रविवार, जून 26, 2005

स्टीर्ट रेव फैस्टीवल

बोलोनिया की स्टीर्ट रेव फैस्टीवल के मज़े

हर साल की तरह, इस साल भी गरमियों का मतलब की बोलोनिया मे रोज़ भिन्न भिन्न नाटक, नृत्य, फ़िल्म आदि के प्रोग्राम होते हैं. कल रात को मैं स्टीर्ट रेव फैस्टीवल मे गया. रेव फ़ैस्टीवल का अर्थ है कि सड़कों पर संगीत हो और सब लोग मिल कर नाचें. इस वर्ष यस फैस्टीवल कल २५ जून को शुरु हुआ और आज रात को करीब आधी रात तक स्माप्त होगा. इससे पहले इस रैव फैस्टीवल के बारे में केवल सुना था क्योंकि शहर के बहुत से लोग इसके खिलाफ़ हैं, उनके ख़्याल से यह केवल गन्दगी फ़ैलाने, शोर मचाने और तोड़ फ़ोड़ करने का बहाना है.

जब मारगेरीता बाग पहुँचा जहाँ आस फैस्टीवल का प्रारम्भ होना था, दूर से ही संगीत सुनायी दे रहा था. करीब पहुँच कर तो संगीत इतना तेज़ कि कान के परदे हिल जायें. लोग, अधिकतर जवान लड़के और लड़कियाँ गरमी के मारे कपड़े उतार जोर शोर से नाच रहे थे, बियर पी रहे थे और कहीं कोई मारिजुआना जैसे नशे में मग्न थे. कुछ होली जैसा माहोल लग रहा था. सबसे बड़ी मुसीबत थी तेज़ संगीत का शोर, इसीलिये मैं आधे घंटे में ही पस्त हो कर वहाँ से लौट आया. सच है कि ये सब मज़े तमाशे एक उम्र तक ही शोभा देते हैं.

आज से मेरा ब्लौग ब्लौगर.कौम में शिफ्ट हौ गया है. पहले तो इस बारे में मुझे बहुत डर लग रहा कि कैसे होगा पर फिर हिन्दी वेबरिंग के देबाशीष की मदद से सब कुछ हो गया.

शनिवार, जून 25, 2005

वापस बोलोनिया

आज की तस्वीर में एक बार फ़िर से बिबयोने के घोड़े

छुट्टियाँ खत्म हो गयीं और हम सब वापस बोलोनिया आ गये हैं. घर आ कर अज़ीब लग रहा है. यहाँ गरमी भी है और उमस भी यूँ कि जी घबरा जाये. बिबियोने मे समय का अहसास ही मिट गया था, चाहे जितने बजे उठो, चाहे जितने बजे खाना खाओ, बस सैर, तैरना, सोना और देर तक अखबार पढ़ना. घर वापस आ कर कुछ अज़ीब लगता है, फ़िर से वही घड़ी की तानाशाही और भागम भाग.


घर वापस आ कर टेलीफ़ोन की आनसरिंग मशीन पर अंजोर और मिन्नी दीदी का मैसेज. मिन्नी दीदी आजकल अमरीका में हैं.

बुधवार, जून 22, 2005

श्यौराज सिहं बेचैन


बिबियोने के पास घुड़सवारी सेंटर मे घोड़े

छुट्टियाँ इतनी जल्दी बीत रहीं हैं कि पता ही नहीं चला. परसों घर वापस जाने का दिन होगा. इन दिनों मे युनीकोड की इस रघु लिपि मे लिखने का खूब अभ्यास हो रहा है. हिन्दी लिखने की रफ्तार भी तेज हौ गयी है बस १ ही कठिनाइ है कि जो शब्द इतामवी कीबोर्ड की वजह से नहीं लिख पाता हूँ, उन्हें लिखने का तरीका समझ नहीं आया. शूशा लिपि मे अल्ट का बटन दबा कर कुछ नम्बर दबाओ तो अधिकतर शब्द लिखे जाते हैं पर रघु मे यह मुमकिन नहीं लगता.
आज दिन मे जून के हँस मे श्यौराज सिहं बेचैन की आत्मकथा "राहें बदलीं कि जीवन बदलता गया" पढ़ना शुरु किया तो उसे अधूरा छोड़ने का मन ही नहीं किया. नादिया को कहा था कि आज शाम को हम लोग लाइट हाऊस की तरफ लम्बी सैर करने जायेंगे. दोपहर में कुछ देर आराम करने के बाद वो तैयार हो गयी पर मेरा वह आत्मकथा अधूरा छोड़ने का जरा भी मन नहीं था. जब १ घँटे के बाद पुरा पढ़ कर के हँस को बन्द किया तभी चैन आया. रास्ते में घूमते समय भी मन मे बार बार उस आत्मकथा की ही बातें याद आ रहीं थीं.
आज की कविता है इसी आत्मकथा सेः
मेरे बचपन के नाजुक से नन्हे कदम,
जिस तरफ मुड़ गये रास्ता बन गया.
धूप में,
छांव में, शहर में, गांव में,
भूख ले कर चली और मैं चलता गया,
दुख का येहसास
बेचैन करता गया,
मुक्ति का भाव मानस में बढ़ता गया.
पूरा संसार पुस्तक सा
खुलता गया,
जितना पढ़ पाया मैं उतना पढ़ता गया.
इतनी काली अंधेरी विरासत
मिली,
मेरे भीतर का दीपक था जलता गया.
क्या चला मैं जो लाखौं वहीं रुक
गये,
राहें बदलीं के जीवन बदल सा गया.

