शुक्रवार, नवंबर 04, 2005

गर्म चाय और ताजा अखबार

सुबह सुबह गर्म चाय का प्याला और सुबह का ताजा अखबार, अभी भी सोच कर मजा आ जाता है. बिस्तर में लेट या बैठ कर, प्याले को सम्भालने की कोशिश करते हुए अखबार पढ़ना तो अब केवल भारत यात्रा में ही होता है. शुरु से रोज अखबार पढ़ने की आदत थी. पर अब सब कुछ बदल गया है. बहुत सालों से अखबार कम ही पढ़ता हूँ.

इतना कुछ हो पढ़ने के लिए कि आप जितनी भी कोशिश कीजिये, उसे कभी नहीं पढ़ पायेंगे, इस बात ने शायद मेरी पढ़ने की इच्छा को दबा दिया है ? सबसे पहला धक्का मुझे इटली की अखबारों से लगा. रोज़ ५० या ६० पन्नों की अखबार को शुरु से आखिर तक पढ़ने के लिए कम से कम दो घंटे चाहिये. कई बार कोशिश की पर पूरी अखबार तो बहुत कम बार पढ़ पाया और अखबारें पढ़े जाने के इंतजार में मेरी मेज पर ढ़ेर सी इक्ट्ठी होती जातीं. अंत में निराश हो कर अखबार खरीदना ही बंद कर दिया. अब तो बस इंटरनेट पर मुख्य समाचार पढ़ता हूँ और अखबार तभी खरीदी जाती है जब कोई विषेश बात हो, वो भी केवल रविवार को.

दूसरा धक्का लगा इस बात से कि यहां अखबार आप के घर पर ला कर छोड़ने वाला कोई नहीं है. जब नहा धो कर काम के लिए निकलये तो रास्ते में अखबार भी खरीद लीजिये, पर उसे पढ़ें कब ? रात को सोने से पहले ? या फिर ऐसा काम ढ़ूंढ़िये जिसमे अखबार पढ़ने का समय हो! क्या कोई बेरोजगार घर पर अखबार देने के काम को नहीं अपना सकता? हालांकि यहां चाय नहीं छोटे से प्याले में काफी पीने का रिवाज है जो एक घूँट में ही खत्म हो जाती है, इसलिए बिस्तर में अखबार और चाय वाला मजा तो नहीं होगा, पर फिर भी कोशिश करने में क्या बुरा है!

तीसरी बात कि यहां पत्रकारों को भी सब त्योहारों पर छुट्टियां चाहिये इसलिए सोमवार को यहां अखबार नहीं निकलता. और अगर दो तीन छुट्टियां साथ आ जायें तो अखबार आप को उनमें से केवल पहले दिन ही मिलेगा. यानि जब आप के पास पढ़ने का समय है तो अखबार ही नहीं. पिछले कुछ महीनों से जैसे लंदन में मेट्रो स्टेश्नों पर सुबह मुफ्त छोटा सा अखबार मिलता है, वैसे ही अखबार यहां भी आने लगे हैं. थोड़े से पन्ने होते हैं, कुछ स्थानीय खबरें और बहुत से विज्ञापन. कभी कभी चौराहे पर उसे बाँट रहे होते हैं तो मैं भी ले लेता हूँ. अगर न भी पढ़ा जाये तो दुख कम होता है, क्योंकि मुफ्त में जो मिलता है.

पूरी अखबार पढ़ने के लिए रिटायर होने की प्रतीक्षा है, और गर्म चाय के साथ बिस्तर में बैठ कर अखबार पढ़ना तो केवल भारत यात्रा के दौरान ही होगा.

