जब एक मानव अधिकार, किसी दूसरे के मानव अधिकार को प्रभावित करे, तो किस मानव अधिकार को महत्व और सरंक्षण मिलना चाहिये? श्री प्रकाश झा की नयी फ़िल्म "आरक्षण" पर हो रही बहसों के बारे में पढ़ कर मैं यही बात सोच रहा था.
इस बहस में है एक ओर फ़िल्म बनाने वालों की कलात्मक अभिव्यक्ति का अधिकार, अपनी बात कहने का अधिकार, और दूसरी ओर है, दलित शोषित मानव वर्ग की चिन्ता कि सवर्णों की कलात्मक अभिव्यक्ति के नाम पर उन्हें फ़िर से नीचा दिखाने और संघर्षों से अर्ज़ित अधिकारों के विरुद्ध बात की जायेगी.
कौन सा अधिकार सर्वोच्च माना जाया उसकी यह बहस नयी नहीं है और अन्य मानव गुट बहुत समय से इसका समाधान खोज रहे हैं.
जैसे कि विकलाँग व्यक्तियों के अधिकारों तथा नारी अधिकारों की बात करने वाले गुटों की बहस.
नारी अधिकारों में गर्भपात का अधिकार भी है, जिसे कुछ देशों में बहुत कठिनायी से जीता गया है. इस अधिकार का अर्थ है कि गर्भ के पहले 18 से 20 सप्ताह में, अगर नारी किसी वजह से उस गर्भ को नहीं चाहती तो वह गर्भपात करवा सकती है. बहुत से देशों में यह अधिकार नहीं है. कैथोलिक धर्म नेताओं ने इस अधिकार का हमेशा विरोध किया है क्योंकि वह मानते हैं कि जीवन उसी क्षण से प्रारम्भ हो जाता है जब नर और नारी के अंश मिल कर गर्भ की शुरुआत करते हैं, इसलिए उनका मानना है कि नारी का गर्भपात का अधिकार, होने वाले बच्चे के जीवन के अधिकार के विरुद्ध है, और जीवन का अधिकार सर्वोच्च है. चाहे होने वाला बच्चा बलात्कार का परिणाम हो या यह मालूम हो कि बच्चा विकलाँग होगा, कैथोलिक धर्म नेता यही कहते हैं कि उसका जीवन अधिकार नहीं छीना जा सकता.
विकलाँग व्यक्तियों के अधिकारों के लिए लड़ने वालों का कहना है कि यह मानना कि विकलाँग होने से किसी व्यक्ति को जीने का अधिकार नहीं, और उसे गर्भपात से मारने की अनुमति देना गलत है, विकलाँग बच्चों को भी पैदा होने का अधिकार है. वह नारियों के गर्भपात के अधिकार के विरुद्ध नहीं लेकिन कहते हैं कि यह गलत है कि केवल इस लिए गर्भपात किया जाये क्योंकि होने वाला बच्चा विकलाँग होगा.
विकलाँग व्यक्तियों के अधिकारों के लिए लड़ने वाले गुट भी टीवी, फ़िल्म आदि में विकलाँग व्यक्तियों के चित्रण के विरुद्ध लड़ते आये हैं. उनका कहना है कि अक्सर सिनेमा में विकलाँग व्यक्तियों को हास्यप्रद व्यक्ति बनाया जाता है जिसमें लोग उनकी विकलाँगता का मज़ाक उड़ाते हैं, उनके बारे में अपमानजनक शब्दों का प्रयोग करते हैं, उनके पुरुष होने या स्त्री होने के मानव अधिकारों को नकारते हैं.
तो प्रकाश झा की "आरक्षण" के बारे में हो रही बहस का क्या समाधान है? मेरे विचार में इसका समाधान बहस ही है, यानि फ़िल्म क्या कहती है, कैसे कहती है, हम उससे सहमत हैं या असहमत, इस पर सभ्यता से बहस करना.
यह कहना कि उसकी कहानी बदल दी जाये या उसके डायलाग बदल दिये जायें, यह नकारना है कि दुनिया में ऐसे व्यक्ति होते हें जो उस तरह का सोचते या बोलते हैं, और फ़िल्मकार की स्वतंत्रता पर रोक लगायी जाये कि कौन से पात्र चुने, कौन सी कहानी कहे.
यह कहना कि फ़िल्में, कहानियाँ, उपन्यास, दलितों के विरुद्ध कुछ भी कहने से पहले इस व्यक्ति या उस कमिशन या इस दल की अनुमति लें का अर्थ हर नागरिक के अधिकारों का हनन है.
