शुक्रवार, मार्च 04, 2011

हाहाकार का नाम

"ख़ामोशी" फ़िल्म में गुलज़ार साहब का एक बहुत सुन्दर गीत था, "हमने देखी हैं उन आँखों की महकती खुशबु ... प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो". लेकिन अगर आँखों में प्यार नहीं हाहाकार हो तो क्या उसे नाम देने की कोशिश करना ठीक है?

कुछ दिन पहले घुघूती बासूती जी के चिट्ठे पर "बच्चा खोने के दर्द" में जमनीबाई की कहानी पढ़ते पढ़ते, अचानक मन में कुछ साल पहले की एक पार्टी की याद उभर आयी थी. मेरे साथ काम करने वाले मित्र के यहाँ थी वह पार्टी. वहीं मेरी मुलाकात एक अर्जेनटीनी युवक से हुई जो तब जेनेवा में रहता था. मैं तब कई महीने तक जेनेवा में रह कर वापस इटली लौटा था और हम लोग आपस में जेनेवा में रहने के अपने अनुभवों की बात कर रहे थे. क्या नाम था उसका यह याद नहीं, लेकिन क्या बात कही थी उसने, वह याद है.

खाना लगा तो हम दोनो साथ साथ ही बैठे और बातें करते रहे. खाना समाप्त हुआ तो हम दोनो वाईन का गिलास ले कर, बाहर बालकनी में आ खड़े हुए. मेरे मित्र का घर पहाड़ी पर है और बालकनी के नीचे बड़ा बाग है, जहाँ महमानों के बच्चे शोर मचाते हुए खेल रहे थे. पहाड़ी पर उतरती शाम के साये, हल्की सी ठँड, बहुत सुन्दर लग रहा था. यात्राओं की बात चल रही थी, तो उसने अपने पंद्रह बीस साल पहले के एक अनुभव के बारे में बताना शुरु किया जब वह बुओनुस आयरस के विश्वविद्यालय से एन्थ्रोपोलोजी में नयी स्नातक डिग्री ले कर निकला था और अपने विश्वविद्यालय के कुछ मित्रों के साथ मिल कर वहीं के एक छोटे से फोरेन्सिक एन्थ्रोपोलोजी में काम करने वाले एक छोटे से गुट में काम करने लगा था.

एन्रथ्रोपोलोजी यानि मानवविज्ञान में मानव जीवन, रहन सहन, रीति रिवाज़, सभ्यता जैसे विषयों को पढ़ा जाता है, जैसे कि लोग आदिवासी जातियों के बारे में यह सब बातें जानने की कोशिश करते हैं. "फोरेन्सिक एन्थ्रोपोलोजी" (Forensic anthropology) यानि "कानूनी मानवविज्ञान", हड्डियों और अन्य मानव अवषेशों की सहायता से उनके बारे में जानने की कोशिश करता है. यही काम था उस गुट का, सत्तर के दशक में अर्जेन्टीना में हुए तानाशाही शासन में गुम कर दिये गये लोगों की सामूहिक कब्रों से हड्डियाँ निकाल कर, यह समझने की कोशिश करना कि वह किसकी हड्डियाँ थीं और उन्हें उस व्यक्ति के परिवार को देना ताकि वह उसका ठीक से संस्कार कर सकें. कुछ ही सालों में यह गुट इस तरह के काम करने में इतना दक्ष हो गया था कि आसपास के देशों से भी उन्हें बुलावे आने लगे थे कि वहाँ जा कर सामुहिक कब्रों में रखे अवषेशों की पहचान में उनकी मदद करें.

इसी काम में उस युवक को ग्वाटेमाला जाने का मौका मिला था, जिस यात्रा की वह बात बता रहा था, "बड़ी सामुहिक कब्र थी, जिसमें उन्होंने सौ से भी अधिक बच्चे मार कर डाले थे. उनकी हड्डियों को जोड़ कर शवों को अलग अलग करके पहचानने की कोशिश करने का काम था. सभी बच्चे बारह साल से छोटी उम्र के थे. बच्चों की हड्डियाँ देखने लगे तो समझ में आया कि उन्हें किस तरह मारा गया था. शायद उनके पास गोलियाँ कम थीं या गोलियाँ मँहगी होती हैं और वह इतना खर्चा नहीं करना चाहते थे. तो वह लोग बच्चे का सिर चट्टान पर मार कर फोड़ते थे और फ़िर उसके शव को नीचे खड्डे में फैंक देते थे."

शायद वाईन का असर था या उस सुन्दर शाम का, मैं पहले तो स्तब्ध सुनता रहा, फ़िर मुझे रोना आ गया. मुझे रोता देख वह चुप हो गया.

बासूती जी की पोस्ट पढ़ी तो यह बात याद आ गयी. दुनिया में कितने बच्चों का दर्द जिनके माता पिताओं को गायब कर दिया गया, कितने माता पिताओं का दर्द, जिनके बच्चों को गायब कर दिया गया.

मैंने इंटरनेट पर फोरेन्सिक एन्थ्रोपोलोजी के उस अर्जेन्टीनी गुट के बारे में खोजा तो मालूम चला कि उसका नाम है एआफ यानि "एकीपो अर्जेन्टिनो दे एन्थ्रोपोलोजिया फोरेन्से" (Equipo Argentino de Antropología Forense, EAAF). उनके बारे में अधिक जानना चाहते हैं तो उनके वेबपृष्ठ पर पढ़ सकते हैं. इंटरनेट पर एआफ की सन 2007 की वार्षिक रिपोर्ट भी है जिसमें उनके काम के बारे में बहुत सी जानकारी मिलती है.

मुझे इस रिपोर्ट में उन देशों की लम्बी लिस्ट देख कर हैरत हुई, जहाँ एआफ को इस तरह सामूहिक कब्रों में हड्डियों की पहचान के लिए बुलाया गया है. यानि दुनिया के इतने सारे देशों में तानाशाहों ने, या तथाकथित जनतंत्रों में भी पुलिस या मिलेट्री ने कितने हज़ारों लोगों को मारा होगा! हड्डियों से पहचानना कि यह कौन सा व्यक्ति था, इस काम में अर्जेन्टीना का यह गुट "एआफ" दुनिया के सबसे अनुभवी गुटों में गिना जाता है और यह लोग एशिया, अफ्रीका और दक्षिण अमरीका के विभिन्न देशों में काम कर चुके हैं. कुछ वर्ष पहले उन्होंने दक्षिण अमरीकी क्राँतिकारी चे ग्वेवारा के अवषेशों से उनकी कब्र को पहचान कर बहुत प्रसिद्ध पायी थी. जब एआफ ने काम करना शुरु किया था तो डीएनए की जाँच करना संभव नहीं था लेकिन पिछले दशक में यह तकनीक बहुत आसान हो गयी है और पहचान में आसानी हो गयी है. अपने बच्चों या प्रियजनों को खोजने वालों से थोड़ा सा खून देने को कहा जाता है और उस खून के डीएनए को हड्डियों के डीएनए से मिलाया जाता है.

