मंगलवार, अगस्त 01, 2006

भारतीय पत्रकारिता समाज

कल शाम को जनसत्ता के सम्पादक श्री ओम थानवी का नया आलेख "अपने पराए" पढ़ा तो बहुत देर तक मन क्षुब्ध रहा. आलेख का प्रारम्भ में है इफ्तिखार गीलानी की नई पुस्तक के लोकार्पण के अवसर पर, गीलानी जी के जेल में डाले जाने और उस स्थिति में भारतीय पत्रकारिता के आचरण के बारे में थानवी जी के विचार.

इफ्तिख़ार बड़े अफ़सोस भरे स्वर में कहते हैं कि जेल में उन्होंने जो अत्याचार झेला, वह "मीडिया ट्रायल" का नतीजा था. "पत्रकार के शब्द लोग इतना भरोसा करते हैं, इसका अहसास मुझे पहले न था. और न इसका कि हम अपने फर्ज को कितने हलके ढंग से लेते हैं.
आलेख के अंतिम भाग में थानवी जी ने भारतीय पत्रकारिता समाज के बढ़ते बेहाल की चर्चा की है.

कुछ अखबारों का सारा सम्पादकीय विवेक तो जैसे इस फिक्र में सिमट कर रह गया है कि दुनिया के किस कोने में शराब की कैसी महक पाई जाती है या किस सात तारा होटल का खानसामा झींगामछली किस हुनर से पकाता है... अँग्रेजी मानसिकता में, साहित्य हो चाहे पत्रकारिता, हिंदी वालों को किस तिरस्कार से देखा जाता है, हम सब जानते हैं....
शायद आप कहेंगे कि इसमें नया क्या है? विश्वीकरण के साथ जुड़े उपभोक्तावाद की संस्कृति की वजह से समाचार पत्रों का और नामनीय सम्पादकों का सभ्यता छोड़ कर पन्ने बेच कर विज्ञापन बनाने और उत्पादन बढ़ाने का लालच आसानी से समझा जा सकता है. हिंदी बोलने वाले उपभोक्ताओं से पैसे तो कमाये जा सकते हैं पर उच्च स्तर की फर्राटेदार अँग्रेजी न बोल पाने वालों को तो नीचा समझा ही जाता है. जात पात और वर्ग भेद की आकुण्ठाओं से जकड़े भारतीय समाज को इस सब की आदत है. हिंदी बोलने वालों के मन में अक्सर विश्वास है कि वे हीन हैं तो इसका फायदा अँग्रेज़ी का "सभ्य" समाज उठाये तो उसमे अचरज क्यों?

सोमवार, जुलाई 31, 2006

शब्दों की शक्ति

जेनेवा में अखबार में एक लेख पढ़ा जिसमे हँगरी के सुप्रसिद्ध लेखक पेटर ऐस्तरहाज़ी (Péter Esterhàzy) ने अपने लेखन के बारे में एक साक्षात्कार में कहा, "अचानक मुझे समझ में आया कि मेरे मन में सच और कल्पना के बीच की सीमा रेखा स्पष्ट नहीं थी, शब्दों में कहा गया या सचमुच कुछ बात हुई मेरे लिए एक बराबर ही था. यानि मेरे लिए शब्दों की महत्वता उतनी ही थी जितनी जीवन में होने वाली बातों की... अपनी कल्पना से लिखी वह पहली कहानी मुझे अभी भी याद है, वह अनूठी शक्ति का अनुभव कि मैं सब कुछ कर सकता हूँ, चाहूँ तो किसी को मोटा या पतला, गंदा या पसीने से लथपथ, उसका वक्ष छोटा हो या बड़ा, सब कुछ मेरी इच्छा पर निर्भर है. पहली बार सृजन का आनंद मिला, भगवान को भी कुछ कुछ ऐसा ही लगता होगा."

पेटर की बात कि वह कल्पना में सोची बात और जीवन में होने वाली बातों के बीच की सीमारेखा में अंतर नहीं समझ पाते, मुझ पर भी कुछ कुछ लागू होती है. शाम को बाग में घूमते समय, या रात को सोने से पहले किसी बात को सोचते हुए या सपने में हुई बात, कई बार मुझे लगता है कि वह सचमुच हुई थी. अक्सर पुरानी बातों के बारे में मैं यह नहीं बता पाता कि वह सचमुच हुआ था या फ़िर केवल मैंने सोचा था.

कई बार मन ही मन में किसी मित्र को पत्र लिखता हूँ, सोचता हूँ कि उसे यह बताऊँगा, वह समझाऊँगा, आदि. बाद में लगता है कि मैंने सचमुच वह बात मित्र को लिखी थी और कभी कभी गुस्सा हो जाता हूँ कि मित्र ने उसका जवाब क्यों नहीं दिया!

काम पर भी ऐसा कभी कभी होता है. फेलिचिता, मेरी सचिव अब मेरी इस प्रवृति को समझने लगी है. कभी कभी कुछ काम के बारे में पूछूँ तो कहती है, ठीक से सोचो कि तुमने मुझे सचमुच वह काम दिया था या फ़िर सिर्फ शाम को सोचा था कि मुझे वह काम करना चाहिए?

शायद इसका अर्थ यह हुआ कि मैं भी पेटर की तरह उच्च दर्जे का लेखक बन सकता हूँ?
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जेनेवा से वापस आते समय हवाई जहाज में इंटनेशनल हेराल्ड ट्रीब्यून (International Herald Tribune) अखबार में हर तरफ भारत को पाया. एक समाचार था किसी सरीन के बारे में जो कि यूरोप के सबसे बड़ी टेलोफ़ोन कम्पनी वोदाफ़ोन के डायरेक्टर हैं. दूसरा समाचार था रतन टाटा के बारे में जिन्होंने फियट कार वालों के साथ कोई समझोता किया है.