चाहे सवर्ण हो या दलित, मराठी हों या गुजराती या बँगाली, नर हो या नारी, अमीर हो या गरीब, हर समाज में कुछ लोग होते हैं जो बात चीत में नहीं बल्कि हिँसा में और तानाशाही में विश्वास रखते हैं. मुम्बई में जब शिवसैना के लोग किसी फ़िल्म को या किताब को या चित्रकला को बैन करने या नष्ट करने के लिए धमकी देते हैं वह लोग उन दलित नेताओं से किस तरह भिन्न हैं जो किसी फ़िल्म को या किताब को बैन करने की माँग करते हैं? किसी भी बात पर, लोगों को अपनी सहमती असहमती को न जताने देना, यह कहना कि बस मेरी बात मानिये, गणतंत्र का हिस्सा नहीं, तानाशाही का हिस्सा है.
जिन राज्यों ने फ़िल्म को प्रदर्शित होने से रोका है, मालूम है कि रोकने से केवल सिनेमा हाल में फ़िल्म रोकी जायेगी. इस रोक से बहुत से लोगों में फ़िल्म देखने की उत्सुकता बढ़ेगी और दूसरे तीसरे दिन ही पायरेटिक डीवीडी बाज़ार में मिल जायेंगी. जो लोग देखना चाहते हैं वह फ़िल्म तो देखेंगे, हाँ निर्माता निर्देशक को अवश्य आर्थिक नुकसान होगा, और डँडाराज की मानसिकता इसी से प्रसन्न होगी, कि कैसा पाठ पढ़ाया, अगली बार कोई हमारे सामने सिर नहीं उठायेगा. सवर्णों ने सदियों से यही किया है, डँडाराज के सहारे दलितों को दबाया है, जब मौका मिलता है तो दलित क्यों न वही हथियार उठायें?
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in sab baaton se film ki publicity aur badhti hai jin rajyon me ben ho gaya hai uske alava doosre rajyon me film nirmata uski recovery kar leten hain.hume to yahan bhi publicity stunt hi najar aata hai.kyunki jis jis film ki yesi baaten saamne aai unhone khoob paisa batora.achcha aalekh.ab aarakshan jaroor dekhenge.thanx for a good post.
जवाब देंहटाएंsunder vivechan sunil ji
जवाब देंहटाएंहाँ, रोक तो नहीं होनी चाहिए क्योंकि स्वतंत्रता का अधिकार उन्हें भी है। यहाँ तो हर बात पर रोक लगाने की बात होती है और जहाँ लगाया जाना चाहिए, वहाँ होती ही नहीं।
जवाब देंहटाएंबांटने के लाखो बहाने है दुनिया में
जवाब देंहटाएंएक होने का कोई रास्ता दिखाता नहीं ||
जिसकी लाठी उसकी भैंस यह तो जंगल राज का पुराना कानून है।
जवाब देंहटाएंलोकतंत्र को सच्चे अर्थ में, सजह भाव से आज भी नहीं लिया जाता।
बहुत अच्छी प्रस्तुति है!
जवाब देंहटाएंरक्षाबन्धन के पावन पर्व पर हार्दिक शुभकामनाएँ!
सामाजिक हित से अब राजनैतिक हथियार बन चुका है आरक्षण।
जवाब देंहटाएंनिश्चित रूप से मित्र! यदि बच्चा गर्भ में विकलांग है तो उसका गर्भपात होना चाहिए। मैं खुद विकलांग हूं इसलिए मैं बहुत बहुत अच्छी तरह से जानता हूं कि विकलांग व्यक्तियों को समाज में क्या क्या परेशानी उठानी पड़ती है।
जवाब देंहटाएंनिश्चित रूप से जैसे ही बच्चा गर्भ में आता है वैसे ही उसका जीवन शुरू हो जाता है। असल में जीवन नहीं शुरू होता है मृत्यु शुरू हो जाती है। हम प्रतिपल मृत्यु की तरफ ही तो बढ़ रहे हैं।
और जो लोग विकलांग व्यक्तियों का मजाक उड़ाते हैं उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि किसी के साथ भी कुछ भी घटित हो सकता है।
राजीव, जीवन का दूसरा नाम है परेशानी. किसी को काले रंग की परेशानी है तो किसी को नारी होने की, किसी को गरीब होने की परेशानी है, तो किसी को दलित होने की. यह कहना कि अगर बच्चा विकलाँग है तो उसका गर्भपात होना चाहिये, क्या यह सही है? मैं नहीं मानता. मेरे विचार में हमारी चेष्ठा होनी चाहिये कि समाज बदले, समाज विकलाँग बच्चों, स्त्री और पुरुषों के मानव अधिकार की रक्षा कर सके.
