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बुधवार, मार्च 04, 2015

जीवन का अंत

चिकित्सा विज्ञान तथा तकनीकी के विकास ने "जीवन का अंत" क्या होता है, इसकी परिभाषा ही बदल डाली है. जिन परिस्थितियों में दस बीस वर्ष पहले तक मृत्यू को मान लिया जाता था, आज तकनीकी विकास से यह सम्भव है कि उनके शरीरों को मशीनों की सहायता से "जीवित" रखा जाये. लेकिन जीवन का अंतिम समय कैसा हो यह केवल चिकित्सा के क्षेत्र में हुए तकनीकी विकास और मानव शरीर की बढ़ी समझ से ही नहीं बदला है, इस पर चिकित्सा के बढ़ते व्यापारीकरण का भी प्रभाव पड़ा है. तकनीकी विकास व व्यापारीकरण के सामने कई बार हम स्वयं क्या चाहते हैं, यह बात अनसुनी सी हो जाती है.

तो जब हमारा अंतिम समय आये उस समय हम किस तरह का जीवन और किस तरह की मृत्यू चुनते हैं? किस तरह का "जीवन" मिलता है जब हम अंतिम दिन अस्पताल के बिस्तर में गुज़ारते हैं? इस बात का सम्बन्ध जीवन की मानवीय गरिमा से है. यह बात इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इसकी कीमत केवल पैसों में नहीं मापी जा सकती है, बल्कि इसकी एक भावनात्मक कीमत भी है जो हमारे परिवारों व प्रियजनों को उठानी पड़ती है. आज मैं इसी विषय पर अपने कुछ विचार आप के सामने रखना चाहता हूँ.

ICU in an Indian hospital - Image by Sunil Deepak

चिकित्सा क्षेत्र में तकनीकी विकास

पिछले कुछ दशकों में चिकित्सा विज्ञान ने बहुत तरक्की की है. आज कई तरह के कैंसर रोगों का इलाज हो सकता है. कुछ जोड़ों की तकलीफ़ हो तो शरीर में कृत्रिम जोड़ लग सकते हैं. हृदय रोग की तकलीफ हो तो आपरेशन से हृदय की रक्त धमनियाँ खोली जा सकती हैं. कई मानसिक रोगों का आज इलाज हो सकता है. नये नये टेस्ट बने हैं. घर में अपना रक्तचाप मापना या खून में चीनी की मात्रा को जाँचना जैसे टेस्ट मरीज स्वयं करना सीख जाते हैं. नयी तरह के अल्ट्रासाउँड, केटस्केन, डीएनए की जाँच जैसे टेस्ट छोटे शहरों में भी उपलब्ध होने लगी हैं.

इन सब नयी तकनीकों से हमारी सोच में अन्तर आया है. आज हमें कोई भी रोग हो, हम यह अपेक्षा करते हैं कि चिकित्सा विज्ञान इसका कोई न कोई इलाज अवश्य खोजेगा. कोई रोग बेइलाज हों, यह मानने के लिए हम तैयार नहीं होते.

कुछ दशक पहले तक, अधिकतर लोग घरों में ही अपने अंतिम क्षण गुज़ारते थे. उन अंतिम क्षणों के साथ मुख में गंगाजल देना, या बिस्तर के पास रामायण का पाठ करना जैसी रीतियाँ जुड़ी हुईं थीं. लेकिन शहरों में धीरे धीरे, घर में अंतिम क्षण बिताना कम हो रहा है. अगर अचानक मृत्यू न हो तो आज शहरों में अधिकतर लोग अपने अंतिम क्षण अस्पताल के बिस्तर पर बिताते हैं, अक्सर आईसीयू के शीशों के पीछे. जब डाक्टर कहते हैं कि अब कुछ नहीं हो सकता तब भी अंतिम क्षणों तक नसों में ग्लूकोज़ या सैलाइन की बोतल लगी रहती है, नाक में नलकी डाल कर खाना देते रहते हैं. अगर साँस लेने में कठिनाई हो तो साँस के रास्ते पर नली लगा कर तब तक वैंन्टिलेटर से साँस देते हैं जब तक एक एक कर के दिल, गुर्दे व जिगर काम करना बन्द नहीं कर देते. जब तक हृदय की धड़कन मापने वाली ईसीजी मशीन में दिल का चलना आये और ईईजी की मशीन से मस्तिष्क की लहरें दिखती रहीं, आप को मृत नहीं मानते और आप को ज़िन्दा रखने का तामझाम चलता रहता है.

वैन्टिलेटर बन्द किया जाये या नहीं, ग्लूकोज़ की बोतल हटायी जाये या नहीं, दिल को डिफ्रिब्रिलेटर से बिजली के झटके दे कर दोबारा से धड़कने की कोशिश की जाये या नहीं, यह सब निर्णय डाक्टर नहीं लेते. अगर केवल डाक्टर लें तो उन पर "मरीज़ को मारने" का आरोप लग सकता है. यह निर्णय तो डाक्टर के साथ मरीज़ के करीबी परिवारजन ही ले सकते हैं. पर परिवार वाले कैसे इतना कठोर निर्णय लें कि उनके प्रियजन को मरने दिया जाये? चाहे कितना भी बूढ़ा व्यक्ति हो या स्थिति कितनी भी निराशजनक क्यों न हो, जब तक कुछ चल रहा है, चलने दिया जाता है. बहुत कम लोगों में हिम्मत होती है कि यह कह सकें कि हमारे प्रियजन को शाँति से मरने दिया जाये.

अपने प्रियजन के बदले में स्वयं को रख कर सोचिये कि अगर आप उस परिस्थिति में हों तो आप क्या चाहेंगे? क्या आप चाहेंगे कि उन अंतिम क्षणों में आप की पीड़ा को लम्बा खींचा जाये, जबरदस्ती वैन्टिलेटर से, नाक में डली नलकी से, ग्लूकोज़ की बोतल और इन्जेक्शनों से आप के अंतिम दिनों को जितना हो सके लम्बा खीचा जाये?

चिकित्सा का व्यापारीकरण

लोगों की इन बदलती अपेक्षाओं से "चिकित्सा व्यापार" को फायदा हुआ है. कुछ भी बीमारी हो, वह लोग उसके लिए दबा कर तरह तरह के टेस्ट करवाते हैं. महीनों इधर उधर भटक कर, पैसा गँवा कर, लोग थक कर हार मान लेते हैं. भारत में प्राइवेट अस्पतालों में क्या हो रहा है,  किसी से छुपा नहीं है. उनके कमरे किसी पाँच सितारा होटल से कम मँहगे नहीं होते. लेकिन सब कुछ जान कर भी आज की सोच ऐसी बन गयी है कि कुछ भी हो बड़े अस्पताल में स्पेशालिस्ट को दिखाओ, दसियों टेस्ट कराओ, क्योंकि इससे हमारा अच्छा इलाज होगा.

गत वर्ष में आस्ट्रेलिया के एक नवयुवक डाक्टर डेविड बर्गर ने चिकित्सा विज्ञान की विख्यात वैज्ञानिक पत्रिका "द ब्रिटिश मेडिकल जर्नल" में भारत के चिकित्सा संस्थानों के बारे में अपने अनुभवों पर आधारित एक आलेख लिखा था जिसकी बहुत चर्चा हुई थी. वह भारत में छह महीनों के लिए एक गैरसरकारी संस्था के साथ वोलैंटियर का काम करने आये थे.

डा. बर्गर ने लिखा था कि "भारत में हर क्षेत्र में भ्रष्टाचार कैसर की तरह फ़ैला है. इस भ्रष्टाचार की जड़े चिकित्सा की दुनिया में हर ओर गहरी फ़ैली हैं जिसका प्रभाव डाक्टर तथा मरीज़ के सम्न्धों पर भी पड़ता है. स्वास्थ्य सेवाएँ भी विषमताओं से भरी हैं, भारत में स्वास्थ्य सेवाओं का निजिकरण दुनिया में सबसे अधिक है. भारत में बीमारी पर होने वाला सत्तर प्रतिशत से भी अधिक खर्चा, लोग स्वयं उठाते हैं. यानि स्वास्थ्य सेवाओं का निजिकरण अमरीका से भी अधिक है. जिनके पास पैसा है उन्हें आधुनिक तकनीकों की स्वास्थ्य सेवा मिल सकती है, हालाँकि इसकी कीमत उन्हें उँची देनी पड़ती है. पर भारत के अस्सी करोड़ लोगों को यह सुविधा नहीं, उनके लिए केवल घटिया स्तर के सरकारी अस्पताल या नीम हकीम हैं जिनको किसी का डर नहीं. लेकिन अमीर हों या गरीब, भ्रष्टाचार सबके लिए बराबर है."

हाल ही में एक गैर सरकारी संस्था "साथी" (Support for Advocacy and Training to Health Initiatives) ने भारतीय चिकित्सा सेवा में लगी सड़न की रिपोर्ट निकाली है, जिसमें बहुत से डाक्टरों ने साक्षात्कार दिये हैं और किस तरह से भ्रष्टाचार से चिकित्सा क्षेत्र प्रभावित है इसका खुलासा किया है. इस रिपोर्ट में 78 डाक्टरों के साक्षात्कार हैं कि किस तरह भारतीय चिकित्सा सेवाएँ लालच तथा भ्रष्टाचार से जकड़ी हुई हैं. प्राइवेट अस्पतालों में व्यापारिता इतनी बढ़ी है कि किस तरह से अधिक फायदा हो इस बात का उनके हर कार्य पर प्रभाव है.

एक सर्जन ने बताया कि अस्पताल के डायरेक्टर ने उनसे शिकायत की कि उनके देखे हुए केवल दस प्रतिशत लोग ही क्यों आपरेशन करवाते हैं, यह बहुत कम है और इसे चालिस प्रतिशत तक बढ़ाना पड़ेगा, नहीं तो आप कहीं अन्य जगह काम खोजिये.

अगर डाक्टर किसी को हृद्य सर्जरी एँजियोप्लास्टी के लिए रेफ़र करते हें तो उन्हें इसकी कमीशन मिलती है. एमआरआई, ईसीजी जैसे टेस्ट भी कमीशन पाने के लिए करवाये जाते हैं.

कुछ दिन पहले मुम्बई की मेडिएँजलस नामक संस्था ने भी अपने एक शोध के बारे में बताया था जिसमें बारह हज़ार मरीजों के, जिनके आपरेशन हुए थे, उनके कागज़ों की जाँच की गयी. इस शोध से निकला कि हृदय में स्टेन्ट लगाना, घुटने में कृत्रिम जोड़ लगाना, कैसर का इलाज या बच्चा न होने का इलाज जैसे आपरेशनों में 44 प्रतिशत लोगों के बिना ज़रूरत के आपरेशन किये गये थे.

डाक्टरों ने किस तरह से कई सौ औरतों को गर्भालय के बिना ज़रूरत आपरेशन किये, इसकी खबर भी कुछ वर्ष पहले अखबारों में छपी थी.

इन समाचारों व रिपोर्टों के बावजूद, क्या स्थिति कुछ सुधरी है? आप अपने व्यक्तिगत अनुभवों के बारे में सोचिये और बताईये कि क्या चिकित्सा क्षेत्र में भ्रष्टाचार कम हुआ है या बढ़ा है?

विभिन्न जटिल स्थितियाँ

पर इस वातावरण में ईमानदार डाक्टर होना भी आसान नहीं. आप को कुछ भी रोग हो या तकलीफ़, चिकित्सक यह कहने से हिचकिचाते हैं कि उस तकलीफ़ का इलाज नहीं हो सकता. अगर वह ऐसा कहें भी तो मरीज़ इसे नहीं मानना चाहते हैं तथा सोचते हैं कि किसी अन्य जगह में किसी अन्य चिकित्सक की सलाह लेनी चाहिये. यानि अगर कोई चिकित्सक ईमानदारी से समझाना चाहे कि उस बीमारी का कुछ इलाज नहीं हो सकता तो लोग कहते हें कि वह चिकित्सक अच्छा नहीं, उसे सही जानकारी नहीं.

अगर बिना ज़रूरत के एन्टीबायटिक, इन्जेक्शन आदि के दुर्पयोग की बात हो तो देखा गया है कि लोग यह मानते हैं कि मँहगी दवाएँ, इन्जेक्शन देने वाला डाक्टर बेहतर है. लोग माँग करते हैं कि उन्हें ग्लूकोज़ की बोतल चढ़ायी जाये या इन्जेक्शन दिया जाये क्योंकि उनके मन में यह बात है कि केवल इनसे ही इलाज ठीक होता है.

ऐसी एक घटना के बारे में कुछ दिन पहले असम के जोरहाट शहर के पास एक चाय बागान में सुना. बागान में काम करने वाले मजदूर के चौदह वर्षीय बेटे को दीमागी बुखार हुआ और बुखार के बाद वह दोनों कानों से बहरा हो गया. मेडिकल कालेज में उन्हें कहा गया कि दिमाग के अन्दर के कोषों को हानि पहुँच चुकी है जिसकी वजह से बहरा होने का कुछ इलाज नहीं हो सकता. उन्होंने सलाह दी कि लड़के को बहरों की इशारों की भाषा सिखायी जानी चाहिये. पर वह नहीं माने, बेटे को ले कर कई अन्य अस्पतालों में भटके. अंत में डिब्रूगढ़ के एक अस्पताल में बच्चे को भरती भी किया गया. कई जगह उसके एक्सरे, अल्ट्रसाउँड, केट स्केन जैसे टेस्ट हुए. इसी इलाज के चक्कर में उन्होंने अपनी ज़मीन बेच दी, कर्जा भी लिया, जिसे चुकाने में उन्हें कई साल लगेंगे, पर बेटे की श्रवण शक्ति वापस नहीं आयी. घर में सन्नाटे में बन्द बेटा अब मानसिक रोग से भी पीड़ित हो गया है. यह कथा सुनाते हुए उसके पिता रोने लगे कि बेटे की बीमारी में सारे परिवार के भविष्य का नाश हो गया.

इसमें किसको दोष दिया जाये? शायद भारत की सरकार को जो स्वतंत्रता के साठ वर्ष बाद भी नागरिकों को सरकारी चिकित्सा संस्थानों में स्तर की चिकित्सा नहीं दे सकती? उन चिकित्सा संस्थानों को जो जानते थे कि बहुत से टेस्ट ऐसे थे जिनसे उस लड़के को कोई फायदा नहीं हो सकता था लेकिन फ़िर भी उन्होंने करवाये? या उन माता पिता का, जो हार नहीं मानना चाहते थे और जिन्होंने बेटे को ठीक करवाने के चक्कर में सब कुछ दाँव पर लगा दिया?

जीवन के अंत की दुविधाएँ

शहरों में रहने वाले हों तो परिवार में किसी की स्थिति गम्भीर होते ही सभी अस्पताल ले जाने की सोचते हैं. लेकिन जब बात वृद्ध व्यक्ति की हो या फ़िर गम्भीर बीमारी के अंतिम चरण की, तो ऐसे में अस्पताल से हमारी क्या अपेक्षाएँ होती हैं कि वह क्या करेंगे? जो खुशकिस्मत होते हैं वह अस्पताल जाने से पहले ही मर जाते हैं. पर अगर उस स्थिति में अस्पताल पहुँच जायें,  तो उस अंतिम समय में क्या करना चाहये, यह निर्णय लेना आसान नहीं. कैंसर का अंतिम चरण हो या अन्य गम्भीर बीमारी जिससे ठीक हो कर घर वापस लौटना सम्भव नहीं तो मशीनों के सहारे जीवन लम्बा करना क्या सचमुच का जीवन है या फ़िर शरीर को बेवजह यातना देना है?

कोमा में हो बेहोश हो कर, मशीनों के सहारे कई बार लोग हफ्तों तक या महीनों तक अस्पतालों में आईसीयू पड़े रहते हैं. परिवार वालों के लिए यह कहना कि मशीन बन्द कर दीजिये आसान नहीं. उन्हें लगता है कि उन्होंने पैसा बचाने के लिए अपने प्रियजन को जबरदस्ती मारा है. व्यापारी मानसिकता के डाक्टर हों तो उनका इसी में फायदा है, वह उस अंतिम समय का लम्बा बिल बनायेंगे.

ईमानदार डाक्टर भी यह निर्णय नहीं लेना चाहते. वह कैसे कहें कि कोई उम्मीद नहीं और शरीर को यातना देने को लम्बा नहीं खींचना चाहिये? वह सोचते हैं कि यह निर्णय तो परिवार वाले ही ले सकते हैं. इस विषय में बात करना बहुत कठिन है क्योंकि मन में डर होता है कि उस परिस्थिति में कुछ भी कहा जायेगा तो उसका कोई उल्टा अर्थ न निकाल ले या फ़िर भी मरीज़ की हत्या करने का आरोप न लगा दिया जाये.

अपना बच्चा हो या अपने माता पिता, कहाँ तक लड़ाई लड़ना ठीक है और कब हार मान लेनी चाहिये, इस प्रश्न के उत्तर आसान नहीं. हर स्थिति के लिए एक जैसा उत्तर हो भी नहीं सकता. जब तक ठीक होने की आशा हो, तो अंतिम क्षण तक लड़ने की कोशिश करना स्वाभाविक है. लेकिन जब वृद्ध हों या ऐसी बीमारी हो जिससे बिल्कुल ठीक होना सम्भव नहीं हो या फ़िर जीवन तो कुछ माह लम्बा हो जाये पर वह वेदना से भरा हो तो क्या करना चाहिये? कौन ले यह निर्णय कि ओर कोशिश की जाये या नहीं?

अपने अंतिम समय का निर्णय

भारतीय मूल के अमरीकी चिकित्सक अतुल गवँडे ने अपनी पुस्तक "बिइन्ग मोर्टल" (Being Mortal) में इस विषय पर, अपने पिता के बारे में तथा अपने कुछ मरीजों के अनुभवों के बारे में बहुत अच्छा लिखा है. मालूम नहीं कि यह पुस्तक हिन्दी में उपलब्ध है या नहीं, पर हो सके तो इसे अवश्य पढ़िये. उनका कहना है कि हमें अपने होश हवास रहते हुए अपने परिवार वालों से इस विषय में अपने विचार स्पष्ट रखने चाहिये कि जब हम ऐसी अवस्था में पहुँचें, जब हमारी अंत स्थिति आयी हो, तो हमें मशीनों के सहारे ज़िन्दा रखा जाये या नहीं. किस तरह की मृत्यू चाहते हैं हम, इसका निर्णय केवल हम ही ले सकते हैं. ताकि जब हमारा अंत समय आये तो हमारी इच्छा के अनुसार ही हमारा इलाज हो.

जब हमें होश न रहे, जब हम अपने आप खाना खाने लायक नहीं रहें या जब हमारी साँस चलनी बन्द हो जाये, तो कितने समय तक हमें मशीनों के सहारे "ज़िन्दा" रखा जाये? इसका निर्णय हमारी परिस्थितियों पर निर्भर करेगा और हमारे विचारों पर. अगर मैं सोचता हूँ कि महीनों या सालों, इस तरह स्वयं के लिए "जीवित" रहना नहीं चाहता तो आवश्यक नहीं कि बाकी लोग भी यही चाहते हैं. यह निर्णय हर एक को अपने विचारों के अनुसार लेने का अधिकार है. और आवश्यक है कि हम अपने प्रियजनों से इस विषय में खुल कर बात करें तथा अपनी इच्छाओं के बारे में स्पष्ट रूप से कहें.

अपने बारे में मेरी अंतिम इच्छा मेरे दिमाग में स्पष्ट है. मुझे लगता है कि मैंने अपना सारा जीवन पूरी तरह जिया है, अपने हर सपने को जीने का मौका मिला है मुझे. जहाँ तक हो सके, मैं अपने घर में मरना चाहूँगा. अगर मेरी स्थिति गम्भीर हो तो मैं चाहूँगा कि मुझे अपने पारिवार का सामिप्य मिले, लेकिन मुझे मशीनों के सहारे ज़िन्दा रखने की कोई कोशिश न की जाये!