सब लोगों के शव नहीं मिलते. एक एक करके मारना खर्चीला होता है, कहते हैं कि अर्जेन्टीना में लोगों को मिलट्री वाले जहाज़ में बिठा कर ले जाते थे, और समुद्र के ऊपर सबको बाहर धक्का दे देते थे.

Monument to the dead, certosa cemetry, Bologna

सत्तर के दशक में अर्जेंन्टीना में करीब 9000 लोग "गुम" किये गये. पहले तो सालों तक उन लोगों की माएँ, नानियाँ, दादियाँ लड़ती रहीं यह जानने के लिए कि उनके बच्चों का क्या हुआ. जिन नवयुवकों और नवयुवतियों को "गुम" किया गया, कई बार उनके बच्चों को नहीं मारा गया, बल्कि, उनके माँ बाप को मारने वाले मिलेट्री वालों के कुछ परिवारों ने उन्हें अपने बच्चों की तरह पाला. आज भी, तीस चालिस सालों के बाद, उन्हीं परिवारों की नयी पीढ़ियाँ इसी लड़ाई में लगे हैं, या जानने के लिए कि उनके परिवार के लोगों का क्या हुआ. बहुतों के मन में आशा है कि शायद उनके खोये हुए बच्चों का पता मिल जाये. वह न भी मिले, परिवार वालों को अपने प्रियजन के मृत शरीर के अवषेश मिलना भी एक तरह की मानसिक शाँती है जिससे कि सालों की खोज और उससे जुड़ी आशा समाप्त हो जाती है.

हमारे रिश्ते, हमारे परिवार, हमारे बच्चे ही हमारे जीवन का सार हैं. उनके बिना जीवन भी अर्थहीन लगे. अगर अपना किसी दुर्घटना में मरे या मार दिया जाये, तो भी वेदना कम नहीं होती, लेकिन मन को समझ तो आ जाता है कि जाने वाला चला गया. जिन्होंने अपने खोये हैं, जो एक दिन घर से निकले फ़िर वापस नहीं आये, या जिन्हें पुलिस ले गयी पर उनका कुछ पता नहीं चले कि क्या हुआ, तो मन भटकता ही रहेगा, इसी आशा में शायद कहीं किसी तरह से बच गयें हों और एक दिन मिल जायें.

हड्डियों को नाम मिल जाने से, जिसे खोया था वह तो नहीं मिल सकता लेकिन उसे खोने का जो हाहाकार आँखों में बसा होता है, उसे एक नाम मिल जाता है.

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बुधवार, मार्च 02, 2011

दुनिया का पाकिस्तानीकरण

कुछ समय पहले सूडान में एक जनमत हुआ जिसमें देश के दक्षिणी भाग में रहने वाले लोगों को चुनना था कि वह सूडान में रहना चाहेंगे या फ़िर अपना अलग देश चाहेंगे. इस जनमत का नतीजा निकला है कि 98 प्रतिशत से अधिक दक्षिणी सूडान के लोग अपने लिए अपना अलग देश चाहते हैं. अधिकतर लोगों ने इस जीत का स्वागत किया है, वह कहते हैं कि इससे लाखों लोगों की मृत्यु और वर्षों से चलते दंगों का अंत होगा. धर्म के नाम पर अलग देश चाहने वालों की जीत से मेरे मन में बहुत से प्रश्न उठे, जिनके उत्तर शायद आसान नहीं.

अफ्रीकी जीवन के विषेशज्ञ प्रोफेसर अली मज़रुयी का एक लेख पढ़ा जिसमें मुझे अपने प्रश्नों की प्रतिध्वनि दिखी. प्रोफेसर मरज़ुई ने इसे "दुनिया का बढ़ता हुआ पाकिस्तानीकरण" कहा है. उन्होंने लिखा हैः
यूरोपीय साम्राज्यवाद के बाद के अफ्रीका महाद्वीप में दो तरह की लड़ाईयाँ हुई हैं - आत्म पहचान की लड़ाईयाँ जैसे कि रुवान्डा में हुटू और टुटसी की लड़ाई, और प्राकृतिक सम्पदा की लड़ाई जैसे कि नीजर डेल्टा में पैट्रोल के लिए होने वाली लड़ाई... पर अफ्रीकी महाद्वीप में 2000 से अधिक जाति गुट बसते हैं, अगर उनमें से दस प्रतिशत को भी अपने लिए स्वतंत्र राज्य मिले तो अफ्रीका छोटे छोटे देशों में बँट जायेगा जिनमें आपस में युद्ध होंगे. ..अफ्रीका में होने वाले विभिन्न, अपना अलग राज्य पाने के प्रयासों के पीछे, अधिकतर जाति या नस्ल के प्रश्न रहे हैं, न कि धार्मिक प्रश्न. 1950 के दशक में क्वामे न्करुमाह जैसे अफ्रीका नेताओं ने "पाकिस्तानीकरण" के विरुद्ध, यानि धार्मिक बुनियादों पर अलग होने के विचार पर चिंता व्यक्त की थी. जब भारत का विभाजन हुआ था, कई अफ्रीकी राष्ट्रवादी नेता, ब्रिटिश भारत में हिंदू मस्लिम तनाव का कारण बता कर में भारत के विभाजन करने के विरुद्ध थे, क्योंकि जानते थे कि अफ्रीका में भी ऐसे कुछ देश थे, जहाँ इस तरह के निर्णय लिये जा सकते थे. जैसे कि नाईजीरिया जहाँ उत्तर में मुसलमानों का बहुमत है और दक्षिण में ईसाईयों का.