तीसरा समाचार एक लेख था श्रीमति अनुपमा चोपड़ा का मुम्बई के सिनेमा संसार में आते बदलाव के बारे में. अनुपमा जी बात प्रारम्भ करती हैं करण जौहर की नयी फ़िल्म "कभी अल्विदा न कहना से" जिसमें पति परमेश्वर मानने वाली स्त्री पात्र के बदले में एक विवाहित पुरुष के एक विवाहित स्त्री से प्रेम की कहानी है.

कल्पना जी लिखती हैं, "जौहर जैसे फ़िल्म निर्माता इसलिए उन प्रश्नों से जूझ रहे हैं जैसे आत्मीयता (intimacy) के बारे में (क्या दर्शक स्वीकार करेंगे कि इनके प्रिय सितारे साथ सोते हैं), नैतिकता के बारे में (जौहर जी बोले मैं अपनी फ़िल्म में विवाह के रिश्ते से विश्वासघात करने को स्वीकृति नहीं दे सकता), भाषा के बारे में (सेक्स के विषय में हिंदी में बात करना कठिन है क्योंकि इससे जुड़े शब्द यह तो पुराने और कठिन हैं या फ़िर भद्दे). इस आखिरी परेशानी का हल जौहर जी ने यह खोजा कि इस सब बातों के बारे में बातें अँग्रेज़ी में हों."
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जेनेवा में ग्रेगोर वोलब्रिंग से मुलाकात हुई. ग्रगोर केनेडावासी हैं और जन्म से विकलाँग. ग्रगोर ने सभा में कृत्रिम प्राणीविज्ञान (synthetic biology), और अतिसूक्षम तकनीकी (nanotechnology) इत्यादि विधाओं के मिलन से हो रहे नये प्रयासों के बारे में बोला जिससे अगले 20 या 30 वर्षों में विकलाँगता के बारे में हमारे सोचने का तरीका बदल सकता है. ग्रेगोर का कहना है कि इन तकनीकों से मानव शरीर और मस्तिष्क का ऐसा विकास हो सकता है जो मानव को नयी दिशाओं में ले जा सकता है, ऐसे समाज में विकलाँग वह लोग होंगे जिनके पास इन तकनीकों को खरीदने के लिए साधन नहीं होंगे. ग्रेगोर के बारे में पढ़ना चाहें तो उनके वेबपृष्ठ पर पढ़ सकते हैं.

आज की सभी तस्वीरें जेनेवा से हैं और पहली तस्वीर में मेरे साथ हैं ग्रेगोर वोलब्रिंग.







रविवार, जुलाई 30, 2006

जेनेवा की गर्मी

एक अंतर्राष्ट्रीय सभा के लिए स्विटज़रलैंड में जेनेवा आया हूँ. घर से चला था तो बोलोनिया में इतनी गरमी थी कि बुरा हाल था. पहले, जून तक, इस लिए रो रहे थे सब कि इस साल गरमियाँ ही नहीं आ रहीं थीं, अब इस लिए रो रहे हैं, बहुत गरमी पड़ रही है. खैर स्विटज़लैंड में पहली बार अपने कमरे में छोटा सा मेज़ वाला पँखा देखा. कमरे में गरमी और उमस से बुरा हाल था और उस छोटे से पँखे से कुछ विषेश राहत नहीं मिल रही थी पर दिल को थोड़ी तसल्ली अवश्य होती थी.

चाहे बुश जी माने या न माने और क्योटो के समझोते पर हस्ताक्षर करें या नहीं, यहाँ रह कर कहना कि पर्यावरण में तेज़ी से परिवर्तन नहीं आ रहा, असम्भव है. हमने यहाँ अपने घर में पहला पँखा करीब 1992 या 1993 के आसपास खरीदा था. फ़िर कई पँखे खरीदे, हर कमरे के लिए एक. इस साल घर को वातानाकूलित बनाना ही पड़ा. केवल दस पंद्रह सालों में इतना बदलाव आ गया है. इस साल पहली बार स्विटज़रलैंड में भी पँखे दिख रहे हैं, यानि गरमी और बढ़ती जा रही है.

एक जगह पढ़ा था कि अगले कुछ सालों में वातावरण परिवर्तन से पूरे यूरोप में बरफ़ छा जायेगी और उत्तरी देशों से लोग दक्षिणी देशों के ओर प्रवास करेंगे. यानि भारत, अफ्रीका, मेक्सिको आदि से यूरोप, अमरीका, कनाडा जाने के बदले, लोग भारत, अफ्रीका और मेक्सिको की ओर जायेंगे. वह बर्फ़ीली सर्दी कब आयेगी यह तो मालूम नहीं, अभी तो गरमी भुगतने का मौका है.

अब जब गरमी की लहर की वजह से रोम, लंदन इत्यादि में बिजली उड़ने के समाचार आते हैं तो मन ही मन खुशी होती है. ऐसी ही खुशी तब होती है जब मूसलाधार बारिश के बाद यहाँ के शहरों का जीवन अस्त वयस्त हो जाता है और नालियाँ पानी से भर कर, पानी सड़कों पर आ जाता है. पहले यहाँ के लोग भारत या अफ्रीका की ओर जाते तो नखरे दिखाते थे कि वहाँ बिजली चली जाती है, विकास अच्छी तरह से नहीं हुआ और बेचारे गरीब देश हैं! ये तो मौसम की कृपा थी, न कभी तेज़ गरमी न कभी तेज़ बारिश, जिसकी वजह से सब कुछ अच्छा चलता था और अब मौसम बदलने से यहाँ भी वही हाल होने वाला है ?


