रविवार, सितंबर 18, 2005

लंदन बदला क्या ?

कल शाम को लंदन से वापस आया. पिछली बार लंदन बम फटने से पहले गया था. सोच रहा था कि क्या बमों के फटने से लंदन बदल गया होगा ?

लंदन में रहने वालों से बात की तो यही सवाल पूछा. विभिन्न उत्तर मिले, पर सभी मान रहे थे कि कुछ बातों में उनका शहर बदल गया है. शहर के केंद्रीय हिस्से में रहने वाली सूसन बोली, "हमारे यहाँ रात का जीवन बिल्कुल बदल गया है. पहले रात को भीड़ होती थी, पब बीयर पीने वालों से भरे रहते थे, अब शाम को ७ बजे ही सड़कें खाली हो जाती हैं. पब वालों का बिजनेस बिल्कुल ठप्प हो गया है."

किसी ने कहा कि अब ट्यूब में कम भीड़ होती है, शहर में साईकल और स्कूटर चलाने वाले बढ़ गये हैं, विषेशकर बृहस्पतिवार को क्योंकि दोनो बार बम बृहस्पतिवार को ही फटे थे. एक और सज्जन बोले कि शुरु शुरु में अगर कोई ट्यूब में रकसेक या कंधे वाला बैग ले कर चढ़ता तो सब लोग उसे ध्यान से देखते थे.

पर मुझे तो कोई बदलाव नहीं लगा शहर में. यह सच है कि मैं रात को लंदन के केंद्रीय हिस्से में नहीं गया, पर ट्यूब में मुझे कुछ कम भीड़ नहीं लगी. वही धक्का मुक्की, वैसा ही विभिन्न देशों के पर्यटकों से भरा लंदन जहाँ एक तरफ नये आलीशान भवन बन रहे हैं, ट्यूब स्टेशन पर ही नये शोपिंग माल बने हैं और दूसरी तरफ गंदी, जंग लगी तारें जो ट्यूब की रेल लाइन के साथ साथ चलती हैं, स्टेशन कब बंद हो जायें पता नहीं, और मेट्रो वाले क्षमा माँगते हैं कि काम करने वालों की कमी की वजह से मेट्रों में कुछ देर हो सकती है.

आज की तस्वीरों लंदन के मिलेनियम पुल के पास से हैं

नया मिलेनियम पुल जिसका उद्घाटन सन २००० में हुआ - सौ वर्षों के बाद लंदन में कोई नया पुल बना है
टेट आधुनिक कला गेलरी के बाहर एक "पंक" जोड़ा

गुरुवार, सितंबर 15, 2005

माँसाहारी दुनिया में शाकाहारी

फणीश्वरनाथ रेणू की कहानी "मारे गये गुलफाम" के नायक हीरामन की तीसरी कसम थी कि फिर कभी अपनी बैलगाड़ी में नाचने वाली बाई जी को नहीं बिठायेंगे. ऐसे ही कसम है हमारी, कहीं भी जायेंगे, किसी से नहीं पूछेंगे कि खाने में क्या है, बस जो भी हो चुपचाप खा लो. दुनिया में जाने क्या क्या खाते हैं लोग बंदर, कुत्ता, चूहा, घोड़ा, साँप, केंचुआ. अगर पूछो तो खाना ही न खाया जाये, और मतली हो जाये.

जिन सभ्यताओं में शाकाहारी खाने का कंसेप्ट ही नहीं है, वहाँ जरा यह बता कर देखिये कि साहब हम मीट नही खाते, वे कहेंगे, अच्छा तो चिकन ले लेजिये या मछली खा लीजिये. जब आप मीट, चिकन, हेम, पोर्क, मछली, अंडे इत्यादि की पूरी सफाई दे कर समझाते हैं कि आप कुछ नहीं खाते, तो वे आपको ऐसे देखते हें मानो आप हिमालय के येती हैं या फिर अस्पताल में बंद करने लायक पागल, और दया भरी आवाज में कहते हैं, अच्छा तो यह लीजिये, हमने इसमे से सारा माँस निकाल दिया है, कोई छोटा मोटा टुकड़ा रह गया हो तो आप खाते समय निकाल दीजियेगा.