आखिर यह नीति सुडान तक पहुँच गयी है, ईसाई बहुमत वाला दक्षिणी भाग, उत्तरी मुस्लिम भाग से अलग हो जायेगा. दक्षिणी सूडानी कहते हैं कि उत्तरी सूडानी उनसे भेदभाव करते हैं... लेकिन दक्षिण सूडान भी अलग जाति गुटों से बना है. कल को वहाँ रहने वाली अल्पमत गुट कहने लगेगें कि डिंका लोग हमें समान अधिकार नहीं देते. पैट्रोल की सम्पदा को कैसे बाँटा जाये, भी जटिल प्रश्न होगा.
धर्म के नाम पर, या अन्य किसी जाति विभिन्नता के नाम पर अलग देश माँगना, एक ऐसा चक्कर है जो कहीं नहीं रुकता. पाकिस्तान अलग देश बना तो क्या उसके अपने बलूचियों, सिंधियों, पँजाबियों, पठानों के बीच के अंतर्विरोध मिट गये? भारत के उत्तर में कश्मीर की घाटी में इसी नाम से हिँसा आज भी जारी है. किसी भी देश के सब निवासियों को जाति, धर्म आदि के भेदों से ऊपर उठ कर विकास के समान अधिकार मिलें यह अवश्यक है, और उन्हें ऐसी सरकारें चाहियें जो यह नीति लागू कर सकें. पर जब ऐसा नहीं होता, या किसी गुट को लगे कि उसके साथ न्याय नहीं हो रहा, तो अलग अपना देश या राज्य माँगने लगते हैं. लेकिन मुझे लगता है कि अक्सर, बँटवारा चाहने वाले, समान विकास और अधिकारों के प्रश्न को महत्वपूर्ण नहीं मानते, अपनी जाति, मान, रीति और धर्म के प्रश्न उठा कर राष्ट्रवादी भावनाओं को भड़काते हैं और पीछे ध्येय होता है कि कैसा बाकी सब गुटों से ताकतवर बने और देश की सम्पदा को अपने काबू में रखें.

कुछ देशों में मुस्लिम बहुमत वाले इलाकों ने शरीयत पर आधारित काननों को सब पर लागू कराना चाहा है, वह ज़ोर डालते हैं कि सब लोग उनके कहे के अनुसार पहने, खायें, व्यवहार करें. इससे अलग होने की भावना तेज होती है. नाईजीरिया में इसी वजह से तनाव बढ़े हैं. भारत के कुछ हिस्सों में हिंदू संस्कृति या मुसलमान आत्मनिष्ठा के नाम पर लोगों पर इसी तरह के दबाव डालते हैं. यही वजह है कि जब सूडान के दक्षिण वाले लोगों के जनमत में अलग होने के निर्णय के बारे में सुना तो मुझे कुछ भय सा लगा कि इससे अलग होने वाले गुटों को बल मिलेगा.

आज की दुनिया की बहुत सी समस्याओं की जड़ें पिछली सदी के यूरोपीय साम्राज्यवाद में छुपी हैं. साम्राज्यवाद के समाप्त होने के बाद भी, यूरोप ने विभिन्न तरीकों से अफ्रीका, अमरीका और एशिया के देशों में अपने स्वार्थ के लिए तानाशाहों को सहारा दिया है, जिसमें देशों में रहने वाले विभिन्न गुटों को समान अधिकार नहीं मिले. आज जहाँ एक ओर विभिन्न अरब देशों में इजिप्ट, टुनिज़ि, लिबिया जैसे देशों में हो रहे जनतंत्र के आन्दोलन इस्लाम की नहीं, मानव अधिकारों के मूल्यों की आवाज़ उठा रहे हैं, वहीं जनतंत्र की दुहायी देने वाले यूरोपी नेता अपने तानाशाह मित्रों पर आये खतरे से घबरा कर "इस्लामी रूढ़िवाद" के डर की बात कर रहे हैं.

दूसरी ओर, यूरोप में रहने वाले अन्य देशों से आये प्रवासियों में रूढ़िवादी धार्मिक नेताओं की आवाज़, अपने मानव अधिकारों के नाम पर पारम्परिक रीति रिवाज़ों और मूल्यों को बनाये रहने की लिए ही उठती है. यही लोग अक्सर विदेशों से अपने देशों में रुढ़िवादी और देशों को बाँटने वाली ताकतों को पैसा भेजते हैं. वह यूरोप या अमरीका जैसे देशों में रह कर भी संस्कृति बचाने के नाम पर अपने परिवारों और गुटों पर पूरा काबू बना कर रखते हैं और आवश्यकता पड़ने पर मारने मरवाने से नहीं घबराते. उनमें नारी के समान अधिकारों या विकास की बात कम ही होती है. इस विषय यूरोप में रहने वाले मुसलमान नेताओं के बारे में फरवरी के "हँस" में शीबा जी ने लिखा हैः
कठमुल्ला वर्ग बड़ी बेशर्मी से फ्रांस के बुरक़ा बैन पर टीवी, अखबार आदि में अवतरित हो कर फ्रांस की सरकार को लोकताँत्रिक मूल्य याद दिलाने लगता है. तब इन्हें शर्म नहीं आती कि जिस मुँह से यह ज़बरदस्ती बुरक़ा उतारने को बुरा कह रहे हैं "चुनाव की आज़ादी" के आधार पर, उसी मुँह से इन्हें अरब ईरान आदि देशों में ज़बरदस्ती औरतों को बुरक़ा पहनाने की भर्त्सना भी तो करनी चाहिये जो उतना ही चुनाव के अधिकार का हनन है. लेकिन नहीं, इन्हें अरब ईरान पर उंगली उठाने की ज़रूरत महसूस नहीं होती क्योंकि वहाँ की ज़बरदस्ती इन्हें जायज़ लगती है.
पर यह बात केवल मुसलमान गुटों की नहीं है. अमरीका में रहने वाले कट्टरपंथी यहूदी गुट एक अन्य उदाहरण है जिनका ईज़राईल पर गहरा प्रभाव है.

धार्मिक रूढ़िवाद और परम्परा बनाये रखने वालों की लड़ाई है कि अपने आप को कैसे अन्य गुटों से अलग किया जाये, दुनिया को कैसे बाँटा जाये, कैसे अपने धर्म का झँडा सबसे ऊँचा किया जाये और कैसे अन्य सब धर्मों को नीचा किया जाये. उदारवाद और मानव अधिकारों की दृष्टि से देखें तो धर्म व्यक्तिगत मामला है, कानून के लिए सभी समान होने चाहिये, सबको समान अधिकार और मौके मिलने चाहिये. समय के साथ इन दोनों में से किसका पलड़ा भारी होगा, कौन से रास्ते पर जायेगी मानवता?

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रविवार, फ़रवरी 27, 2011

रँगबिरँगे मुखोटों का त्योहार

बहुत सालों से वेनिस के रँगबिरँगे मुखोटों के कार्नेवाल को देखने की इच्छा थी, लेकिन हर बार बीच में कोई न कोई अड़चन आ जाती थी. हमारे शहर बोलोनिया से वेनिस कुछ विषेश दूर नहीं, रेलगाड़ी से केवल दो घँटे का रास्ता है. करीब तीस वर्ष पहले जब इटली में नया था तब अस्पताल में साथ काम करने वाले मित्र मुझे शाम को साथ वेनिस ले गये थे, लेकिन तब वाइन पी कर हुल्लड़ करने में हमारी अधिक दिलचस्पी थी, तो क्या देखा था उसकी मन में बस कुछ धुँधली सी यादें थीं. इसलिए कल जब मौका मिला छोटा कार्नेवाल देखने का, तो उसे खोना नहीं चाहा. आज उसी वेनिस के मुखोटों वाले कार्नेवाल की कुछ तस्वीरें प्रस्तुत हैं.