गुरुवार, नवंबर 03, 2005

कबूतरों की उड़ान

रस्किन बोंड के उपन्यास "कबूतरों की उड़ान" (Flight of pigeons) पर शशि कपूर ने फिल्म बनायी थी "जनून". फिल्म में स्वयं शशि कपूर बने थे लखनऊ के खानदानी रईस जिसे कबूतरबाजी का शौक था. कबूतर पालने वाले गुरु रखना, दबड़े में कबूतर पालना, और शाम को छत पर अन्य रईसों के साथ कबूतर उड़ाने की हौड़ लगाना, बस यही शौक थे उनके. फिल्म का वह दृष्य जिसमें अंग्रेजों से हारा, गुस्से से भरा रईस का भाई (नसीरुद्दीन शाह), अपनी तलबार से कबूतरों के दबड़े तहस नहस कर देता है, बहुत अच्छा लगा था.

एक अन्य फिल्म थी खानदानी रईसों की, "साहिब बीबी और गुलाम". बिमल मित्र के उपन्यास पर बनी इस फिल्म में उन्नीसवीं शताब्दी के कलकत्ता के जीवन का वर्णन है. इस फिल्म के रईस भी अपनी कबूतरबाजी को बहुत गम्भीरता से लेते हैं. कबूतर उड़ाने की प्रतियोगिता में हारना या जीतना, उनके खानदान की इज्जत की बात है.

मेरे बचपन में, कुछ साल हम लोग पुरानी दिल्ली में ईदगाह के पास कब्रीस्तान के सामने बनी एक पुरानी हवेली में रहे. वहां एक छत से दूसरी छत पर जाना बहुत आसान था, और हम बच्चे मुहल्ले के विभिन्न घरों की छतों पर निडर घूमते थे. वहीं एक पड़ोसी घर की छत पर एक कबूतर खाना बना था जहाँ कबूतरबाजी की शौकीन रहते थे. सफेद, काले और चितकबरे, उनके कबूतर मुझे बहुत अच्छे लगते. पर उनकी छत पर नहीं जा सकते थे, उसे केवल दूर से देखते. कभी कभी, शाम को, वह हाथ में लम्बी डँडी लिए, च च च करके विषेश आवाज निकालते और सारे कबूतर हवा में उड़ जाते. नीचे से साहब डँडी को गोल घुमा कर आवाजें निकालते और आसमान में कबूतर, सिखाये हुए सिपाहियों की तरह, गोल चक्कर लगाते. कभी कभी कोई कबुतर थक कर हमारी छत पर आ कर बैठ जाता.

क्या आज कहीं कोई कबूतरबाजी करता होगा ? मुझे लगता है कि टेलीविजन, फिल्म और तेज रफ्तार से जाने वाली आज की जिन्दगी में किसी का पास इतना समय कहाँ कि कबूतर पाले और उन्हें उड़ाये. वह समय ही कुछ और था. आज किसी को कबूतर बाज कहना शायद गाली समझी जायेगी, रईसियत की निशानी नहीं.

आज की तस्वीरों का विषय है कबूतरः



बुधवार, नवंबर 02, 2005

भीड़ में अकेले

प्रत्यक्षा जी की कविता और उससे जुड़ी हुई टिप्पड़ियों को पढ़ा तो अन्य लोगों के साथ रह कर भी कैसे अकेले रह जाते हैं, इसके बारे में सोच रहा था.

भीड़ में हमेशा अकेलापन लगे, यह बात नहीं. कभी कभी आस पास बैठे लोगों में किसी को न पहचानते हुए भी, महसूस होता है मानों हममें से हर एक किसी सागर की लहर है, जो एक दूसरे से अदृष्य धागे से बंधी हो, और साथ साथ उठ गिर रही हो. किसी अच्छे संगीत या नृत्य के कार्यक्रम में ऐसा लगा मुझे. ऐसे में कई बार जब कोई विषेश कला का प्रदर्शन हो तो स्वयं ही आँखे साथ में बैठे हुए लोगों से मिल कर, मुस्कान के साथ एक अपनापन बना देती हैं.

