाँ" नामक पुस्तक पढ़ी थी. पुरुष जाति की नृशंसता, कठोरता, शोषण प्रवृति, दमन नीति इत्यादि के विरुद्ध मेरी प्रतिक्रियाएँ बड़ी विद्रोहात्मक हुआ करती थीं, और वादविवाद प्रतियोगिताओं और बहसों में भी नारी की ओर से पुरुषों के "जिहाद" का झण्डा उठा कर चलना चाहती थी (पर समय के साथ ही साथ अकल ठिकाने आ गयी) ऐसी स्थिति में गुप्त जी नारियों को आदर्श रूप में स्वीकार करना मेरे वश की बात नहीं थी. मुझे बराबर यही लगता था कि काव्य की उपेक्षिताओं का जो "उद्धार" गुप्त जी ने किया है वह अव्यावहारिक, काल्पनिक और यथार्थ से परे है, उनके व्यक्तित्वों में जो आदर्शोन्मुख है उसी के कारण नारी जाति पतन के गर्त में गिरी है, उनके मानसिक व्यक्तित्व की शक्ति भौतिक शक्ति और शारीरिक क्षमता के अभाव में अर्थहीन है.

जिया के दीर्घकालीन सम्पर्क में आने के बाद, जैसे धीरे धीरे मेरी आँखौं के सामने से भ्रम का उठता हुआ परदा, एक वेग से उठ गया, और मुझे पूर्ण विश्वास हो गया कि "नारी" के इस उद्धार में दद्दा की प्रेरणा अतीतोन्मुखी नहीं थी, परम्परा और भारतीय संस्कारों की लीक में बँध कर उसके व्यक्तित्व का निर्माण नहीं किया गया था, बल्कि भारतीय वांग्मय के इतिहास में शायद पहली बार दद्दा ने अपने युग की भारतीय संस्कारों में पली नारी की गरिमा और त्याग को महत्ता और अभिव्यक्ति दी थी. और इनके पीछे वह निरक्षर नारी थी जो अपने त्याग और आदर्श को जाने बिना ही अपने देवता की भावनाओं को इन गुणों के रस से सिक्त कर रही थी. गुप्त जी की चलाई हुई इस परम्परा का विकास "उर्वशी" की औशीनरी, "सुहाग के नूपुर" की कन्नगी तथा "बूँद और समुद्र" की वनकन्या में हुआ है, जहाँ उस पीढ़ी और वर्ग की भारतीय नारी के व्यक्तित्व में निहित धरती की सी शक्ति और महिमा को पहिचाना गया है. दद्दा ने जिस "प्रपत्ति" का चिंतन किया है, जिया ने उसे झेला है, अगर दद्दा ने उसका अनुभव किया है जो जिया के माध्यम से, ऐसा मैं विनयपूर्ण, पर निःसंकोच कह सकती हूँ.

दद्दा के दरबार में जब कभी तीन चार दरबारियों से अधिक भीड़ आ जाती, मैं जिया की रसोई में आश्रय लेती. वे दद्दा की बैठक के प्रसिद्ध लड्डू, मट्ठी और चटनी का प्रबंध करवातीं और मेरे लिए कुर्सी मंगा देतीं, परन्तु मुझे तो उनके पास पट्टे पर बैठना ही अच्छा लगता था. उनके पास बैठ कर इधर उधर की, खासकर दद्दा और बापू के विषय में बात करने में मुझे बड़ा आनन्द आता. मैं एक प्रसंग छेड़ देती और उससे सम्बद्ध छोटी छोटी कई घटनाएँ वह मुझे सुना देती. एक दिन मैंने उनसे पूछ लिया, "जिया, आप अपनी शादी में कितनी बड़ी थीं?" प्रश्न शायद अप्रत्याशित था, उनकी आँखें संकोच और शील मिश्रित स्निग्धता से भर उठीं. अपनी हँसी को रोकने के लिए उन्होंने आंचल का पल्ला मुख पर रख लिया और फ़िर संयत हो कर बुंदेलखँडी में अपने विवाह के समय की तीन चार घटनाएँ सुनायीं. अच्छा होता मैं उसे जिया की भाषा में ही सुना सकती, पर बुंदेलखँडी लिखने में मैं गलती अवश्य कर जाऊँगी, इसलिए स्मृतियों को अपनी भाषा में ही व्यक्त कर रही हूँ. इस प्रसंग से सम्बन्धित एक रोचक चित्र है, एक चौदह वर्षीय किशोरी, नववधु के रूप में, चिरगाँव के प्रसिद्ध श्रेष्ठीकुल की भारी गृहस्थी और वंशविस्तार के दायित्व का बोझ अपने कन्धों पर झेलने के लिए, गुप्त परिवार में प्रवेश करती है, पति गृह में होने वाली सब परिक्षाओं के लिए तैयार है. पर उससे यह कैसा प्रश्न पूछा जाता है. "तुम्हें पढ़ना लिखना आता है?" अवगुण्ठनवती बहु उत्तर में सिर हिला कर कहती है, "नहीं". प्रश्नकर्ता समझते हैं उसका उत्तर स्वीकारात्मक है. बहु असमंजस में पड़ जाती है और पढ़ने लिखने की परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो जाती है.

इसी प्रकार एक दिन "नारी के कवि" की पत्नी कि प्रतिक्रियाओं से अवगत होने की सहज इच्छा से प्रेरित हो कर मैंने पूछा, "जिया जब दद्दा अपनी किताबें लिखते थे तो आप को पता रहता था कि वह क्या लिखते हैं?" जिया अपनी सहज मुस्कान के साथ बोलीं, "मुझे तो इतना ही पता है कि जब ये छोटे थे तभी कवित्त बनाने लगे थे. सात आठ साल की उमर में ही इन्होंने कवित्त बना दिये तो मेरे ससुर बहुत खुश हुए थे, तभी लोग समझ गये थे कि आगे चलकर ये बहुत अच्छी कविता बनायेंगे. फ़िर तो इनने बहुतेरी किताबें बनायीं. एक में तो मेरे ससुर जी की फोटो भी लगी थी." मैंने पूछा, "अच्छा जिया, जब दद्दा कविता लिखते हैं तब आप को पता चल जाता है?" और उनका उत्तर तत्पर था, "हाँ घँटों बैठे सोचते रहते हैं, इधर उधर टहलते हैं, बार बार स्लेट पर लिख कर बार बार मिटाते हैं, ठीक करते हैं, देर देर तक काम करते रहते हैं." मैं जिया की ओर मुग्ध तन्मयता के साथ देखती हुई सोचती रही, क्या वन में सीता का सफ़ल गार्हस्थ, दद्दा जिया के योग के बिना जगा सकते थे? क्या परिवार के लिए सतत कार्यरत, जिया की विश्रामरहित दिनचर्या की प्रेरणा के बिना दद्दा की सीता "श्रमवारिबिन्दु फ़ल स्वास्थ्य शुक्ति फ़ल" बन सकती थी? क्या सीता का "अंचल व्यजन" का चित्रण करते समय जिया का "अंचल व्यजन" दद्दा के समाने नहीं होगा? मेरे ध्यान योग में उस समय दद्दा अकेले नहीं रह गये थे. शिरिष कुसुम से सूक्ष्म और कोमल पर रेशम के से दृढ़ सूत्रों में बँधा दद्दा का कवि व्यक्तित्व जिया के साथ मेरी आँखों में साकार हो उठा.

