मुझे पहले तो कुछ हँसी आयी, सोचा कि शायद वह मज़ाक कर रहा है. मैंने कहा, "तो तुम्हारा मतलब है कि सबको अपनी जाति के अनुसार ही काम करना चाहिये? यानि अगर कोई झाड़ू सफ़ाई का काम करता है तो उसके बच्चों को भी केवल यही काम करना चाहिये?"
वह बोला, "हाँ. अगर वह नहीं करेंगे तो यह सब काम कौन करेगा?"
इस तरह की सोच वाले पढ़े लिखे लोग आज की दुनिया में होंगे, यह नहीं सोचा था. मालूम है कि भारत में जातिवाद की जड़े बहुत गहरी हैं और यह जातिवाद बहुत क्रूर तथा मानवताविहीन भी हैं. समाचार पत्रों में इसके बारे में अक्सर दिल दहलाने वाले समाचार छपते हैं. यह भी मालूम है कि बहुत से पढ़े लिखे लोग सोचते हैं कि विश्वविद्यालय स्तर पर पढ़ाई में या नौकरी में दलित तथा पिछड़ी जाति के लोगों के लिए रिर्ज़वेश्न गलत है या कम होना चाहिये. लेकिन आज की दुनिया में शहर में रहने वाला पढ़ा लिखा व्यक्ति यह भी सोच सकता है कि लोगों को जाति के अनुसार काम करना चाहिये, इसकी अपेक्षा नहीं थी.
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कुछ माह पहले मध्यप्रदेश में राजीव से मुलाकात हुई थी. वह ब्लाक स्तर के एक उच्च विद्यालय में "मेहमान शिक्षक" है और जन समाजवादी परिषद का कार्यकर्ता भी है. राजीव ने बताया कि वह चमार जाति से है.
"तुम्हें विद्यालय में क्या जातिवादियों से कोई कठिनाई नहीं होती?", मैंने उससे पूछा था. उसने बताया था कि प्रत्यक्ष रूप से भेदभाव कम होता है, पर विभिन्न छोटी छोटी बातों में भेदभाव हो सकता है, विषेशकर खाने पीने से जुड़ी बातों में.
राजीव के साथ एक दिन मोटरगाड़ी में घूमने गये तो हमारी गाड़ी के ड्राईवर थे ब्राहम्ण और उनका नाम था दुबे जी. सारे रास्ते में दुबे जी सारा समय राजीव से बातें करते रहे. बीच में जब खाने के लिए रुके तो दुबे जी अपना खाना घर से ले कर आये थे, उन्होंने अपनी कुछ पूरियाँ और सब्जियाँ मुझे भी दी और राजीव को भी. हमारे खाने से उन्होंने कुछ नहीं लिया, पर चूँकि उनके पास खाना बहुत था और हमारे खाने से अच्छा भी, यह नहीं कह सकता कि उसके पीछे कोई जातिवाद की बात थी या नहीं. पर मुझे राजीव व दुबे जी सरल मित्रतापूर्ण बातचीत और व्यवहार देख कर अच्छा लगा.
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क्या हमारे समाज से कभी जातिवाद का जहर जड़ से मिटे सकेगा, मेरे मन में यह प्रश्न उठा. एक अन्य प्रश्न भी है - जो लोग जातिवाद के विरुद्ध लड़ रहे हैं, क्या हम चाहते हें कि हमारे जीवन के हर पहलू से जातिवाद मिटे या हम केवल जातिवाद के कुछ नकारात्मक अंशों को मिटाना चाहते हैं लेकिन पूरी जाति व्यवस्था को चुनौती नहीं देना चाहते?
कुछ माह पहले मैंने उत्तरप्रदेश में स्वास्थ्य कर्मचारी के कोर्स में पढ़ने वाले तृतीय वर्ष के 36 छात्र - छात्राओं से एक शोध के लिए कुछ प्रश्न पूछे. उत्तर देने वालों में से 90 प्रतिशत युवतियाँ थीं और 10 प्रतिशत युवक. अधिकतर लोग मध्यम वर्ग या निम्न मध्यम वर्ग से थे. बहुत से लोगों के माता पिता अधिक पढ़े लिखे नहीं थे, हालाँकि कुछ लोगों के पिता ने विश्वविद्यालय स्तर की पढ़ाई की थी. उनमें से करीब 80 प्रतिशत लोग दलित या पिछड़ी जातियों से थे.