Venice carneval, 2011

कार्नेवाल शब्द लेटिन से बना है, जिसका अर्थ है "कारने लेवारे" (Carne=meat, levare=remove), यानि "माँस को हटा दीजिये". जैसे मुसलमानों में रोज़े होते हैं, कुछ उसी तरह कैथोलिक ईसाई अपने त्योहार ईस्टर के पहले 40 या 44 दिनों का खाने का परहेज़ करते हैं, जिसमें माँस खाना वर्जित होता है. ईस्टर की तारीख रोमन कैलेंडर से नहीं बल्कि वसंत की पूर्णमासी से निर्धारित की जाती है, इसलिए हर साल अलग दिन पड़ती है. कार्नेवाल का दिन मँगलवार का होता है जिसे "मोटा मँगलवार" (Mardì Gras) कहते हैं, क्योंकि इस दिन खाने में माँस हटाने से पहले, लोग जी भर के माँस खाते हैं, पीते पिलाते हैं, मजे करते हैं. इस वर्ष मोटा मँगलवार, यानि कार्नेवाल होगा 8 मार्च को. पर अब यह केवल मस्ती का त्योहार ही रह गया है क्योंकि अब अधिकतर लोग खाने में कम खाने, सादा खाने या माँस न खाने में विश्वास नहीं करते.

कार्नेवाल के त्योहार को विभिन्न शहर अपने अपने ढंग से मनाते हैं, हाँलाकि हर कार्नेवाल में एक जलूस का होना आवश्यक होता है. ब्राज़ील में रियो दे जानेइरो शहर का कार्नेवाल अपनी रंगीन झाँकियों और थोड़े से वस्त्र पहने हुए साम्बा नाचने वालों के लिए प्रसिद्ध है. इस समय में वहाँ सेक्स की स्वच्छँदता भी बहुत होती है. भारत में गोवा का कार्नेवाल भी अपनी झाँकियों और मस्ती के लिए प्रसिद्ध है. इटली में बहुत से शहर अपने जलूसों और झाँकियों के कार्नेवाल के लिए जाने जाते हैं, लेकिन वेनिस का कार्नेवाल सबसे अनोखा माना जाता है क्योंकि इसमें सतारहवीं और अठाहरवीं शताब्दी की पोशाकों के साथ रँगबिरँगे मुखोटे जुड़े हैं.

आजकल कार्नेवाल में लोग बहुत मेहनत करते हैं, लाखों रुपये खर्च करते हैं वस्त्र और झाँकिया बनवाने में. साथ ही इसमें व्यवसायिक लाभ की बात भी जुड़ गयी है क्योंकि लाखों पर्यटक कार्नेवाल को देखने देश विदेश से आते हैं. तो कार्नेवाल की अवधि बढ़ा दी गयी है, "मोटे मँगलवार" के बड़े जलूस और असली कार्नेवाल के दो तीन सप्ताह पहले ही, शनिवार और रविवार को छोटे कार्नेवाल आयोजित किये जाते हैं ताकि अधिक से अधिक पर्यटक उन्हें देखने आयें.

कल 26 फरवरी को वेनिस में कार्नेवाल का पहला जलूस था. इसकी खासियत थी "सात मारिया की यात्रा", जिसमें शहर की सात सुबसे सुन्दर युवतियों को चुना जाता है, और शहर के युवक उन्हें पालकी में कँधे पर उठा कर ले जाते हैं, उनके पीछे पीछे शहर के जाने माने व्यक्ति प्राचीन पौशाकें पहन कर चलते हैं. वेनिस कार्नेवाल के अखिरी दिन, इन्हीं सात मारियों का नावों का जलूस निकलेगा, और सबसे सुन्दर युवती को "वेनिस की मारिया" का खिताब मिलेगा. कार्नेवाल के आखिरी दिन सबसे सुन्दर मुखोटे और पौशाक वाले व्यक्ति को भी चुना जायेगा.

कल की इसी वेनिस यात्रा से कार्नेवाल की कुछ तस्वीरें प्रस्तुत हैं. इन्हे देख कर आप स्वयं निर्णय ले सकते हैं कि वेनिस का कार्नेवाल अनूठा है या नहीं. घँटों चल चल कर और भीड़ में धक्के खा कर थकान से चूर हो कर घर लौटा पर मुझे लगा कि वाह, बहुत सुन्दर और रँगबिरँगा कार्नेवाल है.

Venice carneval, 2011

Venice carneval, 2011

Venice carneval, 2011

Venice carneval, 2011

Venice carneval, 2011

Venice carneval, 2011

Venice carneval, 2011

Venice carneval, 2011

Venice carneval, 2011

Venice carneval, 2011

Venice carneval, 2011

Venice carneval, 2011


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गुरुवार, फ़रवरी 24, 2011

मलदान मिलेगा?

कोई अगर अपनी जान बचाने के लिए आप से आप का थोड़ा सा ताज़ा किया हुआ पाखाना माँगे तो क्या आप देंगे? आप सोच रहे होंगे कि शायद यह कोई मज़ाक है. लेकिन यह कोई मज़ाक नहीं है, बल्कि वैज्ञानिक खोज का विषय है, जिसकी कहानी न्यु साईन्टिस्ट पत्रिका में श्री अनिल अनन्तस्वामी ने लिखी है.

Scene from Pushpak, Kamalahassan
"पाखाना" शब्द ही कुछ ऐसा है जिसका सामाजिक प्रभाव छोटी उम्र से ही बहुत तेज़ होता है जिसकी वजह से शब्द से भी कुछ घिन सी आने लगती है. कमालहसन की एक पुरानी फ़िल्म थी "पुष्पक" जिसमें कोई डायलाग नहीं थे, उसमें मलदान के कुछ दृश्य थे. अगर आप ने यह फ़िल्म देखी है तो मेरे विचार में इन दृश्यों को भूलना कठिन है. फ़िल्म में हीरो ने एक पुरुष को घर में बन्द किया है, और उसके पाखने को छुपाने के लिए हर रोज़ एक डिब्बे में बँद करके, उस पर रंगीन कागज़ चढ़ा कर, बसस्टाप के पास रख आता है, जहाँ उसे ले कर जो भी खोलता है वह पाखाना देख कर उल्टी कर देता है. तब रंगीन डिब्बों में बम आदि छोड़ने का काम नहीं शुरु हुआ था, इसलिए यह दृश्य विश्वस्नीय था, आज तो डिब्बा खोलने से पहले ही पुलिस बम विस्फोट टीम के साथ हाज़िर हो जायेगी.

