सोमवार, मार्च 04, 2013

हिन्दी में समलैंगिकता विषय पर लेखन


प्रोफेसर अलेसाँद्रा कोनसोलारो उत्तरी इटली में तोरीनो (Turin) शहर में विश्वविद्यालय स्तर पर हिन्दी की प्रोफेसर हैं. उन्होंने बात उठायी मेरे एक 2007 में लिखे आलेख की जिसमें मैंने हिन्दी पत्रिका हँस में तीन हिस्सों में छपी हिन्दी के जाने माने लेखक पँकज बिष्ट की कहानी "पँखोंवाली नाव" की बात की थी. अलेसाँद्रा ने मुझसे पूछा कि क्या यह कहानी कहीं से मिल सकती है? इस कहानी में दो मित्र थे, जिनमें से एक समलैंगिक था. मैंने अपने आलेख में एक ओर तो बिष्ट जी द्वारा समलैंगिकता के विषय को छूने का साहस करने की सराहना की थी, वहीं मुझे यह भी लगा था कि इस कहानी में समलैंगिकता को "बाहर" या "विषमलैंगिक" दृष्टि से देखा सुनाया गया है, उसमें कथा के समलैंगिक पात्र के प्रति आत्मीयता कम है.

जहाँ तक मुझे मालूम है, बीच में कुछ समय तक हँस में छपी सामग्री इंटरनेट पर भी मिल जाती थी, लेकिन बहुत समय यह बन्द है. मेरे पास 2007 के हँस के कुछ अंक हैं लेकिन यह कहानी पूरी नहीं है, उसका बीच का भाग जो सितम्बर 2007 के हँस में छपा था, वह नहीं है. क्या आप में कोई सहायता कर सकता है या कोई तरीका है सितम्बर 2007 अंक से इस कहानी को पाने का? अगर किसी के पास हँस का वह अंक हो तो उसे स्कैन करके मुझे भेज सकता है.

अलेसाँद्रा के कुछ अन्य प्रश्न भी थे - हिन्दी में समलैंगिकता-अंतरलैंगिकता के विषय पर कौन सी महत्वपूर्ण कहानियाँ और उपन्यास हैं? हिन्दी में समलैंगिक या अंतरलैंगिक लेखक या लेखिकाएँ हैं? अगर हाँ तो वह इस विषय पर क्या लिख रहे हैं?

अलेसाँद्रा के इन प्रश्नों का मेरे पास कोई उत्तर नहीं. इंटरनेट पर खोजने से कुछ नहीं मिला. क्या आप में कोई इस विषय में हमारी सहायता कर सकता है यह जानकारी एकत्रित करने के लिए कि इस विषय पर किस तरह का लेखन हिन्दी में है और हो सके तो उनके लेखकों से सम्पर्क कराने के लिए?

Queer writing - graphic by S. Deepak, 2013

पिछले दशकों में लेखन और साहित्य विधाओं में सच्चेपन (authenticity) और "जिसकी आपबीती हो वही अपने बारे में लिखे" की बातें उठी हैं. इस तरह से साहित्य में नारी लेखन, शोषित जनजातियों के लोगों के लेखन, दलित समाज के लोगों के लेखन, जैसी विधाएँ बन कर मज़बूत हुई हैं. इन्हीं दबे और हाशिये से बाहर किये गये जन समूहों में समलैंगिक तथा अंतरलैंगिक व्यक्ति समूह भी हैं, जिनके लेखन की अलग साहित्यिक विधा बनी गयी है जिसे अंग्रेज़ी में क्वीयर लेखन (Queer writings) कहते हैं. शब्दकोश के अनुसार "क्वीयर" का अर्थ है विचित्र, अनोखा, सनकी या भिन्न. यानि अगर बात लोगों के बारे में हो रहे हो तो इसका अर्थ हुआ आम लोगों से भिन्न. लेकिन अँग्रेज़ी में "क्वीयर" का आधुनिक उपयोग "यौनिक भिन्नता" की दृष्टि से किया जाता है. तो इस तरह के लेखन को बजाय "समलैंगिक-अंतरलैंगिक लेखन" कहने के बजाय हम "यौनिक भिन्न लेखन" भी कह सकते हैं. पश्चिमी देशों में विश्वविद्यालय स्तर पर जहाँ साहित्य की पढ़ायी होती है, तो उसमें साहित्य के साथ साथ, नारी लेखन, जनजाति लेखन, यौनिक भिन्न लेखन, विकलाँग लेखन, जैसे विषयों की पढ़ायी भी होती है.

नारी लेखन, दलित या जन जाति लेखन जैसे विषयों पर मैंने हँस जैसी पत्रिकाओं में या कुछ गिने चुने ब्लाग में पढ़ा है. लेकिन हिन्दी में विकलाँगता लेखन या समलैंगिक लेखन, इसके बारे में नहीं पढ़ा.

बहुत से लोग, लेखकों और लेखन को इस तरह हिस्सों में बाँटने से सहमत नहीं हैं. उनका कहना है कि लेखन केवल आपबीती नहीं होता, कल्पना भी होती है. अगर हम यह कहने लगें कि लेखक केवल अपनी आपबीती पर ही लिखे तो दुनिया के सभी प्रसिद्ध लेखकों का लिखना बन्द जाये. खुले समाज में जहाँ जन समान्य निर्धारित करे कि जो आप ने लिखा है वह पढ़ने लायक है या नहीं, उसे लोग खरीद कर पढ़ना चाहते हें या नहीं, यही लेखन की सार्थकता की सच्ची कसौटी है.

दूसरी ओर यह भी सच है कि समाज के हाशिये से बाहर किये और शोषित लोगों की आवाज़ों को शुरु से ही इतना दबाया जाता है कि वह आवाज़ें मन में ही घुट कर रह जाती हैं, कभी निकलती भी हैं तो इतनी हल्की कि कोई नहीं सुनता. आधा सच जैसे प्रयास भी अक्सर हर ओर से चारदीवारियों में घेर कर बाँध दिये जाते हैं जिन पर उन चारदीवारों से बाहर चर्चा न के बराबर होती है. इस स्थिति में यौनिक भिन्न लेखन की बात करके उन आवाज़ों को पनपने और बढ़ने का मौका देना आवश्यक है. जब उन आवाज़ों में आत्मविश्वास आ जाता है तो वह खुले समाज में अन्य लेखकों की तरह सबसे खुला मुकाबला कर सकती हैं.

रुथ वनिता तथा सलीम किदवाई द्वारा सम्पादित अँग्रेज़ी पुस्तक "भारत में समलैंगिक प्रेम - एक साहित्यिक इतिहास" ("Same sex love in India - a literary history" edited by Ruth Vanita and Saleem Kidwai, Penguin India, 2008) कुछ आधुनिक लेखकों की रचनाओं की बात करती है.

रुथ से मैंने पूछा कि अगर कोई लेखक जो स्वयं को समलैंगिक/द्विलैंगिक/अंतरलैंगिक न घोषित करते हुए भी यौनिक भिन्नता के बारे में लिखें तो क्या उसे "यौनिक भिन्न साहित्य" माना जायेगा?

तो रुथ ने कहा कि "यह इस बात पर भी निर्भर करेगा कि आप "क्वीयर" को किस तरह परिभाषित करते हैं? मेरे विचार में इस विषय पर कोई भी लिखे, चाहे वह स्वयं को यौनिक रूप से भिन्न परिभाषित करे या न करे, वह स्वीकृत होगा. किसकी यौनता क्या है, यह हम कैसे जान सकते हैं? इस विषय पर बहुत से हिन्दी लेखकों ने लिखा है जैसे कि राजेन्द्र यादव,निराला, उग्र तथा विषेशकर, विजयदान देथा जिन्होंने राजस्थानी में लिखा, उस सब को "समलैंगिक साहित्य" कह सकते हैं. चुगताई का लिखा जैसे कि "तेरही लकीर" के हिस्से और "लिहाफ़" भी इसी श्रेणी में आता है, हालाँकि यह उर्दू में लिखे गये. हरिवँश राय बच्चन की आत्मकथा, "क्या भूलूँ क्या याद करूँ" में वह भाग है जिसके बारे में नामवर सिंह ने कहा था कि वह एक पुरुष का दूसरे पुरुष के लिए प्रेम की स्पष्ट घोषणा थी."

यह जान कर अच्छा लगा कि हिन्दी-उर्दू जगत में जाने माने लेखकों ने इस विषय को छूने का साहस किया है, आज से नहीं, बल्कि कई दशकों से यह हो रहा है. लेकिन मैंने सोचा कि रूथ के दिये सभी उदाहरण कम से कम 1960-70 के दशक से पहले के हैं. जबकि मुझे अपने प्रश्न का उत्तर नहीं मिला कि, पिछले तीस चालिस सालों में यौनिक भिन्नता की दृष्टि से, पँकज बिष्ट की हँस में छपी कहानी "पँखवाली नाव" के अतिरिक्त क्या कुछ अन्य लिखा गया?

इस बहस में एक अन्य दिक्कत है जो कि साँस्कृतिक है और मूल सोच के अन्तरों से जुड़ी हुई है. पश्चिमी विचारक, कोई भी विषय हो, चाहे विज्ञान या दर्शन, वनस्पति या मानव यौन पहचान, वे हमेशा हर वस्तु, हर सोच को श्रेणियों में बाँटते हैं. जबकि भारतीय परम्परा के विचारक में हर वस्तु, हर सोच में समन्वय की दृष्टि देखते हैं. इस तरह से बहुत से यौनिक मानव व्यवहार हैं जिन्हें भारतीय समाज ने समलैंगिक-अंतरलैंगिक-द्वीलैंगिक श्रेणियों में नहीं बाँटा. जैसे कि महाभारत में चाहे वह शिखण्डी के लिँग बदलाव की कथा हो या अर्जुन का वर्ष भर नारी बन के जँगल घूमना हो, इन कथाओं में परम्परागत भारतीय विचारकों ने यौनिक भिन्नता की परिभाषाएँ नहीं खोजीं. तो सँशय उठता है कि हिन्दी में "क्वीयर साहित्य" की पहचान करना, भारतीय सोच और दर्शन को पश्चिमी सोच के आईने में टेढ़ा मेढ़ा करके बिगाड़ तो नहीं देगा?

इसी भारतीय तथा पश्चिमी सोच के अन्तर के विषय पर एक अन्य उदाहरण श्री अमिताव घोष की अंगरेज़ी में लिखी पुस्तक "सी आफ पोप्पीज़" (Sea of poppies) है जिसमें एक पात्र हैं बाबू नबोकृष्णो घोष जो तारोमयी माँ के भक्त हैं और इसी भक्ति में लीन हो कर स्वयं को माँ तारोमयी का रूप समझते हैं. इस पात्र की कहानी को केवल अंतरलैंगिकता या समलैंगिकता के रूप में देखना, उसकी साँस्कृतिक तथा आध्यात्मिक जटिलता का एकतरफ़ा सरलीकरण होगा जिससे पात्र को केरिकेचर सा बना दिया जायेगा. इसलिए भारतीय भाषाओं में "क्वीयर लेखन" की बहस में इस बात पर ध्यान रखना भी आवश्यक है.

जैसे रुथ ने कहा कि कोई भी इस विषय पर अच्छा लिखे, तो अच्छी बात है और उसे सराहना चाहिये. लेकिन मेरी नज़र में यह उतना ही महत्वपूर्ण कि स्वयं को "यौनिक भिन्न" स्वीकारने वाले लोग भी लिखें. भारतीय समाज ने अक्सर इस दिशा में बहुत संकीर्ण दृष्टिकोण लिया है. इस सारी बहस को अनैतिक, गैरकानूनी व अप्राकृतिक कह कर समाज ने लाखों व्यक्तियों को शर्म और छुप छुप कर जीने, अन्याय सहने, घुट घुट कर मरने के लिए विवश किया है. पिछले दशक में इस बारे में कुछ बात खुल कर होने लगी है. ओनीर की "माई ब्रदर निखिल" और "आई एम" जैसी फ़िल्मों ने इस बहस को अँधेरे से रोशनी में लाने की कोशिश की है. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध लेखक विक्रम सेठ ने अपने द्विलैंगिक होने के बारे में लिखा है. इस तरह से अगर यौनिक भिन्न लोग अपनी भिन्नता को स्वीकारते हुए लिखेंगे तो इस विषय को शर्म और अँधेरे में छुपे रहने से बाहर निकलने का रास्ता मिलेगा.

