त्योहार लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
त्योहार लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

रविवार, जून 12, 2022

पौशानाटिका के जलवे

कुछ दिन पहले उत्तरपूर्वी इटली में हमारे शहर स्किओ (Schio) में रंगबिरंगी पौशाकें पहने हुए बहुत से नवयुवक और नवयुवतियाँ वार्षिक कोज़प्ले (Cosplay) प्रतियोगिता के लिए जमा हुए थे। "कोज़प्ले" क्या होता है, यह मुझे कुछ साल पहले ही पता चला था। कोज़प्ले शब्द दो अंग्रेज़ी शब्दों को मिला कर बना है, कोज़ यानि कोस्ट्यूम (Costume) या रंगमंच की पौशाक और प्ले (Play) यानि खेल या नाटक। इस तरह से मैंने कोज़प्ले शब्द का हिंदी अनुवाद किया है पौशानाटिका।



कोज़प्ले यानि पौशानाटिका


कोज़प्ले की शुरुआत जापान में पिछली शताब्दी के सत्तर के दशक में हुई, जब कुछ किशोर रोलप्ले वाले खेलों और माँगा कोमिक किताबों के पात्रों की पौशाकें पहन कर मिलते थे। 1990 के दशक में कमप्यूटर खेलों का प्रचलन हुआ जब गेमबॉय जैसे उपकरण बाज़ार में आये तो कोज़प्ले और लोकप्रिय हुआ। तब से आज तक इस कोज़प्ले या पौशानाटिका का दुनिया में बड़ा विस्तार हुआ है। नये कमप्यूटर खेल, विरच्युल रिएल्टी, एनिमेटिड फ़िल्में आदि के पात्र भी इस परम्परा का हिस्सा बन गये हैं।

हमारे शहर में जो पौशानाटिकी समारोह होते हैं, उनमें सबसे अधिक लोकप्रिय हैं - डनजेन एण्ड ड्रेगनज जैसे रोलप्ले वाले खेल, जापान की माँगा (Manga) कोमिक्स किताबें और आनिमे (Anime) एनेमेशन फ़िल्में और टीवी सीरियल। इन सबमें दिलचस्पी रखने वाले लोग, अपने किसी एक प्रिय पात्र को चुन कर उनके जैसी पौशाकें बनाते हें, उनकी तरह बालों का स्टाईल बनाते हैं, उनके जैसा मेकअप करते हैं। जब यह सब लोग मिल कर कहीं इक्ट्ठा हो जाते हैं तो वहाँ कोज़प्ले के मेले लग जाते हैं।


जापान से धीरे धीरे कोज़प्ले का फैशन सारी दुनिया में फ़ैला है। यूरोप के हर देश में जगह जगह पर वार्षिक कोज़प्ले मेले लगते हैं, जहाँ लाखों लोग एकत्रित होते हैं, उनकी प्रतियोगिता होती हैं कि किसकी पौशाक सबसे सुंदर है, किसका अभिनय अपने पात्र से अधिक मेल खाता है, आदि।

अमरीका में सन दियेगो और लोस एन्जेल्स शहरों के कोज़प्ले बहुत मशहूर हैं। जापान के नागोरो में आयोजित होने वाला कोज़प्ले अपनी तरह का दुनिया का सबसे बड़ा मेला है। इटली में कई शहर ऐसे आयोजन करते हैं, जिसमें सबसे प्रसिद्ध है लुक्का (Lucca) शहर में होने वाला मेला। हमारे शहर का पौशानाटिकी मेला उन सबके मुकाबले में छोटा सा है, इसमें कोई सौ या दो सौ नवजवान हिस्सा लेते हैं जबकि बड़े समारोहों में लाखों लोग सजधज कर एकत्रित हो जाते हैं।


हमारे शहर का पौशानाटकी मेला नया है, केवल कुछ साल पुराना, लेकिन मैं इसमें शामिल होने वालों की पौशाकें और मेकअप देख कर दंग रह गया। पौशानाटिका के अभिनेता जिस पात्र को चुनते हैं उसके हावभाव, बोलने और चलने का तरीका, सब कुछ उन्हें वैसे ही करना होता है। मुझे इन कमप्यूटर खेलों, माँगा, आनिमे कामिक्स और फ़िल्मों की थोड़ी सी भी जानकारी नहीं है इसलिए यह तो नहीं कह सकता कि वह लोग अपने पात्रों की नकल करने में कितने सफल थे, लेकिन उन्हें देख कर मुझे लगा कि हमारे बचपन में इस तरह के मेले होते तो मुझे भी ज़ोम्बी या राक्षस बनना अच्छा लगता।

कोज़प्ले में हिस्सा लेने वालों का एक नियम है कि बिना उन्हें बताये उनकी फोटो नहीं खींचे। फोटो खींचनी हो तो आप को उन्हें बताना चाहिये ताकि वह अपने पात्र की अपनी मुद्रा में पोज़ बना कर फोटो खिंचवायें। हमारे कोज़प्ले में मैंने जितने लोगों से फोटो खींचने की अनुमति माँगी, उनमें से केवल एक युवती ने मना किया।

क्या भारत में कोई कोज़प्ले मेले लगते हैं? अगर आप को उनके बारे में मालूम है तो नीचे टिप्पणीं में यह जानकारी दीजिये।

