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बुधवार, दिसंबर 07, 2011

छोटी सी याद

1973-74. हम लोग दिल्ली से मध्य प्रदेश में नरसिंहपुर जा रहे थे. मेरे साथ मेरी एक मौसी और नानी थे. रेलगाड़ी रात को इटारसी स्टेशन पर पहुँची थी, जहाँ हम लोगों ने कुछ घँटे बिताये थे, अगली रेलगाड़ी के आने के इन्तज़ार में.

उस रात मुझे मिली थी ज़रीना वहाब और पहली मुलाकात में ही प्यार हो गया था. ज़रीना वहाब की तस्वीरें "नयी आने वाली अभिनेत्री" के शीर्षक से फ़िल्मफेयर पत्रिका में छपी थीं और उन तस्वीरों को देख कर मेरे दिल की धड़कन तेज़ हो गयी थी.

उन दिनों में मुझे ज़रीना वहाब की तस्वीरें खोजने का भूत सवार हुआ था. किसी पत्रिका में उनकी तस्वीर दिखती तो उसे खरीदने में ही जेबखर्च के सब पैसे चले जाते. तस्वीर को पत्रिका से काट कर संभाल कर रखता. उन तस्वीरों से बातें करता और सपने देखता उनसे मिलने के.

जब सुना था कि वह देवआनन्द साहब की फ़िल्म "इश्क इश्क इश्क" में आ रही हैं तो उस दिन मेडिकल कॉलिज की क्लास छोड़ कर उस फ़िल्म का पहले दिन का पहला शो देखने गया था. फ़िल्म में छोटा सा भाग था उनका लेकिन आज भी अगर उस फ़िल्म के बारे में सोचूँ, तो बस केवल उनका वही भाग याद हैं मुझे.

उनकी उस पहली फ़िल्म के बाद, बहुत समय तक उनकी कोई अन्य फ़िल्म नहीं आयी थी. फ़िर एक-दो सालों के बाद आयी थी बासू चैटर्जी की "चितचोर". जिस दिन वह फ़िल्म रिलीज़ हुई थी, उस दिन मेरा जन्मदिन था और अपने सब मित्रों के साथ दिल्ली के शीला सिनेमा हाल में पहले दिन का पहला शो देखने गया था.

Zarina Wahab Amol Palekar in Chitchor


फ़िर समय बीता और धीरे धीरे पर्दे पर या तस्वीरों में देखी ज़रीना वहाब का जादू अपने आप ही कम होता गया. उनकी जगह दूसरी छवियाँ बसीं मन में, दूसरे सपने आने लगे. फ़िर भी उनकी वे तस्वीरें मेरी डायरी में जाने कितने बरसों तक जमा रहीं थीं.

देवानन्द साहब की मृत्यु पर पिछले दिनों में बहुत आलेख निकले. उन्हीं में कहीं "इश्क इश्क इश्क" के बारे में पढ़ा तो अपने उस पहले नशे की यह बात याद आ गयी.

कैसा होता है मानव मन! भूली बिसरी बातें मन के कोनों में कहाँ छुपी बैठी रहती हैं और जैसे किसी ने बटन दबाया हो, तुरंत उठ कर यूँ सामने आती हैं मानो कल की ही बात हो.

इस बात के बारे में लिखते हुए पाया कि मैं गुनगुना रहा हूँ "तू जो मेरे सुर में सुर मिला ले"!

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बुधवार, नवंबर 16, 2011

फ़िल्मी रोग और उनके डागधर बाबू


रोग, ओपरेशन, जन्म, मृत्यु, अस्पताल, डाक्टर और वैद्य, यह सभी मानव जीवन का अभिन्न हिस्सा हैं. अधिकतर फ़िल्मों में कोई न कोई दृश्य ऐसा होता ही है जिसमें कोई डाक्टर या अस्पताल दिखे. पर कुछ फ़िल्मों का प्रमुख विषय बीमारी या अस्पताल में काम करने वाले लोग होते हैं. आज मैं कुछ ऐसी ही फ़िल्मों की बात करना चाहता हूँ. अक्सर इन फ़िल्मों को रोने धोने वाली फ़िल्में कहा जाता है, लेकिन कभी कभी गम्भीर विषय पर बनी यह फ़िल्में अपनी बात को मुस्कान के साथ कहने में सक्षम होती हैं.

सबसे पहले मेरे कुछ मन पंसद दृष्यों की बात की जाये, उन फ़िल्मों से जिनकी कहानी में डाक्टर या बीमारियों की बात थी तो छोटी सी, लेकिन फ़िर भी मेरे लिए वे यादगार दृष्य हैं.

सबसे पहला न भूलने वाला दृष्य है मनमोहन देसाई की फ़िल्म अमर अकबर एन्थनी से. वह दृष्य था जिस में तीनो भाई, अमिताभ बच्चन, विनोद खन्ना और ऋषी कपूर, अस्पताल में अपनी बचपन की खोयी माँ निरूपा राय को खून देते हैं. तीनों की बाहों से खून निकल कर माँ के शरीर में सीधा पहुँच रहा था, इस दृष्य ने मुझे बहुत रोमाँचित किया था, हालाँकि मालूम था कि इस तरह से खून नहीं देते. इसी फ़िल्म में एक अन्य दृष्य था जिस पर मुझे बहुत हँसी आयी थी, जिसमें विवाह के वस्त्र पहने हुए परवीन बाबी जी चक्कर खा कर गिर जाती हैं और नीतू सिंह जो डाक्टर हैं, उनकी कलाई को उठा कर कान से लगाती हैं और कहती हैं, "बधाई हो, यह तो माँ बनने वाली है". यह सच्ची बम्बईया मसाला फ़िल्म थी.

दूसरा दृष्य जो मुझे न भूलने वाला लगता है वह गम्भीर था, गुलज़ार की फ़िल्म परिचय से. इस दृष्य में अपनी बीमारी को छुपाने वाले संजीव कुमार अपने रुमाल पर लगे खून के छीटों को अपनी बेटी जया भादुड़ी से नहीं छुपा पाते तो उनकी आँखों में जो कातरता, मजबूरी और दुख की झलक दिखायी दी थी उसने मन को छू लिया था. बिल्कुल इसी से मिलता जुलता एक अन्य दृष्य था ऋषीकेश मुखर्जी की सत्यकाम में जिसमें शर्मीला टैगोर जब अस्पताल में बीमार पति धर्मेन्द्र की खाँसी में खून के छीटें देख लेती हैं तो धर्मेन्द्र की आँखों में आयी हताशा, पीड़ा और दुख बहुत सुन्दर लगे थे.

अस्पताल या बीमारी से जुड़ा कोई दृष्य है जो आपके मन को छू गया और जिसे आप कभी नहीं भुला पाये? उसके बारे में हमें भी बताईये.

Collage hindi films - S. Deepak, 2011


खैर अब न भूलने वाले दृष्यों की बात छोड़ कर, उन फ़िल्मों की बात की जाये जिनकी कहानी में बीमारी और अस्पतालों का स्थान महत्वपूर्ण था.

दिल एक मन्दिर : अगर अस्पतालों और बीमारियों से जुड़ी फ़िल्मों के बारे में सोचूँ तो सबसे पहला नाम जो मन में उभरता है वह है श्रीधर की 1963 की फ़िल्म दिल एक मन्दिर. राम (राजकुमार) को कैन्सर है, वह अस्पताल में अपनी पत्नी सीता (मीना कुमारी) के साथ आते हैं, जहाँ उनकी मुलाकात होती है डा धर्मेश (राजेन्द्र कुमार) से. धर्मेश सीता को देख कर हैरान हो जाते हैं, वही तो उनका पहला प्यार थी. राम को जब अपनी पत्नी और डाक्टर के पुराने प्रेम सम्बन्ध का पता चलता है, वह अपनी पत्नी से कहते हैं कि तुम मेरी मृत्यु के बाद डाक्टर से विवाह कर लेना.

जैसी उस ज़माने की फ़िल्में होती थीं, उस हिसाब से यह नाटकीय और ज़बरदस्त रुलाने वाली फ़िल्म है, जिससे रो रो कर डीहाईड्रेशन का खतरा हो जाये. बचपन में जब पहली बार देखी थी तो पति पत्नी के रिश्ते में पुराने प्रेमी के आने की बात को ठीक नहीं समझ पाया था लेकिन तब भी एक कैन्सर ग्रस्त छोटी बच्ची के लिए मीना कुमारी द्वारा गाया गीत "जूही की कली मेरी लाडली" दिल को छू गया था. फ़िल्म में अन्य भी कई सुन्दर गीत थे जैसे - "याद न जाये बीते दिनों की", "रुक जा रात ठहर जा रे चन्दा", "हम तेरे प्यार में सारा आलम खो बैठे हैं".

आनन्द : अस्पतालों और बीमारियों से जुड़ी मनपसंद फ़िल्मों में मेरे दूसरे नम्बर पर है हृषिकेश मुखर्जी की 1971 की फ़िल्म आनन्द, जिसमें तब के उभरते अभिनेता राजेश खन्ना के साथ अमिताभ बच्चन नये आये थे. आँतड़ियों के कैंन्सर "लिम्फ़ोसारकोमा आफ इन्टस्टाईनस" से पीड़ित आनन्द (राजेश खन्ना) बम्बई में डा. भास्कर (अमिताभ बच्चन) के पास कुछ दिन रहने आते हैं. उसे मालूम है कि उसके जीवन के चन्द महीने ही शेष बचे हैं लेकिन जीवन से भरे आनन्द को इसकी कुछ चिन्ता नहीं लगती, बल्कि वह खुशियाँ बाँटने में मग्न लगता है. भास्कर, उसका "बाबू मोशाय", अपने आसपास की गरीबी और विषमताओं से हताश है, उसे लगता है कि उसके चिकित्सक होने का क्या फायदा जब लोग भूख से मरते हैं. आनन्द उसे प्रेम, दोस्ती और जीवन का पाठ सिखाता है.

गुलज़ार के लिखे इस फ़िल्म के डायलाग बोलने वाले आज भी मिल जाते हैं. "कहीं दूर जब दिन ढल जाये", "मैंने तेरे लिए ही सात रंग के सपने चुने",  "न जिया लागे न" और "ज़िन्दगी कैसी है पहेली हाय" जैसे गानों में आज भी मिठास लगती है.

इसी फ़िल्म से प्रेरित थी करण जौहर की 1998 की फ़िल्म कल हो न हो जिसमें अमन (शाहरुख खान) अपनी बीमारी को छुपाते हुए न्यू योर्क आते हैं और नैना (प्रीति ज़िन्टा) तथा रोहित (सैफ़ अली ख़ान) के जीवन में सुख घोलने की कोशिश करते हैं. यूँ तो यह फ़िल्म भी बुरी नहीं थी लेकिन आनन्द की तुलना में अमन के पात्र की बीमारी का चित्रण सतही और अविश्वस्नीय सा था और फ़िल्म में उसकी बीमारी वाला भाग भी सीमित था.

इस सूची में मेरी तीसरी मनपंसद फ़िल्म है 1963 की बिमल राय की फ़िल्म बन्दिनी, जिसकी नायिका कल्याणी (नूतन) जेल में खून की सजा काट रही है. स्त्री जेल में एक तपेदिक की मरीज का इलाज करने डा देवेन (धर्मेन्द्र) आते हैं और कहते हैं कि रोगी की देखभाल के लिए उन्हें एक स्वयंसेवी-कैदी की आवश्यकता है. बाकी कैदी डरती हैं केवल कल्याणी ही इस काम के लिए आगे बढ़ती है. तपेदिक का इलाज करते करते स्वयं देवेन को कल्याणी से प्यार हो जाता है.

इस फ़िल्म में अस्पताल का हिस्सा सारी फ़िल्म में नहीं था, अधिकतर प्रारम्भ के हिस्से में था लेकिन बहुत सशक्त था. धारी वाले वस्त्रों में कैदी औरतें, नूतन का अभिनय और धर्मेन्द्र का शर्मीलापन, यह सब उस समय बहुत पसन्द किये गये थे और फ़िल्म को कई फ़िल्मफेयर पुरस्कार भी मिले थे. "ओ पंछी प्यारे, साँझ सखारे", "मत रो माता लाल तेरे बहुतेरे", "अब के बरस भेज भईया को बाबुल", "मोरा गोरा रंग लैईले", "ओरे माँझी, मेरे साजन हैं उस पार" जैसे गीतों से सजी यह फ़िल्म आसानी से नहीं भुलाई जा सकती.

गुलज़ार की प्रारम्भ की फ़िल्मों में से 1973 की बनी अचानक ने मुझे बहुत प्रभावित किया था. थोड़े से फ्लैशबैक के दृष्य छोड़ कर बाकी की यह सारी फ़िल्म एक अस्पताल में ही केन्द्रित थी. कहानी थी मेजर रन्जीत (विनोद खन्ना) की जिन्हें गोली लगी है और जिनका इलाज हो रहा है. उनकी देखभाल करने वाली है नर्स राधा (फरीदा जलाल). रन्जीत के साथ उसकी यादें हैं, जिनमें पत्नी पुष्पा का प्यार भी है और उन्हीं के मित्र के साथ बेवफ़ाई भी. रन्जीत ने अपनी पत्नी का खून किया है और ठीक होने पर उन्हें फाँसी लगनी है.

फ़िल्म का ध्येय था कानून की दृष्टि पर और मृत्युदंड पर प्रश्न उठाना. गोली लगने पर पहले  मरीज़ की जान बचाने के लिए डाक्टर मेहनत करते हैं, लेकिन जब डाक्टर उस व्यक्ति की जान बचा लेने में सफल होते हैं तो उसे फाँसी की सजा में मार दिया जाता है. इस फ़िल्म में फ़रीदा जलाल बहुत अच्छी लगी थीं. इस फ़िल्म में गाने नहीं थे.