दूसरी ओर अपने जीवन साथी के साथ एक घर में, एक कमरे में रह कर, साथ खा, पी और सो कर भी दो लोग अकेले हो सकते हैं. इस अकेलेपन को फारमूला बातों से भर देते हैं वह, खुद को और औरों को यह दिखाने के लिए कि वे दोनो अकेले नहीं, साथ साथ हैं. आज खाने में क्या बनेगा ? मुन्नु पढ़ता नहीं है. बिजली का बिल भरना है. ऐसी बातें सूनापन भरने का धोखा दे सकतीं हैं. पर दोनों अपने मन में सचमुच क्या क्या सोच रहें हैं, न एक दूसरे से कह पाते हैं न सुन पाते हैं.

प्रेम के धरातल पर भी साथ जीवन शुरु करने वालों के बीच भी समय बीतने के साथ कभी कभी ऐसा हो सकता है. क्यों होता है, इसका कोई उत्तर नहीं है मेरे पास. आन्ना, मेरी पत्नी की सहेली, ने सात साल वित्तोरियो के साथ रह कर उससे विवाह किया, पर शादी के दो साल बाद दोनों ने अलग होने का फैसला किया. जब भी पत्नी कहती कि आन्ना के घर खाने पर जाना है या कि वह लोग हमारे यहाँ आ रहे हैं, तो जी करता कहीं और भाग जाऊँ. सारा समय दोनों एक दूसरे की इतनी कटुता से आलोचना करते थे, हर छोटी छोती बात पर, तुम ऐसी हो, तुमने वैसे किया, एक दूसरे को बातों की तलवारों की नोचते काटते थे, कि सोचता यह दोनों साथ किस लिए रहते हैं ? उन्हें देख कर लगता कि दोनो साथ रह कर अकेले तो थे ही, उस अकेलेपन को झगड़े से भरने की कोशिश कर रहे थे.

इसका यह अर्थ नहीं है कि जोड़ी के बीच आम जीवन की रोटी, खाने, बिजली, बच्चों आदि की बातें नहीं होनी चाहिये, वे तो होंगी ही, पर उनके अलावा भी कुछ हो तभी लगता है कि हम अकेले नहीं.

आज की तस्वीरें एक्वाडोर यात्रा सेः


मंगलवार, नवंबर 01, 2005

बात निकली है तो

"आप के काम में सबसे कठिन बात आप को कौन सी लगती है?" होसे ने मारगा कारेरास से पूछा.

"लोगों की बाते सुनना. कितना बोलते हैं लोग, बस बोलते ही जाते हैं. बहुत से लोग तो काम के बाद, अतिरिक्त पैसे दे कर और भी बातें करना चाहते हैं. कितने दुख हैं दुनिया में और हमारे पास आने वालों में कई लोगों के जीवन नर्क समान होते हैं. अपने जीवन में अपनी ही परेशानियां क्या कम हैं, जो औरों की परेशानियां भी सुनें!" मारगा ने उत्तर दिया.

स्पेन की सप्ताहिक पत्रिका "एल पाइस" (देश) में यह साक्षात्कार छपा है. मारगा स्वयं को स्त्री, मां और यौन कर्मचारी कहती हैं और राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सड़कों पर अपने जैसे यौन कर्मचारियों के अधिकारों की सुरक्षा में सक्रिय हैं.

शायद हम ब्लोगियों को भी यही तकलीफ है, अपनी बात न कह पाने की. चिट्ठों के नाम देखिये तो यह बात तुरंत स्पष्ट हो जाती है - जो न कह सके, अनकही बातें, मुझे कुछ कहना है, अपनी बात, अपनी ढ़पली, अर्ज किया है, मेरी आवाज सुनो, कुछ बातें मेरे जीवन की, हृदयगाथा, खाली पीली, अहा! जिंदगी की बातें, कही अनकही, मेरी डायरी, संवदिया, रोजनामचा, मुझे कुछ कहना है, बस यूँ ही, मेरा पन्ना, इधर उधर की .... हर तरफ, हम ही खड़े हैं, छोटी बड़ी बातें सुनाने, बस कोई सुनने वाला चाहिये.