अरे फिर भी आप इसे खाने से हिचकचा रहे हैं ? समझाईये आप उन्हें, कि माँस के साथ बने, मिले खाने को नहीं खा सकते या माँस न खाने का मतलब है कि आप माँस का सूप भी नहीं पीते!

पर बात मेरी कसम की हो रही थी. मानता हूँ कि यह कसम गाँधी जी के आँख मूंदे हुए बंदर जैसी है, पर जीने के लिए कोई न कोई बहाना तो निकालना ही पड़ता है. दिक्कत तब होती है जब पकवान ऐसे पकाया जाता है कि आप को जंतु को पहचानने में गलती नहीं हो सकती. कुछ पूछने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती. एक ऐसा अनुभव कोंगो में हुआ. वहाँ की राजधानी किनशासा में एक खाने में कानखजूरे बने थे. उन्हें शायद भाप में पकाया गया था, क्योंकि साफ दिख रहा था कि वे कानखजूरे ही थे. एक प्लेट में लाल या भूरे रंग के, दूसरी प्लेट में काले से. जिनके यहाँ खाना था वे बोले, बहुत प्रोटीन है इनमें. उनके बहुत जोर देने पर, बस एक ही खा पाया. मेरी चीन में केवल तीन मधुमक्खियों के खाने पर कुछ बेदर्द सी चुटकियाँ लीं गयीं तो जाहिर है कि सिर्फ एक कानखजूरा खाने पर कुछ और कहा जायेगा. कह लीजिये जनाब, जो मधुमक्खी या कानखजूरे खा सकते हैं वह आप की बात भी सुन लेंगे.

आज लंदन जाना है इसलिए दो दिन के लिए चिट्ठे की छुट्टी. आज की तस्वीरें कोंगो से.


बुधवार, सितंबर 14, 2005

शाहरुख का नया रुख

कल के समाचारों में दो बातों ने सोचने पर मजबूर किया. पहली खबर थी शाहरुख खान के नये विज्ञापन की चर्चा, यानि लक्स साबुन का विज्ञापन जिसमें वह टब में नहाते हुए दिखाये गये हैं.

दूसरी बात थी दिल्ली के क्नाट प्लेस की जहाँ कार चलाती हुई २७ वर्षीय युवती को मोटर साइकल पर जा रहे दो लड़कों ने छेड़ा और मार पिटाई की. उस समय कार में युवती के साथ उसकी माँ, छोटा भाई और मंगेतर भी थे.

सोच रहा था कि कैसे धीरे धीरे स्त्री और पुरुष के रुप और समाज स्वीकारित व्यवहार बदल रहे हैं.

पुरुषों के लिए कोमल होना, संवेदनशील होना, नृत्य, संगीत या संस्कृति की बात करना, लाल या गुलाबी रंग के कपड़े पहनना, आँसू बहाना, जैसी बातें उसमें किसी कमी या फिर उसकी पुरुषता के बारे में शक पैदा कर देती हैं. ऐसे में बिना यह सोचे कि दूसरे क्या सोचेंगे या कहेंगे, जो मन में आये करना केवल विकसित आत्मविश्वास वाले लोग ही कर सकते हैं. पर छोटी छोटी बातों में कुछ परिवर्तन सभी पुरुषों के जीवन में आये हैं. पिता के लिए बच्चे से प्यार जताना पहले पुरुष व्यवहार के योग्य नहीं समझा जाता था, सड़क पर कोई आदमी गोद में बच्चे के साथ दिख जाये तो कुछ अजीब सा लगता था, पर आज इसमें किसी को अजीब नहीं लगता.

