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सोमवार, अप्रैल 01, 2024

अच्छी पगार, घटिया काम

अगर काम आई.टी. प्रोफेशनल, या मार्किटिन्ग, या आफिस का हो, और साथ में पगार बढ़िया हो, इतनी बढ़िया की अन्य कामों से पाँच गुणा ज्यादा, तो आप ऐसी कम्पनी में काम करना स्वीकार कर लेंगे जो ओनलाईन जूआ चलाती हो, या अश्लील वीडियो दिखाती हो? 

इस काम में कुछ भी गैरकानूनी नहीं हो, तो क्या यह काम करने में बदनामी का डर हो सकता है? प्रश्न है कि आप हाँ कहेंगे या न?

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कोयले की दलाली में हाथ काले होते है, इसे सब जानते हैं। लेकिन अगर आप को कोयले की दुकान के बैक-आफिस में क्लर्क या एकाऊँटैंट की नौकरी मिले, तो क्या उसमें भी हाथ काले होने का डर है? क्या आप यह नौकरी स्वीकार करेंगे, विषेशकर जब कोयले की दुकान के मालिक आप को चलते रेट से चार-पाँच गुणा अधिक पगार देने के लिए तैयार हों

कुछ ऐसा ही प्रश्न उठाया गया था कुछ दिन पहले के अमरीकी अखबार "द वॉल स्ट्रीट जर्नल" में, जिसमें काल्लुम बेर्चर के लिखे एक आलेख में कम्पयूटर टैकनोलोजी से जुड़े कुछ ऐसे कामों की बात थी, जिनके लिए पगार बहुत बढ़िया मिलती है लेकिन लोग जिन्हें करना नहीं चाहते या उसके बारे में किसी को बताना नहीं चाहते। यह काम अश्लील या सैक्स फ़िल्मों वाली पोर्न वेबसाईट तथा जूआ खेलने वाली वेबसाईट से जुड़े हुए हैं।

उदाहरण के लिए आलेख में एक युवती कहती है कि वह एक पोर्न कम्पनी के लिए काम करती थी, उसकी पगार बहुत अच्छी थी, अन्य जगहों से छह गुणा अधिक थी। उनकी वेबसाईट पर लोग अपने सैक्सी वीडियो लगाते थे और उसका काम था कि लोगों को प्रोत्साहित करें ताकि अधिक लोग उन्हें अपने ऐसे वीडियो भेजें। जब उन्होंने शहर बदला और नया काम खोजने के लिए लोगों को अपना परिचय-अनुभव का सी.वी.भेजा तो जितने लोग उन्हें साक्षात्कार के लिए बुलाते थे वह सबसे पहले यही जाना चाहते कि पोर्न-फिल्में आदि से उनके काम का क्या सम्बंध था? कोई उन्हें काम नहीं देता था। अंत में तंग आ कर उन्होंने अपने सी.वी. उस काम की बात को हटा दिया, लिखा कि वह उस समय बेरोजगार थीं और एक कोर्स कर रहीं थीं।

वेबसाईट कोई भी हो, किसी भी तरह की हो, उसे बनाने और चलाने के लिए इन्फोरमेशन टैनोलोजी के विशेषज्ञ चाहिये। और धँधा कुछ भी हो, नशीली ड्रगस का, जूए का या माफिया और गुंडा-गर्दी का, पैसे सम्भालने और काले धन की धुलाई के लिए एकाऊँटैंट, वकील, क्लर्क, ड्राईवर, सब तरह के काम करने वालों की आवश्यकता होती है। अगर आप को ऐसा मौका मिले और तन्खवाह बहुत बढ़िया हो फ़िर भी ऐसा काम स्वीकार करने में कई तरह की दिक्कते हैं।

पहली दिक्कत है कि आप को परिवार वालों और अन्य लोगों को अपनी कम्पनी के काम के बारे में बताने में शर्म आयेगी। दूसरी दिक्कत है कि अगर उस काम की कुछ जड़े कानून की सीमा से बाहर हैं, तो हो सकता है कि कुछ को जेल जाने की नौबत आ सकती है।