12 डी, फ़िरोज़शाह रोड, सीतानवमी का दिन. अन्नपूर्णा की रसोई से उठी हुई विविध प्रकार के व्यंजनों की सुगन्ध सारे घर में फ़ैल रही थी. पता नहीं किस प्रेरणा से उस दिन मैं सीधे जिया के कमरे की ओर ही चली गयी. जिया उस समय सद्य स्नान किये हुए पीताम्बर परिधान में पवित्रता में पगी हुई देवार्चन में लीन थीं. सामने देव सिंहासन पर सीताराम की युगल मूर्ती विराजमान थी. तुलसी का गमला साथ रखा हुआ था, और मूर्ति के निकट ही रामचरितमानस की प्रति फ़ूलों से ढकी हुई रखी थी. धूप, दीप, आरती और पूजा के अन्य उपकरणों के साथ वातावरण बड़ा शुभ्र और पवित्र हो रहा था, पास ही शान्ति, जिया की पुत्रवधु, मैना के साथ उमा सी खड़ी थी. पूजा में बाधा न पड़े, यह सोच कर मैं पैरों की आहट दिये बिना, पीछे ही दीवार से टिकी, अभिभूत हो कर जिया की पूजाविधि देखती रही. रामभक्त वैष्णव महाकवि की निरक्षर पत्नि जब रामचरित मानस पर सिर टेक कर ध्यान में लीन थी, मुझे आज की नारी की सारी साक्षरता और विद्वता तुच्छ जान पड़ रही थी. श्रद्धा, आस्था और विश्वास की गरिमा से वंचित हो कर रामचरितमानस की पंक्तियों का अर्थ निकालने और व्याख्या करने वाली नारी का ज्ञान मुझे इस आस्था के सामने सिर झुकाता जान पड़ा. इड़ा की हार और श्रद्धा का विजय जैसे अनायास ही आँखों के सामने घटित हो गयी. मेरे मन में आया, काश! पुरुष ने इस श्रद्धा और समर्पण का दुरुपयोग न किया होता.

एक दिन मन बहुत संतप्त था. मेरी एक शिष्या का छः वर्षीय पुत्र कई दिनों से अस्पताल में था. अस्पताल में ही उसने मुझसे काले शीशे की ऐनक की माँग की थी. ऐनक मेरे बैग में ही रखी थी और मुझे सूचना मिली कि उसकी मृत्यु हो गयी. मन और मस्तिष्क पर मृत्यु का अवसाद और उदासी छायी हुई थी. जिया ने मुझे देखते ही पूछा, "तबियत ठीक नहीं है क्या?" मैंने उन्हें बच्चे की बीमारी और मृत्यु का हाल सुना दिया. जिया के मुख पर जैसे छाया और अन्धकार की कुछ रेखाएँ उभर आयीं. अपनी दिवंगत सन्तानों की बीमारी और मृत्यु की स्मृतियाँ उनके मस्तिष्क में भी ताज़ी हो गयीं. एक पुत्र सुदर्शन की बातें करते करते उनका गला भर आया. वह कह रही थीं, "तुम्हारे दद्दा उसे बहुत प्यार करते थे. चौबीस घँटे अपने पास ही रखते थे. जब वह मरा तो बहुत देर तक उसके मुँह पर मुँह रख कर रोते रहे. फ़िर मैंने धीर बाँध कर अजमेरी जी पास संदेश भिजवाया (दद्दा के कुल की मर्यादा के अनुसार पत्नी सब के सामने पति से बात नहीं कर सकती थी) कि उनसे कह दें कि वे मरे मुरे के मुँह में मुँह न लगायें. मैं धीर धर रही हूँ तो वे भी धरें." जिया का यह वाक्य जैसे मेरे हृदय को बेध गया. मेरी दृष्टि जैसे चमक गयी. "राहुल" का दान देती यशोधरा में क्या जिया की यह शक्ति नहीं बोल रही थी?

जिया के प्रति बापू (स्व. सिया राम शरण गुप्त) का मर्यादापूर्ण व्यवहार देख और सम्मान का भाव देख कर उस देवर की याद आ जाती थी, जो अपनी भाभी के आभूषण ही पहचान सकता था. यह "लक्ष्मण" तो शायद अपनी अन्नपूर्णा भाभी के हाथों की चूड़ियाँ ही पहचान सकता, जो भोजन की थाली सामने रखते हुए अपने आप ही दिखाई पड़ जाती रही होंगी.

शनिवार, जुलाई 31, 2010

भाषा, लिपि और लेखनी

आजकल अक्सर हिंदी के शब्द अँग्रेज़ी यानि रोमन लिपि में लिखे हुए दिखने लगे हैं. ईमेल से या मोबाईल पर एस.एम.एस से या फ़िर गूगल टाक या फैसबुक पर चेट, बहुत सी बातें होती तो हिंदी में हैं लेकिन सहूलियत के लिए लिखी रोमन लिपि में जाती है. भारतीय नामों को अगर रोमन लिपि में देखा जाये तो अक्सर पता नहीं चलता कि उनका सही उच्चारण क्या है, क्योंकि अँग्रेज़ी भाषा तथा रोमन लिपि में बहुत से स्वर होते ही नहीं.

Artwork by Sunil Deepak on languages
कुछ साल पहले जर्मनी में रहने वाले एक भारतीय डाक्टर हमारे यहाँ बोलोनिया आये, नाम था गोपाल दाबड़े. तब वह यही कह रहे थे कि यहाँ यूरोप के लोग उनके नाम को कितनी अलग अलग तरह से कहते हैं. यानि अँग्रेज़ी भाषा के अलावा अन्य यूरोपीय भाषाओं को देखें तो दिक्कतें और भी बढ़ जाती हैं, क्योंकि बहुत सी भाषाओं में रोमन लिपि का ही प्रयोग होता है पर उनका उच्चारण अलग अलग है, जिससे दाबड़े का डाबड, डाबडे, दाबदे, दबदे, कुछ भी बन सकता है.

