"ख़ामोशी" फ़िल्म में गुलज़ार साहब का एक बहुत सुन्दर गीत था, "हमने देखी हैं उन आँखों की महकती खुशबु ... प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो". लेकिन अगर आँखों में प्यार नहीं हाहाकार हो तो क्या उसे नाम देने की कोशिश करना ठीक है?
कुछ दिन पहले घुघूती बासूती जी के चिट्ठे पर "बच्चा खोने के दर्द" में जमनीबाई की कहानी पढ़ते पढ़ते, अचानक मन में कुछ साल पहले की एक पार्टी की याद उभर आयी थी. मेरे साथ काम करने वाले मित्र के यहाँ थी वह पार्टी. वहीं मेरी मुलाकात एक अर्जेनटीनी युवक से हुई जो तब जेनेवा में रहता था. मैं तब कई महीने तक जेनेवा में रह कर वापस इटली लौटा था और हम लोग आपस में जेनेवा में रहने के अपने अनुभवों की बात कर रहे थे. क्या नाम था उसका यह याद नहीं, लेकिन क्या बात कही थी उसने, वह याद है.
खाना लगा तो हम दोनो साथ साथ ही बैठे और बातें करते रहे. खाना समाप्त हुआ तो हम दोनो वाईन का गिलास ले कर, बाहर बालकनी में आ खड़े हुए. मेरे मित्र का घर पहाड़ी पर है और बालकनी के नीचे बड़ा बाग है, जहाँ महमानों के बच्चे शोर मचाते हुए खेल रहे थे. पहाड़ी पर उतरती शाम के साये, हल्की सी ठँड, बहुत सुन्दर लग रहा था. यात्राओं की बात चल रही थी, तो उसने अपने पंद्रह बीस साल पहले के एक अनुभव के बारे में बताना शुरु किया जब वह बुओनुस आयरस के विश्वविद्यालय से एन्थ्रोपोलोजी में नयी स्नातक डिग्री ले कर निकला था और अपने विश्वविद्यालय के कुछ मित्रों के साथ मिल कर वहीं के एक छोटे से फोरेन्सिक एन्थ्रोपोलोजी में काम करने वाले एक छोटे से गुट में काम करने लगा था.
एन्रथ्रोपोलोजी यानि मानवविज्ञान में मानव जीवन, रहन सहन, रीति रिवाज़, सभ्यता जैसे विषयों को पढ़ा जाता है, जैसे कि लोग आदिवासी जातियों के बारे में यह सब बातें जानने की कोशिश करते हैं. "फोरेन्सिक एन्थ्रोपोलोजी" (Forensic anthropology) यानि "कानूनी मानवविज्ञान", हड्डियों और अन्य मानव अवषेशों की सहायता से उनके बारे में जानने की कोशिश करता है. यही काम था उस गुट का, सत्तर के दशक में अर्जेन्टीना में हुए तानाशाही शासन में गुम कर दिये गये लोगों की सामूहिक कब्रों से हड्डियाँ निकाल कर, यह समझने की कोशिश करना कि वह किसकी हड्डियाँ थीं और उन्हें उस व्यक्ति के परिवार को देना ताकि वह उसका ठीक से संस्कार कर सकें. कुछ ही सालों में यह गुट इस तरह के काम करने में इतना दक्ष हो गया था कि आसपास के देशों से भी उन्हें बुलावे आने लगे थे कि वहाँ जा कर सामुहिक कब्रों में रखे अवषेशों की पहचान में उनकी मदद करें.
इसी काम में उस युवक को ग्वाटेमाला जाने का मौका मिला था, जिस यात्रा की वह बात बता रहा था, "बड़ी सामुहिक कब्र थी, जिसमें उन्होंने सौ से भी अधिक बच्चे मार कर डाले थे. उनकी हड्डियों को जोड़ कर शवों को अलग अलग करके पहचानने की कोशिश करने का काम था. सभी बच्चे बारह साल से छोटी उम्र के थे. बच्चों की हड्डियाँ देखने लगे तो समझ में आया कि उन्हें किस तरह मारा गया था. शायद उनके पास गोलियाँ कम थीं या गोलियाँ मँहगी होती हैं और वह इतना खर्चा नहीं करना चाहते थे. तो वह लोग बच्चे का सिर चट्टान पर मार कर फोड़ते थे और फ़िर उसके शव को नीचे खड्डे में फैंक देते थे."