जवाब देंहटाएंएक ज़माने में दिल्ली की डीटीसी की बस में कुछ सीटों पर लिखा होता था "यह सीट वृद्धों के लिए आरक्षित है. याद रखिये कि अगर आप किस्मतवाले है तो एक दिन आप भी वृद्ध होंगे."
चाहे वृद्ध हों या गर्भवति नारी या विकलाँग व्यक्ति, परेशानी और कठनाईयाँ तो सबको होती है, तो क्या उन्हें जीने का अधिकार नहीं? मेरे विचार में यह तो निर्णय तो गर्भवति स्त्री ही ले सकती है कि वह अपने गर्भ में पलने वाला बच्चा चाहती है या नहीं, कानून नहीं.
मित्र! मैं भारत में रहता हूं। इसलिए मैंने इस देश को ध्यान में रखकर कहा है कि यहां पर यदि बच्चा गर्भ में विकलांग है तो उसका गर्भपात करवा देना ज्यादा उचित है। यहां भारत में तो लोग अपना पेट भर नहीं पाते हैं विकलांग बच्चे का क्या भरेंगे?
जवाब देंहटाएंविकलांग व्यक्ति इतना परेशान हो जाता है इस समाज से। खासतौर से वह विकलांग व्यक्ति जो सुन नहीं पाता जो देख नहीं पाता। इतना परेशान हो जाता है कि उसको आत्महत्या करने की इच्छा होने लगती है। यदि मैंने ओशो को न पढ़ा होता तो अब तक मैं हजारों बार आत्महत्या कर चुका होता।
भारत में आदमी की कोई कीमत नहीं है। तो विकलांगों की क्या होगी?
राजीव, यह तो सच है जिसने स्वयं अनुभव किया है वही इस तरह की बात कह सकता है.
हटाएंयह भी मानता हूँ कि बड़े ज्ञान और उच्चविचारों की बात करने वाले हमारे भारत में मानव की कीमत उसके पैसे, ओहदे और सामर्थ्य से है. यह सब नहीं तो आप की कीमत भी कुछ नहीं.
अब आप समझे मेरी बात को मित्र।
हटाएंमैं चाहता हूं कि आप विकलांगों के बारे में भी कुछ लिखें।
हां मैं आपकी इस बात से सहमत हूं कि स्त्री को यह अधिकार है कि वह बच्चे को जन्म दे या नहीं। लेकिन यदि माता आत्मनिर्भर नहीं है तो फिर वह यहां भारत में बच्चे को पैदा करके भीख ही तो मंगवायेगी।
जवाब देंहटाएंराजीव, क्या आप कहना चाहते हैं कि गरीबों को या भीख माँगने वालों को जीने का अधिकार नहीं होना चाहिये?
हटाएंनहीं, यह मैं नहीं कह रहा हूं। मेरा मतलब है कि भारत में जो विकलांग बच्चा पैदा होगा तो वह कितना असहाय महसूस करेगा, कितना खीझेगा, कितना तड़पेगा, कितनी शर्म उठायेगा। अब मेरी बात समझे आप?
जवाब देंहटाएंसभी को बच्चे पैदा करने का कोई अधिकार नहीं होना चाहिए। यदि भारत में इसी तरह से बच्चे पैदा होंगे तो भारत जो पहले से ही रूग्ण है वह और और रूग्ण हो जायेगा। और मैं तो कहता हूं कि मूर्खों को बच्चे पैदा करने का कोई अधिकार नहीं होना चाहिए।
राजीव, मैं आप से बिल्कुल भी सहमत नहीं.
हटाएंमैं यह मानता हूँ कि विकलाँग बच्चा, कहीं भी, किसी भी देश में पैदा होगा और गरीब परिवार में होगा तो उसे रुकावटों से घिरी घुटी हुई ज़िन्दगी जीने को मिलेगी, क्योंकि अधिकतर देशों में विकलाँगों को पूरी तरह जीने के मौके नहीं मिलते और इसके लिए लड़ाई होनी चाहिये.
पर यह घुटी हुई ज़िन्दगी लोगों को इस लिए भी मिलती है क्योंकि वह लड़की पैदा होती हैं या दलित घर में पैदा होते हैं. बजाय समाज को बदलने के, आप कहते हैं कि उनको जीने का अधिकार ही नहीं होना चाहिये?