आज की दुनिया में अपने विचार अभिव्यक्त करने के लिए ब्लाग सबसे आसान माध्यम है. बड़े शहरों में और अंग्रेज़ी बोलने वाले युवक युवतियों ने ब्लाग की तकनीक का लाभ उठा कर "भिन्न यौनिक" ब्लाग बनाये हैं, जैसे कि आप इन तीन उदाहरणों में देख सकते हैं -  एक, दो, तीन.

जहाँ तक मुझे मालूम है, हिन्दी का केवल एक चिट्ठा है "आधा सच" जिसपर कुछ किन्नर या अंतरलैंगिक व्यक्ति अपनी बात कहते हैं. क्या इसके अतिरिक्त क्या कोई अन्य हिन्दी, मैथिली, भोजपुरी, अवधी, राजस्थानी आदि में इस तरह के अन्य चिट्ठे हैं? क्या स्थानीय स्तरों पर भारत के छोटे शहरों में, कस्बों में भी इस विषय पर लोगों ने कुछ लिखने की हिम्मत की है? क्या कुछ अंडरग्राइड पत्रिकाएँ या किताबें छपी हैं इस विषय पर?

यह नहीं कि चिट्ठों पर इस विषय पर लिखने मात्र से वह "यौनिक भिन्न" साहित्य हो जायेगा. साहित्य होने के लिए उसे साहित्य के मापदँडों पर भी खरा उतरना होगा, लेकिन शायद उन्हें शुरुआत की तरह से तरह से देखा जा सकता है जहाँ कल के "यौनिक भिन्न" साहित्य जन्म ले सकते हैं.

अगर आप के पास इस बारे में कोई जानकारी है तो कृपया मुझसे ईमेल से सम्पर्क कीजिये या नीचे टिप्पणीं छोड़िये. इस सहायता के लिए आप को पहले से ही मेरा धन्यवाद.

आप मुझसे ईमेल के माध्यम से सम्पर्क कर सकते हैं. मेरा ईमेल पता है sunil.deepak(at)gmail.com (ईमेल भेजते समय "(at)" को हटा कर उसकी जगह "@" को लगा दीजिये)

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मंगलवार, फ़रवरी 12, 2013

मानव और पशु

सुबह बाग में अपने कुत्ते के साथ सैर कर रहा था तो अचानक दूर से कुछ कुत्तों के भौंकने और लोगों के चिल्लाने की आवाज़ सुनायी दी. आगे बढ़ने पर दो आदमी ऊँची आवाज़ में बहस करते दिखे, दोनो के हाथ में उनके कुत्तों की लगाम थी जिसे वह ज़ोर से खींच कर पकड़े थे. दोनो कुत्ते बड़े बुलडाग जैसे थे, और एक दूसरे की ओर खूँखार दाँत निकाल कर गुर्रा रहे थे. हमारा कुत्ता छोटा सा है और बहुत बूढ़ा भी. डर के मारे मैं वापस मुड़ गया, यह सोच कर कि दूसरी ओर सैर करना बेहतर होगा.

मुझे वापस आता देख कर एक सज्जन जिनसे अक्सर बाग में दुआ सलाम होता रहता है और जिनकी छोटी कुत्तिया हमारे कुत्ते से भी छोटी है, मुस्करा कर बोले, "कुत्ते में टेस्टोस्टिरोन का हारमोन होता है, उससे वह अपने आप पर काबू नहीं रख पाते. कुत्तिया देखते हैं तो उस पर तुरंत डोरे डालने की कोशिश करते हैं और दूसरे कुत्तों से लड़ाई करते हैं. अब जब कुत्ता पाला है तो यह तो होगा ही, इसमें लड़ने की क्या बात है? यह तो कुत्तों की प्रकृति है. अगर कुत्तों का आपस में लड़ना पसंद नहीं है तो या तो उनका आपरेशन करके उनके अन्डकोष निकलवा दो, इससे टेस्टोस्टिरोन बनना बन्द हो जायेगा, और वे शाँत हो जायेंगे. कुत्ते का आपरेशन  नहीं कराना तो कुत्ता पालो ही नहीं, कुत्तिया रखो."

मैं उनकी बात पर देर तक सोचता रहा. टेस्टोस्टिरोन हारमोन सभी स्तनधारी जीवों में, विषेशकर हर जीव जाति के नरों में होता है. यह हारमोन माँसपेशियों का विकास करता है, शरीर में बाल उगाता है, आवाज़ को भारी करता है. सम्भोग की इच्छा और सम्भोग क्रिया में नर भाग निभाने की क्षमता भी इसी हारमोन से जुड़ी हैं.

यही सोच कर मन में यह बात आयी कि हमारे समाजों में जब किसी युवती को पुरुष मारता है, या उससे ब्लात्कार करता है तो अक्सर लोग कहते हैं कि यह इसलिए हुआ क्यों कि उस लड़की ने उस पुरुष को कुछ ऐसा किया जिससे वह अपने पर काबू नहीं कर पाया. इसके लिए वे दोष देते हैं लड़की को, कि लड़की रात को अकेली बाहर गयी, या उसने पश्चिमी वस्त्र पहने थे या छोटे वस्त्र पहने या वह ज़ोर से हँस रही थी.  यानि उनका सोचना है कि चूँकि नर में टेस्टोस्टिरोन है इसलिए यह उसकी प्रकृति है कि जब मादा उसे आकर्षित करेगी तो वह अपने आप पर काबू नहीं कर पायेगा और उस पर हमला करेगा. इसलिए हमारे समाज लड़कियों को अपने शरीरों को चूनर, घूँघट या बुर्के में ढकने की सलाह देते हैं, कहते है कि बिना पुरुष के अकेली बाहर न जाओ, आदि.

Graphic - man attacking woman


शायद इसी बात को सोच कर बहुत से देशों में युवा लड़कियों के यौन अंगो को काट कर सिल दिया जाता है, या उन्हें शरीर ढकने, घर से बाहर न जाने की सलाह दी जाती है, ताकि उनके मन में यौन भावनाएँ न उभरें. शायद इसी वजह से हमारे समाजों ने रीति रिवाज़ बनाये जैसे कि विधवा युवती का सर मूँड दो, उसे सफ़ेद वस्त्र पहनाओ, उसे खाने में तीखे स्वाद वाली कोई चीज़ न दो, जिससे उसे न लगे कि वह जीवित है और उसकी भी कोई शारीरिक इच्छा हो सकती है. इस सब से युवती का आकर्षण कम होगा और अपने पर काबू न रख पाने वाले पुरुष उस पर हमला नहीं करेंगे.

यानि हमारे समाजों ने पुरुषों को पशु समान माना और यह माना कि उनमें किसी युवती को देख कर अपने आप को रोक पाने की क्षमता नहीं हो सकती. इस तरह से हमारे समाजों ने एक ओर "पुरुष अपनी प्रकृति पर काबू नहीं कर सकते" वाले नियम बनाये, जिससे स्वीकारा जाता है कि पुरुष शादी से पहले या विवाह के बाहर भी शारीरिक सम्बन्ध बना सकता है या कई औरतों से विवाह कर सकता है. दूसरी ओर नियम बनाये कि "नारी का अपनी प्रकृति को काबू में रखना ही नारी धर्म है", जिससे निष्कर्ष निकलता है कि अगर पुरुष कुछ भी करता है तो इसमें गलती हमेशा नारी की ही मानी जायेगी.

यानि यह समाज पुरुष को अन्य पशुओं की तरह देखता है, यह नहीं मानता कि परिवार की शिक्षा, समाज की सभ्यता और अपने दिमाग से पुरुष अपना व्यवहार स्वयं तय करता है.

पर इस तरह की सोच हमारे ही समाजों में क्यों बनी हुई है? जैसे यूरोप, अमरीका, ब्राज़ील आदि में समय के साथ बदल गयी है, वैसे हमारे समाजों में क्यों नहीं बदली? यूरोप, ब्राज़ील में आप समुद्र तट पर जाईये आप छोटी बिकिनी पहने या खुले वक्ष वाली युवतियाँ देख सकते हैं, उन पर वहाँ के पुरुष हमला क्यों नहीं करते? शायद यहाँ के पुरुषों में टेस्टोस्टिरोन की कमी है? लेकिन इन देशों में भारत, पाकिस्तान, अरब देशों आदि से आने वाले प्रवासी पुरुष क्यों नहीं इन युवतियों पर हमले करते, क्या यहाँ के कानून से डरते हैं या शायद यहाँ आने से उनके टेस्टोस्टिरोन भी कम हो जाते हैं?

आप ही बताईये क्या हम पुरुष पशु समान होते हैं क्योंकि हमे अपने पर काबू करना नहीं आता? मेरे विचार में यह सब बकवास है.

कुछ पुरुष मानसिक रोगी हो सकते हैं जिन्हें सही गलत का अंतर न मालूम हो. पर यह सोचना कि सभी पुरुष पशु होते हैं, उन्हें अपने शरीरों पर, अपने कर्मों पर काबू नहीं, यह मैं नहीं मानता. पुरुष किसी भी युवती पर हमला कर सकते हैं, इसलिए युवतियों को शरीर ढकना चाहिये, घर से अकेले नहीं निकलना चाहियें, शर्मा कर, छिप कर रहना चाहिये, मेरे विचार में यह सब गलत है.

जो लोग इसे स्वीकारते हैं, वह मानव सभ्यता को नकारते हैं, इस बात को नकारते हैं कि भगवान ने हमें दिमाग भी दिया है, केवल हारमोन नहीं दिये. मुझे लगता है कि इस तरह की सोच पुरुषों को बचपन से ही यह सिखाती है कि जो मन में आये कर लो, हमें औरतों को दबा कर रखना है. इसके लिए हमारे समाज धर्म, संस्कृति और परम्पराओं का सहारा लेते हैं इस तरह की सोच को ठीक बताने के लिए.

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शनिवार, फ़रवरी 09, 2013

अनैतिक राजनीति

आजकल रामचन्द्र गुहा की पुस्तक "देशभक्त और अन्धभक्त" (Patriots & Partisans, Allen Lane India, 2012) पढ़ रहा हूँ.

Cover Patriots & Partisans by Ramchandra Guha
मुझे गुहा के लिखने की शैली अच्छी लगती है. उनकी स्पष्ट और सीधी लेखन शैली में जटिल विचारों को सरलता से अभिव्यक्त करने की क्षमता है. यह बात नहीं कि मैं उनकी हर बात से सहमत होऊँ, लेकिन वह मुझे सोचने को विवश करते हैं.

उनकी किताब के शीर्षक में "पार्टीज़ान" (Partisan) शब्द है जिसके कई अर्थ हो सकते हैं. देश की स्वतंत्रता के लिए लड़ने वालों को भी पार्टीज़ान कहते हैं, और किसी बात पर एक तरफ़ा सोचने वाले, या अन्धभक्तों को भी पार्टीज़ान कहते हैं. उनकी इस किताब में बातें आज कल के भारत के बारे में हैं, जहाँ कुछ वह लोग भी हैं जो, टीवी स्टूडियो, आत्मप्रचार और प्रसिद्धी से दूर, जन सामान्य के बीच में रह कर काम करने वाले हैं. दूसरी ओर, वह बात करते हैं उनकी जो देश का शोषण करके या धर्म या जाति के नाम पर विभिन्न मुद्दों पर जनता को भड़का कर अपनी जेबें भरने में लगे हैं. पुस्तक में भारत में होने वाले भ्रष्टाचार के इतिहास की भी बात है कि कैसे समय के साथ हमारी राजनीति बेशर्मी से भ्रष्टाचार की दलदल में धँस चुकी है.