दूसरी तरफ औरतें घर से बाहर निकल रहीं हैं, बहुत बार पुरुषों से अधिक कमाती हैं, उनमें आत्म विश्वास है. जो युवक क्नाट प्लेस में कार चलाती युवती के साथ बद्तमीजी कर रहे थे, शायद उसकी वजह केवल गुंडा गर्दी ही हो पर मुझे शक है कि उसके साथ साथ स्त्रियों के बढ़ते आत्मविश्वास के सामने नीचा महसूस करने का गुस्सा भी हो सकता है ?

आज की तस्वीरों में आज के नये स्त्री पुरुष जिन्हें समाज स्वीकृति या अस्वीकृति की चिंता नहीं:


मंगलवार, सितंबर 13, 2005

किटाणु रहित दुनिया

यहाँ टीवी पर प्रतिदिन नये विज्ञापन आते हैं जिनका सार यही होता है कि हमारे आसपास की दुनिया, फर्श पर, सोफे पर, रसोई में, हर जगह खतरनाक किटाणुओं से भरी है और जिनसे बचने के लिए केवल सफाई से काम नहीं चलेगा. अगर आप अच्छी गृहणीं हैं तो अवश्य यह नया पदार्थ खरीदये, जिसे पानी में मिला कर सफाई करने से या जिसे स्प्रे करने से, सारे किटाणु १२ घंटे या २४ घंटे के लिए नष्ट हो जायेंगे. विज्ञापन का असर बढ़ाने के लिए इनमें अक्सर बच्चे भी अवश्य दिखाये जाते हैं. यानि कि खतरनाक किटाणुओं के बारे में सुन कर अगर आपके मन पर कोई असर न हो तो, उस विज्ञापन में एक छोटा सा गोल मटोल बच्चा जोड़ दीजिये जो जमीन पर रेंग रहा हो या फिर उठा कर कोई चीज़ अपने मुँह में डाल रहा हो. अगर आप अच्छे माता पिता हैं तो अवश्य अपने बच्चे की सुरक्षा के लिए किटाणु रहित संसार बनाना चाहेंगे ?

यह सब बिकरी कराने के विषेशज्ञों का कमाल है, जो यह देखते हैं कि कैसे अपनी ब्रेंड बनायी जाये, कैसे अपने प्रोडक्ट को बाजार मे बिकने वाली उस जैसी अन्य सभी वस्तुओं से भिन्न बनाया जाया और कैसे मानव मन में छुपे डरों और विश्वासों का विज्ञापनमों में ऐसे प्रयोग किया जाये कि आप उनकी कम्पनी की वस्तु को ही खरीदें.

अगर आपने जीव विज्ञान पढ़ा है तो जानते ही होंगे कि यह दुनिया, आँखों से न दिखने वाले किटाणुओं से भरी है. ये मानव के लिए कोई हानी नहीं करते. मानव शरीर के अंदर भी ऐसे किटाणु भरे हैं, जो हमारे जीने के लिए जरुरी हैं और जब बिमार होने पर एंटीबायटिक लेने से यह किटाणु मर जाते हैं तो दस्त लगना और अन्य तकलीफें हो जाती हैं. एंटीबायटिक के गलत इस्तमाल की वजह से बहुत से किटाणु पर इन दवाईयों का असर होना बंद हो जाता है इसलिए नयी दवाईयों की खोज हमेशा जारी रहती है. ऐसे में, मेरे विचार में ऐसे विज्ञापन लोंगो को गलत विचार देते हैं और इन पर विश्वास नहीं करना चाहिये.

आज की तस्वीरें किटाणुओं से भरी हुई प्रकृति कीः

सोमवार, सितंबर 12, 2005

चार साल पहले

चार साल पहले, ११ सितंबर २००१ के न्यू योर्क पर हुए हमले की आज बरसी है. जब ऐसी कोई घटना होती है, तो याद रहता है कि जब यह समाचार मिला था, उस दिन, उस समय हम कहाँ थे, क्या कर रहे थे. उस दिन मैं लेबनान जा रहा था, सुबह बोलोनिया से उड़ान ले कर मिलान पहूँचा था और बेरुत की उड़ान का इंतज़ार कर रहा था, जब किसी से सुना. हवाई अड्डे पर ही एक टीवी पर उन न भूलने वाली छवियों को देखा. आस पास हवाई अड्डे पर दुकाने बंद होने लगी और हमारी उड़ान भी रद्द हो गयी. सारा दिन हवाई अड्डे में बिता कर, रात को घर लौटा था.