शायद वाईन का असर था या उस सुन्दर शाम का, मैं पहले तो स्तब्ध सुनता रहा, फ़िर मुझे रोना आ गया. मुझे रोता देख वह चुप हो गया.
बासूती जी की पोस्ट पढ़ी तो यह बात याद आ गयी. दुनिया में कितने बच्चों का दर्द जिनके माता पिताओं को गायब कर दिया गया, कितने माता पिताओं का दर्द, जिनके बच्चों को गायब कर दिया गया.
मैंने इंटरनेट पर फोरेन्सिक एन्थ्रोपोलोजी के उस अर्जेन्टीनी गुट के बारे में खोजा तो मालूम चला कि उसका नाम है एआफ यानि "एकीपो अर्जेन्टिनो दे एन्थ्रोपोलोजिया फोरेन्से" (Equipo Argentino de Antropología Forense, EAAF). उनके बारे में अधिक जानना चाहते हैं तो उनके वेबपृष्ठ पर पढ़ सकते हैं. इंटरनेट पर एआफ की सन 2007 की वार्षिक रिपोर्ट भी है जिसमें उनके काम के बारे में बहुत सी जानकारी मिलती है.
मुझे इस रिपोर्ट में उन देशों की लम्बी लिस्ट देख कर हैरत हुई, जहाँ एआफ को इस तरह सामूहिक कब्रों में हड्डियों की पहचान के लिए बुलाया गया है. यानि दुनिया के इतने सारे देशों में तानाशाहों ने, या तथाकथित जनतंत्रों में भी पुलिस या मिलेट्री ने कितने हज़ारों लोगों को मारा होगा! हड्डियों से पहचानना कि यह कौन सा व्यक्ति था, इस काम में अर्जेन्टीना का यह गुट "एआफ" दुनिया के सबसे अनुभवी गुटों में गिना जाता है और यह लोग एशिया, अफ्रीका और दक्षिण अमरीका के विभिन्न देशों में काम कर चुके हैं. कुछ वर्ष पहले उन्होंने दक्षिण अमरीकी क्राँतिकारी चे ग्वेवारा के अवषेशों से उनकी कब्र को पहचान कर बहुत प्रसिद्ध पायी थी. जब एआफ ने काम करना शुरु किया था तो डीएनए की जाँच करना संभव नहीं था लेकिन पिछले दशक में यह तकनीक बहुत आसान हो गयी है और पहचान में आसानी हो गयी है. अपने बच्चों या प्रियजनों को खोजने वालों से थोड़ा सा खून देने को कहा जाता है और उस खून के डीएनए को हड्डियों के डीएनए से मिलाया जाता है.
सब लोगों के शव नहीं मिलते. एक एक करके मारना खर्चीला होता है, कहते हैं कि अर्जेन्टीना में लोगों को मिलट्री वाले जहाज़ में बिठा कर ले जाते थे, और समुद्र के ऊपर सबको बाहर धक्का दे देते थे.
सत्तर के दशक में अर्जेंन्टीना में करीब 9000 लोग "गुम" किये गये. पहले तो सालों तक उन लोगों की माएँ, नानियाँ, दादियाँ लड़ती रहीं यह जानने के लिए कि उनके बच्चों का क्या हुआ. जिन नवयुवकों और नवयुवतियों को "गुम" किया गया, कई बार उनके बच्चों को नहीं मारा गया, बल्कि, उनके माँ बाप को मारने वाले मिलेट्री वालों के कुछ परिवारों ने उन्हें अपने बच्चों की तरह पाला. आज भी, तीस चालिस सालों के बाद, उन्हीं परिवारों की नयी पीढ़ियाँ इसी लड़ाई में लगे हैं, या जानने के लिए कि उनके परिवार के लोगों का क्या हुआ. बहुतों के मन में आशा है कि शायद उनके खोये हुए बच्चों का पता मिल जाये. वह न भी मिले, परिवार वालों को अपने प्रियजन के मृत शरीर के अवषेश मिलना भी एक तरह की मानसिक शाँती है जिससे कि सालों की खोज और उससे जुड़ी आशा समाप्त हो जाती है.