मैंने इस विषय में कई बार अपनी पत्नी, अपने बेटे से बात भी की है और अपने विचार स्पष्ट किये हैं. आप ने क्या सोचा है अपने अंतिम समय के बारे में?

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सोमवार, दिसंबर 01, 2014

जातिवाद को बदलना

हम लोग यात्रा में मिले थे. वह मुझसे करीब चालिस वर्ष छोटा था. बातों बातों में जाति की बात उठी तो वह बोला कि भारत में जातिवाद बहुत उपयोगी है, इससे समाज के हर व्यक्ति को मालूम रहता है कि समाज में उसका क्या स्थान है और उसे क्या काम करना चाहिये.

Castes in India - collage on Ambedkar and Mayawati by Sunil Deepak

मुझे पहले तो कुछ हँसी आयी, सोचा कि शायद वह मज़ाक कर रहा है. मैंने कहा, "तो तुम्हारा मतलब है कि सबको अपनी जाति के अनुसार ही काम करना चाहिये? यानि अगर कोई झाड़ू सफ़ाई का काम करता है तो उसके बच्चों को भी केवल यही काम करना चाहिये?"

वह बोला, "हाँ. अगर वह नहीं करेंगे तो यह सब काम कौन करेगा?"

इस तरह की सोच वाले पढ़े लिखे लोग आज की दुनिया में होंगे, यह नहीं सोचा था. मालूम है कि भारत में जातिवाद की जड़े बहुत गहरी हैं और यह जातिवाद बहुत क्रूर तथा मानवताविहीन भी हैं. समाचार पत्रों में इसके बारे में अक्सर दिल दहलाने वाले समाचार छपते हैं. यह भी मालूम है कि बहुत से पढ़े लिखे लोग सोचते हैं कि विश्वविद्यालय स्तर पर पढ़ाई में या नौकरी में दलित तथा पिछड़ी जाति के लोगों के लिए रिर्ज़वेश्न गलत है या कम होना चाहिये. लेकिन आज की दुनिया में शहर में रहने वाला पढ़ा लिखा व्यक्ति यह भी सोच सकता है कि लोगों को जाति के अनुसार काम करना चाहिये, इसकी अपेक्षा नहीं थी.

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कुछ माह पहले मध्यप्रदेश में राजीव से मुलाकात हुई थी. वह ब्लाक स्तर के एक उच्च विद्यालय में "मेहमान शिक्षक" है और जन समाजवादी परिषद का कार्यकर्ता भी है. राजीव ने बताया कि वह चमार जाति से है.

"तुम्हें विद्यालय में क्या जातिवादियों से कोई कठिनाई नहीं होती?", मैंने उससे पूछा था. उसने बताया था कि प्रत्यक्ष रूप से भेदभाव कम होता है, पर विभिन्न छोटी छोटी बातों में भेदभाव हो सकता है, विषेशकर खाने पीने से जुड़ी बातों में.

राजीव के साथ एक दिन मोटरगाड़ी में घूमने गये तो हमारी गाड़ी के ड्राईवर थे ब्राहम्ण और उनका नाम था दुबे जी. सारे रास्ते में दुबे जी सारा समय राजीव से बातें करते रहे. बीच में जब खाने के लिए रुके तो दुबे जी अपना खाना घर से ले कर आये थे, उन्होंने अपनी कुछ पूरियाँ और सब्जियाँ मुझे भी दी और राजीव को भी. हमारे खाने से उन्होंने कुछ नहीं लिया, पर चूँकि उनके पास खाना बहुत था और हमारे खाने से अच्छा भी, यह नहीं कह सकता कि उसके पीछे कोई जातिवाद की बात थी या नहीं. पर मुझे राजीव व दुबे जी सरल मित्रतापूर्ण बातचीत और व्यवहार देख कर अच्छा लगा.

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क्या हमारे समाज से कभी जातिवाद का जहर जड़ से मिटे सकेगा, मेरे मन में यह प्रश्न उठा. एक अन्य प्रश्न भी है - जो लोग जातिवाद के विरुद्ध लड़ रहे हैं, क्या हम चाहते हें कि हमारे जीवन के हर पहलू से जातिवाद मिटे या हम केवल जातिवाद के कुछ नकारात्मक अंशों को मिटाना चाहते हैं लेकिन पूरी जाति व्यवस्था को चुनौती नहीं देना चाहते?

कुछ माह पहले मैंने उत्तरप्रदेश में स्वास्थ्य कर्मचारी के कोर्स में पढ़ने वाले  तृतीय वर्ष के 36 छात्र - छात्राओं से एक शोध के लिए कुछ प्रश्न पूछे. उत्तर देने वालों में से 90 प्रतिशत युवतियाँ थीं और 10 प्रतिशत युवक. अधिकतर लोग मध्यम वर्ग या निम्न मध्यम वर्ग से थे. बहुत से लोगों के माता पिता अधिक पढ़े लिखे नहीं थे, हालाँकि कुछ लोगों के पिता ने विश्वविद्यालय स्तर की पढ़ाई की थी. उनमें से करीब 80 प्रतिशत लोग दलित या पिछड़ी जातियों से थे.

मेरे प्रश्नों ने उत्तर में 98 प्रतिशत लोगों ने कहा कि वे अपने परिवार द्वारा चुने अपनी जाति के युवक या युवती से ही विवाह करेंगे. करीब 75 प्रतिशत का कहना था कि अगर कोई युवक युवती विभिन्न जातियों के हैं और उनके माता पिता उनके विवाह के विरुद्ध हैं तो उन्हें अपने परिवार की राय माननी चाहिये और जाति से बाहर विवाह नहीं करना चाहिये. पर उनमें से 90 प्रतिशत लोगों ने कहा कि वह खाने पीने, मित्रता बनाने, आदि में भेदभाव के विरुद्ध थे.

करीब 10 प्रतिशत लोगों ने यह भी माना कि उनके परिवारों में बड़े बूढ़े लोग समान्य जीवन में, खाने पीने में, एक दूसरे के घर जाने में, आदि में भेदभाव वाली बातों को ठीक मानते हैं लेकिन वह स्वयं इन बातों में विश्वास नहीं रखते.

इस शोध से यह स्पष्ट है कि जातिवाद भारतीय सामाजिक जीवन में विभिन्न स्तरों पर बहुत गहरा फ़ैला है - हम किससे विवाह करें, किससे मित्रता, किसके साथ घूमें, किसके साथ बैठें, किसके साथ खाना खायें, इन सब बातों में आज भी जाति की बातें जुड़ी है. जहाँ किसी स्तर पर भेदभाव को सही नहीं भी मानते, अन्य स्तरों पर, उसे स्वीकृत करते हैं. चूँकि उत्तर देने वाले अधिकांश लोग स्वयं दलित या पिछड़ी जातियों से थे, जातिवाद से वह भी प्रभावित हैं.

तो क्या हमारी लड़ाई केवल जातिवाद के कुछ नकारात्मक पहलुओं तक सीमित रहनी चाहिये या जीवन के हर पहलू से जाति को निकालने की कोशिश होनी चाहिये? आप का क्या विचार है?

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बुधवार, सितंबर 17, 2014

जीवन बदलने वाली शिक्षा

शिक्षा को जीवन की व्यवाहरिक आवश्यकताओं को पाने के माध्यम, विषेशकर नौकरी पाने के रास्ते के रूप मे देखा जाता है. यानि शिक्षा का उद्देश्य है लिखना, पढ़ना सीखना, जानकारी पाना, काम सीखना और जीवन यापन के लिए नौकरी पाना.

शिक्षा के कुछ अन्य उद्देश्य भी हैं जैसे अनुशासन सीखना, नैतिक मू्ल्य समझना, चरित्रवान व परिपक्व व्यक्तित्व बनाना आदि, लेकिन इन सब उद्देश्यों को आज शायद कम महत्वपूर्ण माना जाता है.

Paulo Freiere & Brazilian experiences - Images by Sunil Deepak, 2014

ब्राज़ील के शिक्षाविद् पाउलो फ्रेइरे (Paulo Freire) ने शिक्षा को पिछड़े व शोषित जन द्वारा सामाजिक विषमताओं से लड़ने तथा स्वतंत्रता प्राप्त करने के माध्यम की दृष्टि से देखा. इस आलेख में पाउले फ्रेइरे के विचारों के बारे में और उनसे जुड़े अपने कुछ व्यक्तिगत अनुभवों की बात करना चाहता हूँ.

पाउलो फ्रेइरे के विचारों से मेरा पहला परिचय 1988 के आसपास हुआ जब मैं पहली बार ब्राज़ील गया था. उस समय मेरा काम स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण से जुड़ा था, तब शिक्षण का मेरा सारा अनुभव लोगों को लैक्चर या भाषण देने का था, जिस तरह से मैंने स्वयं स्कूल और मेडिकल कोलिज में अपने शिक्षकों तथा प्रोफेसरों को पढ़ाते देखा था. ब्राज़ील में लोगों ने मुझे फ्रेइरे की व्यस्कों के लिए बनायी शिक्षा पद्धिति की बात बतायी जिसका सार था कि व्यस्कों की शिक्षा तभी सफल होती है जब वह उन लोगों के जीवन के अनुभवों से जुड़ी हो, जिसमें वे स्वयं निणर्य लें कि वह पढ़ना सीखना चाहते हैं, उनको भाषण देने से शिक्षा नहीं मिलती.

उन्हीं वर्षों में मुझे उत्तर पश्चिमी अफ्रीकी देश गिनी बिसाउ में कुछ काम करने का मौका भी मिला, जहाँ पर पाउलो फ्रेइरे ने भी कुछ वर्षों तक काम किया था. वहाँ भी उनके शिक्षा सम्बंधी विचारों को समझने का मौका मिला. तब से मैंने अपनी कार्यशैली में, स्वास्थ्य कर्मचारियों के प्रशिक्षण से ले कर सामाजिक शोध में फ्रेइरे के विचारों का उपयोग करना सीखा है.

पाउलो फ्रेइरे की क्राँतीकारी शिक्षा

फ्रेइरे ब्राज़ील में 1950-60 के दशक में पिछड़े वर्ग के गरीब अनपढ़ व्यस्कों को पढ़ना लिखना सिखाने के ब्राज़ील के राष्ट्रीय कार्यक्रम में काम करते थे. ब्राज़ील में तानाशाही सरकार आने से उनके काम को उस सरकार ने अपने अपने विरुद्ध एक खतरे की तरह देखा और उन्हें देशनिकाला दिया.

इस वजह से फ्रेइरे ने 1960-70 के दशक में बहुत वर्ष ब्राज़ील के बाहर स्विटज़रलैंड में जेनेवा शहर में बिताये. उन्होंने व्यस्क शिक्षा के अपने अनुभवों पर कई पुस्तकें लिखीं, जिन्होंने दुनिया भर के शिक्षाविषेशज्ञों को प्रभावित किया. फ्रेइरे का कहना था कि अपनी शिक्षा में व्यस्कों को सक्रिय हिस्सा लेना चाहिये और शिक्षा उनके परिवेश में उनकी समस्याओं से पूरी तरह जुड़ी होनी चाहिये.

Paulo Freiere & Brazilian experiences

उनका विचार था कि व्यस्क शिक्षा का उद्देश्य लिखना पढ़ना सीखने के साथ साथ समाज का आलोचनात्मक संज्ञाकरण है जिसमें गरीब व शोषित व्यक्तियों को अपने समाजों, परिवेशों, परिस्थितियों और उनके कारणों को समझने की शक्ति मिले ताकि वे अपने पिछड़ेपन और गरीबी के कारण समझे और उन कारणों से लड़ने के लिए सशक्त हों. इसके लिए उन्होंने कहा कि किसी भी समुदाय में पढ़ाने से पहले, शिक्षक को पहले वहाँ अनुशोध करना चाहिये और समझना चाहिये कि वहाँ के लोग किन शब्दों का प्रयोग करते हैं, उनकी क्या चिँताएँ हैं, वे क्या सोचते हैं, आदि. फ़िर शिक्षक को कोशिश करनी चाहिये कि उसकी शिक्षा उन्हीं शब्दों, चिताँओं आदि से जुड़ी हुई हो.

फ्रेइरे की शिक्षा पद्धति को सरल रूप में समझने के लिए हम एक उदाहरण देख सकते हैं. वर्णमाला का "क, ख, ग" पढ़ाते समय "स" से "सेब" नहीं बल्कि "सरकार" या "साहूकार" या "समाज" भी हो सकता है. इस तरह से "स" से बने शब्द को समझाने के लिए शिक्षक इस विषय से जुड़ी विभिन्न बातों पर वार्तालाप व बहस प्रारम्भ करता है जिसमें पढ़ने वालों को वर्णमाला सीखने के साथ साथ, अपनी सामाजिक परिस्थिति को समझने में भी मदद मिलती है - सरकार कैसे बनती है, कौन चुनाव में खड़ा होता है, क्यों हम वोट देते हैं, सरकार किस तरह से काम करती है, क्यों गरीब लोगों के लिए सरकार काम नहीं करती, इत्यादि. या फ़िर, क्यों साहूकार के पास जाना पड़ता है, किस तरह की ज़रूरते हैं हमारे जीवन में, किस तरह के ऋण की सुविधा होनी चाहिये, इत्यादि.

इस तरह वर्णमाला का हर वर्ण, पढ़ने वालों के लिए नये शब्द सीखने के साथ साथ, लिखना पढ़ना सीखने के साथ साथ, उनको अपनी परिस्थिति समझने का अवसर बन जाता है. फ्रेइरे मानते थे कि व्यस्क गरीबों का पढ़ना लिखना व्यक्तिगत कार्य नहीं सामुदायिक कार्य है, जिससे वह जल्दी सीखते हैं और साथ साथ उनकी आलोचनक संज्ञा का विकास होता है, ताकि वे अपने अधिकारों के लिए लड़ सकें.

फ्रेइरे के विचारों को दुनिया में बहुत गहरा प्रभाव पड़ा है, केवल व्यस्कों की शिक्षा पर नहीं बल्कि अन्य बहुत सी दिशाओं में भी. मैं इस सिलसिले में ब्राज़ील से सम्बंधित तीन छोटे छोटे अनुभवों के बारे में कहना चाहुँगा, जहाँ उनके कुछ विचारों को प्रतिदिन अभ्यास में लाया जाता है.

आशाघर की साँस्कृतिक लड़ाई

गोयास वेल्यो शहर, ब्राज़ील के मध्य भाग में गोयास राज्य की पुरानी राजधानी था. पुर्तगाली शासकों ने यहाँ रहने वाले मूल निवासियों को मार दिया या भगा दिया, और उनकी जगह अफ्रीका से लोगों को खेतों में काम करने के लिए दास बना कर लाया गया. इस तरह से गोयास वेल्यो में आज ब्राज़ील के मूल निवासियों, अफ्रीकी दासों की संतानों तथा यूरोपीय परिवारों के सम्मिश्रण से बने विभिन्न रंगों व जातियों के लोग मिलते हैं.

जैसे भारत में गोरे रंग के प्रति आदर व प्रेम की भावनाएँ तथा त्वचा के काले रंग के प्रति हीन भावना मिलती हैं, ब्राज़ील में भी कुछ वैसा ही है ‍‌- वहाँ का समाज यूरोपीय मूल के सुनहरे बालों और गोरे चेहरों को अधिक महत्व देता है तथा अफ्रीकी या ब्राज़ील की जनजातियों को हीन मानता है.

इस तरह की सोच का विरोध करने के लिए तथा बच्चों को अफ्रीकी व मूल ब्राज़ीली जनजाति सभ्यता के प्रति गर्व सिखाने के लिए, मेक्स और उसके कुछ साथियों ने मिल कर "विल्ला स्पेरान्सा" (Vila Esperanca) यानि आशाघर नाम का संस्थान बनाया. आशाघर में स्थानीय प्राथमिक व माध्यमिक विद्यालयों के बच्चों को पौशाकें, संगीत, नृत्य, गीत, कहानियाँ, भोजन, आदि के माध्यम से अफ्रीकी व मूल ब्राज़ीली संस्कृतियों के बारे में बताया जाता है और इस साँस्कृतिक धरोहर को सुरक्षित रखने के प्रति प्रेरित किया जाता है.

आशाघर में काम करने वाले आरोल्दो ने मुझे बताया कि "मैं यहीं पर खेल कर बड़ा हुआ हूँ और आशाघर की सोच अच्छी तरह समझता हूँ. मेरे मन में भी अपने रंग और अफ्रीकी मूल के नाक नक्क्षे के प्रति हीन भावना थी. यह तो बहुत से स्कूल सिखाते हैं कि सब मानव बराबर हैं, ऊँच नीच की सोच ठीक नहीं है, लेकिन वे केवल बाते हैं, लोग कहते हैं लेकिन उससे हमारी सोच नहीं बदलती. यहाँ आशाघर में हम कहते नहीं करते हैं, जब अन्य संस्कृतियों का व्यक्तिगत अनुभव होगा, उनके नृत्य व संगीत सीख कर, उनके वस्त्र पहन कर, उनकी कथाएँ सुन कर, वह भीतर से हमारी सोच बदल देता है."

Paulo Freiere & Brazilian experiences - Images by Sunil Deepak, 2014

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प्रश्नों का विद्यालय

आशाघर के पास ही एक प्राथमिक विद्यालय भी है जहाँ पर बच्चों को पाउलो फ्रेइरे के विचारों पर आधारित शिक्षा दी जाती है. इस शिक्षा का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है कि बच्चों को हर बात को प्रश्न पूछ कर अपने आप समझने की शिक्षा दी जाये. इस विद्यालय की कक्षाओं में बच्चों को कुछ भी रटने की आवश्यकता नहीं, बल्कि सभी विषय प्रश्न-उत्तर के माध्यम से बच्चे स्वयं पढ़ें व समझें.

बच्चा कुछ भी सोचे और कहे, उसे बहुत गम्भीरता से लिया जाता है. बच्चे केवल स्कूल की कक्षा में नहीं पढ़ते बल्कि उन्हें प्रकृति के माध्यम से भी पढ़ने सीखने का मौका मिलता है. स्कूल की कक्षाओं में एक शिक्षक के साथ बच्चे अधिक नहीं होते हैं, केवल आठ या दस, ताकि हर बच्चे को शिक्षक ध्यान दे सके.

सुश्री रोज़आँजेला जो इस प्राथमिक विद्यालय की मुख्याध्यापिका हैं ने मुझे कहा कि, "हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे दुनिया बदल दें, उनमें इतना आत्मविश्वास हो कि किसी भी बात के बारे में पूछने समझने से वे नहीं झिकझिकाएँ. जब माध्यमिक स्कूल के शिक्षक मुझे कहते हैं कि हमारे स्कूल से निकले बच्चे बहस करते हैं और प्रश्न बहुत पूछते हैं और हर बात के बारे में अपनी राय बताते हैं, तो मुझे बहुत अच्छा लगता है."

Paulo Freiere & Brazilian experiences - Images by Sunil Deepak, 2014

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कृषि विद्यालय का अनुभव

शिक्षा का तीसरा अनुभव ब्राज़ील के तोकान्चिन राज्य के "पोर्तो नास्योनाल" (Porto Nacional) नाम के शहर से है. पाउलो फ्रेइरे के पुराने साथी डा. एडूआर्दो मानज़ानो (Dr Eduardo Manzano) ने यहाँ 1980 के दशक में स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करना शुरु किया. फ़िर समय के साथ उनके इस काम में एक कृषि विद्यालय भी जुड़ गया.