गुहा एक ओर से जवाहरलाल नेहरु के प्रशँसक हैं और नेहरू के जीवन के बारे में बहुत बार लिखते हैं. लेकिन साथ ही वह नेहरू के वशंज यानि इन्दिरा गाँधी, उनके बच्चों तथा आधुनिक काँग्रेस नेताओं के प्रति सीधी भाषा में स्पष्ट आलोचना करते हैं. इस तरह की स्पष्ट आलोचना उनके स्तर के अन्य विचारकों की कम ही पढ़ने को मिली है.

उदाहरण के लिए उनकी किताब में एक अध्याय है "काँग्रेस में चमचागिरी का छोटा सा इतिहास", जिसमें उन्होंने सँजय, राजीव, सोनिया और राहुल गाँधी के बारे में दो टूक लिखा है -
"अगर शास्त्री रहते तो पता नहीं इन्दिरा गाँधी लन्दन रहने जाती या नहीं. पर अगर भारत में रहती भी तो उन्हें प्रधान मन्त्री बनने का मौका मिलना बहुत कठिन था. अवश्य ही उनके बेटे को यह पद कभी न मिलता. शास्त्री अन्य पाँच साल प्रधानमन्त्री रह पाते तो गाँधी-नेहरू का राजघराना न बनता. सँजय और राजीव गाँधी अब जीवित होते और अपना निजि जीवन जीते. आज संजय असफल बिज़नेसमेन होते, राजीव एक फोटोग्राफ़ी का शौक रखने वाले सेवानिवृत्त पायलेट. अन्त में अगर शास्त्री कुछ लम्बा जीवन जी पाते तो सोनिया घर सम्भालने वाले पति को प्यार करने वाली ग्रहणी होती और राहुल गाँधी किसी प्राईवेट कम्पनी में मध्य स्तर के मैनेजेर होते."

पर नेहरु गाँधी परिवार के राजघराने बनाये जाने और चापलूसी करने वाले काँग्रेस नेताओं की बात करते हुए भी वह व्यक्तिगत स्तर पर अन्धी आलोचना नहीं करते. जैसे कि सोनिया गाँन्धी के चुनावों में भाग लेने और कांग्रेस की नेता होने के बारे में लिखते हैं -
"अन्तोनिया मेइनो गाँधी" के नेतृत्व में 'रोम राज' के खतरों की बात करने वाले जाति और धर्म के नाम पर नफरत फ़ैलाने वाले लोग भारतीय जनता और विषशकर हिन्दुओं की सँकरी भावनाओं को बढ़ावा देना चाहते थे. लेकिन हिन्दुत्वप्रेमियों के अतरिक्त अन्य लोगों में इस बात को नहीं माना गया. वोटरों ने स्पष्ट कर दिया कि सोनिया गाँधी को जाँचने के मापदँड अन्य होंगे. वह इटली में पैदा हुईं या वह कैथोलिक धर्म की हैं इससे कुछ कुछ फ़र्क नहीं पड़ता. चालिस साल से भारत भूमि में रह कर वह भी भारतीय थीं."

दूसरी ओर उनकी किताब में भाजपा, काम्युनिस्ट, माओवादियों आदि की आलोचनाएँ कम भी नहीं हैं. उदाहरण के लिए माओवादियों के बारे में उन्होंने लिखा है -
"मुझे पहले से मालूम था कि नक्सली लोग गाँधीवादी नहीं है लकिन एक बार मुरिया की जनजाति के एक व्यक्ति ने जो मुझसे कहा, उसने मेरी नक्सलियों को सही समझने में मदद की. वह व्यक्ति अपने परिवार का पहला व्यक्ति था जिसे कालेज से डिग्री मिली थी और एक भूतपूर्व शिक्षक था जो कि माओवादी झगड़ों की वजह से बेघर हो गया था. उसने मुझसे कहा कि उन हिँसक क्राँतीकारियों की छवि के पीछे छुपे व्यक्तियों में नैतिक साहस नहीं था. उस व्यक्ति के शब्द आज भी मेरे कानों में गूँजते हैं, <नक्सलियों को हिम्मत नहीं कि हथियार गाँव के बाहर छोड़ कर हमारे बीच में आ कर बहस करें>. यह बहुत गहरी और विचारनीय दृष्टि थी गणतंत्र के सही अर्थ की समझ की. ऊपरी कठोरता और विचारनिष्ठा के दिखावे के बावजूद, नक्सलियों में अपने आप में डर था और वह जनतंत्रिक बहस में भाग नहीं ले सकते, गरीब और बिना हथियारों वाले ग्रामीण लोगों से नहीं."

एक ओर गुहा बात करते हैं विकास की, प्राइवेट सेक्टर को अधिक मौका देने की, तकनीकी विकास को बढ़ावा देने की. पर साथ ही बात करते हैं ज़िम्मेदारी की और पर्यावरण के संरक्षण की. इस तरह से वह गाँधीवाद या साम्यवाद की दृष्टि से "गाँवों में ही भारत का भविष्य है" और "बिना तकनीकी जीवन अच्छा है" या "प्राइवेट सेक्टर हव्वा है" जैसी बातों से स्वयं को दूर करते हैं. दूसरी ओर वह बात करते हैं कि आर्थिक और सामाजिक विकास ज़िम्मेदारी से हो. इस विषय में इस किताब में उन्होंने समाचारपत्र और टीवी जगत, विषेशकर अग्रेज़ी मीडिया की, कड़ी आलोचना की है. वह कहते हैं कि मीडिया लालची उद्योगपतियों के पास गिरवी है और अधिकतर अपनी स्वतंत्र राय न दे कर, उद्योगपति कैसे देश को नोच विनाश कर सकें, इसका साथ देता है और जो लोग पर्यावरण या गरीब लोगों के अधिकारों की बात करें तो उनका विरोध करता है.

यह सच है कि आज के समाज में वामपंथी या दक्षिणपंथी या परम्परावादी राजनीतिक दलों की बात करना कुछ कठिन हो गया है. जिन दलों को हम वामपंथी सोचते थे वे किसी विषय पर पराम्परावादी बातें भी करते हैं.

गुहा सत्तर के दशक में इन्दिरा गाँधी और बाद के दशकों में उनके परिवार को ही भारत में राजनीतिक नैतिकता के पतन का दोष देते हैं. इस विचार से मैं उनसे पूरी तरह सहमत नहीं हूँ. मेरे विचार में इन्दिरा गाँधी ने अगर भारत की संवैधानिक संस्थाओं का अपनी व्यक्तिगत सम्पत्ति की तरह उपयोग किया, अपने बेटों को राजपाठ के वशंज बनाया और तानाशाही का प्रारम्भ किया तो इसमें उनके आसपास के सारे समाज का भी पूरा योगदान था. उस समाज ने इस सब का कितना विरोध किया? ताकतवर के सामने झुकना, उसके तलुए चाटना, चापलूसी करना और उसकी शह में भ्रष्टाचार करना, यह सब हमारे समाज ने किया, केवल इन्दिरा घाँधी या संजय गाँधी ने अकेले नहीं शुरु किया.

आज भारत के किस राज्य में कौन से राजनीतिक दल अपने बच्चों, परिवार वालों को सत्ता में नहीं ला रहे? कौन से राजनीतिक दल सत्ता पाने के लिए अनैतिक तरीके नहीं अपना रहे और जातिवाद या धर्मवाद, इससे ऊपर उठ रहे हैं? कितने हैं तो व्यक्तिगत नहीं, भारत के हित की सोचते हैं? सत्ता के शिखर से समाज के सबसे गरीब तबके तक, कितने लोग हैं जो मौका मिलने पर भ्रष्टाचारी नहीं हैं?

भारत की स्वंत्रता मिलने के बाद के दशकों के सीधे साधे नेता, जो सामान्य जीवन जीते थे, जिनमें देशभक्ती का दिखावा कम था और व्यक्तिगत नैतिकता अधिक थी, वैसे राजनीतिक नेता आज कितने हैं? आज हर ओर अनैतिक और भ्रष्ट नेताओं का बोलबाला है जो देशभक्त होना का दिखावा भी ठीक से नहीं करते.

चाहे अन्ना हज़ारे का आँदोलन हो या "आम आदमी पार्टी" का संघर्ष, हर ओर फ़ैले भ्रष्टाचार और अनैतिकता से बाहर ला कर अपने समाज को कैसे बदल सकते हैं? गुहा की किताब इस सब बातों पर सोचने को विवश करती है.

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शनिवार, जनवरी 19, 2013

दो बहने़ - जापानी गेइशा और भारतीय मुजरेवाली

जापानी कला प्रदर्शनी लगी थी, जिसका विषय था "उक्कियो ए" (Ukiyo e), यानि "तैरता शहर". सत्रहवीं शताब्दी के जापान में कला दिखाने वाले लोगों को नैतिक दृष्टि से हीन माना जाता था इसलिए उन्हें शहर के बाहर नदी पर रहने को विवश किया जाता था. नावों पर रहने वाले इन लोगों को "तैरता शहर" कहते थे. तैरते शहरों में रहने वाले लोगों में गेइशा (Geisha), चित्रकार, नाटक के अभिनेता, कवि, लेखक, वैश्याएँ, आदि लोग होते थे.

अक्सर समाज ऐसा करते हैं कि जिन व्यक्तियों को नैतिक दृष्टि से हीन या अवँछनीय मानते हैं उन्हें समाज से बाहर निकालने का नाटक करते हैं. पर समाज में जिन ज़रूरतों को पूरा करने के लिए वह काम होते हैं, उनको नहीं रोक पाते और समाज के हाशिये पर सब कुछ वैसे ही चलता रहता है. हाँ उसमें कानून के रखवालों का भ्रष्टाचार और दमन भी जुड़ जाते हैं.

कुछ ऐसा ही "उक्कियो ए" के समाज के साथ भी हुआ. उनको जापानी भद्र समाज ने बाहर तो किया पर उससे नाता नहीं तोड़ा. शाम होते ही, अँधेरे में "उक्कियो ए" में रोशनियाँ जल जातीं और शहर के जाने माने लोग मनोरँजन के लिए वहाँ पहुँच जाते. "उक्कियो ए" की कला प्रदर्शनी इसी जगत का चित्रण करती थी.

आज उकियो ए की कला की बहुत माँग है और पुराने प्रिंट बहुत मँहगे मिलते हें जिनके संग्रह करने वाले सारी दुनिया में फ़ैले हैं.

इसी उकियो ए कला परम्परा के दो नमूने प्रस्तुत हैं.

Geisha and Mujre wali and Indian cinema


Geisha and Mujre wali and Indian cinema

जापानी पाराम्परिक नाटक जैसे कि काबूकि (Kabuki) जापान के बाहर उतने प्रसिद्ध नहीं हुए लेकिन गेइशाओं के बारे में सारी दुनिया के लोग जानते हैं. अक्सर गेइशाओं को "शरीर बेचने वाली स्त्रियाँ" यानि वैश्या समझा जाता है. यह सही नहीं है, आधुनिक गेइशाएँ कलाकार होती है - चाय बनाना, बातें करना, मनोरंजन करना जैसे काम करती हैं जिन्हें एस्कोर्ट (escort) या साथी कह सकते हैं. जापान में अक्सर लोग उन्हें जापानी पाराम्परिक सभ्यता को सहजने वालों की तरह देखता है.

लेकिन मेरे विचार में पुराने समय की जापानी गेइशाओं तथा भारतीय मुजरेवाली या तवायफ़ परम्पराओं में कुछ समानताएँ थीं.