सोमवार, जून 20, 2005

मल्लिका शेरावत

समुद्र तट पर सैर करते वृद्ध प्रेमियों का जोड़ा

हिन्दी के सप्ताह के नाम, जैसे सोमवार, बुधवार इत्यादि कब और कैसे बने? क्या हमने अंग्रेजी के सन्डे, मन्डे वगैरह को ले कर उनका हिन्दी में उनुवाद कर लिया या फिर ये तो हमारी भाषा में पहले से ही थे ? अगर इन्हें अंग्रेजी से लिया गया है तो हमारी हिन्दी में अग्रेजों के आने से पहले उन दिनों के क्या नाम होते थे ?

आज हवा चल रही है सुबह से ‌ सुबह तो समुद्र मे नहाने गया था पर आज दुपेहर को घर से निकलने का मन नहीं कर रहा. सुबह समुद्र के पानी मे पीठ पर लेटा आखेँ बन्द करके तैर रहा था, मन मे गाने के शब्द गूँज रहे थे, "मचलती हुई हवा मे छम छम, हमारे संग संग चलें गंगा की लहरें.." आँख खोली तो देखा तट से काफी दूर आ गया था ‌ पाँव नीचे लगाने की कोशिश की तो पाया कि पानी गहरा था और जमीन पर पाँव नहीं लगते थे ‌ १ क्षण के लिये तो डर लगा पर फिर बिना किसी दिक्कत के वापस तट के समीप आ गया ‌ बाद मे सोच रहा था कि कुछ भी मौका हो, यह हमारे मन मे हिन्दी फिल्मों के गाने ही क्यों आ जाते हैं?
जून के हँस मे मिन्नी दीदी की नयी कविता छपी है, "२" जिसमे लिखा हैः
"तुम अगर सुंदर या आजाद न हुई होतीं
तो हादसा न होता,
क्योंकि वह तो होता ही
रहता है
स्त्री की देह के साथ...
लेकिन पूछो तो सही १ बार,
हमलावर की जबान
पर नाम किसका था."
यह कविता मल्लिका शेरावत की देह से उत्तेजित युवक के बारे मे है और उसी युवक की शिकार १ लड़की के बारे मे ‌ यह मान कर भी स्त्रियों पर हमले तो हमेशा होते ही आये हैं और अक्सर उस स्थिति मे लड़की के कपड़ों या व्यवहार को ही दोषी ठहराया जाता है "क्योंकि उनसे वह लड़कियाँ बेचारे भोले लड़कों पर बुरे काम करने पर मजबूर करतीं हैं". यानि कि गलती तो हर हाल मे लड़की या स्त्री की ही होगी. पर मैं यह नही मानता. मेरे ख्याल से मल्लिका शेरावत जैसी लड़कियां ही वह वदलाव लायेंगी जिससे हर लड़की सिर ऊँचा कर के चल पायेगी. लड़कियों पर अकेले मे हमला करने वालों मे कोई दम नहीं होता, डरपोक होते हैं वह और अगर लड़कियाँ हिम्मत से सर ऊँचा कर के चलें और कोई सामने छेड़े तो उसे खुल कर, चिल्ला कर जोर से गाली दे सकें तो शायद उनमे से आधे तो डर से भाग जायें ?

शनिवार, जून 18, 2005

ब्रान्दो के साथ सैर

समुद्री पाइन के पेड़ों की छत से ढ़का रास्ता


आज शनिवार है ‌ अभी सुबह जब ब्रान्दो के साथ सैर को निकला तो विभिन्न घरों के सामने लोगों के झुंड खड़े थे, अपना अपना सामान लिये हुये, अपनी बस का इन्तजार में. कुछ दूर पर एक अजैंसी के बाहर एक बस से उतर कर लोग अपने अपने घर की अलाटमैंट की इन्तजार कर रहे थे. इटली के आस पास के देश जैसे जर्मनी, पोलैंड, चेक आदि से सब टूरिस्ट शुक्रवार की रात को चलते हैं और यहाँ शनिवार को सुबह पहुचते हैं और फिर पिछले हफ्ते के आये टूरिस्टों को ले कर बसें वापस लौट जानीं हैं.