खैर बात मज़ाक या फ़िल्म की नहीं, सचमुच की बीमारी की है.

हमारी आँतों में रहने वाले सूक्ष्म किटाणु विटामिन बनाते हैं, खाना हज़म करने में सहायता करते हैं और शरीर को स्वस्थ रखते हैं. अगर आप को कुछ दिन एँटीबायटिक खाने पड़े तो कई बार दस्त लग जाते हैं, क्योंकि एँटीबायटिक से अक्सर हमारे शरीर के यह किटाणु मर जाते हैं. अधिकतर तो यह दस्त की तकलीफ़ थोड़े से दिन ही रहती है, और धीरे धीरे, आँतों के किटाणुओं का विकास होने के साथ, अपने आप ठीक हो जाती है. लेकिन कभी कभी, अगर एँटीबायटिक से इलाज लम्बा करना पड़े या फ़िर व्यक्ति के शरीर में पहले से अन्य बीमारियों की कमज़ोरी हो, तो एँटीबायटिक की वजह से हुए दस्त जानलेवा भी हो सकते हैं. ऐसे में अक्सर आँतों में नये किटाणु बढ़ने लगते हैं जिनपर ऐटीबायटिक का असर कम पड़ता है और जिन्हें शरीर से हटाना बहुत कठिन होता है. ऐसे एक किटाणु का नाम है क्लोस्ट्रिडियम दिफ़िसिल (Claostridium difficile), जो अगर आँतों में बस जाये तो बहुत से लोगों की जान को खतरा हो जाता है.

अभी तक क्लास्ट्रिडियम दिफ़िसल जैसे किटाणुओं का इलाज़ नये और बहुत शक्तिशाली एँटीबायटिक से है किया जाता है जो मँहगे तो होते हैं पर फ़िर भी अक्सर मरीज़ को बचा नहीं पाते.

इस बीमारी का नया इलाज निकाला केनेडा के कालगरी शहर के अस्पताल में काम करने वाले कुछ चिकित्सकों ने. वह मरीज़ के परिवार वाले किसी व्यक्ति से, जिसे दस्त वगैरा न लगे हों, थोड़ा सा सामान्य पाखाना देने के लिए कहते हैं, जिसे नलकी द्वारा मरीज़ की आँतों के उस हिस्से में छोड़ा जाता है जहाँ यह नये कीटाणु अधिक होते हैं. उन्होंने पाया कि पाखाने में पाये जाने वाले सामान्य किटाणु इन नये किटाणुओं से लड़ने में एँटीबायटिक दवाईयों के मुकाबले में अधिक सफ़ल होते हैं, और कुछ दिनों में ही उनका सफ़ाया कर देते हैं. एक शौध ने दिखाया कि इस तरह परिवार के पाखाने से मिले सामान्य किटाणु मरीज़ के शरीर में 24 सप्ताह तक रह सकते हैं.

वैज्ञानिकों के अनुसार हमारा पाखाना किटाणुओं के चिड़ियाघर की तरह है, जिसमें 25 हज़ार तरह के विभिन्न किटाणु करोड़ों की संख्या में मिल सकते हैं. इनमें से बहुत से किटाणु सिमबायटिक होते हैं, यानी परस्पर फायदा करने वाले, अगर मानव शरीर से कुछ लेते हैं तो साथ ही मानव शरीर का फायदा भी करते हैं, विटामिन बना के, खाने को पचा के या हानिकारक किटाणुओं से लड़ कर. अपनी आँतों में रहने वाली इस किटाणु सम्पदा की रक्षा करने के लिए आवश्यक है हम लोगों को बिना ज़रूरत एँटीबायटिक दवाईयाँ नहीं खानी चाहिये, क्योंकि उनसे शरीर का फ़ायदा करने वाले किटाणु नष्ट हो जाते हैं.

एँटीबायटिक यानि वह दवाईयाँ जो बीमारी फ़ैलाने वाले सूक्ष्म किटाणुओं को मारती हैं, बहुत काम की चीज़ हैं. इनकी वजह से ही आज हम टीबी, कुष्ठ रोग, न्यूमोनिया, एन्सेफलाइटिस, जैसी बीमारियों को काबू में ला सकते हैं और इनकी वजह से लाखों जानें बचती हैं. आम उपयोग में आने वाली एँटीबायटिक हैं पैनिसिलिन, एम्पीसिलिन, जैंटामाइसिन, बेक्ट्रिम, रिफैम्पिसिन, आदि.

लेकिन एँटीबायटिक का असर वायरस यानि सूक्ष्म किटाणुओं से भी अतिसूक्ष्म जीवन कण जो कि आम फ्लू से ले कर एडस जैसी बीमारियाँ करते हैं, पर नहीं पड़ता. वायरस पर काबू पाने के लिए अलग दवाईयों की आवश्यकता होती है. एँटीबायटिक के अधिक गलत उपयोग इसी लिए होते हैं कि लोग फ्लू जैसी बीमारियों के लिए भी एँटिबायटिक ले लेते हैं. फ्लू जैसी बीमारी फ़ैलाने वाले वायरस, बिना एँटीबायटिक के शरीर कुछ दिनों में अपने आप साफ़ कर देता है.

दूसरी आम गलती है कि एक बार एँटीबायटिक का प्रयोग शुरु किया जाये तो कम से कम तीन या पाँच दिन दिन अवश्य लेना चाहिये लेकिन लोग "तबियत अब ठीक हो गयी है" सोच पर, इन्हें पूरा समय नहीं लेते, जिससे बीमारी वाले किटाणु पूरी तरह नहीं मरते और कभी कभी ऐसे किटाणुओं को जन्म देते हैं जिनपर किसी दवाई का असर नहीं होता.

पाखाने से इलाज का सुन कर दवा कम्पनियों ने तुरंत आपत्ति उठायी है कि यह इलाज गैरवैज्ञानिक सबूतों की बिनाह पर किया जा रहा है. इस तरह के इलाज होंगे तो दवा की बिक्री भी कम होगी, इसलिए भी कुछ दवा कम्पिनयाँ चिंता करती हैं. इसलिए इस चिकित्सा विधि पर कई जगह वैज्ञानिक शौध भी किये जा रहे हैं, जैसे कि होलैंड में और प्रारम्भिक परिणाम भी अच्छे लग रहे हैं.

design about excretion donation

यानि वह दिन भी आ सकता है जब अस्पताल में आप का प्रियजन दाखिल हो, तो जैसे रक्तदान के लिए कहते हैं, कभी कभी, डाक्टर आप से थोड़ा सा मलदान कीजिये के लिए भी कह सकते हैं. अक्सर रक्तदान का सुन कर रिश्तेदार भाग उठते हैं, लेकिन मलदान में यह दिक्कत नहीं आनी चाहिये.