ख़ामोशी : असित सेन की 1969 की यह फ़िल्म प्रेम में निराशा से जुड़े मानसिक रोग की कहानी थी जिसकी नायिका थी नर्स राधा के रूप में वहीदा रहमान. प्रेम की हताशा को मानसिक रोग के रूप में पालने वाले नवयुवकों के इलाज के लिए मानसिक रोग के डाक्टर कर्नल साहब (नासिर हुसैन) एक नये इलाज की कोशिश करना चाहते हैं और राधा को देव (धर्मेन्द्र) से प्रेम का नाटक करने को कहते हैं. नाटक करते करते राधा को सचमुच देव से प्यार हो जाता है लेकिन देव ठीक हो कर, राधा को भूल कर अस्पताल से चला जाता है. फ़िर कर्नल साहब राधा से एक अन्य रोगी अरुण (राजेश खन्ना) से प्रेम का नाटक करने को कहते हैं. राधा इस काम को स्वीकार नहीं करना चाहती लेकिन कर्नल साहब को मना नहीं कर पाती. अरुण से प्रेम का नाटक करती है तो भी उसकी यादों में देव लौट आता है, और अरुण ठीक हो कर चला जायेगा और उसे भूल जायेगा, इसके डर से वह अपना मानसिक संतुलन खो बैठती है.

वहीदा रहमान, धर्मेन्दर और राजेश खन्ना का सशक्त अभिनय और "तुम पुकार लो", "वो शाम कुछ अज़ीब थी" जैसे गाने, यह फ़िल्म भी बहुत सुन्दर थी.

1970 की असित सेन की फ़िल्म सफ़र में एक बार फ़िर से राजेश खन्ना थे मैडिकल कोलेज में पढ़ने वाले कैंन्सर के रोगी जो सबसे अपना रोग छुपाते हैं. "ज़िन्दगी का सफ़र यह है कैसा सफ़र कोई समझा नहीं कोई जाना नहीं" इस फ़िल्म का गीत बहुत प्रसिद्ध हुआ था.

तेरे मेरे सपने : क्रोनिन के प्रसिद्ध उपन्यास "द सिटाडेल" पर बनी नवकेतन की फ़िल्म "तेरे मेरे सपने" के निर्देशक थे विजय आनन्द. 1971 की इस फ़िल्म की कहानी थी एक आदर्शवादी डाक्टर आनन्द (देव आनन्द) की, जो कोयले की खान से जुड़े एक छोटे से शहर में काम करने आता है. वहाँ आनन्द को गाँव की मास्टरनी निशा (मुम्ताज़) से प्यार हो जाता है और दोनो विवाह कर लेते हैं. एक गलतफ़हमी की वजह से आनन्द को वह शहर छोड़ना पड़ता है और आनन्द बम्बई में जा कर पैसा कमाने की सोचता है. बम्बई में प्रसिद्ध फ़िल्म अभिनेत्री माल्तीमाला (हेमा मालिनी) से आनन्द के सम्बन्ध बनते है.

पैसे और नाम की चाह में ऊपर उठता आनन्द, छोटे शहर और प्रारम्भिक जीवन के आदर्शों को भूल जाता है. उसे होश आता है जब गर्भवती निशा उसे छोड़ कर चली जाती है. सचिन देव बर्मन के संगीत में बने इस फ़िल्म के कुछ गीत जैसे "जीवन की बगिया महकेगी", "मेरा अंतर इक मन्दिर है तेरा" और "जैसे राधा ने माला जपी श्याम की" मुझे बहुत पसन्द आये थे.

अनुराधा : 1960 की ऋषिकेश मुखर्जी द्वारा निर्देशित फ़िल्म "अनुराधा" की कहानी बहुत सीधी साधी थी. आदर्शवादी डा. निर्मल (बलराज साहनी) गाँव में रह कर लोगों की सेवा करते हैं. छोटा सा संसार है उनका, पत्नि अनुराधा और बेटी रानू. काम में व्यस्त निर्मल, अपनी पत्नी का अकेलापन और त्याग नहीं देख पाते जो प्रसिद्ध गायिका हो कर भी, गाँव में दिन भर घर में रह कर संगीत के दूर चली गयी है. पैसा कमाने में व्यस्त पति हो या शराबी पति हो, कम से कम अकेली पड़ी पत्नी को लोगों की सुहानूभूति तो मिल सकती है लेकिन अगर पति जग भलाई में व्यस्त हो और उसके पास पत्नि और घर के लिए समय न हो तो उसमें पत्नी के अकेलापन सुहानूभूति कठिनाई से मिलती है.

इस फ़िल्म में संगीत दिया था प्रसिद्ध सितारवादक रवि शंकर ने. उनके बनाये गीत जैसे "हाय रे वह दिन क्यों न आयें", "कैसे दिन बीते, कैसे बीती रतियाँ", और "जाने कैसे सपनों में खो गयी अँखियाँ" जैसे गाने आज भी उतने ही ताज़े लगते हैं.

दिल अपना और प्रीत परायी : किशोर साहू द्वारा निर्देशित 1960 की इस फ़िल्म में डाक्टर सुशील (राजकुमार) और उनकी नर्स करुणा (मीना कुमारी) का प्यार दिखाया गया था. पुराने अहसान का बदला चुकाने के लिए सुशील को कुसुम (नादिरा) से विवाह करना पड़ता है.

शंकर जयकिशन के मधुर संगीत से इस फ़िल्म में कई उम्दा गीत थे जैसे कि "मेरा दिल अब तेरा ओ साजना", "अज़ीब दास्ताँ है यह", "दिल अपना और प्रीत परायी". इसी फ़िल्म से प्रेरित थी हनी ईरानी द्वारा निर्देशित 2003 की फ़िल्म अरमान जिसने डाक्टर आकाश (अनिल कपूर) और डाक्टर नेहा (ग्रेसी सिंह) के प्यार के बीच में अमीर बाप की बेटी सोनिया कपूर (प्रीति ज़िन्टा) आ जाती है.

मौसम : गुलज़ार द्वारा 1975 में निर्देशित इस फ़िल्म की कहानी भी क्रोनिन के एक उपन्यास "द जूडास ट्री" पर आधारित थी. इस फ़िल्म में वैसे तो बीमारी का बड़ा हिस्सा नहीं था लेकिन कहानी के नाटकीय मोड़ बनाने में इसमें एक वैद्य जी का बड़ा हिस्सा था जिनकी बेटी चन्दा (शर्मीला टैगोर) से शहर से आये डाक्टर अमरनाथ (संजीव कुमार) को प्यार हो जाता है.

इस फ़िल्म की बात से यह भी मेरे ध्यान में आता है कि भारत में बहुत से लोग देसी या आयुर्वेदिक दवा में विश्वास रखते हैं और आवश्यकता पड़ने पर सबसे पहले वैद्य के पास ही जाते हैं लेकिन हमारी फ़िल्मों को वैद्य के ज्ञान को पश्चिमी ज्ञान से पढ़े डाक्टरों से नीचा माना जाता है और मेरे विचार में कभी कोई ऐसी फ़िल्म नहीं बनी जिसमें वैद्य का प्रमुख भाग हो या उसे हीरो दिखाया गया हो या उनके ज्ञान को सही गौरव से प्रस्तुत किया गया हो.

ऋषिकेश मुखर्जी की फ़िल्म खूबसूरत में अशोक कुमार को होम्योपैथी का इलाज करने वाला दिखाया गया था, जोकि वह अपने असली जीवन में भी थे. हाल में ही एक पाकिस्तानी फ़िल्म बोल में पिता के रूप में वैद्य का भाग था जिनका काम शहर में पश्चिमी पढ़ायी किये डाक्टरों के आने से ढप्प सा हो जाता है. पिछले दो दशकों में भूमण्डलिकरण से इस तरह की सोच को और भी ज़ोर मिला है और हिन्दी में गाँवों के विषयों पर बनने वाली फ़िल्में और भी कम हो गयीं हैं, इस तरह वैद्यों के काम पर आधारित कहानी पर फ़िल्म बने यह और भी कठिन होगा.

1975 की ही गुलज़ार की एक अन्य फ़िल्म थी खुशबू जो शरतचन्दर के उपन्यास पर बनी थी और जिसमें जितेन्द्र ने गाँव के डाक्टर बृन्दावन का भाग निभाया था, हालाँकि फ़िल्म में बीमारियों या अस्पालों की बात कम ही थी. इसमें शर्मीला टैगोर का एक छोटा सा हिस्सा था जिसमें उनका नाम था लक्खी लेकिन उनका पात्र मौसम की चन्दा से प्रेरित था.

मिली : 1975 की ऋषीकेश मुखर्जी की इस फ़िल्म में जया भादुड़ी को हीमोफिलिया नाम की रक्त की बीमारी थी. उनके पड़ोसी शेखर के रूप में अपने परिवार के स्कैंडल को शराब में डुबा कर भुलाने की कोशिश करने वाले अमिताभ बच्चन को मिली से प्यार हो जाता है लेकिन जब उसे मिली की बीमारी के बारे में मालूम चलता है तो उसे लगता है कि वह इस तरह के दुख का सामना नहीं कर सकता.

ऊपर जितनी फ़िल्मों की बात की गयी है वे सब साठ और सत्तर के दशक में बनी. इसके बाद, अस्सी और नब्बे के दशकों में बनी फ़िल्मों के बारे में, मुझे सोच कर भी याद नहीं आया कि अस्पताल या डाक्टरी विषय पर कौन सी फ़िल्में बनी थीं. केवल पिछले दशक की इस विषय पर बनी कुछ फ़िल्में याद आती हैं, जिनमें से प्रमुख हैं:

दिल ने जिसे अपना कहा : 2004 की इस फ़िल्म के निर्देशक थे अतुल अग्निहोत्री और फ़िल्म की कहानी थी ऋषभ (सलमान खान) और परिणीता (प्रीति ज़िन्टा) की. परिणीता बच्चों की डाक्टर है, बच्चों का अस्पताल बनाना चाहती है, गर्भवती भी है जब दुर्घटना में उसकी मृत्यु हो जाती है. उसका दिल मिलता है धनि (भूमिका चावला) को जो ऋषभ के बच्चों के अस्पताल बनाने के काम में उसके साथ जुड़ती है.

मुन्ना भाई एमबीबीएस : राजकुमार हिरानी की 2003 की इस फ़िल्म ने भी अस्पतालों, डाक्टरों और डाक्टरी पढ़ने वाले छात्रों की बातें हँसी मज़ाक के साथ साथ बड़ी गम्भीरता से दिखायीं थीं. डाक्टरों, नर्सों के साथ साथ, अस्पताल में और भी कितने लोग काम करते हैं जिनकी बात कभी किसी फ़िल्म में नहीं देखी थी, जैसे कि अस्पताल में सफ़ाई करने वाले. पहली बार मुन्ना भाई में उन्हें भी इन्सान के रूप में दिखाया गया था.

इसके अतिरिक्त 2003 की ही एक मराठी फ़िल्म श्वास जिसने मुझे बहुत प्रभावित किया था. इसके निर्देशक थे संदीप सावंत और इसकी कहानी थी एक बच्चे की जिसकी आँख में ट्यूमर है और जिसका ईलाज कराने उसके दादा जी उसे बम्बई ले कर आये हैं. यह फ़िल्म मुझे बहुत बहुत अच्छी लगी थी और इस मैंने पहले भी लिखा था.

क्यों कि : 2005 में प्रियदर्शन द्वारा निर्देशित इस फ़िल्म में मानिसक रोगी (सलमान खान) और उसका इलाज करनी वाली डाक्टर (करीना कपूर) की कहानी थी. यह फ़िल्म चीखने चिल्लाने वाली अतिनाटकीयता से भरी थी.

इसके अतिरिक्त, 2009 की फ़िल्म पा जिसमें अमिताभ बच्चन ने प्रोजेरिया नाम की बीमारी से पीड़ित बच्चे का भाग निभाया था, इस दशक की अच्छी फ़िल्मों में से गिनी जा सकती है. अच्छी कहानी, विश्वस्नीय मुख्य पात्र, फ़िल्म भावपूर्ण थीं.

अंत में 2010 की करण जौहर की फ़िल्म वी आर फ़ेमिली में काजोल और करीना कपूर जैसी अभिनेत्रियों के साथ भी कैन्सर से पीड़ित माँ का अपने बच्चों के लिए नयी माँ खोज करने का विषय था. पर इस फ़िल्म में मुझे सब कुछ नकली सा लगा था. सुन्दर कपड़े, बढ़िया लोकेशन थीं फ़िल्म में लेकिन कहानी और पात्र बहुत सतही थे.

मुझे लगता है कि जिस तरह की भावनात्मक फ़िल्में तीस-चालिस साल पहले बनती थीं वह फ़िर उसके बाद नहीं बनी. अस्सी के दशक के बाद फ़िल्मों में तकनीकी सुधार हुआ, फ़िल्में रंगीन हो गयीं, लेकिन जिस तरह की भावनाएँ उनमें होती थीं वह "मुन्ना भाई" और "पा" जैसे अपवादों को छोड़ कर, बाद में बहुत सतही हो गयी. तीस-चालिस पहले कोई फ़िल्म करोड़ों के धँधे की बात नहीं कर सकती थी, न ही उस समय मल्टीप्लेक्स थे, पर उस समय उनमें जो भावनाओं की गहरायी थी उसे पुराना कह कर भूल जाने में शायद हमारा ही नुक्सान है.