यह कृषि विद्यालय सामान्य विद्यालयों जैसा है और प्राथमिक से ले कर हाई स्कूल तक की शिक्षा देता है. लेकिन इसकी एक खासयित यह भी है कि यहाँ के बच्चे अन्य विषयों के साथ साथ यह भी पढ़ते हैं कि कृषि कैसे करते हैं, मवेशियों का कैसे ख्याल किया जाना चाहिये, इत्यादि.

डा. मानज़ानो ने मुझे बताया कि, "हमारी शिक्षा पद्धिति ऐसी बन गयी है कि हमारे विद्यार्थी कृषि व किसानों को अनपढ़, गवाँर समझते हैं. किसान परिवारों से आने वाले बच्चे भी हमारे विद्यालयों में यही सीखते हैं कि अच्छा काम आफिस में होता है जबकि कृषि का काम घटिया है, उसमें सम्मान नहीं है. हम चाहते हैं कि किसान परिवारों से आने वाले बच्चे कृषि के महत्व को समझें, अच्छे किसान बने, किसान संस्कृति और सोच का सम्मान करें. हमारा स्कूल इस तरह से काम करता है कि बच्चों के मन में कृषि व कृषकों के प्रति समझ व सम्मान हों, वे अपने परिवारों व अपनी पारिवारिक संस्कृति से जुड़े रहें."

Paulo Freiere & Brazilian experiences - Images by Sunil Deepak, 2014

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निष्कर्श

पाउले फ्रेइरे के विचारों का दुनिया भर में ग्रामीण विकास, शिक्षा, मानव अधिकारों के लिए लड़ाईयाँ जैसे अनेक क्षेत्रों में बहुत गहरा असर पड़ा है. उनके विचार केवल तर्कों पर नहीं बने थे, उनका आधार रोज़मर्रा के जीवन के ठोस अनुभव थे.

भारत में भी शिक्षा के क्षेत्र में बहुत से सुन्दर व प्रशँसनीय अनुभव हैं जिनके बारे में मैंने पढ़ा है. पर भारत में सामान्य सरकारी विद्यालयों में और गाँवों के स्कूलों में शिक्षा की स्थिति अक्सर दयनीय ही रहती है. इस स्थिति को कैसे बदला जाये यह भारत के भविष्य के लिए चुनौती है.

***

सोमवार, अगस्त 18, 2014

भाषा, स्वास्थ्य अनुसंधान और वैज्ञानिक पत्रिकाएँ

पिछली सदी में दुनिया में स्वास्थ्य सम्बंधी तकनीकों के विकास के साथ, बीमारियों के बारे में हमारी समझ बढ़ी है जितनी मानव इतिहास में पहले कभी नहीं थी. पैनिसिलिन का उपयोग द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान प्रारम्भ हुआ. पहली डायलाईसिस की मशीन का उपयोग भी द्वितीय विश्व महायुद्ध के दौरान 1943 में हुआ. डा. क्रिस्चियन बर्नारड ने पहली बार 1967 में मानव में दिल का पहला ट्राँस्प्लाँट किया.

स्वास्थ्य सम्बंधी तकनीकों के विकास का असर भारत पर भी पड़ा. जब भारत स्वतंत्र हुआ था उस समय भारत में औसत जीवन की आशा थी केवल 32 वर्ष, आज वह 65 वर्ष है. यानि भारत में भी स्थिति बदली है हालाँकि विकसित देशों के मुकाबले जहाँ औसत जीवन आशा 80 से 85 वर्ष तक है, हम अभी कुछ पीछे हैं. बहुत सी बीमारियों के लिए जैसे कि गर्भवति माँओं की मृत्यू, बचपन में बच्चों की मृत्यू, पौष्ठिक खाना न होने से बच्चों में कमज़ोरी, मधुमेह, कुष्ठ रोग और टीबी, भारत दुनिया में ऊँचे स्थान पर है.

विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में नयी खोजों व अनुसंधानों को वैज्ञानिक पत्रिकाओं या जर्नल (journals) में छापा जाता है. इस तरह की दुनिया की सबसे महत्वपूर्ण पत्रिकाएँ अधिकतर अंग्रेज़ी भाषा में हैं. चीन, फ्राँस, इटली, स्पेन, ब्राज़ील आदि जहाँ अंग्रेज़ी बोलने वाले कम हैं, यह देश दुनिया में होने वाले महत्वपूर्ण शौधकार्यों को अपनी भाषाओं में अनुवाद करके छापते हैं, ताकि उनके देश में काम करने वाले लोग भी नयी तकनीकों व जानकारी को समझ सकें. लेकिन यह बात हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाओं पर लागू नहीं होती, क्योंकि यह सोचा जाता है कि हमारे यहाँ के वैज्ञानिक अंग़्रज़ी जानते हैं.

अगर किसी भाषा में हर दिन की सामान्य बातचीत नहीं होगी तो उसका प्राकृतिक विकास रुक जायेगा. अगर उसमें नया लेखन, कविता, साँस्कृतिक व कला अभिव्यक्ति नहीं होगी तो उसका कुछ हिस्सा बेजान हो जायेगा. अगर वह विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में होने वाली नयी खोजों और शौध से कटी रहेगी तो उस भाषा को जीवित रहने के लिए जिस ऑक्सीज़न की आवश्यकता है वह उसे नहीं मिलेगी. इसलिए हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं को बोलने वालों को किस तरह से यह जानकारी मिले यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है.

Health, research and scientific journals graphic by Sunil Deepak, 2014

लेकिन भाषा के अतिरिक्त, वैज्ञानिक शौध, विषेशकर स्वास्थ्य सम्बंधी शौध के साथ अन्य भी कुछ प्रश्न जुड़े हैं जिनके बारे में जानना व समझना महत्वपूर्ण है. अपनी इस पोस्ट में मैं उन्हीं प्रश्नों की चर्चा करना चाहता हूँ. 

हिन्दी में विज्ञान व स्वास्थ्य सम्बंधी जानकारी

अगर विज्ञान व तकनीकी के विभिन्न पहलुओं को आँकें तो उनमें हिन्दी न के बराबर है. कुछ विज्ञान पत्रिकाओं या इंटरनेट पर गिने चुने चिट्ठों को छोड़ दें तो अन्य कुछ नहीं दिखता. स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी नये अंतरराष्ट्रीय व राष्ट्रीय अनुसंधान क्या बता रहे हैं इसकी निष्पक्ष जानकारी हिन्दी में मिलना कठिन है.

देश के विभिन्न शहरों में पाँच सितारा मल्टी स्पैलिटी अस्पताल खुल रहे हैं जो आधुनिक तकनीकों से हर बीमारी का नया व बढ़िया इलाज करने का आश्वासन देते हैं. दवा कम्पनियों वाले अपनी हर दवा को बेचने के लिए मार्किटिन्ग तकनीकों व जानी मानी ब्राँड के सहारे से यह दिखाना चाहते हैं कि उनकी दवा बेहतर है इसलिए उसका मँहगा होना स्वभाविक है. पर उन सबकी विश्वासनीयता को किस कसौटी से मापा जाना चाहिये?

जीवन के अन्य पहलुओं की तरह, आज स्वास्थ्य के क्षेत्र पर भी व्यवसायी दृष्टिकोण ही हावी हो रहा है, इसलिए कोई भी जानकारी हो, उसकी विश्वासनीयता परखना आवश्यक हो गया है. अगर लोग मार्कटिन्ग की तकनीकों से आप को विषेश ब्राँड के कपड़े, जूते, टीवी या वाशिन्ग मशीन बेचें तो शायद नुकसान नहीं. लेकिन जब उन तकनीकों का आप के मन में अपने स्वास्थ्य के बारे में डर जगाने व पैसा कमाने के लिए प्रयोग किया जाये तो क्या आप इसे उचित मानेंगे?

इस बात के विभिन्न पहलू हैं, जिनके बारे में मैं आज बात करना चाहता हूँ. बात शुरु करते हैं प्रोस्टेट के कैन्सर से. प्रोस्टेट एक ग्रँथि होती है जो पुरुषों में पिशाब के रास्ते के पास, लिंग की जड़ के करीब पायी जाती है. यह सामान्य रूप में छोटे अखरोट सी होती है. जब यह ग्रँथि बढ़ जाती है, कैन्सर से या बिना कैन्सर वाले ट्यूमर से, तो इससे पिशाब के रास्ते में रुकावट होने लगती है और पुरुष को पिशाब करने में दिक्कत होती है. यह तकलीफ़ अक्सर पचास पचपन वर्ष के पुरुषों को शुरु होती है और उम्र के साथ बढ़ती है.

प्रोस्टेट कैन्सर को जानने का टेस्ट 

कुछ दिन पहले मैंने मेडस्केप पर अमरीका के डा. रिचर्ड ऐ एबलिन का साक्षात्कार पढ़ा. डा. एबलिन ने 1970 में एक प्रोस्टेट ट्यूमर के एँटिजन की खोज की थी. सन 1990 से उस एँटिजन पर आधारित एक टेस्ट बनाया गया था जिसका प्रयोग यह जानने के लिए किया जाता है कि किसी व्यक्ति को प्रस्टेट का ट्यूमर है या नहीं. अगर यह टेस्ट यह बताये कि शरीर में यह एँटिजन है यानि टेस्ट पोस्टिव निकले तो प्रोस्टेट के छोटे टुकड़े को निकाल कर, उसकी बायप्सी करके, उसकी माइक्रोस्कोप में जाँच करनी चाहिये. माइक्रोस्कोप में अगर कैन्सर के कोष दिखें तो तो उसका तुरंत इलाज करना चाहिये, अक्सर उनका प्रोस्टेट का ऑपरेशन करना पड़ता है. यह टेस्ट पचास वर्ष से अधिक उम्र वाले पुरुषों को हर दो तीन साल में कराने की सलाह देते हैं ताकि अगर उन्हें प्रोस्टेट कैन्सर हो तो उसका जल्दी इलाज किया जा सके.

अपने साक्षात्कार में डा. एबलिन ने बताया है कि उनका खोज किया हुआ "प्रोस्टेट एँटिजन", एक ट्यूमर का एँटिजन है, कैन्सर का नहीं. अगर ट्यूमर कैन्सर नहीं हो तो सभी को उसका ऑपरेशन कराने की आवश्यकता नहीं होती. अगर ट्यूमर कैंन्सर नहीं हो तो उसका ऑपरेशन तभी करते हैं जब उसकी वजह से पिशाब करने में दिक्कत होने लगे.

लेकिन अगर टेस्ट पोस्टिव आये तो लोगों के मन में कैन्सर का डर बैठ जाता हैं हालाँकि यह टेस्ट बहुत भरोसेमन्द नहीं और 70 प्रतिशत लोगों बिना किसी ट्यूमर के झूठा पोस्टिव नतीजा देता है. कई डाक्टर उन सभी लोगों को ऑपरेशन कराने की सलाह देते हैं, यह नहीं बताते कि 70 प्रतिशत पोस्टिव टेस्ट में न कोई कैन्सर होता है न कोई ट्यूमर. बहुत से सामान्य डाक्टर भी इस बात को नहीं समझते. इस टेस्ट के साथ दुनिया के विभिन्न देशों में टेस्ट कराने का और ऑपरेशनों का करोड़ों रुपयों का व्यापार जुड़ा है.

कुछ इसी तरह की बातें, बड़ी आँतों में कैन्सर को जल्दी पकड़ने के लिए पाखाने में खून के होने की जाँच कराने वाले स्क्रीनिंग टेस्ट तथा स्त्री वक्ष में कैन्सर को जल्दी पकड़ने के लिए मैमोग्राफ़ी के स्क्रीनिंग टेस्ट कराने की भी है. उनके बारे में भी कहा गया है कि यह स्क्रीनिंग टेस्ट केवल अस्पतालों के पैसा बनाने के लिए किये जाते हैं और इनका प्रभाव इन बीमारियों को जल्दी पकड़ने या नागरिकों के जीवन बचाने पर नगण्य है.

विदेशों में जहाँ सभी नागरिकों को राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा की सुविधा है, इन टेस्टों को स्क्रीनिन्ग के लिए उपयोग करते हैं, यानि आप के घर में चिट्ठी आती है कि फलाँ दिन को निकट के स्वास्थ्य केन्द्र में यह टेस्ट मुफ्त कराईये. भारत में राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा नहीं के बराबर है और सरकार की ओर से नागरिकों के स्वास्थ्य के लिए बजट दुनिया में बहुत कम स्तर पर है, जिसके बहुत से नुक्सान हैं, लेकिन कुछ फायदा भी है क्योंकि इस तरह के स्क्रीनिंग टेस्टों में सरकारी पैसा बरबाद नहीं किया जाता. दूसरी ओर स्वास्थ्य सेवाओं के निजिकरण में भारत दुनिया के अग्रणी देशों में से है, जिससे शहरों में रहने वाले लोग पैसा कमाने के चक्कर में लगे लोगों के शिकार बन जाते हैं, विषेशकर नये पाँच सितारा मल्टी स्पैशेलिटी अस्पतालों में.

बात केवल पैसे की नहीं. अधिक असर पड़ता है लोगों के मन में बैठाये डर का कि आप को कैन्सर है या हो सकता है. अगर टेस्ट के 70 प्रतिशत परिणाम गलत होते हैं, और जिन 30 प्रतिशत लोगों में परिणाम ठीक होते हैं, उनमें से कुछ को ही कैन्सर होता है, बाकियों को केवल कैन्सर विहीन ट्यूमर होता है तो क्या यह उचित है कि लोगों के मन में यह डर बिठाया जाये कि उन्हें कैन्सर हो सकता है?

अन्तर्राष्ट्रीय शौध पत्रिकाएँ

विज्ञान के हर क्षेत्र में कुछ भी नया महत्वपूर्ण शौध हो तो उसके बारे में जानने के लिए प्रसिद्ध अन्तर्राष्ट्रीय जर्नल या पत्रिकाएँ होती हैं, जिनमें छपना आसान नहीं और जिनमें छपने वाली हर रिपोर्ट व आलेख को पहले अन्य वैज्ञानिकों द्वारा जाँचा परखा जाता है. स्वास्थ्य की बात करें तो भारत में भी कुछ इस तरह की पत्रिकाएँ अंग्रेज़ी में छपती हैं लेकिन इन्हें अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में अधिक मान्यता नहीं मिली है. स्वास्थ्य के सर्वप्रसिद्ध जर्नल अधिकतर अमरीकी या यूरोपीय हैं और अंग्रेज़ी में हैं. अन्य यूरोपीय भाषाओं में छपने वाली पत्रिकाओं को अंग्रेज़ी जर्नल जितनी मान्यता नहीं मिलती. विकासशील देशों से प्रसिद्ध अंग्रेज़ी के जर्नल में छपने पाली शौध-आलेख बहुत कम होते हैं, हालाँकि विकासशील देशों में से भारतीय शौध‍-आलेखों का स्थान ऊँचा है.

अधिकतर अंग्रेज़ी की प्रसिद्ध वैज्ञानिक पत्रिकाएँ मँहगी भी होती हैं इसलिए उन्हें खरीदना विकासशील देशों में आसान नहीं. पिछले कुछ सालों में इंटरनेट के माध्यम से, कुछ प्रयास हुए हैं कि शौध को पढ़ने वालों को मुफ्त उपलब्ध कराया जाये, इनमें प्लोस पत्रिकाओं (PLOS - Public Library of Science) को सबसे अधिक महत्व मिला है.

स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने वाले बहुत से लोग नये शौध अनुसंधान के महत्व को नहीं समझते. बहुत से डाक्टर अंग़ेज़ी जानते हुए भी, इंटरनेट के होते हुए भी, वह इस विषय में नहीं पढ़ते. बहुत से डाक्टरों के लिए दवा कम्पनियों के लोग जो उनके क्लिनिक में दवा के सेम्पल के कर आते हैं, वही नयी जानकारी का सोत्र होते हैं. पर क्या कोई दवा बेचने वाला निष्पक्ष जानकारी देता है या अपनी दवा की पक्षधर जानकारी देता है?

दूसरी ओर वह लोग हैं जिन्हें जर्नल में छपने वाली अंग्रेज़ी समझ नहीं आती, क्योंकि इस तरह की वैज्ञानिक पत्रिकाओं में कठिन भाषा का प्रयोग किया जाता है. भारत में सामान्य अंग्रेज़ी बोलने समझने वाले बहुत से लोग, चाहे वह डाक्टर हो या नर्स या फिज़ियोथैरापिस्ट, वह भी इस तरह से नये शौधों के बारे में चाह कर भी नहीं जान पाते.

कौन लिखता है अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं में शौध-आलेख?

शौध पत्रिकाओं का क्षेत्र भी समाज के व्यवसायीकरण से अछूता नहीं रह पाया है. और अगर कोई पत्रिका व्यवसाय को सबसे ऊँचा मानेगी तो उसका शौधो-विषयों व शौध-आलेखों के छपने पर क्या असर पड़ेगा, यह समझना आवश्यक है.

अंतर्राष्ट्रीय उपभोक्ता संगठन "क्ज़ूमर इंटरनेशनल" की 2007 की रिपोर्ट "ड्रगस, डाक्टर एँड डिन्नरस" (Drugs, doctors and dinners - दवाएँ, चिकित्सक व दावतें) में इस बात की चर्चा थी कि बहुदेशीय दवा कम्पनियाँ किस तरह डाक्टरों पर प्रभाव डालती हैं कि वे उनकी मँहगी दवाएँ अधिक से अधिक लिखें. साथ ही, जेनेरिक दवाईयों जो सस्ती होती है, के विरुद्ध प्रचार किया जाता है कि अगर दवा का अच्छा ब्राँड नाम नहीं हो तो वह नकली हो सकती हैं या उनका प्रभाव कम पड़ता है.

एक अन्य समस्या है कि स्वास्थ्य के विषय पर छपने वाले प्रतीष्ठित अंतर्राष्ट्रीय जर्नल-पत्रिकाओं पर दवा कम्पनियों का प्रभाव. 2011 में अंग्रेज़ी समाचार पत्र "द गार्डियन" में एलियट रोस्स ने अपने आलेख में बताया कि किस पत्रिका में क्या छपेगा और क्या नहीं यह दवा कम्पनियों के हाथ में है. यह कम्पनियाँ चूँकि इन पत्रिकाओं में अपने विज्ञापन छपवाती हैं, पत्रिकाओं के मालिक उन्हें नाराज़ नहीं करना चाहते और किसी प्रसिद्ध दवा कम्पनी की किसी दवा के बारे में नकारात्मक रिपोर्ट हो तो उसे नहीं छापते. यही कम्पनियाँ नये शौधकार्य में पैसा लगाती हैं और अगर शौध के नतीजे उन्हें अच्छे न लगें तो उसकी रिपोर्ट को नहीं छपवाती. वह अपनी दवाओं के बारे में उनके असर को बढ़ा चढ़ा कर दिखलाने वाले आलेख लिखवा कर प्रतिष्ठित डाक्टरों के नामों से छपवाती हैं, जिससे डाक्टरों को अपना नाम देने का पैसा या अन्य फायदा मिलता है - इसे भूतलेखन (Ghost-writing) कहते हैं. किस वैज्ञानिक पत्रिका में क्या छपवाया जाये इस पर काम करने वाली दवा कम्पनियों से सम्बंधित 250 से अधिक एजेन्सियाँ हैं जो इस काम को पैशेवर तरीके से करती हैं.

अमरीकी समाचार पत्र वाशिन्गटन पोस्ट में छपी 2012 की एक रिपोर्ट के अनुसार, सन् 2000 में प्रसिद्ध वैज्ञानिक पत्रिका "न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसन" में नयी दवाओं के शौध के बारे में 73 आलेख छपे जिनमें से 60 आलेख दवा कम्पनियों द्वारा प्रयोजित थे. इस विषय पर छान बीन करने वाले विशेषज्ञों का कहना है कि पिछले दशक में स्थिति और भी अधिक बिगड़ी है.