पर उस दिन चिंता अपनी उड़ान की नहीं, माँ की हो रही थी, जो उसी सुबह वाशिंगटन पहुँच रहीं थीं. उनकी उड़ान को केनेडा में कहीं भेज दिया गया था और दो तीन दिन तक हमें पता नहीं चल पाया था कि वे कहाँ हैं.

कल टीवी पर ११ सितंबर पर बनी वह फिल्म देखी जिसमें विभिन्न देशों के फिल्म निर्देशकों के बनायीं छोटी छोटी कई फिल्मे हैं. उनमें, मीरा नायर की फिल्म जिसमें वह पाकिस्तानी लड़के सलीम की कहानी है, भी है. मुझे वह फिल्म अच्छी लगी जिसमें गाँव की शिक्षका छोटे बच्चौं को यह समाचार समझाने की कोशिश करके, उनसे एक मिनट का मौन रखवाती है. पर मेरे लिए सबसे अच्छी फिल्म उस गूँगी बहरी फ्राँसिसी लड़की की है जो न्यू योर्क के इशारों की भाषा के अनुवादक लड़के के साथ रहती है.

कल के चिट्ठे की टिप्पड़ियों ने सोवने का सामान दिया है. विषेशकर, रमण की भारतीय पारिवारिक सम्बंधों के बारे में टिप्पड़ीं. हमारे दादा, नाना, मामा, चाचा जैसे रिश्ते पश्चिम देशों में कम महत्वपूर्ण होते हैं ? पर रमण और भी नयी दिशाओं में बात को बढ़ा रहे हैं. जैसे रेलगाड़ी के बदले में लोहपथगामिनी जैसे शब्दों का बनाना या फिर ऐसे शब्द ढ़ूँढ़ना जो अंग्रेजी में हैं और हिंदी में नहीं जैसे teenager. पुण्य और धर्म के जो उदाहरण स्वामी जी ने दिये हैं वे शायद हिंदु धर्म विचारों की वजह से हैं और मोक्ष, निर्वाण, आदि अन्य शब्दों की ओर ले जाते हैं.

आज की तस्वीरें कुछ साल पहले की न्यू योर्क यात्रा से - ट्विन टोवर्स की ऊपरी मंजिल से एक दृष्य और टोवर्स के नीचे हाल में एक शादीः

रविवार, सितंबर 11, 2005

आवारापन

मैं सोच रहा था कि "आवारापन" शब्द का अंग्रेज़ी में क्या अनुवाद होगा ? आवारा, आवारापन, आवारागर्दी, आवारगी जैसे शब्द एक विषेश रहने, सोचने, बात करने, जीवन बिताने की बात करते हैं जो हमारी उत्तर भारतीय और शायद पाकिस्तानी सभ्यता से जुड़े हैं जिनके लिए अंग्रेज़ी में समान एक शब्द नहीं हैं. सुना है कि आईसलैंड में विभिन्न तरह की बर्फ के बारे में सात या आठ शब्द हैं क्योंकि उनकी सभ्यता में बर्फ का बहुत महत्व है, जबकि हिंदी में बरफ का महत्व कम है. हालाँकि हिम जैसे शब्द भी हैं पर आम भाषा में हम लोग खाने वाली बर्फ (ice) हो या आसमान से गिरने वाली बर्फ हो (snow), हमारे लिए तो वह बस बर्फ है.