अगर मेरी इस सूची में इस विषय पर बनी कोई अन्य अच्छी हिन्दी फ़िल्म छूट गयी है तो उसके बारे में मुझे बताईये. आप का क्या विचार है, क्या आज भावनात्मक फ़िल्में बने तो चलेंगी? डाक्टरी और चिकित्सा विषयों पर बनी फ़िल्मों में आप की सबसे पसन्दीदा फ़िल्म कौन सी होगी?

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शुक्रवार, अगस्त 12, 2011

अधिकारों का आरक्षण


जब एक मानव अधिकार, किसी दूसरे के मानव अधिकार को प्रभावित करे, तो किस मानव अधिकार को महत्व और सरंक्षण मिलना चाहिये? श्री प्रकाश झा की नयी फ़िल्म "आरक्षण" पर हो रही बहसों के बारे में पढ़ कर मैं यही बात सोच रहा था.

इस बहस में है एक ओर फ़िल्म बनाने वालों की कलात्मक अभिव्यक्ति का अधिकार, अपनी बात कहने का अधिकार, और दूसरी ओर है, दलित शोषित मानव वर्ग की चिन्ता कि सवर्णों की कलात्मक अभिव्यक्ति के नाम पर उन्हें फ़िर से नीचा दिखाने और संघर्षों से अर्ज़ित अधिकारों के विरुद्ध बात की जायेगी.

Poster of film - Aarakshan

कौन सा अधिकार सर्वोच्च माना जाया उसकी यह बहस नयी नहीं है और अन्य मानव गुट बहुत समय से इसका समाधान खोज रहे हैं.

जैसे कि विकलाँग व्यक्तियों के अधिकारों तथा नारी अधिकारों की बात करने वाले गुटों की बहस.

नारी अधिकारों में गर्भपात का अधिकार भी है, जिसे कुछ देशों में बहुत कठिनायी से जीता गया है. इस अधिकार का अर्थ है कि गर्भ के पहले 18 से 20 सप्ताह में, अगर नारी किसी वजह से उस गर्भ को नहीं चाहती तो वह गर्भपात करवा सकती है. बहुत से देशों में यह अधिकार नहीं है. कैथोलिक धर्म नेताओं ने इस अधिकार का हमेशा विरोध किया है क्योंकि वह मानते हैं कि जीवन उसी क्षण से प्रारम्भ हो जाता है जब नर और नारी के अंश मिल कर गर्भ की शुरुआत करते हैं, इसलिए उनका मानना है कि नारी का गर्भपात का अधिकार, होने वाले बच्चे के जीवन के अधिकार के विरुद्ध है, और जीवन का अधिकार सर्वोच्च है. चाहे होने वाला बच्चा बलात्कार का परिणाम हो या यह मालूम हो कि बच्चा विकलाँग होगा, कैथोलिक धर्म नेता यही कहते हैं कि उसका जीवन अधिकार नहीं छीना जा सकता.

विकलाँग व्यक्तियों के अधिकारों के लिए लड़ने वालों का कहना है कि यह मानना कि विकलाँग होने से किसी व्यक्ति को जीने का अधिकार नहीं, और उसे गर्भपात से मारने की अनुमति देना गलत है, विकलाँग बच्चों को भी पैदा होने का अधिकार है. वह नारियों के गर्भपात के अधिकार के विरुद्ध नहीं लेकिन कहते हैं कि यह गलत है कि केवल इस लिए गर्भपात किया जाये क्योंकि होने वाला बच्चा विकलाँग होगा.

विकलाँग व्यक्तियों के अधिकारों के लिए लड़ने वाले गुट भी टीवी, फ़िल्म आदि में विकलाँग व्यक्तियों के चित्रण के विरुद्ध लड़ते आये हैं. उनका कहना है कि अक्सर सिनेमा में विकलाँग व्यक्तियों को हास्यप्रद व्यक्ति बनाया जाता है जिसमें लोग उनकी विकलाँगता का मज़ाक उड़ाते हैं, उनके बारे में अपमानजनक शब्दों का प्रयोग करते हैं, उनके पुरुष होने या स्त्री होने के मानव अधिकारों को नकारते हैं.

तो प्रकाश झा की "आरक्षण" के बारे में हो रही बहस का क्या समाधान है? मेरे विचार में इसका समाधान बहस ही है, यानि फ़िल्म क्या कहती है, कैसे कहती है, हम उससे सहमत हैं या असहमत, इस पर सभ्यता से बहस करना.

यह कहना कि उसकी कहानी बदल दी जाये या उसके डायलाग बदल दिये जायें, यह नकारना है कि दुनिया में ऐसे व्यक्ति होते हें जो उस तरह का सोचते या बोलते हैं, और फ़िल्मकार की स्वतंत्रता पर रोक लगायी जाये कि कौन से पात्र चुने, कौन सी कहानी कहे.

यह कहना कि फ़िल्में, कहानियाँ, उपन्यास, दलितों के विरुद्ध कुछ भी कहने से पहले इस व्यक्ति या उस कमिशन या इस दल की अनुमति लें का अर्थ हर नागरिक के अधिकारों का हनन है.

चाहे सवर्ण हो या दलित, मराठी हों या गुजराती या बँगाली, नर हो या नारी, अमीर हो या गरीब, हर समाज में कुछ लोग होते हैं जो बात चीत में नहीं बल्कि हिँसा में और तानाशाही में विश्वास रखते हैं. मुम्बई में जब शिवसैना के लोग किसी फ़िल्म को या किताब को या चित्रकला को बैन करने या नष्ट करने के लिए धमकी देते हैं वह लोग उन दलित नेताओं से किस तरह भिन्न हैं जो किसी फ़िल्म को या किताब को बैन करने की माँग करते हैं? किसी भी बात पर, लोगों को अपनी सहमती असहमती को न जताने देना, यह कहना कि बस मेरी बात मानिये, गणतंत्र का हिस्सा नहीं, तानाशाही का हिस्सा है.

जिन राज्यों ने फ़िल्म को प्रदर्शित होने से रोका है, मालूम है कि रोकने से केवल सिनेमा हाल में फ़िल्म रोकी जायेगी. इस रोक से बहुत से लोगों में फ़िल्म देखने की उत्सुकता बढ़ेगी और दूसरे तीसरे दिन ही पायरेटिक डीवीडी बाज़ार में मिल जायेंगी. जो लोग देखना चाहते हैं वह फ़िल्म तो देखेंगे, हाँ निर्माता निर्देशक को अवश्य आर्थिक नुकसान होगा, और डँडाराज की मानसिकता इसी से प्रसन्न होगी, कि कैसा पाठ पढ़ाया, अगली बार कोई हमारे सामने सिर नहीं उठायेगा. सवर्णों ने सदियों से यही किया है, डँडाराज के सहारे दलितों को दबाया है, जब मौका मिलता है तो दलित क्यों न वही हथियार उठायें?

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सोमवार, अगस्त 08, 2011

चालिस साल बाद

1965 में आयी थी राजेन्द्र कुमार, साधना, फिरोज़ खान और नाज़िमा की फ़िल्म "आरज़ू", जिसके निर्देशक थे रामानन्द सागर. तब दिल्ली के इंडिया गेट पर अमर जीवन ज्योति का सैनिक स्मारक नहीं बना था और रानी विक्टोरिया की मूर्ति भी वहीं पर स्थापित थी. तब दिल्ली में कारें भी बहुत कम थीं, साइकल पर बाहर घूमने जाना न तो नीचा माना जाता था, और न ही उससे दिल्ली की सड़कों पर आप की जान को खतरा होता था.

तब जँगली, कश्मीर की कली, जब प्यार किसी से होता है, जैसी फ़िल्मों में गाने कश्मीर में फ़िल्माये जाते थे, जहाँ हीरो हीरोइन का प्रेम मिलन दो फ़ूलों को एक दूसरे से टकरा कर दिखाते थे. उन दिनों में इंडियन एयरलाईंस की एयर होस्टेस हल्के नीले रंग के बोर्डर वाली साड़ी पहनती थीं और हवाई अड्डे खुले मैदान जैसे होते हैं बस उसकी बाऊँडरी के आसपास काँटों वाला तार लगा होता था. तब चित्रकार बड़े बड़े बोर्डों पर फ़िल्म के दृश्य बनाते थे.

ऐसे ही किसी बोर्ड पर हमने भी "आरज़ू" फ़िल्म का दृश्य बना देखा था जिसमें राजेन्द्र कुमार जी पहाड़ पर बर्फ़ में स्कीइंग कर रहे थे, और जिसने हमारा मन मोह लिया था. खूब ज़िद की हमने घर में कि हम यह फ़िल्म अवश्य देखेंगे. खैर जब तक फ़िल्म देखने का कार्यक्रम बना, फ़िल्म को आये छः सात महीने अवश्य हो चुके थे, उसकी गोल्डन जुबली मनायी जा चुकी थी, और उसे देखने हम लोग तीस हज़ारी के पास एक सिनेमा हाल में गये थे जिसका नाम शायद नोवल्टी था.

रंगीन फ़िल्म, बर्फ़ के सुन्दर नज़ारे, राजेन्द्र कुमार की स्कीइंग और त्याग, फ़िरोज़ खान की दोस्ती, साधना का रोना और अपना पाँव काटने की कोशिश करना, नाज़िमा की चीखें, नज़ीर हुसैन का रोते हुए कहना "बेटी, अपने खानदान की इज़्ज़त अब तुम्हारे हाथ में है", वाह! फ़िल्म की कहानी, डायलाग, गाने सब कुछ बहुत अच्छा लगा था.

चालिस साल बीतने के बाद भी "आरज़ू" फ़िल्म की याद मन में थी, इसलिए पिछली भारत यात्रा में जब एक दुकान में फ़िल्म की डीवीडी देखी तो रुका नहीं गया, सोचा कि पुरानी यादों को ताज़ा करने के लिए फ़िल्म को दोबारा देखना चाहिये.

फ़िल्म के पहले ही दृश्य में राजेन्द्र कमार को साइकल पर इंडियागेट में जहाँ अब अमर जवान ज़्योति है, वहाँ से बीच में से गुज़रते देखा, तो दिल्ली के भूले हुए दिन याद आ गये, पर साथ ही लगा कि चालिस साल के बाद भी हिन्दी फ़िल्मों में एक बात नहीं बदली. यानि कि चाहे आप एयरपोर्ट से आ रहे हों, वैसे ही बाहर घूम रहे हों, या काम पर जा रहे हों, कुछ भी हो, फ़िल्म में वह सड़क इन्डिया गेट, लाल किला और कुतुब मिनार के सामने से अवश्य गुज़रती है.

राजेन्द्र कुमार को कालिज का परिणाम पाने वाला दृष्य देखा और जब उनकी माँ बोली कि बेटा तुमने मेडिकल कोलिज में फर्स्ट कलास में सबसे अव्वल नम्बर पाये हैं तो भी यही ख्याल आया कि चालिस साल बाद यह भी नहीं बदला कि हमारे 35 या 40 साल के हीरो अभी भी कोलिज में पढ़ते हैं और कालिज के अन्य लड़के लड़कियों के बाप जैसे लगते हैं.

हीरो हीरोइन कई दिनों तक मिलते हैं, उनमें प्रेम होता जाता है लेकिन हीरोइन को न हीरो का नाम मालूम होता है न उसका पता. फ़िर संयोग से हीरोइन की सगाई हीरो के करीबी मित्र से हो जाती है और संयोग से ही हीरोइन हीरो की बहन से साथ पढ़ती है. इस तरह की संयोग वाली अविश्वस्नीय बातें भी इन चालिस सालों में हिन्दी सिनेमा में नहीं बदलीं.

लेकिन किसी किसी बात में बदलाव आया है. जैसे कि राजेन्द्र कुमार की स्कीइंग का दृश्य देखा तो हँसी आ गयी कि चालिस साल पहले यह किस तरह से ग्लेमरस लगा था! कश्मीर में इस तरह की फ़िल्म बनाना तो कई दशकों से बन्द हो गया है और अब कश्मीर में केवल आतंकवाद या मिलेट्री वाली फ़िल्में ही बनती हैं.

राजेन्द्र कुमार का अपनी प्रेमिका की सहेली सलमा के पिता हकीम साहब बन कर उसके घर जाने के दृष्य को देख कर लगा कि पहले उर्दू शेरो-शायरी की बात जितनी सहजता से कहानी में जोड़ दी जाती थी, वह अब नहीं होती. उससे एक साल पहले 1964 में राजेन्द्र कुमार और साधना की फ़िल्म "मेरे महबूब" बहुत हिट हुई थी, शायद आरज़ू फ़िल्म का यह सारा हिस्सा उसी की प्रेरणा से इस फ़िल्म में जोड़ दिया गया था.

लेकिन इतने सालों के बाद भी फ़िल्म के गानो को सुन कर लगा मानो मैं अभी वही लड़का हूँ जो इस फ़िल्म को देखने गया था -
  • अजी रूठ कर अब कहाँ जाईयेगा, जहाँ जाईयेगा हमें पाईयेगा
  • ऐ नरगिसे मस्ताना बस इतनी शिकायत है
  • छलके तेरी आँखों से शराब और भी ज़्यादा
  • ऐ फ़ूलों की रानी, बहारों की मल्लिका, तेरा मुस्कुराना गज़ब ढा गया
  • बेदर्दी बाल्मा तुझको मेरा मन याद करता है
शंकर जयकिशन के संगीत से सजे गानों में आज भी वही नशा है जो चालिस साल पहले होता था.