जेनेवा झील के किनारे, गरमियों का आनंद लेते हुए




जेनेवा में पर्यावरण पर लगी दो प्रशनियाँ - पहली प्रदर्शनी में दुनियाँ के बच्चों ने अपने देश के बदलते जीवन के चित्र बनाये हैं, उसी में से अफगानिस्तान के बच्चे द्वारा बनाये गये बोनियान के बुद्ध की मूर्ती जो कट्टरवादी तालीबानों ने धवंस कर दी थी.



दूसरी प्रदर्शनी में विभिन्न देशों में आते पर्यवरण परिवर्तन जिसमें चीन में पीली नदी पर बन रहे दुनिया के सबसे बड़े बाँध के बनने से आये परिवर्तनों की तस्वीर


मंगलवार, जुलाई 25, 2006

जिया लागे न

हर साल की तरह गर्मियाँ फ़िर आ गयीं. कुछ दिन तो परिवार के साथ छुट्टियाँ बिताने का मौका मिला पर फ़िर काम पर वापस आना पड़ा जबकि बाकी का सारा परिवार अभी भी छुट्टियाँ मना रहा है. पँद्रह दिनों से घर पर अकेला हूँ.

सुबह उठते ही सोचना पड़ता है, "आज खाने में क्या ले जाये? सलाद, टमाटर और पनीर या खीरा, टमाटर और पनीर?" कुछ ऐसा होना चाहिये जिसे बनाना न पड़े और बर्तन न गन्दे हो तो अच्छा है. सलाद, टमाटर, खीरे और पनीर देख कर ही भूख कम हो जाती है, पर क्या किया जाये? आज फ़िर वही खाना, यह शिकायत किससे कहें?

शाम को घर वापस आओ तो फ़िर एक बार वही दुविधा, क्या बनाया जाये? सुपरमार्किट में जाओ तो मेरे जैसे गम्भीर चेहरों वाले पुरुष दिखते हैं जो अँडे, डिब्बे में बंद खाने, गर्म करने वाले पिज्जे, ले कर घूम रहे होते हैं. शाम को उनके भी घरों में यही दुविधा उठती होगी! आधी दुकाने तो छुट्टियों के लिए बंद हैं. समाचारों में कह रहे थे कि शहर के 60 फीसदी लोग छुट्टियों में शहर से बाहर गये हैं. कार पार्क करने के लिए जगह नहीं खोजनी पड़ती, सड़कों पर यातायात बहुत कम है.

रात को पत्नी से टेलीफ़ोन से बात होती है. आज दिन में क्या किया? जैसे प्रश्न का उत्तर क्या दूँ समझ नहीं आता. आसपास घर गन्दा सा लगता है, रोज़ होने वाली सफाई, सप्ताह में एक दो बार हो जाये तो बहुत है. उठो नाश्ता बनाओ, पौधों को पानी दो, साथ ले जाने के लिए खाना तैयार करो, काम पर जाओ, घर वापस आ कर, फ़िर खाना बनाओ, बर्तन धोओ और रात हो जाती है. मेरे बिना घर में कैसा लगता है, पत्नी पूछती है, जाने अकेले क्या गुलछर्रे उड़ा रहे होगे?

हाँ, गुलछर्रे ही उड़ रहे हैं, पर उनसे मन नहीं भरता. अकेले लोग सारा जीवन कैसे रहते हैं, कुछ कुछ समझ में आता है और थोड़ा सा डर लगता है. अगर घर से अलग लम्बे समय के लिए रहना पड़े तो कैसे होगा? नहीं, कुछ और दिनों की तो बात है, मन को समझाता हूँ.

आज कुछ तस्वीरें में है अकेली शामें.






गुरुवार, जुलाई 20, 2006

आतंकवाद का जवाब

कई चिट्ठों पर इन दिनों इजराईल और लेबनान तथा पालिस्ताईन पर हमलों के बारे में पढ़ा कि ऐसी हिम्मत होनी चाहिए, कट्टरवादी दो मारें तो पचास को मार दो, कुछ सोचो नहीं, अगर आम जनता मरती है, अगर बच्चे मरते हैं, कोई चिता नहीं, आतंकवाद का जवाब हो जैसे ईंट के जवाब में बम. यह चिट्ठे लिखने वाले सोचते हैं कि भारत का उत्तर भी मुम्बई के बमों के बाद भी ऐसा ही होना चाहिए था, पाकिस्तान पर बम बरसाने चाहिये थे. पढ़ कर हँसी आई, उस इज़राईल का उदाहरण देते हैं जहाँ पिछले बीस सालों में बम फटने बंद नहीं हुए और जो देश अपने आस पास ऊँची दीवार बना कर जीने के लिए मजबूर है.
मैं सोचता हूँ कि जिस तरह के उत्तर इज़राईल देता है, उससे आतंकवाद बढ़ता है और जेनेवा कन्वेंशन के अनुसार यह युद्ध अपराध हैं. एक सैनिक के बदले में दस औरतों या बच्चों को मार दो, इसकी नैतिकता नाजी जर्मनी की नैतिकता से मिलती है और अगर इज़राईल को ज़िन्दा रहने के लिए नाज़ियों जैसा बनना पड़ता है तो इज़राईलियों को सोचना चाहिए कि क्या इस लिए उन्होंने अपना देश माँगा था?