बात निकली है तो कुछ दूर तलक जायेगी..., जगजीत सिंह का यह गीत मुझे बहुत प्रिय था. और जब जीवन में दूर निकल आओ, तो बात किससे निकालो ?

दिल ढ़ूंढ़ता है फिर वही ..

सोमवार, अक्तूबर 31, 2005

अनोखा शब्दकोष

कुछ सप्ताह पहले मैंने हिंदी के ऐसे शब्दों के बारे में लिखा था जिनका अंग्रेजी में अनुवाद करना सरल नहीं है. इसी विषय पर एक नयी पुस्तक लिखी है आदम जोआको दे बोआनो (Adam Jacot de Boinod) ने, The meaning of Tingo (टिंगो का अर्थ), जिसमें दुनिया कि विभिन्न भाषाओं से ऐसे शब्द ढ़ूढ़े हैं जिनका अनुवाद एक शब्द में नहीं हो सकता. इस पुस्तक से कुछ नमूने पस्तुत हैं:

पानापोओ (हवाई भाषा) का अर्थ है किसी भूली हुई बात को याद करते हुए सिर खुजलाना
माताएगो (पास्क्वा द्वीप) का अर्थ है लाल सूजी आँखें जिनसे साफ पता चले कि थोड़ी देर पहले रोये हैं
करेलू (तुलू जाति) यानि शरीर के किसी भाग पर तंग कपड़े द्वारा छोड़ा गया निशान
बक्कूशान (जापानी) यानि ऐसी युवती जो पीछे से सुंदर लगे पर सामने से सुंदर न हो
इक्तसुआरपोक (साईबेरियन), किसी आनेवाला का इंतजार करते समय बार बार टैंट से बाहर जा कर देखना
टोर्शलुस्सपानिक (जर्मन), बूढ़े होने के साथ सम्भावनाँऐ और मौके कम मिलने का डर
फाआमिति (समोआ द्वीप) बच्चे या कुत्ते का ध्यान खींचने के लिऐ हौंठ सिकोड़ कर आवाज करना


आज की तस्वीरे हें, १. मध्यपूर्व इटली के समुद्र के किनारे बसे शहर मोंतेसिलवानो २. दक्षिण अफ्रीका के दक्षिणी कोने पर समुद्र तट पर बसे शहर केप टाऊन से.


रविवार, अक्तूबर 30, 2005

रयू सिसमोंदि

जेनेवा में फ्राँसिसी भाषा बोलते हैं. कुछ वर्ष पहले, मुझे कई महीने जेनेवा में रहना पड़ा. होटल में इतने दिन ठहरना तो बहुत मँहगा पड़ता, इसलिए किराये पर घर ढ़ूँढ़ा. बेटा स्कूल में था, इसलिए वह और पत्नी इटली में ही रह रहे थे और मैं सप्ताह के अंत में दो दिनों के लिए हर हफ्ते वापस इटली में अपने परिवार के पास आता था. रहने के लिए कमरा मिला रयू सिसमोंदि में, यानि कि सिसमोंदि मार्ग पर. जेनेवा के रेलवे स्टेश्न के करीब का यह इलाका सेक्स संबंधी दुकानों, छोटे छोटे होटलों और रेस्टोरेंट से भरा है.

मेरी मकान मालकिन, जिजि, अमरीकी थी और मोरोक्को के एक युवक के साथ, मकान के सबसे ऊपर वाले हिस्से में सातवीं मज़िल पर रहती थी, जहाँ केवल लिफ्ट से जा सकते थे. ऊपर पहुँचने पर लिफ्ट के दाहिने ओर जिजि का घर था और बायीं ओर तीन कमरों में तीन किरायेदार पुरुष, जिनके लिए एक रसोई और गुसलखाना भी था.

