कल शाम को जनसत्ता के सम्पादक
श्री ओम थानवी का नया आलेख "
अपने पराए" पढ़ा तो बहुत देर तक मन क्षुब्ध रहा. आलेख का प्रारम्भ में है इफ्तिखार गीलानी की नई पुस्तक के लोकार्पण के अवसर पर, गीलानी जी के जेल में डाले जाने और उस स्थिति में भारतीय पत्रकारिता के आचरण के बारे में थानवी जी के विचार.
इफ्तिख़ार बड़े अफ़सोस भरे स्वर में कहते हैं कि जेल में उन्होंने जो अत्याचार झेला, वह "मीडिया ट्रायल" का नतीजा था. "पत्रकार के शब्द लोग इतना भरोसा करते हैं, इसका अहसास मुझे पहले न था. और न इसका कि हम अपने फर्ज को कितने हलके ढंग से लेते हैं.
आलेख के अंतिम भाग में थानवी जी ने भारतीय पत्रकारिता समाज के बढ़ते बेहाल की चर्चा की है.
कुछ अखबारों का सारा सम्पादकीय विवेक तो जैसे इस फिक्र में सिमट कर रह गया है कि दुनिया के किस कोने में शराब की कैसी महक पाई जाती है या किस सात तारा होटल का खानसामा झींगामछली किस हुनर से पकाता है... अँग्रेजी मानसिकता में, साहित्य हो चाहे पत्रकारिता, हिंदी वालों को किस तिरस्कार से देखा जाता है, हम सब जानते हैं....
शायद आप कहेंगे कि इसमें नया क्या है? विश्वीकरण के साथ जुड़े उपभोक्तावाद की संस्कृति की वजह से समाचार पत्रों का और नामनीय सम्पादकों का सभ्यता छोड़ कर पन्ने बेच कर विज्ञापन बनाने और उत्पादन बढ़ाने का लालच आसानी से समझा जा सकता है. हिंदी बोलने वाले उपभोक्ताओं से पैसे तो कमाये जा सकते हैं पर उच्च स्तर की फर्राटेदार अँग्रेजी न बोल पाने वालों को तो नीचा समझा ही जाता है. जात पात और वर्ग भेद की आकुण्ठाओं से जकड़े भारतीय समाज को इस सब की आदत है. हिंदी बोलने वालों के मन में अक्सर विश्वास है कि वे हीन हैं तो इसका फायदा अँग्रेज़ी का "सभ्य" समाज उठाये तो उसमे अचरज क्यों?
सुनील जी, लेख पढकर दूख हुआ।
जवाब देंहटाएंभारतिय मिडीया, अपने मुल्यो को खो चुका है, इन्हे सिर्फ और सिर्फ सनसनी बनाना आता है।
क्या चिज दिखाना चाहिये , क्या नही ये तय करने का विवेक खो चुका है। मानविय संवेदना तो है ही नही इनके पास.
जब व्यावसायिकता की अंधी होड़ लगी हो तो संपादकीय विवेक शून्य हो ही जाता है। इसीलिए जब कोई व्यवस्था से पूरी तरह हताश हो चुका व्यक्ति अपने शरीर पर पेट्रोल डालकर आग लगाकर आत्महत्या कर रहा होता है तब मीडिया उसकी लाइव तस्वीर दिखाने में बेशर्मी महसूस नहीं करता। मीडिया की बेशर्मी बढ़ती जा रही है। ओम थानवी जी की टिप्पणी से उन बेशर्म पत्रकारों पर कोई सकारात्मक असर पड़ने की संभावना क्षीण ही है। जनसत्ता में ही उनसे पहले अच्युत्तानंद मिश्र संपादक हुआ करते थे, जिन्होंने लालच और दबाव में आकर पत्रकारिता का गला घोंटने की बेशर्म कोशिश की थी, जिसके लिए उन्हें जनसत्ता से निकाल दिया गया था।
जवाब देंहटाएंलिंक देने का धन्यवाद - श्री ओम थानवी का लेख वाकई ज़बरदस्त है - धन्यवाद
जवाब देंहटाएंउदास हो गया मन, कहाँ से कहाँ आ गये. लिंक का धन्यवाद
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