इस स्थिति के जन स्वास्थ्य पर पड़ने वाले बुरे असर के कई उदाहरण मिल सकते हैं, जैसे कि मेरक्क कम्पनी के दो शौधकर्ताओं ने जोड़ों के दर्द की दवा वियोक्स के अच्छे असर के बारे में बढ़ा चढ़ा कर आलेख लिखा. वयोक्स की बिक्री बहुत हुई. पाँच साल बाद मालूम चला कि इन दोनो शौधकर्ताओं ने अपने आलेख में दवा के साइड इफेक्ट यानि बुरे प्रभावों को छुपा लिया था क्योंकि इस दवा से लोगों को दिल की बीमारियाँ हो रहीं थीं. जब अमरीका में हल्ला मचा तो इस दवा को बाज़ार से हटा दिया गया.

विकसित देशों में जब किसी दवा के बुरे असर की समाचार आते हैं तो सरकार उसकी जाँच करवाती है और उस दवा को बाज़ार से हटाना पड़ता है. लेकिन यह कम्पनियाँ अक्सर सब कुछ जान कर भी विकासशील देशों में उन दवाओं को बेचना बन्द नहीं करती, जब तक वहाँ की सरकारें इसके बारे में ठोस कदम नहीं उठातीं. कई अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बैन की हुई दवाईयाँ हैं जो विकासशील देशों में खुले आम बिकती हैं.

शौध को समझने की दिक्कतें

जहाँ एक ओर शौध के बारे में निष्पक्ष जानकारी मिलना कठिन है, वहाँ दूसरी समस्या है शौधों के नतीजो़ को समझना. वैज्ञानिक पत्रिकाओं में नयी दवाओं के असर को अधिकतर इस तरह से प्रस्तुत किया जाता है जिससे लोगों को स्पष्ट समझ न आये. इस समस्या को समझने के लिए मैं आप को सरल किया हुआ एक उदाहरण देता हूँ.

मान लीजिये कि एक दवा "क" किसी बीमारी से पीड़ित केवल 5 प्रतिशत लोगों को ठीक करती है, पर बाकी 95 प्रतिशत बीमार लोगों पर उसका कुछ असर नहीं होता. आपने एक नयी दवा "ख" बनाई है, जिसको लेने से उस बीमारी से पीड़ित 10 प्रतिशत लोग ठीक होते हैं और 90 प्रतिशत पर उसका असर नहीं हो. अब आप अपने शौध के बारे में इस तरह से आलेख लिखवाईये और इसके विज्ञापन प्रसारित कीजिये कि "नयी ख दवाई पुरानी दवा के मुकाबले में 100 प्रतिशत अधिक शक्तिशाली है". इस तरह के प्रचार से बहुत से लोग, यहाँ तक कि बहुत से डाक्टर भी, सोचने लगते हैं कि "ख" दवा सचमुच बहुत असरकारक है हालाँकि उसका 90 प्रतिशत बीमार लोगों पर कुछ असर नहीं है.

यही वजह है कि दवा कम्पनियों के प्रतिनिधियों द्वारा दिये जाने वाली विज्ञापन सामग्री पर विश्वास करने वाले डाक्टर भी अक्सर धोखा खा जाते हैं.

आज की दुनियाँ में जहाँ लोग सोचते हें कि इंटरनेट पर सब जानकारी मिल सकती है, सामान्य लोग कैसे समझ सकते हैं कि जिस नयी जादू की दवा के बारे में वह इंटरनेट पर पढ़ रहे हैं, वह सब दवा कम्पनियों द्वारा बिक्री बढ़ाने के तरीके हैं. चाहे दवा हो या चमत्कारी तावीज़ या कोई मन्त्र, लोगों के विश्वास का गलत फ़ायदा उया कर, सबको उल्लू बना कर पैसा कमाने के तरीके हैं. लेकिन इंटरनेट का फायदा यह है कि अगर आप खोजेंगे तो आप को उन उल्लू बनाये गये लोगों की कहानियाँ भी पढ़ने को मिल सकती हैं जिसमें में वह उस चमात्कारी दवा की सच्चाई बताते हैं.

निष्कर्ष

एक ओर भारत में समस्या है कि दुनियाँ में होने वाले मौलिक शौध की जानकारी हिन्दी या अन्य भाषाओं में मिलना कठिन है.

दूसरी ओर, अंग्रेज़ी की अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक पत्रिकाएँ किस तरह के शौध के विषय में जानकारी देती हैं और उन पत्रिकाओं पर व्यवसायिक मूल्यों का कितना असर पड़ता है, इसके विषय वैज्ञानिक समाज में आज बहुत से प्रश्न उठ रहे हैं. मैंने इस विषय के कुछ हिस्सों को ही चुना है और उनका सरलीकरण किया है, पर इससे जुड़ी बहुत सी बातें जटिल हैं और जनसाधारण की समझ से बाहर भी.

इनसे आम जनता को तो दिक्कत है ही, स्वास्थ्य क्षेत्र में काम करने वालों के लिए भी आज यह चुनौती है. प्लोस जैसी वैज्ञानिक पत्रिकाओं के माध्यम से शायद भविष्य में कौन सी शौध छपती है इस पर अच्छा प्रभाव पड़े लेकिन आलेखों को पढ़ने व समझने की चुनौतियों के हल निकालना आसान नहीं. इस सब जानकारी को सरल भाषा में हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाओं में कैसे उपलब्ध कराया जाया यह चुनौती भी आसान नहीं.

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शुक्रवार, अप्रैल 04, 2014

यह जीवन किसका?

पाराम्परिक भारतीय सोच के अनुसार अक्सर बच्चों को क्या पढ़ना चाहिये और क्या काम करना चाहिये से ले कर किससे शादी करनी चाहिये, सब बातों के लिए माता पिता, भैया भाभी, दादा जी आदि की आज्ञा का पालन करना चाहिये. कुछ उससे मिलती जुलती सोच हमारे नेताओं और समाजसेवकों की है जो हर बात में नियम बनाते हैं कि कौन सी फ़िल्म को या किताब को बैन किया जाये, फैसबुक पर क्या लिखा जाये, साड़ी पहनी जाये, जीन्स पहनी जाये या स्कर्ट, बाल कितने लम्बे रखे जाये, आदि.

अपने बच्चों को अपने निर्णय अपने आप करने देने के विषय पर मुझे लेबानीज़ लेखक ख़लील गिब्रान की एक कविता बहुत अच्छी लगती है (अनुवाद मेरा ही है):
तुम्हारे बच्चे तुम्हारे बच्चे नहीं हैं
वह तो जीवन की अपनी आकाँक्षा के बेटे बेटियाँ हैं
वह तुम्हारे द्वारा आते हैं लेकिन तुमसे नहीं
वह तुम्हारे पास रहते हैं लेकिन तुम्हारे नहीं.
तुम उन्हें अपना प्यार दे सकते हो लेकिन अपनी सोच नहीं
क्योंकि उनकी अपनी सोच होती है
तुम उनके शरीरों को घर दे सकते हो, आत्माओं को नहीं
क्योंकि उनकी आत्माएँ आने वाले कल के घरों में रहती हैं
जहाँ तुम नहीं जा सकते, सपनों में भी नहीं.
तुम उनके जैसा बनने की कोशिश कर सकते हो,
पर उन्हें अपने जैसा नहीं बना सकते,
क्योंकि जिन्दगी पीछे नहीं जाती, न ही बीते कल से मिलती है.
तुम वह कमान हो जिससे तुम्हारे बच्चे
जीवित तीरों की तरह छूट कर निकलते हैं
तीर चलाने वाला निशाना साधता है एक असीमित राह पर
और अपनी शक्ति से तुम्हें जहाँ चाहे उधर मोड़ देता है
ताकि उसका तीर तेज़ी से दूर जाये.
स्वयं को उस तीरन्दाज़ की मर्ज़ी पर खुशी से मुड़ने दो,
क्योंकि वह उड़ने वाले तीर से प्यार करता है
और स्थिर कमान को भी चाहता है.
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इसी तरह की सोच हमारे जीवन के हर पहलू में होती है. डाक्टर बनो तो कुछ आदत सी हो जाती है कि लोगों को सलाहें दो कि उन्हें क्या करना चाहिये, क्या खाना चाहिये, क्या नहीं करना चाहिये. लोगों को भी यह अपेक्षा सी होती है कि डाक्टर साहब या साहिबा उन्हें कुछ नसीहत देंगे. मेडिकल कोलिज में मोटी मोटी किताबें पढ़ कर इम्तहान पास करने से मन में अपने आप ही यह सोच आ जाती है कि हम सब कुछ जानते हैं और लोगों को हमारी बात सुननी व माननी चाहिये. डाक्टरी की पढ़ाई पूरी करने के बाद, मैं भी बहुत सालों तक यही सोचता था. फ़िर दो अनुभवों ने मुझे अपनी इस सोच पर विचार करने को बध्य किया. आप को उन्हीं अनुभवों के बारे में बताना चाहता हूँ.

Doctor lives grafic by Sunil Deepak, 2014

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पहला अनुभव हुआ सन् 1989 में मुझे मोरिशयस द्वीप में, जब वहाँ एक विकलाँग जन पुनरस्थापन यानि रिहेबिलेटेशन कार्यक्रम (Disability rehabilitation programme) का निरीक्षण करने गया. चँकि मोरिशियस में बहुत से लोग भारतीय मूल के हैं, तुरंत वहाँ मुझे अपनापन सा लगा. पोर्ट लुईस के अस्पताल में फिजिकल थैरपी विभाग के अध्यक्ष डा. झँडू ने मुझे घुमाने के सारे इन्तज़ाम किये थे. एक फिज़ियोथैरेपिस्ट मेरे साथ थे और हम लोग एक गाँव में गये थे. वहीं एक घर में हम लोग एक स्त्री से मिलने गये जिनकी उम्र करीब चालिस पैतालिस के आसपास थी. बहुत छोटी उम्र से ही उस स्त्री के रीढ़ की हड्डी के जोड़ों में बीमारी थी जिससे उसके जोड़ अकड़े अकड़े से थे. वह सीधा नहीं खड़ा हो पाती थी, घुटनों के बल पर चलती थी. वैसे तो मोरिशयस में करीब करीब हर कोई अंग्रेज़ी, फ्रैंच व क्रियोल भाषाएँ बोलता है लेकिन वह स्त्री केवल भोजपुरी भाषा बोलती थी.

मेरे साथ जो फिज़ियोथैरेपिस्ट थे उन्होंने बताया कि पुनरस्थापन कार्यक्रम ने उस स्त्री के लिए एक लकड़ी का स्टैंड बनाया था, जिसे पकड़ कर वह उसके ऊपर तक पहुँच कर वहाँ लटक सी जाती थी और फ़िर स्टैंड की सहायता से चल भी सकती थी. जब उस स्त्री ने मुझे उस स्टैंड पर चढ़ कर दिखाया कि यह कैसे होता था, तो मुझे लगा कि उन लोगों ने यह ठीक नहीं किया था. उस घर का फर्श कच्चा था, ऊबड़ खाबड़ सा. उस फर्श पर लकड़ी के स्टैंड को झटके दे दे कर चलना कठिन तो था ही, खतरनाक भी था. मेरे विचार में इस तरह का स्टैंड बनाने से बेहतर होता कि तीन या चार पहियों वाला कुछ नीचा तख्त जैसे स्टैंड होता जिस पर वह अधिक आसानी से बैठ पाती और जिसमें गिरने का खतरा भी नहीं होता.

मेरी बात को जब उस स्त्री को बताया गया तो वह गुस्सा हो गयी. मुझसे बोली कि "सारा जीवन घुटनों पर रैंगा है मैंने. लोगों को सिर उठा कर देखना पड़ता है, मानो कोई कुत्ता हूँ. इस स्टैंड की मदद से मैं भी इन्सानों की तरह सीधा खड़ा हो सकती हूँ, लोगों की आँखों में देख सकती हूँ. जीवन में पहली बार मुझे लगता है कि मैं भी इन्सान हूँ. मुझे यही स्टैंड ही चाहिये, मुझे छोटी पटरी नहीं चाहिये!"

मैं भौचक्का सा रह गया. उसकी बात मेरे दिल को लगी. सोचा कि लाभ नुक्सान देखने के भी बहुत तरीके हो सकते हैं. मेरे तकनीकी दृष्टि ने जो समझा था वह उसकी भावनात्मक दृष्टि से और उसके जीवन के अनुभव से, बिल्कुल भिन्न था. पर वह जीवन उसका था और उसे का यह अधिकार था कि वही यह निर्णय ले कि उसके लिए कौन सी दृष्टि बेहतर थी.

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दूसरा अनुभव ब्राज़ील से एक शोध कार्यक्रम का है, जिसके लिए मैं एक विकलाँग युवती से साक्षात्कार कर रहा था. वह तीस बत्तीस साल की थी. दुबली पतली सी थी, और उसके चेहरे पर रेखाओं का महीन जाल सा बिछा था जो अक्सर उनके चेहरों पर दिखता है जिन्होंने बहुत यातना सही हो. हम लोग पुर्तगाली भाषा में बात कर रहे थे. उस युवती नें मुझे अपनी कहानी सुनायी.

वह पैदा हुई तो उसकी रीढ़ की हड्डी टेढ़ी थी, जिसे चिकित्सक "स्कोलिओसिस" कहते हैं. उसका परिवार एक छोटे से शहर के पास गाँव में रहता था जहाँ वे लोग खेती करते थे. छोटी सी थी जब उसे घर से बहुत दूर एक बड़े शहर में रीढ़ की हड्डी के ओपरेशन के लिए लाया गया. करीब पंद्रह वर्ष उसने अस्पतालों के चक्कर काटे, और उसके चार या पाँच ओपरेशन भी हुए.

वह बोली, "मेरा जीवन डाक्टरों ने छीन लिया. जब मुझे पहली बार अस्पताल ले कर गये तो ओर्थोपेडिक डाक्टर ने कहा कि ओपरेशन से मेरी विकलाँगता ठीक हो जायेगी. पर मेरे परिवार के पास इतने पैसे नहीं थे. फ़िर घर से दूर मेरे माता या पिता को मेरे साथ रहना पड़ता तो घर में काम कैसे होता? पर डाक्टर ने बहुत ज़ोर दिया, कि बच्ची ठीक हो सकती है और उसका ओपरेशन न करवाना उसका जीवन बरबाद करना है. अंत में मेरे पिता ने अपनी ज़मीन बेची दी, सारा परिवार यहीं पर शहर में रहने आ गया. पर उस डाक्टर ने सही नहीं कहा था. यह सच है कि ओपरेशनों की वजह से, अब मेरी रीढ़ की हड्डी कम टेढ़ी है. इससे मेरे दिल पर व फेफड़ों पर दबाव कम है, और मैं साँस बेहतर ले सकती हूँ. शायद मेरी उम्र भी कुछ बढ़ी है, नहीं तो शायद अब तक मर चुकी होती. पर इस सब के लिए मैंने व मेरे परिवार ने कितनी बड़ी कीमत चुकायी, उस डाक्टर ने इस कीमत के बारे में हमसे कुछ नहीं कहा था! जिस उम्र में मैं स्कूल जाती, पढ़ती, मित्र बनाती, खेलती, वह सारी उम्र मैंने अस्पतालों में काटी है. पंद्रह वर्ष मैंने अस्पताल के बिस्तर पर दर्द सहते हुए काटे हैं. हमने अपना गाँव, अपनी ज़मीन खो दी. मेरे भाई बहनों, माता पिता, सबने इसकी कीमत चुकायी है. कितने सालों तक माँ मेरे साथ अस्पताल में रही, मेरे भाई बहन बिना माँ के बड़े हुए हैं. डाक्टर ने हमें यह सब क्यों नहीं बताया था, क्यों नहीं हमें मौका दिया कि हम यह निर्णय लेते कि हम यह कीमत चुकाना चाहते हैं या नहीं? क्या फायदा है लम्बा जीवन होने का, अगर वह जीवन दर्द से भरा हो? क्या यह सचमुच जीवन है? क्या केवल साँस लेना और खाना खाना जीवन है? अगर घड़ी को पीछे ले जा सकते तो मैं अपना कोई ओपरेशन न करवाती. मैं स्कूल, मित्र, खेल को चुनती, अस्पतालों और ओपरेशनों को नहीं."

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इन दोनो अनुभवों का मुझ पर गहरा प्रभाव पड़ा. बहुत सोचा है मैंने उनके बारे में. मैं अब मानता हूँ कि कुछ भी बात हो, जिसके जीवन के बारे में हो, उसे अपने जीवन के बारे में हर निर्णय में अपना फैसला लेने का अधिकार होना चाहिये. अक्सर हम सोचते हैं कि हम किसी की बीमारी या जीवन की समस्या के बारे में अधिक जानते हैं क्योंकि हम उस विषय में "विषेशज्ञ" हैं, लेकिन अधिक जानना हमें यह अधिकार नहीं देता कि हम उनके जीवन के निर्णय अपने हाथ में ले लें.

मेरे विचार में मेडिकल कालेज की पढ़ाई में "चिकित्सा व नैतिकता" के विषय पर भी विचार होना चाहिये. यानि हम सोचें कि जीवन किसका है, और इसके निर्णय किस तरह से लिये जाने चाहिये! अक्सर डाक्टरों की सोच भी "माई बाप" वाली होती है, जिसमें गरीब मरीज़ को कुछ समझाने की जगह कम होती है. सरकारी अस्पतालों में भीड़ भी इतनी होती है कि कुछ कहने समझाने का समय नहीं मिलता.

चिकित्सा की बात हो तो भाषा का प्रश्न भी उठता है. लोगों को अपने जीवन के निर्णय लेने का अधिकार होना चाहिये, पर हम लोग अपना सारा काम अंग्रेज़ी में करते हैं, दवा, चिकित्सा, ओपरेशन, सब बातें अंग्रेज़ी में ही लिखी जाती हैं. जिन्हें अंग्रेज़ी नहीं आती, वह उन कागज़ों से क्या समझते हैं? और अगर समझते नहीं तो कैसे निर्णय लेते हैं अपने जीवन के?

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चाहे बात हमारे बच्चों के जीवन की हो या अन्य, मेरे विचार में हम सबको अपने निर्णय स्वयं लेने का अधिकार है. मैं यह नहीं कहता कि यह माता पिता या घर के बुज़ुर्गों के लिए यह हमेशा आसान है, विषेशकर जब हमें लगे कि हमारे जीवन के अनुभवों से बच्चों को फायदा हो सकता है. पर बच्चों को अपने जीवन की गलतियाँ करने का भी अधिकार भी होना चाहिये, हमने भी अपने जीवन में कितनी गलतियों से सीखा है!

दूसरी बात है डाक्टर या शिक्षक जैसे ज़िम्मेदारी का काम जिसमें लोगों को अपने जीवन के निर्णय लेने के लिए तैयार करना व सहारा देना आवश्यक है. लोगों को गरीब या अनपढ़ कह कर, उनसे यह अधिकार छीनना भी गलत है. यह भी आसान नहीं है लेकिन मेरे अनुभवों ने सिखाया है कि यह भी उतना ही आवश्यक है.

आप बताईये कि आप इस विषय में क्या सोचते हैं? आप के व्यक्तिगत अनुभव क्या हैं?

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शनिवार, फ़रवरी 22, 2014

हमारे शरीर, सामाजिक विद्रोह व कलात्मक अभिव्यक्ति

सदियों से पैसे वाले व ताकतवर लोग अपनी तस्वीरें बनवाते आये हैं. पिछली सदी में फोटोग्राफ़ी के विस्तार से हर कोई अपनी तस्वीरें खिचवाने लगा. पिछले दशक में डिजिटल कैमरों के प्रचार से और फेसबुक, टिविटर जैसी वेबसाइट के वजह से तस्वीर खीचना और उस पर बातें करना इतना फैला है कि कुछ लोग मानते हैं कि यह सदी शब्दों की नहीं तस्वीरों की सदी कहलायेगी और इससे मानव सभ्यता में बड़ा बदलाव आयेगा. इन सब की वजह से लोगों का अपनी असहमती दिखाना, विद्रोह प्रदर्शित करना या अपनी बात को कलात्मक तरीकों से अभिव्यक्त करना, इस सब में भी नये प्रयोग हो रहे हैं.