कोज़प्ले जैसे अन्य मेले


उत्तरपूर्वी इटली में स्थित हमारे जिले का नाम है वेनेतो (Veneto) और इसका मुख्य स्थान है वेनेत्जिया (Venezia) यानि वेनिस (Venice) का शहर, इसलिए हमारे पूरे जिले में वेनिस की सभ्यता का गहरा प्रभाव है। उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में इटली एक देश बना, उससे पहले वेनिस एक स्वतंत्र देश माना जाता था, जहाँ के नाविक और जहाज़ दुनिया भर में घूमते थे। वेनिस के मार्कोपोलो की कहानी तो जगप्रसिद्ध है।

वेनिस में फरवरी-मार्च के महीनों में कार्निवाल का त्योहार मनाते हैं जिसे आप पुराने ज़माने का पौशानाटिका मेला कह सकते हैं। आजकल कार्निवाल को ईसाई त्योहार मानते हैं लेकिन लोगों का कहना है कि यह त्योहार बहुत पुराना है, ईसाई धर्म से भी पुराना।


हर वर्ष कार्निवाल के लिए करीब एक महीने तक भिन्न उत्सवों को आयोजित किया जाता है जिनमें लोग विषेश पौशाकें और मुखौटे बनवा कर पहनते हैं। पौशानाटिकी की तरह लोग इसके लिए बहुत पैसा खर्च करते हैं और कई कई महीनों तक इसकी तैयारी करते हैं। कोज़प्ले और कार्निवाल में एक अंतर है कि कोज़प्ले किशोरों और नवजवानों का शौक है, जबकि कार्निवाल में नवजवान, प्रौढ़ और वृद्ध सभी लोग अपनी पौशाकों में हिस्सा लेते हैं।


वेनिस का कार्निवाल दुनिया भर में प्रसिद्ध है, लोग दूर दूर से इसे देखने आते हैं।

हमारे शहर में एक अन्य तरह का पौशानाटकी मेला भी होता है जिसका नाम है स्टीमपँक (Steampunk)। स्टीम यानि भाप और पँक यानि रंगबिरंगे और अजीबोगरीब कपड़ों और बालों का स्टाईल जिसे कुछ रॉकस्टार गायकों से प्रसिद्धी मिली थी। कोज़प्ले की तरह इसकी शुरुआत भी पिछली शताब्दी के सत्तर के दशक के आसपास हुई थी।


इस परम्परा को शुरु करने वाले लोग फ्राँसिसी लेखक जूल्स वर्न की किताबों से प्रभावित थे। यह लोग प्राद्योगिक युग के प्रारम्भ में भाप से चलने वाली स्टीम इंजन जैसी मशीनों को महत्व देते हैं और इनकी पौशाकों में एक ओर से कीलों, ट्यूबों, नलियों, घड़ी के भीतर के हिस्सों आदि का प्रयोग किया जाता है, दूसरी ओर से यह लोग विक्टोरियन समय के वस्त्रों को प्राथमिकता देते हैं। कार्निवाल तथा कोज़प्ले की तरह, यह लोग भी अपने पौशाकों, मेकअप आदि पर बहुत पैसा और समय लगाते हैं। बहुत से लोग हर वर्ष नयी पौशाकें बनवाते हैं।

मुझे स्टीमपँक की पौशाकें बहुत अच्छी लगती हैं। कई बार देखा कि यह लोग आधुनिक उपकरण जैसे कि मोबाईल फोन, कमप्यूटर और कैमरे आदि को ले कर, उन्हें विभिन्न धातुओं या पदार्थों से ढक कर पुराने ज़माने की वस्तुओं का रूप देते हैं, जैसे कि आप नीचे वाली तस्वीर के सज्जन के कैमरे में देख सकते हैं। उन्होंने मुझे बताया कि उन्होंने अपने नये कैमरे को पुराने बक्से में बँद करके, उन्होंने उस पर भिन्न बटन लगाये, डॉयल फिट किये और धातूओं का लेप लगाया, जिससे कैमरा देखने में किसी म्यूज़ियम से निकला लगता था लेकिन तस्वीरें अच्छी खींचता था।

इसमें हिस्सा लेने वाले अधिकतर लोग प्रौढ़ या वृद्ध होते हें, उनमें नवजवान कम दिखते हैं, शायद इसलिए क्योंकि इस शौक को पूरा करने के लिए काफ़ी पैसा और समय होना चाहिये।


इनके अतिरिक्त, इटली के विभिन्न भागों में एतिहासिक घटनाओं और त्योहारों पर भी पुराने समय की पौशाकें पहनने का प्रचलन है, जैसे कि कुछ लोग अपनी नृत्य मँडली बनाते हैं जिसमें वह लोग मध्ययुगीन पौशाकें पहन कर मध्ययुगीन यूरोपी नृत्य सीखते हैं और करते हैं। आधुनिकता की दौड़ में पुराने रीति रिवाज़ लुप्त हो रहें हैं, तो वह लोग चाहते हैं कि अपने पुराने नृत्यों और पौशाकों को जीवित रखें।

अंत में


गोवा में कार्निवाल मनाया जाता है। मैंने एक बार वहाँ कार्निवाल देखा था लेकिन उसमें वैसा कुछ नहीं था, जिस तरह की पौशाकें और मुखौटे इटली में दिखते हैं। ब्राजील में भी गोवा जैसा कार्निवाल मनाते हैं, हालाँकि उनके नृत्य व पौशाकें कुछ बेहतर होती हैं। गोवा तथा ब्राज़ील के लोग पुर्तगाली सभ्यता से अधिक प्रभावित हैं।