पहले एक देश होता था चेकोस्लोवाकिया और आज दो देश हैं चेक और स्लोवाकिया. यहाँ इन दोनो देशों को अलग होने मे कोई खून खराबा नहीं हुआ, क्यों? आज के यूरोप मे क्यों छोटे छोटे देश बनाने का क्या फायदा जब की दूसरी ओर से कोशिश हो रही है कि संयुक्त्त राष्टृ यूरोप का निर्माण करने का ?

जैसे आज यूरोप मे एक देश से दूसरे देश जाने मे न तो वीसा चाहिये और न ही वहाँ काम ढ़ूढ़ंने के लिये कोई परमिशन, अगर भारत, बांगलादेश, श्रीलंका, नेपाल आदि देशों मे यूँ होने लगे तो कैसा होगा ? शायद इन सब देशों से बहुत से लोग भारत की तरफ आ जायेंगे क्यों कि भारत में कमाने के अधिक मौके मिल सकते हैं, पर इसी तरह भारतीय व्यापारी भी तो इन नये देशों मे व्यापार बढ़ाने के नये माध्यम खोज सकते हैं ‌ क्या एक दिन वैसा हो सकेगा ?

शुक्रवार, जून 17, 2005

लाईट हाऊस

बोलोनिया की "पेर तोत" यानि, ग्रीष्म ऋतु के स्वागत फैस्टिवल में तैयार होता एक कलाकार

सुबह ६ बजे नींद खुली, नाश्ता किया और ब्रान्दो के साथ सैर को निकल गया, लाईट हाऊस की तरफ. रास्ते में पाइन के पेड़ों की और उनके पीछे दिख रहे समुद्र की बहुत सारी तस्वीरें खींचीं. लाईट हाऊस पहुँच कर पाया कि वहाँ एक इतालवी टी. वी. फिल्म की [फिल्म का नाम था "समुद्र के सामने ज़ुर्म"] शूटिगं चल रही थी इस लिये वह सब रास्ता बंद कर दिया गया था.
पर वहाँ कोई भीड़ भड़्क्का नहीं था शूटिंग देखने के लिये ‌ शायद इसलिये भी कि बिब्योने के टूरिस्ट भिन्न भिन्न यूरोपी देशों से आये हैं और शायद उन्हें इतालवी फिल्मी सितारों में कोई दिलचस्पी ही नहीं है?

ब्रान्दो के साथ सैर पर जाने का यह फायदा होता है कि रास्ते में मिलने वाले सभी कुत्ता स्वामियों से सलाम या कम से कम थोड़ी मुस्कुराहट तो हो ही जाती है. जब भी कोई कुत्ता दिखता है मेरा पहला सवाल होता है "मास्कियो ओ फैम्मिना?" यानी पुरुष कुत्ता या स्त्री कुत्ता?
पुरुष कुत्तों से ब्रान्दो की बिल्कुल नहीं बनती इस लिये रुकने का सवाल ही नहीं होता. स्त्री कुत्तों के स्वामियों से अवश्य कुछ बात हो जाती है. आज इस पुरुष और स्त्री जाँच मे भाषा की बाधा बार बार आ रही थी क्योंकि कोई पोलिश बोलने वाला तो कोई जर्मन या हन्गेरियन या अन्य पूर्वी यूरोप भाषी.
ढ़ाई घँटे के बाद घर वापस लौटे तो मेरी और ब्रान्दो दोनो की हालत खस्ता हो रही थी.

सोमवार, जून 13, 2005

बिब्योने की छुट्टियँ।

मारको और ब्रान्दो

आज से यह ब्लोग शुशा फौंट में नहीं बल्कि युनीकोड में रघु फौंट मे लिखा जायेगा. हिन्दी वेबरिंग के
देबआशिष ने इस ब्लोग को ठीक करने की कुछ कोशिश की तो उसी से युनीकोड के बारे में मालूम हुआ पहले तो सोचा कि कौन सीखेगा इस नये कीबोर्ड को पर कुछ कोशिश कर के देखा तो लगा कि इसमे लिखना खास कठिन नहीं है.


रघु में लिखना शुशा के मुकाबले मे अधिक आसान है बस अभी कुछ वोकलस् लिखना समझ नहीं आया
आज हम लोग बिब्योने मे जो उत्तरी इटली मे वेनिस के करीब है, वहाँ छुट्टियों मे आये हैं. आज ही यहाँ पहुँचे हैं, अब अगले दिनों मे हिन्दी लिखने का अभ्यास करने का समय मिलेगा.

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