शायद फेमेन (Femen) की विद्रोही युवतियों के बारे में आप ने सुना होगा जो कि अपने वस्त्रहीन शरीर के माध्यम से अपनी बात कहती हैं?

फेमेन का नारा है "मेरा शरीर, मेरा घोषणापत्र". फेमेन में हिस्सा लेने वाली युवतियाँ कहती हैं कि वे लोग नारी का यौनिक शोषण, तानाशाही व धर्म के माध्यम से नारी शरीर पर अधिपत्य कायम करने के विरुद्ध हैं. अक्सर फेमेन की युवतियों पर विभिन्न देशों की सरकार व पुलिस बहुत सख्ती से पेश आती हैं, शायद क्योंकि उनके इस वस्त्रहीन विद्रोह में पृतसत्ता पर आधारित समाज की नींव हिलाने वाली बात है जोकि नारी शरीर को नैतिकता से ढकने पर टिका है.

नारी का शरीर ढकना, लज्जा करना, कौमार्य बचाना आदि को विभिन्न समाजों ने इतना महत्वपूर्ण माना है कि उसे धार्मिक ग्रंथों की सहायता से भगवान के दिये आदेशों की मान्यता दी है. बचपन से ही कन्याओं को यह सिखाया जाता है कि यही नारी का जन्मजात स्वभाव है, और पुरुषों को सीख दी जाती है कि माँ, पत्नी व बहनों के इस लक्ष्मणरेखा में बाँध कर रखने में उनकी व उनके पूर्वजों की इज्जत व आत्मसम्मान निहित हैं.

फेमेन का जन्म यूक्रेन में 2008 में हुआ और जल्दी ही पूर्वी व पश्चिमी यूरोप से होता हुआ उत्तरी अफ्रीका व मध्यपूर्व के देशों तक फ़ैल गया. कुछ समय पहले, मिस्र की आलिया अलमाहदी ने जब फेसबुक के माध्यम से अपनी वस्त्रहीन तस्वीर लगा कर अपने परिवार व समाज के प्रति अपना विद्रोह अभिव्यक्त किया तो कुछ लोगों ने उन्हें जान से मारने की धमकी दी और उन्हें मिस्र छोड़ कर स्वीडन में शरण लेनी पड़ी. लेकिन आलिया ने देशनिकाला ले कर भी अपना विद्रोह नहीं छोड़ा, स्वीडन में मिस्री दूतावास के सामने उन्होंने वस्त्रहीन हो कर, हाथ में कुरान को ले कर अपना विद्रोह जताया (आलिया का वीडियो). इससे उनकी जान लेने वाले और बढ़ गये हैं और उन्हें कुछ कुछ दिनो में घर बदल कर, भेष बदल कर रहना पड़ रहा है.

दूसरी ओर शारीरिक नग्नता को कला के माध्यम से सामाजिक संदेश पहुँचाने का माध्यम भी बनाया गया है. अमरीकी फोटोग्राफर स्पैन्सर ट्यूनिक अपनी अमूर्त कला तस्वीरों के लिए बड़ी संख्या में लोगों की वस्त्रहीन तस्वीर खींचने के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध हैं, उनके बारे में मैंने कई वर्ष पहले लिखा था.

मैं अपने शरीर के माध्यम से दुनिया को संदेश देने वाले लोगों के साहस की दाद देता हूँ. इसलिए जब मेरे ब्राज़ीली मित्र मारसेलो ने मुझसे पूछा कि क्या मैं उसके "शरीर के माध्यम से संदेश देने" के फोटोप्रोजेक्ट में हिस्सा लेना चाहुँगा तो मैंने तुरंत हाँ कर दी. मारसेलो के इस फोटोप्रोजेक्ट का नाम है "आ फ्लोर दा पेले" यानि "त्वचा के फ़ूल".

मारसेलो ने एडस् रोग से पीड़ित बच्चों के साथ काम किया है और वह इस फोटोप्रोजेक्ट से सामाजिक व पर्यावरण सरंक्षण का संदेश देना चाहते हैं. उनकी तस्वीरों में शरीर का कमर से ऊपर का हिस्सा वस्त्रहीन होता है जिसपर रंगों से चित्र बनाये जाते हैं. अप्रैल के महीने में मारसेलो इटली आयेगा तो इसके लिए मेरी भी तस्वीर खिंचेगी. आधे धड़ की तस्वीर खिंचवाने में कोई साहस नहीं चाहिये, इसलिए मैं चितित भी नहीं हूँ!

मैं सोच रहा हूँ कि मारसेलो की तस्वीर के लिए शरीर पर कौन सा डिजाइन बनवाना चाहिये? कुछ ऐसा होना चाहिये जिसमें भारत भी हो और प्रकृति व पर्यावरण की बात भी हो. अगर आप के पास कोई सुझाव हों तो अवश्य बताईयेगा.

जब मारसेलो मेंरी तस्वीर खीचेगा तो उसके बारे में आपको बताऊँगा. लेकिन मैं पहले भी कुछ फोटोप्रोजेक्ट में हिस्सा ले चुका हूँ जिनकी कुछ तस्वीरें प्रस्तुत हैं:

(1) पहली तस्वीर मेरा कार्टून है जो मारसेलो ने सन 1997-98 के आसपास एक ब्राज़ील यात्रा के दौरान बनाया था.

Sunil Deepak by Marcelo Mendonça

(2) दूसरी तस्वीर वह है जो कुष्ठ रोग दिवस के अवसर पर एक इतालवी पोस्टर के लिए 2003 में खींची गयी थी. इस पोस्टर से कुछ दिनों के लिए मुझे कुछ प्रसिद्ध मिली थी, क्योंकि यह तस्वीर बहुत सी पत्रिकाओं में छपी थी. जहाँ जाता कुछ लोग पहचान जाते , उँगली उठा कर मेरी ओर इशारा करते.

Sunil Deepak for world leprosy day campaign 2003

(3) तीसरी तस्वीर है सन् 2011 से जब मैंने इतालवी कलाकार विर्जिनया फरीना के मृत्यू के बारे में विभिन्न संस्कृतियों में क्या विचार हैं जो कि इस विषय पर आधारित फोटोप्रोजेक्ट के लिए खिचवायी थी. इस तस्वीर को खींचने के लिए उन्होंने अँधेरे कमरे में एक टोर्च व एक गोल नली का उपयोग किया था जिससे वह मृत्यू का आभास देना चाहती थीं.

Sunil Deepak by Virginia farina

इस प्रोजेक्ट की प्रदर्शनी बोलोनिया शहर के कब्रिस्तान में सात सौ वर्ष पुरानी कब्रों के कक्ष में लगी थी. मुझे कई लोगो ने कहा था कि इसमें हिस्सा न लो, जीते जी मरने की तस्वीर खिंचवाना ठीक नहीं होगा. पर मुझे इस फोटोप्रोजेक्ट में हिस्सा लेना बहुत अच्छा लगा था.

Exhibition of Virginia farina at Certosa cemetery of Bologna

(4) चौथी तस्वीर है पिछले वर्ष से जब लाउरा फ्रास्का व लाउरा बासेगा नाम की दो युवतियों ने इटली में रहने वाले विभिन्न देशों के प्रवासियों के बारे में फोटोप्रदर्शनी बनायी थी. इसमें मुझे एक किताब की दुकान में बैठ कर किताब पढ़ते हुए दिखाया गया था.

Sunil Deepak by Laura Frasca & Laura Bassega

(5) यह अंतिम तस्वीर है इसी वर्ष यानि 2014 की. विकलाँग व्यक्तियों के मानव अधिकारों के बारे में चित्रकथा की किताब में मैं भी एक पात्र हूँ. इसको बनाने वाले कलाकार का नाम है कनजानो.

Sunil Deepak by Kanjano

मेरे विचार में एक विषय को ले कर तस्वीरें खीचने का प्रोजेक्ट बनाना कला की नयी विधि है जिससे सामाजिक संचेतना लाना कुछ आसान हो जाता है क्योंकि जितने अधिक लोग इसमें हिस्सा लेते हैं, उनमें से हर कोई फेसबुक, टिविटर, ब्लाग, आदि के माध्यम से अपने परिवार, मित्रों आदि में इसका विज्ञापन करता है और अधिक लोगों को इसके बारे में जानकारी मिलती है.

जिस तरह से मारसेलो ने अपना प्रोजेक्ट बनाया है, उसमें सभी तस्वीरें ब्लाग पर लगायी जा रही हैं इसलिए प्रदर्शनी लगाने का खर्चा नहीं है और यह प्रोजेक्ट वह धीरे धीरे कई सालों तक बना सकते हैं.

मुझे आशा है कि आप को इनसे अपना कोई फोटोप्रोजेक्ट बनाने की प्रेरणा मिलेगी! अगर   ऐसा हो तो मुझे इस बारे में अवश्य बताईयेगा.

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मंगलवार, फ़रवरी 12, 2013

मानव और पशु

सुबह बाग में अपने कुत्ते के साथ सैर कर रहा था तो अचानक दूर से कुछ कुत्तों के भौंकने और लोगों के चिल्लाने की आवाज़ सुनायी दी. आगे बढ़ने पर दो आदमी ऊँची आवाज़ में बहस करते दिखे, दोनो के हाथ में उनके कुत्तों की लगाम थी जिसे वह ज़ोर से खींच कर पकड़े थे. दोनो कुत्ते बड़े बुलडाग जैसे थे, और एक दूसरे की ओर खूँखार दाँत निकाल कर गुर्रा रहे थे. हमारा कुत्ता छोटा सा है और बहुत बूढ़ा भी. डर के मारे मैं वापस मुड़ गया, यह सोच कर कि दूसरी ओर सैर करना बेहतर होगा.

मुझे वापस आता देख कर एक सज्जन जिनसे अक्सर बाग में दुआ सलाम होता रहता है और जिनकी छोटी कुत्तिया हमारे कुत्ते से भी छोटी है, मुस्करा कर बोले, "कुत्ते में टेस्टोस्टिरोन का हारमोन होता है, उससे वह अपने आप पर काबू नहीं रख पाते. कुत्तिया देखते हैं तो उस पर तुरंत डोरे डालने की कोशिश करते हैं और दूसरे कुत्तों से लड़ाई करते हैं. अब जब कुत्ता पाला है तो यह तो होगा ही, इसमें लड़ने की क्या बात है? यह तो कुत्तों की प्रकृति है. अगर कुत्तों का आपस में लड़ना पसंद नहीं है तो या तो उनका आपरेशन करके उनके अन्डकोष निकलवा दो, इससे टेस्टोस्टिरोन बनना बन्द हो जायेगा, और वे शाँत हो जायेंगे. कुत्ते का आपरेशन  नहीं कराना तो कुत्ता पालो ही नहीं, कुत्तिया रखो."

मैं उनकी बात पर देर तक सोचता रहा. टेस्टोस्टिरोन हारमोन सभी स्तनधारी जीवों में, विषेशकर हर जीव जाति के नरों में होता है. यह हारमोन माँसपेशियों का विकास करता है, शरीर में बाल उगाता है, आवाज़ को भारी करता है. सम्भोग की इच्छा और सम्भोग क्रिया में नर भाग निभाने की क्षमता भी इसी हारमोन से जुड़ी हैं.

यही सोच कर मन में यह बात आयी कि हमारे समाजों में जब किसी युवती को पुरुष मारता है, या उससे ब्लात्कार करता है तो अक्सर लोग कहते हैं कि यह इसलिए हुआ क्यों कि उस लड़की ने उस पुरुष को कुछ ऐसा किया जिससे वह अपने पर काबू नहीं कर पाया. इसके लिए वे दोष देते हैं लड़की को, कि लड़की रात को अकेली बाहर गयी, या उसने पश्चिमी वस्त्र पहने थे या छोटे वस्त्र पहने या वह ज़ोर से हँस रही थी.  यानि उनका सोचना है कि चूँकि नर में टेस्टोस्टिरोन है इसलिए यह उसकी प्रकृति है कि जब मादा उसे आकर्षित करेगी तो वह अपने आप पर काबू नहीं कर पायेगा और उस पर हमला करेगा. इसलिए हमारे समाज लड़कियों को अपने शरीरों को चूनर, घूँघट या बुर्के में ढकने की सलाह देते हैं, कहते है कि बिना पुरुष के अकेली बाहर न जाओ, आदि.

Graphic - man attacking woman


शायद इसी बात को सोच कर बहुत से देशों में युवा लड़कियों के यौन अंगो को काट कर सिल दिया जाता है, या उन्हें शरीर ढकने, घर से बाहर न जाने की सलाह दी जाती है, ताकि उनके मन में यौन भावनाएँ न उभरें. शायद इसी वजह से हमारे समाजों ने रीति रिवाज़ बनाये जैसे कि विधवा युवती का सर मूँड दो, उसे सफ़ेद वस्त्र पहनाओ, उसे खाने में तीखे स्वाद वाली कोई चीज़ न दो, जिससे उसे न लगे कि वह जीवित है और उसकी भी कोई शारीरिक इच्छा हो सकती है. इस सब से युवती का आकर्षण कम होगा और अपने पर काबू न रख पाने वाले पुरुष उस पर हमला नहीं करेंगे.

यानि हमारे समाजों ने पुरुषों को पशु समान माना और यह माना कि उनमें किसी युवती को देख कर अपने आप को रोक पाने की क्षमता नहीं हो सकती. इस तरह से हमारे समाजों ने एक ओर "पुरुष अपनी प्रकृति पर काबू नहीं कर सकते" वाले नियम बनाये, जिससे स्वीकारा जाता है कि पुरुष शादी से पहले या विवाह के बाहर भी शारीरिक सम्बन्ध बना सकता है या कई औरतों से विवाह कर सकता है. दूसरी ओर नियम बनाये कि "नारी का अपनी प्रकृति को काबू में रखना ही नारी धर्म है", जिससे निष्कर्ष निकलता है कि अगर पुरुष कुछ भी करता है तो इसमें गलती हमेशा नारी की ही मानी जायेगी.

यानि यह समाज पुरुष को अन्य पशुओं की तरह देखता है, यह नहीं मानता कि परिवार की शिक्षा, समाज की सभ्यता और अपने दिमाग से पुरुष अपना व्यवहार स्वयं तय करता है.

पर इस तरह की सोच हमारे ही समाजों में क्यों बनी हुई है? जैसे यूरोप, अमरीका, ब्राज़ील आदि में समय के साथ बदल गयी है, वैसे हमारे समाजों में क्यों नहीं बदली? यूरोप, ब्राज़ील में आप समुद्र तट पर जाईये आप छोटी बिकिनी पहने या खुले वक्ष वाली युवतियाँ देख सकते हैं, उन पर वहाँ के पुरुष हमला क्यों नहीं करते? शायद यहाँ के पुरुषों में टेस्टोस्टिरोन की कमी है? लेकिन इन देशों में भारत, पाकिस्तान, अरब देशों आदि से आने वाले प्रवासी पुरुष क्यों नहीं इन युवतियों पर हमले करते, क्या यहाँ के कानून से डरते हैं या शायद यहाँ आने से उनके टेस्टोस्टिरोन भी कम हो जाते हैं?

आप ही बताईये क्या हम पुरुष पशु समान होते हैं क्योंकि हमे अपने पर काबू करना नहीं आता? मेरे विचार में यह सब बकवास है.

कुछ पुरुष मानसिक रोगी हो सकते हैं जिन्हें सही गलत का अंतर न मालूम हो. पर यह सोचना कि सभी पुरुष पशु होते हैं, उन्हें अपने शरीरों पर, अपने कर्मों पर काबू नहीं, यह मैं नहीं मानता. पुरुष किसी भी युवती पर हमला कर सकते हैं, इसलिए युवतियों को शरीर ढकना चाहिये, घर से अकेले नहीं निकलना चाहियें, शर्मा कर, छिप कर रहना चाहिये, मेरे विचार में यह सब गलत है.

जो लोग इसे स्वीकारते हैं, वह मानव सभ्यता को नकारते हैं, इस बात को नकारते हैं कि भगवान ने हमें दिमाग भी दिया है, केवल हारमोन नहीं दिये. मुझे लगता है कि इस तरह की सोच पुरुषों को बचपन से ही यह सिखाती है कि जो मन में आये कर लो, हमें औरतों को दबा कर रखना है. इसके लिए हमारे समाज धर्म, संस्कृति और परम्पराओं का सहारा लेते हैं इस तरह की सोच को ठीक बताने के लिए.

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सोमवार, नवंबर 19, 2012

हिन्दी फ़िल्मों में मानसिक रोग और मानसिक विकलाँगता


बीमारियाँ और विकलाँगताएँ मानव जीवन का अभिन्न अंग हैं. हिन्दी फ़िल्मों और बीमारियों का नाता बहुत पुराना है. बीमारी, कष्ट, मृत्यू इन सब बातों से फ़िल्मों की कहानियों को भावात्मक मोड़ मिल जाते हैं. बीमारी के विषय पर बनी फ़िल्मों के बारे में सोचें तो मन में "दिल एक मन्दिर", "आनन्द", "सफ़र", "गुज़ारिश" और "कल हो न हो" जैसी न भूलने वाली फ़िल्में याद आ जाती हैं.

दूसरी ओर, कुछ फ़िल्मों में शारीरिक विकलाँगताओं से जुड़ी कहानियों को मानव जीवन के संघर्ष से जोड़ कर सुरुचिपूवक ढंग से दिखाया गया है. 1960 के दशक की "जागृति" और "दोस्ती" से ले कर कुछ माह पहले आयी "बर्फी" तक आप को हिन्दी फ़िल्म जगत से इसके कितने ही उदाहरण मिल सकते हैं. लेकिन साथ ही, हिन्दी सिनेमा ने विकलाँगताओं को अक्सर हँसी मज़ाक का विषय भी बनाया है जैसे कि अभिनेता तुषार कपूर जो अजीब से गूँगे युवक का पात्र निभाने के लिए प्रसिद्ध हो गये हैं और कई फ़िल्मों में इस तरह के पात्र को निभा चुके हैं.

एक ओर जहाँ कैंसर जैसी बीमारियों तथा शारीरिक विकलाँगताओं को अगर फ़िल्मी दुनिया में जगह मिली है, वहाँ मानसिक रोगों और विकलाँगताओं को हिन्दी फ़िल्म जगत ने किस तरह से दर्शाया है?

करीब छः वर्ष पहले मैंने हिन्दी फ़िल्मों में मानसिक रोगों के चित्रण के विषय पर लिखा था. इस विषय पर दोबारा लिखने का एक कारण है कि तबसे इस विषय पर कुछ नयी फ़िल्में भी बनी हैं. दूसरी बात यह कि पहले आलेख में बात केवल मानसिक रोगों की थी, दिमागी विकलाँगताओं की नहीं, जबकि मेरे विचार में इन दोनो बातों के बीच का अंतर अधिकतर लोगों को स्पष्ट समझ नहीं आता.

Mental illness and intellectual disabilities in Hindi films

मानसिक रोगों तथा मानसिक विकलाँगताओं के बीच का अंतर करना कभी कभी बहुत कठिन होता है. कई बार विकलाँगता किसी रोग का परिणाम होती है. फ़िर भी दोनो बातों में कुछ अंतर होते हैं. इस विषय पर बनी फ़िल्मों की चर्चा से पहले, इस अंतर की बात समझना आवश्यक है.