अगर आप के बॉस गुंडा टाईप के हैं (ऐसे धँधों को चलाने वाले अधिकतर लोग शायद गुंडा टाईप के ही होते हैं) तो जान से मरने या कम से कम, हड्डियाँ तुड़वाने का खतरा भी हो सकता है।

और यह सब कुछ भी नहीं हो, जैसे इस आलेख में बताया गया है, जब तक यह काम चले तब तक ठीक है, लेकिन अगर उसे बदलना पड़े तो दिक्कतें आ सकती है। लेकिन शायद कुछ लोग ऐसे कामों से आकर्षित होते हैं और उन्हें इन दिक्कतों से डर नहीं लगे।

मैंने इस बारे में सोचा, मुझे लगा कि मैं ऐसी नौकरी नहीं कर पाऊँगा। आप बताईये, क्या आप ऐसी किसी कम्पनी में काम करना चाहेंगे? अगर हाँ तो क्यों? और नहीं तो क्यों? लेकिन जिसकी नौकरी चली गयी हो या जो बेरोजगार हो और परिवार पालने हों, अक्सर ऐसी हालत में कोई भी नौकरी स्वीकार की जा सकती है।

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मंगलवार, फ़रवरी 20, 2024

पति, पत्नी और वह

पत्नी कल कुछ दिनों के लिए बेटे के पास गई थी और मैं घर पर अकेला था, तभी इस लघु-कथा का प्लॉट दिमाग में आया।

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सुबह नींद खुली तो बाहर अभी भी अंधेरा था। कुछ देर तक फोन पर इमेल, फेसबुक, आदि चैक किये, फ़िर सोचा कि उठ कर कॉफी बना लूँ। नीचे आ रहा था कि सीढ़ी पर पाँव ठीक से नहीं रखा, गिर ही जाता पर समय पर हाथ बढ़ा कर दीवार से सहारा ले लिया, इसलिए गिरा नहीं केवल पैर थोड़ा सा मुड़ गया।

मेरे मुँह से "हाय राम" निकला तो वह बोली, “देख कर चलो, ध्यान दिया करो।"

“ठीक है, सुबह-सुबह उपदेश मत दो", मैंने उत्तर दिया।

“एक दिन ऐसे ही हड्डी टूट जायेगी, फ़िर मेरे उपदेशों को याद करना", उसने चिढ़ कर कहा।

कॉफी पी कर कमप्यूटर पर बैठा तो समय का पता ही नहीं चला। साढ़े आठ बज रहे थे, उसने कहा, “आज सारा दिन यहीं बैठे रहोगे क्या? नहाना-धोना नहीं है?”

“उठता हूँ, बस यह वीडियो पूरा देख लूँ।"

“यह वीडियो कहीं जा रहा है? इसे पॉज़ कर दो, पहले नहा लो, फ़िर बाकी का देख लेना।"

“अच्छा, अच्छा, अभी थोड़ी देर में जाता हूँ, तुम जिस बात के पीछे पड़ जाती हो तो उसे छोड़ती नहीं", मुझे भी गुस्सा आ गया।

“नहाने के बाद तुम्हें दूध और सब्ज़ी लेने भी जाना है", वह मुस्करा कर बोली।

वह बहुत ज़िद्दी है, जब तक अपनी बात नहीं मनवा लेती, चुप नहीं होती, इसलिए अंत में मुझे उठना ही पड़ा। नहा कर निकला ही था कि बन्नू का फोन आ गया।

बोला, “दोपहर को मिल सकता है? गर्मी बहुत हो रही है, कहीं बियर पीने चलते हैं, फ़िर बाहर खाना खा लेंगे।"

मैंने कहा, “नहीं यार, सच में गर्मी बहुत है, दोपहर को बाहर निकलने का मन नहीं कर रहा। शाम को मिलते हैं।"

उसने कहा, “सारा दिन घर पर अकेले बोर हो रहा हूँ, चल न, कहीं गपशप मारेंगे।"

मैं हँसा, बोला, “एक नयी एप्प आई है, जीवनसाथी एप्प, अपने फोन पर डाऊनलोड कर ले, सारा अकेलापन दूर हो जायेगा।"

फोन रखा तो वह बोली, “अपने दोस्त से मेरी इतनी तारीफें कर रहे थे, अब एप्प रिवयू में मुझे पाँच स्टार देना, समझे?”