आप का क्या विचार है, इस इलाज के बारे में?

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मंगलवार, फ़रवरी 22, 2011

बात निकलेगी तो ..

तीस पैंतीस साल पहले जगजीत सिंह का एक गीत था जो मुझे बहुत प्रिय था, "बात निकलेगी तो बहुत दूर तलक जायेगी ..". आज अचानक इटली के "फासीवाद" के बारे में छोटी सी बात से एक खोज शुरु की, वह मुझे ऐसे ही जाने कहाँ कहाँ घुमाते हुए बहुत दूर तक ले आयी. दरअसल बात शुरु हुई थी शहीद भगत सिंह से.

मैं पढ़ रहा था शहीद भगत सिंह के दस्तावेज़. लखनऊ की राहुल फाऊँडेशन ने 2006 में, श्री सत्यम द्वारा सम्पादित यह नया संस्करण छापा था जिसमें भगतसिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़ संकलित हैं. दिल्ली के क्नाट प्लेस की एक दुकान में इस किताब के मुख्यपृष्ठ ने मेरा ध्यान आकर्षित किया था जिस पर नवयुवक भगतसिंह हैं और तस्वीर देख कर सोचा था कि भारत में भगतसिंह का नाम जानने वाले तो थोड़े बहुत अब भी मिल जायेंगे, लेकिन उनकी तस्वीर देख कर पहचानने वाले मुश्किल से मिलेंगे. उनका नाम सोचो तो मन में मनोज कुमार या अजय देवगन या बोबी देवल द्वारा अभिनीत भगत सिंह की छवियाँ ही मन में आती हैं.

Book Cover - documents of Bhagat Singh

जेल में लिखी डायरियों में भगत सिंह ने कई बार इटली के स्वतंत्रता युद्ध और देश को जोड़ने वाले व्यक्तियों जैसे कि माजीनी (Mazzini), कावूर (Cavour) और गरीबाल्दी (Garibaldi) का भी नाम लिया था और उनसे प्रेरणा ले कर भारत का स्वतंत्र स्वरूप कैसे हो इस पर सोचा था. इनके अतिरिक्त, वे विभिन्न इतालवी कम्यूनिस्ट विचारक, जैसे कि अंतोनियो ग्रामशी और रोज़ा लक्समबर्ग, के विचारों से भी प्रभावित थे. इस प्रभाव का एक कारण यह भी था कि 1861 में जब इटली एक देश बना था उस समय उसकी हालत कुछ कुछ पराधीन भारत जैसी थी, छोटे छोटे राजों महाराजों में बँटा देश जो आपस में लड़ते मरते और जिन पर अन्य पड़ोसी देश शासन करते थे.

भगत सिंह की बात सोचते हुए मन में इटली के दूसरे प्रभाव का ध्यान आया, फासीवाद के प्रभाव का, जिससे नाता था भारत के एक अन्य स्वतंत्रता सैनामी का, यानि सुभाष चन्द्र बोस. बोस भी भगत सिंह की तरह इतालवी देश एकाकरण के प्रमुख व्यक्ति जैसे माजीनी और गरीबाल्दी से प्रभावित थे, लेकिन साथ ही वह मुसोलीनी के फासीवाद से भी प्रभावित थे. द्वितीय महायुद्ध के दौरान जब वह कलकत्ता में ब्रिटिश सिपाहियों से बच कर भाग निकले थे, काबुल में इतालवी दूतावास ने उन्हें काऊँट ओरलान्दो मात्जो़त्ता के नाम का झूठा इतालवी पासपोर्ट बनवा कर यूरोप में यात्रा करवायी थी. उनकी सहायता के पीछे, मुसोलीनी का भारत प्रेम नहीं था, बल्कि "दुश्मनों का दुश्मन हमारा दोस्त" का विचार था कि बोस की सहायता करके वह अपने और हिटलर के दुश्मन अंग्रेजों के लिए झँझट बढ़वा रहे थे, लेकिन उन दिनों कुछ समय के लिए सुभाष इटली में रहे थे.

मुसोलीनी के फासीवाद से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के निर्माता भी प्रभावित थे और उसी प्रेरणा से उन्होंने अपनी संस्था का निर्माण किया था. क्या अर्थ था फासीवाद का और कहाँ से आया था यह शब्द? फासीवाद को तीसरा मार्ग घोषित किया गया. पहले दो मार्ग थे पूँजीवाद और कम्युनिस्म. फासीवाद राष्ट्रवादी तानीशाही का रास्ता था, जिसमें आज्ञाकारी और अनुशासित प्रजा होना आवश्यक था.

फासीवाद या फाशिस्म शब्द इटली के स्वतंत्रता संग्राम और फ्राँस की क्राँती से ही आया था. इस कथा का प्रारम्भ हुआ 1789 में फ्राँस की गणतंत्र क्राँती से, जिसका नारा था सब लोगों को बराबर अधिकार और स्वतंत्रता. इस क्राँती के 7 वर्ष बाद नेपोलियन की फौज उत्तरी इटली में घुस आयी. उस समय बोलोनिया शहर कैथोलिक धर्म के पोप के साम्राज्य का हिस्सा था और उनका साथ आस्ट्रिया की फौज देती थी. बोलोनिया में आस्ट्रिया की फौज हार गयी, और पोप के निर्युक्त गवर्नर को शहर छोड़ कर भागना पड़ा. उत्तरी इटली में नये गणतंत्र की स्थापना हुई, जिसका नाम रखा गया चिसपादाना और जिसकी राजधानी थी बोलोनिया. फ्राँस की क्राँती के चिन्ह "फाशियो लितोरियो" (Fascio Littorio), यानि रस्सी से बँधी लकड़ियाँ जिनका अर्थ था कि "एकता में शक्ति है", को पोप के नियुक्त गवर्नर के भवन में, पुराने धार्मिक निशान हटा कर, हर तरफ़ बनाया गया. तभी इतालवी झँडे को बनाया गया और उसके तीन रंगों को, लाल सफ़ेद और हरे रंगों को भी भवन में हर तरफ़ बनाया गया. यह गणतंत्र केवल तीन वर्ष चला. फ़िर पोप की सैनायें जीत कर वापस आ गयीं और उन्होंने झँडे के तीन रंगो को ढक दिया. कुछ वर्ष के बाद, नेपोलियन की फौजें फ़िर लौट आयीं, और इस बार पहले से भी बड़ा गणतंत्र बना जिसका नाम रखा गया चिसअल्पाईन और जिसकी राजधानी मिलान बना. फ़िर कभी आस्ट्रिया की मदद से पोप की सैना दोबारा शासन में आती, कभी गणतंत्र वालों का पलड़ा भारी होता. (तस्वीर में बोलोनिया के पुराने गवर्नर के भवन में फाशियो लितोरियो के चिन्ह)

Fascio littorio in Palazzo d'accursio of Bologna

यही दिन थे जब माजीनी, कावूर, गरीबाल्दी जैसे लोगों ने इटली के एकीकरण और स्वतंत्रता का सपना देखना शुरु किया जो 1861 में जा कर पूरा हुआ. इस वर्ष इस एकीकरण की 150वीं वर्षगाँठ मनायी जा रही है. जब मुसोलीनी का समय आया और 1925 में उन्होंने फासीवाद की स्थापना की, तो उनकी प्रेरणा स्वतंत्रता और एकीकरण संग्राम के वही पुराने चिन्ह थे, फाशियो लितोरियो, यानि रस्सी से बँधी लकड़ियाँ, यानि देश की एकता का चिन्ह, उसी फाशियो से फ़ाशिस्तवाद का नाम रखा गया.

