पिछली सदियों में एशिया, अफ्रीका और दक्षिण अमरीका के बहुत से देशों पर यूरोपीय उपनिवेशवाद की वजह से विदेशी शासन हुए. मुझे इनमें से कई देशों की यात्रा का मौका मिला. मेरे ख्याल से इन सभी उपनिवेशवादी देशों में से शायद अंग्रेज़ ही बेहतर थे क्योंकि उन्होंने उन देशो में शिक्षा, स्वास्थ्य, रेलवे, यातायात इत्यादी शासन की कुछ संस्थाएँ छोड़ीं. इनकी आलोचना की जा सकती है, पर कम से कम आलोचना करने के लिए कुछ है तो सही. बैल्जियन या पोर्तगीज शासनों ने कहीं कुछ नहीं छोड़ा, सिर्फ लूटा. स्पेन ने तो दक्षिण अमरीका में पूरी की पूरी जन जातियों का खातमा कर दिया.
इसका यह अर्थ नहीं कि अंग्रेजी शासन भारत के लिये अच्छा था, केवल यह कि अगर विदेशी शासन होना ही था तो अच्छा हुआ कि वह अंग्रेज़ो का हुआ, स्पेनिश, बैलजियन या पोर्तगीज का नहीं.
एक अन्य पहलू है जिस पर, मेरे विचार से, हमने भारत में पूरा चिंतन नहीं किया है, जो है भारत के विदेशी शासन में भारतीयों का अपना हाथ. थोड़े से अंग्रेज़ बिना भारतीयों के सहयोग के क्या टिक पाते ? जर्मनी के सिपाहियों ने यहूदियों को मारने में नैतिक रुप से गलत नाज़ी सरकार के आदेशों का पालन कर के गलत किया, ऐसा कहा जाता है. पर जर्नल डायर के गलत आदेश को मान कर ज़ालियाँवाला बाग में निहत्ते लोगों पर गोली चलाने वाले भारतीय सिपाहियों का कितना दोष था ? भगत सिहं तथा अन्य क्राँतीकारियों को यातना देने वाले, फाँसी चढाने वाले भारतीय अफसरों का कितना दोष था ? क्यूँ अंग्रेज़ों के बनाये गये राय बहादुर स्वतंत्र भारत में भर्त्सना के पात्र नहीं, अपनी अमीरी की वजह से आदर के पात्र बने जबकि आदर्शवादी स्वतंत्रता के लिये लड़ने वाले गरीब ही रह गये ? क्या हमारी संस्कृति यह नहीं कहती कि शासन करने वाले लोग, उम्र मे बड़े लोग, जाती से बड़े लोग, अमीर लोग, इन सब का आदर करना चाहिये, उनके सब आदेश मानने चाहियें, चाहे नैतिक रुप से वे आदेश सहीं हों या गलत ? इनके खिलाफ लड़ने वाले कितने हैं ? चाहे किताबों में और भाषणों में हम कुछ भी कहें पर व्यवहार में तो हम ऐसा नहीं करते ?
एक और पहलू है उपनिवेशवाद को परखने का, इसे ऐतिहासिक दृष्टि से देखने का. किसी बात का क्या प्रभाव पड़ा, किसने क्या पाया और क्या खोया, यह इतिहास दिखाता है. कुष्ठ रोग के बारे मे कहते हैं कि युद्ध में विजियी सिकंदर की सैनाएँ इस बीमारी को भारत से लौटते समय यूरोप में ले आयीं और अगले एक हज़ार वर्षों में यह रोग यूरोप के हर कोने में फ़ैल गया. मैकेले की बनायी शिक्षा प्रणाली ने एक तरफ भारत में अमीर और गरीब, शहरों में रहने वाले और गाँवों में रहने वालों के बीच अंग्रेज़ी और अंग्रेजियत की दीवारें खड़ी कर दीं पर शायद इसकी वजह से आज भारतीय काल सैंटर यूरोप तथा अमरीका में नीचे नीचे से खाईयाँ खोद रहें हैं. अगली दो-तीन सदियों में ही ठीक से समझ आयेगा इस उपनिवेशवाद का लम्बा असर क्या होगा.
आज की तस्वीर मे लंदन का वाटरलू प्लेस जहाँ भारत पर शासन करने वाले कई अंग्रेज़ अफसरों की मूर्तियाँ हैं