इन्हीं बातों के अनुभव से सोच रहा था कि क्या धीरे धीरे हमारी हिंदी के कुछ स्वर जो अन्य भाषाओं में नहीं होते, लुप्त हो जायेंगे?
वैसे तो एशिया में अन्य कई देश हैं, जैसे इंदोनेशिया, फिलिपीन, वियतनाम, जहाँ पर उनकी भाषा रोमन लिपि में लिखी जाती है, पर इससे उनकी भाषा ने अपने विषेश स्वर नहीं खोये. इसका एक कारण यह है कि इन देशों में आम जनता में अँग्रेज़ी बोलने वाले बहुत कम हैं, और वर्षों पहले जब इन्होंने रोमन लिपि को अपनाने का निश्चय किया तो उस समय रोमन लिपि की वर्णमाला की कमियों को पूरा करने के लिए एक्सेंट वाले वर्णों को लेटिन वर्णमाला से ले कर जोड़ लिया जिनका प्रयोग अन्य यूरोपीय भाषाओं में होता है जैसे कि à á â ã ä å. इस तरह उन्हें अपनी भाषा के विषेश स्वरों को लिखने के अन्य वर्ण मिल गये.

उदाहरण के लिए D Ð Ď d जैसे वर्णों से आप वियतनामी भाषा में द, ड, ड़, ध जैसे विभिन्न स्वरों को अलग अलग वर्ण दे सकते हैं, इसलिए जब वह रोमन लिपि में लिखते हैं तो भी अपनी भाषाओं के विषेश स्वरों के उच्चारण को संभाल कर रखते हैं. पर हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं के साथ ऐसा क्या कर सकते हैं जिससे उनकी बोली और विषेश स्वरों का रोमनीकरण न हो?

भाषा एक जैसी नहीं रहती, समय के साथ बदलती रहती है. वेदों, पुराणों, बाइबल, कुरान और अन्य प्राचीन ग्रंथों को भाषाविज्ञानी जाँच कर बता सकते हें कि कौन सा हिस्सा पहले लिखा गया, कौन सा बाद में जोड़ा गया.

भाषा समय के साथ क्यों बदलती है? इसकी एक वजह तो नये आविष्कार है, जिनके लिए नये शब्दों की ज़रूरत पड़ती है. जैसे कम्प्यूटर, ईमेल, इंटरनेट जो पहले नहीं थे, और इनसे जुड़ी बहुत से बातों के शब्द नये बने हैं. समय के साथ कुछ वस्तुओं का उपयोग कम या बंद हो जाता है, जैसे लालटेन, बैलगाड़ी आदि और इनके शब्द धीरे धीरे समय के साथ खो जाते हैं. जब छोटा था तो गुसलखाने में झाँवा होता था पाँव साफ़ करने के लिए लेकिन जब पिछली बार दिल्ली गया और छोटी बहन से पूछा कि क्या उसके घर में झाँवा मिलेगा तो वह हँसने लगी, बोली कितने सालों के बाद यह शब्द सुना है.

विद्वानों का कहना है कि भाषा के विकास का सम्बंध उसकी लिखायी से भी हैं.

बोलने वाली भाषा और लिखने वाली भाषा के बीच में क्या सम्बंध होता है इस विषय पर वाल्टर जे ओंग (Walter J. Ong) ने बहुत शौध किया है और लिखा है. उनकी 1982 की किताब ओराल्टी एँड लिट्रेसी (Orality and Literacy) जो इसी विषय पर है, मुझे बहुत अच्छी लगी. उनका कहना है कि मानव बोली का विकास तीस से पचास हज़ार साल पहले हुआ जबकि लिखाई का आविष्कार केवल छः हज़ार साल पहले हुआ. इस तरह से मानव भाषाएँ बोली के साथ विकसित हुईं. दुनिया की हज़ारों भाषाओं में से केवल 106 में लिखित साहित्य की रचना हुई. आज भी कई सौ ऐसी बोली जाने वाली भाषाएँ हैं जिनकी कोई लिपि नहीं है.

ओंग कहते हैं कि लिखने से मानव के सोचने का तरीका बदल जाता है. शब्दों के जो आज अर्थ हैं, पहले कुछ और अर्थ थे. बोले जाने वाली भाषा में जब नये अर्थ बनते थे, तो पुराने अर्थ धीरे धीरे गुम हो जाते थे. लेकिन जब से लिखाई का आविष्कार हुआ, शब्दों के पुराने अर्थ गुम नहीं होते, उन्हें खोजा जा सकता है. इसीलिए उनका कहना है कि पुरानी किताबों को पढ़ें तो उनका अर्थ समझने के लिए आज की भाषा का प्रयोग करना उचित नहीं. मैंने भी एक बार पढ़ा था कि ऋगवेद में वर्णित अश्वमेध, घोड़ों के वध की बात नहीं कर रहे हैं क्योंकि उस समय अश्व का अर्थ कुछ और भी था.

ओंग कहते हैं कि बोलने वाली भाषा में रची कविताओ़, कथाओं, काव्यों में एक ही बात को कई बार दोहराया जाता है, विभिन्न तरीके से कहा जाता है, मुहावरों का प्रयोग किया जाता है, क्योंकि इससे सुनने वालों को समझने में और याद रखने में आसानी होती है. इसी तरह से बोलने वाली भाषा के बारे में ही प्राचीन ग्रीस में भाषण देने की कला के नियम बनाये गये थे. बोलने वाले को इतना कुछ याद रखना होता है, जिससे उसकी सोच और तर्क का विकास भी सीमित रहता है. गीत, कविता में बार बार कुछ पंक्तियों को दोहराना, शब्दों की ताल, धुन खोजना, यह बोलने वाली भाषा के लिए ज़रूरी है. बोलने वाली भाषा में अमूर्त विचारों और तर्कों का गहन विशलेषण करना कठिन है, बात गहरी या जटिल भी हों तो उन्हे सरलता से ही कहना होता है, वरना लोग समझ नहीं पाते.

जबकि लिखने से मानव सोच को याद रखने की आवश्यकता नहीं, जरुरत पढ़ने पर दोबारा पढ़ा जा सकता है. इससे दिमाग को स्मृति पर ज़ोर नहीं देना पड़ता और वह अन्य दिशाओं मे विकसित हो सकता है. इसलिए विचार और तर्क अधिक जटिल तरीके से विकसित किये जा सकते हैं, कविताओं, कहानियों को भी दोहराव नहीं चाहिये, जिस दिशा में चाहे, विकसित हो सकती हैं और लेखक के लिखने का तरीका बदल जाता है. ओंग के अनुसार, इसी वजह से लिखने पढ़ने वाला मानव दिमाग विज्ञान और तकनीकी तरक्की कर पाया.