आज के भारत के लिए युद्ध की कीमत क्या होगी? थोमस फ्रीडमेन अपनी पुस्तक द फ्लेट अर्थ (The flat earth) में सन 2002 में पाकिस्तान और भारत के बीच तनाव होने और युद्ध की सम्भावना होने के बारे में कहते हैं -

"विवेक कुकलर्णी जो उस समय कर्नाटक राज्य के इंफोर्मेशन तकनीकी के सचिव थे,
उन्होंने मुझे बताया कि हम राजनीति में दखल नहीं देना चाहते पर हमने सरकार को बताया
कि अगर भारत युद्ध में जाता है तो हमारे उद्योग को क्या दिक्कतें हो सकती हैं...
भारत सरकार को संदेश मिल गया. क्या केवल भारत का दुनिया के उद्योग में बढ़ता हुआ
स्थान ही अकेला कारण था जिसकी बजह से वाजपेयी सरकार ने झगड़े की बात कम कर दी और
युद्ध की कागार से देश पीचे हट गया, यह तो नहीं था. और भी कारण थे ..."
सन 2002 के मुकाबले में आज भारत का स्थान विश्व व्यापार में और बढ़ गया है, और आज युद्ध की कीमत और भी अधिक होगी, तो क्या बेहतर नहीं होगा कि और बातों को भूल कर भी, सिर्फ भारत की आर्थिक प्रगति का सोच कर, आतंकवाद के विरुद्ध अन्य तरीके खोजे जायें?

पाकिस्तान में कट्टरवादियों की कमी नहीं है और निकट भविष्य में उन्हें रोकने की क्षमता और इच्छा शायद वहाँ की सरकार में नहीं है. इसलिए भारत में आतंकवादियों को पकड़ने, थामने के लिए जो भी जरुरी हो वह करना चाहिए, पर यह सोच कर जिससे वह कमज़ोर हों, न कि आतंकवाद को बढ़ावा मिले.

एक और पाकिस्तान है जो आम लोगों का है. किसी मैच के सिलसिले में जब पाकिस्तानी लोग भारत आये थे और परिवारों के साथ ठहरे थे तब बात करते थे भारत और पाकिस्तान की साझा संस्कृति के बारे में. कल सिफी पर सामुएल बैड का लेख निकला है जिसमें वह "पाकिस्तान में भारत का सांस्कृतिक धावे" (Indian "cultural invasion" welcome in Pakistan) की बात करते हैं. उनके अनुसार दूरदर्शन में प्रसारित होने वाले रामायण और महाभारत पाकिस्तान में बहुत लोग देखते थे. उनके लेख में पीपलसं पार्टी के एक युवक कहता है कि उसे इन कहानियों से उसे बहुत प्रेरणा मिलती है. फैज़ अहमद फैज़ ने कहा कि पाकिस्तानी संस्कृति की जड़ें आगरा और दिल्ली में हैं. इस पाकिस्तान को मज़बूत करना भारत के अपने हित में है.

मैं नहीं मानता कि भारत को इज़राईल से सीख लेनी चाहिए कि कट्टरवाद से कैसे लड़ा जाये. भारत को कट्टरवाद और आतंकवाद का कड़ा जवाब देते हुए साथ ही इस दूसरे मुसलमान समाज को प्रोत्साहन देना चाहिए जो भारत और पाकिस्तान में है जो अपने साझे इतिहास को मानता है. ऐसी लड़ाई जिससे आतंकवादी कमज़ोर हों और अज़ीम प्रेम जी, सानिया मिर्जा, शबाना आज़मी, शाहरुख खान, जैसे लोगों की बात मज़बूत हो.

धर्म के बूते से बने देश, पाकिस्तान और बँगलादेश, इसको आसानी से नहीं होने देंगे. जहाँ विभिन्न धर्मों वाले, प्रगतिशील भारत में मुसलमान उन दोनो से अधिक हैं, और वह देश सब नागरिकों को जीवन स्तर सुधारने का अवसर देता है, जहाँ सभी धर्मों के मानने वालों के मानव अधिकारों का सम्मान है, इससे अच्छा क्या सबूत चाहिऐ कि धर्म की बिनाह पर अलग देश माँगना बेवकूफी है?

बुधवार, जुलाई 19, 2006

किसकी सम्पत्ती?

रवि की टप्पणी पढ़ी कि किसी ने चिट्टा "चुरा" लिया है तो बहुत कौतुहल से देखने गया. सोच रहा था कि रवि तुमने कैसे जाना? क्या प्रतिदिन तुम हर तरह के चिट्ठे देखते हो जो कोई भी इस तरह की बात हो तुरंत पकड़ी जाये या फ़िर इस बार किस्मत से तुम्हे दिख गया?

मैं ईशेडो की बात से सहमत हूँ कि यह भी प्रशँसा का एक तरीका हो सकता है, हालाँकि इस बार मेरा विचार है कि बेचारे ने मेरे विज्ञापन जैसे चिट्ठे को इस लिए छाप दिया ताकि और लोग उसे पढ़ सके और मुझे अधिक सुझाव मिलें! अच्छा होता कि वह साथ ही लिखता कि उसने यह कहाँ से लिया है पर हो सकता है कि उसने यह अधिक सोचे बिना किया.

मैं क्रियेटिव कोम्मन्स (Creative Commons) में विश्वास रखता हूँ. मेरे विचार में मैं जो भी लिखता हूँ वह बिल्कुल निजी या नया और अपूर्व हो, यह कहना गलत होगा. अक्सर लिखने का विचार किसी और का लिखा कुछ पढ़ कर ही आता है, और अतर्मन में जाने अब तक पढ़ी कितनी किताबें, लेख, आदि होंगे जिनका मेरे लिखने पर प्रभाव होगा. इसलिए यह सोंचू कि मेरे लिखने पर मेरा कोपीराईट हो, मुझे लगता है कि गलत होगा.