"गेइशा" शब्द दो "कन्जी" (जापानी भाषा के शब्द या इडियोग्राम) से बना है - "गेइ" यानि "कला" और "शा" यानि "व्यक्ति". इस तरह से "गेइशा" का अर्थ हुआ "कलाकार". उनके बारे में बात करते हुए कभी कभी "गेइको" यानि कला+नवयुवती या "मैइको" यानि नाचती+नवयुवती जैसे शब्दों का प्रयोग भी होता है, विषेशकर जब यह स्त्रियाँ जनसमूह के सामने नाचने और गाने की कला का प्रदर्शन करती हैं. गेइको या मेईको जैसे शब्दों को जापानी भाषा में वैसा ही अर्थ दिया जाता था जैसे कि हिन्दी में मुजरे वाली या नौटंकी वाली को दिया जाता था और अक्सर इन स्त्रियों को वैश्या समान ही समझा जाता था.

आज कानूनी दृष्टि से जापान में पैसे के बदले में सेक्स को गैरकानूनी माना जाता है लेकिन अन्य देशों की तरह, वहाँ के हर शहर में वैश्याएँ मिल सकती हैं. जापान जाने वाले बहुत से विदेशी आज भी सोचते हें कि गेइशा का अर्थ वैश्या है, लेकिन आज यह सच नहीं.

भारत में मुजरे वाली या तवायफ़ो का क्या इतिहास है यह मुझे नहीं मालूम, इस बारे में मेरी सारी जानकारी उपन्यासों या फ़िल्मों से ही बनी है.

प्राचीन भारत में "नगरवधू" परम्परा थी. इस विषय पर भगवती चरण वर्मा का उपन्यास "चित्रलेखा" और आचार्य चतुर सेन का उपन्यास "वैशाली की नगरवधु" उल्लेखनीय हैं जिन पर "चित्रलेखा" और "आम्रपाली" जैसी फ़िल्में बनी थीं.

कालिदास के नाटक मृच्छकटिक में वसंतसेना की कथा थी जिस पर "उत्सव" फ़िल्म बनी थी. इस तरह से देखें तो प्राचीन समय से ही भारत में भी शरीर बेचने को नत्य, संगीत जैसी कलाओं में माहिरता के साथ जोड़ा गया था.

कलाकार होने को क्यों हीन माना गया? क्यों लोगों के समक्ष कला प्रदर्शन करने को भारतीय और जापानी समाजों ने नीचा माना? शायद इसलिए कि इस तरह की कलाएँ केवल पैसे वाले राजा महराज या अमीर लोगों के संरक्षण में पनपती थीं और यह लोग उस सरक्षण के बदले में कलाकारों से उनके शरीरों की कीमत माँगते थे? गुलज़ार की फ़िल्म "लेकिन" में कुछ यही बात थी, जिसमें उसकी नायिका लच्छी (डिम्पल कपाड़िया) जो राज दरबार में नृत्य दिखाने आयी थी, राजा को अपना शरीर न देने के लिए आत्महत्या का रास्ता चुनती है.

समय के साथ नगरवधु परम्परा बदली. सत्तारहवीं अठाहरवीं शताब्दी में यही परम्परा मुजरे वाली या तवायफ़ में बदली जैसा कि "पाकीजा" और "उमराव जान" जैसी फ़िल्मों में दिखाया गया था.

नृत्य या गायन के कलाकारों के प्रति यही दृष्टिकोण बीसवीं शताब्दी तक चला. अभी कुछ दशक पहले तक फ़िल्मों में काम करने को भी हीनता की दृष्टि से ही देखा जाता था, और हिन्दी फ़िल्म जगत की प्रारम्भ की फिल्मों में पुरुषों ने ही नारी भाग निभाये, या विदेशों से नायिकाओं को बुलाया गया या गाने बजाने वाले परिवारों की औरतों ने यह काम लिया. जैसे कि प्रसिद्ध अभिनेत्री नरगिस की माँ सुश्री जद्दनवाई इलाहाबाद की गानेवाली थीं.

हीनता की दृष्टि से केवल औरतें ही नहीं पुरुष कलाकार भी देखे जाते थे. हृषीकेश मुखर्जी की फ़िल्म "आलाप" में भी वकील पिता का बेटे (अमिताभ बच्चन) के संगीत सीखने और गुलजार की फ़िल्म "परिचय" में अमीर पिता के बेटे (संजीव कुमार) के संगीत के सीखने के प्रति गुस्सा होना और घर से निकाल देना में कला और बाज़ार को जोड़ कर देखने का दृष्टिकोण था. राजकपूर की "राम तेरी गँगा मैली" में नायिका गँगा के मैले होने को नाचने गाने वाली और अमीर व्यक्ति की रखेल बनने को मजबूर युवती के माध्यम से दिखाया गया था.

भारतीय शास्त्रीय संगीत भी इसी वातावरण में पनपा. नमिता देवीदयाल की पुस्तक "द म्यूज़िक रूम" में इसका सुन्दर वर्णन है.

दस पंद्रह साल पहले तक मुज़रेवाली या तवायफ़ें या नौटँकी वाली, हिन्दी फ़िल्मों का अभिन्न हिस्सा थीं. आजकल की फ़िल्मों में मुझे लगता है कि इस तरह के पात्र कुछ कम हो गयें हैं, हालाँकि "बोल बच्चन" जैसी फ़िल्मों में कभी कभी दिख जाते हैं.

Geisha and Mujre wali and Indian cinema

आज जो औरतें वैश्या बनायी जाती हैं, क्या उन्हें नृत्य संगीत सीखना पड़ता है, मुज़रा करना पड़ता है? अगर "चमेली", "वास्तव", "मौसम" जैसी फ़िल्मों के बारे में सोचे तो शायद नहीं.  दूसरी ओर आज कलाकारों के पास जीवन यापन के लिए नये माध्यम बने हैं, अच्छी गायिका या नृत्याँगना या अभिनेत्री होना प्रतिष्ठा से देखा जाता है, इसलिए आधुनिक जगत को तवायफ़खानों और मुजराघरों की आवश्यकता नहीं. हाँ पुरुषों को वैश्याओं की आवश्यकता अब भी है, इसलिए शरीर का व्यापार नहीं बँद हुआ.

पर शायद नौटँकी में काम करने वाली औरतों को, जिन्हें फणीश्वरनाथ रेणू की कहानी "मारे गये गुलफ़ाम" पर बनी फ़िल्म "तीसरी कसम" में बखूबी दिखलाया गया था, उन्हें शायद आज भी हीन दृष्टि से देखा जाता है? गायकी, नृत्य या अभिनय जैसे क्षेत्रों में प्रतिष्ठा, पैसे और बदलते समाज के बदलते माप दँडों से जुड़ी है. नौटँकी देखने वाले समाज में अभी वह बदलाव आया है या नहीं यह तो वही बता सकता है जो आज के ग्रामीण जगत को जानता है. या शायद टीवी और फ़िल्मों के सामने, नौटँकी की दुनिया भी मुजरेवाली और उकियो ए की दुनियाओं जैसे गुम हो चुकी है?

अगर आप उकियो ए के बारे में अधिक जानना चाहते हैं तो अमरीकी संसद के पुस्तकालय के वेबपृष्ठ पर इसकी ओनलाइन प्रदर्शनी अवश्य देखिये, बहुत सुन्दर है.

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मंगलवार, जनवरी 01, 2013

अगर ..

कल्पना ने आँखें नीचे करके कनखियों से उसकी ओर देखा तो उसका दिल पिघल गया. कुछ दिन पहले ही मिले थे पर थोड़े दिनों में ही ऐसे घुलमिल गये थे मानो सदियों का रिश्ता हो. और आज पहली बार दोनो ने प्यार किया था. कल्पना ने ही उसे अपने घर बुलाया था कि वह घर पर अकेली थी. इतनी जल्दी शारीरिक सम्बन्ध बनाना उसे कुछ ठीक नहीं लगा था पर वह कल्पना को न नहीं कह पाया था.

वह सारी शाम इसी तरह एक दूसरे की बाँहों में गुज़ार देना चाहता था लेकिन कल्पना उठ बैठी थी, और कपड़े पहनने लगी थी.

"क्या हुआ, मेरे पास बैठो न!" उसने कहा था तो कल्पना ने नाक भौं सिकोड़ ली थी.

"अभी समय नहीं, मुझे सहेलियों के साथ फ़िल्म देखने जाना है! चलो उठ कर जल्दी से कपड़े पहन लो, नहीं तो मुझे देर हो जायेगी."

"कौन सी फ़िल्म जा रही हो? मैं भी चलूँ?"

कल्पना उसकी ओर देख कर मुस्करा दी थी, "पागलों जैसी बात न करो, तुम लड़कियों के बीच में क्या करोगे? चिन्ता न करो, मैं तुम्हें जल्दी ही टेलीफ़ोन करूँगी."

उससे रहा नहीं गया था और वह मचल उठा था, "मैं तुमसे दूर नहीं रह सकता. आज फ़िल्म का प्रोग्राम बदल दो, मेरे साथ रहो."

कल्पना हँस पड़ी थी, "तुम तो बहुत चिपकू हो यार. अब कहोगे कि मुझसे शादी करनी है. मुझे पता होता कि तुम ऐसे हो तो तुम्हारे साथ समय बरबाद न करती. अरे यार यह प्रेम शेम का नाटक न करो. मेरे दिल को तुम कुछ पसन्द आये, थोड़ी देर साथ रह कर मज़ा कर लिया, बस. शादी वादी के चक्करों में मुझे नहीं पड़ना. अभी तो बहुत दुनिया देखनी है, कुछ और मज़े करने हैं."

वह मायूस हो कर कपड़े पहनने लगा. यह उसके साथ तीसरी बार हुआ था कि किसी लड़की ने उसके शरीर का फायदा उठा कर उसे छोड़ दिया था. यही हाल रहा तो वह बिना शादी और बच्चों के ही बूढ़ा हो जायेगा.
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"मुझे यह बच्चा नहीं चाहिये. कौन पालेगा लड़कों को? जीना हराम कर देते हैं. मुझे गर्भपात कराना है", कल्पना ने कहा.

डाक्टर उसकी बचपन की सहेली थी, बोली, "अरे यार सब लड़कियाँ इस तरह से सोचेंगी तो हमारे देश का क्या होगा? मालूम है कि हमारे देश में लड़कों की संख्या घटती जा रही है. यही हाल रहा तो वह दिन दूर नहीं जब गर्भवती होने के लिए हमें विदेशों से वीर्य मँगवाना पड़ेगा."

कल्पना बोली, "देश का क्या होगा इसका मैंने ठेका नहीं लिया है जो बिना बात के मुसीबत पालूँ. बिना बात की लड़ाईयाँ करते हैं, घर में कुछ काम धाम नहीं करते, न माँ बहन की सेवा. शराब पीने में पहले नम्बर पर, काम करने में सबसे पीछे. लड़के तो मुसीबत की जड़ हैं. मैं नौकरी करती हूँ, स्वतंत्र रहती हूँ. नहीं, नहीं, मुझे इतनी मुसीबत नहीं चाहिये. मुझे तो बेटी ही चाहिये, अगर विदेश से अच्छा गोरा चिट्टा वीर्य मिलेगा तो होगी भी सुन्दर."

"लड़का हो तो गर्भपात कराना इसे भारतीय कानून में जुर्म माना जाता है, कहीं कुछ हो गया तो?" डाक्टर ने चिन्ता व्यक्त की.

"अरे नहीं यार. यहाँ कुछ भी हो, ले दे कर रफ़ा दफ़ा कर देते हैं. लिख देना का गर्भ में ही भ्रूण मर गया था इसलिए गर्भदान की सफ़ाई की गयी, बस." दोनो सहेलियाँ हँस पड़ीं.
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कल शाम को नारी खाप पँचायत की आपत्कालीन मीटिंग बुलायी गयी. पँचायत ने सभी युवकों से अपील की है कि वे टाईट जीन्स या खुले बटन वाली तंग कमीज़े न पहनें. इस तरह के वस्त्र भारतीय संस्कृति के विरुद्ध है और इनसे लड़कियाँ अपने आप पर काबू नहीं कर पाती हैं. जहाँ तक हो सके उनको शालीन तरीके से अन्दर लँगोट और ऊपर से धोती कुर्ता पहनना चाहिये. इसके अतिरिक्त युवकों को सलाह दी जाती है कि शाम को या रात को अकेले बाहर जाने में, बहुत ध्यान करें. और अगर कोई अनजानी युवती उनकी ओर मुस्कराये या उनसे बात करने की कोशिश करे, तो उन्हें उससे सावधान रहना चाहिये.