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शनिवार, मार्च 17, 2012

अंकों के देवी देवता


हिन्दू जगत के देवी देवता दुनिया की हर बात की खबर रखते हैं, दुनिया में कुछ भी ऐसा नहीं जो उनकी दृष्टि से छुप सके। मुझे तलाश है उस देवी या देवता की जिनका काम है अंकों की देखभाल करना। व्यापारी लोग लाभ-नुकसान का ध्यान रखते हैं तो क्या व्यापारियों की आराध्य लक्ष्मी को ही अंको की देवी माना जाये? या फ़िर ज्ञान की देवी सरस्वती जो छात्रों की आराध्य हैं, अंक उनकी छत्रछाया में रहते हैं? जब तक लक्ष्मी जी और सरस्वती माँ के बीच अंकों की ज़िम्मेदारी का फैसला नहीं हो जाये, शायद हम गणपति बप्पा से कह सकते हैं कि वे ही अंकों की ज़िम्मेदारी का भार सम्भालें?

"क्या हुआ, क्यों इतने परेशान हो?" आप चुटकी लेते हुए पूछेंगे, "क्या कोई अंक खो गया है, और उसे खोजने की आरती का आयोजन करना है?"

नहीं, ऐसी बात नहीं, मेरा कोई अंक नहीं खोया। मुझे एक अन्य बात पूछनी है। बात यह है कि बाकी दुनिया ने हिन्दी और संस्कृत को पिछड़ा मान कर छोड़ दिया और अंग्रेज़ी को गले लगा लिया तो हमने मान लिया कि आज के आधुनिक युग में पैसा, तरक्की और कमाई ही सब कुछ है, अपनी भाषा की बात करना पिछड़ापन है। लेकिन उन्होंने देवी-देवता हो कर, क्यों उसी थाली में छेद किया जिसका खाते हैं? बिना हिन्दी और संस्कृत के उनकी पूजा कौन करेगा? क्यों उन्होंने अपने ही पैरों पर कु्ल्हाड़ी मारी?

"भैया बात का हुई, ठीक से बताओ", आप मन ही मन में हँसते हुए, ऊपर-ऊपर से नकली सुहानूभूति वाला चेहरा बना कर कहोगे। या फ़िर आप मन में सोच रहे हो कि यह साला तो सठिया गया, भला लक्ष्मी या सरस्वती ने कब कहा कि कान्वैंट में पढ़ो या अंग्रेज़ी में आरती करो?

पर बात सचमुच गम्भीर है। बात यह है कि उन्होंने सभी अंक अंग्रेज़ी की वर्णमाला के अक्षरों के नाम कर दिये हैं और बेचारी हिन्दी और संस्कृत की वर्णमाला के नाम कुछ नहीं छोड़ा। अब अपने नाम को शुभ कराके खाने का पैसा सब न्यूमरोलोजिस्ट खा रहे हैं, जब कि अंक-ज्ञान के पँडित भूखे मर रहे हैं। अगर एकता कपूर ने अपनी कम्पनी का नाम बालाजी पर रखा हैं, क्यों वह "K" पर सीरयल  बना कर, उन न्यूमरोलोजिस्टों को पैसा चढ़ाती है, वह उन्हें "क" पर क्यों नहीं  बना सकती थीं?

"अरे भाई, बस इतनी सी बात?" आप मुझे साँत्वना देते हुए कहेंगे, "आप उन सब को "K" के बदले "क" के सीरीयल समझ लीजिये। आप की बात भी रह गयी, और एकता कपूर की भी, उसमें देवी-देवताओं को घसीटने की क्या बात है?"