मेरे प्रश्नों ने उत्तर में 98 प्रतिशत लोगों ने कहा कि वे अपने परिवार द्वारा चुने अपनी जाति के युवक या युवती से ही विवाह करेंगे. करीब 75 प्रतिशत का कहना था कि अगर कोई युवक युवती विभिन्न जातियों के हैं और उनके माता पिता उनके विवाह के विरुद्ध हैं तो उन्हें अपने परिवार की राय माननी चाहिये और जाति से बाहर विवाह नहीं करना चाहिये. पर उनमें से 90 प्रतिशत लोगों ने कहा कि वह खाने पीने, मित्रता बनाने, आदि में भेदभाव के विरुद्ध थे.
करीब 10 प्रतिशत लोगों ने यह भी माना कि उनके परिवारों में बड़े बूढ़े लोग समान्य जीवन में, खाने पीने में, एक दूसरे के घर जाने में, आदि में भेदभाव वाली बातों को ठीक मानते हैं लेकिन वह स्वयं इन बातों में विश्वास नहीं रखते.
इस शोध से यह स्पष्ट है कि जातिवाद भारतीय सामाजिक जीवन में विभिन्न स्तरों पर बहुत गहरा फ़ैला है - हम किससे विवाह करें, किससे मित्रता, किसके साथ घूमें, किसके साथ बैठें, किसके साथ खाना खायें, इन सब बातों में आज भी जाति की बातें जुड़ी है. जहाँ किसी स्तर पर भेदभाव को सही नहीं भी मानते, अन्य स्तरों पर, उसे स्वीकृत करते हैं. चूँकि उत्तर देने वाले अधिकांश लोग स्वयं दलित या पिछड़ी जातियों से थे, जातिवाद से वह भी प्रभावित हैं.
तो क्या हमारी लड़ाई केवल जातिवाद के कुछ नकारात्मक पहलुओं तक सीमित रहनी चाहिये या जीवन के हर पहलू से जाति को निकालने की कोशिश होनी चाहिये? आप का क्या विचार है?
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अगर राजनेता समाज का साथ देते तो जातिवाद थोड़ा कम हो सकता था. पर उनकी राजनीति इसी आधार पर चलती है.यह इस देश का दुर्भाग्य ही है
जवाब देंहटाएंगणतंत्रीय राजनीति ने अवश्य जातिवाद में नये काम्पलिकेशन जोड़े हैं, वोट लेने देने का गणित जातिवाद के आधार पर ही टिका हुआ है, लेकिन क्या राजनीति से ही जातिवाद का उपाय हो सकेगा? उदाहरण के लिए, विवाह में जाति का जो महत्व है क्या वह राजनीति की वजह से है या फ़िर वह बहृत सामाजिक प्रथा का सूचक है जिसकी जड़े गहरी हैं?
हटाएंकाम के अनुसार जाति बांटी गयी थी, फिर धीरे धीरे जाति के अनुसार काम हो गया.... :(
जवाब देंहटाएंमुझे तो मनुष्य मनुष्य में कुछ भेद नहीं दिखाई पड़ता.. फिर चाहे वह भेद धर्म का हो अथवा जाति का.. धर्म एक मिथ्या है, यह मनुष्य की मुढ़ता है कि यह अब तक हमारे समाज, देश, या दुनियां में टिका हुआ है.. जैसे जैसे हम प्रोढ़ होंगे.. धर्म, जाति, अपने आप विदा हो जाएंगे..
हर व्यक्ति को स्वतंत्र होना चाहिए..
समय के साथ धर्म, जाति, सब अपने आप समाप्त हो जायेंगे, यह बात अगर अपने जीवन काल के बारे न सोच कर, लम्बे इतिहासिक समय से देखें तो शायद ऐसा हो सकता है! मैं भी यही मानता हूँ कि हर मानव को स्वतंत्र होना चाहिये!