खाप पँचायत ने युवतियों से भी अपील की है कि लड़का होने पर गर्भपात न करायें. हमारी भारतीय संस्कृति ने लड़को को हमेशा से पूजनीय माना है, उन्हें देव कह कर मन्दिरों में उनकी मूर्तियाँ लगायी जाती हैं. उन्होंने यह भी कहा है कि लेबोरेटरी में किराये के वीर्य से गर्भ धारण करने से और विवाह न करने से बेचारे पुरुषों के साथ बहुत नाइन्साफ़ी होती है, बेचारे अकेले रहने को मज़बूर होते हैं. अगर लड़कों के गर्भपात का यही हाल रहा तो आने वाले भविष्य में भारत में युवक नहीं बचेंगे.

खाप पँचायत ने भारत सरकार से माँग की है कि युवकों की सुरक्षा के लिए तुरन्त सख्त कानून बनाये जायें.

Satire on men in India graphic by S. Deepak, 2013

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शनिवार, दिसंबर 08, 2012

वियतनाम में बुद्ध धर्म


गौतम बुद्ध के उपरांत, कुछ सदियों में ही बुद्ध धर्म भारत और नेपाल से निकल कर पूर्वी और पश्चिमी एशिया में फ़ैल गया. वियतनाम में बुद्ध धर्म चीन से तथा सीधा दक्षिण भारत से, प्रथम या द्वितीय ईस्वी में पहुँचा. वियतनामी बुद्ध धर्म पर चीन से ताओ धर्म तथा प्राचीन वियतनामी मिथकों के प्रभाव दिखते हैं. आज करीब 80 प्रतिशत वियतनामी स्वयं को बुद्ध धर्म के अनुयायी मानते हैं.

बुद्ध धर्म के वियतनाम में पहुँचने के करीब पाँच सौ वर्ष बाद, भारत से हिन्दू धर्म का प्रभाव भी वियतनाम पहुँचा जो कि मध्य तथा दक्षिण वियतनाम के चम्पा सम्राज्य में अधिक मुखरित हुआ. वियतनाम में चम्पा साम्राज्य की राजधानी अमरावती, तथा अन्य प्रमुख शहर जैसे विजय, वीरपुर, पाँडूरंगा आदि में बहुत से हिन्दू मन्दिर बने जिनके भग्नावषेश आज भी वियतनाम के मध्य भाग में देखे जा सकते हैं. इस तरह से वियतनामी बुद्ध धर्म में हिन्दू धर्म का प्रभाव भी आत्मसात हो गया.

वियतनाम की आधुनिक राजधानी हानोई के उत्तर में बाक निन्ह जिले में स्थित निन्ह फुक पागोडा को वियतनाम का प्रथम बुद्ध संघ तथा मन्दिर का स्थान माना जाता है. कहते हैं कि प्राचीन समय में यहाँ पर भारत से आये बहुत से बुद्ध भिक्षुक रहते थे. इस पागोडा को लुए लाउ (Luy Lâu) पागोडा के नाम से भी जाना जाता है. पहाड़ों के पास, डुओन्ग नदी के किनारे बना यह पागोडा, प्राचीन दीवारों में बन्द लुए लाउ शहर से जुड़ा है, और बहुत सुन्दर है. पागोडा के प्रँगण में 1647 ईस्वी की बाओ निह्म मीनार बनी है जिसमें पागोडा के प्रथाम बुद्ध महाध्यक्ष के अवषेश सुरक्षित रखे हैं.

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद वियतनाम में कम्युनिस्ट शासन स्थापत हुआ जिसने धर्म को सार्वजनिक जीवन से निकालना चाहा और बौद्ध धार्मिक स्थान भी बन्द कर दिये, भिक्षुकों को जेल में डाला गया. 1986 के बाद धीरे धीरे शासन ने रूप बदला और धार्मिक संस्थानो को फ़िर से चलने की अनुमति मिली.

आज वियतनाम में प्राचीन बुद्ध मन्दिरों को सरकारी सहयोग मिलता है और पर्यटक उन्हें देखने जाते हैं. लेकिन बुद्ध धर्म की प्रार्थनाएँ अभी भी चीनी भाषा में हैं जिसे आम वियतनामी नहीं समझ पाते. इन प्रार्थनाओं में अमिताभ सूत्र तथा पद्म सूत्र सबसे अधिक प्रचलित हैं. इसी तरह बुद्ध मन्दिरों में प्रार्थनाओं को ध्वज पर लिखवा कर घर में रखने का प्रचलन है, पर यह प्रार्थनाएँ भी चीनी भाषा में ही लिखी जाती हैं.

बुद्ध मन्दिरों में विभिन्न बौद्धिसत्वों जैसे कि अमिताभ की मूर्तियाँ मिलती हैं.

साथ ही बुद्ध मन्दिरों में प्राचीन पूर्वज पूजा भी प्रचलित है जिसमें अगरबत्तियों के साथ साथ, लोग कागज़ की मानव मूर्तियों या नकली नोटों को भी जलाते हैं.

पूर्वज पूजा से ही जुड़ी है गुरु पूजा की परम्परा. हानोई में राजपरिवार के प्राचीन गुरुओं का "साहित्य मन्दिर" बना है, जहाँ विद्यार्थी इम्तहान में पास होने की प्रार्थना करने जाते हैं.

वियतनामी मन्दिरों में फोनिक्स के काल्पनिक जीव जो विभिन्न पशु पक्षियों के सम्मिश्रिण से बना है अक्सर दिखता है.

जापानी प्रभाव से विकसित हुए ज़ेन बुद्ध धर्म या थियन बुद्ध धर्म के भिक्षुक, लेखक तथा विचारक थिच नाह्ट (Thích Nhất Hạnh) अपने ध्यान योग और बुद्ध साधना की किताबों और प्रवचनों के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध हैं.

बुद्ध धर्म से जुड़ी मेरी एक वियतनाम यात्रा की कुछ तस्वीरें प्रस्तुत हैं.

(1) चीनी भाषा में लिखा प्रार्थना ध्वज

Buddhism in Vietnam - S. Deepak, 2010

(2) हानोई में बना गुरु पूजा का साहित्य मन्दिर

Buddhism in Vietnam - S. Deepak, 2010

(3) वियतनाम में मध्य भाग से कुछ बुद्ध मन्दिर

Buddhism in Vietnam - S. Deepak, 2010

Buddhism in Vietnam - S. Deepak, 2010

Buddhism in Vietnam - S. Deepak, 2010

(4) मन्दिर में चढ़ाने के लिए कागज़ के मानव व पशु जलाने की रीति

Buddhism in Vietnam - S. Deepak, 2010

Buddhism in Vietnam - S. Deepak, 2010

Buddhism in Vietnam - S. Deepak, 2010

(5) प्राचीन निन फुक पागोडा

Buddhism in Vietnam - S. Deepak, 2010

Buddhism in Vietnam - S. Deepak, 2010

Buddhism in Vietnam - S. Deepak, 2010

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बुधवार, नवंबर 21, 2012

फ़िर ले आया दिल .. यमुना किनारे

उम्र के बीतने के साथ पुरानी भूली भटकी जगहों को देखने की चाह होने लगती है, विषेशकर उन जगहों की जहाँ पर बचपन की यादें जुड़ी हों. ऐसी ही एक जगह की याद मन में थी, दिल्ली में यमुना किनारे की.

बात थी 1960 के आसपास की. मेरी बड़ी बुआ डा. सावित्री सिन्हा तब दिल्ली के इन्द्रप्रस्थ कोलिज में हिन्दी पढ़ाती थीं. उनका घर था इन्द्रप्रस्थ कोलिज के साथ से जाती छोटी सी सड़क पर जिसे तब मेटकाफ मार्ग कहते थे, जो अँग्रेज़ो के ज़माने के मेटकाफ साहब के घर की ओर जाती थी जिन्होंने महरौली के पास के प्राचीन भग्नावशेषों को खोजा था और जहाँ आज भी उनके नाम की एक छतरी बनी है.

यमुना वहाँ से दूर नहीं थी, पाँच मिनट में पहुँच जाते थे. तब वहाँ घर नहीं थे, बस रेत ही रेत और कोई अकेला मन्दिर होता था. तभी वहाँ नया नया बौद्ध विहार बना था. वहीं रेत पर दिन में खेलने जाते थे या कभी शाम को परिवार वालों के साथ सैर होती थी.

बीस साल बाद, 1978 के आसपास जब सफ़दरजंग अस्पाल में हाउज़ सर्जन का काम करता था तो अपने मित्रों के साथ बौद्ध विहार के करीब बने तिब्बती ढाबों में खाना खाने जाया करते थे.

इस बार मन में आया कि उन जगहों को देखने जाऊँ. मैट्रो ली और आई.एस.बी.टी. के स्टाप पर उतरा. पीछे से बस अड्डे के साथ से हो कर, सड़क पार करके, यमुना तट पर पहुँचने में देर नहीं लगी. चारों ओर नयी उपर नीचे जाती साँपों सी घुमावदार सड़कें बन गयी थीं.

नदी के किनारे गाँवों और छोटे शहरों से आये गरीबों की भीड़ लगी थी, बहुत से लोग सड़क के किनारे सोये हुए थे, कुछ यूँ ही बैठे ताक रहे थे. उदासी और आशाहीनता से भरी जगह लगी, पर साथ ही यह भी लगा कि चलो बेचारे गरीबों को आराम करने के लिए खुली जगह तो मिली. वहाँ कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा चलाने वाले रैनबसेरे भी हैं जहाँ अधिक ठँड पड़ने पर रात को सोने के लिए कम्बल और जगह मिल जाती है, और दिन में खाने को भी मिल जाता है.

बैठे लोगों को पार करके नदी तक पहुँचा तो गन्दे बदबूदार पानी को देख कर मन विचट गया.

Pollution Yamuna river, Delhi

Pollution Yamuna river, Delhi

Pollution Yamuna river, Delhi

एक ओर निगम बोध पर जलते मृत शरीरों का धूँआ उठ रहा था. जगह जगह प्लास्टिक के लिफ़ाफे और खाली बोतलें पड़ी थीं.

Pollution Yamuna river, Delhi

दूसरी ओर छठ पूजा की तैयारी हो रही थी. नदी के किनारे देवी देवताओं की मूर्तियाँ रंग बिरंगे वस्त्र पहने खड़ी थीं. पानी में गहरे पानी में जाने से रोकने के लिए लाल ध्वजों वाले बाँस के खम्बे लगाये जा रहे थे. कुछ लोग नदी के गन्दे पानी में नहा रहे थे.

Pollution Yamuna river, Delhi

Pollution Yamuna river, Delhi

Pollution Yamuna river, Delhi

जिसे यमुना माँ कहते हैं, उसके साथ इस तरह का व्यवहार हो रहा है, उसमें लोग गन्दगी, कचरा, रसायन, आदि फैंक कर प्रदूषण कर रहे हैं. इसे धर्म को मानने वाले कैसे स्वीकार कर रहे हैं? यह बात बहुत सोच कर भी समझ नहीं पाया.

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पुराणों में यमुना नदी के जन्म की कहानी बहुत सुन्दर है. यमुना के पिता हैं सूर्य और माता हैं संज्ञा, भाई हैं यम. इस कहानी के अनुसार सूर्य देव के तेज प्रकाश तथा उष्मा से घबरा कर संज्ञा अपने पिता के घर भाग गयीं. उन्हें वापस लाने के लिए सूर्य के अपने प्रकाश के कुछ हिस्से निकाल कर बाँट दिये. सूर्य से ग्रहों के उत्पन्न होने की यह कथा, और संज्ञा तथा सूर्य की उर्जा से जल यानि जीवन तथा मृत्यू का जन्म होना, यह बातें आज की वैज्ञानिक समझ से भी सही लगती हैं.