पुरानी यादों को ताज़ा करते हुए, "आरज़ू" के कुछ दृष्य प्रस्तुत हैं:

श्रीनगर हवाईअड्डा और एयर इंडिया की एयर होस्टेस
Arzoo by Ramanand Sagar, India, 1965

हीरो का भेष बदल कर हीरोइन के घर आना
Arzoo by Ramanand Sagar, India, 1965

संयोग से हीरोइन की बहन ने देखा कि उसकी सहेली के पास उसके भाई की तस्वीर थी
Arzoo by Ramanand Sagar, India, 1965

धूमल और महमूद की कामेडी
Arzoo by Ramanand Sagar, India, 1965

हीरोइन का अपना पैर काटने का बलिदान
(अगर वह लकड़ी काटने वाली मशीन के करीब ही बैठ जाती तो आप के दिल की धड़कन कैसे बढ़ती?)
Arzoo by Ramanand Sagar, India, 1965

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रविवार, जनवरी 02, 2011

गार्गी की यवनी बेटी

कुछ दिन पहले स्पेन-चिली के फ़िल्म निर्देशक अलेहान्द्रो अमेनाबार (Alejandro Amenàbar) की फ़िल्म अगोरा (Agorà) देखी जिसमें चौथी शताब्दी की यवनी (ग्रीक) दर्शनशास्त्री और नक्षत्रशास्त्री हाइपाटिया (Hypatia) की कहानी है. पुरुष प्रधान समाज में स्वतंत्र सोचने वाली स्त्री के विषय के अतिरिक्त यह फ़िल्म धार्मिक कट्टरवाद के विषय को भी छूती है. इस फ़िल्म को देख कर भारत के पूर्व-इतिहास की ऐसी ही एक युवती, गार्गी, जिसकी कथा वेदों में लिखी है, के बारे में जानने की इच्छा भी मन में जागी.

Agora, a film by Alejandro Amernabar

ईसा से तीन सौ साल पहले यवनी सम्राट सिकन्दर यानि अलेक्ज़ान्डर (Alexander) ने आधुनिक तुर्की, सीरिया, मिस्र, ईराक, ईरान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान और भारत तक कर अपना साम्राज्य बनाया था. उनके नाम से बने यवनी शहर इन सभी देशों में आज भी उस इतिहास की गवाही देते हैं. हाइपेटिता की कहानी मिस्र (Egypt) में समुद्र तट पर बसे अलेज़ान्ड्रिया (Alexandria) शहर की है, जो उस समय अपने प्रकाश स्तम्भ तथा पुस्तकालय के लिए दुनिया भर में मशहूर था. तब तक यवन साम्राज्य कमज़ोर हो चुका था और रोमन साम्राज्य चर्म पर था.

हाइपेटिया, रोमन जिसे इपेत्सिया बुलाते हैं, अलेज़ान्ड्रिया के पुस्तकालय के अधिनायक की ज्ञानी बेटी थी जो दूर दूर से आये पुरुष छात्रों को दर्शनशास्त्र पढ़ाती थी तथा उसे नक्षत्र शास्त्र (Astronomy) में, विषेशकर धरती, सूर्य और अन्य ग्रहों के बारे में जानने में अधिक दिलचस्पी थी और वह विवाह से इन्कार करती थी. तब यवन और रोमन धार्मिक विश्वास था पुराने यवनी देवी देवताओं में, जैसे कि ज़ीअस, मिनर्वा, वीनस, आदि. इस धार्मिक विश्वास को बाद में "पागान" (Pagan) का नाम दिया गया.

Agora, a film by Alejandro Amernabar

फ़िल्म दिखाती है नये फैलते हुए ईसाई धर्म के द्वंद को, जो एक ओर तो शोषित दलित गुलामों को मानव मानता है और नये समताबद्ध समाज की संरचना करता है, दूसरी ओर उसके कुछ सदस्य अन्य धर्मों को मज़ाक उड़ाते हैं, और कुछ कट्टरपंथी अन्य विधर्मियों, यानि यहूदी (Jew) तथा पागान धर्मों में विश्वास करने वालों के विरुद्ध हिंसा का अभियान चलाते हैं. एक बार कट्टरपंथी राह चलती है तो बाकी सब धर्मों को दबा दिया जाता है, कुछ लोग वहाँ से भाग जाते है, बचे खुचे लोग धर्म परिवर्तन कर लेते हैं. हाइपेटिया पर डायन होने, पुरुषों को बहकाने और स्त्री शालिनता के विपरीत रहन सहन के आरोप लगा कर, मृत्युदंड की सजा दी जाती है. हाइपेटिया का ज्ञान कि धरती गोल है और ग्रह किस तरह सूर्य के आसपास घूमते हैं, अन्य कई सौ सालों के लिए खो जाते हैं. अलेज़ान्ड्रिया का अनूठा पुस्तकालय जहाँ सदियों का मानव ज्ञान संरक्षित था, नष्ट हो जाता है.

बाद के कुछ इतिहासकारों कहते हैं कि अलेज़ान्ड्रिया का प्राचीन पुस्तकालय पैगम्बर मुहम्मद के समय के बाद मुसलमानों ने नष्ट किया था और इसे "मुसलमान कट्टरवाद" के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करते हैं, जबकि अन्य इतिहासकारों को कहना है कि यह प्राचीन पुस्कालय "ईसाई कट्टरवादियों" द्वारा नष्ट किया गया था. इस फ़िल्म में इसी को सच माना गया है और फ़िल्म में पुराने अलेज़ान्ड्रिया शहर को बहुत भव्य रूप से दिखाया गया है.

Agora, a film by Alejandro Amernabar

हाइपेटिया अन्य बहुत बातों में अपने समय से बहुत आगे थीं, लेकिन वह गुलामों के साथ हाने वाले अमानवीय व्यवहार के बारे में कुछ नहीं कहतीं, और न ही गुलामी को गलत मानती हैं.

मुझे फ़िल्म की सबसे अच्छी बात लगी कि किस तरह उसमें धार्मिक कट्टरवाद की बात को दिखाया गया है जो कि सोचने पर मजबूर करती है. उस समय का पागान धर्म सहिष्णु और उदार था, और उस समय अलेज़ान्ड्रिया में यहूदी, पागान, ईसाई, विभिन्न धर्मों को लोग शांति से साथ रहते थे. लेकिन एक बार विभिन्न धर्मों के कट्टरपंथी एक दूसरे के विरुद्ध जहर फैलाने लगे तो रूढ़िवादी ईसाई धार्मिक शासन बना और दूसरी ओर, ज्ञान और विकास दोनों के रास्ते रुक गये.

कुछ लोगों ने इस फ़िल्म को "ईसाई धर्म विरोधी" कहा है लेकिन खुशी की बात है कि कम से कम इटली में इस बात पर न कोई दंगे हुए, न किसी के कहा कि फ़िल्म को बैन किया जाये, आदि. बल्कि फ़िल्म को फ्राँस के कान फ़ैस्टिवल में विषेश पुरस्कार भी मिला. मेरे विचार में फ़िल्म ईसाई धर्म के विरुद्ध नहीं, बल्कि कट्टरवाद के विरुद्ध है, क्योंकि फ़िल्म के अनुसार, उस समय हुई धार्मिक लड़ाईयों में पागान कट्टरपंथियों का भी उतना ही दोष था. अगर आप को यह फ़िल्म देखने का मौका मिले तो अवश्य देखियेगा.

इतिहास से हम क्या सबक सीख सकते हैं? क्या इतिहास हमें राह दिखा सकता है कि आज विश्व में छाये कट्टरवाद के खतरे से कैसे बचा जाये? फ़िल्म देख कर इस बात पर बहुत देर तक सोचता रहा, पर कोई आसान उत्तर नहीं मिला. एक तरफ से लगता है कि हर धार्मिक कट्टरवाद को, चाहे वह छोटा हो या बड़ा, तुरंत दबा दिया जाना चाहिये, पर यह भी लगता है कि हिंसा से हिंसा ही जन्मेंगी, दबाने से कट्टरवाद नष्ट नहीं होगा बल्कि और फैल सकता है.

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हाइपेटिया उस समय की नायिका थी जब सामान्य जीवन में स्त्री को कुछ अधिकार नहीं थे, पढ़ने लिखने और खुल कर बोलने का अधिकार भी नहीं था. इसके बावजूद वह स्वतंत्र रूप से विकसित हो सकीं, अध्यापक बनी, वैज्ञानिक शौध किया, दर्शन पर पुरुषों से बहस की, वह इसलिए कि उन्हें अपने पिता से सहयोग मिला.

भारत के वेदों में वर्णित ब्रह्मावादिनी गार्गी भी हाइपेटिया की तरह पुरुष प्रधान समाज में रहती थीं. ऋगवेद को सबसे पुराना आदिग्रंथ माना जाता है, इसमें स्त्री की जगह पत्नि तथा ग्रहणी के रूप में ही है, यहाँ तक कि सभी देव देवता भी पुरुष ही हैं और देवियों के नाम बहुत कम जगह पर आते हैं. गार्गी को महाऋषि वचक्नु की बेटी और आजीवन ब्रह्मचारिणी कहा जाता है. बृहदारण्यक उपनिषद में, विदेह के राजा जनक द्वारा आयोजित एक शास्त्रार्थ में उनका एक वर्णन है.

वेदों में वर्णित अन्य प्रसिद्ध स्त्रियों में, जैसे अनुसूया, शाण्डिली, सावित्री, अरुन्धती, आदि को पतिव्रता, निष्ठा आदि जैसे गुणों की वजह से श्रेष्ठ माना जाता है, विदुषी होने के लिए नहीं. मित्र ऋषि की पत्नि मेत्रेयी को अवश्य विदुशी कहते हैं पर पुराणों के अनुसार, उन्हें यह ज्ञान उनके पति ने दिया. यानि हाइपेटिया की तरह स्वतंत्र व्यक्तित्व रखने वाली, ज्ञानवती स्त्री केवल गार्गी ही थी.

क्या गार्गी को भी समाज का सामना करना पड़ा था, इसके बारे में आज कैसे जान सकते हैं?

शनिवार, दिसंबर 11, 2010

इच्छा मृत्यु या हत्या ?

संजय लीला भँसाली की फ़िल्मों से अन्य जो भी शिकायत हो, उनके मौलिक कलात्मक अंदाज़ को, तथा उसकी सौंदर्यपूर्ण और संवेदशनशील अभिव्यक्ति को, नहीं नकारा जा सकता. उनकी फ़िल्मों के विषयों की प्रेरणा तो अक्सर विश्व सिनेमा से मिली लगती है, लेकिन फ़िल्म को कहने का तरीका उनका अपना है.

मेरे विचार में उनकी फ़िल्मों की विशेषता है कि उनमें एक ओर मानव भावों को प्रधानता दी जाती है, दूसरी ओर उन भावनाओं की संकेतात्मक अभिव्यक्ति करने के लिए अक्सर वह कोई विशेष वातावरण बनाते हैं जिसमें प्रकृति, रंग, भवन वास्तुकला, संगीत आदि, कला के हर पक्ष को वह खोज कर गढ़ा जाता है. इस तरह उनकी फ़िल्मों का वातावरण भव्य, सुंदर और भावपूर्ण तो होता है, पर साथ ही, अगर सोच कर देखा जाये तो नकली या नाटकीय भी. यह तो उनकी कला अभिव्यक्ति की व्यक्तिगत शैली है, जो विषेशकर पिछली कुछ फ़िल्मों में गहरी हो गयी है. कोई कलाकार अपनी कला की अभिव्यक्ति के लिए किस शैली को चुनता है, यह तो उसका निजि निर्णय है, लेकिन मुझे लगता है कि बहुत से आलोचक उनकी फ़िल्मों को केवल इस शैली के मापदँड से देख कर उनकी आलोचना लिखते हैं, उसके परे नहीं जा पाते.

"खामोशी" से ले कर "देवदास", "साँवरिया" और "ब्लैक" तक, मुझे अब तक उनकी कोई फ़िल्म सिनेमा हाल में देखने का मौका नहीं मिला था, टेलीविज़न पर ही डीवीडी से देखा था, और हर बार सोचता था कि उनकी फ़िल्मों के हर दृश्य की भव्य नाटकीयता को सिनेमा हाल के बड़े परदे पर देखना अच्छा लगेगा. इसलिए इस बार भारत में था तो उनकी नयी फ़िल्म "गुज़ारिश" को सिनेमा हाल में देखने का मौका मिला, तो बहुत अच्छा लगा.

Guzaarish by Sanjay Leela Bhansali

इस फ़िल्म में भी वह अपनी कला शैली पर ही डटे हैं, यानि फ़िल्म में देखने में भव्य भी है और सुंदर भी, हर एक दृश्य जैसे चित्रकार ने तूलिका से बनाया हो. घने बादलों और बारिश के रंगों का फ़िल्म में प्रभुत्व हैं - गहरा नीला, भूरा, कत्थई, काला.

गोवा की जो सामान्य छवि मन में होती है, नीला समुद्र तट और उस पर अठखेलियाँ करते पर्यटक, या "आयेंगा खायेंगा, तुम हमको क्या बोलता" जैसी भाषा बोलने वाले मछुआरे, वे सब नहीं दिखते इस फ़िल्म में. फ़िल्म के तीनो मुख्य चरित्र, ईथन, सोफ़िया, उसकी देखभाल करने वाली नर्स देवयानी और जादू सीखने वाला शिष्य ओमार, गोवा के गाँवों के पुर्तगाली घर, वहाँ के पुर्तगाली रहन सहन, वस्त्रों आदि के साथ, भारतीय और पुर्तगाली सम्मिश्रण से रचा गया है, कुछ कुछ वैसा जैसे "ब्लैक" के लिए रचा गया था.

