चाहे बुश जी माने या न माने और क्योटो के समझोते पर हस्ताक्षर करें या नहीं, यहाँ रह कर कहना कि पर्यावरण में तेज़ी से परिवर्तन नहीं आ रहा, असम्भव है. हमने यहाँ अपने घर में पहला पँखा करीब 1992 या 1993 के आसपास खरीदा था. फ़िर कई पँखे खरीदे, हर कमरे के लिए एक. इस साल घर को वातानाकूलित बनाना ही पड़ा. केवल दस पंद्रह सालों में इतना बदलाव आ गया है. इस साल पहली बार स्विटज़रलैंड में भी पँखे दिख रहे हैं, यानि गरमी और बढ़ती जा रही है.
एक जगह पढ़ा था कि अगले कुछ सालों में वातावरण परिवर्तन से पूरे यूरोप में बरफ़ छा जायेगी और उत्तरी देशों से लोग दक्षिणी देशों के ओर प्रवास करेंगे. यानि भारत, अफ्रीका, मेक्सिको आदि से यूरोप, अमरीका, कनाडा जाने के बदले, लोग भारत, अफ्रीका और मेक्सिको की ओर जायेंगे. वह बर्फ़ीली सर्दी कब आयेगी यह तो मालूम नहीं, अभी तो गरमी भुगतने का मौका है.
अब जब गरमी की लहर की वजह से रोम, लंदन इत्यादि में बिजली उड़ने के समाचार आते हैं तो मन ही मन खुशी होती है. ऐसी ही खुशी तब होती है जब मूसलाधार बारिश के बाद यहाँ के शहरों का जीवन अस्त वयस्त हो जाता है और नालियाँ पानी से भर कर, पानी सड़कों पर आ जाता है. पहले यहाँ के लोग भारत या अफ्रीका की ओर जाते तो नखरे दिखाते थे कि वहाँ बिजली चली जाती है, विकास अच्छी तरह से नहीं हुआ और बेचारे गरीब देश हैं! ये तो मौसम की कृपा थी, न कभी तेज़ गरमी न कभी तेज़ बारिश, जिसकी वजह से सब कुछ अच्छा चलता था और अब मौसम बदलने से यहाँ भी वही हाल होने वाला है ?
जेनेवा झील के किनारे, गरमियों का आनंद लेते हुए
जेनेवा में पर्यावरण पर लगी दो प्रशनियाँ - पहली प्रदर्शनी में दुनियाँ के बच्चों ने अपने देश के बदलते जीवन के चित्र बनाये हैं, उसी में से अफगानिस्तान के बच्चे द्वारा बनाये गये बोनियान के बुद्ध की मूर्ती जो कट्टरवादी तालीबानों ने धवंस कर दी थी.
दूसरी प्रदर्शनी में विभिन्न देशों में आते पर्यवरण परिवर्तन जिसमें चीन में पीली नदी पर बन रहे दुनिया के सबसे बड़े बाँध के बनने से आये परिवर्तनों की तस्वीर
मुझे याद है कुछ साल पहले अगस्त के महीने में स्वितजरलैण्ड के एक होटेल में बिताई कुछ गर्म रातें, जब गर्मी के कारण बहुत तकलीफ हुई थी, क्योंकि पंखा नही था।
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