पुराणों की अनुसार, गँगा की तरह यमुना भी देवलोक में बहने वाली नदी थी जिसे सप्तऋषि अपनी तपस्या से धरती पर लाये. देवलोक से यमुना कालिन्द पर्वत पर गिरी जिससे उसे कालिन्दी के नाम से भी पुकारते हैं और पर्वतों में नदी के पहले कुँड को सप्तऋषि कुँड कहते हैं. इस कुँड का जल यमुनोत्री जाता है जहाँ वह सूर्य कुँड के गर्म जल से मिलता है.

भारत की धार्मिक पुस्तकों में और सामान्य जन की मनोभावनाओं में पर्वत, नदियों और वृक्षों को पवित्र माना गया है. नदी में स्नान करने को स्वच्छ होने, पवित्र होने और पापों से मुक्ति पाने की राहें बताया गया हैं. इसलिए नदियों के प्रदूषण के विरोध में साधू संतो ने भी आवाज उठायी है. लेकिन राजनीतिक दलों से और आम जनता में इन लड़ाईयों को उतना सहयोग नहीं मिला है.

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यमुना के किनारे जहाँ बौद्ध विहार होता था वह सारा हिस्सा पक्के भवनों से भर गया है. जहाँ ढाबे होते थे वहाँ भी पक्के रेस्त्राँ बन गये हैं. जहाँ कुछ तिब्बती लोग बैठ कर ऊनी वस्त्र बेचते थे, उस जगह पर भीड़ भाड़ वाली मार्किट बन गयी है.

Pollution Yamuna river, Delhi

Pollution Yamuna river, Delhi

मन में लगा कि बेकार ही इस तरफ़ घूमने आया. जितनी मन में सुन्दर यादें थीं, उनकी जगह अब यह सिसकती तड़पती हुई नदी और सूनी आँखों वाले गरीबों के चेहरे याद आयेंगे.

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सोमवार, नवंबर 19, 2012

हिन्दी फ़िल्मों में मानसिक रोग और मानसिक विकलाँगता


बीमारियाँ और विकलाँगताएँ मानव जीवन का अभिन्न अंग हैं. हिन्दी फ़िल्मों और बीमारियों का नाता बहुत पुराना है. बीमारी, कष्ट, मृत्यू इन सब बातों से फ़िल्मों की कहानियों को भावात्मक मोड़ मिल जाते हैं. बीमारी के विषय पर बनी फ़िल्मों के बारे में सोचें तो मन में "दिल एक मन्दिर", "आनन्द", "सफ़र", "गुज़ारिश" और "कल हो न हो" जैसी न भूलने वाली फ़िल्में याद आ जाती हैं.

दूसरी ओर, कुछ फ़िल्मों में शारीरिक विकलाँगताओं से जुड़ी कहानियों को मानव जीवन के संघर्ष से जोड़ कर सुरुचिपूवक ढंग से दिखाया गया है. 1960 के दशक की "जागृति" और "दोस्ती" से ले कर कुछ माह पहले आयी "बर्फी" तक आप को हिन्दी फ़िल्म जगत से इसके कितने ही उदाहरण मिल सकते हैं. लेकिन साथ ही, हिन्दी सिनेमा ने विकलाँगताओं को अक्सर हँसी मज़ाक का विषय भी बनाया है जैसे कि अभिनेता तुषार कपूर जो अजीब से गूँगे युवक का पात्र निभाने के लिए प्रसिद्ध हो गये हैं और कई फ़िल्मों में इस तरह के पात्र को निभा चुके हैं.

एक ओर जहाँ कैंसर जैसी बीमारियों तथा शारीरिक विकलाँगताओं को अगर फ़िल्मी दुनिया में जगह मिली है, वहाँ मानसिक रोगों और विकलाँगताओं को हिन्दी फ़िल्म जगत ने किस तरह से दर्शाया है?

करीब छः वर्ष पहले मैंने हिन्दी फ़िल्मों में मानसिक रोगों के चित्रण के विषय पर लिखा था. इस विषय पर दोबारा लिखने का एक कारण है कि तबसे इस विषय पर कुछ नयी फ़िल्में भी बनी हैं. दूसरी बात यह कि पहले आलेख में बात केवल मानसिक रोगों की थी, दिमागी विकलाँगताओं की नहीं, जबकि मेरे विचार में इन दोनो बातों के बीच का अंतर अधिकतर लोगों को स्पष्ट समझ नहीं आता.

Mental illness and intellectual disabilities in Hindi films

मानसिक रोगों तथा मानसिक विकलाँगताओं के बीच का अंतर करना कभी कभी बहुत कठिन होता है. कई बार विकलाँगता किसी रोग का परिणाम होती है. फ़िर भी दोनो बातों में कुछ अंतर होते हैं. इस विषय पर बनी फ़िल्मों की चर्चा से पहले, इस अंतर की बात समझना आवश्यक है.

मानसिक रोगों तथा मानसिक विकलाँगताओं में अंतर

मानसिक रोग वह बीमारियाँ होती हैं जिनसे मानव के व्यवहार पर, उसकी भावनाओं पर असर पढ़ता है. इन बीमारियों का उपचार मनोरोग विशेषज्ञय दवाओं से या साइकोथैरेपी से करते हैं.

मानसिक रोग दो तरह के होते हैं - एक वे रोग जिसमें मानव अपने व्यवहार या भावनाओं पर नियन्त्रण नहीं कर पाता, पर उसमें समझ बूझ की क्षमता होती है. जैसे कि डिप्रेशन यानि गहरी उदासी या ओबसेशन यानि मन में किसी विचार का घर कर लेना, जिसे चाह कर भी नहीं निकाल पाते. इन बीमारियों में मानव अपनी उदासी या ओबसेशन की भावनाओं से उबर नहीं पाता लेकिन उसमें अन्य सब बातें समझने बूझने की शक्ति होती है. इन रोगों को न्यूरोसिस कहते हैं.

दूसरी तरह के मानसिक रोग वे होते हैं जिसमें मानव में भावनाओं और व्यवहार के साथ साथ, उसकी समझ बूझ में भी फर्क आ जाता है और वे मानव सच या कल्पना में अंतर नहीं समझ पाते. इस तरह के मानसिक रोगों को साईकोसिस कहते हैं जैसे कि स्कित्ज़ोफ्रेनिया की बीमारी.

दोनो तरह के मानसिक रोग इतने हल्के हो सकते हैं कि अन्य सामान्य लोगों को उसके बारे में आसानी से पता न चले, या फ़िर इतने तीव्र हो सकते हैं कि वह मानव कुछ भी काम नहीं कर सके और उसकी बीमारी को आसानी से पहचाना जा सके. बहुत से लोग आम भाषा में अक्सर इन रोगियों को पागल कहते हैं और मानसिक स्वास्थ्य अस्पतालों को पागलखाना कहते हैं. इस तरह के शब्दों के प्रयोग से इन बीमारियों के बारे में समाज में गलत छवि बनती है और उन रोगियों तथा उनके परिवारों पर बुरा प्रभाव पड़ता है.

मानसिक या दिमागी विकलाँगता वे होती हैं जिसमें दिमाग की नसों में कुछ इस तरह का हो जाता है जिससे उस मानव के सोचने समझने, पढ़ने, लिखने, याद करने, गिनती करने, आदि में कठिनायी हो सकती है. इन विकलाँगताओं को "पढ़ने-सीखने की विकलाँगताएँ" (learning disabilities) भी कहते हैं. बच्चों तथा नवयुवकों में अक्सर यह विकलाँगताएँ जन्म से ही होती है या कई बार दिमाग में फैलने वाले इन्फेक्शन से हो सकती है. यह विकलाँगताएँ उम्र के साथ वृद्ध लोगों में भी हो सकती हैं.

दिमागी विकलाँगताएँ भी भिन्न भिन्न तरह की होती हैं, जैसे कि डाउन सिन्ड्रोम, आउटिस्टिक, डिस्लेक्सिया, अल्ज़हाइमर, इत्यादि.

मानसिक रूप से विकलाँग व्यक्तियों को बहुत से लोग आम भाषा में "रिटार्डिड" (कमज़ोर दिमाग वाला) कहते हैं. इनका साधारणतय इलाज नहीं हो सकता और कुछ व्यक्तियों में, दिमागी विकलाँगता के साथ साथ, कुछ शारीरिक विकलाँगताएँ भी हो सकती हैं.

चाहे मानसिक रोग हो या दिमागी विकलाँगता, इन सबके साथ सबसे बड़ी कठिनाई है इनके बारे में समाज में प्रचलित गलतफहमियाँ और लोगों द्वारा इनसे पीड़ित बच्चों और बड़ों का तिरस्कार और मज़ाक उड़ाना. समाज अक्सर यह नहीं देखता कि लोगों को कैसे प्रोत्साहन दिया जाये ताकि वह अपने अन्दर छुपी खूबियों और काबलियत को बढ़ा कर उनका उपयोग कर सकें, बल्कि कोशिश होती है कैसे उनको गाली दें, उन्हें दबायें, उन्हें यह दिखायें कि वह कुछ नहीं कर सकते.

मानसिक रोग तथा मानसिक विकलाँगताएँ, दोनो ही विषय हिन्दी सिनेमा में कई बार उठाये गये हैं. आईये इसके कुछ उदाहरणों की बात करें.

हिन्दी फ़िल्मों में मानसिक रोग

हिन्दी फ़िल्मों में कई बार मानसिक रोगों की बात उठायी गयी है. यह बात अधिकतर दो तरह दिखायी जाती है. एक ओर नायक या नायिका का असफ़ल प्रेम की वजह से मानसिक संतुलन खो देना दिखाया जाता है, दूसरी ओर मनोरोग अस्पताल में रहने वाले लोगों को और वहाँ काम करने लोगों को, हँसी मज़ाक का पात्र दिखाया जाता है.

इस दृष्टिकोण से बनी फ़िल्मों का एक उदाहरण है 1969 की असित सेन द्वारा निर्देशित फ़िल्म "खामोशी" जिसमें एक ओर राजेश खन्ना और धर्मेन्द्र के पात्र थे जो प्रेम में असफल होने से मानसिक रोग के शिकार दिखाये गये थे. दूसरी ओर थीं मानसिक रोग के अस्पताल में काम करने वाली नर्स राधा के रूप में वहीदा रहमान जो उनका इलाज करने के लिए, उनसे प्रेम का नाटक करती हैं. राधा मरीज़ो से प्रेम का नाटक करते करते, सचमुच प्रेम करने लगती है और उनके ठीक हो कर अस्पताल से जाने पर स्वयं मानसिक रोगी बन जाती है. इस फ़िल्म में जहाँ हीरो हीरोईन के मानसिक रोग को भावात्मक तरीके से दिखाया गया था, वहीं मानसिक रोग के अस्पाल में भर्ती अन्य मरीज़ों को, विदूषक की तरह हँसी मज़ाक का पात्र बना कर भी दिखाया गया था.

असफल प्रेम से होने वाले मानसिक रोग का इलाज करने के लिए किसी का प्रेम चाहिये, इस तरह से सोच वाली फिल्मों के कुछ अन्य उदाहरण हैं "खिलौना" (1970) और "क्यों कि" (2005).

"खिलौना" में असफल प्रेम से पागल हुए संजीव कुमार को ठीक कराने के लिए नाचने वाली चाँद यानि मुम्ताज़ को उनसे प्रेम का नाटक करने लिए घर लाया जाता हैं. प्रियदर्शन की फ़िल्म "क्यों कि" में प्रेमिका की मृत्यू पर दुख से पागल सलमान खान को एक डाक्टर (करीना कपूर) का प्यार ठीक होने में सहारा देता है.

प्रेम में असफल होने के अतिरिक्त, कई फ़िल्मों में गहरे सदमे या चोट पहुँचने से भी मानसिक रोग का होना दर्शाया गया है. जैसे कि "घर" (1978) तथा "15 पार्क एवेन्यू" (2005), जिनमें बलात्कार की वजह से मानसिक रोग का होना दर्शाया गया था.