हटाएंशिक्षा ही सभी कुरीतियों को समाप्त करने का माध्यम है...हम लोग शहर में पले -बढे हैं...हम लोगों ने कभी जाति-धर्म देख के दोस्ती नहीं की...लेकिन अकसर ऐसे लोगों से मुलाकात हो जाती है जो पूछने में नहीं हिचकते...आप कौन से वर्मा हो...
जवाब देंहटाएंउत्तरप्रदेश में जब मैंने शोध किया तो वहाँ भी यही बात निकली थी, बहुत से लोगों ने कहा कि जब तक घर में रहते थे, सोच संकरी थी, अब यहाँ होस्टल में अन्य जाति व धर्म के लोगों के साथ रहते हैं, खाते सोते हैं तो वह बातें व्यर्थ लगती हैं! शिक्षा का अर्थ अगर विस्तृत लिया जाये तो शायद दुनिया बदले.
हटाएंकिसी अपवाद को छोड़ दें तो चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी के बच्चे से बड़े अफसर के बच्चे की शादी नही होती देखी , चाहे बच्चों की योग्यता समान और जाति एक हो? मामला स्टेट्स का आ जाता है। लोगो की सोच हर जगह सामंती ही रहती है।
जवाब देंहटाएंशिक्षा का उद्देश्य पैसा कमाना ज़्यादा है।
प्रेमलता जी, आप की बात बिल्कुल सही है, भारत में जाति और वर्ग दोनों जुड़े हैं. शायद समय और शिक्षा इन भेदों को कम करें, शिक्षा व वर्ग भी तो जुड़े हैं. इटली में मेरे साथ काम करने वाले एक डाक्टर की पत्नी वहीं हमारे दफ्तर में सफ़ाई करती थीं, शायद कभी यह भारत में भी सम्भव हो सके! :)
हटाएंकल 07/दिसंबर/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद !
धन्यवाद यश
हटाएंजातिवाद गांव में ही नहीं बल्कि शहरों में आज भी बड़े व्यापक पैमाने पर सबको देखने को मिलता है....अनपढ़ ही नहीं इसमें पढ़े लिखे तो मौन रूप में इसके सबसे बड़े समर्थक दीखते हैं ....
जवाब देंहटाएंऔर जीवन के हर पहलू में जातिवाद का प्रभाव है. इतनी गहरी पहुँच किस तरह निदान होगा इसका?
हटाएंसुनील दीपक जी, मैं आपसे कहना चाहता हूँ की गूगल एडसेंस अब हिंदी ब्लोग्स को भी स्पोर्ट करने लगा है, आप भी गूगल एडसेंस की सेवा का लाभ उठा कर ब्लॉग्गिंग से कमाई करे, धन्यवाद....
जवाब देंहटाएंलेकिन ब्लागर में जब मैंने अपने हिन्दी के ब्लाग के गेजेट देखें तो उनमें गूगल एडसेन्स जोड़ने का गेजेट नहीं मिलता. तो हिन्दी ब्लाग में एडसेन्स किस तरह जोड़ा जाये?
हटाएंकोशिश करें एडसेंस जरूर मिलेगा। पर ध्यान रखें कि ट्रेफिक ज्यादा से ज्यादा होना चाहिए। दूसरे ब्लाग पर टिप्पणी करने से भी ट्रेफिक बढ़ता है। इसलिए इसे अनदेखा न करें। वैसे आपकी पोस्ट बहुत ही अच्छी है।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद खान साहब. दूसरे ब्लाग पढ़ता तो बहुत हूँ लेकिन टिप्पणी छोड़ने की आदत नहीं जब तक सचमुच कुछ कहने का दिल न करे!
हटाएंकभी नहीं सुन पड़ता, इसने,
जवाब देंहटाएंहां छू दी मेरी हाला,
कभी नहीं कोई कहता- उसने,
जूठा कर डाला प्याला,
सभी जाति के लोग बैठकर
साथ यहीं पर पीते हैं,
सौ सुधारकों का करती है
काम अकेली मधुशाला।
जातिवाद पर चोट करनी हो तो आप मेरे रक्तदान वाले काम को साक्ष्य के रूप में बेझिझक रख सकते है....