मेरे विचार में प्राचीन भारत में संस्कृत लिखी जाने वाली भाषा थी, हालाँकि अधिकाँश जनता संस्कृत लिखना, पढ़ना, बोलना नहीं जानती थी. दूसरी ओर हिंदी भाषा का विकास बोलने वाली भाषा की तरह हुआ. पिछले कुछ सौ सालों को छोड़ दिया जाये तो भारत के अधिकाँश लोगों के लिए हिंदी केवल बोलने वाली बोली थी, लिखने वाली नहीं. जब भारत स्वतंत्र हुआ तब भी पढ़ने लिखने वाले लोग भारत की जनसंख्या का छोटा सा हिस्सा थे. जब उसे लिखने लगे तो उससे उसके स्वरों तथा शब्दों में कुछ बदलाव आये. भाषा के लिखने से आने वाले अधिकतर बदलाव पिछले कुछ दशकों में ही आये हैं, जब भारत की अधिकाँश जनसंख्या शिक्षित होने लगी है, और लोग किताब पत्रिका पढ़ने लगे हैं. लेकिन क्या इस वजह से भारत के अधिकाँश लोगों के सोचने का तरीका अभी भी बोलने वाली भाषा पर टिका है, लिखी भाषा पर नहीं? और समय के साथ जैसे जैसे साक्षरता बढ़ेगी, भारतीय मानस के सोचने का तरीका इस बात से बदल जायेगा?

पिछले कुछ समय में, टीवी और टेलीफ़ोन के विकास से, बोलने और सुनने की संस्कृति बढ़ रही है, पढ़ने की कम हो रही है. दूसरी ओर, अवधी, मैथिली, भोजपुरी, जैसी भाषाएँ जो भूली जा रहीं थीं, लेकिन इंटरनेट की वजह से आज उन्हें भी नया जीवन मिल सकता है.

इन सब बदलावों के क्या अर्थ हैं, क्या प्रभाव पड़ेगा हमारी भाषा पर, उसके विकास पर? क्या रोमन लिपि में लिखी हिंदी कमज़ोर हो कर मर जायेगी, या रूप बदल लेगी? आप का क्या विचार है?

मंगलवार, दिसंबर 15, 2009

हिंदी, अवधी, मैथिली ... ओचितानो

नियती टेढ़े मेढ़े रास्तों से जाने कब किससे मिला देती है. ईमेल, ईंटरनेट आदि के आविष्कार से, नियती को टेढ़े मेढ़े बैलगाड़ी वाले रास्तों की जगह नये हाईवे मिल गये हैं .

कुर्बान अली से मेरी मुलाकात ईमेल के द्वारा हुई थी. स्वत्रंता संग्राम में नेता सुभाष चंद्र बोस के साथी, और बाद में समाजवादी पार्टी के डा. लोहिया जी के साथ जुड़े श्री अब्बास अली के पुत्र कुर्बान अली दिल्ली में पत्रकार हैं. कुर्बान की ईमेल के ही माध्यम से मेरी मुलाकात प्रोफेसर सत्यामित्र दुबे से हुई.

डा. राम मनोहर लोहिया पर लिखा प्रोफेसर दुबे का आलेख पढ़ा तो मैंने उन्हें ईमेल लिखा, उत्तर में उन्होंने बताया कि वह मेरे पिता को जानते थे, 1950 के दशक में वह मेरे पिता के साथ लखनऊ में समाजवादी पार्टी के अखबार "संघर्ष" के दफ्तर में साथ रहते थे. अरे, तभी तो मैं पैदा हुआ था, मैंने उन्हे लिखा. हाँ, मुझे याद है, उन्होंने उन दिनों के बारे में बताया. यह था नियती का खेल, पचपन सालों के बाद इस तरह हमें मिलवाना.

प्रफेसर दुबे के आलेख के साथ साथ, नवंबर 2009 के "इकोनोमिक और पोलिटकल वीकली" पर छपे डा. लोहिया के बारे में दो अन्य आलेख भी पढ़ने को मिले. यह आलेख लिखे हैं सुधँवा देशपाँडे तथा योगेंद्र यादव ने, और इनका विषय है डा. लोहिया का हिंदी को भारत राष्ट्रभाषा बनाने का आंदोलन. देशपाँडे जी का आलेख यादव जी के किसी आलेख के उत्तर में लिखा गया है, और यादव जी ने देशपाँडे की टिप्पणियों का उत्तर दिया है. इस बहस का विषय है भाषा के मामले में समाजवादी लोहिया की और वामपंथी विचारकों की सोचों में अंतर.

1950 तथा 1960 के दशकों में होने वाले "हिंदी लाओ" और "अँग्रेजी हटाओ" आंदलनों में अधिकतर सोच अँग्रेजी, हिंदी और दक्षिण भारतीय भाषाओं के बारे में थी. शायद हिंदी से अधिक मिलने वाली भाषाओं जैसे गुजराती, मराठी, बँगाली पर उतना विचार नहीं किया गया था? शायद इस बात पर अधिक विचार नहीं किया गया था कि "हिंदी लाने" का उत्तर भारत में बोली जाने वाली भाषाओं, अवधी, मैथिली, भोजपुरी, आदि पर क्या असर होगा? इस बहस में लोहिया पर आरोप लगाया गया है कि उनकी सोच में अन्य भारतीय भाषाओं के बारे में वही उपनिवेशवाद था जिसका आरोप अँग्रेज़ी पर लगाया जाता है, यानि नये बने देश भारत को एक बनाने के लिए अलग अलग भाषाओं की भिन्नता का बलिदान कर दिया जाये.

हिंदी या अंग्रेजी, कौन सी भाषा हो, इस विषय पर मैंने कुछ माह पूर्व ही, "अपनी भाषा" के शीर्षक से लिखी पोस्ट पर भी लिखा था.

***
इटली के विभिन्न प्राँतों में अलग अलग बोलियाँ बोली जाती हैं, और साथ ही एक राष्ट्रभाषा है इतालवी जो इटली के तोस्काना प्राँत की बोली थी और जिसे पूरे देश की भाषा बनाने का निर्णय लिया गया था. हम लोग पिछले दस सालों से बोलोनिया शहर में रहते हैं पर यहाँ की स्थानीय बोलोनियेज़ बोली मुझे समझ नहीं आती, हाँ अपनी पत्नी के उत्तरी इटली के प्राँत वेनेतो की बोली मुझे बोलनी तथा समझनी आती है.

बोलोनिया से बीस किलोमीटर दूर, ईमोला शहर है, जहाँ के लोग कहते हैं कि उनकी बोली बोलोनिया की बोली से भिन्न है. बोलोनिया में आने से पहले, दस साल तक हम लोग ईमोला भी रहे थे, पर मुझे उनकी ईमोला बोली भी समझ नहीं आती, और न ही मैं ईमोला तथा बोलोनिया की भाषा के अंतर को समझ पाता हूँ, मेरे कच्चे कानों को दोनों एक जैसी ही लगती हैं.