फ़िल्म के सभी अभिनेता अभिनेत्रियाँ, हृतिक रोशन और एश्वर्या राय से ले कर छोटे बड़े सभी चरित्र, चाहे वह डाक्टर हो या रसोई में काम करने वाली मारिया या चर्च का पादरी, हर एक को सोच कर सावधानी से रचा गया है जिससे कि सभी पात्रों हाड़ माँस के व्यक्ति हैं, केवल कहानी को बढ़ाने वाले कागज़ी चरित्र नहीं. अभिनय की दृष्टि से सभी प्रशंसनीय हैं, किसी के अभिनय के सुर में बेसुरापन नहीं लगता. हृतिक रोशन ने तो ईथन के भाग में जान डाली ही है, लेकिन बहुत समय के बाद मुझे एश्वर्य राय भी अच्छी लगीं.

भँसाली जी ने पहले भी "खामोशी" और "ब्लैक" फ़िल्मों में विकलाँगता की बात बहुत संवदेना के साथ की थी और "गुज़ारिश" में एक बार फ़िर इस विषय को छूना प्रशंसनीय है. आज के मल्टीप्लेक्स वातावरण में, व्यवसायिक प्रेम कहानियों से निकल कर, गम्भीर बातों को छूने का साहस सामान्य बात नहीं.

लेकिन जहाँ फ़िल्म एक ओर कला अनुभव के रूप में खरी उतरती है, उसकी कथा के संदेश, यानि विकलाँगता और इच्छा मृत्यु, के बारे में मेरे मन में कुछ दुविधाएँ हैं. लेकिन उन दुविधाओं के बारे में बात करने से पहले, मैं कुछ माह पहले अंग्रेज़ी साप्ताहिक पत्रिका "तहलका" में छपे एक लेख के बारे में कहना चाहूँगा जिसमें बात थी तमिलनाडू तथा दक्षिण भारत में गरीब परिवारों में, वृद्ध माता पिता को जान से मारने की.

इस लेख के अनुसार, कुछ गरीब परिवारों में वृद्ध माता पिता की जबरदस्ती तेल से मालिश की जाती है और दिन भर उन्हें नारियल का पानी पिलाया है जिससे उनके गुर्दे काम करना बन्द देते हैं और दो तीन दिनों में बूढ़े मर जाते हैं. अगर तेल मालिश और नारियल के पानी से बात न बने तो नाक बन्द करके जबरदस्ती मुँह में मिट्टी या जहर भी दिया जा सकता है. कुछ वृद्ध इसी डर से घर छोड़ कर चले जाते हैं, पर साथ ही वे अपने बच्चों को दोष नहीं देना चाहते क्योंकि वह जानते हैं कि गरीबी में बूढ़े माता पिता का ध्यान रखना आसान नहीं. कई बार इस तरह मारने से पहले, सब रिश्तेदारों को बुलाया जाता हैं ताकि मरनेवाले से मिल कर सब लोग ठीक से विदा ले सकें.

जीवन और मानव अधिकारों को बात करते हुए भी, मुझे मालूम है कि गरीब घर में भूखे प्यासे लोग जो जीवन मृत्यु के निर्णय लेते हैं, उन्हें वह लोग नहीं समझ सकते जिन्होंने स्वयं भूख न झेली हो. नैतिकता की बात करना आसान है पर जब छोटे छोटे खर्चों पर पूरे परिवार के जीने मरने का भविष्य टिका हो तो असली अनैकतिकता, गरीबी और भुखमरी हैं. अनचाही बच्चियों या विकलाँग बच्चों को मारने के लिए ज़हर या गला घोंटने की ज़रूरत नहीं, बस इतना काफ़ी है कि खाने के लिए कम दो या बीमारी में डाक्टर के पास न ले जाओ.

लेकिन आज के जीवन में, जिसमें खरीदना, दिखना, सफलता पाना ही जीवन के सबसे महत्वपूर्ण ध्येय हैं, शायद बात भुखमरी वाली गरीबी की नहीं, मनचाहा न खरीद पाने वाली गरीबी की है जिसमें बूढ़े माता पिता या विकलाँग बच्चों की जानें, हमारी आकाक्षाओं की राह में रुकावट बन जाती है और जिन्हें राह से हटाना अधिक आसान है? सचमुच स्वेच्छा से मरना चाहने वालों से, लालच में मारने वाले कई गुणा अधिक हैं और इसी लिए मानव जीवन रक्षा के कानून बने हैं. इस दृष्टि से देख कर मेरे मन में "गुज़ारिश" से कुछ दुविधाएँ उठीं थीं.

"गुज़ारिश" फ़िल्म के नायक ईथन को, 14 वर्ष पहले एक दुर्घटना की वजह से शरीर के गर्दन से नीचे के भाग को लकवा मार गया है. वह न हाथ पाँव हिला सकते हैं न शरीर पर स्पर्श का अनुभव कर सकते हैं. अपने आप वह करवट भी नहीं ले सकते और लेटे रहने की वजह से, उनकी पीठ पर घाव बन रहे हैं और उनके गुर्दे भी काम नहीं कर रहे जिससे उन्हें नियमित रूप से डायलेसिस की आवश्यकता होने लगी है. उनका जिगर भी ठीक से काम नहीं कर रहा. इन सब का अर्थ है कि उनका शरीर धीरे धीरे मृत्यु के करीब जा रहा है और वह उनके जीवन के कुछ ही महीने बचे हैं.

इस हालत में, यह जान कर कि अंत समय आ रहा है, कुछ महीनों की बात है, और घुट घुट कर मरने के बजाय, ईथन चाहता है कि उसे शान्ति से मरने दिया जाये, यह बात मेरी समझ में आती है. लेकिन फ़िल्म में ईथन के मरने की इच्छा की बात इस दृष्टि से नहीं की जाती, या की जाती है पर बहुत सीमित रूप में.

बजाय यह कहने के कि ईथन कुछ ही महीनों में मरने वाला है, और शायद वह घुट घुट के, तड़प तड़प के मरेगा, अदालत में बहस के दौरान तर्क दिये जाते हैं कि चूँकि ईथन कुछ महसूस नहीं कर सकता, अपने आप हिल भी नहीं सकता, और इसकी वजह से मानसिक तकलीफ़ में है इसलिए उसे मरने दिया जाये. लेकिन अगर इस विचार को सही मान लिया जाये तो शायद यह नहीं माना जायेगा कि जिनका आधा या पूरा शरीर लकवे से बँधा है, या जो विकलाँगता की वजह से सीमित है, उन सबको मरने दिया जाये या मार दिया जाये? वैसे "गुज़ारिश" में कई बार कहा जाता है कि बात सभी या अन्य विकलाँग व्यक्तियों की नहीं, केवल ईथन की है लेकिन ईथन के बारे में जो तर्क दिये जाते हैं वे तर्क तो अन्य व्यक्तियों के लिए भी कहे जा सकते हैं.

बोलोनिया में मेरे एक मित्र क्लाऊडियो इमप्रूदेंते का, जन्म से ही गर्दन से नीचे का हिस्सा लकवाग्रस्त है. वह बोल भी नहीं सकते लेकिन पारदर्शी बोर्ड जिसपर ए, बी, सी, डी, लिखा हो, के माध्यम से आँखों के इशारे से बात करते हैं, लिखते हैं, मानव अधिकारों की बात करते हैं, स्कूलों में बच्चों को विकलाँगता और मानव अधिकारों की बात समझाते हैं. अगर "गुज़ारिश" के तर्कों को मान लिया जाये तो क्या यह समाज इस बात की अनुमति देगा कि क्लाऊडियो जैसे लोगों को जन्म होते ही जीवित न रखा जाये?

मैं सोचता हूँ कि जीवन की गुणवत्ता को मापने की कसौटी विकलाँगता का होना या होना नहीं है. बहुत से लोग, विकलाँगता के बावजूद जीवन को खुल कर, पूरा जीते हैं, और कुछ लोग विकलाँग न हो कर भी, जीवन को उस तरह से नहीं जी पाते.

मैं यह नहीं कहता कि हर हालत में जबरदस्ती मानव शरीर को मशीनों के सहारे ज़िन्दा रखा जाये. जीवन और मृत्यु, दोनों जुड़े हुए हैं और प्रकृति का हिस्सा हैं, बिना मृत्यु के जीवन नहीं हो सकता. मैं मानता हूँ कि जब वह समय आये जिसमें जीवन केवल पीड़ा भरी मृत्यु की प्रतीक्षा भर ही रह जाये, तो व्यक्ति को शान्ति से मरने का अधिकार चुनने की स्वतंत्रता होनी चाहिये. लेकिन मेरे विचार में "गुज़ारिश" में इस विचार को बिल्कुल ठीक ढंग से नहीं प्रस्तुत किया गया है. बजाय ईथन की विकलाँगता के तर्क दे कर, अगर फ़िल्म ईथन के सम्मान से और शांति से मर पाने के मानव अधिकार की बात करती तो वह बेहतर होता.

Guzaarish by Sanjay Leela Bhansali

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गुरुवार, जून 17, 2010

बॉली या पॉउली ?

बम्बई के फ़िल्म जगत को बॉलीवुड का नाम कब मिला यह तो कोई ठीक से नहीं कह सकता, विकीपीडिया भी नहीं. मुझे लगता है कि 1970 के दशक में बम्बई से निकलने वाली स्टारडस्ट, सिने ब्लिट्ज़ जैसी फ़िल्मी पत्रिकाओं में तब भी बॉलीवुड शब्द का प्रयोग होता था.

इधर पिछले कुछ सालों में कई बार पढ़ा कि बम्बई के कुछ प्रसिद्ध सितारे अभिनेता, इस नाम से खुश नहीं, वे अपनी पहचान को हॉलीवुड के नकलची छोटा भाई के रुप में नहीं करवाना चाहते, अपने आत्मसम्मान का सोचते हैं. लेकिन यहाँ यूरोप में तो धीरे धीरे बॉलीवुड शब्द की पहचान ही हर तरफ़ बढ़ती जा रही है, और इसका प्रयोग केवल बम्बई में बनने वाली हिंदी फ़िल्मों के लिए ही नहीं बल्कि भारत में बनी सभी फ़िल्मों के लिए किया जाने लगा है, चाहे वे तमिल में हों या बंगला में.

कुछ दिन पहले, इटली के एक लेखक जो कि आजकल बम्बई की पृष्ठभूमि पर एक उपन्यास लिख रहे हैं, उनसे बात हो रही थी, तो वे कहने लगे कि बॉलीवुड शब्द को केवल बम्बई में बनने वाली मसाला फ़िल्मों के लिए प्रयोग करना चाहिये, कला फ़िल्मों, समानांतर सिनेमा, कलकत्ता या केरल में बनने वाली फ़िल्में, इन सब को बॉलीवुड कहना गलत है.

मुझे भारत के अलग अलग हिस्सों में बनने वाली फ़िल्मों तथा कला फ़िल्मों और फार्मूला फ़िल्मों का अंतर समझ में आता है, लेकिन यह भी लगता है कि यूरोप में भारतीय फ़िल्मों के बढ़ते प्रशंसकों को इन अंतरों को समझने में कोई दिलचस्पी नहीं है. इटली में भारतीय फ़िल्मों की जानकारी पिछले दो वर्षों में अचानक तेज़ी से बढ़ी है जबसे यहाँ की एक प्रमुख टीवी चेनल ने बहुत सारी बम्बई की मसाला फ़िल्में, "हम तुम" और "नमस्ते इंडिया" से ले कर "जब वी मेट" को दिखाया है. इससे पहले, भारतीय फ़िल्मों को कुछ थोड़े बहुत लोग ही जानते थे. हालाँकि टीवी पर जब यह फ़िल्में दिखायी गयीं तब इनमें से अधिकतर गाने व नृत्य काट दिये गये थे, लेकिन फ़िर भी लोगों में गानों और नत्यों के प्रति उत्सुकता जागी और लोग यूट्यूब जैसे वेब पन्नों पर भारतीय फ़िल्मों को खोजने लगे हैं.

आज इटली के बहुत से शहरों में बौलीवुड क्ल्ब बने हैं, इन फ़िल्मों के दीवाने, शाहरुख खान, आमीर खान और अक्षय कुमार जैसे अभिनेताओं की प्रशंसा में पत्र लिखते हैं, उनकी तस्वीरें सहेजते हैं. फेसबुक पर पृष्ठ बनाते हैं, बॉलीवुड नृत्यों के स्कूल खोलते हैं. उन्हें फ़िल्म की मूल भाषा क्या है, हिंदी या बंगला या तमिल, इसमें दिलचस्पी नहीं, सबटाईटल हैं या नहीं, बस यह जानना होता है. फेसबुक पर बने इतालवी बॉलीवुड पृष्ठ के एक हज़ार से अधिक सदस्य हैं. कुछ दिन पहले एक इतालवी युवती का ईमेल मिला कि क्यों न सब लोग मिल कर ए. आर रहमान को इटली में आ कर संगीत कार्यक्रम करने को कहें?

बॉलीवुड से मिलती जुलती बात का एक समाचार ब्राज़ील से मिला.