मानसिक रोगों तथा मानसिक विकलाँगताओं में अंतर

मानसिक रोग वह बीमारियाँ होती हैं जिनसे मानव के व्यवहार पर, उसकी भावनाओं पर असर पढ़ता है. इन बीमारियों का उपचार मनोरोग विशेषज्ञय दवाओं से या साइकोथैरेपी से करते हैं.

मानसिक रोग दो तरह के होते हैं - एक वे रोग जिसमें मानव अपने व्यवहार या भावनाओं पर नियन्त्रण नहीं कर पाता, पर उसमें समझ बूझ की क्षमता होती है. जैसे कि डिप्रेशन यानि गहरी उदासी या ओबसेशन यानि मन में किसी विचार का घर कर लेना, जिसे चाह कर भी नहीं निकाल पाते. इन बीमारियों में मानव अपनी उदासी या ओबसेशन की भावनाओं से उबर नहीं पाता लेकिन उसमें अन्य सब बातें समझने बूझने की शक्ति होती है. इन रोगों को न्यूरोसिस कहते हैं.

दूसरी तरह के मानसिक रोग वे होते हैं जिसमें मानव में भावनाओं और व्यवहार के साथ साथ, उसकी समझ बूझ में भी फर्क आ जाता है और वे मानव सच या कल्पना में अंतर नहीं समझ पाते. इस तरह के मानसिक रोगों को साईकोसिस कहते हैं जैसे कि स्कित्ज़ोफ्रेनिया की बीमारी.

दोनो तरह के मानसिक रोग इतने हल्के हो सकते हैं कि अन्य सामान्य लोगों को उसके बारे में आसानी से पता न चले, या फ़िर इतने तीव्र हो सकते हैं कि वह मानव कुछ भी काम नहीं कर सके और उसकी बीमारी को आसानी से पहचाना जा सके. बहुत से लोग आम भाषा में अक्सर इन रोगियों को पागल कहते हैं और मानसिक स्वास्थ्य अस्पतालों को पागलखाना कहते हैं. इस तरह के शब्दों के प्रयोग से इन बीमारियों के बारे में समाज में गलत छवि बनती है और उन रोगियों तथा उनके परिवारों पर बुरा प्रभाव पड़ता है.

मानसिक या दिमागी विकलाँगता वे होती हैं जिसमें दिमाग की नसों में कुछ इस तरह का हो जाता है जिससे उस मानव के सोचने समझने, पढ़ने, लिखने, याद करने, गिनती करने, आदि में कठिनायी हो सकती है. इन विकलाँगताओं को "पढ़ने-सीखने की विकलाँगताएँ" (learning disabilities) भी कहते हैं. बच्चों तथा नवयुवकों में अक्सर यह विकलाँगताएँ जन्म से ही होती है या कई बार दिमाग में फैलने वाले इन्फेक्शन से हो सकती है. यह विकलाँगताएँ उम्र के साथ वृद्ध लोगों में भी हो सकती हैं.

दिमागी विकलाँगताएँ भी भिन्न भिन्न तरह की होती हैं, जैसे कि डाउन सिन्ड्रोम, आउटिस्टिक, डिस्लेक्सिया, अल्ज़हाइमर, इत्यादि.

मानसिक रूप से विकलाँग व्यक्तियों को बहुत से लोग आम भाषा में "रिटार्डिड" (कमज़ोर दिमाग वाला) कहते हैं. इनका साधारणतय इलाज नहीं हो सकता और कुछ व्यक्तियों में, दिमागी विकलाँगता के साथ साथ, कुछ शारीरिक विकलाँगताएँ भी हो सकती हैं.

चाहे मानसिक रोग हो या दिमागी विकलाँगता, इन सबके साथ सबसे बड़ी कठिनाई है इनके बारे में समाज में प्रचलित गलतफहमियाँ और लोगों द्वारा इनसे पीड़ित बच्चों और बड़ों का तिरस्कार और मज़ाक उड़ाना. समाज अक्सर यह नहीं देखता कि लोगों को कैसे प्रोत्साहन दिया जाये ताकि वह अपने अन्दर छुपी खूबियों और काबलियत को बढ़ा कर उनका उपयोग कर सकें, बल्कि कोशिश होती है कैसे उनको गाली दें, उन्हें दबायें, उन्हें यह दिखायें कि वह कुछ नहीं कर सकते.

मानसिक रोग तथा मानसिक विकलाँगताएँ, दोनो ही विषय हिन्दी सिनेमा में कई बार उठाये गये हैं. आईये इसके कुछ उदाहरणों की बात करें.

हिन्दी फ़िल्मों में मानसिक रोग

हिन्दी फ़िल्मों में कई बार मानसिक रोगों की बात उठायी गयी है. यह बात अधिकतर दो तरह दिखायी जाती है. एक ओर नायक या नायिका का असफ़ल प्रेम की वजह से मानसिक संतुलन खो देना दिखाया जाता है, दूसरी ओर मनोरोग अस्पताल में रहने वाले लोगों को और वहाँ काम करने लोगों को, हँसी मज़ाक का पात्र दिखाया जाता है.

इस दृष्टिकोण से बनी फ़िल्मों का एक उदाहरण है 1969 की असित सेन द्वारा निर्देशित फ़िल्म "खामोशी" जिसमें एक ओर राजेश खन्ना और धर्मेन्द्र के पात्र थे जो प्रेम में असफल होने से मानसिक रोग के शिकार दिखाये गये थे. दूसरी ओर थीं मानसिक रोग के अस्पताल में काम करने वाली नर्स राधा के रूप में वहीदा रहमान जो उनका इलाज करने के लिए, उनसे प्रेम का नाटक करती हैं. राधा मरीज़ो से प्रेम का नाटक करते करते, सचमुच प्रेम करने लगती है और उनके ठीक हो कर अस्पताल से जाने पर स्वयं मानसिक रोगी बन जाती है. इस फ़िल्म में जहाँ हीरो हीरोईन के मानसिक रोग को भावात्मक तरीके से दिखाया गया था, वहीं मानसिक रोग के अस्पाल में भर्ती अन्य मरीज़ों को, विदूषक की तरह हँसी मज़ाक का पात्र बना कर भी दिखाया गया था.

असफल प्रेम से होने वाले मानसिक रोग का इलाज करने के लिए किसी का प्रेम चाहिये, इस तरह से सोच वाली फिल्मों के कुछ अन्य उदाहरण हैं "खिलौना" (1970) और "क्यों कि" (2005).

"खिलौना" में असफल प्रेम से पागल हुए संजीव कुमार को ठीक कराने के लिए नाचने वाली चाँद यानि मुम्ताज़ को उनसे प्रेम का नाटक करने लिए घर लाया जाता हैं. प्रियदर्शन की फ़िल्म "क्यों कि" में प्रेमिका की मृत्यू पर दुख से पागल सलमान खान को एक डाक्टर (करीना कपूर) का प्यार ठीक होने में सहारा देता है.

प्रेम में असफल होने के अतिरिक्त, कई फ़िल्मों में गहरे सदमे या चोट पहुँचने से भी मानसिक रोग का होना दर्शाया गया है. जैसे कि "घर" (1978) तथा "15 पार्क एवेन्यू" (2005), जिनमें बलात्कार की वजह से मानसिक रोग का होना दर्शाया गया था.

"घर" में  कहानी थी नववधु आरती (रेखा) की जिन्हें बलात्कार के बाद डिप्रेशन हो जाता है और वह अपने नवविवाहित पति (विनोद मेहरा) से भी डरती है. इस फिल्म में दिखाया गया था कि अगर सुहानूभूति और सहारा मिले तो मानसिक रोग से बाहर निकलना सम्भव है.

अपर्णा सेन की राष्ट्रीय पुरस्कार पाने वाली फ़िल्म "15 पार्क एवेन्यू" का मुख्य विषय था मानसिक रोग और उसका परिवार के अन्य लोगों पर पड़ने वाला प्रभाव. मिताली यानि कोन्कणा सेन को स्कित्ज़ोफ्रेनिया है, जो ब्लात्कार की वजह से उभर जाता है. वह अपनी बड़ी बहन अनु (शबाना आज़मी) और माँ (वहीदा रहमान) के साथ रहती है. छोटी बेटी का मानसिक रोग, परिवार का अकेलापन और सबसे दूर होना, समाज में मानसिक रोगियों के प्रति गलत विचार, इस फ़िल्म में इन सब बातों को बहुत प्रभावशाली ढंग से दिखाया गया था.

स्कित्ज़ोफ्रेनिया की बीमारी को कई बार एक शरीर में दो विभिन्न व्यक्तित्वों के साथ रहने के रूप में, यानि "मल्टिपल पर्सनेलिटी" की बीमारी के रूप में भी दिखाया गया है, जैसे कि "रात और दिन" (1967). इस फ़िल्म में दिन में गृहणी बन कर रहने वाली वरुणा (नरगिस) और रात को शराब-बार में गाने और नाचने वाली पेगी की कहानी थी. इस फ़िल्म में मानसिक रोग को बचपन में घर के घुटे वातावरण में बड़े होने की वजह से, अपने मन में छुपी इच्छाओं को न व्यक्त कर पाने का नतीजा दिखाया गया था.

2004 की फ़िल्म "मदहोशी" में नायिका अनुपमा (बिपाशा बसु) एक सदमें की वजह से एक कल्पनिक दुनिया में खो जाती है और एक काल्पनिक पुरुष से प्रेम करने लगती है. 1984 की अपर्णा सेन की एक अन्य फ़िल्म "परोमा" में एक गृहणी (राखी) का विवाह के बाहर एक अन्य पुरुष से प्रेम करने और बाद में परिवार से ठुकराये जाने पर मानसिक संतुलन खो देना दिखाया गया था.

बार बार एक ही बात को सोचना या किसी एक विचार को न भूल पाने को ओबसेशन कहते हैं. इस मानसिक रोग को विभिन्न फ़िल्मों में दिखाया गया है. जैसे कि 1962 की गुरुदत्त की फिल्म "साहब, बीबी और ग़ुलाम" में, जिसमें हवेली की बड़ी बहू को दिन भर बार बार हाथ धोते हुए दिखाया गया था. इसी तरह की कुछ बीमारी 1993 की फ़िल्म "डर" में शाहरुख खान को थी जो कि किरण (जुही चावला) नाम की युवती से ओबसेस्ड हो जाते हैं.

"साहब, बीबी और ग़ुलाम" में एक अन्य मानसिक रोग का चित्रण था - शराब के नशे से न निकल पाना. मानसिक रोग विशेषज्ञों के अनुसार शराब या अन्य पदार्थों का नशा करना भी एक तरह का मानसिक रोग है. गुरुदत्त की इस फ़िल्म में अभिनेत्री मीना कुमारी ने छोटी बहू का पति को रिझाने के लिए शराब पीने और फ़िर उसी लत की दलदल में फँस जाने का प्रभावशाली चित्रण किया था. अभिनेता केष्टो मुखर्जी तो मानो शराबी के मानसिक रोग के प्रतीक ही बन गये थे, हर फ़िल्म में उन्हें इसी रूप में दिखाया जाता था.

मानसिक संतुलन खो कर खूनी बन जाना जिसमें मल्टिपल पर्सनेलिटी तथा ओबसेशन  की बीमारियाँ दोनो ही होती हैं, भी कई फ़िल्मों में दिखाया गया है. जैसे कि 2011 की फ़िल्म "मर्डर 2" जिसमें एक युवक औरतों के कपड़े पहन कर शरीर बेचने वाली युवतियों को मारता है.

हिन्दी फ़िल्मों में दिमागी विकलाँगता

शारीरिक विकलाँगताओं पर शुरु से ही बहुत सी हिन्दी फ़िल्में बनी हैं जैसे कि "जागृति" (सत्येन बोस, 1954), "दोस्ती" (सत्येन बोस, 1964), "आरज़ू" (रामानन्द सागर, 1965), इत्यादि. लेकिन मानसिक विकलाँगताओं पर फ़िल्में पिछले दशक में ही बननी शुरु हुई हैं.

राकेश रोशन की 2003 की फ़िल्म "कोई मिल गया" के रोहित (हृतिक रोशन) को दिमागी विकलाँगता दिखायी गयी थी. दिमाग से कमज़ोर रोहित को शिक्षक अपनी कक्षा और विद्यालय में नहीं लेना चाहते, अन्य बच्चे उसका मज़ाक उड़ाते हैं. मानसिक विकलाँगताओं वाले बच्चों की समस्या का हल इस फ़िल्म में जादुई था, क्योंकि रोहित की विकलाँगता अंतरिक्ष से आये जादू की वजह से मिट जाती है.

संजय लीला भँसाली की 2005 की फ़िल्म "ब्लैक" में कहानी थी एक अन्धी और बहरी लड़की की और उसे पढ़ाने वाले शिक्षक (अमिताभ बच्चन) की जिन्हें बुढ़ापे के साथ अल्ज़हाईमर की बीमारी की वजह से यादाश्त खो बैठने की मानसिक विकलाँगता हो जाती है. इसी से मिलती जुलती बात थी 2005 की फ़िल्म "मैंने गाँधी को नहीं मारा" के प्रोफेसर (अनुपम खेर) को जो अपनी यादाश्त खो बैठते हैं. 2008 की अजय देवग्न की फ़िल्म "यू, मी और हम" में यही भूलने वाली बीमारी फ़िल्म की नायिका पिया (काजल) को होती है.

फ़िल्मों में यादाश्त खो बैठने की बीमारी को अधिकतर नाटकीय तरीके से दिखाया जाता है, जैसे कि हाल में ही आयी "जब तक है जान" में शाहरुख खान को होता है. इस फ़िल्म में इस बीमारी को लंदन की डाक्टर (सारिका), "रेट्रोग्रेड एमनीज़िया" यानि बीती यादों को भूल जाने का नाम देती है. यह केवल कुछ बीते दिनों की बात भूलने वाली बीमारी, उम्र के साथ होने वाली बीमारियों जैसे कि अल्ज़हाईमर, से भिन्न है, जिसमें केवल कुछ बीती बातें ही नहीं, बल्कि व्यक्ति प्रतिदिन जो घटता रहता है उसे भी याद नहीं रख पाते.

2007 की फ़िल्म "तारे ज़मीन पर" में बात थी एक अन्य मानसिक विकलाँगता की जिसे डिसलेक्सिया यानि शब्दों को ठीक से न समझ पाने की विकलाँगता. जिन बच्चों को यह तकलीफ़ होती है वह वर्णमाला के अक्षरों को आसानी से नहीं समझ पाते. इस फ़िल्म में यह भी दिखाया गया था कि विकलाँगता केवल बच्चे या मानव में नहीं होती बल्कि परिवार तथा समाज में भी होती है, क्योंकि वे सहारा देने के बजाय, मानव के आसपास रुकावटें बनाते हैं. जबकि अगर सही मौका मिले तो डिसलेक्सिया वाले बच्चे सब कुछ करने में समर्थ होते हैं.

करन जौहर की 2010 की फ़िल्म "माई नेम इज़ ख़ान" में हीरो शाहरुख खान को एस्बर्गर सिंड्रोम से पीड़ित दिखाया गया था. यह एक अन्य तरह की मानसिक विकलाँगता है जिसमें व्यक्ति शब्दों के प्रतीकात्मक अर्थ नहीं समझ पाता, बल्कि केवल शाब्दिक अर्थ समझता है. साथ ही वह अन्य लोगों से शारीरिक नज़दीकी नहीं चाहता, वह किसी को छूना नहीं चाहता. इस तरह की मानसिक विकलाँगताओं को आउटिस्म के नाम से जाना जाता है, जिसमें लोग अपनी आँतरिक दुनिया में रहना अधिक पसंद करते हैं. अनुराग बसु की 2012 की फ़िल्म "बर्फी" में प्रियँका चोपड़ा को भी आउटिस्टिक विकलाँग व्यक्ति के रूप में दिखाया गया है.

मानसिक रोग, मानसिक विकलाँगताएँ और समाज

हिन्दी फ़िल्मों ने मानसिक रोगों और मानसिक विकलाँगताओं की बात उठायी है, यह बहुत अच्छी बात है. अक्सर समाज में यह बातें छुपी रहती हैं. जिनके परिवार में किसी को मानसिक रोग हो या मानसिक विकलाँगता हो, वे अधिकतर इसे पारिवारिक शर्म के रूप में जीते हैं. इस शर्म की वजह से परिवार मानसिक रोगियों का ठीक से इलाज नहीं करवाते. लोग सोचते हैं कि यह बात सबके सामने आ जायेगी तो हमारे घर में कोई विवाह नहीं करना चाहेगा, कोई मित्रता नहीं बनाना चाहेगा.

पर मानसिक रोग और विकलाँगताएँ दोनो ही आधुनिक समाज में बढ़ रहे हैं. सड़क पर यातायात के बढ़ने से जुड़ी दुर्घटनाएँ, काम के तनाव, बड़े शहरों का अकेलापन, लम्बे होते जीवन जिनमें लोगों को वृद्धावस्था में सही सहारा नहीं मिलता, इन सब बातों से मानसिक रोग और मानसिक विकलाँगताएँ बढ़ रही हैं.

दूसरी ओर चिकित्सा विज्ञान, शिक्षा और तकनीकी ने भी बहुत तरक्की की है, जिनसे पूरी तरह से जीवन जी पाना, पढ़ना,लिखना, नौकरी करना, सही सहारा मिले तो सब कुछ सम्भव हो गया है. ऐसे में अगर हिन्दी फ़िल्में इन विषयों को पर्दों से बाहर ला कर उनके बारे में जन सामान्य की जानकारी बढ़ा सकती हैं तो यह अच्छी बात है.

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सोमवार, सितंबर 17, 2012

फ्राक पहनने वाले लड़के


आप का दो या तीन साल का बेटा फ्राक पहनने या नेल पालिश लगाने की ज़िद करे या खेलने के लिए गुड़िया चाहे, तो आप क्या करेंगे? और आप कुछ न भी कहें, आप के मन में क्या विचार आयेंगे? अगर पाँच-छहः साल का होने पर भी आप का बच्चा इसी तरह की ज़िद करता रहे तो आप क्या करेंगे?

अगर आप की उसी उम्र की बेटी इसी तरह से पैंट या निकर पहनने की ज़िद करे, लड़कों के साथ मार धाड़ के खेलों में मस्त रहे तो आप क्या सोचेंगे?

आज के समाज में लड़कियाँ का पैंट या जीन्स पहनना आसानी से स्वीकारा जाने लगा है. शायद ही ऐसा कोई काम बचा हो जिसे केवल लड़कों का काम कहा जाता हो. डाक्टर, वकील से ले कर पुलिस और मिलेट्री तक हर जगह अब लड़कियाँ मिलती हैं. कोई युवती पुलिस में हो या मिलेट्री में, यह भी स्वीकारा जाता है कि उस युवती का विवाह होगा, बच्चें होगें और परिवार होगा, यह आवश्यक नहीं कि उस युवती को लोग समलैंगिक ही माने.

लेकिन शायद लड़कों के लिए समाज के स्थापित लिंग मूल्यों की परिधि से बाहर निकलना, अभी भी आसान नहीं है. पति घर में झाड़ू या सफ़ाई करे, खाना बनाये या बच्चे का ध्यान रखे, तो अक्सर लोग सोचते हैं कि "बेचारे को कैसी पत्नी मिली!" या फ़िर सोचते हैं कि उसमें पुरुषार्थ की कमी है. लड़के फ्राक पहनना चाहें, मेकअप करना चाहें या गुड़िया से खेलना चाहें, तो तुरंत ही माता पिता दोनो बिगड़ जाते हैं. खेल के मैदान में साथ खेलने वाले साथी और विद्यालय में साथ पढ़ने वाले उसका जीवन दूभर कर देते हैं.

कुछ सप्ताह पहले ऐसे लड़कों और उनके माता पिता के बारे में अमरीकी प्रोफेसर रुथ पाडावर का लिखा, न्यू यार्क टाईमस मेगज़ीन पत्रिका में एक आलेख छपा था.