इसी बात से विचार आया ऐसे हिंदी शब्दों को पहचानने का जिनके लिऐ अंग्रेज़ी में समान एक शब्द नहीं है, बल्कि जिन्हें समझाने के लिए अंग्रेज़ी में दो या अधिक शब्दों की आवश्यकता पड़े. भारतीय वस्त्रों से जुड़े शब्द जैसे धोती, साड़ी, पगड़ी, सलवार, पल्ला, आँचल, आदि शब्द कुछ ऐसे ही हैं. त्योहारों से जुड़े शब्द यानि दिवाली, होली, रामनवमी, आदि भी कुछ ऐसे ही हैं. खाने से जुड़े कई शब्द जैसे रोटी, पराँठा, मसाला, कड़ाई, सिल, बट्टा जैसे शब्द भी ऐसे ही हैं.

ऐसे और शब्द कौन से हैं ?

आज की तस्वीरें हैं हेलसिंकी के आधुनिक कला म्यूज़ियम से, जिनमें अफ्रीकी परमपरागत पौशाकें दिखायीं गयीं हैं. आजकल कहीं कोई बड़ी अंतर्राष्ट्रीय सभा होती है, अफ्रीका नेता ऐसी पौशाकें पहनते हैं, कुछ वैसे ही जैसे हम लोग कर्ता, पजामा या अचकन पहन सकते हैं. अपनी परमपरागत पौशाकों से हम यूरोप और अमरीका से अपनी स्वतंत्रता और भिन्नता दिखाते हैं. म्यूज़ियम की यह प्रदर्शनी दिखाती है कैसे हमारी परमपरागत पहचान नकली ढ़ंग से भी बनायी जा सकती है, जैसे यह परमपरागत अफ्रीकी पौशाकें जो ३०० साल पहले डच और अंग्रेज लोग एन्डोनेसिया और भारत से अफ्रीका ले कर गये.


शनिवार, सितंबर 10, 2005

ग्रीशम बोलोनिया में

कल जाह्न ग्रीशम (John Grisham) बोलोनिया विश्वविद्यालय आये और हम भी उन्हे देखने सुनने गये. करीब एक हजार साल पुराना "सांता लूचिया हाल" जो हैरी पोटर फिल्मों का डाइनिंग हाल जैसा लगा है, ठसाठस भरा था, खड़े होने की जगह नहीं थी. ग्रीशम ने अपने नये उपन्यास "द बरोकर" (The Broker) के बारे में बात की, अपने फिल्मकार होने के अनुभव के बारे में बताया, अपने बेसबाल के कोच होने के अनुभव के बारे में कहा, अमरीकी राष्ट्रपति बुश, न्यू ओरलिओन्स के कटरीना तूफान और अमरीका में "फ्रीडम आफ एक्सप्रेशन" की बढ़ती हुई कमी आदि बातों पर अपने विचार प्रकट किये.

जो सवाल मैं उठाना चाहता था, आलोचकों का उन्हें साहित्यकार न मानने का, वह भी उठा. ग्रीशम गुस्से से बोले, "आलोचक जायें भाड़ में, मैं उनकी कुछ परवाह नहीं करता. जनप्रिय लेखन क्या होता है, उन्हें नहीं मालूम. पहले आलोचना करते थे कि मेरी हर किताब का एक जैसा फारमूला होता है, अब उन्हें यह एतराज है कि मैं फारमूला छोड़ कर भिन्न क्यों लिख रहा हूँ." यानि की भीतर भीतर से, आलोचकों के प्रति उनमें गुस्सा है हालाँकि वे परवाह न करने की कहते हैं.

एक अन्य सवाल का उत्तर देते हुए बोले "पिछले पंद्रह सालों में मैं बहुत भाग्यशाली रहा हूँ. २० करोड़ के करीब मेरी किताबें बिकी हैं और मुझे दुनिया का सबसे अधिक बिकने वाला लेखक कहते थे, जब तक हैरी पोटर नहीं आ गया ..."