मुझे मालूम नहीं कि भारत में किसी अन्य जगह पर कोज़प्ले या स्टीमपँक जैसे मेले लगते हैं या नहीं। लेकिन भारत में भी कुछ लोग धार्मिक मौकों पर देवी देवता का रूप धारण करते हें, जो कि धार्मिक कारणों से करते हैं या फ़िर श्रधालुओं से पैसा माँगने के लिए। भारत में ऐसे कोई त्योहार या मेले हों जहाँ आम लोग भिन्न पौशाकें पहन कर एकत्रित होते हों, मुझे उसके बारे में जानकारी नहीं। अगर आप को हो तो नीचे टिप्पणी में उसके बारे में बताईये।


मेरे विचार में जापानी और पश्चिमी देशों में अकेलापन अधिक बढ़ा है, यहाँ कम लोग विवाह करते हैं और उनमें से केवल कुछ लोग बच्चे पैदा करते हैं। नौकरी करके कमाने वाले और अकेले रहने वाले लोगों के पास पैसे और समय की कमी नहीं, उन्हें जीवन में कुछ अलग सा चाहिये जिससे उनकी मानवीय रिश्तों की कमी घटे। उन्हें इस तरह के मेलों और त्योहारों में अन्य लोगों से मिलने और आनन्द लेने के मौके मिलते हैं, इसीलिए यहाँ यह सब पौशानाटिकी समारोह लोकप्रिय हो रहे हैं।

मंगलवार, फ़रवरी 21, 2017

झाँकियों का अनूठा गाँव

यह दुनियाँ तेज़ी से बदल रही है और इस बदलती दुनियाँ में तकनीकी तथा अन्य विकासों की वजह से जीवनयापन के नये तरीके निकालना आवश्यक हो गया है. आज मैं उतरी इटली के एक गाँव की बात लिख रहा हूँ, जहाँ पर्यटकों को आकर्षित करने तथा स्थानीय व्यवसाय को बढ़ावा देने का एक नया तरीका अपनाया गया है. इस गाँव का नाम है संत अंतोनियो (Sant'Antonio) और यह उत्तरी पूर्व इटली में एल्पस की पर्वतश्रृख्ला के पाज़ूबियो पहाड़ के साये में बना एक गाँव है.

कुछ वर्ष पहले संत अंतोनियो के निवासियों ने पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए मोम की मूर्तियाँ बनाने की सोची. नीचे की तस्वीर में आप इन मूर्तियों का एक नमूना देख सकते हैं जिससे आप उनकी जीवंत कला का अन्दाज़ लगा सकते हैं.


स्कियो का बदलता जीवन

संत अंतोनियों का गाँव स्कियो (Schio) शहर की नगरपालिका का हिस्सा है. इसी स्कियो शहर में हमारा घर है जहाँ मैं रहता हूँ.

पाज़ूबियो (Pasubio) की पर्वत की छाया में बसे छोटे से शहर स्कियो में उन्नीसवीं शताब्दी में बड़े पैमाने पर उद्योगीकरण हुआ. यहाँ का सबसे बड़ा उद्योग था ऊन बनाने की फैक्टरियाँ. आसपास के पहाड़ों पर भेड़े तथा पहाड़ी बकरियाँ पालीं जाती जिनका फर कट कर स्कियो की फैक्टरियों में पहुँचता जहां उसकी रंगबिरंगी ऊन बनती. ऊनी कपड़े बुनने की भी फैक्टरियाँ थीं. इस सब की वजह से यह क्षेत्र बहुत समृद्ध था.

उस समय इटली की राष्ट्रसीमा स्कियो में पाज़ूबियो पर्वत पर थी, पहाड़ के उत्तर की ओर आस्ट्रिया था, दक्षिण में इटली. 1914 में यह क्षेत्र प्रथम विश्वयुद्ध की लपेट में आ गया, जब इटली तथा आस्ट्रिया (Austria) के बीच में भी लड़ाई छिड़ी. अमरीकी फौज की छावनी स्कियो में थी. विश्वयुद्ध के दौरान कुछ समय तक अमरीकी सिपाही अरनेस्ट हेमिगवे, स्कियो की एक ऊन की फैक्टरी में बने अस्पताल में एम्बूलैंस चालक थे, और युद्ध के बाद में प्रसिद्ध लेखक बने.

युद्ध का शहर पर तथा आसपास के गाँवों पर बहुत असर पड़ा लेकिन फ़िर धीरे धीरे, ऊन की फैक्टरियों का काम दोबारा से निकल पड़ा. युद्ध में आस्ट्रिया की हार हुई थी, इसलिए पाजूबियो पर्वत के उत्तर का हिस्सा भी इटली में जुड़ गया.

लेकिन पिछले बीस-तीस वर्षों में वैश्वीकरण की वजह से नयी समस्याएँ खड़ी हो गयीं थीं. चीन से आने वाली सस्ती ऊन तथा स्वेटरों की वजह से यहाँ बनने वाली स्थानीय ऊन का बाज़ार नहीं रहा और एक एक करके सारी ऊन की फैक्टरियाँ बन्द हो गयीं. नये तकनीकी विकास से जुड़े कुछ उद्योग उभर कर आये पर पहाड़ी गाँवों में भेड़ों बकरियों से जुड़े जीवन यापन करने वाले लोगों के लिए कुछ नया खोजना आवश्यक था.