हमारे रिश्ते, हमारे परिवार, हमारे बच्चे ही हमारे जीवन का सार हैं. उनके बिना जीवन भी अर्थहीन लगे. अगर अपना किसी दुर्घटना में मरे या मार दिया जाये, तो भी वेदना कम नहीं होती, लेकिन मन को समझ तो आ जाता है कि जाने वाला चला गया. जिन्होंने अपने खोये हैं, जो एक दिन घर से निकले फ़िर वापस नहीं आये, या जिन्हें पुलिस ले गयी पर उनका कुछ पता नहीं चले कि क्या हुआ, तो मन भटकता ही रहेगा, इसी आशा में शायद कहीं किसी तरह से बच गयें हों और एक दिन मिल जायें.
हड्डियों को नाम मिल जाने से, जिसे खोया था वह तो नहीं मिल सकता लेकिन उसे खोने का जो हाहाकार आँखों में बसा होता है, उसे एक नाम मिल जाता है.
***
कुछ दिन पहले घुघूती बासूती जी के चिट्ठे पर "बच्चा खोने के दर्द" में जमनीबाई की कहानी पढ़ते पढ़ते, अचानक मन में कुछ साल पहले की एक पार्टी की याद उभर आयी थी. मेरे साथ काम करने वाले मित्र के यहाँ थी वह पार्टी. वहीं मेरी मुलाकात एक अर्जेनटीनी युवक से हुई जो तब जेनेवा में रहता था. मैं तब कई महीने तक जेनेवा में रह कर वापस इटली लौटा था और हम लोग आपस में जेनेवा में रहने के अपने अनुभवों की बात कर रहे थे. क्या नाम था उसका यह याद नहीं, लेकिन क्या बात कही थी उसने, वह याद है.
खाना लगा तो हम दोनो साथ साथ ही बैठे और बातें करते रहे. खाना समाप्त हुआ तो हम दोनो वाईन का गिलास ले कर, बाहर बालकनी में आ खड़े हुए. मेरे मित्र का घर पहाड़ी पर है और बालकनी के नीचे बड़ा बाग है, जहाँ महमानों के बच्चे शोर मचाते हुए खेल रहे थे. पहाड़ी पर उतरती शाम के साये, हल्की सी ठँड, बहुत सुन्दर लग रहा था. यात्राओं की बात चल रही थी, तो उसने अपने पंद्रह बीस साल पहले के एक अनुभव के बारे में बताना शुरु किया जब वह बुओनुस आयरस के विश्वविद्यालय से एन्थ्रोपोलोजी में नयी स्नातक डिग्री ले कर निकला था और अपने विश्वविद्यालय के कुछ मित्रों के साथ मिल कर वहीं के एक छोटे से फोरेन्सिक एन्थ्रोपोलोजी में काम करने वाले एक छोटे से गुट में काम करने लगा था.
एन्रथ्रोपोलोजी यानि मानवविज्ञान में मानव जीवन, रहन सहन, रीति रिवाज़, सभ्यता जैसे विषयों को पढ़ा जाता है, जैसे कि लोग आदिवासी जातियों के बारे में यह सब बातें जानने की कोशिश करते हैं. "फोरेन्सिक एन्थ्रोपोलोजी" (Forensic anthropology) यानि "कानूनी मानवविज्ञान", हड्डियों और अन्य मानव अवषेशों की सहायता से उनके बारे में जानने की कोशिश करता है. यही काम था उस गुट का, सत्तर के दशक में अर्जेन्टीना में हुए तानाशाही शासन में गुम कर दिये गये लोगों की सामूहिक कब्रों से हड्डियाँ निकाल कर, यह समझने की कोशिश करना कि वह किसकी हड्डियाँ थीं और उन्हें उस व्यक्ति के परिवार को देना ताकि वह उसका ठीक से संस्कार कर सकें. कुछ ही सालों में यह गुट इस तरह के काम करने में इतना दक्ष हो गया था कि आसपास के देशों से भी उन्हें बुलावे आने लगे थे कि वहाँ जा कर सामुहिक कब्रों में रखे अवषेशों की पहचान में उनकी मदद करें.