पर उनकी सब बातों से अधिक तालियाँ तभी बजी जब उन्होंने हमारे शहर बोलोनिया के बारे में कहा. बोले, "पिछले साल जुलाई में पहली बार बोलोनिया आया. शहर को जानता नहीं था, पर इटली मुझे बहुत अच्छा लगता है, पहले भी कई बार आ चुका था अन्य मशहूर शहर देखने. मुझे एक ऐसे छोटे शहर की तलाश थी, जहाँ मेरा जासूस नायक छुप सके. जब मैंने नाज़ी और फासिस्ट शासन के खिलाफ लड़ने वाले शहीद हुए जवानों की फोटो से भरी दीवार देखी, उसने मेरे मन को छू लिया और मुझे इस शहर से प्यार सा हो गया."

आज की तस्वीरों में ग्रीशम और उन्हें सम्मान देते बोलोनिया के मेयस, श्री कोफेरातीः


शुक्रवार, सितंबर 09, 2005

दावत हो तो ऐसी

यह बात मुझे जितेंद्र के अझेल खाने की बात से याद आयी. मैं अक्सर यात्रा पर विभिन्न देशों में जाता हूँ. कई बार ओफिशियल खाना होता है जिसमे साथ में कोई मंत्री जी या मेयर या बड़े अधिकारी होते हैं, जिनके सामने कई बार ऐसी हालत हो जाती है कि न खाते बनता है, न उगलते. ऐसी घटनाओं का सबसे बड़ा फायदा यह है कि फिर जब कहीं गप्प बाजी हो तो मुझे सुनाने के लिए बढ़िया किस्सा मिल जाता है.

जिस दावत के बारे में सुना रहा हूँ वह १९९३ या ९४ की है. मैं विश्व स्वास्थ्य संघ की ओर से चीन मे गया था. देश के दक्षिण पश्चिम के राज्य ग्वीझू में अनशान के झरनों के पास एक छोटे से शहर में थे, जहाँ के मेयर ने हमें शाम की दावत का निमंत्रण दिया. यहाँ एक अल्पसाख्यिँक जनजाति के लोग रहते हैं. दावत के लिए एक छोटा सा नीचा गोल मेज़ था जिसके आसपास हम सब लोग घुटनों पर बैठे. मेरे बाँयीं तरफ मेयर जी थे. खाने का मुख्य भोज था एक मीट वाला सूप जिसे एक बड़े बर्तन में बीच में रखा गया. मेयर जी को मेरी बहुत चिंता थी, हाथ से चबर चबर मीट इत्यादि खा रहे थे, कोई अच्छा टुकड़ा दिखता तो उसे उन्हीं हाथों से उठा कर मेरी प्लेट में रख देते, और मुस्कुरा कर मुझे उसे चखने के लिए कहते और मेरी तरफ देखते रहते जब तक मैं उसे खाता नहीं.

सभी लोग मीट की हड्डियाँ निकाल फैंकने के चैम्पियन थे. मेज़ पर हड्डियाँ एकत्र करने के लिए कोई प्लेट नहीं थी, सभी लोग थोड़ा सा सिर घुमा कर, पीछे की तरफ हड्डियाँ थूक या फैंक रहे थे. पीछे हमारे आसपास कब्रीस्तान सा बन रहा था. जितनी बार मेयर जी पीछे मुड़ कर हड्डी फैंकते, कुछ थूक और हड्डियाँ मेरे जूतों पर गिरतीं.

खुद को बहुत कोसा कि कोई बहाना क्यों नहीं बनाया इस झंझट से बचने के लिए. पर अभी झंझट समाप्त नहीं हुआ था, जब नया पकवान आया. भुनी हूई मधुमक्खियाँ. उन्हो्ने मधुमक्खी को पूरा का पूरा, पँख समेत, ले कर भुना या तला था. देख कर बहुत जी घबराया पर सच कहुँ तो खाने में इतनी अजीब नहीं थीं, मुँह मे रखते ही घुल सी जाती थीं. दो तीन ही खायीं. मेरे साथ चीन स्वास्थ्य मंत्रालय की तरफ से सरकारी अनुवादक थे, उन्होंने ही मेरी जान बचायी, कहा कि हमें देर हो रही है और मेयर जी के चुंगल से निकाल लाये. वह स्वयं भी बेजिंग के रहने वाले थे और शायद जनजातियों के यहाँ खाये जाने वाले ऐसे पकवानों के आदि नहीं थे. आज भी उस दावत के बारे में सोचूँ तो भूख गुम हो जाती है.