बोलोनिया और ईमोला, दोनो शहरों में अपनी स्थानीय बोलियों में किताबें छपती हैं, कवि सम्मेलन होते हैं, नाटक होते हैं, अपनी टीवी चेनल है जो स्थानीय भाषा में समाचार आदि देती है. लेकिन, विद्यालय या विश्वविद्यालय स्तर पर इन स्थानीय भाषाओं में कुछ नहीं पढ़ाया जाता, किसी सरकारी काम में इनका प्रयोग नहीं होता. अगर पिछले बीस सालों के बारे में सोचूँ तो मेरे विचार में इन स्थानीय भाषाओं को बोलने वाले कम होते जा रहे हैं, आज के कुछ बच्चे इन भाषाओं को समझते हैं क्योंकि उनके नाना‍ नानी या दादा दादी इन भाषाओं को घर में बोलते हैं, लेकिन वह स्वयं इन भाषाओं में बात नहीं करते. शायद गाँवों में रहने वाले बच्चे इन भाषओं को अधिक जानते हों? हाँ शहर में इन भाषाओं में बोलना अधिकाँश पिछड़ापन समझा जाता है.

एक तरफ़ से लोग चिंता कर रहे हैं कि इतालवी भाषा में अँग्रेज़ी के शब्द बढ़ते जा रहे हैं और दूसरी ओर, प्राथमिक विद्यालयों ने भी पहली कक्षा से ही अँग्रेज़ी पढ़ाने का निणर्य लिया है इसलिए नयी पीढ़ी के लोग अधिक अंग्रेज़ी जानते हैं और इंटरनेट के माध्यम से दुनिया से बात करने में सक्षम भी हैं. अखबारों में नौकरी के विज्ञापन अक्सर अँग्रेज़ी भाषा को जानने को महत्व देते हैं. साथ ही लोग घर में बोली जाने वाली बोली को कैसे बचायें, यह भी बहस चलती रहती है.

कुछ महीने पहले मेरा सम्पर्क श्री क्लाऊदियो सल्वान्यो (Claudio Salvagno) से हुआ. उन्होंने कहा कि वह ओचितानो (Ocitano) भाषा में कविता लिखते हैं और अपनी कुछ कविताओं को हिंदी में अनुवाद करके किताब में छपवाना चाहते हैं.

"ओचितानो", यह कौन सी भाषा है? मैंने तो इसका नाम भी नहीं सुना था. तब मालूम चला कि यह भाषा उत्तरी इटली और दक्षिण फ्राँस के पहाड़ी भाग में बोली जाती थी. क्लाउदियो का कहना था हिंदी, इतालवी और ओचितानो में छपी इस पुस्तिका की केवल 30 प्रतियाँ छापी जायेंगी, हर पुस्तिका में वहाँ के स्थानीय कलाकार की एक पेंटिंग होगी और हर पुस्तिका की कीमत होगी 250 यूरो, यानि करीब पंद्रह हज़ार रुपये, और इस पुस्तिका की बिक्री से प्राप्त धन को भारत में एक ग्रामीण स्त्री संश्क्तिकरण प्रोजेक्ट को दिया जायेगा.

मैं तुरंत मान गया. कविताओं का अनुवाद आसान नहीं था. जैसे कि क्लाउदियो ने मूल कविता में बर्फ के मुलायम फ़ोहों की तुलना एक इतालवी पकवान, आलुओं से बने मुलायम गोल पास्ता जिसे न्योक्की कहते हैं, से की थी, तो मैं कई दिन तक सोचता रहा था कि हिंदी में किस भारतीय पकवान से यह तुलना की जा सकती है, चावल के गोलों से, या गीले सत्तु से बनी गोलियों से? उनकी कविता में नाम इटली के पहाड़ों मे पायी जानी वाली चिड़िया का होता तो मुझे खोजना पड़ता कि यह चिड़िया क्या भारत में होती है और भारत में उसका क्या नाम होता है?

खैर, आखिरकार अनुवाद पूरा हुआ और मैंने हिंदी में लिखी फाईल क्लाउदियो को भेजी. पुस्तिका छपी तो उसे प्रस्तुत करने के लिए बड़ा समारोह आयोजित किया गया. पुस्तिका का शीर्षक है "शीत के चुम्बन" (Poton d'Unvern). हर पुस्तिका का आकार बहुत बड़ा था, कीमते बक्से में पैंटिंग के साथ बंद की गयी थी. खोल कर देखा तो दिल बैठ गया, छपाई में हिदीं की फाईल बदल गयी थी, और सभी मात्राएँ अपनी जगह से हट कर दूसरी जगह चली गयीं थीं, यानि "दिल" का "दलि", "बिना" का "बनिा".

इतनी मँहगी किताब, प्रसिद्ध कलाकारों की सुंदर कलाकृतियों से सजी, और सारी हिंदी गलत! सोचा कि क्लाउदियो को बताऊँ या नहीं, लेकिन अंत में निर्णय किया कि कुछ न कहना ही उचित होगा. क्लाउदियो के साथ हाथ में वह किताब लिये तस्वीर खिंचाते समय मुझे शर्म आ रही थी, लेकिन मैं कुछ नहीं बोला.


शायद एक दिन, कोई भारतीय मेहमान उस किताब को खोलेगा और कहेगा कि सारी हिंदी गलत लिखी गयी है, तो मेरा भाँडा फ़ूट जायेगा, लेकिन तब तक उन सब को गलतफहमी में छोड़ना ही मुझे उचित लगा.

***
डा. लोहिया के हिंदी तथा अन्य भाषाओं से जुड़ी बहस से ओचितानो भाषा में लिखी कविताओं की बात में क्या सम्बंध है, यह तो मुझे भी स्पष्ट समझ नहीं आया, पर लगता है कि दोनो बातें किसी तरह से जुड़ी हुई हैं.

आप का क्या विचार है, हमारी छोटी बड़ी भाषाओं के भविष्य के बारे में?

रविवार, नवंबर 01, 2009

कौन सी भाषा?

कल यहाँ बोलोनिया के करीब ही एक शहर फैरारा में इतालवी पत्रिका इंतरनात्ज़ोनाले (Internazionale) ने साहित्यक समारोह का आयोजन किया था जिसमें एक गोष्ठी का विषय था, "हिंसा के समय में लेखन". इसमें भाग ले रहे थे पलिस्तीनी लेखिका सुआद अमेरी, श्री लंका के लेखक रोमेश गुनेसेकेरा, जिबूटी के लेखक अब्दुरहमान वाबेरी तथा उनसे बात कर रहीं थीं इतालवी लेखिका और पत्रकार मरिया नेदोत्तो.