यह बात भी है मैं अपने लिखने से नहीं जीता, यह तो समय बिताने का तरीका और अपनी सृजनात्मक इच्छाओं को व्यक्त करने का साधन है, इसलिए कोपीराईट को भूल जाना, उसकी परवाह न करना, इससे मुझे कुछ फर्क नहीं पड़ता. पर जो जीवनयापन के लिए अपने लेखन पर निर्भर हैं, अवश्य उनके लिए ऐसा सोचना कठिन होगा.

यह बात वैज्ञानिक खोज पर लागू हो सकती है. कोपीराईट की बात सुन कर, और यह कि लोग या कम्पनियाँ अपनी नयी कोज से करोड़ या अरबपति बन जायें, मुझे कुछ ठीक नहीं लगता. जिस खोज में पैसा, समय, मेहनत लगी हो, उसका सही मेहनताना उन्हें मिलना चाहिए, पर दस बीस साल तक कोई उनकी "खोज" को छू नहीं सकता, यह गलत लगता है. कोई भी "नयी" वैज्ञानिक खोज, हज़ारों लोगों की पुरानी खोजों के बिना नहीं हो पाती. जीवित प्राणियों से जुड़े कोपीराईट पर तो मुझे और भी गलत लगता है. पर शायद इस सब पर विचार करने के लिए समय चाहिए, एक छोटे से चिट्ठे में यह सब बातें कहना और उनका विवेचन करना कठिन है.
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आप सबको जिन्होंने मेरे पर्श्नों को बारे में सुझाव दिये, धन्यवाद.

मंगलवार, जुलाई 18, 2006

तलाश

पिछले दिनों में जाने कैसे बहुत से इतालवी लोग भारत सम्बंधी बातों के लिए मुझसे सम्पर्क करने लग गये हैं. बातें भी ऐसी पूछते हैं, जैसे "मुझे जयपुर जाना है, वहाँ कोन सी जगह देखने की हैं?" "मुझे नोयडा में काम से जाना है, यह दिल्ली से कितना दूर होगा और वहाँ दिल्ली से कैसे जा सकते हैं?" कुछ दिन पहले टीवी के लिए भारतीय अभिनेता खोजने के लिए भी कहा गया था.

लगता है कि किसी ने खबर फ़ैला दी है कि हमारे यहाँ "भारत सूचना दफ्तर" की एजैंसी है, और सब काम छोड़ कर अब इसी में लगना चाहिए!

अब दो नये प्रश्न पूछे गये हैं, जिनके उत्तर देने के लिए शायद आप में से कोई मेरी सहायता कर सकेः

1. हिंदी सीखने वाले विदेशियों के लिए क्या डिपलोमा या उच्च शिक्षा के कोई कोर्स हैं भारत में? कहाँ पर हैं?

2. एक इतालवी कम्पनी जो डोमोटिक्स (घर में विभिन्न टेकनोलोजियों और वायरलेस को मिला कर आटोमेटशन करने की तकनीकें) के क्षेत्र में काम करती है और किसी इंजीनियरिंग कोलिज से सम्पर्क चाहती है जहाँ से नये स्नातकों और अंतिम वर्ष के छात्रों को स्कालर्शिप पर अपने दफ्तर में कुछ दिन के लिए बुला सकें.

दोनों प्रश्नों के लिए अगर आप में से कोई कुछ सुझाव दे सकें तो आप का अभी से धन्यवाद.

जब कोई सम्पर्क करता है तो उसे सीधा न कहना या कहना कि मुझे नहीं मालूम आप किसी और जगह से कोशिश कीजिये, मुझे अच्छा नहीं लगता पर अगर यही हाल रहा तो करना ही पड़ेगा. अभी तो लगता है कि यह प्रश्न भारत की बढ़ती हुई प्रगति और नाम की वजह से आ रहे हैं, तो मन में गर्व होता है.

शनिवार, जुलाई 15, 2006

गिनती

गिनती में तो शुरु से ही कमज़ोर था. एलजेबरा और ट्रिगनोमेट्री का पूछिये ही नहीं, इम्तहान देते समय मालूम नहीं होता था कि पास भी हो पाऊँगा या नहीं. आठवीं कक्षा में आते आते मैं इस बारे में लोगों के ताने सुन सुन कर परेशान हो गया था, शायद इसीलिए फैसला किया था कि डाक्टरी ही पढ़ूँगा, कम से कम गणित से तो छुट्टी मिलेगी.

पर मानव बुद्धि भी अजीब है, एक तरफ़ से गणित से इतना डर और दूसरी तरफ़ से, कुछ भी गिनना हो बहुत आत्मविश्वास से बिना कागज़ या कलम के, बिना केलकूलेटर के, मन में ही मन में जोड़ घटा कर बताने का शौक भी है. जहाँ काम करता हूँ, वहाँ किसी भी यात्रा से वापस लौट कर जब हिसाब देता हूँ तो वित्त विभाग में काम करने वाले माथा पीट लेते हैं. बहुत बारी तो अपनी जेब से ही भरना पड़ता है. कुछ खरीदने जाऊँ तो पैसे ध्यान से गिन कर देता लेता हूँ पर अक्सर कुछ न कुछ गलती हो ही जाती है.