कुछ दिनों के लिए मुझे ब्राज़ील जाना है, उसकी तैयारी के लिए खोज कर रहा था तो ब्राज़ील के पॉउलीवुड के बारे में एक लेख दिखा, जिसमें लिखा है कि ब्राज़ील के सनपाउलो राज्य में एक छोटे से शहर ने, जिसका नाम पाउलीनिया है, फ़िल्म शहर बनने का निश्चय किया है. इस शहर में ब्राज़ील की सबसे बड़ी पेट्रोल रिफाईनरी फैक्ट्री है जिस पर टेक्स लगाने की वजह से शहर की नगरपालिका की बहुत आय होती है, और नगरपालिका ने निर्णय लया कि वे इस आय से वे लोग फ़िल्म बनाने वालों को सहारा देंगे, उन्हें सब सुविधाएँ देंगे, पैसे देंगे, इत्यादि. इस नीति की वजह से कुछ ही वर्षों में पाउलीनिया का छोटा सा, अनजाना शहर, अचानक प्रसिद्ध होने लगा है और पिछले वर्ष, ब्राज़ील में बनने वाली एक तिहायी फ़िल्मों की शूटिंग यहीं हुई है. वह चाहते हैं कि शहर का नाम अब लोग पाउलीनिया के जगह, बॉलीवुड की प्रसिद्धी से प्रेरणा पा कर, पॉउलीवुड कहा जाये.

आज के भूमँडलिकरण के जगत का नियम है कि आत्मसम्मान और अपने नाम या पहचान के अलग होने की चिंता न करके, कैसे ब्रैंडनेम बनाया जाये, जिसे दुनिया में प्रसिद्धी मिले, धँधा बढ़े, पैसा आये, कमाई हो, इसको सोचना चाहिये. जब गाँधी जी के नाम को ब्रैँड बना कर बेचा जा सकता है तो बॉलीवुड की ब्रैंड को बेचने में दुविधा क्यों? तो बॉलीवुड के बने बनाये नाम का फ़ायदा पाना ही बेहतर है या फ़िर अपने आत्म सम्मान के लिए सबसे यह कहना कि भारतीय सिनेमा को बॉलीवुड कह कर उसकी तौहीन न करें?

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रविवार, अगस्त 23, 2009

श्वास की मिठास

इस साल तो कोई भी अच्छी हिंदी फ़िल्म देखने को तरस गये. "न्यू योर्क" या "लव आज कल" जैसे नामी फ़िल्मों से भी उतना संतोष नहीं मिला. "संकट सिटी" और "कमीने" के बारे में अच्छा पढ़ा है पर देखने का मौका नहीं मिला. पर कुछ दिन पहले 2003 की बनी एक मराठी फ़िल्म देखी "श्वास" तब जा कर लगा कि हाँ कोई बढ़िया फ़िल्म देखी.

फ़िल्म को बनाया था संदीप सावंत ने और सीधी साधी सी कहानी है, कोई बड़े नामी अभिनेता या अभिनेत्री नहीं हैं, लेकिन फ़िल्म मन को छू गयी. कहानी है परशुराम (अश्विन छिताले) की, छोटा सा बच्चा जो अपनी उम्र के सभी बच्चों की तरह खेल कूद और शरारतों में मस्त रहता है, बस एक ही कठिनाई है कि बच्चे को कुछ दिनों से देखने में कुछ परेशानी हो रही है, जिससे न पढ़ लिख पाता है, न ठीक से खेल पाता है. परशु के पिता बस में कँडक्टर थे पर एक सड़क दुर्घटना से विकलाँग हो कर घर में रहते हैं, इसलिए परशु की चिंता उसके दादा जी केशवराम (अरुण नालावड़े) करते हैं. दादा जी ही परशु को ले कर पहले गाँव के डाक्टर के पास ले कर जाते हें जो उन्हें परशु को शहर के बड़े आँखों के डाक्टर के पास जाने की सलाह देता है.

दादा जी और परशु के मामा दिवाकर (गणेश मंजरेकर) बच्चे को ले कर पूना डा. साने (संदीप कुलकर्णी) के क्लीनिक में जाते हैं. साने जी अच्छे डाक्टर हैं पर बहुत व्यस्त हैं, उनके पास अपनी पत्नी, अपनी बेटी के लिए भी अधिक समय नहीं और गाँव से आये दादा जी, शहर के तेज भागते जीवन जिसमें लोगों के पास रुक कर प्यार से बोलने समझाने का समय नहीं, बेचारे परेशान से हो जाते हैं. डा साने उन्हें कहते हैं कि कुछ टेस्ट आदि करवाने होंगे और शहर में रुकना पड़ेगा. टेस्ट करवाने में भी खतरा हो सकता है यह जान कर दादा जी घबरा जाते हें तब उनकी मुलाकात सोशल वर्कर आशावरी (अम्रुता सुभाष) से होती है जो उन्हें धर्य से समझाती है और टेस्ट पूरे होते हैं. (तस्वीर में डा. साने दादा जी को बच्चे की बीमारी के बारे में बताते हैं)


टेस्ट से मालूम चलता है कि परशु की आँख में कैसर है. बीमारी अभी शुरु में ही है इसलिए अगर ओपरेशन किया जाये तो परशु बच सकता है पर उस ओपरेशन में वह अपनी दोनो आँखें खो देगा और अँधा हो जायेगा. दादा जी पहले रोते हैं, किसी अन्य डाक्टर की सलाह लेने की सोचते हैं, पर आशावरी की सलाह से मान जाते हैं कि ओपरेशन के अतिरिक्त कोई चारा नहीं. डा. साने का कहना है कि परशु को ओपरेशन से पहले बताना पड़ेगा कि वह ओपरेशन के बाद देख नहीं पायेगा, पर न दादा जी में हिम्मत है न आशावरी में कि इतनी बड़ी बात परशु को बता सकें. डा. साने भी हिचकिचाते हें कि कैसे यह बात बच्चे को कहे, पर परशु समझ गया है कि उसके दादा उसे देख कर क्यों रोते हैं, क्यो डाक्टर साहब उसे आँख बंद कर खेलने को कहते हैं. (तस्वीर में दिवाकर, परशु, नर्स और दादा जी)


परशु अस्पताल में भरती होता है पर अंतिम समय में किसी वजह से ओपरेशन नहीं हो पाता और उसके अगले दिन होने की बात होती है. वापस वार्ड में दादा जी परशु को ले कर अचानक गुम हो जाते हैं. वार्ड में सब परेशान हैं कि भरती हुआ मरीज कहाँ चला गया, किसकी लापरवाही से यह हुआ? आशावरी को चिंता है कि निराश दादा जी ने आत्महत्या न कर ली हो. अस्पताल में घूमने वाले पत्रकार टीवी चैनल इस बात को उछाल देते हैं कि अस्पताल लापरवाही से काम करता है और इसी लापरवाही से बच्चा और उसके दादा जी खो गये हैं. परेशान डा. साने पहले अस्पताल के अधिकारियों पर बिगड़ते हैं, फ़िर अपने सहयोगियों पर, पर पत्रकारों के प्रश्नों का उनके पास कोई उत्तर नहीं. (तस्वीर में, परशु के खोने से परेशान, डा. साने और आशावरी)


थके हारे डा. साने अस्पताल से बाहर निकलते हैं तो बाहर रंगबिरगी टोपी पहने दादा जी दिखते हैं, साथ में भोंपू बजाता खुश परशु. डाक्टर साहब बहुत बिगड़ते हैं, गुस्से से चिल्लाते हैं कि तुम जैसे जाहिल लोग कुछ अच्छा बुरा नहीं समझते, मैं तुम्हारे पोते का मुफ्त ओपरेशन कर रहा था और तुमने उसका यह जबाव दिया मुझे, जाओ ले जाओ अपने पोते को, मैं उसका ओपरेशन नहीं करुँगा.

दादा जी, डाँट खा कर पहले तो रुआँसे हो जाते हें फ़िर गुस्से से चिल्लाते हैं, आखिरी 24 घँटे थे मेरे परशु के पास इस रोशनी की दुनिया के, उन्हें क्या वार्ड के दुख भरे वातावरण में गुजारने देता? कौन सा संसार याद रहता परशु को, हमेशा के लिए अँधेरे में जाने के बाद?

फ़िल्म के सभी पात्रों का अभिनय बहुत बढ़िया है, विषेशकर दादा जी के भाग में केशव नालावड़े, परशु के भाग में अश्विन छिताले का और डाक्टर साने के भाग में संदीप कुलकर्णी का. हालाँकि फ़िल्म कम बजट में बनी है, पर गाँव वाले भाग का चित्रण बहुत सुंदर है. अस्पताल के दृश्य बिल्कुल असली लगते हैं.

आशावरी के भाग में अम्रुता सुभाष कुछ बनावटी लगती हैं पर मुझे अपने कार्य के सिलसिले में कई सोशल वर्कर को जानने का मौका मिला है, और मुझे लगता है पैशे से संवदेनापूर्ण होने की वजह से शायद उनके सुहानुभूती जताने के तरीके में, जाने अनजाने कुछ बनावटीपन सा आ जाता है, इसलिए वह भी बहुत असली लगीं.

हालाँकि फ़िल्म का विषय गम्भीर है पर उसमें न कोई अतिरंजना है, न बेकार की डायलागबाजी या रोना धोना. फ़िल्म के अंत में यही समझ आता है कि यह जीवन अँधा होने से रुक नहीं जाता, अँधा हो कर भी जीवन में कुछ बनने के, कुछ करने के, आत्मनिर्भर होने के रास्ते हैं. इस दृष्टी से फ़िल्म का वह छोटा सा हिस्सा जब दादा जी परशु को ले कर अँधे बच्चों के स्कूल जाते हैं, बहुत प्रभावशाली लगा.

अगर आप ने श्वास नहीं देखी और मौका मिले तो इसे अवश्य देखियेगा. फ़िल्म मराठी में है, पर चाहें तो इसकी डीवीडी में अंग्रेजी, हिंदी के अलावा भी कई भारतीय भाषाओं में सबटाईटल चुन सकते हैं. मुझे मराठी भाषा बहुत अच्छी लगती है पर पूरा नहीं समझ पाता, मैंने इसे हिंदी के सबटाईटल के साथ देखा. श्वास को 2003 की सबसे सर्वश्रैष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था और 2004 में यह भारत की ओर से ओस्कर पुरस्कार के लिए नामांकित की गयी थी.

शनिवार, अगस्त 22, 2009

चाँद और आहें

कुछ दिन पहले आयी एक फ़िल्म "शार्टकट" का एक गीत सुना तो बहुत अच्छा लगा.

"कल नौ बजे तुम चाँद देखना, मैं भी देखूँगा, और फ़िर दोनो की निगाहें चाँद पर मिल जायेंगी"

मन में तीस या चालिस साल पहले देखी फ़िल्म "शारदा" की याद आ गयी जिसमें कुछ इसी तरह का गीत था, "ऐ चाँद जहाँ वो जायें, तुम साथ चले जाना". जब हीरो राजकपूर कहीं पर चला जाता है और पीछे से उसकी पत्नी या प्रेयसी यह गीत गाती है. इस फ़िल्म की कहानी बहुत अज़ीब थी. राजकपूर जी प्यार करते हैं शारदा यानि मीना कुमारी से, वह कहीं जाते हैं तो पीछे से शारदा का विवाह उनके पिता से हो जाता है, और जब वह घर वापस आते हें तो पिता की नयी पत्नी को देख कर दंग रह जाते हैं. इस तरह भी हो सकता है, इस बात को माना जा सकता है, बिमल मित्र के उपन्यास "दायरे के बाहर" में भी यही होता है, लेकिन शारदा का यह कहना कि उनके पुराने प्रेमी अब उन्हें माँ कह कर पुकारें और माँ के रूप में सोचें, मुझे बहुत अजीब लगा था और बेचारे राज कपूर पर बहुत दया आयी थी. बिमल मित्र ने अपने नायक शेखर से इस तरह की बात नहीं की थी.

खैर शारदा की बात छोड़ें और "शार्टकट" के गीत की बात पर वापस लौट चलें. गीत सुन कर लगा कि वाह कितना रोमाँटिक गाना है, दूर से चाँद को देख कर एक दूसरे के लिए विरह में जलना. पुराने दिन याद आ गये. यही झँझट है हम प्रौढ़ों का, कुछ भी हो, बस पुरानी बातों को सोच कर भावुक हो जाते हैं.

फ़िर इंटरनेट पर यह गीत देखा तो सब रोमाँस छू मंतर की तरह गायब हो गया, वही स्कर्ट या बिकनी पहने, समुद्र किनारे नाचते इतराते अक्षय खन्ना और अमृता राव. यह बात नहीं कि समुद्र या अमृता सुंदर नहीं, पर इस गाने के बोलों के साथ ठीक नहीं बैठ रहे थे. लगा कि इस फ़िल्म के निर्देशक को इतने सुंदर गाने को इस तरह से बिगाड़ने की सजा दी जानी चाहिये. आप स्वयं इस वीडियो को देखिये और बताईये कि क्या मेरा दुखी होना सही है या नहीं?





शायद यह आशा करना कि आज के ज़माने में चाँद तारों की बातें की जायें, यह बात ही गलत है? दूर से चाँद को देख कर आहे भरने का गीत गाना, साठ सत्तर के दशक तक के वातावरण में तो फिट हो सकता है, आज के ज़माने में चाँद तारों के लिए किसके पास समय है? अगर प्रेमी युगल में से एक व्यक्ति विदेश गया है तो "नौ बजे चाँद देखना" गाने का क्या औचित्य होगा, क्योंकि जब लंदन में नौ बजे होंगे तब भटिंडा या मुंबई में रात को दो बजे होंगे, तो अलग अलग समय में चाँद देखने से निगाहें कैसे मिलेंगी? और आज के ज़माने में जब मोबाईल, फेसबुक, टिव्टर, ईमेल, चेटिंग आदि के होने से किसी से बिछड़ कर सचमुच का विरह महसूस करना नामुमकिन सा हो गया है, चाँद देखने की बात करना बेमतलब सा है. साथ ही, हमारी पुरानी यादों की भी घँटी बज जाती है. इन आधुनिक फ़िल्मवालों को कुछ ध्यान रखना चाहिये कि हम जैसे पके बालों वालों की भावनाओं को ठेस लग सकती है कि हमारी प्रिय रोमाँटिक सिचुएशन को इस तरह से बिगाड़ा जाया.