विभिन्न देशों में छोटे पहाड़ी गाँवों में पर्यटन से जुड़े विकास की कई कहानियाँ हैं. कहीं पर मेले आयोजित किये जाते हैं, कहीं पर नये खेल तो कहीं पर गाँवों को रंगबिरंगा बनाया जाता है. इस सब में आवश्यक है कि कुछ ऐसा किया जाये तो अन्य जगह न हो, जिससे गाँव की अपनी, अनूठी पहचान बने और पर्यटक वहाँ आने के लिए आकर्षित हों. संत अंतोनियो के गाँव ने भी ऐसा ही कुछ करने का सोचा.

संत अंतोनियो का खुली हवा में बना क्रिसमस की मूर्तियों का संग्रहालय

जैसे भारत में कृष्ण जन्माष्टमी पर अक्सर लोग घरों के बाहर झाँकियाँ बनाते हैं, इटली में क्रिसमस के अवसर में घर घर में छोटी छोटी झाँकियाँ बनायी जाती हैं.

संत अंतोनियों के लोगों ने सोचा कि इसी प्रथा को बड़े पैमाने पर तथा उसमें कुछ नया जोड़ कर बनाया जाये. चूँकि गाँव में कुछ मूर्तिकार रहते थे, उन्होंने कहा कि मानव आकार की ऐसी मूर्तियाँ बनायी जायें जो देखने में जीती जागती लगें.



उनका दूसरा निर्णय था कि सदियों से जिस तरह गाँव में परिवार रहते आये थे, वे जीवन शैलियाँ लुप्त होने लगी थीं, तो उनकी याद को जीवित रखा जाये जिससे आजकल के बच्चे यह जान सकें कि उनके दादा परदादा किस तरह रहते थे, किस तरह काम करते थे. यह भी निर्णय लिया गया कि उन मूर्तियों में वहां के रहने वालों की छवि दिखनी चाहिये, यानी उनके चेहरे तथा वस्त्र वहाँ के निवासियों पर आधारित होने चाहिये.

नीचे की छवियों में आप इस संग्रहालय की कुछ मूर्तियों को देख सकते हैं. मानव आकार की इन मूर्तियाँ को देख कर अक्सर धोखा हो जाता है कि यह सचमुच के व्यक्ति तो नहीं. पर असली आश्चर्य तो तब होता है जब अब मूर्ति के पास उस व्यक्ति को देखते हैं जिसकी प्रेरणा ले कर वह बनायी गयी थी, लगता है कि दो जुड़वा लोग कहीं से निकल आये हैं.



हर वर्ष यह संग्रहालय करीब 20 दिसम्बर से ले कर जनवरी के अन्त तक सजता है. यहाँ आने का, मूर्तियाँ देखने का, कार पार्किन्ग आदि का, फोटो या वीडियो खींचने का, किसी का कोई शुल्क नहीं है. शायद इसी लिए दूर दूर से बसों में तथा कारों में भर के लोग यहाँ आते हैं. इससे इस क्षेत्र के होटल, रेस्टोरेंट, हस्तकला तथा कला के दुकान वालों के काम तथा आय दोनो बढ़ जाते हैं और गाँव का नाम आसपास सब जगह प्रसिद्ध हो गया है.



यहाँ के रहने वाले इसका एक अन्य फायदा बताते हैं. इस मूर्तियाँ बनाने के कार्य में छोटे बड़े सभी लोग मिल कर काम करते हैं. एक पुरानी कला को जीवित करने का मौका मिला है जिसे वहाँ के नवयुवकों ने सीखा है. आपस में मित्रता तथा जानपहचान के भी नये मौके मिले हैं जिनसे उनका समुदाय सुदृढ़ हुआ है.

वैसे तो यहाँ की मूर्तियों में कई मुझे अच्छी लगती हैं, जैसे कि घर की बालकनी में कपड़े सुखाने डालने वाली युवती की या फ़िर एक नवयुवती की खिड़की के नीचे खड़े उपर निहारते उसके प्रेम में पागल युवक की मूर्ति.


आइये आलेख के अंत में यहाँ की वह दो मूर्तियाँ दिखाऊँ जो मुझे सबसे अच्छी लगती हैं.

इन मूर्तियों में मध्यकालीन जीवन की वह छवि बनी है जब घरों में टायलट नहीं होते थे. तब लोग रात को कमरे में पिशाब करने का बर्तन रखते थे और सुबह उठ कर वह मूत्र सड़क पर फ़ैंक देते थे.


इन दो मूर्तियों में एक वृद्ध व्यक्ति हैं जो घर की बालकनी से रात का मूत्र फ़ैंकने को तैयार हैं. दूसरा व्यक्ति एक छोटा शैतान सा लड़का है, जिसके हाथ में गुलेल है जो वहाँ बालकनी के नीचे से गुज़र रहा है. इस दृश्य को देख कर सहसा हँसी आ जाती है. लगता है कि अभी बच्चा कदम आगे बढ़ायेगा और उसके सिर पर मूत्र की बरखा होगी.



तो बताना नहीं भूलियेगा कि संत अन्तोनियो की मोम की मूर्तियों का खुली हवा का यह संग्रहालय आप को कैसा लगा.