"घर" में  कहानी थी नववधु आरती (रेखा) की जिन्हें बलात्कार के बाद डिप्रेशन हो जाता है और वह अपने नवविवाहित पति (विनोद मेहरा) से भी डरती है. इस फिल्म में दिखाया गया था कि अगर सुहानूभूति और सहारा मिले तो मानसिक रोग से बाहर निकलना सम्भव है.

अपर्णा सेन की राष्ट्रीय पुरस्कार पाने वाली फ़िल्म "15 पार्क एवेन्यू" का मुख्य विषय था मानसिक रोग और उसका परिवार के अन्य लोगों पर पड़ने वाला प्रभाव. मिताली यानि कोन्कणा सेन को स्कित्ज़ोफ्रेनिया है, जो ब्लात्कार की वजह से उभर जाता है. वह अपनी बड़ी बहन अनु (शबाना आज़मी) और माँ (वहीदा रहमान) के साथ रहती है. छोटी बेटी का मानसिक रोग, परिवार का अकेलापन और सबसे दूर होना, समाज में मानसिक रोगियों के प्रति गलत विचार, इस फ़िल्म में इन सब बातों को बहुत प्रभावशाली ढंग से दिखाया गया था.

स्कित्ज़ोफ्रेनिया की बीमारी को कई बार एक शरीर में दो विभिन्न व्यक्तित्वों के साथ रहने के रूप में, यानि "मल्टिपल पर्सनेलिटी" की बीमारी के रूप में भी दिखाया गया है, जैसे कि "रात और दिन" (1967). इस फ़िल्म में दिन में गृहणी बन कर रहने वाली वरुणा (नरगिस) और रात को शराब-बार में गाने और नाचने वाली पेगी की कहानी थी. इस फ़िल्म में मानसिक रोग को बचपन में घर के घुटे वातावरण में बड़े होने की वजह से, अपने मन में छुपी इच्छाओं को न व्यक्त कर पाने का नतीजा दिखाया गया था.

2004 की फ़िल्म "मदहोशी" में नायिका अनुपमा (बिपाशा बसु) एक सदमें की वजह से एक कल्पनिक दुनिया में खो जाती है और एक काल्पनिक पुरुष से प्रेम करने लगती है. 1984 की अपर्णा सेन की एक अन्य फ़िल्म "परोमा" में एक गृहणी (राखी) का विवाह के बाहर एक अन्य पुरुष से प्रेम करने और बाद में परिवार से ठुकराये जाने पर मानसिक संतुलन खो देना दिखाया गया था.

बार बार एक ही बात को सोचना या किसी एक विचार को न भूल पाने को ओबसेशन कहते हैं. इस मानसिक रोग को विभिन्न फ़िल्मों में दिखाया गया है. जैसे कि 1962 की गुरुदत्त की फिल्म "साहब, बीबी और ग़ुलाम" में, जिसमें हवेली की बड़ी बहू को दिन भर बार बार हाथ धोते हुए दिखाया गया था. इसी तरह की कुछ बीमारी 1993 की फ़िल्म "डर" में शाहरुख खान को थी जो कि किरण (जुही चावला) नाम की युवती से ओबसेस्ड हो जाते हैं.

"साहब, बीबी और ग़ुलाम" में एक अन्य मानसिक रोग का चित्रण था - शराब के नशे से न निकल पाना. मानसिक रोग विशेषज्ञों के अनुसार शराब या अन्य पदार्थों का नशा करना भी एक तरह का मानसिक रोग है. गुरुदत्त की इस फ़िल्म में अभिनेत्री मीना कुमारी ने छोटी बहू का पति को रिझाने के लिए शराब पीने और फ़िर उसी लत की दलदल में फँस जाने का प्रभावशाली चित्रण किया था. अभिनेता केष्टो मुखर्जी तो मानो शराबी के मानसिक रोग के प्रतीक ही बन गये थे, हर फ़िल्म में उन्हें इसी रूप में दिखाया जाता था.

मानसिक संतुलन खो कर खूनी बन जाना जिसमें मल्टिपल पर्सनेलिटी तथा ओबसेशन  की बीमारियाँ दोनो ही होती हैं, भी कई फ़िल्मों में दिखाया गया है. जैसे कि 2011 की फ़िल्म "मर्डर 2" जिसमें एक युवक औरतों के कपड़े पहन कर शरीर बेचने वाली युवतियों को मारता है.

हिन्दी फ़िल्मों में दिमागी विकलाँगता

शारीरिक विकलाँगताओं पर शुरु से ही बहुत सी हिन्दी फ़िल्में बनी हैं जैसे कि "जागृति" (सत्येन बोस, 1954), "दोस्ती" (सत्येन बोस, 1964), "आरज़ू" (रामानन्द सागर, 1965), इत्यादि. लेकिन मानसिक विकलाँगताओं पर फ़िल्में पिछले दशक में ही बननी शुरु हुई हैं.

राकेश रोशन की 2003 की फ़िल्म "कोई मिल गया" के रोहित (हृतिक रोशन) को दिमागी विकलाँगता दिखायी गयी थी. दिमाग से कमज़ोर रोहित को शिक्षक अपनी कक्षा और विद्यालय में नहीं लेना चाहते, अन्य बच्चे उसका मज़ाक उड़ाते हैं. मानसिक विकलाँगताओं वाले बच्चों की समस्या का हल इस फ़िल्म में जादुई था, क्योंकि रोहित की विकलाँगता अंतरिक्ष से आये जादू की वजह से मिट जाती है.

संजय लीला भँसाली की 2005 की फ़िल्म "ब्लैक" में कहानी थी एक अन्धी और बहरी लड़की की और उसे पढ़ाने वाले शिक्षक (अमिताभ बच्चन) की जिन्हें बुढ़ापे के साथ अल्ज़हाईमर की बीमारी की वजह से यादाश्त खो बैठने की मानसिक विकलाँगता हो जाती है. इसी से मिलती जुलती बात थी 2005 की फ़िल्म "मैंने गाँधी को नहीं मारा" के प्रोफेसर (अनुपम खेर) को जो अपनी यादाश्त खो बैठते हैं. 2008 की अजय देवग्न की फ़िल्म "यू, मी और हम" में यही भूलने वाली बीमारी फ़िल्म की नायिका पिया (काजल) को होती है.

फ़िल्मों में यादाश्त खो बैठने की बीमारी को अधिकतर नाटकीय तरीके से दिखाया जाता है, जैसे कि हाल में ही आयी "जब तक है जान" में शाहरुख खान को होता है. इस फ़िल्म में इस बीमारी को लंदन की डाक्टर (सारिका), "रेट्रोग्रेड एमनीज़िया" यानि बीती यादों को भूल जाने का नाम देती है. यह केवल कुछ बीते दिनों की बात भूलने वाली बीमारी, उम्र के साथ होने वाली बीमारियों जैसे कि अल्ज़हाईमर, से भिन्न है, जिसमें केवल कुछ बीती बातें ही नहीं, बल्कि व्यक्ति प्रतिदिन जो घटता रहता है उसे भी याद नहीं रख पाते.

2007 की फ़िल्म "तारे ज़मीन पर" में बात थी एक अन्य मानसिक विकलाँगता की जिसे डिसलेक्सिया यानि शब्दों को ठीक से न समझ पाने की विकलाँगता. जिन बच्चों को यह तकलीफ़ होती है वह वर्णमाला के अक्षरों को आसानी से नहीं समझ पाते. इस फ़िल्म में यह भी दिखाया गया था कि विकलाँगता केवल बच्चे या मानव में नहीं होती बल्कि परिवार तथा समाज में भी होती है, क्योंकि वे सहारा देने के बजाय, मानव के आसपास रुकावटें बनाते हैं. जबकि अगर सही मौका मिले तो डिसलेक्सिया वाले बच्चे सब कुछ करने में समर्थ होते हैं.

करन जौहर की 2010 की फ़िल्म "माई नेम इज़ ख़ान" में हीरो शाहरुख खान को एस्बर्गर सिंड्रोम से पीड़ित दिखाया गया था. यह एक अन्य तरह की मानसिक विकलाँगता है जिसमें व्यक्ति शब्दों के प्रतीकात्मक अर्थ नहीं समझ पाता, बल्कि केवल शाब्दिक अर्थ समझता है. साथ ही वह अन्य लोगों से शारीरिक नज़दीकी नहीं चाहता, वह किसी को छूना नहीं चाहता. इस तरह की मानसिक विकलाँगताओं को आउटिस्म के नाम से जाना जाता है, जिसमें लोग अपनी आँतरिक दुनिया में रहना अधिक पसंद करते हैं. अनुराग बसु की 2012 की फ़िल्म "बर्फी" में प्रियँका चोपड़ा को भी आउटिस्टिक विकलाँग व्यक्ति के रूप में दिखाया गया है.

मानसिक रोग, मानसिक विकलाँगताएँ और समाज

हिन्दी फ़िल्मों ने मानसिक रोगों और मानसिक विकलाँगताओं की बात उठायी है, यह बहुत अच्छी बात है. अक्सर समाज में यह बातें छुपी रहती हैं. जिनके परिवार में किसी को मानसिक रोग हो या मानसिक विकलाँगता हो, वे अधिकतर इसे पारिवारिक शर्म के रूप में जीते हैं. इस शर्म की वजह से परिवार मानसिक रोगियों का ठीक से इलाज नहीं करवाते. लोग सोचते हैं कि यह बात सबके सामने आ जायेगी तो हमारे घर में कोई विवाह नहीं करना चाहेगा, कोई मित्रता नहीं बनाना चाहेगा.

पर मानसिक रोग और विकलाँगताएँ दोनो ही आधुनिक समाज में बढ़ रहे हैं. सड़क पर यातायात के बढ़ने से जुड़ी दुर्घटनाएँ, काम के तनाव, बड़े शहरों का अकेलापन, लम्बे होते जीवन जिनमें लोगों को वृद्धावस्था में सही सहारा नहीं मिलता, इन सब बातों से मानसिक रोग और मानसिक विकलाँगताएँ बढ़ रही हैं.

दूसरी ओर चिकित्सा विज्ञान, शिक्षा और तकनीकी ने भी बहुत तरक्की की है, जिनसे पूरी तरह से जीवन जी पाना, पढ़ना,लिखना, नौकरी करना, सही सहारा मिले तो सब कुछ सम्भव हो गया है. ऐसे में अगर हिन्दी फ़िल्में इन विषयों को पर्दों से बाहर ला कर उनके बारे में जन सामान्य की जानकारी बढ़ा सकती हैं तो यह अच्छी बात है.

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बुधवार, नवंबर 07, 2012

फिल्मी जीवन

कुछ दिन पहले इंटरनेट पर अँग्रेज़ी के अखबार हिन्दुस्तान टाईमस् पर सुप्रतीक चक्रवर्ती की लिखी नयी फ़िल्म "अजब ग़ज़ब लव"  की आलोचना पढ़ रहा था तो एक वाक्य पढ़ते पढ़ते रुक गया. उन्होंने लिखा था "अब तो बोलीवुड का समझ लेना चाहिये कि सचमुच के जीवन में शेव किये हुए बिना दाढ़ी वाले पर सिर पगड़ी पहनने वाले सिख नहीं होते". मन में आया कि अगर सचमुच के जीवन में इस तरह के सिख नहीं होते तो इन फ़िल्मों को देख कर होने लगेंगे.

यानि कभी कभी मुझे लगता है कि इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि सचमुच के जीवन में कुछ होता है या नहीं, अगर फ़िल्मों में दिखने लगेगा, तो धीरे धीरे सचमुच के जीवन में भी होने लगता है. वैसे तो पिछले कई वर्षों में पत्रिकाओं में पढ़ा था कि पंजाब में बहुत से सिख नवयुवक सिर के बाल और दाढ़ी कटा रहे हैं. यह भी पढ़ा था कि कुछ सिख संस्थाओं ने सिर पर पगड़ी कैसे बाँधते हैं इसकी कक्षाएँ चलानी शुरु की हैं, क्योंकि बहुत से नवयुवक पगड़ी बाँधना ही नहीं जानते. इसके साथ यह भी सच है कि सिख धर्मियों में भी विभिन्न गुट हैं और उनमें से कुछ गुट जैसे कि नानकपंथी गुट, बाल और दाढ़ी नहीं बढ़ाते. इस सब की वजह से मुझे लगता है कि आम जीवन में बिना दाढ़ी वाले, लेकिन किसी विषेश अवसर पर पगड़ी पहनने वाले सिख भी हो सकते हैं. इसके बारे में पंजाब में रहने वाले लोग बता सकते हें कि यह होता है या नहीं?