आप समझते नहीं हैं। अगर यह जानना हो कि कोई नाम शुभ है या अशुभ, तो इसे केवल अंग्रेज़ी में जाँचा जा सकता है, हिन्दी या संस्कृत में नहीं। ऐसा पक्षपात अंग्रेज़ी के साथ क्यों? तभी तो जब फ़िल्म नहीं चलती, तो विवेक Vivek से Viveik बन जाते हैं, अजय देवगन Devgan से Devgn बन जाते हैं, जिम्मी शेरगिल Shergill से Sheirgill बन जाते हैं, ऋतेष देशमुख Ritesh से Riteish बन जाते हैं, और सुनील शेट्टी Sunil से Suneil बन जाते हैं?

God of numerology - graphic by S. Deepak, 2012

इसका अर्थ तो यही हुआ कि भगवान भी अब लोगों के नाम केवल अंग्रेज़ी में सुनते हैं, हिन्दी में नहीं सुनते!

आप भी कुछ सोच में पड़ जाते हैं, और कुछ देर बाद कहते हैं, "नहीं भाई यह बात नहीं है। भगवान ने कहा कि अंग्रेज़ी भाषा ऐसी है कि उसे तोड़-मरोड़ लो, उसमें अक्षर जोड़ो या घटाओ, नाम वही सुनायी देता है। यानि माता-पिता के दिये हुए नाम की इज़्ज़त भी रह जाती है, और मन को तसल्ली भी मिल जाती है कि अपने बुरे दिन बदलने के लिए हमने न्यूमोरोलोजिस्ट वाली कोशिश भी कर ली। क्या जाने इसी से किस्मत बदल जाये!"

बात तो ठीक ही लगती है आप की।

"असल बात यह है", आप फुसफुसा कर कहते हैं मानो कोई रहस्य की बात बता रहे हों, "जब लक्ष्मी देवी बोर हो रही होती हैं तो वे भी स्टार डस्ट या सोसाईटी जैसी अंग्रेज़ी पत्रिका पढ़ कर अपना टाईम-पास करती हैं। तभी उनकी दृष्टि बेचारे विवेक ओबराय या अजय देवगन की इस प्रार्थना पर पड़ती है कि वह भक्त उनसे कुछ माँग रहे हैं। इसमें उनकी गलती नहीं, बात यह है कि देवी देवताओं के लिए कोई स्तर की हिन्दी की फ़िल्मी पत्रिका जो नहीं है!"

अब समझा। अगर हिन्दी में कोई स्तर की फ़िल्मी-पत्रिका होती तो लक्ष्मी जी अवश्य उसे ही पढ़तीं और चूँकि हिन्दी में आप नाम में उसकी ध्वनि बदले बिना नया अक्षर नहीं जोड़ सकते, तो यह न्यूमोरोलोजी वालों का धँधा ही ठप्प पड़ जाता। तब बेचारे अभिनेताओं को प्रति दिन, सचमुच की प्रार्थना करने के लिए बाला जी या सबरीमाला या सिद्धविनायक के मन्दिर में जाना पड़ता और मुम्बई के यातायात में यह काम उतना आसान नहीं है।

धन्यवाद गुरुजी, मेरी बुद्धि खोलने का। अब आप की बात मेरी अक्ल में भी आयी।

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शनिवार, जनवरी 02, 2010

टाँग कहाँ, हाथ कहाँ?

जब से फोटोशोप जैसे प्रोग्राम बने है, मानव शरीर को तोड़ने या जोड़ने के नये अवसर मिलने लगे हैं, जिनसे डा. फ्रेंकेस्टाईन की कहानियों की याद आ जाती है. फोटोशोप डिज़ास्टर के चिट्ठे पर उन तस्वीरों को जगह मिलती है जिनमें शरीर के अंगों को तोड़ने जोड़ने का काम कुछ विषेश सफ़ाई से किया जाता है. इस चिट्ठे से कुछ ऐसी तस्वीरों के नमूने प्रस्तुत हैं जिनमें शरीर के अंगो को तोड़ने जोड़ने में प्लास्टिक सर्जरी बहुत बढ़िया की गयी है.

इस पहली तस्वीर में देखिये और सोचिये कि इस बालिका की बायीं टांग कहाँ गयी? शायद उसे बिल्ली ले गयी?