सुआद, रोमेश तथा अब्दुरहमान, तीनो लेखकों ने अपने लेखन में अपने देशों में होने वाली हिँसा के बारे में लिखा है. मैंने तीनों में से किसी की भी कोई किताब नहीं पढ़ी और गोष्ठी में जाने से पहले उनके बारे में कुछ जानता भी नहीं था. पर उनकी बातों से तीनो का लिखने और सोचने का तरीका भिन्न लगा.

अब्दुरहमान अपनी पुस्तक "संयुक्त राष्ट्र अफ्रीका में" के लिए प्रसिद्ध हैं, जिसमें उल्टी दुनिया की कल्पना करते हैं जहाँ अफ्रीका अमीर और ताकतवर है और यूरोप गरीब तथा पिछड़ा, और इस तरह वह अफ्रीका के बारे में की जाने वाली हर बात को और अफ्रीकी गरीब प्रवासियों के साथ किये जाने वाले व्यवहार को उल्ट कर देखते हैं कि यही बात अगर यूरोप वासियों के लिए की जाये तो कैसी लगेगी? उनकी सोच का तरीका मुझे दिमागी लगा.


रोमेश अपनी पुस्तक "द रीफ़" के लिए बुक्कर पुररस्कार के लिए नामाँकित किये गये थे. उनकी बातों और बोलने के तरीके से लगा कि उनकी किताबों में सुंदर विवरण, पात्रों की भावनाएँ और उनके भीतर होने वाले मानसिक द्वंद मिलेंगे, और इस तरह उनकी सोच का तरीका मुझे अधिक भावनात्मक लगा.


अब्दुरहमान और रोमेश दोनो लेखकों जैसी भाषा में भी बात कर रहे थे, जिसमें अपने लेखन के बारे में जटिल विचारों की विवेचना थी.

इनके मुकाबले में सुआद का बातचीत का तरीका बिल्कुल सीधा साधा था, अपने रोज़ के अनुभवों से भरा. सुआद पेशे से आरकिटेक्ट भी हैं, उनकी कई किताबें जैसे "शेरोन और मेरी सास" अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बेस्ट सैलर रही हैं. उनके लेखन में विचार, विवेचना कम, सिर्फ हर दिन का जीता जागता अनुभव ही अधिक महत्वपूर्ण लगा.


मरिया ने तीनो से पूछा कि आप तीनो लोग हिंसा के बारे में लिखते हो लेकिन आप के लेखन में कोई हिंसा वाले शब्दों का प्रयोग नहीं होता, क्यों? तीनो का कहना था कि हिंसा के बारे में बात करने के लिए यह आवश्यक नहीं कि लेखक के लेखन में भी हिंसा हो, बल्कि लेखन में हिसंक शब्दों का प्रयोग करने से लेखन कम प्रभावशाली हो जाता है.

इस बात को ले कर देर तक सोच रहा हूँ. यह बात केवल लेखन पर नहीं सभी सृजनात्मक विधियों पर लागू होती है, जिनमें फ़िल्म और कला भी शामिल हैं. आजकल का लेखन तो जीवन को जैसा है वैसा ही बताने को सही नहीं मानता है, कि किसी बात को छुपाया नहीं जाना चाहिये? सेक्स के बारे में स्पष्ट लिखना क्या आज के लेखन के लिए आवश्यक नहीं, इसके बारे में दलील है कि यह विषय इतने झूठे पर्दों के पीछे छुपे हैं जिनसे इनका बाहर निकलना ज़रूरी हो गया है. यही बात भाषा के बारे में की जा रही है, जैसे कि गालियों का प्रयोग. अँग्रेजी, इतालवी साहित्य में तो यह बहुत पहले से होने लगा था लेकिन हिंदी साहित्य, सिनेमा और कला में यह बदलाव हो रहा है.

तो फ़िर हिंसा के बारे में तीनो लेखकों ने यह क्यों कहा कि हिंसा को हिसा के शब्दों के बिना कहा जाये तो अधिक प्रभावशाली होगा?

बुधवार, जून 24, 2009

अपनी भाषा

पिछले कई वर्षों से किताबें खरीदना बंद कर दिया है मैंने.

कहाँ रखो और एक बार पढ़ कर उनका क्या करो, यही दुविधा थी जिसका उत्तर नहीं मिला. किताबें रखने की जगह सीमित हो और जब अलमारी किताबों से भरी हो तो नयी किताबें कहाँ रखी जायें? खरीदी किताबों को रद्दी के कूड़े में फ़ैंकने से दुख होता था, लेकिन इसके अतिरिक्त चारा भी नहीं था. कुछ किताबें तो हमारे घर के पास वाले पुस्तकालय में दे दीं, पर बाकी बहुत सी किताबें पहले बेसमैंट में रखीं और जब बेसमैंट की छोटी सी कोठरी में जगह की आवश्कता हुई तो बहुत सी किताबें फैंकनीं ही पड़ीं.

तो निर्णय लिया कि अब से अँग्रेज़ी, इतालवी जैसी भाषाओं में कोई किताब नहीं खरीदूँगा क्योंकि इन सब भाषाओं की नयी किताबें हमारे स्थानीय पुस्तकालय में तुरंत मिल जाती हैं. अगर कोई पुस्तक पुस्तकालय में नहीं हो, तो उसको खरीदने के लिए फार्म भर देने से, कुछ दिन में पुस्तकालय उसे खरीद लेता है. तो सोचा कि केवल पुस्तकालय से ले कर पढ़ूँगा. पर हिंदी की किताबें पढ़ने के लिए क्या किया जाये, वह तो इटली के किसी पुस्तकालय में नहीं मिलती? अंत में यही सोचा कि हर वर्ष भारत यात्रा में कुछ सीमित हिंदी की किताबें खरीदी जायें, पर इस निर्णय का पालन करना भी कठिन है.

प्रश्न है कि हिंदी की किताबें कहाँ से खरीदी जायें और कौन सी?

पहले क्नाटप्लेस में मद्रास होटल में आयर्वेदिक डिस्पेंसरी के पीछे हिंदी किताबों की दुकान थी, पर वह भी कुछ साल पहले बंद हो गयी. कुछ दिन पहले भाँजा बता रहा था कि दरियागंज में हिंदी किताबों के विभिन्न प्रकाशकों के शो रूम हैं पर अगर आप को कोई किताब चाहिये तो उसी प्रकाशक के पास मिलेगी जिसने छापा हो और ऐसी कोई जगह नहीं जहां आप विभिन्न प्रकाशकों की किताबें खरीद सकें. विश्वास नहीं होता कि इतने बड़े सुपरपावर बनने वाले भारत की राजधानी दिल्ली में रहने वाले लाखों लोगों में इतने हिंदी की किताबें खरीदने वाले लोग नहीं कि उनके लिए इसकी दुकानें हों, एक भी दुकान हो?