एक तो पहले से ही यह हाल था, उस पर रही सही कसर इस पश्चिमी गिनती के तरीके ने निकाल दी. पश्चिमी देशों में मिलियन, बिलियन (million, billion) होते हैं और भारत में लाख और करोड़, पर आपस में इनके शून्यों की मात्रा नहीं मिलती.
1 लाखः 1,00,000
1 करोड़ः 1,00,00,000
1 मिलियनः 1,000,000
1 बिलियनः 1,000,000,000

अगर भारत की जनसँख्या करीब 1 बिलियन है तो कितने करोड़ हुई?

इतने सारे शून्य देख कर पहले से ही मुझे घबराहट होने लगती है, और गलती होते देर नहीं लगती. मैंने हिसाब कैसे लगाया सुनिये. मैंने सोचा कि सात आठ करोड़ तो सुना है कि शाह रुख खान और आमिर खान एक फ़िल्म में काम करने का लेते हैं, तो करोड़ इतना अधिक भी नहीं हो सकता. यानि 1 बिलियन कम से कम 1000 करोड़ तो होगा.

एक बार कुछ महीनों के लिए चीन में काम पर रहा था, वहाँ तो चार चार शून्यों को जोड़ कर गिनती गिनते हैं जैसे किः
श्रवानः 10,0000
यीबाइवानः 100,0000
यीछयानवानः 1000,0000

आप सोच ही सकते हैं कि मेरा क्या हाल हुआ वहाँ. पढ़ाते हुए जब भी कोई बड़ी सँख्या आती तो अनुवादक के साथ साथ, विद्यार्थी भी हँसी से लोट पोट हो जाते.

बचपन में गणित की मैडम कहती कि मैं बिल्कुल बुद्धू हूँ और जाने क्या होगा मेरा! वो तो किस्मत अच्छी थी कि भगवान ने दिमाग में गिनती का हिस्सा, बाकी हिस्सों से अलग बनाया. खैर जब मैं लाखों करोड़ों की बात करूँ तो आप समझ ही गये होगें की उसे ध्यान से पढ़िये. फ़िर नहीं कहियेगा कि पहले क्यों नहीं बताया.

गुरुवार, जुलाई 13, 2006

डर

मुम्बई के बम विस्भोट में मेरी भाँजी भी माहिम की रेलगाड़ी में थी. केवल मानसिक धक्का लगा उसे, चोट नहीं आई. पिछले साल जुलाई में जब लंदन में बम विस्फोट हुआ था तब भी एक गाड़ी में मेरा भतीजा इसी तरह बचा था. जिस तरह इतना कुछ तहस नहस हुआ, इतनी जाने गयीं, मन विचलित हो गया, कुछ लिखा नहीं गया.

सागर जी का चिट्ठा पढ़ा तो ऐसी बहुत सी बातें याद आ गयीं. बहुत छोटा था तो सुना था कि भारत विभाजन के समय माँ ने दिल्ली में एक मुसलमान लड़की की जान बचाई थी जिस पर उन्हें प्रधानमंत्री जवाहरलाल नहरु ने सर्टिफिकेट दिया था.

माँ और पापा दोनो पहले गाँधी जी के, फ़िर समाजवादी नेता डा. राम मनोहर लोहिया के साथ जुड़े थे, एक बार बचपन में ही डा. लोहिया के निवास पर पेशावर से आये खान अब्दुल गफ्फार ख़ान को देखा था और उनसे बहुत प्रभावित हुआ था. माँ ने मौलाना आजाद की स्टेनो के रुप में काम किया था. उन सब के बारे में यह सोचना कि वह हिंदू हैं या मुसलमान हैं, इसका कभी प्रश्न ही नहीं उठा.

कुछ बड़े हुए तो साथ वाले घर में मुसलमान परिवार था, पटौदी की रियासत के मैनेजर साजिद भाई, उनकी पत्नी आइरिन और उनके बच्चे, बबला यानि अहमद और निधा. उन्हीं दिनो पापा के एक मित्र अख्तर भाई पटना से जब भी दिल्ली आते तो उनसे खूब गप्प लगती. साजिद भाई के यहाँ आल इंडिया रेडियो में उर्दू के समाचार पढ़ने वाले जावेद भाई आते, उनसे भी बहुत पटती. उदयपुर में काम से गया तो पापा की ही एक पुरानी साथी के घर पर रुका. तब यह नहीं सोचना पड़ा था कि वह मुसलमान परिवार है.

आज भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बहुत से मुस्लिम मित्र हैं. कहने का अर्थ यह है कि सामान्य, प्रगतीवादी मुसलमान समाज से अनजान नहीं हूँ मैं, पर अगर यह कहूँ कि मुस्लिम कट्टरवाद से डर नहीं लगता, तो झूठ होगा. शायद यह कहना ठीक होगा कि हर कट्टरवाद से डर लगता है और पिछले सालों में मुस्लिम कट्टरवाद सबसे अधिक समाचारों मे आया है, इसलिए उससे कुछ अधिक डर लगता है.

बचपन में ही नानी से विभाजन के समय की पाकिस्तान का घर छोड़ने और उस समय के खून खराबे की बातें भी सुनीं थीं और उनके अंदर बसे मुसलमानों के विरुद्ध जमे रोष को भी महसूस किया था, पर तब इस तरह का डर नहीं लगता था. यह डर पिछले दस पंद्रह सालों में ही आया है.

सामने कभी किसी कट्टरवादी से बातचीत नहीं हुई, तो यह डर कहाँ से आया? शायद समाचारों, पत्रिकाओं में जो छपता है और टेलीविजन पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रम यह डर बनाते और बढ़वाते हैं? सामान्य मुस्लिम जैसे बचपन के लोग जिन्हें मैं जानता था या आज के मु्स्लिम मित्र, वे याद क्यों नहीं आते जब मुसलमानों और कट्टरवादियों की बात होती है?