यानि बात जहाँ से शुरु हुई थी, घूम कर वहीं वापस आ गयी, और हम सब माजीनी, गरिबाल्दी के साथ जुड़े इतिहास के इन पन्नों को भूल गये, जिन्होंने भगत सिंह और सुभाष चन्द्र बोस को प्रेरणा दी थी.

कभी यूरोप में आने वाले भारतीयों के लिए इटली से हो कर जाना आवश्यक था, क्योंकि सुएज़ कनाल से हो कर आने वाले पानी के जहाज़ दक्षिण इटली के बारी शहर में रुकते थे, फ़िर बारी से बर्लिन, पेरिस और लंदन तक की यात्रा रेलगाड़ी से की जाती थी. महात्मा गाँधी, रविन्द्रनाथ टैगोर, सुभाषचन्द्र बोस, जवाहरलाल नेहरू, राम मनोहर लोहिया, मदन मोहन मालवीय, सरदार पटेल, सब लोग कभी न कभी इटली से गुज़रे थे. (तस्वीर में बारी की बंदरगाह)

Port of Bari, 2008

तब बोलोनिया शहर का रेलवे स्टेश्न उत्तर तथा मध्य इटली को जोड़ता था, अक्सर यहीं पर गाड़ी बदलनी पड़ती थी. शहर में घूमते समय कभी सोचो कि शायद एक बार यहाँ सुभाष बाबू आये थे, कहाँ रुके होंगे? किसके साथ थे, क्या सोचते होगे? तब तो उन्हें यहाँ के लोग नहीं जानते थे, किसने सहारा दिया होगा ऊन्हें? मन करता है कि बीते हुए कल में जाने वाली चिड़िया बन जाऊँ, इस सारे इतिहास को देखने और समझने.

बातों से बातों का सिलसिला जुड़ता जाता है, और मन कभी एक ओर जाता है, कभी दूसरी. बात निकलेगी तो दूर तलक जायेगी ...

शुक्रवार, फ़रवरी 18, 2011

नारी मुक्ति की संत

शरीर की नग्नता में क्या नारी मुक्ति का मार्ग छुपा हो सकता है? कर्णाटक की संत महादेवी ने वस्त्रों का त्याग करके अपने समय के सामाजिक नियमों को तोड़ा था. क्यों?

Akka Mahadevi - Scribbles on Akka
मधुश्री दत्ता की सन् 2000 की डाक्यूमेंटरी फ़िल्म "स्क्रिब्बल्स आन अक्का" (अक्का पर लिखे कुछ शब्द - Scribbles on Akka) देखने का मौका मिला जो बाहरवीं शताब्दी की दक्षिण भारतीय संत अक्का महादेवी की कविताओं के माध्यम से उनके क्राँतिकारी व्यक्तित्व को विभिन्न दृष्टिकोणों से देखने का प्रयास है. फ़िल्म उन असुविधाजनक व्यक्तित्वों के बारे में सोचने पर बाध्य करती है जो समाज के हो कर भी धर्म के नाम पर, समाज के नियमों को तोड़ने का काम करते हैं पर जिनका समाज पर इतना गहरा प्रभाव होता है कि चाह कर भी उनको छुपाया या भुलाया नहीं जा सकता.

महादेवी या अक्का (दीदी) बाहरवीं शताब्दी की वीरशैव धार्मिक आंदोलन का हिस्सा मानी जाती हैं. वीरशैव आंदोलन में वैदिक कर्मकांड, मूर्तिपूजा, जाति भेदभाव, अवतारवाद, अंधश्रद्धा आदि को बाधक ठहराया और अल्लमप्रभु, अक्कमहादेवी, चेन्न-बंसव तथा सिद्धराम जैसे संतों ने जातिरहित, वर्णरहित, वर्गरहित समाज के निर्माण की कोशिश की. इन संतों के लेखन वचन साहित्य के नाम से प्रसिद्ध हुए जो कि गद्य शैली में लिखी कविताएँ हैं.

कणार्टक में शिमोगा के पास के उड़ुथाड़ी गाँव में जन्मी अक्कमहादेवी ने जब सन्यास लिया तो केवल घर परिवार ही नहीं छोड़ा, वस्त्रों का भी त्याग किया और उनके लेखन ने नारी शरीर और नारी यौनता के विषयों को जिस तरह खुल कर छुआ, वह सामान्य नहीं है. जैसे सुश्री लवलीन द्वारा अनुवादित अक्कमहादेवी की इस कविता को देखियेः
वस्त्र उतर जाएँ
गुप्त अंगों पर से तो
लज्जा व्याकुल हो जाते है जन
तू स्वामि जगत का, सर्वव्यापि
एक कण भी नहीं , जहाँ तू नहीं
फिर लज्जा किस से?
चेनामल्लिक अर्जुना देखे जग को
बन स्वयं नेत्र
फिर कैसे कोई ढके,
छिपाए अपने को?
(डा. रति सक्सेना द्वारा सम्पादित वेबपत्रिका "कृत्या" से )

मधुश्री दत्ता की डाक्युमेंटरी में आज की आधुनिक व्यवस्था में अक्का महादेवी किस रूप में जीवित हैं, इसको विभिन्न दृष्टिकोणों से देखने की चेष्ठा है. गाँव में गणदेवी की तरह, औरतों के कोपोरेटिव में, जहाँ उनके नाम से पापड़ और अचार बनते हैं, काम करने वाली औरतों की दृष्टि में, म़ंदिर के पुजारी और धर्म ज्ञान की विवेचना करने वाले शास्त्री की दृष्टि में, फेमिनिस्ट लेखन और चित्रकला में, महादेवी विभिन्न रूपों में दिखती हैं. इन विभिन्न रूपों में सामान्य जन में उनका रूप उनके व्यक्तित्व को धर्म मिथिकों में छुपा कर, मन्दिर में पूजने वाली देवी बना देता है, जिसमें उनके वचनों की क्राँति को ढक दिया जाता है. लेकिन फ़िल्म में उनकी एक भक्त का साक्षात्कार भी है जिसने गाँव में अक्का महादेवी के मंदिर के आसपास भक्तों के लिए सुविधाएँ बनवायी हैं और जो महादेवी के असुविधाजनक संदेश को छुपाने के प्रयास पर हँसती है.