फ़िर झँझट कि कौन सी किताब खरीदी जाये. कुछ पत्रिकाओं में नयी किताबों की समीक्षा छपती रहती हैं लेकिन जिस तरह नियमित रूप से अँग्रेज़ी की सबसे अधिक बिकने वाली किताबों की टाप टेन जैसी लिस्ट छपती हैं, जिससे आप देख सकते हें कि इस समय कौन सी नयी किताबें चर्चित हैं या पसंद की जा रही हैं, वैसा हिंदी में नहीं होता. या शायद मुझे मालूम नहीं? अगर पुस्तकालय से किताब लो तो सब कुछ पढ़ सकते हें, अगर न पसंद आये तो वापस दे दीजिये और किसी अन्य नये लेखक को पढ़ने के लिए ले लीजिये. लेकिन अगर मेरी तरह, साल में एक बार भारत आते हैं और कुछ गिनी चुनी किताबें खरीदना चाहते हैं तो इस तरह नहीं कर सकते. नतीजा यही होता है कि हर बार पहले से जाने पहचाने पुराने लेखकों की किताबें खरीदये.

ऐसा क्यों है?

कुछ दिन पहले अँग्रेजी दैनिक इंडियन एक्सप्रेस में तवलीन सिंह ने अपने लेख "आयतुल्लाह के पाठ" (Lessons from Ayatullah) में लिखा था:

"अपने प्राचीन हिंदू भारत के विषय में बहुत सी बातें हें जिन्हें हमें समझने और सम्भालने की कोशिश करनी चाहिये. मुझे दुख होता है जब मैं दक्षिण पूर्वी एशिया के किसी देश में जाती हूँ और देखती हूँ कि भारत की प्राचीन सभ्यता का कितना गहरा असर था जो आज भी बना हुआ है और जो अपने यहाँ खोया जा चुका है. अगर हम यह चाहते हैं कि भारत की सभ्यता बस बोलीवुड की सभ्यता मात्र बन कर न रह जाये तो हमें यह समझना चाहिये कि क्यों वह यहाँ खो गया है? हमें यह समझना चाहिये कि क्यों हमारे महानगरों में कोई दुकाने नहीं जहाँ भारतीय भाषाओं कि किताबें मिलें? अगर करोड़ों लोग प्रतिदिन हिंदी की अखबारें पढ़ रहे हैं तो वह हिंदी की किताबें क्यों नहीं खरीदते? क्यों छोटे शहरों में किताबों की कोई दुकान नहीं मिलती? क्यों हमारे गाँवों में कोई किताबें नहीं बेचता?"

स्थिति को समझने के लिए उसे विभिन्न दृष्टिकोणों से देखना होगा. जुलाई 2008 की "सामायिक वार्ता" पत्रिका में योगेंद्र यादव ने अपने सम्पादकीय में लिखा था:

"हाल ही में जारी इन आकंड़ों के मुताबिक सन् 2001 में देश भर में अंग्रेजी को अपनी मातृभाषा बताने वाले लोग सिर्फ 0.02 फीसदी थे, यानि हर दस हजार में से सिर्फ दो व्यक्ति अपने घर में पहली भाषा के रूप में अंग्रेजी बोलते थे. ... सन 2006 में देश भर में छह फीसदी बच्चे अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ रहे थे. ज्यादा चौकाने वाला आंकड़ा है कि सन् 2003 और 2006 के बीच सिर्फ तीन सालों में जहां भारतीय भाषाओं में पढ़ने वाले विद्यार्थियों की संख्या 24 फीसदी बढ़ी वहीं अंग्रेजी में पढ़ने वाले विद्यार्थियों की संख्या में 74 फीसदी की बढ़ोतरी हुई. अगर स्कूली शिक्षा देश के भविष्य का दर्पण है तो अंग्रेजी बढ़ रही है और भयावह दृष्टि से बढ़ रही है."

दूसरी ओर हिंदी तथा भारतीय भाषाओं में अखबार पढ़ने वालों की संख्या भी बढ़ी है. देश के 22 करोड़ अखबार पढ़ने वालों में से बीस करोड़ लोग हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं में अखबार पढ़ते हैं. टीवी पर हिंदी की चैनल देखने वाले लोगों के सामने, अंग्रेजी चैनल देखने वाले लोगों की संख्या बहुत कम है. इस स्थिति के बारे में यादव जी ने लिखा कि, "भारतीय भाषाँए अंगरेजी के साये तले सूखने या मरने वाली नहीं है लेकिन जहां उनका शरीर फल फूल रहा है वहीं उनका ओज घट रहा है, आत्मा सिकुड़ रही है." इसे वह भाषा की राजनीति को नये तरीके से परिभाषित करने के मौके के रूप में देखते है, और पुराने "अंग्रेजी हटाओ" के नारे को छोड़ कर, वह अंग्रेजी को भारतीय भाषा मानने की सलाह देते हैं और अंग्रेजी को कम करने की बात को छोड़ कर "हिंदी बनाओ" की बात पर जोर देने की सलाह देते हैं.

यह सच है कि आज की दुनिया में तकनीकी और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के क्षेत्रों में अंग्रेजी न जानने का अर्थ है कि इन क्षेत्रों में होने वाले विकास से कट जाना. कुछ दिन पहले मेरठ में हो रहे एक संस्कृत सम्मेलन की बात पढ़ी थी जिसमें लिखा था कि क्मप्यूटर की प्रोग्रामिंग की भाषा के रूप में संस्कृत बहुत उपयुक्त है, पर इस तरह की बात आज व्यावहारिक नहीं मानी जा सकती जहां फ्राँस, जर्मनी, स्पेन जैसे विकसित देश भी जो अन्य सब काम अपनी भाषा में करते हैं, इन क्षेत्रों में अंग्रेजी के वर्चस्व को मानने को मजबूर हैं.

मुझे ब्राजील, चीन और कोंगो जसे देशों का अनुभव है. जानता हूँ कि ब्राजील में पोर्तगीस भाषा में शौध कार्य में बहुत बढ़िया काम हुआ है, चीन में चीनी भाषा में काम हुआ है, कोंगो में फ्राँसिसी भाषा में काम हुआ है, पर इस काम को अपने देश की सीमा से बाहर दूसरे लोगों तक पहुँचाना कठिन है, और किसी भी अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक सभा में इन देशों की उपस्थिति नगण्य ही रहती है, वे लोग नये होने वाले विकासों से कटे रहते हैं. इटली में, जहाँ मैं रहता हूँ, पंद्रह साल पहले तक अंग्रेजी या फ्राँसिसी भाषा पढ़ने का मौका कुछ उसी तरह मिलता था जिस तरह हमें मिडिल स्कूल में तीन साल तक संस्कृत पढ़ने का मौका मिलता था. पर पंद्रह साल पहले फैसला लिया गया कि प्राईमरी विद्यालय से ले कर, हाई स्कूल तक, सब छात्रों को अंग्रेजी दूसरी भाषा के रूप में पढ़ायी जायेगी. हालैंड ने फैसला लिया कि सारी पढ़ाई अंग्रेजी में होगी और उनकी अपनी डच भाषा को केवल भाषा के रूप में पढ़ाया जायेगा.