इस दूसरी तस्वीर वाली कन्या के शरीर के ऊपरी हिस्से के वस्त्र चुरा लिये गये हैं लेकिन शायद वस्त्र उतारते समय शरीर के कुछ भाग भी साथ ही चोरी हो गये थे या शायद, यह कन्या असल में कन्या का पति है?


इस तीसरी कन्या के बायें हाथ में गलती से शायद उसका पैर लगा दिया गया था?


कितनी ज़ालिम है यह माँ जिसने अपनी बड़ी बेटी को टब और दीवार के बीच में दबा कर उसकी टाँगें ही काट दीं.


इन अगले साहब की तस्वीर वैसे तो बहुत बढ़िया है लेकिन कार के दरवाज़े का हैंडल अगर किसी अन्य जगह होता तो शायद बेहतर नहीं होता?


आप सब को नववर्ष की शुभकामनाएँ.

रविवार, नवंबर 01, 2009

प्रधानमंत्री का सेक्स जीवन

इटली के प्रधानमंत्री करोड़पति, उद्योगपति, टीवी चैनल, अखबारों, पत्रिकाओं के मालिक श्री बरलुस्कोनी शुरु से ही कुछ विवादों से जुड़े रहे हैं. कभी जर्मनी की अधिपति एँजेला मर्कर को कुछ कहा, कभी उँगलियों से साँकेतिक भाषा में घटिया सा मज़ाक किया, कभी बोले कि मैं जब तक चुनाव जीतूँगा नहीं तब तक सेक्स से दूर रहूँगा, कभी अमरीकी राष्ट्रपति को धूप से साँवले हुए रंग वाला कहा, यानि कि हर सप्ताह उनका कोई नया ही समाचार होता है.

लेकिन पिछले कई महीनों से, जब से उनकी पत्नि वेरोनिका ने उन पर आरोप लगाया कि वह नाबालिग लड़कियों से सम्बंध रखते हैं और उनसे अलग होने की माँग की, तब से उनके सेक्स जीवन की खुलेआम बातों ने हचलच सी मचा दी है. दक्षिण इटली के एक बिज़नेसमेन ने बताया कि कैसे वह उनके द्वारा आयोजित पार्टियों में पढ़ी लिखी, माडल बनने की इच्छा रखने वाली युवतियाँ तथा छुटपुट अभिनेत्रियाँ भेजते थे, जिनसे स्पष्ट कहा जाता था कि अगर वह रात को रुक कर प्रधानमंत्री के साथ सोयेंगी तो उन्हें अतिरिक्त पैसा मिलेगा.

वह इनमें से कुछ युवतियों को कुछ वायदे भी करते जैसे कि तुम्हें सँसद का सदस्य बनवाऊँगा, या योरोपियन संसद का सदस्यता दिलाऊँगा, या टीवी में काम दिलाऊँगा. अपने वादों से मुकरने वाले भी नहीं थे वह. सचमुच उन्होंने कुछ युवतियों को युरोपीय संसद के चुनाव में अपनी पार्टी का टिकट दिया पर जब अखबारों में यह बात निकली तो बात बदल दी.

इस सेक्स स्कैंडल की बात से बरलुस्कोनी जी कुछ विषेश नहीं घबराये हैं, बल्कि इसका फायदा उठाया उन्होंने सबको यह बताने के लिए कि छहत्तर साल के हो कर भी, अभी भी उनमें हर रात को नयी युवती के साथ संभोग करने का दम है. जब किसी ने कहा कि वे वियागरा जैसी गोली का उपयोग करते हैं तो उन्होंने उस पर मान हानि का मुकदमा कर दिया और बयान दिया कि उन्हें वियागरा जैसी गोलियों की आवश्यकता नहीं. देश के प्राईवेट टीवी चैनल तो उनके हैं ही, राष्ट्रीय चैनलों पर भी उनका ज़ोर है इस लिए कुछ अपवाद छोड़ कर अधिकतर टीवी के पत्रकार उनके बारे में कुछ नहीं कहते. विपक्ष के दो अखबारों पर भी उन्होंने मानहानी का मुकदमा कर के उन्हें चुप कराने की कोशिश की है.

