अपने मनपसंद हिंदी लेखकों के उपन्यास पढ़े तो अब यूँ ही साल गुजर जाते हैं क्योकि मेरे बहुत से प्रिय लेखक अब नहीं रहे या कम लिखते हैं. और नये लेखकों से मेरी जान पहचान कुछ कम है.
कुछ महीने पहले दिल्ली से गुज़रते समय मुझे डा. राँगेय राघव की एक अनपढ़ी किताब मिल गयी थी, "राह न रुकी" (भारतीय ज्ञानपीठ, पहला संस्करण, 2005).
आजकल उपन्यास पढ़ना कम हो गया है और कभी पढ़ने बैठूँ भी तो रुक रुक कर ही पढ़ पाता हूँ, एक बार में नहीं पढ़ा जाता. पर मई में जेनेवा जा रहा था, "राह न रुकी" सुबह पढ़ना शुरु किया और पूरा पढ़ कर ही रुका. इस उपन्यास में उन्होने जैन धर्म के सिद्धातों का विवेचन किया है चंदनबाला नाम की जैन संत के जीवन के माध्यम से. भगवान बुद्ध का जीवन और उनका संदेश के बारे में तो पहले से काफी कुछ जानता था पर कई जैन मित्र होने के बावजूद भगवान महावीर के बारे में बहुत कम जानता था, शायद इसीलिए यह उपन्यास मुझे बहुत रोचक लगा और जब पढ़ कर रुका तो सोचा था कि भगवान महावीर के बारे में और भी पढ़ना चाहिए.
मुझे ऐसे ही उपन्यास आजकल भाते हैं जिनमें रोचक कथा के साथ सोचने को नया कुछ भी मिले. इसी से सोचने लगा कौन थे मेरे प्रिय हिंदी के उपन्यासकार?
सबसे पहले, बहुत बचपन में जब पराग, चंदामामा और नंनद पढ़ने के दिन थे, तभी से उपन्यास पढ़ने का चस्का लग गया था मुझे. घर में पैसे कि चाहे जितनी तंगी हो, उपन्यासों की तंगी कभी नहीं लगी. पापा के पास आलोचना के लिए नये उपन्यास आते रहते थे और जब घर में नई किताब न मिले तो दिल्ली पब्लिक लायब्रेरी से मिल ही जाती थी.
जो पहला नाम मन में आता है वह है सोमा वीरा का, जिनकी एक कहानियों की किताब "धरती की बेटी" (आत्माराम एंड सन्स, दिल्ली, 1962) आज भी मेरे पास है. यह पहली किताब थी जो आठ का साल का था, तब पढ़ी थी. उन्होंने अन्य कुछ लिखा या नहीं मालूम नहीं.
उन्हीं दिनो के अन्य नाम जो आज भी याद हैं उनमे थे राँगेय राघव, किशन चंदर, नानक सिंह, और जाने कितने नाम जो आज भूल गये हैं. किशन चंदर की "सितारों से आगे" और आचार्य चतुरसेन की "वैशाली की नगरवधु" बचपन की सबसे प्रिय पुस्तकों मे से थी. धर्मयुग और साप्ताहिक हिंदुस्तान से जान पहचान हुई शिवानी, महरुन्निसा परवेज़, बिमल मित्र, मन्नु भँडारी, धर्मवीर भारती जैसे लेखकों से. बँगला लेखकों से मुझे विषेश प्यार था, लायब्रेरी से किताबें ले कर बिमल मित्र, आशा पूर्णा देवी, शरतचंद्र, बँकिमचंद्र चैटर्जी, सुनील गंगोपाध्याय और असिमया के बीरेंद्र कुमार भट्टाचार्य जैसे लेखको को बहुत पढ़ा.
किशोरावस्था तक आते आते, अँग्रेजी की किताबें पढ़ना शुरु कर दिया था और धीरे धीरे हिदी में उपन्यास पढ़ना बहुत कम हो गया. आजकल कभी कोई इक्का दुक्का किताब पढ़ लेता हूँ पर श्रीलाल शुक्ल, पंकज विष्ट, दिनकर जोशी, अजीत कौर, मैत्रयी पुष्प, अलका सराओगी जैसे कुछ नाम छोड़ कर आज कल के नये लेखकों के बारे में बहुत कम मालूम है.
हिंदी छूटी तो उसके बदले में जर्मन को छोड़ कर बाकी सभी यूरोपीय भाषाओं मे पढ़ना शुरु हो गया था. ब्राजील के कई लेखक मुझे बहुत प्रिय हैं.
इसलिए पिछले साल हिंदी का चिट्ठा शुरु करने से पहले, हँस पत्रिका को छोड़ कर हिंदी में नया कुछ पढ़ना तो लगभग समाप्त ही हो गया था. अब चिट्ठे के माध्यम से ही दोबारा हिंदी पढ़ने की इच्छा जागी है इसलिए जब भी भारत जाने का मौका मिलता है, हिंदी की किताबें ढूँढना शुरु कर दिया है. पर नयी किताबें ढूँढने के बजाय, मन वही पुरानी किताबें खोजना चाहता है जिनकी यादें अपने अंदर अभी भी बसीं हैं.