कुछ इसी तरह लगा था जब "लव आज कल" देखी जिसकी बहुत चर्चा हो रही है कि बहुत रोमाँटिक फ़िल्म है. वीर सिंह और हरलीन वाले भाग में तो मुझे रोमाँस दिखा था पर आधुनिक रिश्ते जिस तरह इस फ़िल्म में दिखाये गये हैं, जय और मीरा के बीच, उनमे रोमाँस कहाँ था, कुछ स्पष्ट समझ नहीं आया. लगा कि जय और मीरा का बस एक आधुनिक रिश्ता था, जिसमें साथ रहने का आनंद, साथ सोने का सुख तो था पर प्रेम नहीं दिखा.

प्रियतमा हमेशा के लिए जा रही है, पर हमें समझ न आये कि हमें उससे प्रेम है या नहीं, उसके बाद दो साल बीत जायें, हम कुछ प्रेम अन्य जगह बाँट कर, अचानक अपने सुविधापूर्ण जीवन और सहेलियों से, जिसमें कोई चुनौती नहीं दिखती, बोर या उदास हो जायें, और फ़िर कहें कि वैसे सचमुच में हम मीरा से ही प्यार करते थे, पर हमें पता नहीं था, कुछ बेतुका सा नहीं लगता? और मीरा, जो साल भर अपने साथ काम करने वाले के साथ रह चुकी हैं, दोनो साथ रहते थे तो सोते भी होंगे, उन्हें अचानक सुहागरात को याद आता है कि भाई हमारा सच्चा प्यार तो जय था? कुछ कन्फूसड लोगों वाली बात नहीं लगती, जिन्हें प्रेम क्या होता है यह सचमुच देखने का मौका ही नहीं मिला?

क्या यह केवल प्रेम की बदलती परिभाषा है, जीवन के व्यस्तता में मन की भावनाओं को न पहचान पाने की दुविधा है या कुछ और? या शायद, प्रेम के लिए, दूरी और विरह की आवश्यकता है, कोई रुकावट या दुख भी चाहिये बीच में जिसके बिना हम अपने प्रेम को पहचान नहीं पाते?

जुलाई की अमरीकी मासिक पत्रिका "द एटलाँटिक" (The Atlantic) में साँद्रा त्सिंग लोह (Sandra Tsing Loh) का लेख छपा था जिसमें उन्होंने अपने तलाक के बारे में लिखा था. उनका कहना है कि आज जब स्त्री पुरुष के सामाजिक रोल और अपेक्षाएँ बदल चुकी हैं, आज लोगों की औसत उम्र लम्बी हो गयी है, सौ वर्ष पहले की सोचें तो दुगनी हो गयी है, तो इस बदले हुए परिपेश में सोचना कि स्त्री और पुरुष वही पुराने तरीकों से साथ रहेंगे, प्रेम करेंगे, विवाह करेंगे, आदि यह ठीक नहीं.

तो क्यों बात करें वही पुराने प्रेम और विवाह की? क्यों बात करें चाँद तारों की? क्या इस नयी दुनिया को "प्रेम" शब्द के बदले में कोई नया शब्द नहीं खोजना चाहिये, जो आधुनिक जीवन की इस नयी भावना की सही परिभाषा दे सके?

गुरुवार, जून 04, 2009

प्रेम के लिए जेहाद

इस बार के बोलिनिया फ़िल्म फेस्टिवल में भारतीय मूल के फ़िल्म निर्देशक परवेज़ शर्मा की फ़िल्म "प्रेम के लिए जेहाद" (Jehad for Love) देखने का मौका मिला. इस फ़िल्म के बारे में पिछले वर्ष के जैंडर बैंडर फ़ैस्टिवल (Gender Bender Film Festival) में सुना था पर तब इसे देख नहीं पाया था. फ़िल्म का विषय है आज के वातावरण में विभिन्न देशों में मुसलमान समुदाय में समलैंगिक होने का अर्थ. फ़िल्म में भारत, मिस्र, दक्षिण अफ्रीका, पाकिस्तान, तुर्की, मोरोक्को जैसे देशों से मुसलमान समलैंगिक स्त्रियों तथा पुरुषों की कहानियाँ दिखायीं गयीं हैं. यह अपनी तरह की पहली फ़िल्म है क्योंकि ईस्लाम समलेंगिकता को बिल्कुल स्वीकृति नहीं देता और शारिया की बात की जाये, तो बहुत से परम्परावादी मुसलमान समलैंगकिता की सजा मौत बताते हैं.

यही वजह है कि फ़िल्म में साक्षात्कार देने वाले बहुत से लोग अपनी कहानियाँ तो सुनाते हैं पर अपना चेहरा नहीं दिखाते, हालाँकि सुना है कि 2007 में इस फ़िल्म के प्रदर्शित होने के बाद स्वयं परवेज़ को और फ़िल्म में अपनी कहानी सुनाने वाले कई लोगों को मृत्यु की धमकियाँ मिल चुकी हैं.

दक्षिण अफ्रीकी कहानी है एक समलैंगिक इमाम मुहसिन हैंडरिक्स की, जिनका विवाह हुआ था, दो बेटियाँ भी थीं पर जब उन्होंने पत्नी से तलाक होने के बाद अपनी समलैंगिकता की बात को छुपाने के बजाय खुलेआम स्वीकार किया तो उनके जीवन में तूफ़ान आ गया और उन्हें इमाम के पद से हटा दिया गया. बहुत कोशिशों के बाद उनके शहर के कुछ मुसलमानों ने स्वीकार किया कि वे उन्हें अपनी मस्जिद में इमाम चाहते थे. उनसे बात करने के लिए, बाहर से एक जाने माने करान शरीफ़ के ज्ञानी को बलाया गया, जिनका फैसला बहुत कठोर था, "अगर तुम अपने को नहीं बदल सकते तो समलैंगिकता की सजा मृत्यु दँड है. इस बात पर बहस कर सकते हें कि किस तरह से यह मृत्यु दँड दिया जाये, लेकिन इस बात में कोई शक नहीं कि इसकी सज़ा मृत्यु दँड ही है."

मुहसिन का अपनी बेटियों से बात करने का दृष्य बहुत अच्छा लगा. मुहसिन पूछते हैं, "अगर मुझे पत्थर मार कर जान से मारने की सजा सुनायी जायेगी तो क्या होगा?" उनकी बड़ी बेटी कहती है कि दक्षिण अफ्रीका में इस तरह की सज़ा कोई नहीं दे सकता. उनकी छोटी बेटी कहती है, "पापा, अगर ऐसा होगा तो में चाहुँगी कि तुम पहले पत्थर से ही मर जाओ और तुम्हें तकलीफ़ न हो."

ईरान के कुछ नवयुवकों की कहानियाँ हैं जो कि तुर्की में छुपे हैं और प्रतीक्षा कर रहे हैं कि संयुक्त राष्ट्र संघ का शरणार्थी कमीशन उनकी अर्ज़ी को मान ले और उन्हें कनाडा में जाने की अनुमति मिल जाये. उनके दिन घर वालों, साथियों, मित्रों और प्रेमियों की यादों में कटते हैं जिनको वह अपने गाँवों में छोड़ कर आये हैं, माँ से टेलिफ़ोन से बात करने वाला एक युवक बिलख कर रोता है, उसे मालूम है कि वापस गाँव जा कर वह अपनी माँ को दोबारा कभी नहीं मिल पायेगा क्योंकि उसके नाम पर पुलिस का वारंट है.

कुछ मिलती जुलती कहानी है मिस्र के लड़के की जो कि फ्राँस में शरणार्थी बन कर रह रहा है. मिस्री जेल में अपने बलात्कार के बारे में बताते हुए उसकी भी आँखों में आँसू आ जाते हैं. सबकी बातों में घर परिवार, मित्रों से बुछुड़ने का दर्द भी है और अपनी समाज व्यवस्था पर रोष भी जो उन्हें मानव नहीं मानती.



भारत की कहानियां उत्तरप्रदेश से हैं. एक व्यक्ति बताता है कि वह मक्का की तीर्थ यात्रा कर चुका है और उसने निश्चय किया है वह स्वयं पर कँट्रोल करने की कोशिश करेगा, वह दोबारा से स्त्री वस्त्र नहीं पहनेगा. एक अन्य नवयुवक, जो कि एक इस्लाम के ज्ञानी से अपनी परेशानी की सलाह चाहता है, कहता है, "क्या करें, जब मुसलमान जात में पैदा हुए हैं तो अपनी जात की बात तो माननी ही पड़ेगी." ज्ञानी जी का विचार है कि समलैंगिता गलत है और किसी भी हालत में उसी सही नहीं माना जा सकता, इसलिए उनकी सलाह है कि नवयुवक को स्वयं पर अपने "गलत आदतों" को रोकने के लिए संयम का प्रयोग करना होगा. जब वह नवयुवक ज़िद करता है कि यह बात उसके बस में नहीं, तो ज्ञानी जी कहते हैं कि समलैंगिकता एक बिमारी है जिसका इलाज उन्हें अस्पताल में कराना चाहिये. रात को सब समलैंगिक मित्र छुप कर एक घर में मिलते हैं जब उनमें से कई लोग स्त्री वस्त्र पहनते हैं और "जब प्यार किया तो डरना क्या" पर नाचते हैं.

मिस्र की दूसरी कहानी दो स्त्रियों की है, माहा और मरियम. माहा ने अपनी समलैंगिकता को स्वीकार कर लिया है, जबकि मिरियम को अपराधबोध खा रहा है कि वह अपने धर्म के विरुद्ध जा रही है. "हमें नहीं मिलना चाहिये, हमें खुद को बदलने की कोशिश करनी चाहिये", मिरियम कहती है. माहा अपनी सखी को समझाने के लिए इस्लाम धर्म के बारे में एक किताब खरीद कर लाती है, "देखो, इसमें लिखा है कि अगर मिथुन क्रिया न हो तो वह समलैंगिकता उतनी गम्भीर बात नहीं, इसका मतलब है कि हमारा पाप उतना बड़ा नहीं."



फ़िल्म में बस एक ही खुश जोड़ा है, तुर्की की दो औरतें, फेर्दा और केयमत, जो मसजिद के बाहर भी आपस में मज़ाक करती हैं और छुप कर एक दूसरे को चूम लेती हैं. उनके रिश्ते को पारिवारिक स्वीकृति भी मिली है.

समलैंगिकता किसी धर्म में आसान नहीं, लेकिन इस्लाम से जुड़ी कठिनाईयां अधिक जटिल लगती हैं. फ़िल्म देखने से पहले मुझे नहीं मालूम था कि मुसलमान और समलैंगिक होने में इतनी कठिनाईयाँ है. इस दृष्टि से यह फ़िल्म महत्वपूर्ण है क्योंकि एक दबे छुपे विषय को, जिसका असर विभिन्न देशों के इतने सारे लोगों पर पड़ता है, को खुले में लाती है और उनसे जुड़े प्रश्न उठाती है. फ़िल्म में जिन लोगों की बात उठायी गयी है उन सब के जीवन की कठिनाईयों में मुसलमान समाज का समलैंगिकता के प्रति दृष्टिकोण और सोच का हिस्सा तो है लेकिन साथ ही साथ, उनका स्वयं के बारे में यह सोचना कि वे लोग धर्म के विरुद्ध गलत काम करते हैं, भी एक बड़ी समस्या है.
यानि औरों की सोच बदलने के साथ साथ, इस फ़िल्म के अनुसार, मुस्लिम समलैंगिक लोगों को अपनी सोच को भी बदलने की समस्या है और जब तक वह लोग अपने इस अपराधबोध से नहीं निकल पायेंगे, किस तरह संतोषजनक जीवन बिता सकते हैं? इस बात से मुझे थोड़ा सा आश्चर्य हुआ कि इतने सारे मुस्लिम समलैगिक युवक और युवतियाँ, "उनका धर्म क्या कहता है" वाली बात को इतनी गँभीरता से लेते हैं.

हिंदू धर्म में समलैंगिकता को किसी प्राचीन धार्मिक पुस्तक में गलत कहा गया हो, मुझे नहीं मालूम हालाँकि हिंदू धर्म के रक्षक होने का दावा करने वाले हिंदुत्व वादी कहते हैं कि समलैंगिकता धर्म के विरुद्ध है. बल्कि शिव के अर्धनारीश्वर होने की बात या फ़िर देवी देवताओं के मनचाहने पर पुरुष या स्त्री रूप धारण करना आदि बातों से लगता है कि हिंदू धर्म में मानव के पुरुष रूप और स्त्री रूप की भिन्नता को स्वीकारने की जगह थी. यह सच है कि आज का हिंदू समाज हिँजड़ा कहे जाने वाले लोगों को जिनमें अंतरलैंगिकता, समलैंगिकता के अंश होते हैं, को समाज से बाहर देखता है, लेकिन मैंने नहीं सुना कि कोई कहे कि वे लोग हिंदू धर्म के विरुद्ध हैं. ईसाई धर्म में बाईबल की कुछ बातों को ले कर यह कहा जाता है कि समलैंगिकता अप्राकृतिक है, प्रकृति के नियमों के विरुद्ध है, गलत है.