मेरे साथ वाले कमरे में कौन रहता था, उन पाँच महीनों में उसे कभी नहीं देखा. हाँ हर सुबह उसे सुना अवश्य. क्या काम करता था, यह तो मालूम नहीं, पर रोज सुबह पौने पाँच बजे उसका अलार्म बजना शुरु हो जाता, और करीब पंद्रह मिनट तक बजता रहता. मैं तो तुरंत जाग जाता. सामने वाले कमरे में रहने वाला पुरुष भी उठ कर, बाथरुम वगैरा हो कर, अपने लिए चाय बनाता. जब अलार्म रुकता तो मैं फिर सो जाता.

एक ही घर में साथ साथ रहने पर भी हर किसी को अपनी प्राइवेसी बचानी है, इसलिए वहाँ कोई किसी से बात नहीं करता था. किसी की ओर देखता भी नहीं था. ऐसे कुछ सामाजिक नियम, मैंने बिना किसी के कहे ही आत्मसात कर लिये थे. सामने रहने वाले पुरुष से कभी कभी रसोई में मुलाकात होती. जब बाहर खाना खा कर तंग आ जाता तो कुछ आसान सा पकाने की कोशिश करता. "बों ज़ूर" या "बों स्वार", यानि शुभ दिन और शुभ संध्या, के अतिरिक्त आपस में हमने कुछ नहीं कहा.

इसलिऐ जेनेवा के रहने वाले दिन मेरे दिमाग में "बिना बातचीत वाले दिन" की तरह याद हैं. तब बात होती केवल दिन में विश्व स्वास्थ्य संघ के दफ्तर में. घर आ कर, अपने कमरे में बंद रहता और गलती से कोई और मिलता तो न उसकी तरफ अधिक देखता, न कुछ बात करने की कोशिश करता. इसके बावजूद कुछ पड़ोसियों से कुछ जान पहचान बनी.

निचली मंजिल वाली महिला वेश्या थीं. वहीं रयू सिसमोंदि में घर के दरवाजे के सामने ही सजधज कर ग्राहकों का इंतज़ार करतीं. शाम को काम से घर आता तो उनके काम का समय शुरु हो रहा होता. लाइन में हर घर के सामने, हर कोने पर, दो या तीन के झुंड में खड़ी वेश्याएँ जोर जोर से बातें करती और हँसते हुऐ सड़क पर से गुजरते पुरुषों को बुलाती. जब करीब से गुजरता तो सबको "बों स्वार मादाम" कह कर नमस्ते करता.

एक दिन काम से लौट कर, मैं सुपरमार्किट में सामान लेने के लिए रुका, बाहर निकला तो दो महिलाएँ वहीं बाहर खड़ी थीं. उनमें से एक ने मेरे सामने टाँग उठा कर मुझे रोक लिया. लाल रंग का गाऊन पहने थी जो एक तरफ से ऊपर तक खुला था. मैं घबरा गया और हकबका कर बोला, "ये स्वी मारिए", यानि कि "मैं शादीशुदा हूँ". वह ठहाका मार कर हँस पड़ी, बोली, "कोई बात नहीं, मुझे कोई एतराज़ नहीं." पर फ़िर टाँग हटा ली और मुझे जाने दिया. बस वह एक ही बार हुआ कि उनमें से किसी ने मेरे साथ छेड़खानी की.

उन महिलाओं में कई स्त्रियाँ अधेड़ उम्र की भी थीं और एक तो बहुत वृद्ध थी, शायद सत्तर साल की. सजधज कर, तंग, छोटे कपड़ों में उन्हें देख कर मुझे बहुत अजीब लगता. एक बार मैं सुबह सुबह घर से निकला, तो बर्फ गिर रही थी और बहुत सर्दी थी, तो उन्हें देखा. वे बर्फ से बचने के लिए एक घर के छज्जे के नीचे खड़ी थीं, सर्दी से ठिठुरती हुई. बहुत बुरा लगा, बहुत दया भी आयी.