***

बुधवार, नवंबर 07, 2012

फिल्मी जीवन

कुछ दिन पहले इंटरनेट पर अँग्रेज़ी के अखबार हिन्दुस्तान टाईमस् पर सुप्रतीक चक्रवर्ती की लिखी नयी फ़िल्म "अजब ग़ज़ब लव"  की आलोचना पढ़ रहा था तो एक वाक्य पढ़ते पढ़ते रुक गया. उन्होंने लिखा था "अब तो बोलीवुड का समझ लेना चाहिये कि सचमुच के जीवन में शेव किये हुए बिना दाढ़ी वाले पर सिर पगड़ी पहनने वाले सिख नहीं होते". मन में आया कि अगर सचमुच के जीवन में इस तरह के सिख नहीं होते तो इन फ़िल्मों को देख कर होने लगेंगे.

यानि कभी कभी मुझे लगता है कि इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि सचमुच के जीवन में कुछ होता है या नहीं, अगर फ़िल्मों में दिखने लगेगा, तो धीरे धीरे सचमुच के जीवन में भी होने लगता है. वैसे तो पिछले कई वर्षों में पत्रिकाओं में पढ़ा था कि पंजाब में बहुत से सिख नवयुवक सिर के बाल और दाढ़ी कटा रहे हैं. यह भी पढ़ा था कि कुछ सिख संस्थाओं ने सिर पर पगड़ी कैसे बाँधते हैं इसकी कक्षाएँ चलानी शुरु की हैं, क्योंकि बहुत से नवयुवक पगड़ी बाँधना ही नहीं जानते. इसके साथ यह भी सच है कि सिख धर्मियों में भी विभिन्न गुट हैं और उनमें से कुछ गुट जैसे कि नानकपंथी गुट, बाल और दाढ़ी नहीं बढ़ाते. इस सब की वजह से मुझे लगता है कि आम जीवन में बिना दाढ़ी वाले, लेकिन किसी विषेश अवसर पर पगड़ी पहनने वाले सिख भी हो सकते हैं. इसके बारे में पंजाब में रहने वाले लोग बता सकते हें कि यह होता है या नहीं?

इस बात पर सोचते हुए मन में फिल्मों के जीवन पर होने वाले प्रभाव की बात आयी. आज की स्थिति के बारे में उतना नहीं जानता, हाँ जब मैं किशोर हो रहा था उस समय की याद है.

जब 1960 में "लव इन शिमला" में साधना माथे पर सीधे कटे हुए बालों के साथ आयी थी तो सचमुच के जीवन पर उसका तुरंत प्रभाव पड़ा था, साधना कट बालों की ऐसी धूम चली थी कि छोटी बड़ी हर उम्र की लड़कियाँ उसी अन्दाज़ में बाल बनाती थीं. आज पचास साल बाद भी मेरी उम्र के लोग उस अन्दाज़ को साधना कट के नाम से ही जानते हैं.

कुछ वर्षों के बाद जब राजेश खन्ना, "बहारों के सपने" और "आनन्द" जैसी फ़िल्मों में नीचे जीन्स और ऊपर कुर्ता पहन कर आये तो हम सब नवयुवकों को नयी पोशाक मिल गयी और आज भी जब भी जीन्स पर कुर्ता पहनूँ तो कभी कभी अपने लड़कपन के राजेश खन्ना के प्रति दीवानेपन की याद आ जाती है. राजेश खन्ना ने ही "कटी पतंग" फ़िल्म में "थेंक्यू" के उत्तर में "मेन्शन नाट" कहा था तो आधे भारत को मुस्करा कर कुछ कहने वाले अंग्रेज़ी शब्द मिल गये थे. अमिताभ बच्चन जैसे बाल और जया भादुड़ी जैसे ब्लाउज़ भी अपने समय में बहुत छाये थे.

1975 में "जय सँतोषी माँ" फ़िल्म आयी तो अचानक कई जगह संतोषी माँ के मन्दिर बनने और दिखने लगे और एक ऐसी देवी जिसका नाम नहीं जानते थे, अचानक प्रसिद्ध हो गयी थी.

अगर विवाह के रीति रिवाज़ों के बारे में सोचे, या फ़िर करवाचौथ जैसे पाराम्परिक त्योहारों के बारे में, तो मेरे विचार में पिछले दो दशकों में सूरज बड़जात्या, करन जौहर और यश चोपड़ा जैसे फिल्म निर्देशकों की फ़िल्मों ने उत्तरी भारत के मध्यम वर्ग पर बहुत प्रभाव डाला है. मेहँदी और संगीत के रीति रिवाज़ों को जिस तरह से इनकी फ़िल्मों से मान्यता और बढ़ावा मिला उसका प्रभाव छोटे बड़े शहरों में दिखता है. विवाह के समय पर दुल्हन स्वयं नाचे, यह भी फ़िल्मों का ही प्रभाव लगता है.