आज की तस्वीरें दक्षिण पश्चिम चीन की जनजातियों की हैं.


गुरुवार, सितंबर 08, 2005

लेखक या साहित्यकार

कल अमरीकी लेखक जोह्न ग्रीशम (John Grisham) बोलोनिया विश्वविद्यालय में आने वाले हैं. उनकी नयी किताब, "द बरोकर" (The Broker), की कहानी हमारे शहर बोलोनिया में ही बनायी गयी है. लोग सोच रहे हैं कि शायद ग्रीशम की यह किताब पढ़ कर, हमारे शहर में कुछ अधिक पर्यटक आयेंगे. यहाँ रोम, वेनिस, फ्लोरेंस आदि शहरों के सामने, बेचारी बोलोनिया को कोई नहीं पूछता.

अगर मैं कोई सवाल पूछ सकूँ श्रीमान ग्रीशम से, तो वो यह होगा, "जब आलोचक आप को जनप्रिय लेखक कहते हैं पर आपको साहित्यकार नहीं मानते तो आप इस बारे में क्या सोचते हैं ?" उन्होंने इस तरह के आलोचनाओं के बाद, कुछ गम्भीर तरीके से भी लिखने की कोशिश की है, जैसे "यैलो हाऊस" (Yellow House), पर उनके ऐसे उपन्यासों को न तो सफलता मिली और न ही आलोचनों ने अपनी राय बदली. मैंने स्वयं भी, उनकी कई किताबें खूब मजे से पढ़ीं पर उनका गम्भीर "साहित्य" मुझसे नहीं पढ़ा गया.

इसी बारे में सोच रहा हूँ, क्या फर्क है आम लेखक में और साहित्यकार में ? मेरी दो प्रिय लेखिकाओं, शिवानी और आशापूर्णा देवी, को बहुत साल तक आलोचक आम लेखक, या "रसोई लेखिकाँए" कहते रहे. बचपन में मेरे स्कूल में हिंदी के एक बहुत बिकने वाले लेखक का पुत्र पढ़ता था, उन लेखक का नाम मुझे ठीक से याद नहीं, शायद दत्त भारती जी या ऐसा ही कुछ था. लेकिन अगर घर में कोई उनकी किताब पढ़ते हुए देख लेता तो कहता, "क्या कूड़ा पढ़ रहो हो". बचपन में पढ़ी गुलशन नंदा जैसे लेखकों की किताबें या फिर जासूसी उपन्यास इसी श्रेणीं में गिने जाते थे, कूड़ा. पर उन्हें पढ़ने में बहुत आनंद आता था.

तो सोच रहा था, किस बात से आम लेखन का साहित्य से भेद किया जा सकता है ? भाषा के उपयोग से ? याने साधारण लेखन सरल, आसानी से समझ आने वाली भाषा का प्रयोग करते हैं, पर साहित्यकार की भाषा अधिक कठिन होती है ? यह अंतर मुझे कुछ ठीक नहीं लगता, क्योंकि मेरे विचार में कई साहित्यकार हैं जो आसान भाषा का प्रयोग करते हैं. शायद लिखने की गहराई से साहित्यता को मापने का कोई नाता था ? या कथा के विषय से ? या लेखक किस तरह से कथा का विकास करता है ? या फिर आलोचक के अपने विचारों से ? बहुत सोच कर भी कोई सरल नियम जिससे यह आसानी से कहा जाये कि यह साहित्य है और यह साधारण लेखन है, मुझे समझ में नहीं आया. शायद मरने के बाद आम लेखक का साहित्यकार बनना अधिक आसान है.