मेरे विचार में इसका एक कारण यह भी है कि आजकल कुछ भी बात हो, कोई भी विषय हो जिसका सम्बंध मुसलमान समाज से है, हर बार रुढ़िवादी मुल्ला टाईप के लोगों के ही आवाज़ ऊँची सुनाई देती है, सामान्य लोग जो अपने भविष्य, काम, पढ़ाई कि बात करते हों, जो आधुनिक हों, पढ़े लिखे हों, उनकी आवाज़ कहीं सुनने को नहीं मिलती.

यह बात नहीं कि अन्य धर्मों में कट्टरवादी नहीं, हिंदू, सिख और इसाई कट्टरवादी भी हैं,पर शायद अन्य धर्मों में बहुत से लोग विभिन्न विचार रखने वाले भी हैं, जिनकी आवाज़ दबती नहीं है. तो भारत के पंद्रह करोड़ से अधिक मुसलमानों में विकासवादी, साहिष्णुक लोगों की आवाज़ ही क्यों दब जाती है? शायद उन्हे डर है कि उनके बोलने से उन्हें खतरा होगा या फ़िर मीडिया वाले बिक्री बढ़ाने के लिए पुराने रुढ़ीवादी विचारों वालों को ही मुस्लिम समाज के सही प्रतिनिधि मानते हैं और केवल उनकी ही बात सुनते और छापते हैं? राजनीतिक नेताओं की "वोट के लिए कुछ भी करो, कुछ भी मान लो, बाँट दो लोगों को धर्म की, जाति की, भाषा की सीमाओं में" की नीति ने भी इसमें अपना योगदान दिया है.

कुछ महीने पहले विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक मीटिंग में मिस्र गया था. बात का विषय था विकलाँगता. देख कर बहुत हैरत हुई कि अधिकतर बोलने वालों ने कुरान का या खुदा का नाम ले कर बोलना प्रारम्भ किया. एक दो लोगों ने तो पहली स्लाईड में एक मस्जिद दिखाई. पिछले पाँच सालों में मैं इस तरह की मीटिंग में विश्व के विभिन्न कोनों में जा चुका हूँ पर यह पहली बार हुआ और सभा के विषय में धर्म के इस तरह घुसने से मन में थोड़ा डर सा लगा. सोचा कि दिल्ली के क्षेत्रीय विश्व स्वास्थ्य संगठन की किसी मीटिंग में इस तरह की बात होती तो हल्ला हो जाता.

कुछ महीने पहले दिल्ली में अपनी बड़ी दीदी से बात कर रहा था, बोलीं, "मुसलमान तो सभी कट्टर होते हैं, चाहे जितने भी पढ़े लिखे हों, बाकी सब धर्मों को नीचा ही मानते हैं." दीदी की बात सुन कर दंग रह गया. थोड़ी बहस की कोशिश की पर वह सुनने के लिए तैयार नहीं थीं. मेरी दीदी संकीर्ण विचारों वाली तो नहीं थीं, न ही हिंदू कट्टरपंथीं. उनकी बात सुन कर भी डर लगा. मैं नहीं मान सकता कि भारत के सभी पंद्रह करोड़ मुसलमान कट्टर हैं या पुराने रुढ़िवादी विचारों के हैं, पर अगर मेरी दीदी जैसे लोग इस तरह की बात सोच सकते हैं या सोचने लगे हैं, तो सचमुच चिंता की बात है.

बात केवल हिंदुओं या अन्य धर्मों की गलतफ़हमी दूर करने की नहीं बल्कि स्वयं पूरे मुस्लिम समाज के भविष्य की है. प्रगितिवादी, उदारवान, भविष्यमुखी मुसलमान विचारक ही यह काम कर सकते हैं कि उनकी आवाज़ ऊँचीं हो कर उनके समाज के विभिन्न विचारों को सबके सामने रख सके.

पिछले साल लंदन गया था तो बोलोनिया की भारतीय एसोसिशन वालों ने वहाँ से अलग अलग रंगों के गुलाल खरीद कर लाने की जिम्मेदारी सौंपी थी. गुलाल खोजते हुए साउथहाल पहुँच गया. कई दुकानों में गया पर नहीं मिला. एक दुकान में घुसा तो कुछ पूछने से पहले देखा कि एक वृद्ध सफ़ेद दाढ़ी वाले मुसलमान पुरुष थे. उन्हे देख कर बाहर निकल रहा था तो उन्होंने पीछे से आवाज़ दे कर पूछा, "क्या चाहिए?". हिचकिचा कर कहा कि गुलाल खोज रहा था. वह मुस्कुराए और मुझे बाहर ले आये, उँगली उठा कर इशारा कर के कहा, "वहाँ कोने वाली दुकान दिख रही है न, लिटिल इँडिया, वहाँ सब भगवान की मूर्तियाँ, गुलाल वगैरा मिल जायेगा." उन्हे धन्यवाद दे कर निकला तो मन में थोड़ा पश्चाताप हुआ. यह सोच कर ही कि वह मुसलमान हैं मैं उनसे गुलाल की बात करने को घबरा रहा था, यह भूल गया था कि बचपन में साजिद भाई के बच्चों ने भी मेरे साथ होली खेली थी.

इस तरह की सोच से जो किसी को जाने बिना, उसके धर्म के आधार पर ही उसके बारे में विचार बना लेती है, उससे भी डर लगता है.