Filmi lives graphic


कुछ अन्य प्रभाव पड़ा है कि बढ़ते बाज़ारवाद, मोबाईल टेलीफ़ोन और फेसबुक या गूगल प्लस जैसे सोशल नेटवर्कों से. बाज़ारवाद का प्रभाव है कि बेचने के लिए कोई न कोई बहाना होना चाहिये. वह भी अगर अंग्रेज़ी में कहा जा सके तो उसका प्रभाव और भी बढ़िया होगा. यानि "वेलेन्टाईन डे" हो या "मदर्स डे" या "फादर्स डे" या "फ्रैंडशिप डे", बेचने के कार्यक्रम शुरु हो जाते हैं. फ़िल्मों में इनके लिए कोई गाने या दृश्य बन जाते हैं. मोबाईल से एसएमएस भेजिये या फेसबुक, गूगल प्लस से सबको ग्रीटिँग भेजिये, बस आप बिना मेहनत के आधुनिक हो गये.

इन सब बातों को सोच कर ही बेचने वाली कम्पनियाँ फ़िल्मों में पैसा लगाती हैं ताकि हीरो उनके पेय की बोतल पीता दिखाया जाये, या हीरोइन उनकी कम्पनी के स्कूटर को चलाये या उनकी टूथपेस्ट से दाँत ब्रश करें. इतना पैसा लगाने वाली कम्पनियाँ जानती हैं कि इन दृश्यों का प्रभाव देखने वालों पर पड़ेगा और उनकी बिक्री बढ़ेगी.

यह प्रभाव केवल भारत में ही पड़ा हो यह बात नहीं. चीन में विवाह के समय पर लोगों को अधिकतर पश्चिमी तरीके की विवाह की पौशाक पहने देखा है, यानि वधु को सफ़ेद रंग का पश्चिमी गाउन पहनाते हैं, जबकि उनकी पाराम्परिक पौशाक लाल रंग की होती थी. चीन में बहुत से लोगों को अपने चीनी नामों के साथ साथ, पश्चिमी नामों के साथ भी देखा है जोकि इसलिए रखे जाते हैं ताकि विदेशी लोगों को उन्हें बुलाने में आसानी हो. इसमें से कितना प्रभाव विदेशी फ़िल्मों की वजह से है, यह नहीं कह सकता.

मुझे लगता है कि इस विषय पर मेरी जानकारी कुछ पुरानी हो गयी है. आजकल भारत के विभिन्न प्रदेशों में फ़िल्मों का सामान्य जीवन पर क्या प्रभाव पड़ा है, आप इसके बारे में क्या सोचते हैं और क्या इसके कुछ उदाहरण दे सकते हैं?

***

रविवार, फ़रवरी 27, 2011

रँगबिरँगे मुखोटों का त्योहार

बहुत सालों से वेनिस के रँगबिरँगे मुखोटों के कार्नेवाल को देखने की इच्छा थी, लेकिन हर बार बीच में कोई न कोई अड़चन आ जाती थी. हमारे शहर बोलोनिया से वेनिस कुछ विषेश दूर नहीं, रेलगाड़ी से केवल दो घँटे का रास्ता है. करीब तीस वर्ष पहले जब इटली में नया था तब अस्पताल में साथ काम करने वाले मित्र मुझे शाम को साथ वेनिस ले गये थे, लेकिन तब वाइन पी कर हुल्लड़ करने में हमारी अधिक दिलचस्पी थी, तो क्या देखा था उसकी मन में बस कुछ धुँधली सी यादें थीं. इसलिए कल जब मौका मिला छोटा कार्नेवाल देखने का, तो उसे खोना नहीं चाहा. आज उसी वेनिस के मुखोटों वाले कार्नेवाल की कुछ तस्वीरें प्रस्तुत हैं.

Venice carneval, 2011

कार्नेवाल शब्द लेटिन से बना है, जिसका अर्थ है "कारने लेवारे" (Carne=meat, levare=remove), यानि "माँस को हटा दीजिये". जैसे मुसलमानों में रोज़े होते हैं, कुछ उसी तरह कैथोलिक ईसाई अपने त्योहार ईस्टर के पहले 40 या 44 दिनों का खाने का परहेज़ करते हैं, जिसमें माँस खाना वर्जित होता है. ईस्टर की तारीख रोमन कैलेंडर से नहीं बल्कि वसंत की पूर्णमासी से निर्धारित की जाती है, इसलिए हर साल अलग दिन पड़ती है. कार्नेवाल का दिन मँगलवार का होता है जिसे "मोटा मँगलवार" (Mardì Gras) कहते हैं, क्योंकि इस दिन खाने में माँस हटाने से पहले, लोग जी भर के माँस खाते हैं, पीते पिलाते हैं, मजे करते हैं. इस वर्ष मोटा मँगलवार, यानि कार्नेवाल होगा 8 मार्च को. पर अब यह केवल मस्ती का त्योहार ही रह गया है क्योंकि अब अधिकतर लोग खाने में कम खाने, सादा खाने या माँस न खाने में विश्वास नहीं करते.

कार्नेवाल के त्योहार को विभिन्न शहर अपने अपने ढंग से मनाते हैं, हाँलाकि हर कार्नेवाल में एक जलूस का होना आवश्यक होता है. ब्राज़ील में रियो दे जानेइरो शहर का कार्नेवाल अपनी रंगीन झाँकियों और थोड़े से वस्त्र पहने हुए साम्बा नाचने वालों के लिए प्रसिद्ध है. इस समय में वहाँ सेक्स की स्वच्छँदता भी बहुत होती है. भारत में गोवा का कार्नेवाल भी अपनी झाँकियों और मस्ती के लिए प्रसिद्ध है. इटली में बहुत से शहर अपने जलूसों और झाँकियों के कार्नेवाल के लिए जाने जाते हैं, लेकिन वेनिस का कार्नेवाल सबसे अनोखा माना जाता है क्योंकि इसमें सतारहवीं और अठाहरवीं शताब्दी की पोशाकों के साथ रँगबिरँगे मुखोटे जुड़े हैं.

