रस्किन बोंड के उपन्यास "कबूतरों की उड़ान" (Flight of pigeons) पर शशि कपूर ने फिल्म बनायी थी "जनून". फिल्म में स्वयं शशि कपूर बने थे लखनऊ के खानदानी रईस जिसे कबूतरबाजी का शौक था. कबूतर पालने वाले गुरु रखना, दबड़े में कबूतर पालना, और शाम को छत पर अन्य रईसों के साथ कबूतर उड़ाने की हौड़ लगाना, बस यही शौक थे उनके. फिल्म का वह दृष्य जिसमें अंग्रेजों से हारा, गुस्से से भरा रईस का भाई (नसीरुद्दीन शाह), अपनी तलबार से कबूतरों के दबड़े तहस नहस कर देता है, बहुत अच्छा लगा था.
एक अन्य फिल्म थी खानदानी रईसों की, "साहिब बीबी और गुलाम". बिमल मित्र के उपन्यास पर बनी इस फिल्म में उन्नीसवीं शताब्दी के कलकत्ता के जीवन का वर्णन है. इस फिल्म के रईस भी अपनी कबूतरबाजी को बहुत गम्भीरता से लेते हैं. कबूतर उड़ाने की प्रतियोगिता में हारना या जीतना, उनके खानदान की इज्जत की बात है.
मेरे बचपन में, कुछ साल हम लोग पुरानी दिल्ली में ईदगाह के पास कब्रीस्तान के सामने बनी एक पुरानी हवेली में रहे. वहां एक छत से दूसरी छत पर जाना बहुत आसान था, और हम बच्चे मुहल्ले के विभिन्न घरों की छतों पर निडर घूमते थे. वहीं एक पड़ोसी घर की छत पर एक कबूतर खाना बना था जहाँ कबूतरबाजी की शौकीन रहते थे. सफेद, काले और चितकबरे, उनके कबूतर मुझे बहुत अच्छे लगते. पर उनकी छत पर नहीं जा सकते थे, उसे केवल दूर से देखते. कभी कभी, शाम को, वह हाथ में लम्बी डँडी लिए, च च च करके विषेश आवाज निकालते और सारे कबूतर हवा में उड़ जाते. नीचे से साहब डँडी को गोल घुमा कर आवाजें निकालते और आसमान में कबूतर, सिखाये हुए सिपाहियों की तरह, गोल चक्कर लगाते. कभी कभी कोई कबुतर थक कर हमारी छत पर आ कर बैठ जाता.
क्या आज कहीं कोई कबूतरबाजी करता होगा ? मुझे लगता है कि टेलीविजन, फिल्म और तेज रफ्तार से जाने वाली आज की जिन्दगी में किसी का पास इतना समय कहाँ कि कबूतर पाले और उन्हें उड़ाये. वह समय ही कुछ और था. आज किसी को कबूतर बाज कहना शायद गाली समझी जायेगी, रईसियत की निशानी नहीं.
आज की तस्वीरों का विषय है कबूतरः
गुरुवार, नवंबर 03, 2005
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