लेकिन अब छोटे छोटे अखबार भी उनके बारे में इस तरह की बातें छाप रहे हैं कि पढ़ कर आप दंग रह जायें कि क्या इस तरह की बातें देश के प्रधानमंत्री के बारे में की जा सकती है? जैसे आज के हमारे स्थानीय अखबार का मिकेले कावालिएरे का बनाया एक कार्टून देखिये. इस कार्टून में "स्कोपो" शब्द का प्रयोग किया गया है जिसका अर्थ "लक्ष्य" भी हो सकता है और "संभोग करना" भी.

कार्टून का शाब्दिक अनुवाद हैः
"हर सुबह सात बज कर बीस मिनट पर मैं शीशे में स्वयं को देखता हूँ और पूछता हूँ, प्रधानमंत्री आज आप के जीवन का क्या लक्ष्य है?"
"लक्ष्य?"
"क्या लक्ष्य?"
"संभोग करो".

कहते हैं कि बरलुस्कोनी जी की लोकप्रियता अभी भी कम नहीं हुई है, कि इटली के आम लोगों को इस तरह की बातों की कोई परवाह नहीं, यह तो केवल थोड़े से अधिक पढ़े लिखे लोग हैं जो इन बातों को उछाल रहे हैं. पर मुझे लगता है कि बात उनके हाथ से निकल रही है और लोगों में रोष बढ़ रहा है.

मंगलवार, जून 28, 2005

माजरा क्या है?

दुनिया में दो तरह के लोग रहते हैं, एक वह जो तमाशा करते हैं और दूसरे वह जो आस पास से खड़े हो कर पूछते हैं, क्या माजरा है भाई साहब. दूसरी श्रेणी के लोग, यानी माजरा क्या है पूछने वाले, पहली श्रेणी के लोगों से बहुत अधिक हैं. जब से टेलीविज़न का आविष्कार हुआ है तब से तो माजरा देखने वालों की संख्या और भी कई गुना बढ़ गयी है.

"अरे साला, देखो कैसे अपनी जोरु को पीट रहा है?" "अजी, क्या अखबार में मुँह घुसाये बैठे हो, देखो बाहर पुलीस शास्त्री जी के सुपुत्र को ले कर जा रही है." "देखा तुमने कैसे चुन्नु की बीवी ने चौदराईन को दो टूक ज़बाव दिया, बोलती बन्द हो गयी उसकी." "कौन जाने कौन था, बेचारा यूँ सड़क पर ही मर गया."... इत्यादी अन्य बातें हो सकती है जो "माजरा क्या है" जैसे सवाल के बाद, माजरा देखने वालों में अक्सर निकल आती हैं. माजरा देखने वाले, रस ले ले कर खुशी से दूसरों पर आयी मुसीबत का मजा उठाते है.

कभी कभी, माजरा देख कर भी चुपचाप ही रहना पड़ता है. यानी मन में खुशी के लड्डु फूट रहे हों, फिर भी चेहरा गम्भीर बना कर यूँ रहने पर हम मजबूर होते हैं मानो हमें सचमुच बहुत दुख हो रहा हो. घर में अगर पिता जी का झापड़ अगर आप के छोटे या बड़े भाई को पड़े, या फिर जब मास्टर साहब उस लड़के को मुर्गा बनवायें जिससे आप का झगड़ा हुआ था, तो ऐसा भी हो सकता है कि आप माजरा तो देखें, पर छुप छुप कर.

तो क्या, माजरा देखना केवल दूसरों की मुसीबतों में ही हो सकता है. जब दूसरे लोग खुशी मना रहें हो तो क्या वहाँ माजरा देखने वाले नहीं हो सकते? आप का क्या खयाल है?

अरे साहब आप क्या सिर्फ हमारे चिट्ठे को पढ़ कर मन ही मन खुश होते रहेंगे कि कितनी बेवकूफी की बातें लिखी हैं हमने ? माजरा देखना छोड़िये और आप भी अपनी कलम उठाइये, इन माजरा देखने वालों ने तो नाक में दम कर दिया है.

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