***

आज की तस्वीरें भी जेनेवा सेः


शनिवार, अक्तूबर 29, 2005

यह हमारे परिवार

रात को ११ बजे जब मोंतेसिलवानो से घर वापस लौटा तो कई हफ्तों के बाद चैन से सोया. पिछले तीन सप्ताह भागमभाग में निकल गये, ठीक से साँस लेने का भी समय नहीं था. रोम, दिल्ली, पादोवा, जेनेवा, मोंतेसिलवानो, तीन हफ्तों में तीन देशों में पाँच शहर घूमा हूँ. ऐसे घूमने में सबसे बुरी बात है कि किसी भी यात्रा को ठीक से जी सकने का मौका नहीं मिलता. सब यात्राँए काम से संबंधित थीं पर दिल्ली यात्रा के दौरान, एक परिवारिक काम भी था, बेटे की शादी पक्की करना.

जीवन एक चक्र है. लगता है जैसे कल ही तो बेटा पैदा हुआ था. थोड़े दिनों में वह अपना नया परिवार बनायेगा और हमारा परिवार बड़ा बन जायेगा.

शायद इसी लिए जेनेवा में झील के किनारे लगी संयुक्त राष्ट्र संघ की फोटो प्रदर्शनी मुझे बहुत अच्छी लगी. फ्राँस में रहने वाली फोटोग्रागर, उवे ओम्मर, ने यह तस्वीरें कई वर्षों तक विभिन्न देशों में घूम कर खींची हैं. फोटो में विभिन्न देशों के परिवार हैं. भारत के दो प्रतिनिधि परिवार हैं, एक राजस्थान में उदयपुर के पास का गाँव का परिवार जो फ़ूलवती की कहानी बताता है, फ़ूलवती विधवा हैं और अपने भाई के परिवार के साथ रहती हैं. दूसरा दिल्ली का एक सिख परिवार है, जिसमें लड़का सचिन तेंदुलकर का नाम लिखा बैट ले कर खड़ा है. एक के बाद एक, अफ्रीका, यूरोप, एशिया, अमरीका के परिवारों की तस्वीरें देख कर लगता है, उनकी भिन्न वेषभूषाँए और चेहरों के बावजूद उनमें एक समानता है.

आज दो तस्वीरें इसी प्रदर्शनी से.


रविवार, अक्तूबर 23, 2005

रामायण के पात्र

रामायण में कई पात्र हैं जिनके नामों के बारे में अगर सोच कर देखें तो कुछ अजीब सा लगता है. जैसे मुनि विश्वामित्र जी, जो बहुत गुस्से वाले हैं और छोटी छोटी बात पर श्राप दे देते हैं, पर नाम पाया है विश्वामित्र. एक अन्य नाम जो मुझे समझ नहीं आता वह है रावण की पत्नी मंदोदरी का, मेंदोदरी यानि मंद उदर वाली ? क्या बेचारी को हाजमे की तकलीफ थी या फिर बच्चे पैदा करने में कोई कठिनाई थी ? कैसे माँ बाप थे उसके, जिन्होंने अपनी बेटी को यह नाम दिया ?

पर रामायण का वह पात्र जिस पर मुझे सबसे अधिक दया आती है, वह है बेचारा कुम्भकरण. कुम्भ जैसे कानो वाला, अपने बच्चों के नाम रखता है कुम्भ और निकुम्भ, छः महीने सोता है और शायद जोर से खुर्राटे भी लेता है. उसे जगाना आसान नहीं. लगता है उसका काम ही विदूषक और खलनायक का मिला जुला रुप निभाना है. उसका व्यक्तित्व रामायण में अजीब सा है और उसके व्यावहार में तुक नहीं है. लंका काँड में जब उसके बेटे युद्ध में मर रहे हैं, वह सो रहा है. जब रावण के सभी संबंधी और प्रमुख योद्धा युद्ध में मर जाते हैं, तब जाता है रावण आपने भाई कुम्भू को जगाने. उठ कर, भाई की बात सुन कर कुम्भकरण जी बिलख कर रो पड़ते हैं और कहते हैं तुम सीता मैया को क्यों चुरा लायेः