Cover New York Times Magazine

इस आलेख में उन्होंने बताया है कि कुछ दशक पहले तक लड़कों के इस तरह के व्यवहार को बीमारी के रूप में देखा जाता था. डाक्टरों का कहना था कि इस तरह के व्यवहार को तुरंत न रोका गया तो बच्चा बड़ा हो कर समलैंगिक बनेगा, नारी बन कर जीना चाहेगा. इसलिए तब इन लड़को को जबरदस्ती "लड़कों जैसे रहो और बनो" के लिए मजबूर किया जाता था. आज इस बारे में डाक्टरों और मनोवैज्ञानिकों की सोच बदल रही है.

आलेख पढ़ते हुए मुझे अंग्रेजी फ़िल्म "बिल्ली एलियट" (Billy Elliot) याद आ गयी जिसमें खान में काम करने वाले मजदूर पिता के बेटे की कहानी थी जो नृत्य सीखना चाहता है और उसके पिता को यह जान कर बहुत धक्का लगता है.

मेरी एक इतालवी मित्र जो पहले पुरुष थी और जिसने लिंग बदलवा कर नारी बनने का आपरेशन करवाया था, मैंने उसके विषय में एक बार इस ब्लाग पर लिखा था. एक बार उसने मुझे बताया था कि उसके छोटेपन में उसके लिए सबसे अधिक कठिन था अपने परिवार की शर्म को स्वीकार करना, "अगर तुम युवक हो और युवतियों के कपड़े पहनो, युवतियों जैसा व्यवहार करो, तो दुनिया तुम्हारा तिरस्कार करती है. तुम्हारे साथ के मित्र तुम्हारे साथ नहीं दिखना चाहते, सोचते हैं कि तुम्हारे साथ रहने से लोग उनके बारे में भी गलत सोचेंगे. कुछ तथाकथित मित्र इतनी क्रूर बातें करते हैं और कहते हैं कि तुम्हारा दिल टूट जाता है. तुम कोशिश करते हो कि इसको छुपा कर रखो. घर में माता पिता, इसे मान भी लें, वे कहते हैं कि घर के अन्दर जैसा चाहो वैसे रह लो, पर घर से बाहर लड़कों जैसे रहो, नहीं तो लोग हमारा मज़ाक उड़ायेंगे, हमारा जीना दूभर हो जायेगा."

करीब एक दशक पहले मैंने यौन पहचान, व्यक्तित्व और यौनिक इच्छा विषय पर शौध किया था. उस शौध के दौरान, एक युवक ने इससे कुछ कुछ विपरीत समस्या बतायी थी. वह विवाहित था और उसके तीन बच्चे थे. उसने बताया था कि "जब मैं छोटा था तो मुझे गुड़िया से खेलना अच्छा लगता था, लड़कियों के कपड़े पहनना चाहता था. कुछ बड़ा हुआ तो लड़कियों के कपड़े पहनने की इच्छा अपने आप लुप्त हो गयी, लेकिन मेरे शौक लड़कियों जैसे थे. मुझे प्रेम कहानियाँ पढ़ना, घर में खाना बनाना, कढ़ायी बुनायी करना अच्छा लगता था. आज भी मेरे वही शौक हैं. मेरे साथी मित्रों में कुछ अपेक्षा सी हो गयी कि मैं समलैंगिक हूँ. सब यही कहते थे कि मैं ऐसा हूँ तो अवश्य समलैंगिक होऊँगा. मैंने कुछ समलैंगिक सम्बन्ध भी किये, पर कुछ मज़ा नहीं आया, मुझे लड़कों से गहरी दोस्ती पसंद थी लेकिन मुझे लड़कों के साथ सेक्स में वह आनन्द नहीं मिला जो लड़कियों के साथ सेक्स में मिला. मेरे कुछ समलैंगिक मित्र कहते थे कि मैं भीतर से समलैंगिक हूँ लेकिन मैं उसे स्वीकारना नहीं चाहता. मेरे विचार में किसी पर यह ज़ोर नहीं होना चाहिये कि अगर किसी के शौक लड़कियों जैसे हैं तो उसे समलैंगिक ही होना चाहिये."

अपने शौध की वजह से मेरी सोच और समझ में बहुत अन्तर आया था लेकिन यह भी सच है कि मैं अपने भीतर इमानदारी से देखूँ तो जानता हूँ कि मन में गहरे मूल्य आसानी से नहीं बदलते. हाँ इतनी समझ आ गयी है कि मानव की यौन पहचान और यौनता को आसानी से श्रेणियों में बाँटा नहीं जा सकता.

रूथ ने अपने आलेख लिखने के बारे में एक ब्लाग में बताया है कि आज के बहुत से माता पिता जब यह जान जाते हैं कि उनका बेटा लड़कियों जैसे कपड़े पहनना चाहता है या गुड़िया से खेलना चाहता है तो वह उन बच्चों पर कोई ज़बरदस्ती नहीं करना चाहते, वह चाहते हैं कि बच्चा अपनी प्रकृति के अनुसार ही व्यवहार करे और बड़ा हो. पर ऐसा करना आसान नहीं क्योंकि समाज का, साथ के अन्य बच्चों का व्यवहार उनसे कहते है कि उनके बच्चे में कुछ खराबी है. इसलिए इस तरह के कई माता पिता ने इंटरनेट के माध्यम से एक दूसरे को सहारा देने के लिए फोरम बनाये हैं, ब्लाग बनाये हैं.

रुथ का शौध बताता है कि सात से दस प्रतिशत लड़कों में इस तरह की बात किसी हद तक हो सकती है, किसी में कुछ कम, किसी में अधिक.

आजकल डाक्टर तथा मनोवैज्ञानिक भी इसे बीमारी नहीं मानते और कहते हैं कि बच्चो को अपने व्यक्तित्व का विकास जिस दिशा में करना चाहे वैसा करने की छूट होनी चाहिये. इस शौध के अनुसार करीब दस वर्ष के होते होते, यह लड़के इस तरह के कपड़े पहनना या व्यवहार करना बन्द कर देते हैं.

बड़े होने पर, उनमें से करीब साठ प्रतिशत युवक समलैंगिक हो सकते  हैं और करीब चालिस प्रतिशत विषमलैंगिक. लेकिन यह शौध यह भी बताता है कि घर वालों तथा माता पिता का सहारा मिलने पर भी, समाज और स्कूल में इन बच्चों पर उनके हम उम्र बच्चों के दबाव रहता है जो कि मान्य लैंगिक मूल्यों के बाहर वाले बच्चों को नहीं स्वीकारते.

आप रुथ का आलेख न्यू योर्क टाईमस पत्रिका पर पढ़ सकते हैं और आलेख लिखने के बारे में रुथ का साक्षात्कार इस ब्लाग पर  पढ़ सकते हैं.

भारत में अगर इस तरह के बच्चे हों तो उनके माता पिता को सलाह और सहारा देने के कोई माध्यम हैं? अगर आप को इसके बारे में जानकारी हो, तो मुझे अवश्य बताईयेगा.

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रविवार, फ़रवरी 26, 2012

गिद्ध, मुर्गियाँ और इन्सान


क्या आप को कभी भारतीय शहरों में गिद्धों की याद आती है? क्या आप को याद है कि आप ने आखिरी बार किसी गिद्ध को कब देखा था? शायद आप के छोटे बच्चों ने तो गिद्ध कभी देखे ही न हों, सिवाय चिड़ियाघरों में? पिछले कुछ सालों में मैं अपनी भारत यात्राओं के बारे में सोचूँ तो मुझे एक बार भी याद नहीं कि कोई गिद्ध दिखा हो.

बचपन में हम लोग दिल्ली में झँडेवालान के पास ईदगाह वाले रास्ते के पास रहते थे. तब वहाँ गिद्धों के झुँड के झुँड दिखते थे. कुछ साल पहले उधर गया था तो उस तरफ भी कोई गिद्ध नहीं दिखे थे. लेकिन पहले इसके बारे में सोचा नहीं था. कोई चीज़ न दिखे, तो समझ में नहीं आता कि नहीं दिखी, जब तक उसके बारे में सोचो नहीं.

पिछले कुछ दशकों में भारत के नब्बे प्रतिशत गिद्ध मर चुके हैं. इसके बारे में मीरा सुब्रामणियम का आलेख पढ़ा तो दिल धक सा रह गया. अचानक याद आ गया कि कितने सालों से भारत में कभी कोई गिद्ध नहीं दिखा.

बदलती दुनिया के साथ भारत भी बदल रहा है. इसके बारे में बहुत सालों से सुन रहा था, पर गिद्धों के बारे में पढ़ कर महसूस हुआ कि सचमुच यह बदलाव कितने बड़े विशाल स्तर हो रहा है. पर बदलाव कुछ छुपा छुपा सा है. कुछ अनदेखा सा. ऐसा कि उसकी ओर सामान्य किसी का ध्यान नहीं जाता.

जितनी बार दिल्ली, बँगलौर या बम्बई जैसे शहरों में जाता हूँ, हर बार लगता है कि दमे या खाँसी या एलर्जी वाले लोग कितने बढ़ गये हैं. डाक्टर होने की यही दिक्कत है कि बीमारियों के समाचार अवश्य मिलते हैं. लोग मेरा हाल चाल पूछने के बाद, अपनी तकलीफ़ें अवश्य बताते हैं. और मुझसे सलाह भी माँगते हैं कि कौन सी दवायी लेनी चाहिये? पर वातावरण में प्रदूषण के बढ़ने से होने वाली बीमारियों को दवा कैसे ठीक कर सकती हैं? यह सोच कर मैं अक्सर कहता हूँ कि दवा के साथ कुछ दिन पहाड़ पर या गाँव में घूम आईये, उससे शायद अधिक असर होगा दवा का.

पर धीरे धीरे, हमारे गाँव और पहाड़ भी उसी प्रदूषण का शिकार हो रहे हैं. कुछ दिन पहले आकाश कपूर का लेख पढ़ा था, जिसमें वह दक्षिण भारत में पाँडेचेरी के पास एक गाँव में अपने घर से दो मील दूर कूड़ा फैंकने की जगह पर जलने वाले प्लास्टिक की बदबू और प्रदूषण की बात कर रहे हैं. उन्होंने लिखा है कि "भारत में हर वर्ष शहरों में दस करोड़ टन कूड़ा बनता है, जिसमें से करीब साठ प्रतिशत इक्टठा किया जाता है, बाकी का चालिस प्रतिशत वहीं आसपास जला दिया जाता है. कुछ कूड़ा लैंडफ़िल यानि बड़े खड्डों में भर दिया है, और वहाँ पर जलता है... भारत की पचास प्रतिशत ज़मीन ऊपरी उपजाऊ सतह खो रही है, सत्तर प्तिशत नदियों का पानी प्रदूषित है, हवा के प्रदूषण की दृष्टि से भारत दुनिया में सबसे अधिक प्रदूषित है ..". वह पूछते हैं कि वह प्रदूषण से बचने के लिए गाँव में रहने आये, लेकिन अगर प्रदूषण गाँवों को लपेट में ले लेगा तो कहाँ जायेंगे?

आर्थिक विकास भारत में कैसे लाया जाये, इसके लिए उदारीकरण का मार्ग चुना गया है. इसके लिए बहुदेशी विदेशी कम्पनियाँ भारतीय कम्पनियों से मिल कर भारत में नये तरीके के बीज और उपज बढ़ाने के लिए नये तरीके की खाद और कीटनाशक स्प्रे ला रही हैं. इस सब से वह चुपचाप होने वाली एक क्राँती हो रही है. जिससे हज़ारों सालों से किसानों द्वारा खोजे और सम्भाले हुए बीज, नये लेबोरेटरी में तैयार हुए बीजों से मिल कर नष्ट हो रहे हैं. लैबोरेटरी में बने बीजों को बहुदेशी कम्पनियाँ बेचती हैं. इनमे वह बीज भी हैं जो एक बार ही उगाये जाते हैं. उन पौधों से बीज नहीं मिलते, उन्हें नया खरीदना पड़ता है. उपज बढ़ाने के लालच में किसान ऋण लेते हैं ताकि यह बीज खरीद सकें. और ऋण न भर पाने पर आत्महत्या करते हैं.

कैमिकल खाद और कीटनाशक पौधों के कीड़े मकोड़े मारते हैं. पर यही पदार्थ नयी बीमारियाँ भी बना रहे हैं. साथ ही ज़मीन के सतह के नीचे छुपे पानी को दूषित कर रहे हैं. नवदान्य संस्था की सुश्री वन्दना शिवा जैसे लोगों ने इसके बारे में बहुत कुछ शौध किया है और लिखा भी है.

अधिकतर लोग सोचते हैं कि यह सब बेकार की बातें हैं. पर्यावरण की रक्षा कीजिये, बाँध बना कर वातावरण को नष्ट न कीजिये, खानों से प्रदूषण होता है, जैसी बातों को विकास विरोधी कहा जाता है. लेकिन यही लोग जब बाज़ार में ताज़ी सब्ज़ी खरीदने जाते हैं तो कैसे जान पाते हैं कि वह सब्जी किस तरह के कीटनाशक तत्वों के संरक्षण में उगायी गयी है? या फ़िर क्या उस सब्जी को नये बीजों से बनाया गया है, जिनका शरीर पर क्या असर पड़ता है इसका किसी को ठीक से मालूम नहीं? जिसे वह लोग बेकार की बात सोचते हैं, वही बात उनके अपने और बच्चों के जीवन पर उतना ही असर करेगी. तो कहाँ जायेंगे, साँस लेने?

माँस मछली खाने वाले सोचते हैं कि शरीर में बढ़िया पोषण पदार्थ जा रहे हैं. लेकिन यह माँस मछली कहाँ से आते हैं? आजकल अधिकतर मुर्गियाँ "ब्रोयलर चिकन" होती हैं, जो पिँजरों मे पैदा होती हैं, वहीं पिँजरों में बढ़ती हैं. सारा दिन विषेश बना चारा खाती हैं. तीन महीने में चूजा मुर्गी बन कर खाने की मेज़ पर तैयार हो कर आ जाता हैं. यह चिकन बनाने की फैक्टरियाँ होती हैं जहाँ हज़ारों लाखों की मात्रा में चिकन तैयार होता है. इसकी कीमत भी सीमित रहती है ताकि लोग खरीद सकें. एक एक पिँजरे में हज़ारों मुर्गियों को साथ रखने से उन्हें पोषित चारा देना और उनकी देखभाल आसान हो जाती है. लेकिन एक खतरा भी होता है. किसी एक मुर्गी को कुछ बीमारी लग गयी तो सारी मुर्गियों में तुरंत फ़ैल जाती है, बहुत नुक्सान होता है. इसलिए उनके चारे में एँटिबायटिक मिलाये जाते हैं ताकि उन्हें बीमारियाँ न हों. चूज़ों को एँटिबायटिक देने का एक अन्य फायदा है कि उससे वह जल्दी बड़े और मोटे होते हैं. वैसे मीट के लिए पाले जाने वाले पशुओं को एँटिबायटिक के अतिरिक्त बहुत से लोग होरमोन भी देते हैं जिससे चिकन और बकरी की मासपेशियाँ सलमान खान और हृतिक रोशन की तरह मोटी और तंदरुस्त दिखती हैं.

Poultry farming for broiler chicken

जितना वजन अधिक होगा, उतनी कमायी होगी. तो मुर्गी हो या बकरी, उसे एँटीबायटिक देना, हारमोन देना, खाने में पिसी हड्डी मिलाना, सब उन्हें मोटा करने में काम आते हैं. खाने वाले भी खुश रहते हैं कि देखो कितना सुन्दर माँस खरीदा, कितना बढ़िया और स्वादिष्ट पकवान बनेगा.

बस कुछ छोटी मोटी दिक्कते हैं. दिक्कत यह कि वही एँटीबायटिक और हारमोन माँस के साथ खाने वाले के शरीर में भी आ जाते हैं. लगातार नियमित रूप से छोटी छोटी मात्रा में एँटिबायटिक और हारमोन आप के शरीर में जाते रहें इससे आप के शरीर को कितना लाभ होगा, यह तो आप स्वयं ही सोच सकते हैं. कई शोधों ने जानवरों को दिये जाने वाले होरमोन की वजह से शहर में रहने वाले लोगों के शरीर में होने वाले कई बदलावों से जोड़ा है, जिसमें कैन्सर तथा एलर्जी जैसी बीमारियाँ भी हैं. पुरुषों के वीर्य पर असर होने से पिता न बन पाने की बात भी है.

इसी बात से जुड़ा कुछ दिन पहले एक अन्य समाचार था. इस समाचार के अनुसार अमरीका ने कहा है कि वह आयात हो कर लाये जाने वाले माँस में एँटिबायटिक तथा हारमोन की जाँच करेंगे और अगर उनमें यह पदार्थ पाये गये तो उन्हें अमरीका में आयात नहीं किया जायेगा. इस समाचार से मैक्सिकों की पशुपालक कम्पनियों में हड़बड़ी फ़ैल गयी कि इसका कैसे समाधान किया जाये. पर अमरीकी, अपने देश में वह हानिकारक माँस नहीं चाहते, लेकिन साथ ही अमरीकी कम्पनियाँ पूरे विश्व में वही हारमोन और कीटनाशक बेचती हैं, उस पर कोई रोक नहीं है.

इसी से मिलता जुलता एक समाचार कुछ दिन पहले चीन से आया था. चीनी एथलीटों को डर है कि वहाँ की मर्गियों को क्लेनबूटेरोल नाम की दवा खिलायी जाती है जो कि चिकन खाने के साथ खिलाड़ियों के शरीर में आ जाती है. इसे ओलिम्पिक वाले गैरकानूनी दवाओं में गिनते हैं. यानि ओलिम्पिक में भाग लेने वाले खिलाड़ियों के शरीर में अगर यह दवा पायी जायेगी तो उन्हें खेलों में भाग नहीं लेने दिया जायेगा. इसलिए उन खिलाड़ियों ने फैसला किया है कि अपने खाने के लिए चिकन स्वयं पालेंगे ताकि उनके शरीर में माँस के साथ इस तरह के कैमिकल पदार्थ न जायें.

लेकिन जिनको किसी ओलोम्पिक खेलों में भाग नहीं लेना, क्या उनके लिए इस तरह के कैमिकल खाना अच्छी बात है? हमारे देशों में पशुओं को कौन सा चारा या दवा खिलायी जाती है, इसकी चिन्ता कौन करता है? क्या आप डर के मारे अपनी मुर्गियाँ स्वयं अपने घर में पालेंगे?

गिद्धों के बारे में अपने आलेख में मीरा सुब्रामणियम ने  अमरीका  में किये गये एक शौध के बारे में लिखा है. गिद्धों की मृत्यु का कारण है कि भारत में जिन मृत पशुओं को वह खाते हैं के शरीर में एक दवा होती है, जिसका नाम है डाईक्लोफेनाक. इस दवा का जोड़ों के दर्द के उपचार के लिए मनुष्यों और पशुओं में प्रयोग होता है. जिन पशुओं को यह दवा दी गयी हो, उनका माँस अगर गिद्ध खाते हैं तो उनके गुर्दे नष्ट हो जाते हैं. इसी वजह से भारत के नब्बे प्रतिशत गिद्ध मर चुके हैं. यानि यह दवा इतने पशुओं को दी जाती है कि इसने भारत के अधिकतर गिद्धों को मार दिया.

मीरा जी का यह आलेख पढ़िये, और सोचिये कि अभी गिद्ध मर रहे हैं, कल वही माँस खा कर बड़े होने वाले आज के छोटे बच्चे बड़े होंगे तो क्या उनको भी नयी बीमारियाँ हो सकती है?