शुक्रवार, जून 30, 2006

हिंदी के उपन्यासकार

रत्ना जी ने लिखा है कि मेरे लिखने के अन्दाज़ में उसे मेरी प्रिय लेखिका शिवानी की झलक दिखती है. शिवानी की कोई किताब पढ़े तो वर्षों बीत गये, पर उनके लिखने के तरीके की झलक मेरे लिखने में मिलती है, सोच कर बहुत खुशी हुई.

अपने मनपसंद हिंदी लेखकों के उपन्यास पढ़े तो अब यूँ ही साल गुजर जाते हैं क्योकि मेरे बहुत से प्रिय लेखक अब नहीं रहे या कम लिखते हैं. और नये लेखकों से मेरी जान पहचान कुछ कम है.

कुछ महीने पहले दिल्ली से गुज़रते समय मुझे डा. राँगेय राघव की एक अनपढ़ी किताब मिल गयी थी, "राह न रुकी" (भारतीय ज्ञानपीठ, पहला संस्करण, 2005).

आजकल उपन्यास पढ़ना कम हो गया है और कभी पढ़ने बैठूँ भी तो रुक रुक कर ही पढ़ पाता हूँ, एक बार में नहीं पढ़ा जाता. पर मई में जेनेवा जा रहा था, "राह न रुकी" सुबह पढ़ना शुरु किया और पूरा पढ़ कर ही रुका. इस उपन्यास में उन्होने जैन धर्म के सिद्धातों का विवेचन किया है चंदनबाला नाम की जैन संत के जीवन के माध्यम से. भगवान बुद्ध का जीवन और उनका संदेश के बारे में तो पहले से काफी कुछ जानता था पर कई जैन मित्र होने के बावजूद भगवान महावीर के बारे में बहुत कम जानता था, शायद इसीलिए यह उपन्यास मुझे बहुत रोचक लगा और जब पढ़ कर रुका तो सोचा था कि भगवान महावीर के बारे में और भी पढ़ना चाहिए.

मुझे ऐसे ही उपन्यास आजकल भाते हैं जिनमें रोचक कथा के साथ सोचने को नया कुछ भी मिले. इसी से सोचने लगा कौन थे मेरे प्रिय हिंदी के उपन्यासकार?

सबसे पहले, बहुत बचपन में जब पराग, चंदामामा और नंनद पढ़ने के दिन थे, तभी से उपन्यास पढ़ने का चस्का लग गया था मुझे. घर में पैसे कि चाहे जितनी तंगी हो, उपन्यासों की तंगी कभी नहीं लगी. पापा के पास आलोचना के लिए नये उपन्यास आते रहते थे और जब घर में नई किताब न मिले तो दिल्ली पब्लिक लायब्रेरी से मिल ही जाती थी.

जो पहला नाम मन में आता है वह है सोमा वीरा का, जिनकी एक कहानियों की किताब "धरती की बेटी" (आत्माराम एंड सन्स, दिल्ली, 1962) आज भी मेरे पास है. यह पहली किताब थी जो आठ का साल का था, तब पढ़ी थी. उन्होंने अन्य कुछ लिखा या नहीं मालूम नहीं.



उन्हीं दिनो के अन्य नाम जो आज भी याद हैं उनमे थे राँगेय राघव, किशन चंदर, नानक सिंह, और जाने कितने नाम जो आज भूल गये हैं. किशन चंदर की "सितारों से आगे" और आचार्य चतुरसेन की "वैशाली की नगरवधु" बचपन की सबसे प्रिय पुस्तकों मे से थी. धर्मयुग और साप्ताहिक हिंदुस्तान से जान पहचान हुई शिवानी, महरुन्निसा परवेज़, बिमल मित्र, मन्नु भँडारी, धर्मवीर भारती जैसे लेखकों से. बँगला लेखकों से मुझे विषेश प्यार था, लायब्रेरी से किताबें ले कर बिमल मित्र, आशा पूर्णा देवी, शरतचंद्र, बँकिमचंद्र चैटर्जी, सुनील गंगोपाध्याय और असिमया के बीरेंद्र कुमार भट्टाचार्य जैसे लेखको को बहुत पढ़ा.

किशोरावस्था तक आते आते, अँग्रेजी की किताबें पढ़ना शुरु कर दिया था और धीरे धीरे हिदी में उपन्यास पढ़ना बहुत कम हो गया. आजकल कभी कोई इक्का दुक्का किताब पढ़ लेता हूँ पर श्रीलाल शुक्ल, पंकज विष्ट, दिनकर जोशी, अजीत कौर, मैत्रयी पुष्प, अलका सराओगी जैसे कुछ नाम छोड़ कर आज कल के नये लेखकों के बारे में बहुत कम मालूम है.

हिंदी छूटी तो उसके बदले में जर्मन को छोड़ कर बाकी सभी यूरोपीय भाषाओं मे पढ़ना शुरु हो गया था. ब्राजील के कई लेखक मुझे बहुत प्रिय हैं.

इसलिए पिछले साल हिंदी का चिट्ठा शुरु करने से पहले, हँस पत्रिका को छोड़ कर हिंदी में नया कुछ पढ़ना तो लगभग समाप्त ही हो गया था. अब चिट्ठे के माध्यम से ही दोबारा हिंदी पढ़ने की इच्छा जागी है इसलिए जब भी भारत जाने का मौका मिलता है, हिंदी की किताबें ढूँढना शुरु कर दिया है. पर नयी किताबें ढूँढने के बजाय, मन वही पुरानी किताबें खोजना चाहता है जिनकी यादें अपने अंदर अभी भी बसीं हैं.

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