सुनी दसकन्धर वचन तब, कुम्भकरन बिलखान ‌
जगदम्बा हरि आनि अब, सठ चाहत कल्यान ॥
फिर वे रामचंद्र जी के बहुत गुण गाते हैं, और अचानक ही सुर बदल कर भाई से मदिरा और भैंसे भेजेने के लिए कहते हैं, जिन्हें खा पी कर, अकेले ही युद्ध के लिए निकल पड़ते हैं. यानि के कथाकार ने उनके व्यक्तित्व का विकास ठीक से नहीं किया. जैसे आधुनिक बोलीवुड वाले, फिल्म के बीच में अचानक हीरो हीरोइन को झुमरीतलैया से स्काटलैंड में गाना गाने भेज देते हैं कुछ वैसा ही अटपटा सा लगता है. कथाकार ने यह भी नहीं बताया कि भैंसे क्या कुम्भू ने कच्ची खायीं या फिर उन्हें काटा और पकाया गया ?

आज मुझे फिर काम से विदेश जाना है, २९ तारिख को घर वापस आने पर ही आप से फिर मुलाकात होगी. आज की तस्वीरें हैं दशहरे पर रावण दहन की.


शनिवार, अक्तूबर 22, 2005

लम्बी गरदन वाली लड़कियाँ

मुझे बचपन से ही चित्र बनाना बहुत अच्छा लगता था और चित्रकार बी प्रभा मुझे सबसे अधिक प्रिय थीं. उनके चित्रों की लम्बी गरदन, और लम्बे पर सुरमय शरीरों वाली लड़कियाँ मुझे बहुत भाती थीं. पुरानी हिंदी की सप्ताहिक पत्रिका, धर्मयुग में अक्सर उनके चित्र छपते. धरती के गर्म पीले, भूरे, मटियाले रंगों में बने उनके चित्र देख कर मैं उनकी नकल बनाने की कोशिश करता. उनके चित्रों की पात्र अधिकतर स्त्रियाँ होती थी, मुझे पुरुष चरित्र वाला उनका कोई चित्र नहीं याद. उन्हें मछुआरों के जीवन संबंधी चित्र बनाना शायद अच्छा लगता था, पर उनका जो चित्र मुझे आज तक याद है उसमें पिंजरे के पंछी को लिए खड़ी एक युवती थी. आज लगता है कि शायद उनकी चित्र बनाने की शैली अमृता शेरगिल की चित्रकला शैली से मिलती थी.

अगर आप बी प्रभा के बारे में और जानना चाहते हैं या उनके चित्रों के दो नमूने देखना चाहते हैं तो अभिव्यक्ति में उन पर छपा लेख पढ़िये.

विदेश में प्राचीन भारतीय कला का बाजार तो पहले ही था, आज आधुनिक भारतीय कलाकारों ने विदेशी बाजार में प्रतिष्ठा पानी प्रारम्भ कर दी है और प्रसिद्ध कलाकारों के चित्र लाखों डालर में बिकते हैं. बचपन में कई बार मकबूल फिदा हुसैन को देखा था. तब उनकी अमूर्त कला तो समझ नहीं आती थी पर उनका दिल्ली के मंडी हाऊस के इलाके में हर जगह नंगे पाँव घूमना बहुत अजीब लगता था. मेरे एक अन्य प्रिय चित्रकार थे स्वामीनाथन, जो नाचती युवतियों के चित्र बनाते थे.