इसी काम में उस युवक को ग्वाटेमाला जाने का मौका मिला था, जिस यात्रा की वह बात बता रहा था, "बड़ी सामुहिक कब्र थी, जिसमें उन्होंने सौ से भी अधिक बच्चे मार कर डाले थे. उनकी हड्डियों को जोड़ कर शवों को अलग अलग करके पहचानने की कोशिश करने का काम था. सभी बच्चे बारह साल से छोटी उम्र के थे. बच्चों की हड्डियाँ देखने लगे तो समझ में आया कि उन्हें किस तरह मारा गया था. शायद उनके पास गोलियाँ कम थीं या गोलियाँ मँहगी होती हैं और वह इतना खर्चा नहीं करना चाहते थे. तो वह लोग बच्चे का सिर चट्टान पर मार कर फोड़ते थे और फ़िर उसके शव को नीचे खड्डे में फैंक देते थे."
शायद वाईन का असर था या उस सुन्दर शाम का, मैं पहले तो स्तब्ध सुनता रहा, फ़िर मुझे रोना आ गया. मुझे रोता देख वह चुप हो गया.
बासूती जी की पोस्ट पढ़ी तो यह बात याद आ गयी. दुनिया में कितने बच्चों का दर्द जिनके माता पिताओं को गायब कर दिया गया, कितने माता पिताओं का दर्द, जिनके बच्चों को गायब कर दिया गया.
मैंने इंटरनेट पर फोरेन्सिक एन्थ्रोपोलोजी के उस अर्जेन्टीनी गुट के बारे में खोजा तो मालूम चला कि उसका नाम है एआफ यानि "एकीपो अर्जेन्टिनो दे एन्थ्रोपोलोजिया फोरेन्से" (Equipo Argentino de Antropología Forense, EAAF). उनके बारे में अधिक जानना चाहते हैं तो उनके वेबपृष्ठ पर पढ़ सकते हैं. इंटरनेट पर एआफ की सन 2007 की वार्षिक रिपोर्ट भी है जिसमें उनके काम के बारे में बहुत सी जानकारी मिलती है.
मुझे इस रिपोर्ट में उन देशों की लम्बी लिस्ट देख कर हैरत हुई, जहाँ एआफ को इस तरह सामूहिक कब्रों में हड्डियों की पहचान के लिए बुलाया गया है. यानि दुनिया के इतने सारे देशों में तानाशाहों ने, या तथाकथित जनतंत्रों में भी पुलिस या मिलेट्री ने कितने हज़ारों लोगों को मारा होगा! हड्डियों से पहचानना कि यह कौन सा व्यक्ति था, इस काम में अर्जेन्टीना का यह गुट "एआफ" दुनिया के सबसे अनुभवी गुटों में गिना जाता है और यह लोग एशिया, अफ्रीका और दक्षिण अमरीका के विभिन्न देशों में काम कर चुके हैं. कुछ वर्ष पहले उन्होंने दक्षिण अमरीकी क्राँतिकारी चे ग्वेवारा के अवषेशों से उनकी कब्र को पहचान कर बहुत प्रसिद्ध पायी थी. जब एआफ ने काम करना शुरु किया था तो डीएनए की जाँच करना संभव नहीं था लेकिन पिछले दशक में यह तकनीक बहुत आसान हो गयी है और पहचान में आसानी हो गयी है. अपने बच्चों या प्रियजनों को खोजने वालों से थोड़ा सा खून देने को कहा जाता है और उस खून के डीएनए को हड्डियों के डीएनए से मिलाया जाता है.
सब लोगों के शव नहीं मिलते. एक एक करके मारना खर्चीला होता है, कहते हैं कि अर्जेन्टीना में लोगों को मिलट्री वाले जहाज़ में बिठा कर ले जाते थे, और समुद्र के ऊपर सबको बाहर धक्का दे देते थे.
सत्तर के दशक में अर्जेंन्टीना में करीब 9000 लोग "गुम" किये गये. पहले तो सालों तक उन लोगों की माएँ, नानियाँ, दादियाँ लड़ती रहीं यह जानने के लिए कि उनके बच्चों का क्या हुआ. जिन नवयुवकों और नवयुवतियों को "गुम" किया गया, कई बार उनके बच्चों को नहीं मारा गया, बल्कि, उनके माँ बाप को मारने वाले मिलेट्री वालों के कुछ परिवारों ने उन्हें अपने बच्चों की तरह पाला. आज भी, तीस चालिस सालों के बाद, उन्हीं परिवारों की नयी पीढ़ियाँ इसी लड़ाई में लगे हैं, या जानने के लिए कि उनके परिवार के लोगों का क्या हुआ. बहुतों के मन में आशा है कि शायद उनके खोये हुए बच्चों का पता मिल जाये. वह न भी मिले, परिवार वालों को अपने प्रियजन के मृत शरीर के अवषेश मिलना भी एक तरह की मानसिक शाँती है जिससे कि सालों की खोज और उससे जुड़ी आशा समाप्त हो जाती है.