अगर हिंदी में उच्चतम स्तर तक तकनीकी तथा वैज्ञानिक शिक्षा कि सुविधा हो भी जाये तो भी यह स्नातक बाकी विश्व से किस तरह से बात करेंगे, उनका काम किन अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं में छपेगा, जबकि उनके क्षेत्रो में होने वाले नये विकासों को अनुवादित करके उन तक पहुँचाया जा सकता है? तो क्या इसका अर्थ है कि अंग्रेजी न जानने वालों को इन क्षेत्रों में उच्च स्तर पर पढ़ाई करने का मौका नहीं मिलना चाहिये? मैं सहमत हूँ कि यह मौका अवश्य मिलना चाहिये पर इस तरह के स्नातकों की सीमाओं को स्पष्ट माना जाना चाहिये और उनसे बाहर निकलने के साधनों को भी तैयार किया जाना चाहिये. इसका एक उदाहरण है कि इसी तरह का एक समाचार पढ़ा था कि इस बार के सिविल सर्विस इम्तहान में छह लोग भी हैं जिन्होंने हिंदी माध्यम से इन्तहान दिया और विदेश मंत्रालय के लिए चुने गये हैं, उनकी अंग्रेजी भाषा की जानकारी को सुदृढ़ करने के लिए कोर्स की सुविधा दी गयी है.

इस लिए मैं यादव जी के विचारों से सहमत हूँ कि बात अंग्रेजी से लड़ाई की नहीं बल्कि बात हिंदी को बनाने और दृढ़ करने की है, पर यह किस तरह हो, यह प्रश्न जटिल है. अन्य सब बातों को भूल भी जायें, एक बात के लिए ध्यान आवश्यक है कि यह बात गरीब, कमज़ोर वर्ग की भी है जो अंग्रेजी न जानने की वजह से दबाव सहता है क्योंकि शासन और ताकत की भाषा तो अंग्रेजी ही है. जो लोग इस दिशा में काम कर रहे हैं वह इस विषमता से किस तरह लड़ सकते हैं? क्या नयी तकनीकें कोई रास्ता दिखा सकती हैं जिनसे गरीब, कमजोर वर्ग का संशक्तिकरण हो जिसमें अंग्रेजी जानने या न जानने का उनके जीवन पर असर कम हो?

एक अन्य बात है प्राथमिक स्तर पर शिक्षा के माध्यम की बात. इस विषय में हुए शौध ने बताया है कि प्राथमिक शिक्षा अपनी मातृभाषा में ही होनी चाहिये. क्या ऐसा हो सकता है कि पूरे भारत में प्राथमिक स्तर पर सारी शिक्षा को अंग्रेजी माध्यम की बजाय स्थानीय भाषा में किया जाये और अंग्रेजी को केवल भाषा के रूप में पढ़ाया जाये?

हिंदी के लेखक, विचारक और शुभचिंतक जो नहीं कर पाये, उसे नीचा समझे जाने वाले बाज़ारी ताकत ने ही कर दिखाया है. जनसंस्कृति में हिंदी के महत्व को स्थापित करने में हिंदी अखबारों और पत्रिकाओं की बिक्री, हिंदी फिल्मों और फिल्मी संगीत ने, हिंदी टीवी चैनलों ने जितना किया है उतना शायद कोई सरकारी या गैरसरकारी संस्था नहीं कर पायी.

हिंदी और भारतीय भाषाओं के साहित्य का अंग्रेजी में अनुवाद और अंग्रेजी में छपने वाले विदेशी साहित्य का भारतीय भाषाओं में अनुवाद भी हो रहा है और शायद अगले कुछ वर्षों में और बढ़ेगा. अगर इतालवी, फ्राँसिसी, स्पेनिश, पोतर्गीस भाषाओं के प्रकाशक यह आसानी से जान सकें कि किन हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं में लिखने वाले लेखकों की किताबें सराही जा रही हैं, बिक रहीं हैं तो उनके लिऐ अन्य भाषाओं के बाज़ार खुल सकते हैं.

बालीवुड के सितारे, काम हिंदी फिल्मों के करते हैं पर बातचीत और साक्षात्कार और चिट्ठे अंगरेजी में देते हैं, लेकिन जब इंटरनेट पर भारतीय भाषाओं में पढ़ने वाले बढ़ेंगे तो वे लोग भी हिंदी में अपनी बात लिखने कहने की कोशिश करेंगे?

आजकल समाचार पत्र "देल्ही" का नाम "दिल्ली" में बदलने की बात भी कर रहे हैं. मुझे लगता है कि इस तरह की बातें वही लोग उठाते हैं जिनमें आत्मविश्वास नहीं, या जिन्हें सचमुच की समस्याओं से सरोकार नहीं, बल्कि अस्मिता की बात उठा कर उसका राजनीतिक लाभ उठाना चाहते हैं. मैंने तो आज तक कभी भी हिंदी पढ़ने लिखने वालों में देल्ही शब्द को नहीं देखा सुना, इसका उपयोग केवल अंग्रेजी बोलने वाले ही करते हैं. जब तक हिंदी सुरक्षित है तब तक दिल्ली को अपने नाम की अस्मिता को बचाने की कोई चिंता नहीं, हाँ अगर हिंदी ही नहीं रहेगी तो नाम देल्ही हो या दिल्ली, क्या फर्क पड़ेगा?

बात हिंदी किताबों को खरीदने से शुरु की थी. आखिर में पाया कि क्नाट प्लेस में प्लाज़ा सिनेमा वाली सड़क पर जैन बंधुओं की नयी दुकान खुली है जहाँ पहले माले पर कुछ हिंदी की किताबें भी हैं. इस बार भी मैंने पुराने जाने पहचाने लेखकों की किताबें ही खरीदी हैं. आशा है कि जनसत्ता जैसे दैनिक या फ़िर टीवी पर "भारत का सबसे बड़ा समाचार गुट" जैसा दावा करने वाला दैनिक भास्कर जैसे अखबार, हिंदी किताबें बेचने वाली दुकानों के सहयोग से नियमित रूप से अधिक बिकने वाली हिंदी की टाप टेन किताबों के बारे में छापेंगे, और हिंदी के बढ़ते फ़ैलते चिट्ठाजगत से जुड़े लोग हिंदी की किताबें बेचने वाली दुकानों पर जा कर नयी छपने वाली किताबों को खरींदेगे, उनके बारे में बात करेंगे, उनकी आलोचना और प्रशंसा करेंगे, और कभी मैं भी नये लेखकों की किताबें खरीदूँगा!

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