आज और अन्य दो तस्वीरें कत्थक नृत्य की

शुक्रवार, अक्तूबर 21, 2005

भारत से पोस्टकार्ड

लगता है जैसे जीवन फिरकनी की तरह घूम रहा है, एक दिन यहाँ, दूसरे दिन वहाँ, न रुकने की फुरसत, न सोचने की. आठ दिन रहा भारत में, भागते भागते ही निकल गये. घर वापस आया, पर समय केवल अटैची से गंदे कपड़े निकाल कर साफ कपड़े डालने का है. दो या तीन दिनों की छोटी छोटी यात्राँए हैं, एक दूसरे से जुड़ी हुई, रात को कहीं से वापस आओ और सुबह फिर निकल पड़ो. किसी को न कह पाने की अपनी आदत को कोसते समय, २९ अक्टूबर को जब यह भागदौड़ समाप्त होगी तो चार दिन की छुट्टी का सोच कर मन को दिलासा देता हूँ और कहता हूँ कि फिर दोबारा ऐसा नहीं होने दूँगा. यह चिट्ठा लिखना ऐसे में ध्यान करने जैसा लगता है, जँगली घोड़ों की तरह भागते विचारों को ध्यान करने बैठूँ तो शायद थमा नहीं पाँऊ, पर लिखते समय सोचना, लिखे वाक्यों को पढ़ना और ठीक करना, उन विचारों को साध लेता है.

इस बार की भारत यात्रा की यादें, छोटे छोटे पोस्टकार्ड हैं. दुर्गा पूजा के पंडाल में मिष्टी दोई, और दुर्गा माँ के समाने नाचते भक्त्त. दशहरे के जलते रावण के पुतले और पटाखों का शोर. दिल्ली के पुराने किले में देखा बिरजू महाराज और उनके नृत्य विद्यालय के छात्रों का कत्थक नृत्य समारोह, जो स्टेज के पीछे दिख रहे पुराने खँडहरों की वजह से और भी सुंदर हो गया था. बिहार और उत्तर प्रदेश से आये टैक्सी और स्कूटर चलाने वालों से की गयी बातें, उनके दूर गाँवों में रहते परिवारों की और जीवन की. किताबों की दुकान, बुकवोर्म, के बाहर खड़ी भद्र महिला जो अंग्रेजी में कह रहीं थीं कि मुझे कुछ खरीदवा दीजिये, त्योहारों का समय है, सब लोग कुछ खरीद रहें हैं, मुझे भी कुछ ले दीजिये, देखिये मेरे जूते, कैसे फटे हुए हैं.

रावण के पुतले के सामने, उसे जलाने से पहले, उसकी पूजा करने को देख कर चकित हो गया. बचपन में जाने कितनी बार देखा था रावण को जलते पर कभी ध्यान ही नहीं किया था कि उसे जलाने से पहले उसकी पूजा करते हैं. शायद यह अमरीकी फिल्में देखने या बुश जी के आतंकवाद पर दिये गये भाषणों का प्रभाव है, दुनिया को अच्छे और बुरे में बाँट कर सोचना. रावण बुरा है तो उसे जला दो. ऐसा ही कुछ लगा था जब कुछ महीने पहले, जीतेंद्र के भारतदर्शन वाले चिट्ठे में सरसा माता के मंदिर की तस्वीर देखी थी. सोचा था, सरसा तो पिचाशनी थी जिसने लंका जाते हुए हनुमान जी को निगलने की कोशिश की पर वह लघुकाय हो उसके मुख में घुस कर बाहर निकल आये, तो सरसा माता की पूजा क्यों ? सोच कर अच्छा लगा कि यह भिन्न तरह से सोचने का परिणाम है, जिसमें अच्छे या बुरे कर्म से दूर हो कर व्यक्त्ति को देखते हैं.

"जो न कह सके" चिट्ठे में कुछ तकनीकी रुकावटें आ गयीं थीं तो चितिंत हो गया था, सोचा था कि शायद इसे बंद कर नया चिटंठा बनाना पड़ेगा. पर हमेशा की तरह, इस बार भी देवाशीष ने सब ठीक कर दिया, जिसके लिए उन्हें एक बार फिर धन्यवाद.

आज कुछ चित्र भारत यात्रा से.


इस वर्ष के लोकप्रिय आलेख