आजकल कार्नेवाल में लोग बहुत मेहनत करते हैं, लाखों रुपये खर्च करते हैं वस्त्र और झाँकिया बनवाने में. साथ ही इसमें व्यवसायिक लाभ की बात भी जुड़ गयी है क्योंकि लाखों पर्यटक कार्नेवाल को देखने देश विदेश से आते हैं. तो कार्नेवाल की अवधि बढ़ा दी गयी है, "मोटे मँगलवार" के बड़े जलूस और असली कार्नेवाल के दो तीन सप्ताह पहले ही, शनिवार और रविवार को छोटे कार्नेवाल आयोजित किये जाते हैं ताकि अधिक से अधिक पर्यटक उन्हें देखने आयें.

कल 26 फरवरी को वेनिस में कार्नेवाल का पहला जलूस था. इसकी खासियत थी "सात मारिया की यात्रा", जिसमें शहर की सात सुबसे सुन्दर युवतियों को चुना जाता है, और शहर के युवक उन्हें पालकी में कँधे पर उठा कर ले जाते हैं, उनके पीछे पीछे शहर के जाने माने व्यक्ति प्राचीन पौशाकें पहन कर चलते हैं. वेनिस कार्नेवाल के अखिरी दिन, इन्हीं सात मारियों का नावों का जलूस निकलेगा, और सबसे सुन्दर युवती को "वेनिस की मारिया" का खिताब मिलेगा. कार्नेवाल के आखिरी दिन सबसे सुन्दर मुखोटे और पौशाक वाले व्यक्ति को भी चुना जायेगा.

कल की इसी वेनिस यात्रा से कार्नेवाल की कुछ तस्वीरें प्रस्तुत हैं. इन्हे देख कर आप स्वयं निर्णय ले सकते हैं कि वेनिस का कार्नेवाल अनूठा है या नहीं. घँटों चल चल कर और भीड़ में धक्के खा कर थकान से चूर हो कर घर लौटा पर मुझे लगा कि वाह, बहुत सुन्दर और रँगबिरँगा कार्नेवाल है.

Venice carneval, 2011

Venice carneval, 2011

Venice carneval, 2011

Venice carneval, 2011

Venice carneval, 2011

Venice carneval, 2011

Venice carneval, 2011

Venice carneval, 2011

Venice carneval, 2011

Venice carneval, 2011

Venice carneval, 2011

Venice carneval, 2011


***

शनिवार, दिसंबर 19, 2009

अनोखी झाँकियाँ

इस सप्ताह में तीन बार बर्फ़ गिरी. कल रात से लगातार गिर रही है, खिड़की की सिल पर करीब बीस सैंटीमीटर बर्फ जमी है. लोग कह रहे हैं कि शायद इस साल श्वेत क्रिसमस की बात बने, श्वेत क्रिसमस यानि बर्फ़ से ढका क्रिसमस.

जैसे सुनहरे बालों नीली आँखों वाले गोरे चिट्टे जीसस की मूर्ती को देख कर कुछ अज़ीब सा लगता है वैसे ही क्रिसमस के बर्फ़ से ढके होने की बात पर भी कुछ अज़ीब सा लगता है. जेरुसल्म में जहाँ येसू पैदा हुए थे, वहाँ शायद न तो ऐसे लोग होते थे और न ही बर्फ़ गिरती थी. लेकिन अपने भगवान के रूप रंग बदलना यह केवल यूरोप में नहीं होता. अपने राम और कृष्ण भी, अब बस किताबों कविताओं में ही श्याम वर्ण के होते हैं, कैलेण्डरों मूर्तियों में तो आज कल वे भी गोरे चिट्टे ही बिकते हैं.

जेरुसल्म जो कि येसूभूमि कही जा सकती है, फ़िलिस्तीनियों से बचने का बहाना करके खुद ही ऊँची दीवार के घेरे में कैद है. इस दीवार के कैदखाने पर क्रिसमस के शाँती संदेश लगाने से क्या कैदखाने बदल जाते हैं?
Christmas float (Presepe), Bologna, Italy


खैर गम्भीर बातें छोड़ें, आज आप का परिचय करायें क्रिसमस के मौके पर इटली की झाँकी बनाने की परम्परा से, कुछ तस्वीरों के माध्यम से. कुछ तस्वीरें ज़रा सी शरारती हैं, आशा है कि आप बुरा नहीं मानेंगे.

जब मैं छोटा था तो मुझे याद है कि दिल्ली में कृष्णाष्टमी पर लोग घरों के सामने झाँकिया बनाते थे, जिसमें कृष्ण के जीवन के सभी प्रमुख क्षणों को दिखाया जाता था. एक तरफ़ नदी में बहता पानी और उसमें टोकरी में नन्हें कृष्ण को ले कर वासुदेव, पीछे जेल के खुले द्वार और सोते हुए प्रहरी, कहीं कृष्ण कालिया नाग के सर पर नाचते, कहीं गोपियों को बाँसुरी सुनाते.