आधुनिक प्रदूषण ट्रेफिक के धूँए से है, शोर से है, प्लास्टिक से है, इसकी बात तो कुछ होती है. लेकिन यह प्रदूषण दवाईयों से भी है, रसायन पदार्थों से भी है, नयी तकनीकों से भी हैं, इसके बारे में कितनी जानकारी है लोगों को?

पर्यावरण और जल का प्रदूषण, खाने में मिली दवायें और कीटनाशक, बदलते बीज और फसलें! यह सब सतह के नीचे छुपे दानव सा बदलाव हो रहा है. यह ऊपर से नहीं दिखता लेकिन भीतर ही भीतर से हमारे भविष्य को खा रहा हैं. जो नेता और उद्योगपति पैसे के लालच में या अज्ञान के कारण, भारत के भविष्य को विकास और आधुनिकता के नाम पर बेच रहे हैं, यह दानव उन्हें भी नहीं छोड़ेगा. उसी हवा में उन्हें भी साँस लेनी है, उसी मिट्टी का खाना उन्हें भी खाना है.

पर क्या भारत समय रहते जागेगा और इस भविष्य को बदल सकेगा?

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गुरुवार, फ़रवरी 16, 2012

छोटा सा बड़ा जीवन


हर बार की तरह इस बार भी भारत से आते समय मेरे सामान में सबसे भारी चीज़ें किताबें थीं. उन्हीं किताबों में थी नरेन्द्र कोहली की "पूत अनोखो जायो", जो कि स्वामी विवेकानन्द की जीवनी पर लिखी गयी है. छोटा सा जीवन था स्वामी विदेकानन्द का, चालिस वर्ष के भी नहीं थे जब उनका देहांत हुआ, लेकिन वैचारिक दृष्टि से देखें तो कितनी गहरी छाप छोड़ कर गये हैं!

स्वामी विवेकानन्द के बारे में भारत में कोई न जानता हो, कम से कम मेरी अपनी पीढ़ी में, मुझे नहीं लगता. पर अधिकतर लोगों को सतही जानकारी होती है. जैसा कि मुझे मालूम था कि वे स्वामी रामकृष्ण परमहँस के शिष्य थे और उन्होंने भारत भर में रामकृष्ण मिशन स्थापित किये और अमरीका यात्रा की जहाँ बहुत से व्याख्यान आदि दिये. पर अगर कोई मुझसे पूछता कि उनकी क्या सोच थी, उनका क्या संदेश था, तो मैं कुछ ठीक से नहीं बता पाता. वह कब पैदा हुए थे, कहाँ पैदा हुए थे, कब और किस उम्र में उनकी मृत्यु हुई, यह सब भी नहीं बता सकता था. इसलिए जब नरेन्द्र कोहली की किताब दिखी तो तुरंत खरीद लिया था.

इसी पुस्तक को शायद पहले विभिन्न खँडों में "तोड़ो, कारा तोड़ो" के नाम से प्रकाशित किया गया था. इस पुस्तक के दो अंश इंटरनेट पर श्री नरेन्द्र कोहली के वेबपृष्ठ पर भी उपलब्ध हैं.

Put anokho jayo book cover

करीब 650 पन्नो की मोटी किताब है जिसमें नरेन्द्र दत्त यानि स्वामी विवेकानन्द के लड़कपन से ले कर मृत्यु के कुछ साल पहले तक का जीवन है. उनके बारे में सबसे अनौखी बात लगी कि जिस नाम से उन्हें उनके घर वाले बुलाते थे यानि नरेन्द्र या जिस नाम से उन्होंने सन्यास की दीक्षा ली, यानि विविदिषानन्द, उन दोनो नामों को आज बहुत कम लोग जानते होंगे, जबकि उनका नाम "विवेकानन्द" ही प्रसिद्ध हुआ जो कि उन्हें अपने जीवन के अन्त में मिला था, शायद इसीलिए क्योंकि इसी नाम से वह अमरीका गये थे और वहाँ प्रसिद्ध हुए थे.

इन नामों के अतिरिक्त अपने सन्यासी जीवन में उन्होंने अन्य कई नामों का प्रयोग किया जैसे कि नित्यानन्द, सच्चिदानन्द और चिन्मयानन्द. उनका नाम विवेकानन्द उन्हें खेतड़ी के राजा अजीतसिंह ने सुझाया था. नामों से मोह न करना, अपने आप को ईश्वर का निमित्त समझना, सन्यासी भावना का ही प्रतीक था.

उनका कलकत्ता में पैदा होना, पिता की मृत्यु, कोलिज में कानून पढ़ना, ब्रह्म समाज में शामिल होना और मन्दिर जाने या मूर्ति पूजा में विश्वास न करना, तर्क की बुनियाद पर आध्यात्मिकता पर प्रश्न पूछना और जानने की कोशिश करना कि भगवान है या नहीं, और फ़िर काली मन्दिर में परमहँस से मुलाकात और धीरे धीरे परमहँस के साथ बँध जाना और सन्यास लेने का निर्णय, उनकी सोच में धीरे धीरे बदलाव, योग और ध्यान से आध्यात्मिक अनुभव, सब बातें किताब में बहुत खूबी से लिखी गयी हैं.

उपन्यास के प्रारम्भ का नरेन दत्त सामान्य लड़का दिखता है जिसके सपने हैं, परिवार के प्रति ज़िम्मेदारियाँ हैं, विधवा माँ, छोटे भाई बहनों की चिन्ता है. पर धीरे धीरे नरेन्द्र इन सब बँधनो से दूर हो जाते हैं और पर्वतों पर तपस्या को निकल पड़ते हैं.

सन्यास लेते समय नरेन्द्र दत्त के शपथ लेने का वर्णन इस जीवन कथा में इन शब्दों में हैः "स्मरण रहे तुमने सन्यास की विधिवत् दीक्षा ली है. अब तुम सन्यासी हो, परमहँस सन्यासी. तुम अपना श्राद्ध स्वयं अपने हाथों कर चुके. अपना पिंडदान कर चुके. अपने परिवार और समाज के लिए तुम मृतक समान हुए. तुम्हारी कोई जाति नहीं, गोत्र नहीं. तुम सामाजिक विधि निषेध से मुक्त हुए. यज्ञोपवीत से मुक्त हुए. तुम किसी भी जाति अथवा धर्म के व्यक्ति का छुआ और पकाया हुआ भोजन खा सकते हो. तुमने सामाजिक विधि  निषेध  को त्यागा, सामाजिक विधि  निषेध  ने तुम्हें त्यागा."

इस शपथ को पढ़ कर मेरे मन में बहुत प्रश्न उठे. क्या यह शपथ हर सन्यासी लेता है? इतिहासिक रूप में यह शपथ कब बनी होगी? अगर हमारे सन्यासी, ऋषि, मुनि यह शपथ लेते थे तो हमारे धर्म ग्रंथों में जातिवाद इतना गहरा क्यों फ़ैला और विवेकानन्द से पहले हमारे सन्यासियों ने भारत में जातिवाद से उठने का कार्य क्यों नहीं किया? पुस्तक में कई घटनाओं का वर्णन है जिसमें स्वामी विवेकानन्द का जाति से जुड़े अपने संस्कारों को बदलने का प्रयास है और अन्य धर्मों एवं तथाकथित "निम्न जातियों" के लोगों से निकटता के सम्बन्ध बनाने की बाते हैं, जैसे कि इस दृश्य में:
"क्या कह रहे हैं बाबा जी! आप मेरी चिलम पीयेंगे! मैं जात का भंगी हूँ महाराज!"
"भंगी?" नरेन्द्र का हाथ सहज रूप से पीछे हट गया और मन अनुपलब्धता की भावना से निराश हो कर बुझ गया... सहसा वह सजग हुआ. उसके मन में बैठा कोई प्रकाश बिन्दु उसे लगातार धिक्कार रहा था. वह कैसा परमहँस सन्यासी है, जो जाति विचार करता है और भंगी को हीन मान कर उसकी चिलम नहीं पीता? वह कैसा वेदान्ती है, जो प्रत्येक जीव में छिपे ब्रह्म को नहीं पहचान पाता?
पुस्तक में कई जगह स्वामी विवेकानन्द के चिलम, चुरुट और सिगरेट पीने की बात है, जिनसे मन में थोड़ा सा आश्वर्य हुआ. जाने क्यों मन में छवि थी कि इतने विद्वान हो कर स्वामी जी में इस तरह की आदतें कैसे हो सकती थी? इस तरह के विचार उस समय, यानि सन् 1890 के परिवेश में चिलम, हुक्का आदि पीने की सोच को ध्यान में नहीं रखते थे और उन्हें आजकल की सोच की कसौटी पर परखते थे. हालाँकि उन्नीस सौ सत्तर अस्सी के दशकों तक अस्पतालों में डाक्टरों तक का सिगरेट सिगार पीना आम बात होती थी.

वैसे तो मुझे इस किताब के बहुत से हिस्से अच्छे लगे. उनमें से वह हिस्सा भी है जिसमें नरेन के साधू बनने की राह पर अपनी माँ से बदलते सम्बन्ध की छवि मिलती हैः
"तुम क्या चाहती हो माँ?"
"अपनी पुस्तकें ले. नानी के घर जा. "तंग" में बैठ कर एकाग्र हो कर कानून की पढ़ाई कर. परीक्षा में अच्छे अंक ले कर उत्तीर्ण हो. वकील बन कर धनार्जन कर तथा माँ और भाईयों का पालन कर." ...
"तुम जानती हो माँ, तुम्हारी इच्छा मेरे लिए क्या अर्थ रखती है!"
"जानती हूँ." भुवनेश्वरी बोली, "यह भी जानती हूँ कि तेरा सुख मेरे लिए कितना महत्वपूर्ण है." भुवनेश्वरी क्षण भर के लिए रुकी, "पर यह भी सोचती हूँ कि तूने मेरे गर्भ से जन्म ले कर मुझे कितना सुख दिया है, कहीं तू अपनी तपस्या से मुझे उतना ही दुःख तो नहीं देने वाला?"
नरेन्द्र क्षण भर मौन खड़ा रहा, फ़िर उसने दृष्टि भर कर माँ को देखा, "मैं तुम्हें दुःख नहीं दूँगा माँ! पर यह भी सत्य है कि मैंने तुम्हे कभी कोई सुख भी नहीं दिया है."
भुवनेश्वरी ने कुछ चकित हो कर उसकी ओर देखा, "यह तू क्या कह रहा है रे?"
"माँ! तुम्हें सुखी किया है मेरे प्रति तुम्हारे मोह ने." नरेन्द्र बोला, "और जहाँ मोह होगा वहाँ दुःख भी आयेगा. अपने मोह को प्रेम में बदल लो माँ, मैं ही क्या तुम्हें कोई भी दुःख नहीं दे पायेगा."
भुवनेश्वरी की आँखें कुछ और खुल गयीं, जैसे किसी अनपेक्षित विराटता को देख कर स्तब्ध रह गईं हों और फ़िर बोलीं, "ईश्वर की माया भी यदि मोह में नहीं डालेगी तो यह लीला कैसे चलेगी. अब अपना कपट छोड़. ऋषियों की बोली मत बोल. मेरा पुत्र ही बना रह और जो कह रही हूँ, वही कर."
मुझे विवेकानन्द का "पव आहारी" बाबा से मिलने का दृश्य और उनकी बातचीत भी बहुत अच्छे लगेः
"ईश्वर अपने उन्हीं भक्तों को कष्ट क्यों देता है बाबा?"
"कष्ट!" बाबा मुस्कराए, "कष्ट क्या होता है भक्त? ये तो सब मेरे प्रियतम के पास से आये हुए दूत हैं. यह उसका प्रेम है. आप को क्या उसके प्रेम की पहचान नहीं है? जिनसे रुष्ट होता है, उन्हें इतना सुख देता है कि वे उसे भूल जाते हैं... कर्म के साथ कामना मत जोड़ो, उसे निष्काम ही रहने दो. एकाग्र हो कर कर्म करो. पूर्ण तल्लीनता से. जिस प्रकार श्री रघुनाथ जी की पूजा अंतःकरण की पूर्ण तल्लीनता से करते हो, उसी एकाग्रता और लगन से ताँबे के क्षुद्र बर्तन को भी माँजो. यही कर्म रहस्य है. जस साधन तस सिद्धि. अर्थात ध्येय प्राप्ति के साधनो से वैसा ही प्रेम रखना चाहिये मानो वह स्वयं ही ध्येय हों."
किताब के विवेकानन्द का जीवन मानव की ईश्वर की खोज में भटकने और रास्ता पाने का वर्णन है. जिस युवक में ठाकुर यानि रामकृष्ण परमहँस को तुरंत देवी माँ का वास दिखता है लेकिन स्वयं विवेकानन्द अपने आप को सामान्य साधक ही मानते हैं जो जीवन भर परमेश्वर की खोज में लगे रहते हैं. उनके मन में वही प्रश्न थे जो आध्यात्मिक मार्ग पर जाने वाले अन्य लोगों के मनों में होते हैं. इस यात्रा में वह अन्य धर्मों के लोगों से मित्रता बनाते हैं और उनसे ईश्वर के बारे में बहस करते हैं. जैसे कि अपनी भारत यात्रा में वह अलवर में एक मुसलमान मित्र के घर पर रुके थे, जलालुद्दीन.

एक अन्य मुसलमान मित्र फैजअली से उनकी बातचीत कि दुनिया में क्यों विभिन्न धर्म बने भी बहुत दिलचस्प हैः
"तो फ़िर इतनी प्रकार के मनुष्य क्यों बनाये? हिंदू बनाये, मुसलमान बनाये, ईसाई बनाये, यहूदी बनाये. उन सबको अलग अलग धार्मिक ग्रंथ दिये. एक ही जैसे मनुष्य बनाने में उसे क्या  एतराज़ था, ताकि लोग न बँटते और न आपस में मतभेद होता. न कोई लड़ाई झगड़ा होता."
स्वामी हँस पड़े, "कैसी होती वह सृष्टि, जिसमें एक ही प्रकार के फ़ूल होते. केवल गुलाब होता, कमल न होता. कमल होता तो गुलाब न होता, गेंदा न होता, मौलश्री न होती, रजनीगंधा का फ़ूल न होता? ...इसीलिए उसने इतनी प्रकार के जीव जंतु और मनुष्य बनाये कि हम पिंजरे का भेद भुला कर जीव की एकता को पहचानें." ...
"तो ऐसा क्यों है कि एक मजहब में कहा गया कि गाय और सूअर खाओ, दूसरे में कहा गया कि गाय मत खाओ, सूअर खाओ, तीसरे में कहा गया, गाय खाओ सूअर  मत  खाओ. इतना ही नहीं जो खाये उसे अपना दुश्मन समझो."
स्वामी हँस पड़े, "मेरे प्रभु ने कहा यह सब?"
"मज़हबी लोग तो यही कहते हैं."
"देखो! किसी भी देश प्रदेश का भोजन वहां की जलवायु की देन है. सागरतट पर बसने वाला आदमी समुद्र में खेती तो नहीं कर सकता, वह सागर से पकड़ कर मछलियाँ ही तो खायेगा. उपजाऊ भूमि के प्रदेश में खेती बाड़ी हो सकती है, वहाँ अन्न, फ़ल और शाक पात उगाया जा सकता है. उन्हें अपनी खेती के लिए गाय और बैल बहुत उपयोगी लगे. उन्होंने गाय को अपनी माता माना, धरती को माता माना, नदी को माता माना, वे सब उनका पालन पोषण माता के समान ही करती हैं. अब जहाँ मरुभूमि हो, वहां खेती कैसे होगी? खेती नहीं होगी तो वह गाय और बैलों का क्या करेंगे? अन्न नहीं है तो खाद्य के रूप में वह पशुओं को ही खायेंगे. तिब्बत में कोई शाकाहारी कैसे हो सकता है? वही स्थिति अरब देशों में है..."
जब भी विभिन्न धर्मों के लोगों की शिकायतों के बारे में पढ़ता हूँ कि उसने हमारे धर्म का उपहास किया, उसने हमारे भगवान को गाली दी या उनका अपमान किया, तो अक्सर मुझे लगता है कि यह लोग अपने मन की अपने धर्म के प्रति असुरक्षा की भावना से ऐसा कहते या सोचते हैं वरना सर्वशक्तिशाली भगवान या इष्टदेव का अपमान आम मानव करे यह कैसे संभव है? इसी विषय पर पुस्तक में विवेकानन्द के विचार हैं जो मुझे अच्छे लगेः
"मां तुम ऐसा क्यों करती हो? किसी के मन में प्रेरणा बन कर उभरती हो कि वह तुम्हारी प्रतिमा बनाये, तुम्हारा मन्दिर बनाये और कहीं और किसी के मन को प्रेरित करती हो वह तुम्हारे मन्दिर को तोड़ दे, प्रतिमा को खंडित कर तुम्हें अपमानित करे?
सहसा स्वामी का मन ठहर गया. क्या मां भी मान अपमान का अनुभव करती है? क्या अपना मन्दिर बनता देख, वे प्रसन्न होती हैं? और मन्दिर के खँडित होने पर उनको कष्ट होता है? क्या मां को भी यश की तृष्णा है? उन्हें भी सम्मान की भूख है? ऐसा होता तो उनका मन्दिर कैसे टूट सकता था? उनकी प्रतिमा कैसे खँडित हो सकती थी? यह तो मनुष्य का ही मन था कि अपने अहंकारवश स्वयं को सारी सृष्टि से पृथक मानता था, अपने मान सम्मान की चिन्ता करता था, अपना यश अपयश मानता था, स्वयं को किसी से छोटा और किसी से बड़ा मानता था."
आज जो लोग हिन्दू धर्म की दुहाई दे कर यह कहते हैं कि धर्म ग्रंथ की बात को बिना प्रश्न के मान लो और अगर रामानुज जैसे विद्वान रामायण की परम्परा पर विभिन्न रामायण ग्रंथों की विवेचना करते हैं तो उसके विरुद्ध खड़े हो जाते हैं, उनके लिए स्वामी विवेकानन्द का विदेश जाने की बात पर एक पँडित से बहस को पढ़ना उपयोगी हो सकता है.

स्वामी जी ने उसे कहा, "प्रत्येक सुशिक्षित हिन्दू का यह दायित्व है कि वह हिन्दू सिद्धांतों को व्यवहारिकता की कसौटी पर कसे. हमें अपनी भूतकालीन अंध गुफ़ाओं से बाहर निकलना चाहिये और आगे बढ़ते हुए प्रगतिशील विश्व को देखना और समझना चाहिये...समय है कि क्षुद्रजन अपना अधिकार मांगें. सुशिक्षित हिन्दूओं का यह दायित्व है कि वे दमित और पिछड़े हुए लोगों को शिक्षा दे कर उन्हें आगे बढ़ायें, उन्हें आर्य बनायें. सामाजिक समता का सिद्धांत अपनायें, पुरोहितों के पाखँडों को निर्मूल करें, जातिवाद के दूषित सिद्धांतों को समाप्त करें, और धर्म के उच्चतर सिद्धांतों को प्रकट कर उन्हें व्यवहार में लायें."

ऐसा नहीं कि मैं धर्म सम्बन्धी सभी बातों में स्वामी विवेकानन्द के विचारों से सहमत हूँ, विषेशकर पुर्नजन्म और पिछले जन्मों के कर्मों से जुड़ी बातों में मुझे विश्चास नहीं. लेकिन यह किताब पढ़ना मुझे अच्छा लगा क्योंकि इसमे उनके विचार क्यों और कैसे बने का बहुत अच्छा विवरण है.

नरेन्द्र कोहली ने यह किताब बहुत सुन्दर लिखी है और अगर आप विवेकानन्द के जीवन तथा विचारों के बारे में जानना चाहते हैं तो इसे अवश्य पढ़िये. इसे लिखने के लिए अवश्य उन्होंने कई वर्षों तक शौध किया होगा.

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