इस बात पर सोचते हुए मन में फिल्मों के जीवन पर होने वाले प्रभाव की बात आयी. आज की स्थिति के बारे में उतना नहीं जानता, हाँ जब मैं किशोर हो रहा था उस समय की याद है.

जब 1960 में "लव इन शिमला" में साधना माथे पर सीधे कटे हुए बालों के साथ आयी थी तो सचमुच के जीवन पर उसका तुरंत प्रभाव पड़ा था, साधना कट बालों की ऐसी धूम चली थी कि छोटी बड़ी हर उम्र की लड़कियाँ उसी अन्दाज़ में बाल बनाती थीं. आज पचास साल बाद भी मेरी उम्र के लोग उस अन्दाज़ को साधना कट के नाम से ही जानते हैं.

कुछ वर्षों के बाद जब राजेश खन्ना, "बहारों के सपने" और "आनन्द" जैसी फ़िल्मों में नीचे जीन्स और ऊपर कुर्ता पहन कर आये तो हम सब नवयुवकों को नयी पोशाक मिल गयी और आज भी जब भी जीन्स पर कुर्ता पहनूँ तो कभी कभी अपने लड़कपन के राजेश खन्ना के प्रति दीवानेपन की याद आ जाती है. राजेश खन्ना ने ही "कटी पतंग" फ़िल्म में "थेंक्यू" के उत्तर में "मेन्शन नाट" कहा था तो आधे भारत को मुस्करा कर कुछ कहने वाले अंग्रेज़ी शब्द मिल गये थे. अमिताभ बच्चन जैसे बाल और जया भादुड़ी जैसे ब्लाउज़ भी अपने समय में बहुत छाये थे.

1975 में "जय सँतोषी माँ" फ़िल्म आयी तो अचानक कई जगह संतोषी माँ के मन्दिर बनने और दिखने लगे और एक ऐसी देवी जिसका नाम नहीं जानते थे, अचानक प्रसिद्ध हो गयी थी.

अगर विवाह के रीति रिवाज़ों के बारे में सोचे, या फ़िर करवाचौथ जैसे पाराम्परिक त्योहारों के बारे में, तो मेरे विचार में पिछले दो दशकों में सूरज बड़जात्या, करन जौहर और यश चोपड़ा जैसे फिल्म निर्देशकों की फ़िल्मों ने उत्तरी भारत के मध्यम वर्ग पर बहुत प्रभाव डाला है. मेहँदी और संगीत के रीति रिवाज़ों को जिस तरह से इनकी फ़िल्मों से मान्यता और बढ़ावा मिला उसका प्रभाव छोटे बड़े शहरों में दिखता है. विवाह के समय पर दुल्हन स्वयं नाचे, यह भी फ़िल्मों का ही प्रभाव लगता है.

Filmi lives graphic


कुछ अन्य प्रभाव पड़ा है कि बढ़ते बाज़ारवाद, मोबाईल टेलीफ़ोन और फेसबुक या गूगल प्लस जैसे सोशल नेटवर्कों से. बाज़ारवाद का प्रभाव है कि बेचने के लिए कोई न कोई बहाना होना चाहिये. वह भी अगर अंग्रेज़ी में कहा जा सके तो उसका प्रभाव और भी बढ़िया होगा. यानि "वेलेन्टाईन डे" हो या "मदर्स डे" या "फादर्स डे" या "फ्रैंडशिप डे", बेचने के कार्यक्रम शुरु हो जाते हैं. फ़िल्मों में इनके लिए कोई गाने या दृश्य बन जाते हैं. मोबाईल से एसएमएस भेजिये या फेसबुक, गूगल प्लस से सबको ग्रीटिँग भेजिये, बस आप बिना मेहनत के आधुनिक हो गये.

इन सब बातों को सोच कर ही बेचने वाली कम्पनियाँ फ़िल्मों में पैसा लगाती हैं ताकि हीरो उनके पेय की बोतल पीता दिखाया जाये, या हीरोइन उनकी कम्पनी के स्कूटर को चलाये या उनकी टूथपेस्ट से दाँत ब्रश करें. इतना पैसा लगाने वाली कम्पनियाँ जानती हैं कि इन दृश्यों का प्रभाव देखने वालों पर पड़ेगा और उनकी बिक्री बढ़ेगी.

यह प्रभाव केवल भारत में ही पड़ा हो यह बात नहीं. चीन में विवाह के समय पर लोगों को अधिकतर पश्चिमी तरीके की विवाह की पौशाक पहने देखा है, यानि वधु को सफ़ेद रंग का पश्चिमी गाउन पहनाते हैं, जबकि उनकी पाराम्परिक पौशाक लाल रंग की होती थी. चीन में बहुत से लोगों को अपने चीनी नामों के साथ साथ, पश्चिमी नामों के साथ भी देखा है जोकि इसलिए रखे जाते हैं ताकि विदेशी लोगों को उन्हें बुलाने में आसानी हो. इसमें से कितना प्रभाव विदेशी फ़िल्मों की वजह से है, यह नहीं कह सकता.

मुझे लगता है कि इस विषय पर मेरी जानकारी कुछ पुरानी हो गयी है. आजकल भारत के विभिन्न प्रदेशों में फ़िल्मों का सामान्य जीवन पर क्या प्रभाव पड़ा है, आप इसके बारे में क्या सोचते हैं और क्या इसके कुछ उदाहरण दे सकते हैं?

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शुक्रवार, अक्तूबर 12, 2012

बालों का रंग


करीब तीस-बत्तीस साल के बाद मिल रहे थे. इस बीच में हमारे बीच कोई भी सम्पर्क नहीं रहा था.

साथ साथ मेडिकल कालेज में पढ़े थे पर मेडिकल कालेज के दिनों में हमारे बीच कोई विषेश दोस्ती नहीं थी. हमारी विषेश दोस्ती बनी थी पढ़ायी के समाप्त होने पर जिस समय नये स्नातक डाक्टरों को, एक साल के लिए अस्पताल में काम करके चिकित्सा विज्ञान का प्रेक्टिकल अनुभव प्राप्त करना होता है, जिसे इन्टर्नशिप कहते हैं. उस दौरान हम दोनो की कई पोस्टिंग साथ साथ हुईं थीं. इन्टर्नशिप के दौरान नये डाक्टरों से खूब दिन रात काम लिया जाता है, साँस लेने कि फुरसत मुश्किल से मिलती थी. उन दिनों में जब भी कुछ समय मिलता, अक्सर हम दोनो दिल्ली में कश्मीरी गेट से आगे जा कर यमुना तट पर बने तिब्बती रेस्टोरेंट में खाना खाने जाते और घँटों बातें करते.

वह इन्टर्नशिप का वर्ष समाप्त हुआ, डिग्री मिली और हम दोनों के रास्ते अलग दिशाओं में मुड़ गये. सुना कि उसका विवाह अमरीका में कहीं हुआ है. फ़िर सुना कि जहाँ विवाह हुआ था वहाँ कुछ झँझट थे, पर कुछ अधिक नहीं पता चला. बस उसके बाद कोई अन्य बात नहीं सुनी, न ही मालूम हुआ कि वह कहाँ है, क्या करता है?

अब कुछ समय पहले फेसबुक और मेडिकल कोलिज में साथ में हमारे साथ पढ़ने वाले लोगों की वजह से उससे फ़िर से सम्पर्क हुआ. मालूम चला कि वह इँग्लैंड में रहता है. उसके शहर में जाने का मौका मिला तो उससे मुलाकात भी हुई. एक पब में मिले और बीयर पीते पीते पुरानी बातों की बात हुई.

वह छरहरा सा लड़का जो मेरी यादों में था, अब अच्छे खासे खाते पीते घर के तँदरुस्त व्यक्ति में बदल गया था, जिसे अगर सड़क पर मिलता तो पहचान ही नहीं पाता. जब बीते दिनों की बातें चुक गयीं तो कुछ समझ नहीं आया कि क्या बात करें. इतने सालों में हमारे जीवनों में जो कुछ हुआ था, उससे हमारे बीच की बातें कुछ कम हो गयी थीं.

अचानक वह बोला,"तू तो बिल्कुल अँकल टाइप लगता है इन सफेद बालों में. बालों को डाई क्यों नहीं करता?"

उसके बाल घने और गहरे काले थे. मुझे हँसी आ गयी, मैं बोला, "बेटा, तू चाहे तो तू भी मुझे अँकल बुला ले, मैं बुरा नहीं मानूँगा."

वह पहला व्यक्ति नहीं था जिसने बाल रँगने करने के लिए मुझे कहा था. पहले भी कुछ लोगों से यही बात सुन चुका था.

यह सच है कि मैंने कई बार सोचा है कि अपने बालों का एक लच्छा जामुनी या हरे रंग में रंगवा लूँ, लेकिन उनको काला करके अधिक जवान दिखने की मेरी कभी कोई इच्छा नहीं हुई. एक बार मँगोलिया में यात्रा के दौरान एक लड़का मिला था जिसने अपने बाल हलके भूरे रंग में रँगवाये थे, जो मुझे बहुत अच्छा लगा था और मन में आया था कि अपने बाल वैसे ही भूरे रँगवा लूँ.

अपने बालों को जो काला नहीं रंगवाना चाहता, इसके पीछे बात है मेरे पिता के परिवार के इतिहास की.

मेरे दादा द्वारका प्रसाद छोटे से थे जब उनके पिता का देहाँत हुआ था. वह अपने बड़े भाई बेनी प्रसाद की छत्रछाया में बड़े हुए. द्वारका प्रसाद 33 वर्ष के थे, जब उनका देहाँत हुआ था. उस समय मेरे पिता ओम प्रकाश तीन साल के थे. मैं स्वयं बीस साल का था जब मेरे पिता का देहाँत हुआ था.

बचपन से ही मेरे मन में यह बात घर कर गयी थी कि हमारे परिवार में पिताओं को अपने बच्चों को ठीक से बड़ा होते देखना नसीब नहीं होता. बहुत सालों तक मेरे अपने मन में भी डर था कि अपने बेटे को ठीक से बड़ा होते देखने का मुझे भी मौका नहीं मिलेगा. पर ऐसा नहीं हुआ. मुझे अपने बेटे का बड़ा होना, उसका नौकरी करना, उसका विवाह, सब कुछ देखने को मिला.

इसलिए मुझे लगता है कि बहुत किस्मत से इतनी पुश्तों के बाद हमारे परिवार में मेरे बेटे को सफेद बालों वाला पिता मिला है. जब हम दोनों शाम को कभी बाग में बाते करते हुए घूम रहे होते हैं तो कभी कभी सोचता हूँ कि मेरे पिता, दादा, परदादा, सभी हम दोनो के साथ साथ ही घूम रहे हैं, हमारी बातें सुन रहे हैं और खुश हो रहे हैं.

आप ही कहिये, इतनी किस्मत से मिले सफ़ेद बाल, इनको कैसे रँगा जा सकता है?

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हमारी कुछ पुरानी तस्वीरें:

Sunil & Marco Tushar

Sunil, Nadia & Marco Tushar

Sunil & Marco Tushar

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हमारी भाषा कैसे बनी

कुछ दिन पहले मैंने जाने-माने डॉक्यूमैंट्री फ़िल्म निर्देशक अरुण चढ़्ढ़ा की १८५७ के लोक-गीतों पर बनी फ़िल्म के बारे में लिखा था। आज उन्हीं की ए...

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