कुछ कुछ वैसा ही होता है यहाँ क्रिसमस पर, जब बाल येसू की जन्मकथा को मूर्तियों के द्वारा दिखलाया जाता है. बहुत से लोग अपने घरों में छोटी छोटी झाँकिया बनाते हैं. शहर के क्रेंद्र में या किसी गिरजाघर में बड़ी भव्य झाँकियाँ भी बनती हैं, कभी कभी वह मशीनों से चलती भी हैं और उन्हें देखने दूर दूर से लोग आते हैं. इन झाँकियों को प्रेज़ेपे कहते हैं. इस पहली तस्वीर में आप इसी तरह की एक झाँकी को देख सकते हैं.
Christmas float (Presepe), Bologna, Italy


कभी विषेश जीवित झाँकियाँ भी बनायी जाती हैं, जिसमें लोग तैयार हो कर कथा के पात्र बन जाते हैं. दूसरी तस्वीर में एक जीवित झाँकी है.
Christmas float (Presepe), Italy


तीसरे नम्बर एक अन्य प्रसिद्ध जीवित झाँकी है जो कि हमारे शहर बोलोनिया के पूर्व में सागर के किनारे बसे शहर में पानी में तैरती नावों पर बनायी जाती है.
Christmas float (Presepe), Italy


इटली के नेपल्स शहर में झाँकियों में जाने माने लोग या घटनाओं की मूर्तियाँ लगाने का विषेश चलन है. अगली तस्वीर में आप नेपल्स के प्रसिद्ध मूर्तिकार मारको फैरान्यो को देख सकते हैं जो कि सुश्री दाद्दारियो की मूर्ति बना रहे हैं जिन्होंने यह बता कर कि पैसे के लिए वह प्रधानमंत्री के साथ रात बितायी थी, कुछ दिन प्रसिद्ध पायी थी.


इन मूर्तियों में टीवी तथा फ़िल्मों के प्रसिद्ध कलाकारों को भी जगह मिलती है. अगली तस्वीर में यहाँ के एक रियेल्टी शो में अपने बड़े वक्ष के लिए प्रसिद्ध पाने वाली सुश्री क्रिसतीना देल बास्सो को देख सकते हैं.


दुनिया के जाने माने राज नेताओं को भी इन झाँकियों में जगह मिलती है. अगली झाँकी में है ओबामा और उनकी पत्नी.


अगर कोई बड़ी बीमारी फ़ैले तो क्रिसमस की झाँकियों को उनकी खबर तो होनी चाहिये, शायद यही सोच कर अगली झाँकी में स्वाइन फ्लू के असर को देख सकते हैं.


इटली के प्रधानमंत्री श्री बरलुस्कोनी, अपने समाचारों की चर्चा की वजह से झाँकियों में बहुत जगह पाते हैं. अगली तस्वीर में वह उस नाबालिग युवती के साथ हैं जिनसे उनके सम्बंध बताये जाते थे. कुछ दिन पहले किसी ने उनके मुँह पर कुछ मार दिया और उनकी नाक से खून बहने लगा, तुरंत अगले ही दिन, झाँकियों की मूर्तियों की दुकानों पर उनकी बहते खून वाली मूर्ति बिकने लगी थी.


इस वर्ष माइकल जेक्सन का भी देहांत हुआ, उनके चाहने वालों के लिए इस वर्ष बाज़ार में उनकी मूर्ति भी है.


अंत में क्रिसमस की झाँकियों की दो विषेश तस्वीरें जो कि स्पेन में बनती हैं, जहाँ कातालोनिया प्रांत में इन्हे शुभ माना जाना है, कहते हैं इस तरह की मूर्तियों को अपनी झाँकी में लगाने से आने वाले वर्ष में आप को सम्पत्ति मिलती है. इनको कहते हें, "कान्येर" या "कागनेर", यानि "पाखाना करते", जिनमें बड़े प्रसिद्ध लोगों को विषेश मुद्रा में बनाया जाता है.

नये वर्ष में आप की किस्मत बढ़िया हो, सम्पत्ति मिले आदि इसके लिए यूरोप में अन्य भी कई तरह के विश्वास हैं जैसे कि स्पेन में कहते हैं कि नव वर्ष की पूर्व सध्या पर लाल वस्त्र पहनो और किशमिश के बारह दाने खाओ, फ्राँस में कहते हैं कि तेरह तरह की मिठाईयाँ खाईये, स्कोटलैंड वाले कहते हैं कि प्रेमी या प्रेयसी का ठीक रात को बारह बजे चुम्बन लीजिये और "ओल्ड लांग साइन" का लोकगीत गाईये, जर्मनी में कहा जाता है कि चम्मच में पानी और सीसे को साथ गर्म करके मिलाईये.

आप नये वर्ष में सौभाग्य के लिए किसका अनुसरण करना चाहेंगे? और अगर आप को मौका मिले कि आप झाँकी में भारत के किसी व्यक्ति की या किसी विषेश घटना की मूर्ती जोड़िये, तो आप किसकी मूर्ती जोड़ना चाहेंगे, और क्यों?

हमारी भाषा कैसे बनी

कुछ दिन पहले मैंने जाने-माने डॉक्यूमैंट्री फ़िल्म निर्देशक अरुण चढ़्ढ़ा की १८५७ के लोक-गीतों पर बनी फ़िल्म के बारे में लिखा था। आज उन्हीं की ए...

लोकप्रिय आलेख