हमारे रिश्ते, हमारे परिवार, हमारे बच्चे ही हमारे जीवन का सार हैं. उनके बिना जीवन भी अर्थहीन लगे. अगर अपना किसी दुर्घटना में मरे या मार दिया जाये, तो भी वेदना कम नहीं होती, लेकिन मन को समझ तो आ जाता है कि जाने वाला चला गया. जिन्होंने अपने खोये हैं, जो एक दिन घर से निकले फ़िर वापस नहीं आये, या जिन्हें पुलिस ले गयी पर उनका कुछ पता नहीं चले कि क्या हुआ, तो मन भटकता ही रहेगा, इसी आशा में शायद कहीं किसी तरह से बच गयें हों और एक दिन मिल जायें.
हड्डियों को नाम मिल जाने से, जिसे खोया था वह तो नहीं मिल सकता लेकिन उसे खोने का जो हाहाकार आँखों में बसा होता है, उसे एक नाम मिल जाता है.
***
पढ़ते हुए पाँव स्वेंदनाहीन हो गए लगते है. पोस्ट जल्दी से दिमाग से निकल जाए तो काम पर लगूं...
जवाब देंहटाएंमै इन हकीक़तो से भागना चाहता हूँ....कल ही अख़बार में पढ़ा एक बारह साल के बच्चे को उसकी सौतेली माँ ओर भाई ने क्रूरता से मारा ....फांसी की सजा कुछ अपराधो के लिए बनती है !!
जवाब देंहटाएंaapke lekh behad umda hain. gujarish film per apka lekh parh kar aapse iss vishay par kuch baat karna chahti hun. Main INDIA NEWS magazine jo ki Delhi se publish hoti hai, uske liye ichchamritu vishay per ek report taiyaar kar rahi hun aur chahti hun ki iss vishay par apka ek interview meri report ke sath publish ho.
जवाब देंहटाएंyadi aap mujhe apna Email ID de sakain to behtar hoga.
Mera phone number 09313420536
Naseem Ansari
Delhi
naseem ji, mera email: sunil.deepak(at)gmail.com
जवाब देंहटाएंकुछ लोग भूखे होते हैं ... प्यासे होते हैं .... जान के....सामूहिक हत्यावों का ये तांडव देख के सिर्फ भागने का जी करता है...
जवाब देंहटाएंशायद यह हम सब लोग इसी तरह महसूस करते हैं और इस तरह की घटनाओं के बारे में अधिक जानना नहीं चाहते, और तानाशाह हमारे इसी डर का फायदा उठाते हैं.
जवाब देंहटाएंएक किताब जिसमें दक्षिण अमरीका के "गुम हो जाने वाले" लोगों (desperacidos) की बात थी और जिसनें मुझे बहुत प्रभावित किया था वह थी चिल्ली की लेखिका इसाबेल अलैंदे (Isabel Allende) की किताब "ला काज़ा दे लोस एस्पिरितोज़" यानि "प्रेतात्माओं का घर" जिसपर एक प्रसिद्ध फ़िल्म भी बनी थी, House of Spirits (1993) जिसमें मेरिल स्ट्रीप थीं.
उनकी हड्डियाँ होने का सत्य ही न जाने कितनी मानसिक हाहाकार कम कर देगा।
जवाब देंहटाएंचे का संबंध ग्वाटेमाला से था शायद,…एक अशिष्ट आचार है लेकिन यहाँ कर रहा हूँ कि इस लेख में 9000 वाले पैरा में माँ बात हो गया है, माँ बाप की जगह…है तो अजीब बात कि हड्डियों को निकालकर ये सब हो रहा है लेकिन सत्य तो सत्य है…
जवाब देंहटाएंचंदन वर्तनी की गलती सुधारने के लिए धन्यवाद :)
जवाब देंहटाएं