मुझे लगता है कि उनके धर्म कुछ भी कहें, परिवार कुछ भी कहें, आज अन्य धर्मों के समलैंगिक लोग अपना जीवन अपनी मर्जी से, स्वतंत्रता से जीने के लिए लड़ते हैं और कई बार अपने धर्म की संकीर्ण तरीके से सोच के विरुद्ध आवाज़ उठाते हैं. लड़कपन में जब अपनी यौनिक पहचान स्पष्ट न बनी हो, उस समय में उनमें अपराधबोध हो सकता है पर समय के साथ वे लोग इस अपराधबोध से निकल जाते हैं और अक्सर धर्म से दूर हो जाते हैं. जबकि फ़िल्म देख कर लगा कि मुस्लिम समलैंगिक लोगों में अपराधबोध से निकलना अधिक कठिन है. मैं सोचता हूँ कि अगर हमारे धर्म में कोई बात मानव अधिकारों के विरुद्ध है तो उसे बदलना चाहिये, जबकि फ़िल्म से लगता है कि इस्लाम में यह नहीं हो सकता क्योंकि कुरान शरीफ़ को बदला नहीं जा सकता.

इस तरह की फ़िल्म बनाने के लिए बहुत साहस चाहिये. परवेज़ को धमकियाँ मिली हैं, उनके विरुद्ध फेसबुक पर पृष्ठ बनाये गये हैं. परवेज़ अपने चिट्ठे पर अपनी लड़ाई के बारे में बताते हैं.

शनिवार, मई 16, 2009

पुरानी फ़िल्में

कहानी क्या थी, विषय क्या था, यह सब कुछ याद नहीं था. याद थीं बस गाने की दो पक्तियाँ, "मेरे मन के दिये, यूँ ही घुट घुट के जल तू मेरे लाडले, ओ मेरे लाडले" और याद थी अँधेरे में दिया लिए तुलसी के पौधे के सामने पूजा करतीं सीधी सादी अभिनेत्री साधना जो उस समय बहुत अच्छी लगी थी. जहाँ तक याद है, वह फ़िल्म मैंने 1966 या 1967 में टेलीविजन पर देखी थी. वह श्वेत श्याम टीवी का ज़माना था जब शाम को कुछ घँटों के लिए दूरदर्शन का प्रसारण आता था. हमारे घर पर टीवी नहीं था इसलिए जब चित्रहार और रविवार की फ़िल्म प्रसारित होती तो पड़ोस में एक घर में उसे देखने जाते थे. फ़िल्म का यह गाना मन को बहुत भाया था, पर दोबारा उसे कभी सुना नहीं था.

पिछले महीने, चालीस साल बाद दिल्ली के पालिका बाज़ार में जब बिमल राय की 1960 की फ़िल्म "परख" की डीवीडी देखी तो तुरंत वही गाना मन में गूँज गया और डीवीडी खरीदी.



कुछ दिन पहले जब यह फ़िल्म देखी तो उतना आनंद नहीं आया, जिसकी बिमल राय की फ़िल्मों से अपेक्षा होती थी. शायद इसकी वजह हो कि मुझे गम्भीर फ़ल्में अधिक पसंद हैं जबकि "परख" हल्की फ़ुल्की फ़िल्म है जिसका विषय है समाज में पैसे का लालच और झूठ मूठ की बनावट. कहानी है गरीब लेकिन ईमानदार गाँव के पोस्टमास्टर की, जिन्हें ज़िम्मेदारी मिलती है कि एक बड़ी रकम को किसी अच्छे काम के लिए उपयोग किया जाये और कैसे उस बड़ी रकम को पाने के लिए सारे गाँव के बड़े लोग, यानि ज़मीनदार, डाक्टर, पुजारी आदि सब लोग तिकड़म लगाते हैं.



कहानी में पोस्टमास्टर की बेटी और गाँव के आदर्शवादी अध्यापक का प्रेम प्रसंग भी है, पर यह फ़िल्म का छोटा सा हिस्सा है. फ़िल्म में बड़े हीरो हीरोईन नहीं, पर उस समय के जाने माने बहुत से अभिनेता अभिनेत्रियाँ हैं जिनमें मोतीलाल, नज़ीर हुसैन, लीला चिटनिस, जयंत, कन्हैयालाल, असित सेन जैसे लोग हैं. पोस्टमास्टर की बेटी के भाग में हैं साधना, जिनकी यह प्रारम्भिक फ़िल्मों में से थी, और गाँव के अध्यापक के भाग में हैं बसंत चौधरी. फ़िल्म की कहानी और संगीत सलिल चौधरी का है.

सीधी साधी ग्लैमरविहीन साधना जिन्होंने इस तरह के भाग फ़िल्मों में कम ही किये, इस फ़िल्म में बहुत अच्छी लगती हैं. और फ़िल्म का संगीत बहुत बढ़िया है. "ओ सजना, बरखा बहार आयी", "गिरा है किसी का झुमका", "बंसी क्यों गाये, मुझे क्यों बनाये" जैसे लता मँगेशकर के गाने अभी भी सुनने को मिल जाते हैं. हाँ जो गीत मुझे सबसे अधिक प्रिय था, "मेरे मन के दिये", वह न जाने क्यों सफ़ल नहीं हुआ था, पर चालिस साल बाद दोबारा सुनना बहुत अच्छा लगा.

अगर आप यह गीत सुनना चाहें तो इसे यहाँ सुन सकते हैं

***

एक मित्र ने पिछले क्रिसमस पर मुझे एक पुरानी रुसी फ़िल्म की डीवीडी भेंट दी, अँद्रेई तारकोव्स्की की फ़िल्म "इवान का बचपन" (Ivanovo Detstvo). यह फ़िल्म 1962 से है. अँद्रेई को रुसी सिनेमा को जानने वाले, बिमल राय जैसा ही बढ़िया सिनेमा बनाने वाला मानते हैं. मित्र बोले, तुम्हें गम्भीर फ़िल्में अच्छी लगती हैं तो यह भी अच्छी लगेगी. मैंने डीवीडी को लिया और संभाल कर रख लिया पर देखने का मन नहीं किया. लगा कि बोर करने वाली फ़िल्म होगी.



"परख" देखी तो जाने क्यों मन में आया कि "इवान का बचपन" को भी देखा जाये. फ़िल्म बहुत अच्छी लगी, इसका प्रिंट भी बहुत बढ़िया है, हर दृश्य साफ़ चमकता हुआ. फ़िल्म रूसी में थी जिसपर अँग्रेज़ी के सबटाईटल थे. फिल्म के कई दृश्य ऐसे लगते हैं कि मानो किसी चित्रकार ने तस्वीरें बनायीं हों. फिल्म की कहानी है द्वितीय महायुद्ध के समय में रूस और जर्मनी की लड़ाई की, जिसमें इवान, एक रूसी बच्चा छिप कर जर्मन हिस्से में जासूसी करने जाता है और रूसी सेना को सारी दुशमन की सारी खबर ला कर देता है. ईवान के पूरे परिवार को उसके सामने जर्मन सिपाहियों ने मार दिया था जिससे वह प्रतिशोध की आग में जल रहा है.

जब यह फ़िल्म बनी, रूस में यह समय स्टालिन की मृत्यु के बाद का था. शायद रूसी सिनेमाकार अधिक स्वतंत्र महसूस करते थे, उनमें नयी चेतना जागी थी जो फ़िल्म में झलकती है. फ़िल्म रूसी साम्यवाद की भावनाओं से भरी है और साथ ही रूसी दृष्टिकोण दिखाती है, यानि रुसी सभी अच्छे और नेकदिल लोग दिखाये गये हैं जो बच्चों को प्यार करते हैं, अच्छे कपड़े पहनते हैं, अच्छा खाना खाता हैं, गाना गाते हैं, साफ़ सुथरे रहते हैं, आदि. दूसरी तरफ़, जर्मन सभी क्रूर और हृदयहीन जानवर जैसे दिखाये गये हैं. पर इस सब के बावजूद फ़िल्म इस तरह से बनायी गयी है कि इसकी रोचकता कम नहीं होती.



तकनीकी दृष्टि से फ़िल्म बहुत सुंदर है. फ़िल्म का पहला दृष्य जिसमें एक बच्चा धूप में घास पर खेल रहा है, एक स्वपन का दृष्य है जो तब समझ में आता है जब बम गिरते हैं और सोया इवान नींद से चौंक कर उठ जाता है, बहुत सुंदर है. दृष्यों का कम्पोज़ीशन, रोशनी और छाया का प्रयोग, इत्यादि बहुत सुंदर हैं. फ़िल्म को दोबारा देखने का मन करता है, यही सब तकनीकी बातें बेहतर समझने के लिए. ईवान का भाग करने वाले बच्चे का अभिनय बहुत बढ़िया है.

बुधवार, अप्रैल 01, 2009

गायक का धर्मयुद्ध

कल रात को बोलोनिया फ़िल्म फैस्टिवल उद्घाटन हुआ जिसमें मानव अधिकारों के विषय पर बनी फ़िल्मों को दिखाया जाता है. इस बार मैं लघु फ़िल्मों के फैस्टिवल की जूरी का अध्यक्ष हूँ, जिसका फ़ायदा यह है कि कहीं पर जा कर कोई भी फ़िल्म देख लो. कल रात को मैंने अमरीकी फ़िल्मकार छाई वरसाहली की फ़िल्म "आई ब्रिंग व्हाट आई लव" (Chai Varsahely, I bring what I love, USA, 2008) यानि "मैं जिससे प्यार करता हूँ, उसे लाया हूँ", जो मुझे बहुत पसंद आयी.

फ़िल्म का विषय है सेनेगल के सुप्रसिद्ध गायक यासनदूर (Youssou N'Dour) का धर्मयुद्ध. सेनेगल में 94 प्रतिशत लोग मुसलमान हैं पर वहाँ का इस्लाम सूफ़ी इस्लाम है जिसमें कट्टरपन नहीं, जिसमें स्त्रियाँ पर्दा नहीं करती. सेनेगल के सूफ़ी इस्लाम के सबसे बड़े संत और धार्मिक नेता हैं शेख बाम्बा जो धर्मनेता होने के साथ साथ उन्नीसवीं शताब्दी में यूरोपीय उपनिवेशी शासन के विरुद्ध भी लड़े थे.

यासनदूर की कहानी शुरु होती है करीब दस साल पहले जब कोई उनसे प्रश्न पूछता है कि वह रमजान के महीने में गाना क्यों नहीं गाते, क्या इसका कारण है कि इस्लाम में संगीत को हराम माना जाता है यानि गाना अच्छा काम नहीं ? यासनदूर इस बात से सहमत नहीं, सोचते हैं कि सेनेगल के जीवन में जिस तरह का इस्लाम विकसित हुआ है उसमें संगीत तो जीवन की धड़क है, बिना संगीत के जीवन भी नहीं होगा. तब उनके मन में विचार आया कि सेनेगल के सूफ़ी इस्लाम के बारे में गीत बनायें. इस एल्बम को बनाने के लिए उन्होंने मिस्री संगीतकारों को चुना और यह एल्बम सन 2001 में तैयार की गयी, इसका नाम था ईजिप्ट यानी मिस्र.


11 सितंबर 2001 में अमरीका में आतंकवादी हमलों को बाद यासनदूर को लगा कि वह समय इस्लाम के बारे में संगीत सुनाने का नहीं था, लोग इसको आतंकवाद का समर्थन समझ सकते थे, इसलिए ईजिप्ट का संगीत को उन्होंने रोक लिया और सन 2004 में रमजान के महीने में निकाला. इस एल्बम का सेनेगल में सख्त विरोध किया गया. कहा गया कि यह इस्लाम विरोधी है और बाज़ार में इसके कैसेट बेचने पर रोक लगा दी गयी.

यासनदूर को बहुत धक्का लगा पर उन्होंने हार नहीं मानी. यासनदूर कहते हैं, "यह सवाल था कि कौन यह निर्धारित करता है कि इस्लाम में क्या जायज है और क्या हराम? हमारा सूफ़ी इस्लाम क्या इस तरह से सोचता है? क्यों अरब देश वाले हमारे इस्लाम को सीमाओं में बंद करना चाहते हैं ?" उन्होंने निश्चय किया कि वह विदेशों में इजिप्ट के धर्मसंगीत को ले कर जायेंगे. मोरोक्को में फेज़ धार्मिक संगीत फैस्टिवल में उन्होंने पहली बार अपने इस संगीत को प्रस्तुत किया जिसे बहुत प्रशंसा मिली.

हर देश में मिली सफलता भी यासनदूर के मन को शाँती न दे सकी, जब अपने ही देश में जितनी बार उन्होंने इस संगीत को सुनाने की कोशिश की इसका तीव्र विरोध हुआ, मारा काटी दंगे हुए. वह इस संगीत को ले कर संत बाम्बा की दरगाह पर बनी मस्जिद में भी ले कर गये, पर वहाँ अफवाह फ़ैल गयी कि वह दरगाह में नगीं लड़कियों को नाच कराना चाहते हैं और बहुत दंगे हुए.

समय ने करवट ली जब फरवरी 2005 में "इजिप्ट" को ग्रेमी पुरस्कार मिला. सेनेगल में भी धूम मची, राष्ट्रपति ने यासनदूर को बुला कर उनका संगीत सुना और आखिरकार यासनदूर का सपना पूरा हुआ, अपने देश में अपना संगीत अपनी मर्जी से गाने का.

"मैं मुक्त हो गया इस युद्ध से, स्वंत्रता क्या होती है यह समझ आया है. हमें अपने विचारों की रक्षा करनी है, यह नहीं मानना कि कोई हमें यह बताये कि हमारे धर्म में क्या सही क्या गलत", यासनदूर कहते हैं.

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