सुनिल जी,
जवाब देंहटाएंआपका लिखा कुछ ऐसा होता है कि मुझे भी लिखने के लिये नये नये आईडीये मिलते रहते है.
अब मै भी लिखूंगा इसी विषय पर ..
मैने रांगेय राघव का हाल ही मे "मोहेंजोदाडो" पढा है, उनके लिखने की शैली मुझे अच्छी लगती है, मन ५००० साल पहले पहूंच गया था।
आजकल शीवाजी सांवत का "मृत्युंजय" पढ रहा हूं
सुनीलजी,
जवाब देंहटाएंपिछ्ले कई सप्ताह से आपके चिट्ठे पदता आ रहा हूं ।
काफी अच्छा और रोचक लेखन है।
़खासकर आपका यात्रा वृत्तांत और सुंदर चित्र ।
शुभकामनांऎ ।
आपने तो बिल्कुल मेरी कताबों में रुचि और पढी हुई पुस्तकों के बारे में लिख दिया।
जवाब देंहटाएंवैशाली की नगरवधु मेरा प्रिय उपन्यास हैं.
जवाब देंहटाएंसुनील जी,
जवाब देंहटाएंआपका चिठ्ठा मैं कई महीनों से पढ़ता आ रहा हूं, बड़ी रोचकता और साफगोई से लिखते हैं आप। इस बार कुछ चुनिन्दा और अपने भी पसन्दीदा हिन्दी साहित्यकारों के नाम देख कर बड़ा अच्छा लगा। मेरे भी प्रिय लेखकों में रहे हैं - शरतचंद्र, श्रीलाल शुक्ल, भीष्म साहनी और विमल मित्र - अल्बत्ता बांग्ला उपन्यासकरों का मैंने हिन्दी रूपांतरण ही पढ़ा है, खास कर - विमल मित्र का "खरीदी कौड़ियों के मोल" - इसके शायद 2 volumes थे और हम दो-तीन मित्रों ने इसी बारी - बारी से पढ़ा । इस उपन्यास का इतना जादू चढ़ा कि अनवरत रूप से पढ़ कर समाप्त करने के बाद ही विराम दिया । कमोबेश यही सिलसिला "आखिरी पन्ने पर देखिये" के साथ हुआ परंतु वह अपेक्षाकृत काफी छोटा उपन्यास था।
मै हर दो दिन मे एक बार आपके ब्लाग पर आता हूँ क्योंकि यहां पढने के लि् मज़ेदार लेख होते है पर टिप्पणी देने के लिऐ मेरे आफिस मे कोई सिसटम है ना साईबर केफे मे और मेरे फ्लैट मे कमप्यूटर तो है मगर इनटरनेट नही है। ये हिन्दी टिप्पणी मै ने अपने कमप्यूटर पर लिख कर साईबर केफे से पोस्ट किया है। है ना कमाल की बात :D
जवाब देंहटाएंसुनिलजी
जवाब देंहटाएंजिस विषय पर भी आप लेख लिखते है उसे पढना ही जरुरी हो जाता है साधुवाद लिखते रहिये .चरावेति-चरावेति------
सुशील
सुनील भाई,
जवाब देंहटाएंआपके चिट्ठे पर सोमावीरा की किताब का उल्लेख और चित्र देखकर बहुत खुशी हुई। उन्होंने 100 से अधिक कहानियाँ लिखीं और हिन्दी में उनकी 5-6 किताबें प्रकाशित हुईं थीं। वे 50 के दशक में अमेरिका गईं और सन 2004 में उनका देहांत हुआ। वे अंग्रेज़ी में साइंस फ़िक्शन और कविताएँ भी लिखती रहीं और समकालीन अंग्रेज़ी लेखकों में भी पहचान बनाई। हम अपनी पत्रिका के लिए उनका एक चित्र ढूँढने में लगे हैं पर अभी तक कोई मिला नहीं है। कभी समय मिले और 'धरती की बेटी' में उनका कोई चित्र हो तो क्या उसे स्कैन कर के भेज सकेंगे?
समय का ये पल, आपके पत्र से मुझे भी अपना बचपन याद आ गया। छोटे से गांव में रहते हुए भी सामाजिक और जासूसी उपन्यासों को पढ़ते पढ़ते अचानक हिन्दी साहित्य की ओर रुचि जाग्रत हो गई। मेरी शुरुआत कक्षा चौंथी पढ़ते समय राम चरित मानस पढ़ने से हुई। फिर घर में रखी सुखसागर...। अपना शौक पूरा करने के लिए स्कूल की लायब्रेरी का सदस्य बन गया। अभी याद नहीं आ रहा, कौन सी पुस्तक में लेखक ने लिखा था कि पुस्तक से निकलकर कोई उससे बातें करने लगता है । पर यह तो हकीकत है कि अच्छा साहित्य हमारा सच्चा साथी है। मैं कई बार भोजन करना भूल जाता था, पर उपन्यास पूरी होने के बाद बड़ा सुकून मिलता था । अब मैं फिर उस दुनिया में खो जाना चाहता हूँ । मेरे जैसे पाठकों के लिए ही शायद रचनाकारों ने साहित्य ,संस्मरण, दर्शन आदि की रचना की है।
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