आज हमारे शहर बोलोनिया की दो तस्वीरे

बुधवार, सितंबर 07, 2005

उन्हें क्या मिला ?

कल सुबह का चिट्ठा कुछ भावावेश में लिखा था. शाम को दुबारा पढ़ा तो लगा कि अपनी बात को ठीक से नहीं व्यक्त्त कर पाया. अनूप, जितेंद्र और नितिन के चिट्ठों की बात की पर उनके लिंक भी नहीं दिये. असल में सब कुछ अनूप के मेरे पन्ने में लिखे बाजपेयी सर के बारे में पढ़ कर शुरु हुआ. अनूप ने बहुत अच्छा लिखा है, और दिल से लिखा है. पढ़ कर सोच रहा था कि मेरा किसी शिक्षक से ऐसा संबध नहीं बना, पर अगर यह सोचूँ कि किससे मुझे क्या मिला, तो कई नाम और चेहरे याद आ जाते हैं.

मिडिल स्कूल के हिंदी के गुरु जी, प्रीमेडिकल के दौरान भौतिकी के गुरु और मेडिकल कालिज से निकलने के बाद, कर्मभूमि मे काम कर रहे गुरु जिनके साथ काम करने का मौका मिला. फिर सोचा उनके बारे में जो बिल्कुल अच्छे नहीं लगते थे, लगता था कि उन्हें किस्मत ने हमें तंग करने के लिए ही हमारे जीवन में भेजा हो. पर उनसे भी कुछ सीखने का मौका मिला और ऐसे ही एक नापसंद से गुरु की वजह से ही मेरा जीवन बदल गया. यह सब सोचा शाम को, बाग में कुत्ते के साथ सैर करते हुए.

पर फिर सोचा कि बजाय यह सोचने के मुझे क्या मिला, उन्हें क्या मिला अच्छे गुरु बन कर ? अपने एक गुरु जी के लाचारी के अंतिम दिनों की बात याद आ गयी. सारा जीवन इमानदारी और आदर्शों का जीता जागता उदाहरण थे और उनकी बहुत सी बातें मेरा हिस्सा बन गयीं हैं. यही क्षोभ और ग्लानी थे मेरे कल के चिट्ठे में, सबसे पहले स्वयं से फिर उस समाज से, जहाँ ऐसे लोग गरीबी और लाचारी मे मरते हैं. गुस्सा था उनके बच्चों पर जो पढ़ लिख कर, अच्छे पदों पर हो कर भी, उन्हें इस लाचारी में अकेला छोड़ गये थे.

अतुल ने लिखा है, "मेरे गुरुजी भी आम आदमी थे.उनके सामने तमाम मानवीय चुनौतियां थीं. वे ट्यूशन भी पढाते थे उन लड़कों को जो उनसे पढ़ने आते थे.उनकी पारिवारिक समस्यायें भी थीं .जिन्दगी बिता दी किराये के मकान में जब मकान बन पाया तो रहने के लिये वो नहीं थे.बडी़ लडकी विधवा हो गयी ४०-४५ की उमर में .यह् सदमा भी रहा.अपने छोटे बेटे के भविष्य को लेकर काफी चितित रहे.इन सारी आपा-धापी के बीच वे सदैव अपने मानस पुत्रों के उन्नयन के लिये निस्वार्थ् लगे रहे." यह समझता हूँ कि कठिनाईयाँ तो किसी भी जीवन में हो सकती हैं, चाहे आप शिक्षक हों या कुछ और. उन्हीं को याद करेंगे लोग जिसने सब कठिनाईयों के होते हुए अपने जीवक को औरों के जीवन सँवारने में लगाया हो.


आज की तस्वीरें हैं दक्षिण अमरिकी देश, गुयाना से, जहाँ ६० प्रतिशत लोग भारतीय मूल के हैं.


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