पर अगर आप की बात मानने लगें कि जिसे समझ नहीं उसके अधिकार छीन लो, जो विकलाँग है उसके अधिकार छीन लो, जो गरीब है उसके अधिकार छीन लो, तो यह तो हिटलरी सोच हुई.
कौन निर्धारित करेगा कि किसको जीने का अधिकार मिलना चाहिये और किसको मार देना चाहिये?
आप मेरी बात को नहीं समझे मित्र! मैंने यह कहां कहा है कि जीने का अधिकार नहीं होना चाहिए? आप जरा एक बार फिर से टिप्पणी को पढ़ें मित्र। मैंने यह नहीं कहा है कि विकलांग को जीने का अधिकार नहीं होना चाहिए। मैंने यह नहीं कहा। मैं यह नहीं कह सकता। असम्भव है यह बात।
जवाब देंहटाएंमेरी बात को समझने की कोशिश करो मित्र। मेरी कभी भी हिटलरी सोच नहीं रही। असम्भव है यह बात। कम से कम आज तक तो असम्भव ही रही है।
मित्र! मैंने यह कहा है कि बढ़ती हुई जनसंख्या को देखते हुए सभी को बच्चे पैदा करने का कोई अधिकार नहीं होना चाहिए। यदि इसी तरह से बच्चे पैदा होते रहे तो एक दिन परमाणु विस्फोट की कोई जरूरत नहीं रहेगी। सारी मनुष्यता अपने आप नष्ट हो जायेगी।
मैंने यह कहा है कि मूर्खों को बच्चे पैदा करने का कोई अधिकार नहीं होना चाहिए। और मैं अभी भी यही कहता हूं कि यदि मूर्ख लोग बच्चे पैदा करेंगे तो बच्चे बाप के होते हुए भी बिना बाप के ही होंगे।
एक बार फिर से टिप्पणी को पढ़ो मित्र! मैंने यह नहीं कहा है कि जीने का अधिकार ही नहीं होना चाहिए।
राजीव, यह कहना या सोचना कि कुछ लोगों को बच्चे पैदा करने का अधिकार नहीं होना चाहिये, मेरी दृष्टि में इसका अर्थ है खुद को भगवान समझना और ताना शाह बन जाना, लोगों से उनका जीवन का अधिकार छीन लेना. जिनके पिता नहीं होते उन्हें क्या पैदा नहीं होना चाहिये? और मूर्ख कौन है इसका निर्णय कौन लेगा? किस मापदँड से मापोगे कि कौन कितना मूर्ख है?
जवाब देंहटाएंइतिहास में मानव जाति ने जब जब यह कानून बनाये हैं जो यह कहते हैं कि मानव समाज में कौन बच्चा पैदा कर सकता है और किसका जबरदस्ती नसबन्दी कर दो या गर्भ गिरा दो, केवल अन्याय ही किये हैं और आने वाले समय ने उन्हें हिटलर की तरह ही याद किया है.
मित्र, आप मेरी बात को ठीक से पढ़कर के समझने की कोशिश करो। मैंने यह नहीं कहा है कि कुछ लोगों को बच्चे पैदा करने का कोई अधिकार नहीं होना चाहिए। मैंने यह कहा है कि सभी को बच्चे पैदा करने का कोई अधिकार नहीं होना चाहिए। इस बात को समझने की कोशिश करो मित्र।
हटाएंमुझे भगवान शब्द से ही नफरत है। मैं खुद को तानाशाह अब तक कभी भी नहीं माना। मैंने हमेशा से तर्क द्वारा बात को सिद्ध किया है। यदि वह बात आपकी समझ में आये तो ठीक। यदि आपको सही नहीं लगती तो आपकी मर्जी।
मैंने यह कहा है कि व्यक्ति चाहे जितना मूर्ख हो लेकिन वह सेक्स कर सकता है। यह प्रकृति प्रदप्त गुण है। आप जरा ध्यान से सोचों मित्र! यदि पिता मूर्ख है और मां केवल गृहिणी है तो जो बच्चे पैदा होंगे उनकी देखभाल कौन करेगा? भारतीय समाज में खासकर गावों में नारी अभी भी बहुत बहुत असहाय है।
और मित्र! जबरदस्ती का मैंने कभी भी समर्थन नहीं किया है। असम्भव है यह बात। कम से कम आज तक तो असम्भव ही रही है। जब खुद मेरे ऊपर जबरदस्ती की गई है तो मैं खुद कैसे किसी के ऊपर कर सकता हूं।
आप जरा मेरे जीवन में झांक कर देखो मित्र! आपके सभी प्रश्न खुद ब खुद ही गिर जायेंगे।