Akka Mahadevi - Scribbles on Akka

फ़िल्म में महादेवी के कुछ वचनों को गीतों के रूप में प्रस्तुत किया गया है जिन्हें सुश्री सीमा बिस्वास पर विभिन्न परिवेशों में फ़िल्माया गया है, जिनमें एक परिवेश है एक ईसाई गिरजाघर में एक स्त्री द्वारा नन बनने की रीति, यानि महादेवी की बात को एक धर्म की सीमित दायरे से निकाल कर इन्सान के मन में ईश्वर से मिलने की ईच्छा के रूप में देखने की चेष्ठा.

Akka Mahadevi - Scribbles on Akka

फ़िल्म को देख कर मानुषी में पढ़े मधु किश्वर के एक पुराने आलेख की याद आ गयी जिसमें बात थी किस तरह गाँव में रहने वाली औरतें सीता मैया के पाराम्परिक गीतों के माध्यम से नारी मुक्ति की बात उठाती हैं. परम्परागत समाज में जहाँ नारी चारों ओर से नियमों में बँधी हो जिनमें उसकी अपनी इच्छाओं आकाँक्षाओं के लिए जगह न हो, वहाँ महादेवी जैसी नारी के विचारों को धर्म स्वीकृति मिलना थोड़ी सी जगह बना सकता है जहाँ सामाजिक नियमों की परिधि से बाहर जाने की अभिलाषा की अभिव्यक्ति हो सकती है.

महादेवी का व्यक्तित्व शारीरिक नग्नता को केवल लज्जा का कारण सोचने पर भी प्रश्न उठाता है. फ़िल्म में कुछ चित्रकार अक्का महादेवी के नग्न शरीर को ईश्वर का प्रतिरूप देखते हैं, तो कुछ इसमें नारी मुक्ति की चिंगारी. परम्परागत समाज को चुनौती देती महादेवी की छवि की जटिलता को ब्राह्मण विद्वान भी स्वीकारते हैं और आम व्यक्ति भी.

Akka Mahadevi - Scribbles on Akka

मेरी दृष्टि में फ़िल्म का अंतिम संदेश यही है कि भारत के विभिन्न हिस्सों में धर्म के संदेश को अलग अलग दृष्टिकोणों से देखा और समझा गया है. यही अनेकरूप विभिन्नता ही हिंदू धर्म की शक्ति रही है. इस जटिलता को सहेजना आज के भूमण्डलिकरण से जकड़े संसार में परम आवश्यक है, जहाँ सामाजिक जटिलताओं का सरलीकरण एवं ऐकाकीकरण करने की लालसाएँ बढ़ती जा रही हैं.

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रविवार, फ़रवरी 06, 2011

प्रेम निवेदन

हिन्दी फ़िल्मों के गानों में हमारे जीवन के सभी सुखों दुखों का हाल छिपा है. चाहे कोई भी मौका हो, मुंडन से ले कर मैंहदी तक, करवाचौथ से ले कर क्रियाकर्म तक, खाना बनाते समय सब्ज़ी जल गयी हो या काम पर जाते समय बस छूट गयी हो, प्रेयसी मिलने आये या दगा दे जाये, पापा गुस्सा हों या माँ ने मन पसंद खीर बनायी हो, कुछ भी मौका हो, बस उसका गीत मन में अपने आप आ जाता है. और चाहे उसे गायें या न गायें, मन में अपने आप ही गूँज जाता है. क्या आप को भी लगता है कि बिना इन गानों के जीवन का रस कुछ कम हो जायेगा?

और क्या आप के साथ कभी ऐसा हुआ है कि अचानक कोई गीत सुनते सुनते, अपने जीवन की वह बात समझ में आ जाती है जिस पर कभी ठीक से नहीं सोचा था? मेरे साथ यह अक्सर होता है.

अगले वर्ष मेरे विवाह को तीस साल हो जायेंगे. काम के लिए अक्सर देश विदेश घूमता भटकता रहता हूँ. इन्हीं यात्राओं से जुड़ी एक बात थी, जो अचानक "तनु वेड्स मनु" का एक गाना सुनते समय समझ आ गयी.

गाना के बोल लिखे हैं राजशेखर ने और गाया है मोहित चौहान ने . गाने के बोल हैं -
कितने दफ़े मुझको लगा
तेरे साथ उड़ते हुए
आसमानी दुकानो से ढूँढ़ के
पिघला दूँ यह चाँद मैं
तुम्हारे इन कानों में पहना ही दूँ
बूँदे बना
फ़िर यह मैं सोच लूँ समझेगी तू
जो मैं न कह सका
पर डरता हूँ कहीं
न यह तू पूछे कहीं
क्यों लाये हो ये यूँ ही
गाना सुना तो लगा कि वाह गीतकार ने सचमुच मेरे मन की बात को कैसे पकड़ लिया.

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देश विदेश में घूमते समय कई बार कुछ दिख जाता है जो लगता है कि बहुत सुन्दर लगेगा मेरी पत्नि पर. पर साथ में मन में यह भी भाव होता है कि शायद वह बिना कहे ही समझ जायेगी वह बात जो कह नहीं पाता हूँ. पर अक्सर होता है कि वह मेरी भेंट देख कर नाक सिकोड़ लेती है, "यह क्या ले आये? बिल्कुल ऐसा ही तो पहले भी था." या फ़िर, "क्यों बेकार में पैसे खर्च करते हो, तुम्हे मालूम है कि मैं इस तरह की चीज़ें नहीं पहनती."

और मन छोटा सा हो जाता है. सोचता हूँ, यूँ ही बेकार खरीद लिया. आगे से नहीं खरीदूँगा. पर अगली यात्रा में फ़िर भूल जाता हूँ. प्रेम निवेदन कैसे हो? यह नहीं होता, शायद उम्र का दोष है. आजकल के जोड़े तो आपस में "लव" या "माई लव" करके बोलते हैं, पर मुझसे इस तरह नहीं बोला जाता.

हर बार आशा रहती है कि वह मेरे मन की बात को बिना कहे ही समझ जाये. कभी लगता है कि वह मेरे मन की बात को समझती ही है, उसमें भेंट लाने या न लाने से कुछ नहीं होता?

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